बुनियादी बौद्ध साधना में साधक को तीन क्षेत्रों की साधना का अभ्यास करना होता है। स्वयं अपनी भलाई की दृष्टि से हमें अपनी अपनी समस्याओं और दुखों पर विजय पाने के लिए इन तीन विषयों का अभ्यास करना चाहिए। या फिर हम दूसरों की और अधिक भलाई कर पाने योग्य बनने की दृष्टि से प्रेम और करुणा के साथ इन विषयों का अभ्यास कर सकते हैं।

ये तीन अभ्यास कौन से हैं?

  • नैतिक अनुशासन – विनाशकारी व्यवहार से दूर रहने की सामर्थ्य। रचनात्मक व्यवहार करके हम इस गुण को विकसित कर सकते हैं। यह पहला अभ्यास आत्मानुशासन के बारे में होता है – यहाँ हम दूसरों को अनुशासित करने की बात नहीं करते हैं।
  • एकाग्रता – अपने चित्त को केंद्रित करने की क्षमता ताकि अनेक प्रकार के असंगत विचारों से हमारा मन न भटके। इस अभ्यास से हम अपने चित्त को प्रखर बनाते हैं ताकि वह मंद न रहे। मानसिक स्थिरता के साथ-साथ भावात्मक स्थिरता को विकसित करना भी आवश्यक होता है ताकि हमारा चित्त क्रोध, आसक्ति, ईर्ष्या आदि के वशीभूत न होने पाए।
  • विवेकी सचेतनता – यह भेद कर पाने का विवेक कि हमें किन बातों को अपनाना चाहिए और किन बातों का त्याग कर देना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे सब्ज़ियाँ खरीदते समय आप परख करते हैं, “यह अच्छी नहीं लग रही, लेकिन वह बहुत अच्छी दिखाई देती है।“ यहाँ हम व्यवहार की दृष्टि से जाँच करते हैं – अपनी परिस्थिति और अपने साथ के लोगों को ध्यान में रखते हुए हम तय करते हैं कि क्या अनुचित है और क्या उचित है। और अधिक गहन स्तर पर हम इस बात के बीच भेद करते हैं कि क्या सचमुच में वास्तविक है और क्या ऐसा है जो केवल हमारी कल्पना से उत्पन्न हुआ भ्रम है।

बौद्ध विज्ञान, बौद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म

हम इन तीनों अभ्यासों की साधना चाहे अपने लाभ के लिए करें या दूसरों की भलाई के लिए करें, इनमें से प्रत्येक को देखने के दो दृष्टिकोण हो सकते हैं। ये दोनों दृष्टिकोण उस भेद से उत्पन्न होते हैं जिसका उल्लेख परम पावन दलाई लामा सामान्य सभाओं को सम्बोधित करते हुए करते हैं। इन सभाओं को सम्बोधित करते हुए वे बताते हैं कि बौद्ध मत के तीन भाग हैं: बौद्ध विज्ञान, बौद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म।

बौद्ध विज्ञान का सम्बंध मुख्यतः चित्त के विज्ञान से है – वह किस तरह काम करता है, हमारे मनोभाव, और उन विचारों से है जिन्हें दलाई लामा मानसिक और भावात्मक स्वच्छता कहना पसंद करते हैं। बौद्ध धर्म में विभिन्न प्रकार की भावात्मक मनोदशाओं और उनकी प्रक्रियाओं और उनके बीच के परस्पर सम्बंधों के बारे में विस्तार से विश्लेषण किया जाता है।

इसके अलावा बौद्ध विज्ञान में निम्नलिखित को भी शामिल किया जाता है:

  • संज्ञानात्मक विज्ञान – हमारा बोध किस प्रकार काम करता है, चेतना की प्रकृति, और एकाग्रता विकसित करने में हमारी सहायता करने वाली विभिन्न साधना पद्धतियाँ
  • ब्रह्माण्डोत्पत्ति – इस बात का विस्तृत विश्लेषण कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, कैसे वह कायम रहता है और उसकी समाप्ति किस प्रकार होती है
  • पदार्थ – इस बात का विस्तृत विश्लेषण कि पदार्थ, ऊर्जा, सूक्ष्माणु आदि किस प्रकार कार्य करते हैं
  • चिकित्सा पद्धति – शरीर के भीतर की ऊर्जा किस प्रकार कार्य करती है।

