लाम-रिम:धर्म–लाइट एवं मूल धर्म व्‍याख्‍याएं

शिक्षाओं के श्रवण का आरंभिक अभ्‍यास

आइए इस अधिवेशन को कुछ आरंभिक अभ्‍यास से आरंभ करें। पहले शांत होने के लिए हम श्‍वास पर केन्द्रित हों। हम नाक से सामान्‍य रूप से श्‍वास लें। यदि हमारा चित्‍त बहुत भटक रहा है तो हम श्‍वास के चक्र की गणना करें। यदि हमारा चित्‍त पर्याप्‍त रूप से शांत है तो हम केवल श्‍वास एवं प्रश्‍वास की अनुभूति पर ध्‍यान केन्द्रित करें।

इसके बाद हम अपनी प्रेरणा का प्रतिज्ञान करे, जिसका अर्थ है कि हम अपने लक्ष्‍य की पुन: पुष्टि करें। यहाँ आने का ध्‍येय यह है कि हम जीवन में एक सुरक्षित और सकारात्‍मक दिशा में जाएं, ऐसी दिशा जिसमें हम आत्‍म-सुधार करके अपनी समस्‍याओं तथा उनके कारणों पर विजय प्राप्‍त करें एवं अपनी संभावनाओं को सिद्ध करें। हम क्रमिक पथ की अवस्‍थाओं अर्थात लाम-रिम को सीखना चाहते हैं, ताकि हम इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त कर सकें। हम इसे “धर्म-लाइट”के रूप में कर सकते हैं, जिसे हम अपना जीवन सुधारने के लिए और एक सोपान के रूप में अपनाना चाहते हैं ताकि कालांतर में अपने भावी जीवन को सुधार सकें और अंतत: संबोधि एवं ज्ञानोदय प्राप्‍त कर सकें। नि:संदेह, इसके लिए आवश्‍यक है कि हमें भावी जीवन, संबोधि एवं ज्ञानोदय का बुनियादी बोध हो, अथवा कम से कम उनके बोध के महत्‍व की स्‍वीकृति हो और उन्‍हें समझने की प्रेरणा हो। अथवा हम इसे“मूल धर्म”की प्रेरणा से कर सकते हैं ताकि अनियंत्रित रूप से बार-बार होने वाले जन्‍म से मुक्ति पा सकें और बुद्ध की ज्ञानोदय अवस्‍था तक पहुंच सकें ताकि हम सब की इस तक पहुंचने में सहायता कर सकें। चाहे हम किसी भी सोपान पर क्‍यों न हों, हम केवल आत्‍म हित के लिए नहीं परन्‍तु सबके हित के लिए ऐसा करना चाहते हैं।

[देखें : धर्म-लाइट बनाम यथार्थ धर्म]

अधिक स्‍पष्‍ट रूप से कहा जाए तो हम यहां क्रमिक पथ का अध्‍ययन करने आए हैं ताकि बुद्ध, धर्म और संघ की सुरक्षित दिशा में आगे बढ़ सकें। दूसरे शब्‍दों में, हम धर्म शरणागति की सुरक्षित दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। धर्म शरणागति का तात्‍पर्य है हमारी समस्‍याओं तथा उनके कारणों का सत्‍य अवरोधन एवं सत्‍य मार्ग का अनुसरण, नामत: वास्‍तविकता का सही बोध जो सत्‍य अवरोधन तक ले जाएगा और जो हमें अपनी सभी संभावनाओं को पूर्णत: सिद्ध करने में सहायक होगा। क्रमिक मार्ग के बारे में जानकर हम इस दिशा में आगे बढ़ पाएंगे जिस मार्ग पर बुद्धजन पूर्ण रूप से आगे बढ़ सके एवं आर्य संघ (वे जिन्‍होंने यथार्थ का निर्वेचारिक बोध प्राप्‍त किया) ने आंशिक रूप से किया। हम ऐसा करुणामय होकर करते हैं, इस इच्‍छा सहित कि दूसरों की सहायता कर सकें जिससे वे अपनी समस्‍याओं और उनके सत्‍य कारणों पर नियंत्रण पा सकें। उनकी भरसक सहायता करने के लिए, हमें बुद्धजन बनना होगा। अत:, संक्षेप में हमारे भीतर बोधिचित्‍त प्रेरणा भी है और हम इस पथ की क्रमिक अवस्‍थाओं के बारे में जानना चाहते हैं ताकि हम सबकी अधिक से अधिक सहायता कर सकें।

चित्‍त में इस लक्ष्‍य को धारण करके, हम सप्‍तांग प्रार्थना करते हैं। पहले, हम साष्‍टांग दंडवत की कल्‍पना करते हैं। हम पूरी तरह उस दिशा में स्‍वयं को समर्पित कर देते हैं, उन लोगो के प्रति श्रद्धाभाव सहित जो इस दिशा में गए और इन लक्ष्‍यों को सिद्ध किया, स्‍वयं अपने भावी ज्ञानोदय के प्रति श्रद्धाभाव सहित जिसे हम बोधिचित्‍त के माध्‍यम से प्राप्‍त करना चाह रहे हैं और स्‍वयं अपनी बुद्ध-प्रकृति की क्षमताओं के प्रति श्रद्धाभाव सहित जो हमें इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में सहायक होंगी।

हम चढ़ावे चढ़ाते हैं। हम सब कुछ समर्पित करने के लिए तत्‍पर हैं- अपना समय, अपनी ऊर्जा, अपना हृदय – ताकि हम आगे से आगे बढ़ कर दूसरों के लिए अधिक से अधिक सहायक हो सकें।

शाक्य आचार्य चोग्‍याल पगपा की शैली में, हम एकाग्रता की भेंट चढ़ाते हैं, जिसका तात्‍पर्य अपनी साधना के विभिन्‍न आयामों को अर्पित करना है। दूसरों की भलाई के लिए हम वह सब अर्पित करते हैं जिसका हमने अध्‍ययन किया है और जिसे हम जल के रूप में अर्पित करते हैं। हमने जो कुछ भी अध्‍ययन किया है हम चाहते हैं कि वह दूसरों के काम आए। इससे आगे, हमने जो भी ज्ञान प्राप्‍त किया है इस अध्‍ययन से, उसे हम पुष्‍पों के रूप में अर्पित करते हैं। इस ज्ञान के आधार पर ध्‍यान साधना करने का अनुशासन हम धूप-लोबान के सुगंधित धूम के रूप में अर्पित करते हैं। हमने अपनी अनुशासित साधना से जो अंतर्दृष्टि प्राप्‍त की है उसे हम मोमबत्तियों और मक्खन के दीपकों के प्रकाश के रूप में अर्पित करते हैं। इन अंतर्दृष्टियों से हम जो दृढ़ आस्‍था प्राप्‍त करते हैं उसे हम स्‍फूर्तिदायक सुगंधित जल के रूप में अर्पित करते हैं। दृढ़ आस्‍था के बल पर जो एकाग्रता हमने प्राप्‍त की है, जो शंकाओं से मुक्‍त है, उसे हम खाद्य सामग्री के रूप में अर्पित करते हैं। इन सबके आधार पर दूसरों को दिए गए स्‍पष्‍टीकरण हम संगीत के रूप में अर्पित करते हैं।

इसके बाद, अपने प्रति पूरी तरह ईमानदार रहते हुए हम मुक्‍त मन से स्‍वीकार करते हैं कि इस प्रकार के पथ पर चलने में हमारे सामने कठिनाइयां आती हैं। कई बार हम ध्‍यान साधना नहीं करना चाहते। हम नहीं समझ पाते कि यह ध्‍यान साधना करना हमारे लिए क्‍यों आवश्‍यक है। हम क्रोधित हो जाते हैं, हम स्‍वार्थी हो जाते हैं, हम लोभी और आसक्‍त हो जाते हैं, इत्‍यादि। कभी कभी हम वास्‍तव में नहीं समझ पाते कि हम अपने जीवन का कर क्‍या रहे हैं। हमें उस पर खेद होता है। हम वास्‍तव में चाहते हैं कि काश हम ऐसे न होते। हम वास्‍तव में चेष्‍टा करते हैं कि उस पर नियंत्रण पा लें और वैसी बातें फिर न करें। तो हम जिस सकारात्‍मक दिशा में जा रहे हैं उसका प्रतिज्ञान करते हैं, इस क्रमिक पथ के विषय में हमने जो सीखा है, हम उसे अपनी कठिनाइयों और समस्‍याओं पर नियंत्रण पाने के लिए लागू करने की चेष्‍टा करेंगे।

हम इस बात पर आनंदित होते हैं कि हमारी बुद्ध-प्रकृति है, हमारे भीतर अपनी कठिनाइयों और उनके कारणों को नियंत्रित करने और अपनी संभावनाओं को फलीभूत करने की क्षमता है। चित्‍त की प्रकृति निर्मल है। हमारी कठिनाइयाँ अथवा भ्रम बहुत गहरे नहीं होते। वे किसी धूम्रपान करने वाले व्‍यक्ति की सांस में बसी तम्‍बाकू की गंध की भांति होते हैं। वे कृत्रिम होते हैं। उनकी उपस्थिति अस्‍थाई है, वे गुजर जाएंगे। वे हमारी गहनतम प्रकृति नहीं हैं। हम सबकी बुद्ध-प्रकृति है। हम सबके भीतर अपना विकास करने की क्षमता है। हम उसमें आनंदित होते हैं।

हम उन बुद्धजन एवं महान आचार्यों के विषय में सोच कर हर्षित होते हैं जो अपनी सम्‍पूर्ण बुद्ध प्रकृति की क्षमता को सिद्ध कर सके। हम इस बात पर भी हर्षित होते हैं कि उन्‍होंने हमें सिखाया कि हम उस पथ का अनुसरण कर सकें : “यह वास्‍तव में अद्भुत है। धन्‍यवाद्” हम गुरूजन से अनुरोध करते हैं:“कृपा करें, मैं सीखना चाहता हूं। मुझे वास्‍तव में सीखने की आवश्‍यकता है। मैं इसलिए सीखना चाहता हूँ कि मैं स्‍वयं अपनी और दूसरों की सहायता कर सकूं।” हम उनसे कहते हैं कि वे बने रहें : “मैं इसके विषय में गंभीर हूँ। कृपया चले मत  जाइएगा। कृपया दिवंगत न हो जाएं। मैं ज्ञानोदय के पथ की पूरी यात्रा करना चाहता हूं। मैं धर्म पथ का मात्र एक सैलानी नहीं हूँ।”

अंत में, जो कुछ भी हमने समझा तथा सकारात्‍मक ऊर्जा निर्मित की इन आरंभिक साधनाओं से और शिक्षाओं को समझकर और उनका अनुशीलन करके, ऐसा हो कि ये बुद्ध बनने में कारक सिद्ध हों ताकि हम दूसरों की वास्‍तव में बढ़चढ़ कर सहायता कर सकें। ये मात्र हमारे अपने संसार को सुधारने के कारक न बने।

इसके पश्‍चात् हम समझबूझ कर निर्णय करते हैं कि हम एकाग्र होकर सुनें। यदि हमारा ध्‍यान भटकता है, हम उसे फिर एकाग्र करेंगे। यदि हम उनींदे होने लगें, तो हम अपने को जगाएंगे। अपने चित्‍त को निर्मल बनने में सहायता करेंगे। अपनी भंगिमा को सही करेंगे और सीधे होकर बैठेंगे। परन्‍तु अकड़कर नहीं। फिर अपनी ऊर्जा को उन्‍नत करने के लिए यदि वह शिथिल हो हम अपनी भौहों के बीच के बिन्दु पर ध्‍यान केन्द्रित करेंगे, आंखें ऊपर की ओर देखेंगी और सिर सीध में रहेगा।

फिर अंत में यदि हम कुछ घबरा रहे हैं अथवा तनाव में हैं, तो हमें अपनी ऊर्जा को स्थित करना होगा। वैसा करने के लिए, हम अपनी नाभि पर ध्‍यान केन्द्रित करेंगे, हमारी आंखें नीचे की ओर देखेंगी, परन्‍तु सिर सीधा रहेगा और हम सामान्‍य रूप से श्‍वास लेते रहेंगे, फिर हम सांस रोक लेंगे जब तक कि उसे बाहर छोड़ने की आवश्‍यकता न हो।

