जब हम कर्म को ऐसी अप्रतिरोध्यता के रूप में समझ लेते हैं जो हमें अनियंत्रित ढंग से आचरण करने, वाणी बोलने और विचार करने के लिए प्रेरित करती है, तो हम अपने दुखों और समस्याओं के वास्तविक मूल के रूप में उसकी भूमिका को जान पाते हैं। बाध्यकारी ढंग से व्यवहार करने के कारण हमें दुख भोगना पड़ता है, जीवन में बार-बार उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करने में बाधा उत्पन्न होती है। कर्म की अप्रतिरोध्यता और उसके कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं से स्वंय को मुक्त करने के लिए हमें नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है ताकि हम विनाशकारी व्यवहार, स्वयं के बारे में भ्रामक कल्पनाओं से चिपके रहने और आत्मकेंद्रित रहने की प्रवृत्तियों से स्वयं को दूर रख सकें।