बौद्ध धर्म में, करुणा केवल एक भव्य आदर्श ही नहीं, अपितु एक प्रबल और रूपांतरकारी शक्ति भी है जो हमारी आध्यात्मिक साधना का मूल है। करुणा को विकसित करना पूर्ण रूप से अनिवार्य है, न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए, अपितु, एक अधिक शांतिपूर्ण एवं समरसतापूर्ण संसार के निर्माण के लिए भी — लगभग सभी लोग इसकी कामना करते हैं। हम अपने भीतर करुणा की एक विस्तृत भावना का विकास करके दूसरों के जीवन को अद्भुत विधियों से प्रभावित कर सकते हैं, अँधेरे में प्रकाश ला सकते हैं, दु:ख में सांत्वना दे सकते हैं। यही करुणा की शक्ति है।
हमें करुणा क्यों विकसित करनी चाहिए?
हममें से कुछ लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि, “मुझे करुणा विकसित करने की क्या आवश्यकता है?” हो सकता है कि हम अपने जीवन में सुख और सफलता का अनुभव कर रहे हों और हमें ऐसा लग रहा हो कि हमें ऐसा कुछ भी विकसित करने की कोई आवश्यकता नहीं है जिसमें हमें कोई विशेष लाभ दिखाई न दे रहा हो। परन्तु, यदि हम अपनेआप को सुखी और सफल अनुभव कर रहे हैं, तो हम यह जाँचकर देख सकते हैं कि यह अनुभव अन्य लोगों पर किस हद तक निर्भर है, जैसे कि वे लोग जो हमारे लिए खाद्य पदार्थ उगाते हैं, या फिर वे जो हमारी सड़कों का रख-रखाव करते हैं। वस्तुतः, दूसरों के बिना हम कहाँ होते?
जब हम इस बात को समझते लेते हैं कि, वास्तव में, हम अपने आस-पास की दुनिया के ऋणि हैं, तब हमें इस बात का भी बोध हो जाएगा कि करुणा का विकास ही एक ऐसी कुंजी है जिससे हम अपने करीबी और दूर के लोगों के साथ के गहनतर सम्बन्धों के पट खोल सकते हैं। बुद्ध ने यह सिखाया है कि सभी जीवों का परस्पर सम्बन्ध है और, इसलिए, दूसरों के सुख-दुःख हमारे अपने सुख-दुःख से सूक्ष्म रूप से जुड़े हुए हैं।
जब हम करुणा विकसित करते हैं तो एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित होती है: हम अपने तथा अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, इच्छाओं, और चिंताओं से परे देखने लगते हैं। हम इस बात को समझने लगते हैं कि दूसरों का सुख और भलाई उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी हमारी अपनी। तिब्बती गुरुओं ने एक सुंदर-सा अभ्यास बताया है कि हम अपनेआप को एक ओर देखें जहाँ हम अकेले अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं के साथ हैं, और दूसरी और बाकी सब हैं — सभी जीव, अपनी-अपनी आशाओं और संघर्षों को लिए हुए। फिर हम अपनेआप से यह प्रश्न करें कि किसकी आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, केवल मेरी या बाकी सभी की अनगिनत आवश्यकताएँ। हमारे दृष्टिकोण में यह परिवर्तन केवल दूसरों की सहायता करने तक ही सीमित नहीं है - यह हमें अपनी उस स्वार्थपरता में लिप्त रहने से भी बचाता है, जिसके कारण हम केवल अपने ही बारे में सोचते हैं।
[उद्धरण] यदि आप यह चाहते हैं कि दूसरे सभी सुखी रहें, तो करुणा का अभ्यास करें। यदि आप यह चाहते हैं कि दूसरे सभी सुखी रहें, तो करुणा का अभ्यास करें। — परम पावन 14वें दलाई लामा
