पहले तीन आर्य सत्य
बुद्ध ने समझाया कि हम सब जिस दुःख सत्य को भोगते हैं, वह दुःख एवं असन्तोषदायक सुख के उतार-चढ़ावों के हमारे अनुभवों तथा इनको अनुभव करने के लिए बार-बार सीमित शरीर एवं मन को बनाए रखने से होता है। इसका वास्तविक कारण है हमारी अनभिज्ञता (अज्ञान) कि हम तथा ये भावनाएँ किस प्रकार विद्यमान हैं। हम यह प्रक्षेपित करते हैं कि वे असंभव प्रकार से विद्यमान हैं - उदाहरण के लिए एक स्वतः सम्पूर्ण ठोस इयत्ता के समान - और यह विश्वास कर लेते हैं कि जिस भ्रामक प्रकार वे हमें दिखते हैं उनका वास्तविक अस्तित्व उससे मेल खाता है। यह भ्रांत धारणा अशांतकारी मनोभाव को उत्तेजित करती है, जो परिणामस्वरूप उन बाध्यकारी कार्मिक तीव्र इच्छाओं को उनकी पुष्टि अथवा समर्थन हेतु जगाते हैं जिन्हें हम अपना "आत्म" मान लेते हैं, परन्तु जो वास्तव में केवल भ्रांतियाँ ही हैं। यह भ्रांत धारणा, हमारी मृत्यु के समय, सीमित शरीर तथा सीमित चित्त-युक्त अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म (संसार) को प्रेरित करती है।
किन्तु बुद्ध ने यह समझकर समझाया कि इन वास्तविक कारणों और, फलस्वरूप, इन दुःख सत्यों का भी निवारण संभव है, ताकि वे दोबारा सामने न आएँ। चौथा आर्य सत्य ऐसे सत्य निरोध की प्राप्ति हेतु वास्तविक प्रतिकारक का काम करता है।
उचित बोध अज्ञान के स्थाई निराकरण की ओर जाने का सत्य मार्ग है
साधारणतः, जब हम दुःख, असन्तोषदायक सुख, अथवा अनस्तित्व की भावना का अनुभव करते हैं, तो हम, यह कल्पना करके, कि वह हमेशा के लिए टिका रहेगा, उसका कोई असाधारण एवं ठोस गूढ़ार्थ निकालने का प्रयास करते हैं। परन्तु, निश्चित रूप से, हम जिन भावनाओं का अनुभव करते हैं उनमें कुछ भी विशिष्ट नहीं है - वे सभी अस्थिर एवं अस्थायी हैं। जब तक वे विद्यमान हैं, वे निरंतर अपनी तीव्रता बदलती रहती हैं, और अंततः सभी स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाती हैं। इस तथ्य से अनभिज्ञ होकर तथा इसके विपरीत चिंतन करते हुए, हम अपने मस्तिष्क के भीतर के स्वर से धोखा खाते हैं, जो चिल्ला-चिल्लाकर कहता है, "मैं इस सुख से दूर नहीं होना चाहता; यह अत्यंत अद्भुत है", या "मैं इस दुःख से दूर होना चाहता हूँ; यह अत्यंत भयानक है, मैं इसे सह नहीं सकता", या "मैं चाहता हूँ कि किसी भी सुखद अवस्था का कभी भी अवसान न हो; यह कितना शान्तिप्रद है।" इस "मैं" पर अटकाव और किसी ठोस इयत्ता के रूप में "मैं" की स्फीति अशांतकारी मनोभाव तथा बाध्यकारी व्यवहार को जन्म देता है, जिससे हमारा दुःख सत्य बना रहता है।
आप स्वयं से पूछें कि आप क्यों "मैं" नाम की एक प्रकार की ठोस इयत्ता के रूप में अस्तित्वमान हैं, जो स्वतःसम्पूर्ण है, शरीर और मन से स्वतंत्र है, और अपने मस्तिष्क के भीतर के स्वर का सृजनकर्ता है। यदि आप कहें, "क्योंकि ऐसा अनुभव होता है और, इसलिए मैं ऐसा सोचता हूँ," तो स्वयं से पूछें कि क्या "क्योंकि मैं ऐसा सोचता हूँ" किसी बात पर विश्वास करने का एक ठोस कारण हो सकता है? जब हम विशेष रूप से अपने बारे में केवल "क्योंकि मैं ऐसा सोचता हूँ" के आधार पर किसी कल्पना प्रक्षेपण पर विश्वास करते हैं, तब हम उस विषय को लेकर क्यों असुरक्षित अनुभव करते हैं? वह इसलिए कि हमारी भ्रांत धारणा की पुष्टि करने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है; वह न तो तथ्य और न ही तर्क द्वारा समर्थित है।