कोई भी व्यक्ति इन विषयों का अध्ययन कर सकता है, इन्हें सीख सकता है और उनसे लाभ उठा सकता है, और दलाई लामा इन विषयों के बारे में वैज्ञानिकों के साथ अक्सर चर्चा करते रहते हैं।

दूसरी श्रेणी जिसे बौद्ध दर्शन कहा जाता है, में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है:

  • नीतिशास्त्र – दयालुता और उदारता जैसे उन आधारभूत मानव मूल्यों के विषय में चर्चा जो अनिवार्यतः किसी धर्म विशेष से जुड़े हुए नहीं हैं, और जिनसे सभी लाभान्वित हो सकते हैं।
  • तर्कशास्त्र और तत्वमीमांसा – समुच्च्य सिद्धांत, सर्वगततत्व, व्यक्तिगत तत्व, गुण, विशेषताओं आदि के बारे में विस्तृत प्रस्तुति, उनकी मिलीजुली कार्यप्रणाली क्या है और हम उन्हें कैसे जानते हैं।
  • कारण और प्रभाव – कारण-कार्य सिद्धांत, वास्तविकता क्या है, और हमारी कल्पनाएं किस प्रकार वास्तविकता को विरूपित करती हैं, इन बातों का विस्तृत विश्लेषण।

पुनः, बौद्ध दर्शन अनिवार्यतः केवल बौद्धों तक के लिए सीमित नहीं है, बल्कि इससे प्रत्येक व्यक्ति लाभ उठा सकता है।

तीसरी श्रेणी, बौद्ध धर्म में बौद्ध साधना के वास्तविक कार्यक्षेत्र को शामिल किया जाता है, और इसलिए उसमें कर्म, पुनर्जन्म, कर्मकांड, मंत्रों आदि जैसे विषयों की चर्चा की जाती है। यही कारण है कि यह श्रेणी विशिष्ट तौर पर उन्हीं के लिए है जो बौद्ध मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं।

इन तीनों साधनाओं को बौद्ध विज्ञान और दर्शन की दृष्टि से सभी के लिए प्रासंगिक और उपयुक्त बना कर प्रस्तुत किया जा सकता है, या फिर इन्हें पहली दोनों श्रेणियों के साथ-साथ बौद्ध धर्म से मिलाकर भी प्रस्तुत किया जा सकता है। यह एक ऐसा वर्गीकरण है जिसे मैं “धर्म लाइट” और “द रीयल थिंग धर्म” कह कर सम्बोधित करता हूँ।

  • धर्म लाइट – केवल इस जन्म को उन्नत बनाने की दृष्टि से बौद्ध विज्ञान और बौद्ध दर्शन की विधियों की साधना करना।
  • द रीयल थिंग धर्म – तीन बौद्ध लक्ष्यों अर्थात एक बेहतर पुनर्जन्म, बार-बार जन्म के चक्र से मुक्ति, और ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए तीनों साधनाओं का अभ्यास करना।

जब मैं धर्म-लाइट की बात करता हूँ तो सामान्यतया मेरा आशय रीयल थिंग धर्म की दिशा में उठाए जाने वाले एक प्रारम्भिक कदम से होता है क्योंकि इस बात के महत्व को समझना होगा कि जब हम अपने सामान्य जीवन को सुधारेंगे तभी हम उससे आगे के अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति के बारे में सोच सकते हैं। किन्तु बौद्ध विज्ञान और बौद्ध दर्शन अनिवार्यतः बौद्ध धर्म की प्रारम्भिक तैयारी की आवश्यकताएं नहीं हैं। इसलिए चाहे हम इसे बौद्ध मार्ग की प्रारम्भिक तैयारी की आवश्यकता के रूप में देखते हों या फिर सामान्य आवश्यकता के रूप में देखते हों, हम यह तय कर सकते हैं कि हम अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए इन तीनों अभ्यासों का उपयोग किस प्रकार कर सकते हैं।

चार आर्य सत्य

बौद्ध दर्शन सामान्य तौर पर यह व्याख्यायित करता है कि बौद्ध चिंतन किस तरह काम करता है, जिसे आम तौर पर चार आर्य सत्यों के रूप में सम्बोधित किया जाता है। इन्हें हम जीवन के चार तथ्यों के रूप में भी देख सकते हैं, जो निम्नानुसार हैं:

  • हम सभी के सामने आने वाले दुख और समस्याओं को देखते हुए पहला तथ्य यह है कि जीवन कठिनाइयों से भरा है।
  • दूसरा तथ्य यह है कि हमारे जीवन में समस्याएं कारणों से उत्पन्न होती हैं।
  • तीसरा तथ्य यह है कि हम इन समस्याओं को उत्पन्न होने से रोक सकते हैं; हमें चुपचाप रहकर अपनी समस्याओं को सहने की आवश्यकता नहीं है, हम उन्हें हल कर सकते हैं।
  • चौथा तथ्य यह है कि हम समस्याओं के कारणों को दूर करके अपनी समस्याओं से मुक्त हो सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें ज्ञान के एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करने की आवश्यकता है जिसमें यह सलाह दी गई है कि हम कैसे कर्म करें, कैसे वचन कहें आदि।

इसलिए, यदि हमारी समस्याएं इस कारण से उत्पन्न होती हैं कि हम कैसे कर्म करते हैं या कैसे वचन कहते हैं, तो फिर हमें अपने इस आचरण को बदलने की आवश्यकता है। ये तीनों अभ्यास उसी समाधान का हिस्सा हैं जिसकी हमें अपनी समस्याओं के कारणों से मुक्ति के लिए आवश्यकता है। इन तीन साधनाओं को जानने-समझने का यह एक बहुत ही उपयोगी तरीका है क्योंकि इसमें यह बताया जाता है कि हमें इन साधनाओं का अभ्यास करने की क्यों आवश्यकता है। इसलिए, जब हम जीवन में समस्याओं का सामना कर रहे होते हैं तब हम इन बातों पर ध्यान देते हैं:

  • क्या मेरे नैतिक अनुशासन में कोई कमी है, क्या मेरे आचरण या बोलचाल में कोई समस्या है?
  • क्या मेरी एकाग्रता में कोई समस्या है – क्या मैं अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हूँ, क्या मैं भावनात्मक दृष्टि से दिशाभ्रमित हूँ?
  • विशेष तौर पर, क्या वास्तविकता और मेरी भ्रांतचित्त कल्पनाओं के बीच भेद करने में मुझे समस्या होती है?

हम इसका उपयोग अपने इसी जन्म में अपने सामान्य जीवन में कर सकते हैं, या फिर इसे भविष्य के जीवन में आने वाली समस्याओं पर भी लागू किया जा सकता है। किसी नए साधक के रूप में हमें इन अभ्यासों को केवल अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में लागू करने के बारे में ही विचार करना चाहिए: ये अभ्यास हमारे लिए किस तरह उपयोगी हो सकते हैं? हम ऐसा क्या कर रहे हैं जिसके कारण हमें समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है? इन समस्याओं को कम करने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

दुख का कारण

बौद्ध दर्शन की दृष्टि से हमारी अनभिज्ञता ही हमारे दुख का कारण है। विशेष तौर पर हम दो बातों के प्रति अनभिज्ञ होते हैं या उनके प्रति मिथ्या दृष्टि रखते हैं।

कारण और प्रभाव, विशेष तौर पर हमारे आचरण की दृष्टि से, वह पहली चीज़ है जिसके प्रति हम अनभिज्ञ होते हैं। यदि हम क्रोध, लोभ, आसक्ति, अहंकार, ईर्ष्या आदि जैसे अशांत करने वाले मनोभावों से ग्रसित होते हैं तो हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं। हम क्रोधित हो जाते हैं और लोगों पर चीखने-चिल्लाने लगते हैं, हम ईर्ष्या करने लगते हैं और दूसरों को नुकसान पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं, हम अपनी आसक्ति के कारण दूसरे लोगों पर भावात्मक रूप से निर्भर हो जाते हैं – इन सभी कारणों से हमें समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये सभी मनोभाव हमें विनाशकारी ढंग से, या कहें आत्म-विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं, इस सब का अन्तिम परिणाम हमें दुख के रूप में भोगना पड़ता है।

यहाँ अशांतकारी मनोभाव की परिभाषा को समझना उपयोगी होगा। यह एक ऐसी मनोदशा है जिसके उत्पन्न होने पर हमारे चित्त की शांति छिन जाती है और हम आत्मनियंत्रण खो बैठते हैं। जब हम क्रोधित होकर किसी पर चीखते या चिल्लाते हैं, तो हो सकता है कि वह व्यक्ति उससे परेशान हो या न हो। हो सकता है कि वह व्यक्ति हमारी कही हुई बात को सुने भी नहीं, या हो सकता है कि वह व्यक्ति हम पर हँसे और यह सोचे कि हम नासमझ हैं। लेकिन हमारे चित्त की शांति तो नष्ट हो ही जाती है, और हम भावनात्मक दृष्टि से परेशान हो जाते हैं, और यह परेशानी अक्सर चिल्लाना बंद कर देने के बाद भी बनी रहती है। यह अपने आप में एक अरुचिकर अनुभव होता है। और चूँकि अपने ऊपर हमारा नियंत्रण नहीं रहता, इसलिए हम ऐसी बातें कह जाते हैं जिन पर बाद में हमें पछताना पड़ सकता है।