यदि हम इन आरंभिक साधनाओं के सार तत्‍व को वास्‍तव में समझ लें और उन्‍हें केवल खोखली रस्‍म की तरह न निभाएं तो हम पूरे मनोयोग से इन्‍हें करते हुए इनसे बहुत गहरी प्रेरणा प्राप्‍त कर सकते हैं। यह किसी की आराधना करने का भक्ति योग नहीं है, अपितु यह ऐसी साधना है जो हमारी ऊर्जा को सकारात्‍मक दिशा में ले जाती है और आत्‍म सुधार करने के लिए हमें अधिक ग्रहणशील बनाती है ताकि हम सीखें और आगे बढ़ें। यही बात है। यही कारण है कि इन्‍हें “आरंभिक साधनाएं”कहते हैं। जब हम इसका अध्‍ययन करते हैं और इस पथ की क्रमिक अवस्‍थाओं का अ‍भ्‍यास करते हैं, हम सदैव इस बात पर बल देते हैं कि किसी भी ध्‍यान साधना सत्र का आरंभ इस आरंभिक तैयारी से किया जाए। यह हमें अत्‍यंत ग्रहणशील बनाती है। हम वास्‍तव में कुछ सीखने के लिए समझने का प्रयास करते हैं। तो इन आरंभिक साधनाओं के माध्‍यम से पूरे मनोयोग से इसमें जुट जाते हैं। चाहे हम इससे आगे की ध्‍यान साधना न भी कर पाएं तो भी यह आरंभिक तैयारी अपने आप में एक दैनिक साधना के रूप में अत्‍यंत हितकारी है।

बुद्ध की शिक्षाओं का संयोजन

आज शाम हमारा विषय है लाम–रिम, पथ के क्रमिक स्‍तरों की संरचना। अधिक स्‍पष्‍ट रूप से कहा जाए तो लाम–रिम का अर्थ है उन्‍नत मार्ग चित्‍त नामत: ऐसे बोध के क्रमिक स्‍तर जो हमें संबोधि और ज्ञानोदय के लक्ष्‍य तक ले जाते हैं। परन्‍तु हम उन्‍हें पथ के क्रमिक स्‍तर कह सकते हैं।

लाम-रिम की शिक्षाएं कहां से आईं? बुद्ध ने विभिन्‍न विषयों पर उपदेश दिए जो सूत्र एवं तंत्र विधियों में विभाजित हैं। सूत्र विधियां अधिक प्राथमिक विधियां हैं। संस्‍कृत में सूत्र का अर्थ है कोई विषय अथवा साधना। तंत्र उन्‍नत शिक्षाएं हैं जो कि सूत्रों पर आधारित हैं और जो विभिन्‍न सूत्रों की शिक्षाओं को एकसाथ रखकर अपनी बुद्ध प्रकृति को सिद्ध करने में सहायक होती हैं।

बुद्ध ने सूत्र विधि की शिक्षा विभिन्‍न अनुयायियों को भिन्‍न भिन्‍न शैलियों में दी। बहुत सी शिक्षाएं संवाद के रूप में थीं: बुद्ध बोल रहे हैं, अन्‍य प्रश्‍न पूछ रहें हैं, बुद्ध उत्‍तर दे रहे हैं इत्‍यादि। इसलिए ये सूत्र बहुत व्‍यवस्थित नहीं लगते। बुद्ध ने एक स्‍थान पर जो बात कही वह दूसरे स्‍थान पर कही गई बात से मेल नहीं खाती। यह समझना कठिन हो जाता है कि इनमें मेल कैसे बिठाया जाए। इसके अतिरिक्‍त, चूंकि बुद्ध के समय में कुछ भी लिखा नहीं जाता था, इसलिए परम्‍परा यह थी कि उसको याद करके बाद में उसे सुनाया जाता था। इसलिए सूत्रों में दोहराव बहुत है, ताकि लोग महत्‍वपूर्ण बातों को याद रख सकें।

इसके अतिरिक्‍त सूत्रों से यह बात बहुत स्‍पष्‍ट नहीं होती कि इन उपदेशों को कार्य-रूप में परिणत कैसे किया जाए। इसी कारण, महान भारतीय आचार्यों ने इन सूत्रों की विभिन्‍न टीकाएं लिखीं, बुद्ध की मंशा के अधिक विस्तृत स्‍पष्‍टीकरण दिए और इस सामग्री का संयोजन किया ताकि इन्‍हें आत्‍मसात करके लागू करना किंचित सरल हो सके। उदाहरण के लिए मैत्रेय, भावी बुद्ध ने पांच ग्रंथ लिखे। उनके उपदेश असंग पर प्रकाशित हुए, जिन्‍होंने इन्‍हें लिख डाला। इनमें हमें मोटे तौर पर वे उपदेश मिल जाते हैं, जो आगे चलकर बुद्ध के उपदेश प्रस्‍तुत करने की विधि के रूप में काम आए। यह एक प्रकार की भूमिका है, उपदेशों की संक्षिप्‍त भूमिका फिर विस्‍तृत भूमिका और फिर वृत्‍तांत । विस्‍तृत प्रस्‍तुतियां विभिन्‍न सूचियों के रूप में हैं। बुद्ध ने स्‍वयं इन्‍हें सूचीबद्ध किया था, अत- हमें इन्‍हें मूलत: तिब्‍बत की खोज नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार की संरचना हमें लाम-रिम सामग्री की बहुत सी प्रस्‍तुतियों में मिलती है।

कुछ प्राथमिक विषय सूत्र प्रशिक्षण की बुनियाद हैं और उन्‍हें भिन्‍न भिन्‍न रूपों में संयोजित किया गया है। उदाहरण के लिए, जैसे “धर्म की ओर उन्‍मुख करने वाले चार विचार” न्यिंगमा परंपरा में पाए जाते हैं, “कम्‍पोपा के चार विषय” काग्यु परंपरा में, और “मोह से विरति के चार प्रकार”, शाक्‍य परंपरा में। शाक्‍य परंपरा में कभी-कभी चार आर्य सत्‍यों के अनुसार इस सामग्री को क्रमबद्ध किया जाता है। अतिश से आरंभ होने वाली कदम परंपरा में और उसके पश्‍चात गेलुग परंपरा में और शंगपा काग्यु परंपरा में भी इस सामग्री को प्रस्‍तुत किया गया है, प्रेरणा के तीन रूपों के अनुसार। इसी को हम “लाम-रिम” कहते हैं। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि लाम-रिम इस सामग्री को प्रस्‍तुत करने वाली अनन्‍य विधि है। इन्‍हीं शिक्षाओं को प्रस्‍तुत करने की अन्‍य अनेक विधियां भी हैं।

प्रेरणा के तीन चरण वाले विषय क्षेत्र

इस सामग्री को प्रस्‍तुत करने का विशेष लाभ क्‍या है – अमूल्‍य मानव जीवन, शरणागति, कर्म, विरति, बोधिचित्‍त, शून्‍यता, इत्‍यादि प्रेरणा के तीन चरण वाले लाम-रिम के सन्दर्भ में मेरे विचार में इसका मुख्‍य लाभ है कि यह शिक्षाओं तक पहुंचने का अवसर देता है जो हमें ‘’मूल धर्म’’ से पहले का रास्‍ता बताता है। अब मैं इस पर विस्‍तार से चर्चा करूंगा।

जब हम बौद्ध धर्म पर चर्चा करते हैं तो शरणागति पर चर्चा कर रहे होते हैं, जिसे मैं “जीवन में सुरक्षित दिशा” कहना पसंद करता हूं। वास्‍तव में यह दिशा क्‍या इंगित करती है? धर्मरत्‍न। धर्मरत्‍न से तात्‍पर्य है तीसरा और चौथा आर्य सत्‍य, नामत: समस्‍याओं और उनके कारणों का सत्‍य अवरोधन तथा शून्‍यता के मूल वैचारिक बोध का सत्‍य मार्ग चित्‍त। बुद्धजन ने पूर्णत: अपना मानसिक सातत्‍य प्राप्‍त कर लिया है। दूसरे शब्‍दों में, बुद्धजन के मानसिक सातत्‍य में सत्‍य अवरोधन और सत्‍य मार्ग चित्‍त का पूरा संचय है। दूसरी ओर, आर्य संघ ने यह सत्‍य अवरोधन तथा सत्‍य चित्‍त मार्ग की सिद्धि प्राप्‍त करना आरंभ ही किया है, अभी उनके पास इसका पूरा संचय नहीं है।

उदाहरण के लिए यदि हम पुराने ढंग के खराब टीवी के बारे में सोचें जिसके अंदर ट्यूब लगी रहती थीं तो इन खराब ट्यूबों को निकालना सत्‍य अवरोधन के समान होगा और काम करने वाली नयी ट्यूबों को लगाना सत्‍य चित्‍त मार्ग के बराबर होगा। ज्ञानोदय के साथ बुद्धजन ने इन सभी खराब ट्यूबों से छुटकारा पाकर काम करने वाली ट्यूबें लगा दी हैं। अर्हत जन ने केवल कुछ ही खराब ट्यूबों को निकालकर सही ट्यूबें लगाई हैं: अर्थात् मुक्ति। शून्‍यता के मूल वैचारिक बोध सहित हम आर्य बन जाते हैं। और हम खराब ट्यूबों से छुटकारा पाकर नयी ट्यूब लगा देते हैं। धर्म शरणागति आर्य से आरंभ होकर अर्हत से होती हुई बुद्ध तक पहुंचती है।

चार विचार जो चित्‍त को धर्म की ओर उन्‍मुख करते हैं – बहुमूल्‍य मानव जीवन, मृत्‍यु और अनित्‍यता, कर्म और संसार के दुर्गुण – ये सब हमें धर्म शरणागति की ओर उन्‍मुख करते हैं। विशेषत:, ये नैषकाम्य की ओर जाने और मुक्ति की कामना की ओर इंगित करते हैं। यदि हम अपने इन चार विचारेां को धर्म की ओर उन्‍मुख कर उन्‍हें लाम-रिम में परिवर्तित कर दें तो हम देखेंगे कि ये प्रेरणा का मध्‍यवर्ती स्‍तर बन जाते हैं : नैषकाम्य और विमुक्ति की तैयारी। फिर इन चार विचारों के बाद बोधिचित्‍त और शून्‍यता के बोध के विकास संबंधी उपदेश आते हैं जिनके माध्‍यम से हम ज्ञानोदय प्राप्‍त कर सकें। मार्ग की क्रमिक लाम-रिम प्रस्‍तुतियों का एक विशिष्‍ट लाभ यह है कि इसमें प्रेरणा का आरंभिक स्‍तर आ जाता है जिसमें भावी जन्‍मों की तैयारी की जाती है मुक्ति और तदुपरान्‍त ज्ञानोदय के सोपान के रूप में। अत:, यह वास्‍तविक बौद्धधर्मी, विमुक्ति एवं ज्ञानोदय की तैयारी के सोपान लक्षित करता है।

शाक्‍य परंपरा में चार प्रकार के मोहों से विमुक्ति में, धर्म चित्‍त को इस जीवन के मोह से मोड़कर भावी जन्‍मों के बारे में सोचना भी आ जाता है। इस प्रकार यह लाम-रिम प्रस्‍तुतियों की अपनी पूरी निजी विशेषता नहीं है। परन्‍तु चूंकि भावी जन्‍मों की तैयारी करना लाम-रिम में प्रेरणा के तीन स्‍तर माने जाते हैं अत: इसे सोपान के रूप में जाना जाता है। मैं समझता हूं यह हम पश्चिमवासियों के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है जो धर्म की ओर उन्‍मुख हो रहे हैं।

धर्म – लाइट एक सोपान के रूप में

लाम-रिम में प्रेरणा का एक उन्‍नत स्‍तर एक ऐसा सोपान है जो महायान में अनन्‍य है, परन्‍तु महायान सूत्र तथा महायान तंत्र दोनों में पाया जाता है। यह ज्ञानोदय की तैयारी इंगित करता है। मध्‍यवर्ती स्‍तर सभी बौद्ध धर्मी परंपराओं में मिलता है, हीनयान और महायान में नामत: विमुक्ति की तैयारी। आरंभिक स्‍तर पर केवल भावी जन्‍मों का सुधार आता है और यह अन्‍य बहुत से धर्मों में भी पाया जाता है।

