लाम-रिम:धर्म–लाइट एवं मूल धर्म व्‍याख्‍याएं

शिक्षाओं के श्रवण का आरंभिक अभ्‍यास

आइए इस अधिवेशन को कुछ आरंभिक अभ्‍यास से आरंभ करें। पहले शांत होने के लिए हम श्‍वास पर केन्द्रित हों। हम नाक से सामान्‍य रूप से श्‍वास लें। यदि हमारा चित्‍त बहुत भटक रहा है तो हम श्‍वास के चक्र की गणना करें। यदि हमारा चित्‍त पर्याप्‍त रूप से शांत है तो हम केवल श्‍वास एवं प्रश्‍वास की अनुभूति पर ध्‍यान केन्द्रित करें।

इसके बाद हम अपनी प्रेरणा का प्रतिज्ञान करे, जिसका अर्थ है कि हम अपने लक्ष्‍य की पुन: पुष्टि करें। यहाँ आने का ध्‍येय यह है कि हम जीवन में एक सुरक्षित और सकारात्‍मक दिशा में जाएं, ऐसी दिशा जिसमें हम आत्‍म-सुधार करके अपनी समस्‍याओं तथा उनके कारणों पर विजय प्राप्‍त करें एवं अपनी संभावनाओं को सिद्ध करें। हम क्रमिक पथ की अवस्‍थाओं अर्थात लाम-रिम को सीखना चाहते हैं, ताकि हम इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त कर सकें। हम इसे “धर्म-लाइट”के रूप में कर सकते हैं, जिसे हम अपना जीवन सुधारने के लिए और एक सोपान के रूप में अपनाना चाहते हैं ताकि कालांतर में अपने भावी जीवन को सुधार सकें और अंतत: संबोधि एवं ज्ञानोदय प्राप्‍त कर सकें। नि:संदेह, इसके लिए आवश्‍यक है कि हमें भावी जीवन, संबोधि एवं ज्ञानोदय का बुनियादी बोध हो, अथवा कम से कम उनके बोध के महत्‍व की स्‍वीकृति हो और उन्‍हें समझने की प्रेरणा हो। अथवा हम इसे“मूल धर्म”की प्रेरणा से कर सकते हैं ताकि अनियंत्रित रूप से बार-बार होने वाले जन्‍म से मुक्ति पा सकें और बुद्ध की ज्ञानोदय अवस्‍था तक पहुंच सकें ताकि हम सब की इस तक पहुंचने में सहायता कर सकें। चाहे हम किसी भी सोपान पर क्‍यों न हों, हम केवल आत्‍म हित के लिए नहीं परन्‍तु सबके हित के लिए ऐसा करना चाहते हैं।

[देखें : धर्म-लाइट बनाम यथार्थ धर्म]

अधिक स्‍पष्‍ट रूप से कहा जाए तो हम यहां क्रमिक पथ का अध्‍ययन करने आए हैं ताकि बुद्ध, धर्म और संघ की सुरक्षित दिशा में आगे बढ़ सकें। दूसरे शब्‍दों में, हम धर्म शरणागति की सुरक्षित दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। धर्म शरणागति का तात्‍पर्य है हमारी समस्‍याओं तथा उनके कारणों का सत्‍य अवरोधन एवं सत्‍य मार्ग का अनुसरण, नामत: वास्‍तविकता का सही बोध जो सत्‍य अवरोधन तक ले जाएगा और जो हमें अपनी सभी संभावनाओं को पूर्णत: सिद्ध करने में सहायक होगा। क्रमिक मार्ग के बारे में जानकर हम इस दिशा में आगे बढ़ पाएंगे जिस मार्ग पर बुद्धजन पूर्ण रूप से आगे बढ़ सके एवं आर्य संघ (वे जिन्‍होंने यथार्थ का निर्वेचारिक बोध प्राप्‍त किया) ने आंशिक रूप से किया। हम ऐसा करुणामय होकर करते हैं, इस इच्‍छा सहित कि दूसरों की सहायता कर सकें जिससे वे अपनी समस्‍याओं और उनके सत्‍य कारणों पर नियंत्रण पा सकें। उनकी भरसक सहायता करने के लिए, हमें बुद्धजन बनना होगा। अत:, संक्षेप में हमारे भीतर बोधिचित्‍त प्रेरणा भी है और हम इस पथ की क्रमिक अवस्‍थाओं के बारे में जानना चाहते हैं ताकि हम सबकी अधिक से अधिक सहायता कर सकें।

