What is karma raimond klavins unsplash

कर्म से आशय पिछले व्यवहारगत अभ्यासों पर आधारित हमारे उन मानसिक आवेगों से होता है जो हमें उस तरह से आचरण करने, वचन कहने और विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं जिसके हम अभ्यस्त हो जाते हैं। हमारी आदतें हमारे मस्तिष्क में ऐसी तंत्रिकीय मार्गों का निर्माण करती हैं जो आवश्यक परिस्थितियों के प्रभाव से सक्रिय हो जाने पर हमें अपने व्यवहार के सामान्य अभ्यासों को दोहराते रहने के लिए बाध्य करते हैं। सरल शब्दों में कहा जाए तो हमारे भीतर किसी कार्य को करने की इच्छा जाग्रत होती है, और फिर हम बाध्य होकर उसी कार्य को करने लगते हैं।

वीडियो: परम पावन करमापा – कर्म क्या है?
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कर्म को अक्सर भूलवश भाग्य या नियति समझ लिया जाता है। यदि किसी व्यक्ति को चोट लग जाए या उसे बड़ी धन हानि हो जाए, तो हो सकता है कि लोग कहें, “बड़े दुर्भाग्य की बात है, उसके कर्मों का प्रतिफल है।” यह तो दैव इच्छा जैसी बात हुई – जिसे हम समझ नहीं सकते हैं या जिसके ऊपर हमारा कोई नियंत्रण है। बौद्ध दृष्टि से यह कर्म है ही नहीं। कर्म से आशय उन मनोगत अन्तःप्रेरणाओं से होता है जो या तो हमें ऐसे व्यक्ति पर चीखने-चिल्लाने के लिए प्रेरित करती हैं जो हमें क्रोधित कर रहा हो या उस समय तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने की प्रेरणा देती हैं जब तक कि हम इतने शांत न हो जाएं कि समस्या को हल करने के बारे में सोच सकें।  कर्म से हमारा आशय उन अन्तःप्रेरणाओं से भी होता है जिनके कारण सीढ़ियों से उतरते हुए आदतन हम इस तरह से चलते हैं कि हमारे पाँव में मोच आ जाती है या हम आदतन सीढ़ियों से सावधानीपूर्वक उतरते हैं।

कर्म को समझने की दृष्टि से धूम्रपान एक अच्छा उदाहरण है, क्योंकि जब भी हम एक सिगरेट पीते हैं तो उसमें ही अगली एक और सिगरेट पीने की सम्भावना निहित होती है। हम जितना ज़्यादा धूम्रपान करते हैं, धूम्रपान करने की हमारी प्रवृत्ति उतनी ही दृढ़ होती चली जाती है और फिर कर्म की अन्तःप्रेरणा से हम बरबस ही सिगरेट सुलगाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। कर्म यह स्पष्ट करता है कि धूम्रपान करने की इच्छा या अन्तःप्रेरणा कहाँ से आती है – यानी हमारी पुरानी आदतों से उत्पन्न होती है। धूम्रपान से उस क्रिया को दोहराने की अन्तःप्रेरणा तो उत्पन्न होती ही है, साथ ही शरीर के भीतर की भौतिक सम्भावनाओं को भी प्रभावित करती है, जैसेकि धूम्रपान के कारण कैंसर होने की सम्भावना। यहाँ अन्तःप्रेरणा और कैंसर का होना, ये दोनों ही हमारे पिछले बाध्यकारी कृत्यों परिणाम हैं और इसे “कर्मों का परिपक्व होना” कहा जाता है।

अपनी आदतों में बदलाव करना

कर्म की अवधारणा इसलिए अर्थपूर्ण है क्योंकि यह हमारी भावनाओं और मनोवेगों के उद्भव की व्याख्या करती है और यह स्पष्ट करती है कि ऐसा क्यों होता है कि हम कभी खुश होते हैं तो कभी दुख का अनुभव करते हैं। यह सब हमारे अपने व्यवहार सम्बंधी अभ्यास के परिणामस्वरूप होता है। इसलिए, जो कुछ हम करते हैं और जो कुछ हमारे साथ होता है वह पूर्वनिर्धारित नहीं है। भाग्य या प्रारब्ध जैसी कोई चीज़ नहीं होती है।

कर्म एक ऐसी सक्रिय शक्ति के लिए प्रयोग की जाने वाली अभिव्यक्ति है जो यह दर्शाती है कि भविष्य में होने वाली घटनाओं को नियंत्रित करना आपके अपने हाथ में है। - 14वें दलाई लामा 

हालाँकि अक्सर यह महसूस होता है कि हम अपनी आदतों के गुलाम हैं – आखिर आभ्यासिक व्यवहार सुस्थापित तंत्रकीय मार्गों पर निर्भर होता है – लेकिन बौद्ध धर्म यह मानता है कि इन आदतों पर विजय पाना सम्भव है। हमारे भीतर यह क्षमता मौजूद होती है कि हम जीवन भर इन तंत्रिकीय मार्गों को बदल सकते हैं और नए तंत्रिकीय मार्ग विकसित करते रह सकते हैं।