अन्‍य बौद्ध धर्म के ग्रंथों में कहा गया है कि धर्म और अ-धर्म की विभाजक रेखा यही है कि हम अपने भावी जन्‍मों के लिए पूरी तैयारी कर रहे हैं अथवा नहीं। इसके अतिरिक्‍त, बौद्ध धर्म की व्‍याख्‍या है, एक ऐसा व्‍यक्ति जो अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा देता है, जो शरणागति की ओर जाता है। जैसा मैंने अभी कहा, वास्‍तविक शरणागति धर्मरत्‍न है, और धर्मरत्‍न का तात्‍पर्य है विमुक्ति एवं ज्ञानोदय अथवा आर्य स्‍तर मुक्ति एवं ज्ञानोदय की ओर उन्‍मुख होना। ये बिंदु परस्‍पर कैसे मेल खाते हैं? इसका उत्‍तर यही है कि शरणागति संबंधी उपदेश आरंभिक स्‍तर में ही बताए गए हैं।

जब हम भावी जीवनकालों के बारे में चर्चा करते हैं कि वे धर्म की विभाजक रेखा हैं, तो मैं नहीं सोचता कि बौद्ध धर्म का तात्‍पर्य यह है कि हम यह कह सकते हैं कि कोई ईसाई हैवन में जाने की तैयारी कर रहा है और कोई मुस्लिम जन्‍नत में जाने की। बात यह है कि मेरे अनुसार आरंभिक स्‍तर में शरणागति का तात्‍पर्य है भावी जन्‍मों को सुधारना धर्म की वह सीमा रेखा है जो धर्म को परिभाषित करती है। तो हम भावी जन्‍मों को सुधारना एक सोपान के रूप में मानते हैं ताकि हम इस मार्ग पर चलकर एक आर्य बनने की तैयारी करें और फिर विमुक्ति और कालांतर में ज्ञानोदय प्राप्त करें। इसे इस रूप में व्‍याख्‍यायित करने से इस बात में कोई विसंगति प्रतीत नहीं होती कि भावी जन्‍मों में सुधार करना एक ऐसा लक्ष्‍य है जो गैर-बौद्ध धर्मों में भी पाया जाता है और फिर भी बौद्ध धर्म की व्‍यावर्तक रेखा है।

सत्य अवरोधन, धर्मरत्न की सिद्धि प्राप्त करने की दिशा में आरम्भिक स्तर की प्रेरणा एक सोपान है। मैनें इस सोपान के विषय क्षेत्र की प्रस्तुति से ही “धर्म लाइट” की अवधारणा बनाई है जो एक अन्‍य सोपान है इससे भी पहले का। सोचता हूं कि लाम-रिम की संरचना आरंभिक स्‍तर से पहले का एक स्‍तर प्रदान करता है जो क्रमिक मार्ग तक पहुंचने में पश्चिमवासियों के लिए आसान रहेगा। यह प्रेरणा का वह स्‍तर है जिससे हम इस जीवन को सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं जो कि भावी जन्‍मों को सुधारने की तैयारी का एक सोपान है। धर्म-लाईट के साथ हम प्रेरणा के स्‍तर के साथ काम करते है लाम-रिम प्रेरणा के आरम्भिक स्‍तर से भी पहले।

धर्म एक चलती हुई बस के समान है जिसमें चढ़ना हमारे लिए कठिन होता है। यदि हम लाम-रिम पर दृष्टि डालें, भावी जन्‍मों को सुधारने का आरंभिक लक्ष्‍य मानें तो यह भावी जन्‍मों की समझ और उसके प्रति विश्‍वास है। परंपरागत ग्रंथों में पिछले और भावी जन्‍मों कें अस्तित्‍व को समझाया भी नहीं गया है अथवा उन्‍हें सिद्ध करने की भी पूरी चेष्‍टा नहीं की गई है। यह मानकर चला जाता है कि हम सबको इस पर पहले से ही विश्‍वास है। पश्चिमवासियों के लिए, जो इस पृष्‍ठभूमि से नहीं आते, विगत और भावी जन्‍मों को स्‍वीकार करना बहुत कठिन होता है, यह तो छोड़ ही दीजिए कि कोई आदि अंत नहीं होता। परंपरागत बौद्धधर्मी ग्रंथों में इस कठिनाई की ओर इंगित नहीं किया गया है। परंतु परम पावन दलाई लामा इसकी मौखिक व्‍याख्‍या करते हैं।

जिस प्रकार गैर-बौद्ध धर्मों में आरंभिक स्‍तर की चर्चा है, यदि हम उससे भी पहले, धर्म-लाइट पर जाएं तो इस जन्म को सुधारने की बात महायान और हीनयान में पाई जाती है, चिकित्‍सा पद्धति, सर्वधर्म समभाव दर्शन, मानवतावादी दर्शन आदि तथा दूसरे धर्मों में भी है। यह एक व्‍यापक सामान्‍य आधार है। साधना धर्म-लाइट तब बनती है यदि उसे भावी जीवनकालों, विमुक्ति और ज्ञानोदय के सोपान के रूप में अपनाया जाए, शरणागति और सुरक्षित दिशा की सामान्य संरचना के भीतर। हम उस दिशा में यात्रा आरंभ कर सकते हैं धर्म-लाइट साधना से। यदि वास्‍तविक सुरक्षित दिशा राजमार्ग है तो धर्म-लाइट इस राजमार्ग तक पहुंचने की पगडंडी है।

प्रेरणा का अर्थ

प्रेरणा के क्रमिक मार्ग की संरचना अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण है। प्रेरणा का तात्‍पर्य कुछ करने के लिए भावात्‍मक कारण नहीं है। हम अपने लक्ष्‍य और उद्देश्‍य की बात कर रहे हैं। अध्ययन और साधना के पीछे हमारी क्‍या प्रेरणा है : हम सभी उनके माध्यम से किस लक्ष्‍य तक पहुंचना चाहते हैं। लाम-रिम संरचना विकास की प्रक्रिया इंगित करती है और हमें उसे आदि से आरम्भ करना होता है। बहुत से लोग एक बड़ी भारी भूल करते हैं कि वे आरंभिक स्‍तरों को छोड़कर सीधे लक्ष्‍य तक, महायान तक पहुंच जाते हैं। वे गर्व से कहते हैं, “मैं सभी सचेतन प्राणियों की विमुक्ति और ज्ञानोदय के लिए कार्य कर रहा हूं।” यदि हमारे पास पहले प्रेरणा का आरंभिक स्‍तर नहीं है तो सभी सचेतन प्राणियों के लिए हमारे प्रयास हल्‍के पड़ जाते हैं और हमारी धर्म साधना सरलीकृत हो जाती है। वास्‍तव में हम सभी सचेतन प्राणियों की ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रयासरत नहीं होते क्‍योंकि हमें उसका अर्थ भी ठीक से मालूम नहीं है : हमें बिल्‍कुल नहीं पता कि ज्ञानोदय का अर्थ क्‍या है। निश्चित रूप से हम प्रत्‍येक कीड़े की विमुक्ति के लिए इस ब्रह्माण्ड में प्रयासरत नहीं हैं कि वे अनियंत्रित रूप से पुनर्जन्‍म के चक्र से मुक्‍त हों यदि हमें स्‍वयं पुर्नजन्‍म पर विश्‍वास नहीं है। यदि हम ईमानदारी से अपनी परीक्षा करें तो हम केवल कुछ जीवों के लिए काम कर रहे हैं और हम केवल जीवन में सुधार करने में सहायता कर रहे हैं। यद्यपि इस प्रकार की प्रेरणा भी अत्‍यन्‍त सकारात्‍मक और हितकारी है लेकिन फिर भी इस प्रेरणा को महायान का उन्‍नत स्‍तर कहना महायान का अवमूल्‍यन है। मैं समझता हूं कि वास्‍तव में हमारा लक्ष्‍य यह होना चाहिए कि हम लाम-रिम के प्रत्‍येक स्‍तर को पूरी निष्‍ठा से क्रमवार अपना लक्ष्‍य बनाएं, उत्‍तरोत्‍तर क्रम में, यह दिखावा किए बिना कि हम अधिक उन्‍नत स्‍तर तक पहुंच गए हैं जबकि ऐसा है नहीं।

एक सोपान के रूप में धर्म-लाइट उसका विशेष अर्थ यह है कि हमारे भीतर पुनर्जन्‍म, विमुक्ति तथा ज्ञानोदय के महत्‍व का बहुत स्‍पष्‍ट बोध है। हम इस बात को स्‍वीकार करते हैं कि अभी हमें यह बोध प्राप्‍त नहीं है परन्‍तु हमें इसके महत्‍व का बोध है और हम इसे समझने की मंशा रखते हैं। यदि हम पुनर्जन्‍म आदि को स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं तो हमें उसे अभी स्‍थगित रखना चाहिए, परन्‍तु हमें उस दिशा में आगे बढ़ते रहना चाहिए।

हम लाम-रिम के उपदेशों का अध्‍ययन करते रह सकते हैं, धर्म-लाईट अथवा आरंभिक स्‍तर की प्रेरणा सहित। उसमें कोई समस्‍या नहीं है। परार्थवादी उदारता, दूसरों की सहायता, अशांतकारी मनोभावों की समझ, शून्‍यता का किंचित बोध, इत्‍यादि सब जीवन के लिए सहायक हैं, नहीं हैं क्‍या? हम इन बातों का गहन बोध तब तक प्राप्‍त नहीं कर सकते जब तक हम अनादि पुनर्जन्‍म आदि को समझ न लें, परन्‍तु उसके लिए धर्म-लाइट की व्‍याख्‍या काम आ सकती है।

उदाहरण के लिए, विगत और भावी जन्‍मों के अभाव में, कर्म(व्‍यवहारगत कारण और परिणाम संबंधी उद्देश्‍य) का कोई अर्थ नहीं निकलता। ऐसा इसलिए कि हो सकता है कि हमने पूरा जीवन सकारात्‍मक रूप से बिताया हो और अन्‍त में एक भूकम्‍प में मारे गए हों। अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं निकलता यदि हम केवल इसी जन्‍म को सत्‍य मानें। उसका यह तात्‍पर्य नहीं है कि कर्म संबंधी उपदेश इस जीवनकाल के उपयोगी नहीं हैं! वे हैं। परन्‍तु हम उसका बोध प्राप्‍त नहीं कर सकते जब तक कि हम विगत और भावी जन्‍मों के विषय में न सोंचें। इसके अतिरिक्‍त पुनर्जन्‍म को समझे बिना, सभी प्राणियों को पिछले जन्‍मों में अपनी माता समझना किंचित विचित्र लगेगा क्‍योंकि अनेक बोधिचित्‍त उपदेश यही कहते हैं। इसी प्रकार जब तक हम इस बात को न समझ लें कि चित्‍त अनादि और अनन्‍त है हम शून्‍यता को बहुत गहराई से नहीं समझ पाएंगे। अनादि चित्‍त का अर्थ है पुनर्जन्‍म, नहीं है क्‍या?