इसके अतिरिक्त, बुद्ध के अनुसार, करुणा असली सुख का स्रोत है। हमारी जीवन-वृत्ति में भौतिक वस्तुओं या उपलब्धियों के पीछे भागने के विपरीत — जो केवल अस्थायी संतुष्टि प्रदान करते हैं — करुणा स्थायी संतृप्ति लाती है। यह हमें रोज़मर्रा के छोटे-छोटे क्षणों में सुख ढूंढ़ने और उन्हें प्राप्त करने देती है — जैसे दूसरों से कुछ पाने की आशा किए बिना उन्हें कुछ देना, या किसी अपरिचित को देखकर केवल मुस्कराना। यह सुख किन्हीं बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होता; यह हमारे ही जैसे सुखी रहने की कामना रखने वाले दूसरे जीवों की परवाह करने और उनके साथ मानवीय व्यवहार करने मात्र से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है।
करुणा विकसित करने के लाभ
पहले-पहल तो हमें ऐसा लग सकता है कि दूसरों के दुःख पर ध्यान देना और उसके बारे में कुछ करने की इच्छा रखना हमें भावात्मक बोझ के तले दबा देगा। परन्तु, यहाँ अंतर्विरोध यह है कि हम करुणा को जितना अधिक विकसित करते हैं, बौद्धिक और नैतिक स्तर पर हम उतना ही अधिक अपनेआप को ऊपर उठाते हैं, जिससे हमे अपने जीवन में अधिक शान्ति तथा उद्देश्य की प्राप्ति होती है। सरल शब्दों में, करुणा विकसित करने से हमें अपने लिए और हमारे आस-पास के संसार के लिए भी अनंत लाभ मिलते हैं।
व्यक्तिगत स्तर पर देखा जाए तो यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया जा चुका है कि करुणा से तनाव, चिंता और विषाद को कम किया जा सकता है। यह हमें भावात्मक दृढ़ता को सुदृढ़ करने में सहायक होती है जिससे जीवन की सभी चुनौतियों का सामना करना सरल हो जाता है। साथ ही, करुणा हमारे व्यक्तिगत संबंधों को समृद्ध बनाती है, जिससे हम उन लोगों के प्रति अधिक सहानुभूतिशील, संवेदनशील, और उत्साह बढ़ाने वाले बनते हैं, जिनकी हमें परवाह है।
व्यापकतर स्तर पर परखा जाए तो करुणा में समाज को बदलने की शक्ति होती है। जब हम करुणासम्पन्न होकर कार्य करते हैं, तो हम अनुकम्पा और संवेदना के संस्कार को आगे बढ़ाते हैं। इससे एक सकारात्मक वातावरण बनता है जहाँ लोग अपनेआप को समादृत एवं और प्रोत्साहित अनुभव करते हैं, जिससे सामाजिक सद्भाव और एकता बढ़ जाती है।
तथापि, करुणा का सबसे बड़ा लाभ संभवतः यह है कि यह हमें अपनी मूल स्वभाव से जोड़ती है। करुणा अलगाव के भ्रम से परे देखने में हमारी सहायता करती है जिससे सभी जीवों के परस्पर संबंध प्रकट हो जाते हैं। इस बोध में हमें अपने जीवन के उद्देश्य का ज्ञान ही नहीं, अपितु दीर्घकालीन शांति और संतृप्ति का मार्ग भी प्रदर्शित हो जाता है।
करुणा को विकसित करने की विधियाँ
बुद्ध ने करुणा विकसित करने की कई विधियाँ सिखाई हैं। जब हम यथासंभव अधिकाधिक विधियों में अपनेआप को प्रशिक्षित कर लेते हैं, तब दूसरों के प्रति हमारी करुणा एक स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया बन जाती है और, इसके फलस्वरूप, हम कृपा के कृत्य सहज रूप से कर पाते हैं।
दूसरों के दुखों पर विचार करना