जब हमारे मन में किसी काम को करने की इच्छा जाग्रत होती है तब इससे पहले कि कर्म का मनोवेग हमें उस इच्छा को क्रियान्वित करने के लिए प्रवृत्त करे, हमें एक अंतराल उपलब्ध होता है। हमारे भीतर जो भी इच्छा जाग्रत होती है हम उसे तुरन्त क्रियान्वित नहीं कर देते हैं – आखिर हमने शौच प्रशिक्षण भी तो हासिल किया था! इसी तरह जब हमारे भीतर कोई आहत करने वाली बात कहने की इच्छा जागती है, तो हम चुनाव कर सकते हैं, “मुझे ऐसा कहना चाहिए या नहीं?” हो सकता है कि किसी पर चिल्ला कर अपना क्रोध ज़ाहिर करने से हमें क्षणिक राहत मिल जाए, लेकिन दूसरों पर चीखने-चिल्लाने की आदत दुख की मनोदशा को दर्शाती है। हम सभी जानते हैं कि बातचीत के माध्यम से किसी विवाद को हल करना अपेक्षाकृत कहीं अधिक सुखद मनःस्थिति है। सकारात्मक और विनाशकारी कृत्यों के बीच भेद करने की यही क्षमता मनुष्यों को पशुओं से अलग करती है – हमारे मनुष्य होने का यह एक बड़ा लाभ है।

लेकिन इसके बावजूद विनाशकारी कृत्यों को करने से अपने आप को रोक पाना हमेशा आसान नहीं होता है। जब हमारे चित्त में उत्पन्न होने वाले मनोभावों के प्रति सचेत होने के लिए पर्याप्त गुंजाइश होती है तो स्थिति अपेक्षाकृत आसान हो जाती है, और यही कारण है कि बौद्ध साधना में हमें सचेतनता को विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाता है। [देखें: ध्यान साधना क्या है?] जैसे-जैसे हम शांत होते जाते हैं, हम इस बात के प्रति और अधिक सचेत होते जाते हैं कि हम क्या कहने वाले हैं या क्या करने वाले हैं। हमें यह बोध होने लगता है, “मेरे मन में कुछ ऐसी बात कहने की इच्छा जाग रही है जो किसी को आहत कर सकती है। यदि मैं ऐसा कहूँगा तो उससे समस्याएं उत्पन्न होंगी। इसलिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा।” इस तरह हम तय कर सकते हैं। जब हम सचेत नहीं होते हैं तो हमारे मन में विचारों और मनोभावों का एक ऐसा रेला उत्पन्न होता है कि हमारे मन में जो भी विचार आता है, हम बाध्यतावश उसे क्रियान्वित कर देते हैं जिसके कारण हमें अनेक प्रकार की तकलीफें उठानी पड़ती हैं।

 अपने भविष्य को जानें

हम अपने पिछले और वर्तमान के कर्म सम्बंधी व्यवहार के आधार पर अपने साथ भविष्य में घटित होने वाले अनुभवों का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। अन्त में सकारात्मक कृत्यों के परिणाम सुखद होते हैं जबकि विनाशकारी कृत्यों के परिणाम अनिष्टकारी होते हैं। 

कोई विशिष्ट कर्म सम्बंधी कृत्य किस प्रकार फलीभूत होगा यह बात बहुत से तत्वों और स्थितियों पर निर्भर करती है। जब हम किसी गेंद को ऊपर हवा में उछालते हैं तो हम उसके बारे में यह पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि वह ज़मीन पर गिरेगी। लेकिन, यदि हम उस गेंद को बीच में हवा में ही लपक लें तो वह ज़मीन पर नहीं गिरती है। इसी तरह, हालाँकि हम पिछले कृत्यों के आधार पर भविष्य घटित होने वाली बातों के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं, लेकिन उनका घटित होना अपरिवर्तनशील, दैवनिर्दिष्ट या पत्थर की लकीर जैसा अमिट नहीं है। दूसरी प्रवृत्तियाँ, कृत्य और परिस्थितियाँ हमारे कर्मों के परिपक्व होने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। यदि हम मोटापे के शिकार हों और बड़ी मात्रा में अस्वास्थ्यकर चीज़ें खाते हों, तो हम भविष्य में मधुमेह रोग होने की भारी सम्भावना का पूर्वानुमान लगा सकते हैं, लेकिन यदि हम सख्ती के साथ अपने आहार को नियंत्रित कर लें और अपना काफी सारा वज़न घटा लें, तो हो सकता है कि हमें वह बीमारी हो ही नहीं।

जब हम ज़ोर से अपना पैर पटकते हैं तो हमें उसके परिणामस्वरूप होने वाले दर्द को अनुभव करने के लिए कर्म या कारण और प्रभाव के सिद्धांत को मानने की आवश्यकता नहीं होती है – दर्द तो सहज तौर पर महसूस हो ही जाता है। यदि हम अपनी आदतों को बदल लें और लाभकारी आदतें विकसित कर लें तो फिर हमारी आस्था जो भी हो, परिणाम सकारात्मक ही होगा।

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