प्रत्‍येक स्‍तर पर प्रेरणा की सच्ची अनुभूति अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है। इन आरंभिक स्‍तरों को छोड़कर आगे बढ़ना लाम-रिम के वास्‍तविक मर्म को पीछे छोड़ देना है। उदाहरण के लिए आरंभिक विषय क्षेत्र को लीजिए। मूल्‍यवान मानव जीवन, मृत्‍यु और अनित्‍यता आदि, ये सभी सूत्रों में मिलते हैं। और विभिन्‍न तिब्‍बती बौद्ध धर्मी परम्पराएं एवं आचार्य इन्हें अनेक रूप से संयोजित करते हैं। ये केवल लाम-रिम में ही नहीं हैं। लाम-रिम में अनोखी बात यह है कि वह इसे प्रेरणा के क्रमिक स्‍तर के ढांचे के भीतर प्रस्‍तुत करता है।

लाम-रिम के संदर्भ का बोध

विभिन्‍न तिब्‍बती परंपराएं लाम-रिम सामग्री में आध्‍यात्मिक गुरू के साथ गुणकारी संबंधों के विषय में उपदेश देते आए हैं। उदाहरण के लिए गेलुग परंपरा’ के लाम-रिम इस गुणकारी संबंध को क्रमिक स्‍तरों की प्रस्तुतियों से पहले व्‍याख्‍यायित करते हैं।  

इसके अतिरिक्‍त, मैं बताना चाहूंगा कि लाम-रिम अपने आप में अकेला ग्रंथ नहीं है। गेलुग परंपरा के भीतर ही, लाम-रिम के सात या आठ प्रमुख संस्‍करण हैं। त्‍सोंगखापा ने स्‍वयं तीन व्‍याख्‍याएं लिखी हैं। तीसरे दलाई लामा, पांचवें दलाई लामा, चौथे पंचेन लामा और पांचवें पंचेन लामा में भी इसकी व्‍याख्‍याएं लिखी हैं। पांचवें पंचेन लामा और पबोंगका के ग्रंथ के बीच भी अनेक ऐसी व्‍याख्‍याएं हैं। हम लाम-रिम के ऐतिहासिक विकास पर एक पूरी चर्चा कर सकते हैं। परन्‍तु अभी यहां नहीं। एक महत्‍वपूर्ण बात यद्यपि यह है कि समय के साथ-साथ उद्देश्‍यों की शैली बदल गई।

इसके अतिरिक्‍त एक अन्‍य बात का उल्‍लेख करना सहायक होगा कि लाम-रिम का पबोंगका रिंपोचे का संस्‍करण, जिसे उनके शिष्‍य त्रिजोंग रिंपोचे ने लिखा, भी उल्‍लेखनीय है। यद्यपि सबसे पहले इसी का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था और यह लोकप्रिय भी हुआ। लाम-रिम के प्रति इसका दृष्टिकोण किंचित रुढ़िवादी है। यह रुढ़िवादी गेलुगपा हैं। मैं इसे अच्‍छा या बुरा नहीं कह रहा। मैं केवल इसे चिन्‍हित कर रहा हूं। ऐसा मत सोचिएगा कि यह समग्र लाम-रिम परम्‍परा अथवा समग्र गेलुग परम्‍परा का प्रतिनिधि है। उदाहरण के लिए इसमें वोम्पोस के विरुद्ध कुछ अत्‍यंत कटु टिप्‍पणियां की गई हैं। इसके अतिरिक्त ऐसी बातों पर बल कि एक पशु के रूप में आपका जन्‍म होगा यदि आपने बंद मुट्ठियों के साथ साष्‍टांग प्रणाम किया, एक रूढि़वादी दृष्टिकोण का परिचायक है। यह हमारा काम नहीं है कि निर्णय करें कि क्‍या अच्छा है और क्‍या बुरा, हमें केवल उसके विषय में जानना चाहिए। बहुत से लोगों के लिए रुढ़िवाद उचित है, अन्‍य के लिए नहीं है। यद्यपि मुख्‍य धारा का गेलुग लाम-रिम त्सोंगखापा का लाम-रिम चेनमो है। यदि हम गेलुग परम्‍परा को जानना चाहते हैं तो बस वह यही है। परम पावन दलाई लामा इसी संस्‍करण पर बल देते हैं। यह भी अब अंग्रेजी में उपलब्‍ध है।

अपनी बात पर लौटते हुए, गेलुग लाम-रिम का आरंभ, आरंभिक तैयारी और आध्‍यात्मिक गुरू के साथ संबंध से होता है। कुछ संस्‍करणों में आध्‍यात्मिक गुरू के साथ संबंध पहले आता है और आरंभिक तैयारी बाद में परन्‍तु कुछ अन्‍य संस्‍करणों में यह प्रक्रिया विपरीत होती है। जो भी हो, ये दोनों पहले क्‍यों आते है? यदि हम उसके बारे में सोचें, तो यह स्‍पष्‍ट है कि इस प्रकार का उद्देश्‍य उन नवसाधकों के लिए नहीं है जो धर्म केन्‍द्र में आते हैं और जिन्‍हें बौद्ध धर्म के विषय में कुछ नहीं आता। वह नवसाधक साष्‍टांग प्रणाम, शरणागति, बोधिचित्‍त एवं सप्‍तांग प्रार्थना आरंभ कैसे कर सकता है? किसी नवसाधक से क्‍या यह अपेक्षा की जा सकती है कि जैसे ही वह केन्‍द्र में पदार्पण करे वह गुरू को बुद्ध के समकक्ष मानने लगे? स्पष्ट ही है कि लाम-रिम के अभिप्रेत दर्शक पश्चिमवासी नवसाधक नहीं रहे थे।

यह बात इससे और अधिक स्पष्ट हो जाती है कि गुरु में बुद्ध के दर्शन की चर्चा में लाम-रिम ग्रंथों में तंत्र को उद्धृत किया गया है। वज्रधारा ने कहा था...“यहाँ कुछ चल रहा है जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।”

पहले-पहल ये उपदेश कहाँ दिए गए और उनका क्या सन्दर्भ था? दर्शक भिक्षुगण थे जो पूरी तरह बौद्धधर्मी मार्ग के संवर आदि लेकर बौद्धधर्मी पथ के प्रति पूर्णतया वचनबद्ध थे। तांत्रिक अभिषेक के लिए तैयार किया जा रहा था। तांत्रिक अभिषेक से पहले सूत्र पथ की पुनरीक्षा आवश्यक होती है जो कि तंत्र की आधारशिला होती है। अत: उन वचनबद्ध भिक्षुगण के लिये, जिनका तांत्रिक अभिषेक होने वाला था, उन्हें मूल सूत्र उपदेशों की पुनरीक्षा के रूप में लाम-रिम प्रदान किया जा रहा था। अत:, ये दर्शन लाभार्थी उस सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आये थे जहाँ पुनर्जन्म में आस्था होती है; उनका गुरु के साथ पहले से एक नाता था; और वे पहले से इस गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त करने के लिये प्रस्तुत थे। इस सन्दर्भ में; गुरु के साथ सम्बन्ध विषयक सभी उपदेश अर्थवान होते थे। और जाहिर है कि समग्र आरम्भिक तैयारियाँ भी सार्थक थीं क्योंकि ये सब भिक्षु थे : वे इस प्रकार का विधि-विधान पहले से करते आ रहे थे।

एक अन्य संकेत यह है कि त्सोंगखापा ने आध्यात्मिक गुरु के साथ गुणकारी सम्बन्ध को “पथ का मूल”कहा था। किसी पौधे में सबसे पहले जड़ नहीं उगती: पौधा बड़ा होता है बीज से। गुरु के साथ नाते को ये “पथ का बीज” नहीं कहते। जब कोई पौधा पनप चुका होता है तो उसकी जड़ उसे सहारा देती है और पोषण प्रदान करती है। आध्यात्मिक गुरु से पूरा पथ संचालित नहीं होता। अत: यद्यपि आध्यात्मिक गुरु से सम्बन्ध त्सोंगखापा की प्रस्तुति में पहले उल्लिखित है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि यह नवसाधकों के लिए प्राथमिक है। त्सोंगखापा उनके लिए इस पथ को प्रदर्शित कर रहे हैं जो पहले से इसपर चलते आ रहे हैं। उनके लिए इस पथ का सम्बल और पोषण गुरु के साथ पहले से विद्यमान यह नाता है। यही कारण है कि उन्होंने इसे सबसे पहले रखा है।

लाम-रिम की संरचना को समझने के लिए ये मेरे प्राथमिक विचार हैं; इसे क्रमिक पथ क्यों कहा गया है, कि परम्परागत तीन क्रमिक स्तरों से पहले भी एक स्तर आ सकता है, कि किस प्रकार परंपरागत तीन स्तर संयोजित किए गए हैं इस सहायक आरंभिक पथ के लिए और यह संरचना हमें गुरु के साथ सम्बन्ध और आरंभिक तैयारी के विषय में क्या कुछ बताती है।

लाम-रिम के परम्परागत आरम्भिक स्तर में प्रवेश करने के लिये अपेक्षाएँ

लाम-रिम की प्रेरणा के प्रथम स्तर में प्रवेश करने से पहले कैसा बोध एवं साधना अपेक्षित है?

सोनम त्सेमो, शाक्य परम्परा के पाँच प्रवर्तकों में से एक हैं जिन्होनें, शिक्षाओं में प्रवेश करने से पहले तीन बातों की सूची दी है। पहला है दुःख अभिज्ञान। दूसरा यह विश्वास कि दुःख से छुटकारा पाना संभव है और तीसरा, कि धर्म वह मार्ग सुझाता है। यदि हम इसके विषय में सोचें तो यह पूर्णत: तर्कसंगत है। यदि हमें अपने जीवन में कोई समस्या दिखाई नहीं देती तो हम निश्चित रूप से धर्म का सहारा नहीं खोजेंगे। यदि हमें समस्याएँ दिखाई देती हैं परन्तु उनसे निकलने का कोई रास्ता नहीं है तब भी हम धर्म का आश्रय नहीं खोजेंगे। और यदि हमें ऐसा लगता है कि धर्म के पास इसका समाधान नहीं है तो निश्चित रूप से हम वहाँ समाधान नहीं खोजेंगे। ये तीन बातें हमें वास्तव में बौद्धधर्मी पथ खोजने एवं उसका पालन करने की ओर प्रेरित करती हैं। और तीसरी बात का निहितार्थ यह है कि पहले हमें धर्म का कुछ अध्ययन करना होगा ताकि हम समझ सकें कि धर्म के पास व्यवहार्य समाधान है। तो इससे पहले कि हम वास्तव में पूरे मनोयोग से धर्म में जुट जाए, हमें उसके विषय में कुछ सीखना होगा।

आध्यात्मिक गुरु के सन्दर्भ में बीज एवं मूल की उपमा के सम्बन्ध में कृपया विस्तार से समझायें। बीज क्या है? यह जड़ कैसे बन जाता है? यदि आपका आशय है कि उसके प्रति समर्पित होने से पहले हमें धर्म का कुछ ज्ञान होना चाहिए तो फिर ऐसा कैसे है कि हम आरंभ में ही आध्यात्मिक गुरु के प्रति समर्पित हो जायें।

आइये मैं एक उदहारण देता हूँ। सोनम त्सेमो ने जो तीन बातें बतायी हैं वे बीज के समान हैं। धर्म में पदार्पण उसी से उद्भूत होगा। परन्तु बीज से मूल की उत्पत्ति कैसे होगी, इसके लिए सोनम त्सेमो की तीसरी बात पर ध्यान देते हैं- धर्म का थोड़ा बहुत परिचय एवं किंचित विश्वास कि वह हमारे जीवन कि समस्याओं का समाधान दे सकता है, अनिवार्य है।

मैं आपको अपना व्यक्तिगत अनुभव बताता हूँ। मैंने सात वर्ष तक विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म अत्यंत विधिवत रूप से पढ़ा। मैंने प्रमुख कालजयी भाषाओँ का अध्ययन किया। यद्यपि मेरे भीतर एक सहज बोध जागृत हुआ कि यह सही दिशा है किन्तु वास्तव में भारत जाकर परम पावन दलाई लामा से भेंट करने तथा तत्पश्चात उनके कुछ गुरुओं से मिलकर मैंने यह अनुभव किया कि बौद्ध धर्म एक जीवित परम्परा है। वह ग्रंथों में कैद निर्जीव विषय नहीं है, जिसे प्राध्यापक वर्ग एक वर्गपहेली के समान सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। साठ के दशक में यही दृष्टिकोण व्याप्त था। हमारे समक्ष एक जीवंत आचार्य थे, जीवंत शिक्षाएँ थीं, और उनका पालन करके परिणाम दिखाई देते थे, मैंने एक गुरु के मुख्य प्रयोजन और कार्यभार का अर्थ अनुभव किया जो कि परम्परागत ग्रंथों में समझाया गया है : प्रेरणा प्रदान करना। यह देखकर कि बौद्धधर्मी साधना संभव भी है और जीवंत भी मैं वास्तव में बौद्धधर्म की साधना में मनोयोग से जुट गया।

इसी कारण शिक्षाओं की और प्रवृत्त होने के लिए आध्यात्मिक गुरु अत्यंत सहायक एवं आवश्यक होते हैं, मैं नहीं समझता कि केवल धर्म विषयक पुस्तकें पढ़कर आप पूरे मनोयोग से उस ओर प्रवृत्त हो सकते हैं। किसी गुरु का जीवंत उदहारण प्रबलतम प्रेरणा सिद्ध होती है। तदुपरान्त किसी गुरु से शिक्षा प्राप्त करना(सोनम त्सेमो का तीसरा बिंदु) वैसा ही है जैसे किसी बीज का जड़ बन जाना, चूँकि आध्यात्मिक गुरु की प्रेरणा समग्र पथ पर हमारा पोषण करती है। परन्तु आध्यात्मिक गुरु से नाता एक बीज के जड़ बन जाने जैसा हो, इसके लिए उस गुरु को वस्तुत: योग्य होना होगा, कोई करिश्माई नीम-हकीम नहीं।

