लाम-रिम की शिक्षा देने के बारे में दलाई लामा के सुझाव

लाम-रिम और चार आर्य सत्य

डा. बर्ज़िन: पूर्वी यूरोप में लाम-रिम की शिक्षा देने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? परम पावन आपने लामा-चोपा (आध्यात्मिक गुरुजन के लिए अर्पण अनुष्ठान, गुरु पूजा) के बारे में उपदेश देते समय चार आर्य सत्यों और मध्यवर्ती स्तर से शुरुआत करने का सुझाव दिया था। क्या आप इसकी विस्तार से व्याख्या करेंगे? इसके अलावा “गुरु भक्ति” और आरम्भिक साधनाओं के बारे में आप क्या सलाह देना चाहेंगे। साम्यवादी देशों में रहने वाले लोग पूजा वेदी पर न तो बुद्ध की तस्वीरों को प्रदर्शित कर सकते हैं और न ही जल से भरी कटोरियाँ सजा सकते हैं क्योंकि यह सब बड़ा संदेहास्पद प्रतीत होता है।

मैं मानता हूँ कि केवल साम्यवादी देशों में ही नहीं बल्कि दूसरी सभी जगहों पर चार आर्य सत्यों से ही शुरुआत करना श्रेयस्कर होगा।

मूलतः चार आर्य सत्यों को दो स्तरों पर समझा जा सकता है [दुख से अस्थायी मुक्ति के स्तर पर और दुख से वास्तविक मुक्ति के स्तर पर। अस्थायी मुक्ति को लक्षित करना लाम-रिम प्रेरणा का आरम्भिक स्तर है। वास्तविक मुक्ति को लक्षित करना – भले ही वह संसार चक्र से मुक्ति की कामना हो या पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति की कामना हो – प्रेरणा का मध्यवर्ती और उन्नत स्तर होता है।]

अस्थायी मुक्ति का लक्ष्य निर्धारित करना

पहले स्तर पर:

  1. आसक्ति और क्रोध की प्रेरणा से कर्म करते हुए हम अपुण्य अर्जित करते हैं। इसके कारण हमें विभिन्न प्रकार की निम्नतर अवस्थाओं में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। यहाँ यथार्थ दुख से आशय तीन निम्नतर अवस्थाओं [निरानंद गतियों (नरकों) में फंसे सत्वों, प्रेत गति और तिर्यग गति] से है।
  2. ऐसा व्यवहारगत कारण और प्रभाव (कर्म) के बारे में अज्ञान पर आधारित विनाशकारी व्यवहार के कारण होता है। दुख के यथार्थ कारण के रूप में इसकी चर्चा करें।
  3. इस दुख से मुक्ति की इच्छा करना ही निम्नतर पुनर्जन्म की गतियों से अपने आप को मुक्त करने की दिशा में आरम्भिक कदम है। सत्य निरोध के रूप में इस प्रकार की मुक्ति के बारे में बताएं।
  4. इसकी प्राप्ति दस विनाशकारी (अपुण्य) कृत्यों से दूर रहने के नैतिक आत्मानुशासन की सहायता से होती है। सत्य मार्ग के रूप में इसकी जानकारी दें। इस प्रकार ये चार आर्य सत्य हैं।