हम एक ऐसे संसार में रहते हैं जहाँ बढ़ती संख्या में लोग “करुणा-जनित मानसिक थकान" का अनुभव करने लगते हैं। सोशल मीडिया पर युद्ध, अकाल, एवं अन्यान्य आपदाओं की तस्वीरों के अनवरत प्रवाह के कारण हममें से कई लोग विह्वल हो जाते हैं, तथा और अधिक दुखों का सामना करने लिए अनुत्सुक हो जाते हैं।
परन्तु, करुणा विकसित करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है दूसरों के दुखों पर सक्रिय रूप से विचार करना। अतः, जब हम समाचारों में कोई भी त्रासदी देखते हैं, तो हमें केवल इतना कहकर आगे नहीं बढ़ जाना है कि, “ओह, कितना भयावह है”। चलिए, शरणार्थियों के बारे में एक समाचार का उदाहरण लेते हैं। हम कुछ समय इस बात पर विचार करते हैं कि अपनी मातृभूमि और अपना संसार छोड़कर किसी अज्ञात स्थान के लिए निकल जाना कितना भयावह होता है। न केवल इस विपदापूर्ण यात्रा के दौरान वे अपने जीवन को जोखिम में डालते हैं, अपितु, वहाँ पहुँचने पर भी स्थानीय लोग उनके साथ संदेह, भय, या उदासीनतापूर्ण व्यवहार करते हैं। अब यह सोचिए कि यदि हम या हमारे प्रियजन इस संकटपूर्ण स्थिति में होते तो कितना डरावना होता, और तब हमारे भीतर स्वाभाविक रूप से करुणा की भावना पैदा हो जाती: “काश ऐसे दुःख का सामना किसी को भी न करना पड़े।"
यहाँ यह बात स्पष्ट है कि दुःख पर विचार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम पीड़ा या शोक में डूबे रहें या उससे द्रवित हो जाएँ, अपितु, इस बात को पहचानना है कि दु:ख एक सार्वभौमिक अनुभव है। दूसरों - हमारे आस-पास के तथा दूरस्थ देशों में रहने वाले लोगों – द्वारा झेली जाने वाली चुनौतियों को समझकर हम उनके दु:खों को कम करने की सच्ची कामना पैदा कर सकते हैं।
अनुकम्पा के कार्य करना
जैसे पहले बताया गया है, करुणा केवल एक अनुभूति नहीं हैं, वह हमारे कृत्यों में भी निहित होती है। अनुकम्पा के छोटे-छोटे कृत्य भी — चाहे वह सहायता के लिए हाथ बढ़ाना हो, चाहे किसी की बात को ध्यान से सुनना हो, या किसी अपरिचित को देखकर मुस्कराना हो — हमें अपनी करुणा को व्यावहारिक रूप देने में सहायक होते हैं।
हो सकता है कि अनुकम्पा के ये छोटे-छोटे कृत्य नगण्य लगते हों, परन्तु, हमारी कल्पना से परे कई लोगों के जीवन को प्रभावित करने के कारण, इनका प्रभाव बहुत व्यापक हो जाता है। अनुकम्पा एक मांसपेशी की तरह होती है और इसलिए हमारे द्वारा किया गया छोटे से छोटा करुणामय कृत्य हमारे करुणाभाव को प्रबल बनाता है, जिससे भविष्य में हम आसानी से सहानुभूतिपूर्ण और सेवा-भाव से भरा आचरण कर पाते हैं। एक ऐसे संसार में जो विभाजित प्रतीत होता है, अनुकम्पा के ये छोटे-छोटे कृत्य हमें अन्य प्राणियों के समीप ला सकते हैं और संसार को प्रसन्नचित्त बनाने में सहायता कर सकते हैं।
परहितकारी प्रेम का अभ्यास
परहितकारी प्रेम, अर्थात्, दूसरों के सुखी रहने की हमारी अकृत्रिम इच्छा, का करुणा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह वह प्रबल अभ्यास है जिसके द्वारा हम निजी स्वार्थ से ध्यान हटाकर सभी प्राणियों को समेटने वाले व्यापकतर प्रेम पर ध्यान देने के लिए अपनेआप को प्रशिक्षित करते हैं। ऐसा करने से हम अपने ही भीतर पूर्णतः समाई हुई शांति और तृप्ति के स्रोत तक पहुँचना शुरू कर देते हैं।