चित्‍त में इस लक्ष्‍य को धारण करके, हम सप्‍तांग प्रार्थना करते हैं। पहले, हम साष्‍टांग दंडवत की कल्‍पना करते हैं। हम पूरी तरह उस दिशा में स्‍वयं को समर्पित कर देते हैं, उन लोगो के प्रति श्रद्धाभाव सहित जो इस दिशा में गए और इन लक्ष्‍यों को सिद्ध किया, स्‍वयं अपने भावी ज्ञानोदय के प्रति श्रद्धाभाव सहित जिसे हम बोधिचित्‍त के माध्‍यम से प्राप्‍त करना चाह रहे हैं और स्‍वयं अपनी बुद्ध-प्रकृति की क्षमताओं के प्रति श्रद्धाभाव सहित जो हमें इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में सहायक होंगी।

हम चढ़ावे चढ़ाते हैं। हम सब कुछ समर्पित करने के लिए तत्‍पर हैं- अपना समय, अपनी ऊर्जा, अपना हृदय – ताकि हम आगे से आगे बढ़ कर दूसरों के लिए अधिक से अधिक सहायक हो सकें।

शाक्य आचार्य चोग्‍याल पगपा की शैली में, हम एकाग्रता की भेंट चढ़ाते हैं, जिसका तात्‍पर्य अपनी साधना के विभिन्‍न आयामों को अर्पित करना है। दूसरों की भलाई के लिए हम वह सब अर्पित करते हैं जिसका हमने अध्‍ययन किया है और जिसे हम जल के रूप में अर्पित करते हैं। हमने जो कुछ भी अध्‍ययन किया है हम चाहते हैं कि वह दूसरों के काम आए। इससे आगे, हमने जो भी ज्ञान प्राप्‍त किया है इस अध्‍ययन से, उसे हम पुष्‍पों के रूप में अर्पित करते हैं। इस ज्ञान के आधार पर ध्‍यान साधना करने का अनुशासन हम धूप-लोबान के सुगंधित धूम के रूप में अर्पित करते हैं। हमने अपनी अनुशासित साधना से जो अंतर्दृष्टि प्राप्‍त की है उसे हम मोमबत्तियों और मक्खन के दीपकों के प्रकाश के रूप में अर्पित करते हैं। इन अंतर्दृष्टियों से हम जो दृढ़ आस्‍था प्राप्‍त करते हैं उसे हम स्‍फूर्तिदायक सुगंधित जल के रूप में अर्पित करते हैं। दृढ़ आस्‍था के बल पर जो एकाग्रता हमने प्राप्‍त की है, जो शंकाओं से मुक्‍त है, उसे हम खाद्य सामग्री के रूप में अर्पित करते हैं। इन सबके आधार पर दूसरों को दिए गए स्‍पष्‍टीकरण हम संगीत के रूप में अर्पित करते हैं।

इसके बाद, अपने प्रति पूरी तरह ईमानदार रहते हुए हम मुक्‍त मन से स्‍वीकार करते हैं कि इस प्रकार के पथ पर चलने में हमारे सामने कठिनाइयां आती हैं। कई बार हम ध्‍यान साधना नहीं करना चाहते। हम नहीं समझ पाते कि यह ध्‍यान साधना करना हमारे लिए क्‍यों आवश्‍यक है। हम क्रोधित हो जाते हैं, हम स्‍वार्थी हो जाते हैं, हम लोभी और आसक्‍त हो जाते हैं, इत्‍यादि। कभी कभी हम वास्‍तव में नहीं समझ पाते कि हम अपने जीवन का कर क्‍या रहे हैं। हमें उस पर खेद होता है। हम वास्‍तव में चाहते हैं कि काश हम ऐसे न होते। हम वास्‍तव में चेष्‍टा करते हैं कि उस पर नियंत्रण पा लें और वैसी बातें फिर न करें। तो हम जिस सकारात्‍मक दिशा में जा रहे हैं उसका प्रतिज्ञान करते हैं, इस क्रमिक पथ के विषय में हमने जो सीखा है, हम उसे अपनी कठिनाइयों और समस्‍याओं पर नियंत्रण पाने के लिए लागू करने की चेष्‍टा करेंगे।

हम इस बात पर आनंदित होते हैं कि हमारी बुद्ध-प्रकृति है, हमारे भीतर अपनी कठिनाइयों और उनके कारणों को नियंत्रित करने और अपनी संभावनाओं को फलीभूत करने की क्षमता है। चित्‍त की प्रकृति निर्मल है। हमारी कठिनाइयाँ अथवा भ्रम बहुत गहरे नहीं होते। वे किसी धूम्रपान करने वाले व्‍यक्ति की सांस में बसी तम्‍बाकू की गंध की भांति होते हैं। वे कृत्रिम होते हैं। उनकी उपस्थिति अस्‍थाई है, वे गुजर जाएंगे। वे हमारी गहनतम प्रकृति नहीं हैं। हम सबकी बुद्ध-प्रकृति है। हम सबके भीतर अपना विकास करने की क्षमता है। हम उसमें आनंदित होते हैं।