यदि हम किसी अयोग्य शिक्षक से मिलते हैं जो “हमें अभिभूत कर देता है”, परन्तु हमें बौद्ध धर्म के बारे में कुछ पता नहीं है, तो क्या यह इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त है? मेरा तर्क है कि नहीं। जिस प्रकार बौद्ध धर्म के किसी जीवंत उदाहरण के अभाव में केवल पुस्तकें पढ़ना हमें धर्म की दिशा में आगे बढ़ा सकता है और हमें कुछ प्रेरणा भी दे सकता है, ठीक उसी प्रकार किसी अयोग्य शिक्षक से भेंट भी है। परन्तु उस दिशा में हमारा आगे बढ़ना स्थिर नहीं होगा जब तक कि हम किसी पुस्तक या शिक्षक से कुछ न सीख पाएं। केवल प्रेरणा पर्याप्त नहीं है।

अधिक घातक क्या है, केवल बौद्ध धर्म के विषय में पढ़कर आरम्भ करना अथवा किसी धर्मगुरु से प्रभावित होकर आरम्भ कर देना? इन दोनों के ही अपने खतरे हैं। यदि हम केवल पढ़ते हैं तो हम धर्म की अपनी ही कोई व्याख्या कर सकते हैं, जिसका वास्तविक शिक्षाओं से कोई सम्बन्ध न हो। यदि हम केवल किसी शिक्षक का अनुकरण करते हैं तो बहुत बड़ा खतरा है कि हम किसी ऐसे व्यक्ति के जाल में फंस जाएँ, जो हमें प्रभावित तो कर रहा है परन्तु वास्तव में योग्य नहीं है। हम गुमराह हो सकते हैं। चाहे वह व्यक्ति योग्य भी हो, हम उसके बारे में ऐसी भ्रामक कल्पनाएँ कर लेते हैं कि हम स्वयं उन्हीं द्वारा छले जाते हैं।

चाहे हम कैसे भी आरम्भ करें, हमें अध्ययन और प्रेरणा दोनों की आवश्यकता है। गुरु द्वारा प्राप्त आरंभिक प्रेरणा आध्यात्मिक गुरु के साथ गुणकारी सम्बन्ध के समकक्ष नहीं है। वह बहुत बाद में आता है, जब हम उस पथ पर सुस्थिर हो जाते हैं और वचनबद्ध होकर अपने गुरु को भली प्रकार परख लेते हैं। ग्रंथों में लिखा है कि आध्यात्मिक गुरु के साथ सम्बन्ध का लक्षण है कि उनसे संवर ग्रहण करते हैं, चाहे प्रतिमोक्ष हो, बोद्धिसत्व हो अथवा तंत्र के संवर। इस बिंदु तक पहुँचने के लिए पूर्व प्रयास अपेक्षित हैं ताकि हम केवल इसलिए संवर न ले रहे हों कि किसी समूह का हमारे ऊपर दबाव है अथवा किसी मोहाविष्ट स्थिति के कारण हम केवलएक धर्म अनुष्ठान में भाग तो नहीं ले रहे उसका वास्तविक अर्थ समझे बिना। जब हम ऐसी वचनबद्धता पूरे मनोयोग से करते हैं तो हम किसी आध्यात्मिक गुरु से इस सम्बन्ध के विषय में चर्चा करते हैं जिसका उल्लेख परंपरागत ग्रंथों में किया गया है। प्राय: कहा जाता है कि आध्यात्मिक गुरु, पथ के आरम्भ, मध्य और अंत में भी महत्वपूर्ण होता है। परन्तु हमें समझना होगा कि प्रत्येक स्तर पर उसका क्या अर्थ है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम गुरु को पथ के आरम्भ में ही बुद्ध के रूप में देखने लगते हैं।

अपने बहुमूल्य जीवन का मोल समझना

यहाँ हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम लाम-रिम के विभिन्न बिंदुओं पर विचार करें। इसके स्थान पर, चलिए हम केवल क्रमिक पथ की संरचना मात्र पर ध्यान दें, केवल उन स्तरों तक पहुँचने के लिए दो भिन्न मार्गों की तुलना करते हुए; धर्म-लाइट मार्ग, जिसे हममें से अधिकांश अपनाते हैं, और दूसरा मूल धर्म।

हम अपने बहुमूल्य मानव जीवन का मोल समझने से आरम्भ करते हैं। तिब्बती शब्द बहुमूल्य, यहाँ, वही शब्द है जो तीन बहुमूल्य रत्नों में प्रयुक्त हुआ है। इसका निहितार्थ यह है कि एक पूर्ण समृद्ध जीवन केवल बहुमूल्य ही नहीं, विरल भी है। यदि हम अपनी स्थिति के बारे में सोचे, यह अद्भुत है। यह इससे कहीं निकृष्ट हो सकती थी। यह कितनी असाधारण बात है कि हम मंद बुद्धि, विकलांग, मानसिक विकलता अथवा मानसिक विकृति आदि से ग्रस्त नहीं हैं। हम किसी भयावह युद्ध क्षेत्र में नहीं हैं, या भूख से दम नहीं तोड़ रहे, किसी नज़रबंदी शिविर में यंत्रणा नहीं भोग रहे, इत्यादि। बहुत से लोग ऐसी स्थितियों में रहें हैं और आज भी हैं। यह असाधारण बात है कि हम उन स्थितियों से आज़ाद हैं परन्तु हम उनका मोल नहीं समझते। अपने बहुमूल्य मानव जीवन के महत्त्व को समझने के लिए आज विश्व की स्थिति वास्तव में अत्यंत अनुकूल है। यद्यपि आत्म-सुधार करने की विधियां उपलब्ध हैं और हम वास्तव में उन्हें सीखकर क्रियान्वित करना चाहते हैं। परन्तु चाहे यह विधियाँ उपलब्ध हैं, बहुत से लोग इनमें रूचि नहीं लेते। और ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें ये उपलब्ध भी नहीं हैं। यह भी आश्चर्य की बात है कि अपनी अभिरुचि के साथ-साथ हमें यह अवसर प्राप्त है कि हम इन विधियों का अध्ययन कर इन्हें व्यवहार में लाएं। विश्व के अन्य भागों से तुलना करके देखें तो पायेंगें कि स्थितियां बदतर भी हो सकती थीं।

जब हमें ज्ञात होता है कि आत्म-सुधार करने का एक बहुमूल्य अवसर है तो यह हमें लाभान्वित होने के लिए प्रेरित करता है। इसे संभाल कर रखना होता है, यह अत्यंत विरल है। इस अवसर का लाभ न उठाकर अपना अधिकांश समय केवल मदिरालयों में जाना, टीवी देखना, या ऐसा ही कुछ करना, एक भारी क्षति है। हम कितने भाग्यवान हैं कि हम कितने अधिक उत्पादक, हितकारी काम करने के लिए अपने जीवन में स्वतंत्र हैं। हममें से अधिकाँश के पास कुछ धन भी है। हम दास नहीं हैं। हम स्वस्थ हैं। हम भाग्यवान हैं। हम चाहे धर्म-लाइट अपनाएँ अथवा मूल धर्म, बात वही है।

एक आरम्भिक बिंदु होता है। यह प्रेरणा के वास्तविक क्रमिक स्तरों से पहले आता है। यद्यपि हम शेष मार्ग का अध्ययन कर सकते हैं, परन्तु यदि पहला बिंदु हमारे लिए ह्रदयग्राही नहीं बन पाता और केवल बौद्धिक स्तर के स्थान पर गहन भावात्मक स्तर पर हमें यथार्थ प्रतीत नहीं होता तो ऐसी स्थिति में वास्तविक प्रगति करना अत्यंत कठिन हो जाता है। यदि यह ह्रदय की सच्ची अनुभूति नहीं है तो समग्र आध्यात्मिक पथ मात्र एक खेल बन जाता है। यह गेंद से खेलने या व्यायाम करने जैसा हो जाता है। हमें अपने जीवन के साथ इसकी कोई गहरी संगति दिखाई नहीं देती। जबकि आत्म-सुधार वास्तव में जीवन का पर्याय हो जाना चाहिए!

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम इसी बिंदु पर ठिठक जाएँ और क्रमिक पथ के विषय में और कुछ भी न पढ़ें जब तक कि हमारे बहुमूल्य जीवन का मोल हमारे ह्रदय में गहराई से न उतर जाए। यहाँ अभिप्राय इसे सतही बनाना नहीं है। यद्यपि हमें सचमुच तैयारी करनी होगी कि हम अपने अनमोल जीवन का मोल समझें और उससे लाभान्वित हों, परन्तु हमें धार्मिक कट्टरपंथी नहीं बनना है। वह तो विफल होने के लिए अभिशप्त है : नि:संदेह हमें निश्चिंत रहना चाहिए।

हमें यह विरल अवसर प्राप्त हुआ है; हमें यह बहुमूल्य जीवन प्राप्त हुआ है। यदि हमें अध्ययन करने और योग्य शिक्षकों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ हो, तो यह बात और अधिक सिद्ध हो जाती है, उसे हम कैसे गँवा सकते है? कैसा सौभाग्य है कि हम अध्ययन कर सकते हैं और ऐसे शिक्षकों से भेंट कर पाते हैं।

बेहतर पुनर्जन्मों का लक्ष्य साधना

प्रेरणा का प्रथम पड़ाव है निम्नतर पुनर्जन्म की स्थितियों से बचना तथा भावी जन्मों में बेहतर स्थितियां प्राप्त करना। यह इसलिए क्योंकि हम बहुत सी मनुष्येतर योनियों में पुनर्जन्म ले सकते हैं। परन्तु स्वर्गीय देव गतियों को प्राप्त करना एवं नरक गतियों से बचना अंतिम लक्ष्य नहीं है। उन्हें अंतिम लक्ष्य मानना बौद्ध धर्म नहीं है।

यथार्थवादी दृष्टि से विचार किया जाए तो हम एक जीवनकाल में कितना प्राप्त कर सकते हैं। हमें एक ही जीवनकाल में सबकुछ नहीं मिल सकता। बहुत लम्बा समय लगेगा बौद्धधर्मी पथ पर चलकर उल्लेखनीय प्रगति करने में। अत: हमें निरंतर बहुमूल्य मानव जीवन चाहिए। हमें निरंतर प्रथम सोपान रूपी अवसर चाहिए उच्चतर बौद्धधर्मी लक्ष्य सिद्ध करने के लिए। अत: भावी जीवनकाल सुधारने के लिए बहुमूल्य मानव जीवन आधार है। हमारे पास बहुमूल्य मानव जीवन है और हम भविष्य में भी निरंतर उसकी आशा करते हैं।

धर्म-लाइट व्याख्या का अर्थ, यदि हम पुनर्जन्म को समझते नहीं हैं या उसमें विश्वास नहीं करते, जीव की अदृश्य गतियाँ स्वर्ग तथा नरक तो छोड़ ही दीजिये, यह हो सकता है कि हम भावी पीढ़ियों को सुधारना चाहते हैं। जिस प्रकार अब हमें बहुमूल्य मानव जीवन मिला, हम चाहेंगें कि भावी पीढ़ियों को भी यह बहुमूल्य अवसर मिलते रहें, चाहे वह केवल हमारा परिवार हो अथवा व्यापकतर जगत। भावी पीढ़ियों का हित-साधन वास्तव में बौद्धधर्मी ग्रंथों में नहीं मिलता परन्तु यह धर्म की शिक्षाओं के अनुकूल है। अत: मेरे विचार में पश्चिमवासियों के रूप में हम यह दृष्टिकोण अपना सकते हैं। मेरे विचार में ऐसा लक्ष्य रखना पूर्णत: वैध एवं पूर्णत: सहायक होगा जब तक कि हम यह दावा न करें कि बौद्ध धर्म ऐसा कहता है और बौद्ध धर्म की उक्तियों को नकार दें जो भावी जीवनकालों के लिए हितकारी हैं।

इसके बाद, हम मृत्यु के प्रति सचेत रहते हैं। हम मृत्यु पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं। नि:संदेह, हम मृत्यु को प्राप्त होंगें। जिसने भी जन्म लिया वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और हम नहीं जानते कि वह कब होगा। मात्र मृत्यु के विषय में सोचना और उसके बाद कुछ भी न होना, निराशाजनक हो सकता है। मूल धर्म में कहा गया है कि इसके बाद पुनर्जन्म होगा, क्या हम उसके लिए तैयार हैं? मान लीजिये हमारी मृत्यु अभी हो जाती है, तो क्या हमें अनुभव होगा कि हम आगामी जन्म के लिए तैयार हैं? क्या हमें इस जीवन के विषय में पछताना पड़ेगा? क्या हमने इसे नष्ट किया? यदि यह हमारा अंतिम घंटा हो तो क्या हम इस जीवन को लेकर प्रसन्न हो पायेंगें? ये महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु हैं।