यानी, चार आर्य सत्यों की रूपरेखा बताएं। उसके बाद, चार आर्य सत्यों की उस रूपरेखा में, लाम-रिम की आरम्भिक प्रेरणा के स्तर पर हम पहली श्रेणी के रूप में निम्नतर गतियों में पुनर्जन्म को आधार के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार दुख आर्य सत्य के रूप में निम्नतर गतियों के दुखों के बारे में बताएं। उसके बाद बेहतर गतियों में पुनर्जन्म के वास्तविक सुख और आनन्द की प्राप्ति को मुक्ति के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करें। इसे एक प्रकार की मुक्ति, उस दुख से मुक्ति का यथार्थीकरण कहा जा सकता है, है न? यह एक प्रकार की अस्थायी मुक्ति है। इसके बाद, इस दुख के कारणों यानी नकारात्मक कृत्यों से मुक्ति दिलाने वाले मार्ग तक पहुँचाने वाले कारण और प्रभाव के दो सिद्धांत हैं। निम्नतर पुनर्जन्म की अवस्थाओं में दुख भोगने की दृष्टि से किसी छोटे से कारण से भी बड़े-बड़े परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं और, यदि हम कोई कृत्य करते हैं तो वह व्यर्थ नहीं जाएगा, बल्कि उसका कोई न कोई परिणाम अवश्य उत्पन्न होगा। यदि हम अपने किसी कर्म के परिणाम की शुद्धि नहीं करते हैं तो हमारा विनाशकारी व्यवहार अन्ततः दुख में परिणत होगा। यह विचार हमें चार आर्य सत्यों के शुद्धिकरण वाले पक्ष की ओर ले जाता है, दुख और उसके कारणों से अलग करने की दिशा में ले जाता है, और इस लक्ष्य की प्राप्ति वाले मार्ग की ओर ले जाता है। इस प्रकार हमें चार आर्य सत्यों की प्राप्ति होती है, है न? इसलिए लाम-रिम की शिक्षा देते समय चार आर्य सत्यों और मुक्त होने की इच्छा पर प्रमुखता से बल दिए जाने की आवश्यकता होती है।

और फिर उससे भी बढ़कर शरणागति की बात आती है। यह सबसे अच्छी चीज़ है, है न? अन्यथा, यदि हम चार आर्य सत्यों को धर्म के सार के रूप में महत्व न दें तो फिर हम मानव के रूप में मिले पुनर्जन्म में किस चीज़ को महत्वपूर्ण कहेंगे? चार आर्य सत्यों के संदर्भ के बिना यदि हम मनुष्य के रूप में अपने बहुमूल्य पुनर्जन्म के बारे में विचार करें तो हम केवल यही निष्कर्ष निकाल सकेंगे कि मानव शरीर बहुत महत्वपूर्ण है, और यह कोई बहुत बड़े महत्व की बात नहीं है।

लामद्रे (मार्ग तथा उसके परिणाम) की संरचना कुछ इस प्रकार है। चार आर्य सत्यों को चित्त में धारण करके, पहले, हमें दुःख  पर विचार करना होगा, और उसके पश्चात ही पूर्णतः सम्पन्न मानव पुनर्जन्म के विषय में। यह, मेरे विचार में बहुत अच्छा रहेगा। आखिरकार, बुद्ध ने पहले चार आर्य सत्यों की ही शिक्षा दी थी। इसी प्रकार आप कर सकते हैं  जिसमें लाम-रिम के मध्यवर्ती तथा उन्नत स्तर चार आर्य सत्यों में समा सकें ताकि वास्तविक निर्वाण की प्राप्ति हो सके।

वास्तविक मुक्ति की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित करना

परम पावन, आप प्रारम्भ से ही मध्यवर्ती स्तर पर भी बल देते हैं, क्या इसका मतलब अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों पर और चित्त की व्याख्या पर बल देना है?

हाँ, यही सबसे अच्छा है। यदि आप पहले ही इस बात का विश्वास हासिल न करें कि मुक्ति को हासिल कर पाना सम्भव है, तो धर्म की उत्पत्ति ही नहीं होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें यह निश्चित बोध होना आवश्यक है कि अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण (यथार्थ दुख और यथार्थ कारण) अस्थायी हैं, कि चित्त की प्रकृति शुद्ध है (सहज यथार्थ निरोध), और इसलिए अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों को हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर पाना (सत्य मार्ग की सहायता से सत्य निरोध की प्राप्ति) सम्भव है।

इसके अलावा, जहाँ तक उन्नत स्तर का सम्बंध है, यहाँ प्रेम, करुणा और बोधिचित्त के बारे में थोड़ा बता देना अच्छा रहेगा। लोग भले ही इस बात को स्वीकार करें या न करें कि हमारे पिछले जन्म होते हैं या अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है, तब भी इस जन्म में भी किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेमयुक्त होना, दूसरों के साथ सद्भावपूर्वक रहना बहुत महत्वपूर्ण है।