बौद्ध भिक्षु, मैथ्यू ऋकार्ड, जिन्हें प्रायः "संसार का सबसे सुखी व्यक्ति" कहा जाता है, कहते हैं, "परोपकार मन की सबसे उत्तम अवस्था है जिसे विकसित किया जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे और दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभदायक होता है।" जब हम प्रतिदिन परोपकार-युक्त प्रेम का अभ्यास करते हैं, तब हम स्वाभाविक रूप से करुणसम्पन्नता और निष्कपटता को और अधिक बढ़ाते हैं।
इस अभ्यास के लिए लम्बी-चौड़ी आंगिक मुद्राओं की आवश्यकता नहीं हैं; दिनभर हम जिन-जिन से मिलते हैं, बस, उनके सुख की निष्कपट कामना करने जैसे सरल कार्य से हम प्रारम्भ कर सकते हैं। अनुकम्पा के जानबूझकर किए गए ऐसे छोटे-छोटे कृत्य, जैसे सड़क चलते किसी अपरिचित को चुपचाप शुभकामनाएँ देना, या किसी मित्र के लिए शांति की कामना करना, या फिर संसार के सभी पीड़ितों को प्रेम प्रदान करना, इत्यादि, हमारे प्रेम और करुणा की क्षमता की वृद्धि करने में सहायता करते हैं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि हम उन लोगों के प्रति परहितकारी प्रेम की भावना का सरलता से अनुभव कर पाते हैं जो बाहर से दु:खी प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ, हम सड़क चलते किसी भिखारी को देखकर तुरंत ऐसा सोचने लग जाते हैं कि, "काश ये अपने संघर्षों से मुक्त हो जाएँ और इन्हें सुख मिले।" पर, जैसे ही हम किसी प्रकट रूप से सम्पन्न व्यक्ति को देखते हैं जिसके पास लगता है कि सबकुछ है, हम यह सोच बैठते हैं कि, "मैं इसकी सुख-प्राप्ति के लिए क्यों कामना करूँ? इसके पास तो पहले से ही सबकुछ है!" पर, बात यह है कि परहितकारी प्रेम बहिरंग अनुभवों से सर्वथा परे होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि चाहे कोई संघर्ष कर रहा हो या फल-फूल रहा हो, सभी आनंद के अधिकारी हैं।
इसके लिए बुद्ध ने प्रेम-युक्त अनुकम्पा की ध्यान प्रक्रिया सिखाई है। इस अभ्यास में सबसे पहले हम अपने लिए प्रेम और अनुकम्पा की भावना बढ़ाने का अभ्यास करते हैं, और फिर उन्हीं भावनाओं को दूसरों तक फैलाते हैं: पहले अपने प्रियजनों तक, फिर उदासीन व अनजान लोगों तक, और अंततः उन लोगों तक जो हमें अप्रिय हैं। इसका लक्ष्य है अपने प्रेम और अनुकम्पा की परिधि को उत्तरोत्तर तब तक बढ़ाते जाना जब तक इसमें बिना किसी अपवाद के सभी जीव समाविष्ट हो जाएँ। समय के साथ-साथ हम स्वाभाविक रूप से अपने सामने आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुख-प्राप्ति की कामना करने में सफल हो जाएँगे।
सविवेकी सचेतनता (स्मृति) और ध्यान-साधना