सच्चाई यह है कि किसी वस्तु को देखते, सुनते, सूंघते, आस्वादन करते, कायिक रूप से अनुभव करते, या सोचते हुए जो सुख, दुःख, या इनकी अनुपस्थिति का हम अनुभव करते हैं उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। उनमें से किसी के साथ समझने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्हें समझने का प्रयास करना बादल को पकड़ने जैसा होगा - पूर्णतः व्यर्थ चेष्टा। और न ही "मैं" और अथवा मेरी किसी भी क्षण की अनुभूति में कुछ विशेष है। हम किसी प्रकार की स्वतः सम्पूर्ण ठोस इयत्ता के रूप में अस्तित्वमान नहीं हैं जो हमारे मस्तिष्क में बातें कर रहा है और जो मनमानी करना चाहता है। हम अवश्य अस्तित्वमान हैं, परन्तु, उन असंभव रूपों में नहीं जिन्हें हम भ्रमवश मान लेते हैं और केवल इसलिए विश्वास करते हैं क्योंकि ऐसा लगता है और "मैं सोचता हूँ"।
स्वयं के बारे में इस भ्रांत धारणा एवं भ्रमित विश्वास से छुटकारा पाने के लिए हमें एक प्रतिद्वंद्वी की आवश्यकता है जो इन्हें पूर्णतः मिटा दे। हो सकता है कि केवल अपने मन को शांत करने के लिए यदि हम उस प्रकार सोचना बंद कर दें तो कुछ समय के लिए भ्रान्ति का दमन हो जाए, परन्तु वे पुनः-पुनः सिर उठाएँगी। तो, हमारी वास्तविक समस्याओं के वास्तविक कारणों के सत्य निरोध को प्राप्त करने का सत्य मार्ग वह मानसिक स्थिति होनी चाहिए जो हमारी अनभिज्ञता का परस्पर अनन्य विपर्यय हो। अनभिज्ञता का विपर्यय है अभिज्ञता। तो, हमें किसकी अभिज्ञता की आवश्यकता है? अतः, हमारे स्वतः सम्पूर्ण अस्तित्व की भ्रांत धारणा को मिटाने वाला वह निर्वैचारिक बोध है कि वैसा कुछ भी नहीं है – उसकी शून्यता का निर्वैचारिक बोध, न कि केवल शून्यता की हमारी क्षुद्र धारणा के द्वारा उसपर वैचारिक केन्द्रीकरण, फिर चाहे वह सटीक ही क्यों न हो। तर्क एवं निर्वैचारिक अनुभव पर आधारित अभिज्ञता, कि जिसे हमने भूल से सच माना था वह वास्तविकता के अनुरूप नहीं है, इस भ्रांत विश्वास को मिटा देता है कि वह केवल इस बात पर आधारित था कि "मैं सोचता हूँ" और यह अनभिज्ञता कि वह मिथ्या है। क्योंकि अनभिज्ञता की प्रवृत्तियाँ और अभ्यास की जड़ें गहरी हो चुकी हैं, उनका मिटना धीरे-धीरे, अंशों और चरणों में होता है।
सत्य मार्ग के चार स्वरुप
बुद्ध ने समझाया कि सत्य मार्ग उस सविवेकी सचेतनता (ज्ञान) के अनुसार जाना जा सकता है जो शून्यता के निर्वैचारिक बोध के साथ है। यह मानसिक कारक सत्य और मिथ्या के बीच विभेद करता है।
- पहला, यह सविवेकी सचेतनता चित्त मार्ग है, जो अनभिज्ञता के विभिन्न स्तरों को शनैः शनैः विस्मृति तथा पूर्ण निरोध की ओर ले जाती है। प्रथमतया, यह उन अन्य विश्वास एवं मूल्य प्रणाली पद्धतियों को सीखने और स्वीकार करने पर आधारित अनभिज्ञता और मिथ्या बोध से सदा के लिए मुक्त करवाती है, जिनके बीज हमारे मन में माता-पिता एवं व्यापक समाज ने बो दिए।