धर्म-लाइट व्याख्या में आपको गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि हमारी मृत्यु कभी भी हो सकती है। आज के वैश्विक परिदृश्य में यह और भी बड़ा यथार्थ है। हम भावी पीढ़ी के लिए क्या धरोहर छोड़ जायेंगे? हमने क्या किया? क्या हम अपने पीछे एक वित्तीय और भावात्मक झमेला छोड़ जायेंगे, अथवा हम अपने पीछे कुछ सकारात्मक भी छोड़ेंगें? लोग हमें किस प्रकार याद करेंगें? मृत्यु के विषय में सोचने के बाद हम सोचते हैं कि उसके बाद क्या होगा। हम निम्नतर पुनर्जन्मों के बारे में सोचते हैं। क्या हम एक तिलचट्टे के रूप में पुनर्जन्म लेना चाहेंगें कि जो भी हमें देखें वो हमें रौंद देना चाहे? ऐसी निकृष्ट स्थितियों की कल्पना बहुत दूर तक जा सकती है। यह अनिवार्य रूप से पशु गतियाँ ही नहीं, यह मनुष्य गति भी हो सकती है : भयंकर द्वेष भाव के शिकार, अवसरों से वंचित, इत्यादि। जब हमें यह अनुभव हो जाता है कि हमारे पास कितने बहुमूल्य अवसर और कितना अच्छा भाग्य है और फिर जब हम यह सोचते हैं कि भावी जन्मों में ये अवसर नहीं मिलेंगें तो यह हमारे लिए बहुत भयावह हो जाता है! हम नहीं चाहते कि वैसा हो। यदि हम वास्तव में इस प्रकार सोचें तो हम भावी जन्मों के लिए बहुत मुस्तैदी से तैयारी करेंगें। हम सब-कुछ भली प्रकार व्यवस्थित करेंगे।

पश्चिमवासियों के लिए यह विचार अत्यंत दुष्कर है क्योंकि हम पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं समझते। जो थोड़ा बहुत जानते हैं वह एक सरलीकरण है जो वास्तव में बौद्धधर्मी नहीं है। सच्चे मन से इसे अनुभव करना बहुत कठिन है। धर्म-लाइट व्याख्या, जैसा कि मैंने कहा, भावी पीढ़ियों के बारे में सोचना है, परन्तु इस जीवनकाल में परवर्ती समय में स्थितियां बदतर हो सकती हैं। क्या हम चाहते हैं कि कुछ भी सार्थक किये बिना हम किसी नर्सिंग होम में एक पहियों वाली कुर्सी पर बैठे रहें, पूरी तरह अवसाद ग्रस्त, अकेले और वृद्धावस्था के कष्टों का सामना करने में पूरी तरह अक्षम? इसकी कल्पना मात्र भयावह होगी। हम एक प्रकार का भावात्मक आधार एवं बोध तैयार करना चाहते हैं ताकि हम उस अपरिहार्य(जब तक कि कल हमारी मृत्यु न हो जाए) का सामना करने योग्य हो जाएँ : रोग, स्मृति-भ्रम, इन्द्रियों पर नियंत्रण खोना, अपनी आँतों पर नियंत्रण खोना, दूसरों पर निर्भर होना, मृत्यु। हम इन बातों का कैसे सामना करेंगे और अपनी गरिमा बचाए रखकर अवसाद ग्रस्त नहीं होंगें, जैसा कि प्राय: अधिकांश लोगों के साथ होता है। हमें इस पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और इसे नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। इसे नकारने से कोई लाभ नहीं है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। धर्म का अभिप्राय केवल सुखद बातों पर विचार करना नहीं है। हम भयप्रद बातों पर भी ध्यान देते हैं और प्रयास कर सकते हैं कि या तो उनसे बचा जाए अथवा कुछ ऐसा किया जाए कि कष्ट कम से कम हों।

अगला चरण है सुरक्षित दिशा अथवा शरणागति। यदि हम निम्नतर पुनर्जन्मों या जीवन के अंत में आने वाली निकृष्ट स्थितियों से स्वयं अपना अथवा भावी पीढ़ियों के लिए बचाव करना चाहते हैं, तो हम देखते हैं कि बुद्ध, धर्म और संघ इससे निकलने का मार्ग सुझाते हैं।

बुद्धजन अशांतकारी मनोभावों एवं कठिनाइयों से पूरी तरह छुटकारा पा चुके हैं तथा विमुक्त अर्हत तथा पूर्ण सिद्ध आर्य इसे आंशिक रूप में कर चुके हैं। हम इस लक्ष्य की और बढ़ रहे हैं जो वास्तव में विमुक्ति या ज्ञानोदय है। यदि हम बेहतर भावी जीवन के आकांक्षी है तो     शरणागति संकेत करती है कि वैसा कैसे किया जाए ताकि अनेक जीवनकालों के बाद हम वास्तव में विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्त कर सकें। सीधी-सादी भाषा में कहा जाए तो यह दिशा आत्म-सुधार की है।

धर्म-लाइट रूपांतर में हम आत्म-सुधार करते हैं और इस जीवनकाल को प्रथम सोपान मानते हैं। यह मान पाना कठिन होता है कि हम सब प्रकार के भ्रमों से मुक्त होकर पूर्ण क्षमता प्राप्त कर सकते हैं। हम यह भी नहीं जानते कि इसका अर्थ क्या है। उस दिशा में जाने के लिए उसका स्पष्ट बोध आवश्यक है और यह आश्वस्ति कि विमुक्ति एवं ज्ञानोदय संभव है। अत: धर्म-लाइट व्याख्या में यह समझने का प्रयास करेंगे कि सब प्रकार के भ्रमों तथा अशांतकारी मनोभावों पर नियंत्रण करना कैसे संभव होगा और साथ ही आश्वस्त होना कि यह संभव है। इस बीच हम कम से कम इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, हम नहीं जानते कि हम पूरा सफर तय कर पायेंगे या नहीं, परन्तु हम देखते हैं कि उस दिशा में जाना हितकारी है।

अब हमारे जीवन में एक अर्थ और दिशा विद्यमान है। यही कारण है कि शरणागति पर इतना अधिक बल दिया गया है। वस्तुत: धर्म-लाइट स्वरुप अथवा मूल धर्म स्वरुप में बहुत व्यापक अंतर है। सचमुच यह समझ पाना कि हम अपने जीवन में क्या कर रहे हैं एक बहुत बड़ा कदम है! इससे अत्यधिक सुरक्षा एवं परिपक्वता प्राप्त होती है। हम यहाँ उस अपरिपक्व रवैये की बात नहीं कर रहे,“हे बुद्ध, बुद्ध हमारी रक्षा करो!”जबकि हम कुछ नहीं करेंगें। यह बौद्ध धर्म नहीं है।

बुद्ध, धर्म और संघ की सुरक्षित दिशा में जाने के लिए हमें कर्म(व्यवहारगत कारण तथा परिणाम) को समझना होगा और हमें अपने व्यवहार को तदनुसार आशोधित करना होगा। यदि हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार कर रहें हैं तो हमें उसे पहचान कर उससे बचना होगा और हमें अधिक रचनात्मक ढंग से व्यवहार करना होगा। हमारा व्यवहार हमारे अनुभव को प्रभावित करेगा। यदि हम मूर्खों की भाँति व्यवहार करेंगे, लोग भी हमारे साथ मूर्खों जैसा व्यवहार करेंगें। क्या निष्ठुर होकर हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि लोग हमारे प्रति सहृदय रहें। यदि हम क्रूरता का व्यवहार करें, दूसरों को चोट पहुंचायें, ठगें तो दूसरे भी हमसे वैसा ही व्यवहार करेंगें। यदि हम अपने परिवार के प्रति दयाभाव रखते हैं तो स्थितियां अधिक सुखद रहेंगीं।

धर्म-लाइट रूपांतर में हमें सोचना चाहिए कि हम जैसा व्यवहार करेंगें वह हमारे जीवन में अनुभवों को प्रभावित करेगा परन्तु यह हमेशा स्पष्ट रूप से देखने में नहीं आता। हो सकता है हम अपने परिवार के प्रति बहुत सहृदय हों और फिर भी बहुत सी कठिनाइयों का और कष्टों का सामना करें और यह हो सकता है कि हम बहुत भ्रष्ट हों और हम भ्रष्टाचार से बहुत धनी हो जाएँ और फिर भी कभी न पकड़े जाएँ। तो हम कह सकते हैं, सामन्यतया यदि हम इस जीवन में अच्छा व्यवहार करते हैं तो हालात अच्छे होंगें और निकृष्ट यदि वैसा नहीं करते, परन्तु यह पूरी तरह निश्चित नहीं है। मूल धर्म अतीत और भावी जन्मों के बारे में विचार करता है क्योंकि इस जीवनकाल में सभी फल परिपक्व नहीं हो जाते और इस जीवन में जो परिपक्व होता है वह इस जीवन के कर्मों का फल नहीं होता।

धर्म-लाइट रूपांतर की शिक्षाओं में कर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि हमें दूसरों की सहायता करनी चाहिए और उन्हें ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए, यह बात धर्म के बिलकुल अनुकूल है परन्तु हम कैसे जान सकते हैं कि हमारे कृत्यों का क्या परिणाम होगा? हो सकता है कि हम किसी को प्रसन्न करने के लिए बहुत उत्तम भोजन तैयार करें परन्तु उस स्त्री या पुरुष के गले में हड्डी अटक जाए और उसका देहांत हो जाए। केवल यही निश्चित है कि हमारे कृत्यों का स्वयं हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हमारे अपने अनुभव के अनुसार। वस्तुतः यही कर्म की व्याख्या है।

इस सन्दर्भ में हम भावी जीवनकालों के बारे में सोचते हैं और उनके अभावग्रस्त होने की आशंका से बचते हैं ताकि प्रत्येक जीवनकाल में बहुमूल्य मानव जीवन के साथ, हम विमुक्ति तथा ज्ञानोदय के पथ पर आगे बढ़ते चले जाएँ।

मध्यवर्ती विषय क्षेत्र

प्रेरणा के मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र में हम अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से विमुक्ति का लक्ष्य साध रहे हैं। यदि हम पुनर्जन्म को नहीं समझते या उस पर विश्वास नहीं करते तो हम उससे मुक्ति पाने की इच्छा कैसे कर सकते हैं? यह तो एक चुटकुला हुआ। धर्म-लाइट रूपान्तर इस जीवन की हर प्रकार की समस्याओं से मुक्ति का लक्ष्य साध रहा है परन्तु वह बहुत अस्पष्ट है। मूल धर्म में आरम्भिक स्तर पर हम केवल दुःख के स्थूल स्तर, विशेषतया निम्नतर पुनर्जन्म के  कष्ट से बचना चाहते हैं। यहाँ मध्यवर्ती स्तर पर, हम अपने सुख की सामान्य समस्याओं के विषय में सोचते हैं जो उच्चतर गतियों के दुखों से परिभाषित होती हैं। यहाँ तक कि देवगतियों में अथवा मनुष्य के रूप में हमें अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। हम “सर्वसमावेशी दुःख” को भी देखते हैं, जो कि सामान्य सांसारिक चक्र है, नामतः हम जो भी किसी पुनर्जन्म में अनुभव करते हैं वह नियंत्रित होता है भ्रम से, भ्रम निरंतर साथ चलता है और अधिक भ्रम को जन्म देता है और बढ़ावा देता है। परन्तु, धर्म-लाइट में इन दो प्रकार के कष्टों को अधिक सामान्य रूप में देखते हैं, ताकि वे इस जीवन से सम्बन्धित रहें।

सामान्य प्रकार के सुख अधूरे होते हैं। क्यों? क्योंकि वे कभी तृप्त नहीं कर पाते। हमेशा कुछ कसर रह जाती है। हम सहवास केवल एक बार नहीं चाहते। हम केवल एक बार भोजन खाना नहीं चाहते। हम इन अनुभवों को बारम्बार चाहते हैं। इससे भी भयावह यह बात है कि कभी-कभी हमें अपनी प्रिय वस्तु अच्छी भी नहीं लगती। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर बार हमें वही खाद्य सामग्री अच्छी लगेगी अथवा प्रत्येक बार सहवास हमें संतुष्ट करेगा। इससे भी अधिक भयंकर बात यह है कि हम नहीं जानते कि आगे क्या होने वाला है। एक पल में हम अत्यंत प्रसन्न होते हैं और दूसरे ही पल में हमारी मनोदशा बिगड़ जाती है। यह अत्यंत असंतोषजनक है।