अपने विचारों, मनोभावों, एवं परिवेश के प्रति आलोचनात्मक हुए बिना मानसिक रूप से पूरी तरह से उपस्थित और सतर्क रहने का अभ्यास ही स्मृति, या सतर्कता, है। जब हम इस कौशल को प्रखर बनाते हैं — जो सभी लोग कर सकते हैं — तब हमें अपने और दूसरों के दु:खों का स्पष्ट बोध हो जाता है। जैसे-जैसे हमारा बोध बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हमारा अनुकम्पा भाव भी स्वाभाविक रूप से बढ़ता जाता है, क्योंकि हमें इस बात का बोध हो जाता है कि दुःख मानव जीवन का मूलभूत भाग है जिसका हम सभी अनुभव करते हैं।
जैसा कि महान बौद्ध भिक्षु और आचार्य, टिक न्हाट हाह्न, ने बहुत ही अर्थपूर्ण ढंग से कहा है, "स्मृति करुणा को जन्म देती है।" जब हम अधिक सतर्क एवं सचेत हो जाते हैं, तब हम अपनी तथा दूसरों की पीड़ा, भय, एवं निराशाओं को अनुभव करने के स्पष्ट एवं सूक्ष्म मार्गों पर ध्यान देने लगते हैं। यह बोध हमारे अंतःकरण को कोमल बना देता है ताकि हमारी प्रतिक्रिया चिड़चिड़ी और कुंठा-ग्रस्त न होकर करुणा एवं अनुकम्पा से युक्त हो जाए।
स्मृति एवं ध्यान-साधना के द्वारा हम इस बात को पहचान पाते हैं कि हर कोई अपने-अपने संघर्षों एवं चुनौतयों का सामना करता है, फिर चाहे उनकी परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों। इससे हम बिना सोचे-समझे निर्णय लेने एवं किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की प्रवृत्ति से छुटकारा पा सकते हैं। जैसे-जैसे हम अपने करुणाभाव के घेरे में उत्तरोत्तर सभी जीवों को समाविष्ट कर लेते हैं, वैसे-वैसे हम विलगाववाद और, संभवतः, श्रेष्ठता की भावना की दीवारों को नष्ट करना शुरू कर देते हैं, जो प्रायः हमें दूसरों के साथ गहन सम्बन्ध जोड़ने में बाधा डालती हैं। इससे हम, सामाजिक प्राणी के रूप में, अपने तथा आस-पास के लोगों के सुख में योगदान देते हैं।
निष्कर्ष: सत्य करुणा का मार्ग
टिक न्हाट हाह्न ने कहा, "करुणा एक क्रिया है।" यह ऐसा भाव है जिसे सक्रिय रूप से विकसित करने की आवश्यकता है, न केवल उन लोगों के लिए जो स्पष्ट रूप से संघर्षरत हैं, अपितु उन सभी लोगों के लिए भी जो हमारे सम्पर्क में आते हैं। चाहे वह अनुकम्पा के छोटे-छोटे कृत्यों के द्वारा, या दूसरों के दु:खों पर विचार करने के द्वारा, या फिर प्रेम-युक्त अनुकम्पा की ध्यान-साधना के द्वारा हो, हमारे भीतर जो करुणा का बीज है वह समस्त जीवों के लिए सच्ची सहानुभूति के रूप में खिल सकता है।
मनुष्य होने के नाते, अपनी वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं चिंताओं में डूब जाना बहुत ही सरल होता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति आनंद-प्राप्ति तथा दुःख-निवृत्ति ही चाहता है, फिर वह चाहे कोई भी हो, कहीं से भी आया हो, या देखने में कैसा भी हो। इस चरण पर हमारी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हो सकता है कि हम अपनेआप को नगण्य समझें, परन्तु बुद्ध ने हमें यह सिखाया है कि सभी जीव और सभी वस्तुएँ परस्पर सम्बन्धित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हम जब भी किसी अपरिचित व्यक्ति को देखकर मुस्कराते हैं, एवं वह प्रत्येक क्षण जब हम प्रेम-युक्त अनुकम्पा की ध्यान-साधना में बिताते हैं, इन सबका सकारात्मक प्रभाव हमारे तथा हमारे आस-पास के लोगों पर पड़ता है।