आप जब सोशल मीडिया पर लोगों की सेल्फी देखते हैं जिनमें वे अच्छे दिख रहे हैं और अद्भुत समय बिता रहे हैं, तो वह आपके प्रति अपनी धारणा को, कि आपको कैसा दिखना चाहिए और आपका जीवन कैसा होना चाहिए, किस प्रकार प्रभावित करता है? क्या वह आपको स्वयं के बारे में अच्छा महसूस करवाता है या बुरा? यह सविवेकी सचेतनता कि ये पोस्ट वास्तविक जीवन को प्रतिबिंबित नहीं करते, हमें उस भ्रांत धारणा से छुटकारा दिलाने का मार्ग है कि वे वास्तव में उसे प्रतिबिंबित करते हैं। परिणामस्वरूप, वह उस दुःख और अवसाद से हमें छुटकारा दिलाती है जो इस प्रकार की भ्रांत धारणाएँ उत्पन्न करती हैं जब हम अपनी तुलना उन लोगों के साथ करते हैं और उनके जैसा बनने की कामना करते हैं।
इस प्रथम चरण के बाद, जब हम "आर्य" या उच्च सिद्धि प्राप्त जीव बन जाते हैं, तब, और अधिक जानकारी के साथ, यह सविवेकी सचेतनता फिर हमें उस स्वतः उत्पन्न अनभिज्ञता से, चरणों में, छुटकारा दिलाती है जो, उदाहरणार्थ, इस कल्पना से उत्पन्न होती है कि हमारे मस्तिष्क के लगभग निरंतर उठते स्वर के पीछे एक ज्ञेय, ठोस इयत्ता, "मैं" है। हम विमुक्ति और कालान्तर में ज्ञानोदय प्राप्त करते हैं। जब हम यह समझ लेते हैं कि शून्यता की सविवेकी सचेतनता हमें इन दुःख सत्यों के वास्तविक कारणों से सदा के लिए मुक्ति दिलाती है, तब वह इस भ्रांत धारणा का भी निवारण करती है कि उनसे मुक्ति प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है।
- दूसरा, यह सविवेकी सचेतनता कि "मैं" नाम की कोई स्वतःसम्पूर्ण ठोस इयत्ता नहीं होती, उसके होने की अनभिज्ञता एवं भ्रांत धारणा को सदा के लिए नष्ट करने का एक उपयुक्त साधन है। ऐसा इसलिए है इसलिए क्योंकि यह उसका परस्पर अनन्य विपर्यय है। आप किसी भी वस्तु के विषय में यह तो नहीं कह सकते कि वह है भी और नहीं भी? यह तथ्य इस भ्रांत धारणा को हटा देता है कि सविवेकी सचेतनता सत्य निरोध की प्राप्ति के लिए एक अनुपयुक्त माध्यम है।
- तीसरा, शून्यता की सविवेकी सचेतनता आर्य, विमुक्त सत्व, तथा ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध की तीनों सिद्धियों को चरणबद्ध रूप से यथार्थ बनाने का साधन है। यह उस भ्रांत धारणा का प्रत्युत्तर है कि इन सिद्धियों को पाने का एक ही साधन है, और वह है एकाग्रता की गहन मनोभूमि की प्राप्ति।
- अंत में, यह सविवेकी सचेतनता अशांतकारी भावनाओं से, और यहाँ तक कि उनकी प्रवृत्ति एवं स्वभाव से भी, जो हमारी मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति में बाधा डाल रही हैं, सदा के लिए स्थायी निवृत्ति प्राप्त करने का साधन है। यह तथ्य उस भ्रांत धारणा का खंडन करता है कि ये हमारे चित्त के स्वभाव के अंग हैं और उन्हें पूर्ण रूप से हटाया नहीं जा सकता।
सारांश
सविवेकी सचेतनता से निर्धारित किए गए शून्यता के निर्वैचारिक बोध का वास्तविक चित्त मार्ग हमारे दुःख सत्य के वास्तविक कारणों का विनाश करने वाला प्रतिरोधी है। एक बार सिद्ध होने पर यह सत्य चित्त मार्ग चरणबद्ध रूप से हमारे एक के बाद एक जीवनकाल में अनियंत्रित रूप से उठ रहे दुःख सत्यों को बनाए रखने के वास्तविक कारणों की अनभिज्ञता एवं भ्रांत धारणाओं को सदा के लिए समाप्त कर देता है। क्या ऐसे चित्त की प्राप्ति सबसे सार्थक अवस्था नहीं है जिसके लिए हम प्रयास कर सकते हैं?