हमें उस मनोदशा से आगे बढ़ना है जिसमें हम किसी भी प्रकार कोई भी आनंद प्राप्त कर लेना चाहते हैं। इसके पीछे प्राय: यह मिथक, यह भ्रामक कल्पना रहती है कि हम खाद्य सामग्री से, यौन सम्बन्ध में, मैत्री में अथवा सम्पदा आदि में सम्पूर्ण आनंद प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु ऐसा विश्वास भ्रमजनित होता है। हम इसी से प्रेरित होकर इन चीज़ों के पीछे दौड़ते हैं परन्तु उनका अनुभव हमें तृप्त नहीं कर पाता, और इस तरह भ्रम बढ़ता चला जाता है। हम सोचते हैं हो सकता है कि वह हमें अगली बार सम्पूर्ण आनंद दे। हमें उस बिंदु तक पहुंचना है जहाँ हम “नैषकाम्य” तक पहुँच सकें। यह केवल संकल्प नहीं है इस दुष्चक्र से मुक्त होने का, यह इस सबके प्रति ऊब और विरक्ति से प्रेरित होता है। यह कितना मूर्खतापूर्ण और उबाऊ है कि हम इन चीज़ों से स्थायी आनंद प्राप्त करने की इच्छा में दीवार पर सिर पटकते रहें। नैषकाम्य के बल पर हम संकल्पबद्ध होते हैं मुक्त होने के लिए और यह जन्म लेता है इस बोध के आधार पर कि विमुक्ति की संभावना है; एक विकल्प मौजूद है।

नैषकाम्य के बल पर, हम समझ लेते हैं कि ब्रह्माण्ड का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ हम जाना चाहते हैं। सबकुछ एक जैसा है। कुछ स्थान दूसरों से बेहतर हैं, परन्तु सब कुछ निरर्थक है। ऐसा कोई धर्म केंद्र नहीं है जिसके विषय में हम सोचें कि सुख प्राप्त करने के लिए हमें किससे जुड़ना चाहिए। हम समझ लेते हैं कि कोई ऐसा केंद्र नहीं है जो पूर्णत: दोषमुक्त हो और अपरिहार्य रूप से प्रत्येक केंद्र में आंतरिक एवं राजनैतिक दूषण होंगें। ऐसा कोई मठ नहीं है जिससे हम जुड़ना चाहें। किसी भी मठ को ले लीजिये वहां भी वही आंतरिक, राजनैतिक गन्दगी होगी। ऐसी कोई विशेष मित्रता नहीं जिसे हम बढ़ाना चाहें क्योंकि प्रत्येक मैत्री में अनिवार्य रूप से समस्याएँ एवं कठिनाइयाँ होंगी।

यद्यपि, इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम हताश होकर आत्महत्या ही कर लें क्योंकि सबकुछ इतना निराशाजनक है। इसके स्थान पर क्योंकि हम किसी चीज़ की और आकृष्ट नहीं हैं और हमारे मन में ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि हमें कोई आदर्श धर्म-केंद्र, मठ, मित्र, निवास स्थान, व्यवसाय, जीवनसाथी आदि मिल जायें तो फिर हम ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जो हमारे मुक्ति पथ की प्रगति में सहायक हों। इस कसौटी के आधार पर हम एक धर्म-केंद्र, मठ, रहने का स्थान आदि चुन लेते हैं, उसे विश्व का सर्वोत्तम स्थान मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा किये बिना। उनमें से कोई ऐसा नहीं। यह संसार है। संसार की स्थितियां कभी तुष्ट नहीं कर पाती, वे पूर्णत: दोषमुक्त नहीं होती, उनमें बराबर उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इस प्रकार हमें नैषकाम्य को समझना होगा।

नैषकाम्य की धर्म-लाइट व्याख्या उस इच्छा का नाम है जिसमें हम इस जीवन के दुखों से निकलना चाहते हैं। मूल धर्म की व्याख्या भावी जीवन के बारे में भी सोचती है, केवल इस जन्म के विषय में नहीं। तीन प्रकार के दुःख बराबर चलते रहते हैं एक के बाद एक आने वाले जीवनकाल में, जब तक कि हम कुछ करते नहीं, अनियंत्रित रूप से चलने वाले इस आवर्ती चक्र के विषय में।

यहाँ हम देख सकते हैं कि सभी शिक्षाएं गोरखधंधे की तरह हैं जिन्हें एक साथ जोड़ना होता है जिसमें प्रत्येक टुकड़ा अलग-अलग ढंग से रखा जा सकता है। उदहारण के लिए, यदि हम गोरखधंधे का, बहुमूल्य मानव जीवन वाला टुकड़ा नैषकाम्य के साथ नहीं रखते तो हम ऐसे बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ हमें लगने लगता है कि कोई स्थान अच्छा नहीं है, हम कहीं नहीं जाना चाहते, सब कुछ व्यर्थ है, और हम कुछ भी करना नहीं चाहते। नैषकाम्य का यह अर्थ नहीं है। नैषकाम्य हमें अपने बहुमूल्य मानव जीवन का लाभ उठाने में सहायता करता है।

इसके बाद प्रेरणा के मध्यवर्ती विषय क्षेत्र में हमें इन समस्याओं, कठिनाइयों तथा अशांतकारी मनोभावों के कारणों पर विचार करना होगा। इन सबके विषय में धर्म हमें अकल्पनीय परिष्कृत स्पष्टीकरण देता है। इन सबकी उत्पत्ति भ्रम से होती है। एक सीधा सा उदहारण है, सफ़ेद घोड़े पर सवार सपनों के राजकुमार या राजकुमारी के मिथक का, जिससे वशीभूत होकर हम दूसरों में आदर्श भ्रामक कल्पनाओं का प्रक्षेपण कर लेते हैं। हम आसक्त हो जाते हैं और फिर क्रोधित जब वह स्त्री या पुरुष हमारी असंभव अपेक्षाओं पर पूरा नहीं उतरता अथवा हम ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं क्योंकि कोई अन्य व्यक्ति हमारे राजकुमार या राजकुमारी को अपना बनाने वाला है। बौद्धधर्म इसकी उत्पत्ति का सम्पूर्ण विश्लेषण प्रदान करता है। यह विलक्षण है। धर्म-लाइट व्याख्या इन संलक्षणों के कारण पर विचार करती है, केवल इस जीवनकाल के सन्दर्भ और संभवत: अधिक से अधिक विगत जन्मों के प्रभावों के कारण पर दृष्टिपात करके। अत: धर्म-लाइट व्याख्या एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है जो कि पर्याप्त गहन नहीं है। मूल धर्म संस्करण इन संलक्षणों एवं उनके कारणों पर पिछले जीवनकालों के आवर्ती प्रतिरूपों के रूप में विचार करता है। इस जीवनकाल में हमारे साथ जो कुछ भी घटित हुआ, केवल उसे ध्यान में रखकर सर्वांग की पूर्ण व्याख्या कर पाना संभव नहीं है। यह मात्र आंशिक है।

लाम-रिम का अगला विषय प्रतीत्यसमउत्पाद के द्वादश निदानों की चर्चा है। यह पुनर्जन्म का अत्यंत परिष्कृत एवं जटिल विश्लेषण है; किस प्रकार अशांतकारी मनोभाव कर्मों के साथ मिलकर कुछ आवर्ती प्रतिरूपों को सक्रिय कर देते हैं जो प्रवृत्तियों, व्यक्तित्व के लक्षणों के रूप में विभिन्न जीवनकालों में बार-बार घटित होते हैं, आदि। यह पूरा परिदृश्य देखकर हमें वास्तव में समझ में आता है कि सांसारिक पुनर्जन्म की प्रक्रिया कितनी वितृष्णा एवं विसंगति उत्पन्न करने वाली है। यद्यपि धर्म-लाइट दृष्टिकोण से हम इस बार-बार घटित होने वाले आवर्ती प्रतिरूपों को कुछ हद तक समझ सकते हैं, परन्तु मूल धर्म पुनर्जन्म की प्रक्रिया की चर्चा करता है। यहाँ यही गहन सत्य है।

इस भयावह चक्र से निकलने के लिए हमें तीन उच्चतर शिक्षाओं की आवश्यकता होती है : नैतिक आत्म-अनुशासन, एकाग्रता एवं सविवेकी सचेतनता(प्रज्ञा)। यहाँ नैतिक आत्म-अनुशासन का अर्थ है प्रतिमोक्ष(गृहस्थ या मठवासी के संवर धारण करना)। चूँकि हम वास्तव में संसार से छुटकारा पाना चाहते हैं, हम ऐसी चीज़ों से बचने का संकल्प करते हैं जो प्रतिमोक्ष में बाधक हों। यहाँ हमें संवर धारण करने के विषय में कोई दीर्घ चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिमोक्ष के लिए ये संवर धारण करने का अभिप्राय है कि पहले से हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि प्रतिमोक्ष संभव है और विनाशकारी व्यवहार से बचने की वचनबद्धता हमें इस दिशा में आगे बढ़ने में सहायक होगी। यह पूरी तरह नैषकाम्य पर आधारित है, विनाशकारी व्यवहार का त्याग, क्योंकि हमने देख लिया है कि विनाशकारी ढंग से व्यवहार करना, बोलना और सोचना हमें इस दिशा से विमुख करता है।

यह तथ्य कि संवर धारण करने की चर्चा अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों के बाद आती है यह बताता है कि हम कुछ असंगत कारणों से संवर धारण नहीं कर रहे जैसे,“मैं अच्छा व्यक्ति बनना चाहता हूँ।”,“मैं अपने गुरु को प्रसन्न करना चाहता हूँ,”इत्यादि। हम संवर धारण करते हैं चूँकि हम जानते हैं कि प्रतिमोक्ष संभव है। संवर मर्यादाएं रेखांकित करते हैं ताकि हम उनका उल्लंघन न करें और अपने लक्ष्य तक पहुँच सकें। तब हमारे भीतर अनिश्चयकारी दुविधा नहीं रह जाती कि हम कैसे व्यवहार करें। उदाहरण के लिए, अब हम मदिरापान नहीं करते क्योंकि हम समझ चुके हैं कि वह हमारे चित्त को धुंधला करती है और हम एकाग्र नहीं हो पाते। हमें मर्यादाएं तय करनी होंगीं। इसका आज्ञाकारी होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। संवर धारण करना सुदृढ़ सविवेकी सचेतनता पर आधारित है कि इन संवरों के मार्गदर्शी सिद्धांतों का पालन करना लाभकारी है। फिर नैतिक आत्म-अनुशासन के आधार पर हम एकाग्रता विकसित करते हैं, सविवेकी सचेतनता सहित, शून्यता पर एकाग्र होते हैं जो यथार्थता का गहनतम बोध है, उस भ्रम से मुक्ति पाने के लिए जो अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्मों का उत्पत्तिकारक है। मध्यवर्ती विषय क्षेत्र में एकाग्रता एवं शून्यता पर विस्तार से विचार नहीं किया गया है : उनका उल्लेख मात्र है।

उन्नत विषय क्षेत्र

प्रेरणा का उन्नत विषय क्षेत्र ज्ञानोदय की तैयारी करना है। एक बार जब हम उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं जहाँ हम विमुक्ति की तैयारी कर रहे होते हैं ताकि अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से छुटकारा पा सकें। हमें उस बिंदु तक पहुंचना होता है जहाँ हम विकास क्रम में और आगे बढ़ सकें ताकि हम दूसरों की भी सहायता कर सकें। प्रेरणा सम्बन्धी धर्म-लाइट व्याख्या में हम केवल सबके प्रति सहृदय होकर सहायक होना चाहते हैं। हम केवल उसकी चर्चा नहीं कर रहे। हम उनकी सहायता करना चाहते हैं ताकि वे अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से छुटकारा पा सके। यह केवल उनके प्रति सहृदय होने से अधिक है।