हम इस तरह से व्यवहार इसलिए करते हैं क्योंकि:

  • हमें वास्तव में कारण और प्रभाव का बोध नहीं होता। अक्सर हम यह नहीं समझ पाते हैं कि यदि हम अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में आकर व्यवहार करेंगे तो इससे हमें दुख मिलेगा।
  • या, हमें कारण और प्रभाव के बारे में मिथ्या बोध होता है और हम उसे उल्टे ढंग से समझते हैं। हम अक्सर सोचते हैं, “यदि मैं इस व्यक्ति पर चिल्लाऊँ तो मुझे बेहतर लगेगा,” जो कि वास्तव में कभी होता ही नहीं है। या, जब हमें किसी व्यक्ति से अधिक लगाव होता है तो हम उससे कहते हैं, “आप जल्दी-जल्दी कॉल क्यों नहीं करते हैं, या मिलने के लिए जल्दी-जल्दी क्यों नहीं आते हैं?” इसका नतीजा यह होता है कि वह व्यक्ति हमसे कतराने लगता है, होता है न? जैसा हम चाहते हैं वैसा कर नहीं पाते, क्योंकि हमें कारण और प्रभाव के बारे में सही बोध नहीं होता।

एक दूसरे प्रकार की अज्ञानता हमारे भीतर वास्तविकता को लेकर होती है। चूँकि हमें वास्तविकता को लेकर भ्रम रहता है, इसलिए हम अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में आ जाते हैं। इसका एक उदाहरण आत्मलीनता का भाव है जहाँ हम हर समय केवल अपने, अपने और अपने ही बारे में सोचते रहते हैं। यह बहुत अधिक आलोचनात्मक होने की स्थिति का रूप ले सकती है क्योंकि हम उस रोग जैसी उस स्थिति में पहुँच सकते हैं जहाँ हमें लगता है कि हमें हर दृष्टि से आदर्श बनना है। यदि हम आदर्श बनने, सब कुछ सही-सही ढंग से करने के लिए सकारात्मक ढंग से भी व्यवहार करें तब भी यह कोशिश मानसिक तौर पर बहुत बाध्यकारी बन जाती है। जब हमें कुछ समय के लिए कोई खुशी मिलती है तो वह जल्दी ही असंतोष में बदल जाती है, क्योंकि हमें तब भी यही लगता है, “अभी मुझमें कमियाँ हैं,” और फिर हम अपने आपको बेहतर बनाने के लिए और अधिक प्रयत्नशील हो जाते हैं।

हम किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण लें जो हमेशा साफ-सफाई की सनक में रहता हो – जो अपने घर की सफाई को लेकर आदर्शवादी दृष्टिकोण रखता हो। ऐसे लोग इस भ्रम में रहते हैं कि वे सब कुछ नियंत्रित कर सकते हैं और घर को एकदम स्वच्छ और व्यवस्थित रख सकते हैं। ऐसा होना असम्भव है! आप सब कुछ साफ-सुथरा कर के रखते हैं, व्यवस्थित करके रखते हैं और उसे देख कर खुश होते हैं, और फिर जब बच्चे घर लौटते हैं तो वे सब कुछ तितर-बितर और गंदा कर देते हैं; इससे आपको असंतोष होता है और आप एक बार फिर सफाई करने लगते हैं। इस प्रकार यह व्यवहार बाध्यकारी हो जाता है। और हर बार जैसे ही आपको थोड़ी खुशी महसूस होने लगती है, “हाँ, अब सब कुछ ठीक है” – यह भाव जल्दी ही तिरोहित हो जाता है। हर बार कोई न कोई ऐसा कोना होता है जो आपसे छूट जाता है!