[देखें: धर्म-लाइट बनाम यथार्थ धर्म]

और फिर, चार अप्रमाणों के बारे में विचार करना अच्छा रहता है – यह कामना कि सभी सत्व दुख से मुक्त हों, सुख को प्राप्त करें, दुख के कारणों से मुक्त हों, और सुख से पृथक न हों। इसके बाद, स्वयं अपने और दूसरों के बारे में दृष्टिकोणों को समान किए जाने और अदल-बदल किए जाने के बारे में बताएं। यानी, स्वयं को महत्वपूर्ण समझना ही सभी समस्याओं का द्वार है, दूसरों को महत्वपूर्ण समझना सभी सद्गुणों का आधार है, और जब हम इन दो बातों का बोध हासिल कर लें तो समाज को लाभ पहुँचाने के लिए कार्य करें।

[देखें: अपने और दूसरों के बारे में दृष्टिकोण को समान करने और उसकी अदला-बदली करने]

लाम-रिम में “गुरु भक्ति” का स्थान

क्या गुरु भक्ति का उल्लेख करने की कोई आवश्यकता है? उनके कोई गुरु नहीं हैं।

जब हम शरणागति लेते हैं तो वास्तविक शरण धर्म के सत्य निरोध और सत्य मार्ग के बहुमूल्य रत्न की होती है। धर्म रत्न को अपने मानसिक सातत्य पर धारण करने के लिए हमें उसे विकसित करने की विधियों की आवश्यकता होती है और हमें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो व्याख्याओं और वैयक्तिक उदाहरण के माध्यम से यह इंगित कर सके कि धर्म रत्न की वास्तविक स्थिति क्या होती है। हमें मित्रों, संघ, यानी ऐसे लोगों की भी आवश्यकता होती है जो धर्म के रत्न को सही ढंग से यथार्थ रूप दे रहे हों और किसी हद तक इस कार्य में सफलता हासिल कर चुके हों।

उस स्थिति में हम प्रश्न पूछते हैं कि गुरु के अलावा और कौन ऐसा हो सकता है जो धर्म के मार्ग को दर्शा सके, हमें पता चलता है कि दर्शाने वाले व्यक्ति के लिए तिब्बती भाषा में प्रयुक्त शब्दतेन्पा का प्रयोग शिक्षक के लिए भी किया जाता है। धर्म की ओर इंगित करने वाले किसी शिक्षक के बिना हम अभ्यास साधना नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार हम गुरु तक पहुँचते हैं।

गुरु के बारे में चर्चा करना और उसके साथ सम्बंध के बारे में हमारे पारम्परिक लाम-रिम में बताए गए अनुसार चर्चा करना न तो आवश्यक है और न ही उसका कोई लाभ है। इसे एक सामान्य स्तर पर ही रहने दें। हमें शिक्षा देने वाले गुरु का महत्व होता है इसलिए ग्रंथों में ऐसे व्यक्ति की योग्यताओं की चर्चा की गई है। इसके बाद, विनय, महायान सूत्रों, आदि में बताए गए अनुसार शिक्षक के विभिन्न स्तरों के आधार पर आध्यात्मिक शिक्षक के गुणों के बारे में चर्चा करना उपयुक्त है।

पिछली बार मैं जब पूर्वी यूरोप में था तब वहाँ मैंने बहुमूल्य मानव जीवन के बारे में व्याख्या की थी। मैंने पाया कि इन देशों में से बहुत से लोग अपने बारे में इस बात को लेकर दुखी थे कि साम्यवादी व्यवस्था के अधीन वे अपने जीवन में कुछ सार्थक नहीं कर पा रहे थे। मैंने ऐसा महसूस किया कि उन्होंने बहुमूल्य मानव जीवन के बारे में शिक्षाओं को बहुत पसंद किया था।

बहुत अच्छा। यही सही दृष्टिकोण है।

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