हम उन बुद्धजन एवं महान आचार्यों के विषय में सोच कर हर्षित होते हैं जो अपनी सम्‍पूर्ण बुद्ध प्रकृति की क्षमता को सिद्ध कर सके। हम इस बात पर भी हर्षित होते हैं कि उन्‍होंने हमें सिखाया कि हम उस पथ का अनुसरण कर सकें : “यह वास्‍तव में अद्भुत है। धन्‍यवाद्” हम गुरूजन से अनुरोध करते हैं:“कृपा करें, मैं सीखना चाहता हूं। मुझे वास्‍तव में सीखने की आवश्‍यकता है। मैं इसलिए सीखना चाहता हूँ कि मैं स्‍वयं अपनी और दूसरों की सहायता कर सकूं।” हम उनसे कहते हैं कि वे बने रहें : “मैं इसके विषय में गंभीर हूँ। कृपया चले मत  जाइएगा। कृपया दिवंगत न हो जाएं। मैं ज्ञानोदय के पथ की पूरी यात्रा करना चाहता हूं। मैं धर्म पथ का मात्र एक सैलानी नहीं हूँ।”

अंत में, जो कुछ भी हमने समझा तथा सकारात्‍मक ऊर्जा निर्मित की इन आरंभिक साधनाओं से और शिक्षाओं को समझकर और उनका अनुशीलन करके, ऐसा हो कि ये बुद्ध बनने में कारक सिद्ध हों ताकि हम दूसरों की वास्‍तव में बढ़चढ़ कर सहायता कर सकें। ये मात्र हमारे अपने संसार को सुधारने के कारक न बने।

इसके पश्‍चात् हम समझबूझ कर निर्णय करते हैं कि हम एकाग्र होकर सुनें। यदि हमारा ध्‍यान भटकता है, हम उसे फिर एकाग्र करेंगे। यदि हम उनींदे होने लगें, तो हम अपने को जगाएंगे। अपने चित्‍त को निर्मल बनने में सहायता करेंगे। अपनी भंगिमा को सही करेंगे और सीधे होकर बैठेंगे। परन्‍तु अकड़कर नहीं। फिर अपनी ऊर्जा को उन्‍नत करने के लिए यदि वह शिथिल हो हम अपनी भौहों के बीच के बिन्दु पर ध्‍यान केन्द्रित करेंगे, आंखें ऊपर की ओर देखेंगी और सिर सीध में रहेगा।

फिर अंत में यदि हम कुछ घबरा रहे हैं अथवा तनाव में हैं, तो हमें अपनी ऊर्जा को स्थित करना होगा। वैसा करने के लिए, हम अपनी नाभि पर ध्‍यान केन्द्रित करेंगे, हमारी आंखें नीचे की ओर देखेंगी, परन्‍तु सिर सीधा रहेगा और हम सामान्‍य रूप से श्‍वास लेते रहेंगे, फिर हम सांस रोक लेंगे जब तक कि उसे बाहर छोड़ने की आवश्‍यकता न हो।

यदि हम इन आरंभिक साधनाओं के सार तत्‍व को वास्‍तव में समझ लें और उन्‍हें केवल खोखली रस्‍म की तरह न निभाएं तो हम पूरे मनोयोग से इन्‍हें करते हुए इनसे बहुत गहरी प्रेरणा प्राप्‍त कर सकते हैं। यह किसी की आराधना करने का भक्ति योग नहीं है, अपितु यह ऐसी साधना है जो हमारी ऊर्जा को सकारात्‍मक दिशा में ले जाती है और आत्‍म सुधार करने के लिए हमें अधिक ग्रहणशील बनाती है ताकि हम सीखें और आगे बढ़ें। यही बात है। यही कारण है कि इन्‍हें “आरंभिक साधनाएं”कहते हैं। जब हम इसका अध्‍ययन करते हैं और इस पथ की क्रमिक अवस्‍थाओं का अ‍भ्‍यास करते हैं, हम सदैव इस बात पर बल देते हैं कि किसी भी ध्‍यान साधना सत्र का आरंभ इस आरंभिक तैयारी से किया जाए। यह हमें अत्‍यंत ग्रहणशील बनाती है। हम वास्‍तव में कुछ सीखने के लिए समझने का प्रयास करते हैं। तो इन आरंभिक साधनाओं के माध्‍यम से पूरे मनोयोग से इसमें जुट जाते हैं। चाहे हम इससे आगे की ध्‍यान साधना न भी कर पाएं तो भी यह आरंभिक तैयारी अपने आप में एक दैनिक साधना के रूप में अत्‍यंत हितकारी है।

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