इस प्रकार की मनोदशाओं, चाहे वे कोई अशांतकारी मनोभाव हों या अशांतकारी दृष्टिकोण हों, को बार-बार दोहरा कर और बार-बार इस प्रकार का बाध्यकारी व्यवहार करके हम “सर्वव्यापी दुख” के शिकार हो जाते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार ऐसे अभ्यासों को विकसित करते हैं जो दरअसल हमारी समस्याओं को स्थायी बना देते हैं।

यह सब न केवल हमें मानसिक तौर पर प्रभावित करता है, बल्कि हमारे शरीर पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि हम हर समय गुस्सा करते हैं तो हमारा रक्तचाप बढ़ जाता है, और चिंता करते रहने के कारण हमें फोड़ा या अल्सर होने की शिकायत हो सकती है। या, यदि आप साफ-सफाई में ही लगे रहते हैं, तो फिर आराम करने के लिए समय निकालना मुश्किल होता है। आप हमेशा तनाव में रहते हैं क्योंकि आप सब कुछ एकदम ठीक करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है।

वीडियो: परम पावन शाक्य त्रिज़िन – बौद्ध धर्म के अध्ययन की क्या आवश्यकता है?
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ये तीन अभ्यास हमारी समस्याओं के कारणों को दूर करने में कैसे सहायक होते हैं

हमें दरअसल तीन अभ्यासों की आवश्यकता होती है:

  • हमें अपनी मिथ्या दृष्टि से मुक्ति के लिए विवेकी सचेतनता की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, जब साफ-सफाई के सनक की बात आती है जहाँ आपके मन की कल्पना कहती है कि “सब कुछ एकदम साफ-सुथरा होना चाहिए और ऐसा सुनिश्चित करने के लिए मुझे हर चीज़ को नियंत्रित रखना होगा,” हम इसके स्थान पर इस प्रकार से विचार करते हैं कि “मेरा घर तो गंदा होगा ही, इस पर किसी का वश नहीं है।“ आपका तनाव कम हो जाता है क्योंकि आप अपने घर की सफाई तो अब भी कर सकते हैं, लेकिन आपको इस बात का बोध होता है कि इस बात को मन पर हावी होने देने की आवश्यकता नहीं है। परम्परागत ग्रंथों में पेड़ को किसी तेज़ धार वाली कुल्हाड़ी से काटे जाने का उदाहरण दिया जाता है।
  • इस कुल्हाड़ी से पेड़ को काटने के लिए के लिए हमें एक ही स्थान पर लगातार चोट करते रहने की आवश्यकता होती है, यही एकाग्रता है। यदि आपका चित्त हर समय भटकता रहे तो फिर आपकी विवेकी सचेतनता खत्म हो जाती है। इसलिए एकाग्रता का होना आवश्यक है ताकि हम कुल्हाड़ी की सहायता से हमेशा एक ही स्थान पर वार करते रह सकें।
  • इस कुल्हाड़ी का प्रयोग करने के लिए हमें दरअसल बल या शक्ति की आवश्यकता होती है। यदि शक्ति न हो तो आप कुल्हाड़ी को उठा तक नहीं सकते हैं, और ऐसा करने के लिए बल नैतिक आत्मानुशासन से मिलता है।

इस प्रकार हम जान पाते हैं कि ये तीनों अभ्यास किस प्रकार हमारी समस्याओं के मूल पर विजय पाने में हमारी सहायता कर सकती हैं। हम इन्हें किसी भी प्रकार से बौद्ध धर्म से जोड़े बिना ऊपर कही गई बातों को व्यवहार में प्रयोग कर सकते हैं, इसलिए ये सभी के लिए उपयुक्त हैं। आगे बढ़ने से पहले एक बार हम संक्षेप में दोहरा लें कि हमने क्या सीखा:

  • कल्पना और वास्तविकता के बीच के फर्क को समझने के लिए हम विवेकी सचेतनता का उपयोग करते हैं, इस प्रकार हम स्वयं अपने व्यवहार में कारण और प्रभाव की क्रिया को समझ सकते हैं। विवेकी सचेतनता न हो तो हमारा व्यवहार और हमारे मनोभाव दुख उत्पन्न करते हैं, या एक ऐसी खुशी उत्पन्न करते हैं जिससे हमें कभी वास्तविक संतोष नहीं मिलता।
  • ऊपर कही गई बातों को ठीक ढंग से समझने की दृष्टि से हमारे पास अच्छी एकाग्रता का होना आवश्यक है ताकि हम अपने ध्यान को केंद्रित रख सकें।
  • अच्छी एकाग्रता विकसित करने के लिए हमें अनुशासन की आवश्यकता होती है ताकि जब हमारा चित्त भटके तो हम उसे वापस केंद्रित कर सकें।
  • हम इन तीनों अभ्यासों को अपने व्यवहार में लागू करना चाहते हैं ताकि हम अपनी समस्याओं को नियंत्रित कर सकें और अपने जीवन को बेहतर बना सकें।