शून्यता के प्रति एकाग्रता एवं उसके बोध के लिए प्रबल ऊर्जा चाहिए ताकि वे हमें ज्ञानोदय प्रदान कर सकें और यह बोधिचित्त से संभव होता है। सरल शब्दावली में, बोधिचित्त वह मनोदशा है जिसमें हम सोचते हैं :“मुझे यथासंभव सबकी सहायता करनी है, और वैसा करने के लिए मुझे ज्ञानोदय प्राप्त करना है, और इसलिए मैं उस सिद्धि को अपना लक्ष्य बनाऊंगा”।

हमारा चित्त; हमारा शरीर सीमित है। यह कुछ ऐसी स्थिति है मानो हम किसी पनडुब्बी के भीतर हैं और प्रतिदर्शी के माध्यम से देख रहे हैं। हम केवल वही देख पाते हैं जो हमारी आँखों के ठीक सामने हो। हम पूरी तरह से प्रत्येक वस्तु की परस्पर सम्बद्धता नहीं देख पाते जो अस्तित्व में रही है अथवा रहेगी। जब हम दूसरों को देखते हैं, तो हम नहीं देख पाते कि उनकी वर्तमान मनोदशा किस प्रकार अब तक अस्तित्वमान प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक पशु से प्रभावित हुई है, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज आदि के माध्यम से। हमें यह सब जानना होगा, ताकि हम उनके लिए उपयुक्त शिक्षा चुन सकें। हम यह भी नहीं जानते कि हमारे शिक्षण का उन पर क्या प्रभाव होगा, उनका श्रवण करने से और उनसे प्रभावित होकर उनके द्वारा उन लोगों पर क्या प्रभाव होगा जो उनसे कालांतर में मिलेंगें। इसके विषय में सोचिये। हम केवल प्रतिदर्शी के माध्यम से देखते हैं, हम परस्पर सम्बद्धता नहीं देख पाते, प्रत्येक जीव के विगत और भावी जीवनकालों का तो क्या ही उल्लेख किया जाए। जब तक हम इन सब बातों के प्रति सजग नहीं होंगे, हम उन सबके लिए सर्वोत्तम शिक्षा का चयन कैसे कर सकते हैं?

धर्म-लाइट रूपांतर के अनुसार प्रत्येक जीव का केवल एक जीवन होता है और इसलिए उसमें केवल एक जीवनकाल के कारणों और परिणामों पर चिन्तन किया जाता है। मूल धर्म में यह माना जाता है कि प्रत्येक जीव के असंख्य जन्म हैं, अत: यह अधिक जटिल हो जाता है। यह जानने के लिए कि किस प्रकार सबकी अधिक से अधिक सहायता की जाए, हमें इस जड़ प्रतिदर्शी से छुटकारा पाना होगा अर्थात हमें ज्ञानोदय प्राप्त करना होगा। संसार से विमुक्त हो जाने के बाद भी हम प्रतिदर्शी के माध्यम से देख रहे होते हैं, परन्तु उस बिंदु पर पहुंचकर हम मूर्ख नहीं बनते, हम यह नहीं मानते कि वस्तुएं उस रूप में अस्तित्व में हैं जैसी वे प्रतीत होती हैं। प्रतिदर्शी से छुटकारा पा लेने के बाद हम अनित्य नहीं रह जाते। ज्ञानोदय के एक सरलीकृत विचार का बोध प्राप्त किये बिना कि वास्तव में वह क्या है और हमें ज्ञानोदय क्यों प्राप्त करना चाहिए, हम बोधिचित्त कैसे विकसित कर सकते हैं? हमें उसी का अभ्यास करना है।

धर्म-लाइट रूपांतर से संभवत: यह होगा,“ओह, मैं बुद्ध बनना चाहता हूँ क्योंकि यह कितना अद्भुत है! यह उच्चतम अवस्था है जिसमें मैं सबकी सहायता कर पाऊंगा!” यह एक परिकथा होगी, हम यहाँ से आरम्भ कर सकते हैं, परन्तु हमें समझना होगा कि कुछ ऐसा भी है जो इससे कहीं अधिक सारगर्भित है।

फिर हम बोधिसत्व संवर धारण करते हैं। इनमें बताया जाता है कि हमें किन कृत्यों एवं दृष्टिकोणों से बचना चाहिए और क्या करना चाहिए ताकि दूसरों का सर्वोत्तम हित-साधन कर सकें और ज्ञानोदय प्राप्त कर सकें। यह अद्भुत है। हम जानते हैं कि इस मार्ग में हमारे लिए क्या बाधक होगा, तो, हम उससे बचते हैं।

जैसे-जैसे इस पथ पर हम आगे बढ़ते हैं, हम छ: व्यापक मनोदृष्टियों का अभ्यास करते हैं जिन्हें प्राय: छ: पारमिताओं के नाम से जाना जाता है। हम उनके विषय में दो प्रकार सोच सकते हैं : स्वयं लाभान्वित होकर दूसरों को लाभ पहुँचाने योग्य होना और फिर वास्तव में दूसरों को लाभान्वित करना। हमें सबकुछ देने के लिए तत्पर होना चाहिए। यह उदारता है। इस दृष्टिकोण के बिना हम इस पथ पर कैसे चल पायेंगे? फिर हमें अनुशासन की आवश्यकता है अन्यथा हम अपनी समग्र ऊर्जा एवं समय का उपयोग कैसे कर पायेंगें? अनुशासन हमें ध्यान साधना, अनुशीलन आदि पर एकाग्र रखता है, और हम उनपर स्थिर रहते हैं। यह करना कठिन होगा। इसके लिए धैर्य चाहिए ताकि इस पथ पर बढ़ते हुए हम हताश एवं क्रोधित न हो जाएँ। इसके पश्चात हमें आनंदमय लगनशीलता चाहिए क्योंकि नि:संदेह, हम यह सब स्वयं करते हैं। उतार-चढ़ाव आते जायेंगें। हमें इस पथ से विचलित नहीं होना है। चाहे कुछ भी हो जाए। हम धर्म-साधना में आगे बढ़ते जायेंगें आनंद की भावना के साथ क्योंकि हम उसे हितकारी मान रहे हैं।

हम अपनी लगनशीलता का कहाँ उपयोग करें? सबसे पहले हमें एकाग्रता बढ़ानी है। वास्तव में इस शब्दावली का अर्थ केवल एकाग्रता नहीं अपितु सामान्यतया मानसिक स्थिरता है। मानसिक स्थिरता के साथ न केवल हमारा चित्त स्थिर होता है और शिथिल नहीं होता है बल्कि भावनाओं के दलदल में फंसकर उसमें उतार-चढ़ाव नहीं आते रहते हैं। हमारा चित्त एवं मनोदशा स्थिर रहते हैं अत: जब हम भावनात्मक रूप से जटिल स्थिति में होते हैं तो हमारी एकाग्रता भंग नहीं होती। समकालीन वैश्विक स्थितियों में जहाँ इतना तनाव और परेशानियाँ है, हम इस बात को मानते हैं कि स्थितियां निराशाजनक अथवा कठिन हैं परन्तु हमारी एकाग्रता भंग नहीं होती। हम केवल अपने श्वास पर ध्यान एकाग्र नहीं कर रहे, अपितु यथार्थ के सविवेकी बोध पर एकाग्र हो रहे हैं ताकि असंभव अस्तित्व, अपनी समस्त भ्रामक कल्पनाओं के असंभव प्रतिक्षेपण से मुक्त हो सकें और वास्तविकता पर केन्द्रित रह सकें।

दूसरों की वास्तव में सहायता करते हुए हम दूसरों को उदार भाव से न केवल भौतिक वस्तुएं देते हैं अपितु उन्हें सम्मान एवं सीखने के अवसर प्रदान करते हैं। हम शिक्षा के रूप में उनकी सहायता करते हैं हम उन्हें यह स्वतंत्रता प्रदान करते हैं कि वे हमसे भयभीत न हों कि हम उनकी उपेक्षा करके उनका बहिष्कार करेंगे, तिरस्कार करेंगे अथवा उनके मोह में बंधे रहेंगे। हम उन्हें अपना निश्छल प्रेम देते हैं। हम वास्तव में चाहते हैं कि वे सुखी रहें। हम उन्हें अपने सुख-भोग के लिए माध्यम नहीं बनाते। हम अनुशासन के बल पर उनकी यथासंभव सहायता करते हैं और उन्हें आहत नहीं करते। हम अपनी क्षमता के अनुसार उनकी सहायता करते हैं। हम यथासामर्थ्य उनके काम आते हैं बजाय यह कहने के “क्षमा करें, मैं व्यस्त हूँ। मैं आज आपकी सहायता नहीं कर पाऊंगा।” हमें धैर्य से काम लेना होगा क्योंकि यह काम कठिन होगा। लोग हमारे लिए कठिनाई उत्पन्न करेंगे। हमें धैर्य से काम लेना होगा कि हम क्रोधित अथवा हताश न हो जाएँ क्योंकि हम भगवान नहीं हैं और चुटकी बजाते पथ की कठिनाइयों को नहीं दूर कर सकते, हमें हर्षयुक्त दृढ़प्रतिज्ञ भाव अपनाना होगा कि हम सहायता करें, प्रयत्नशील रहें, इस बात की चिंता किये बिना कि लोगों में सुधार हो रहा है या नहीं अथवा उतार-चढ़ाव आ रहें हैं या नहीं।

हमें लोगों की सहायता करने के लिए एकाग्र रहना होगा, विचलित हुए बिना, चाहे हम उनके प्रति आकर्षण का अनुभव करें अथवा वितृष्णा का। फिर हमें सविवेकी सचेतनता की आवश्यकता होगी कि हम लोगों के प्रति अपने प्रक्षेपण और आत्म-निर्मित भ्रामक कल्पनाओं तथा उनके वास्तविक अस्तित्व में सविवेक भेद कर सकें। हमें सविवेक भेद करना होगा कि क्या हितकारी है और क्या अहितकारी।

धर्म-लाइट के साथ इस जीवनकाल में हम केवल लोगों की सहायता करने का अभ्यास कर रहें हैं। मूल धर्म के माध्यम से हम दूसरों की सहायता करते हैं और उससे निसृत सकारात्मक बल के माध्यम से हम अपने प्रतिदर्शी बोध से छुटकारा पा सकते हैं ताकि हम उनकी यथासंभव सहायता कर सकें, प्रेम, करुणा आदि सहित।

वीडियो: खान्द्रो रिन्पोचे - करुणा क्या है?
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उपसंहार

यह क्रमिक पथ के स्तरों की बुनियादी संरचना की सामान्य चर्चा है, इसमें बहुत उद्यम अपेक्षित है। यदि हम धर्म-लाइट के स्तर पर हैं तो हमें लाज्जित अथवा बुरा महसूस नहीं करना चाहिए, क्योकि वास्तव में हममें से अधिकांश उसी स्तर पर हैं। पूरे मनोयोग से धर्म-लाइट का अनुशीलन कीजिये यदि आप उस स्तर पर हैं और ऐसा पूरी सत्यनिष्ठा से कीजिये। परन्तु सदैव इस दृष्टिकोण के साथ कि यह प्रथम सोपान है। हमें इस बात को समझना और स्वीकार करना होगा कि पुनर्जन्मों में सुधार करना कितना महत्वपूर्ण है ताकि कालांतर में हम विमुक्ति तथा ज्ञानोदय की तैयारी कर सकें। हमें इन शिक्षाओं को सतही नहीं बनाना चाहिए, न ही यह स्वांग भरना चाहिए और न ही यह दिखावा करना चाहिए कि हम प्रेरणा के उन्नत पर हैं, हम जिस भी स्तर पर हों हम बराबर प्रयास करते रहें, दूसरों की भरसक सहायता करने की।

समर्पण

जैसा कि मैं अनेक बार कह चूका हूँ यदि इन बातों की चर्चा से हमारे भीतर कुछ समझ, कुछ सकारात्मक बल निर्मित हुआ है तो उस रूप में भी वह सकारात्मक बल स्वत: संसार को सुधारने का कारक बन जाएगा। यह बहुत अच्छी बात है परन्तु इस बल के आधार पर हम इससे आगे भी बहुत कुछ कर सकते हैं। हम केवल अपने जीवन को कुछ सरल बनाने की इच्छा नहीं रखते। वह तो धर्म-लाइट हुआ। हम तो यह चाहते हैं कि सचेत रूप से इसे समर्पित कर ज्ञानोदय का कारक बनाएं, केवल अपने अशांतकारी मनोभावों से ही नहीं अपितु अपने परिदर्शी दृष्टिबोध से छुटकारा पाने के लिए ताकि हम वास्तव में दूसरों की अधिकतम सहायता कर सकें। धन्यवाद।

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