इस पूरी चर्चा में जानने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने जीवन में जिस सुख और असंतोष को अनुभव करते हैं उसकी उत्पत्ति हमारी अपनी मिथ्या दृष्टि से होती है। अपनी समस्याओं के लिए दूसरे लोगों, या समाज, अर्थव्यवस्था आदि को दोष देने के बजाए हम एक गहन स्तर पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। हम इन स्थितियों से निपटते समय अपनी मनोदशा पर ध्यान देते हैं। हम अनेक प्रकार की कठिन स्थितियों का सामना करते हैं, लेकिन यहाँ हम अपने दुख के सामान्य भाव, और अस्थायी खुशी के बारे में चर्चा कर रहे हैं। हमें किसी ऐसे भाव को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए जो इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो, ऐसा सुख जो चित्त की शांति से उद्भूत होता है और अधिक स्थिर और स्थायी होता है।

जब हमारे सामने कठिनाइयाँ आती हैं तो हम खिन्न और बहुत अधिक दुखी हो सकते हैं। या फिर , क्योंकि हम स्थिति को ज़्यादा स्पष्टता से देख सकते हैं कि क्या किए जाने की आवश्यकता है और यह कि उस स्थिति से निपटने के उपाय संभव हैं, इसलिए हम अपनी स्थिति पर दुखी होने के बजाए अपने चित्त को शांत रखते हुए स्थिति का सामना कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए विचार कीजिए कि आपका बच्चा रात के समय बाहर गया हुआ हो और आप उसकी कुशलता को लेकर सचमुच बड़े चिंतित हैं, “क्या वह सुरक्षित घर लौटेगा?” इस स्थिति में भी हमारी चिंता और दुख का कारण हमारा यह दृष्टिकोण है कि “किसी न किसी प्रकार से मैं अपने बच्चे की सुरक्षा को नियंत्रित कर सकता हूँ” जोकि एक कोरी कल्पना है। जब बच्चा सुरक्षित घर लौट आता है तो आप खुश हो जाते हैं, राहत महसूस करते हैं। लेकिन अगली बार जब बच्चा फिर बाहर जाता है तो आप फिर चिंता करने लगते हैं। इसलिए राहत का यह भाव स्थायी नहीं होता है। हम हमेशा चिंतित बने रहते हैं, इस प्रकार यह स्थिति स्थायी बनी रहती है – हमने एक ऐसी आदत विकसित कर ली है कि हम हर बात के लिए चिंता करते रहते हैं – और इसका बुरा असर हमारी सेहत पर पड़ता है। यह स्थिति एक बड़ी अप्रिय स्थिति होती है।

असल बात यह है कि हम इस बात को समझें कि यह सब हमारे अपने भ्रम के कारण होता है। हम सोचते हैं कि कुछ प्रकार के व्यवहार करने से हमें सुख मिलेगा, या सोचना सही है कि हम सब कुछ नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। हम ऐसा सोचने से अपने को अलग कर लेते हैं कि “यह बेतुकी बात है” और अपने ध्यान को केंद्रित रखते हैं।

सारांश

जब हम जीवन के चार सत्यों के बारे में विचार करते हैं तो हमें यह जानकर प्रोत्साहन और बल मिलता है कि हमारी समस्याएं और नकारात्मक मनोभाव स्थायी नहीं हैं बल्कि उनमें सुधार किया जा सकता है, और इससे भी बढ़कर, उन्हें पूरी तरह से समाप्त किया जा सकता है। एक बार जब हम दुख के कारणों पर नियंत्रण पा लेते हैं तो दुख मिट जाता है, लेकिन ये कारण अपने आप ही समाप्त नहीं हो जाते हैं।

नैतिक आचरण, एकाग्रता, और विवेकी सचेतनता के तीन अभ्यासों को ध्यान में रखते हुए अपने जीवन को जीना एक अद्भुत जीवन पद्धति है। एक साथ इन तीनों अभ्यासों की साधना हमें सुख की प्राप्ति के नजदीक ले जाती है – हमें जीवन भर इसी की तो तलाश रहती है।

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