यथार्थ की अनभिज्ञता

दूसरा आर्य सत्य - दुःख सत्य कारण

जिस प्रकार हमने पहले आर्य सत्य को अधिक व्यक्तिगत और ग्राह्य ढंग से समझा, उसी प्रकार हमें अन्य तीन आर्य सत्यों को समझने की आवश्यकता है, ताकि हमारी बौद्ध साधना अधिक सार्थक और रूपांतरकारी रूप में व्यक्तिगत ढंग से हमें प्रभावित सके |

जीवन में अपनी समस्याओं को स्वीकार करने और, एक रूप में, स्वयं को थोड़ा भावात्मक सहारा देने के बाद, हम दूसरे आर्य सत्य को देखते हैं, दुःख के कारण | हमें यह जानने की आवश्यकता है कि टूटे हुए पाइप के काम न करने का कारण क्या है, ताकि हम उसे ठीक कर सकें | जब हम अपनी समस्याओं के कारण ढूँढ़ते हैं, तो हमें इसे व्यक्तिगत रूप में मध्यम-मार्ग के दृष्टिकोण से करना चाहिए | दूसरे शब्दों में, हम केवल बाह्य कारकों पर दोषारोपण नहीं करना चाहते, "मैं ऐसा इसलिए हूँ क्योंकि जब मैं तीन वर्ष का था मेरी माँ ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया था और समाज ने ऐसा किया तथा अर्थव्यवस्था ने ऐसा किया |" दूसरी ओर, हम इन कारकों को पूर्णतः नकारकर यह भी नहीं कहना चाहते, "सारा दोष मेरा ही है," और अपने ऊपर सारा अपराध-बोध और दोष का भार नहीं डालना चाहते |

जब हम यह कहते हैं कि किस प्रकार हमारे दुःख और हमारी समस्याओं का गहनतम कारण हमारा अज्ञान है, तब इस विचार को विकृत करके यह सोचना अत्यंत सरल होता है कि, "मैं मूर्ख हूँ; मैं बुरा हूँ; मैं बेकार हूँ | और इसलिए मैं अपराधी हूँ |" ये सब विचार इस मूर्त "मैं" से उपजते हैं जो सदा से मूर्ख है, जो सब कार्य गड़बड़ करता है - जो बुरा है | मैं यह वाक्य प्रयुक्त करना पसंद करता हूँ, "हम यथार्थ से अनभिज्ञ हैं," न कि, "हम अज्ञानी हैं |" हो सकता है कि इससे हम दूसरे आर्य सत्य, जीवन में हमारी समस्याओं के सत्य कारण, से उसका निर्णयकारी स्वरुप थोड़ा कम कर पाएँ |

अपने जीवन की कठिनाइयों के सत्य कारणों को सारगर्भित रूप से देखने के लिए उनमें गहन से गहनतर उतरने के लिए, हमें दूसरे आर्य सत्य को शून्यता के ज्ञान के साथ जोड़ना होगा | भीतर कोई मूर्त "मैं" नहीं है, जिस मूर्ख ने सबकुछ चौपट कर दिया है - वह मूर्त "मैं" जिसने सबकुछ चौपट कर दिया है और जो असली मूर्ख है | हम प्रायः अपने मन में अधिक कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं |

चाहे हम अपने जीवन की समस्याओं के स्रोत तक यानी अपनी अनभिज्ञता तक पहुँच भी जाएँ, तब भी वह अवलम्बित उत्पत्ति को नकार नहीं सकती | हमारी सभी समस्याएँ एक ही कारण से उत्पन्न नहीं हुई हैं - जैसे वह उदाहरण कि बाल्टी पहली अथवा अंतिम बूँद से नहीं भरती | उसी प्रकार, जीवन में हमारी सभी समस्याएँ एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होतीं, जिसके आसपास एक स्पष्ट घेरा हो, किसी और बात का प्रभाव पड़े बिना | ऐसा नहीं होता | अवलम्बित उत्पत्ति अनेक कारकों पर निर्भर होती है, जैसे हमारी अनभिज्ञता तथा भ्रान्ति का समुच्चय, इसके सहित कि मेरी माता, समाज तथा अर्थव्यवस्था ने क्या किया | और हमारे कठिन जीवन की बाल्टी इन सब बूंदों के संयोग से भरी है |

जब हम कहते हैं कि दुःख का मूल कारण है अभिज्ञता का अभाव, तब हमारा अभिप्राय है कि अनभिज्ञता - यथार्थ के ज्ञान का अभाव अथवा भ्रांत ज्ञान - हमारे दुःख का गहनतम कारण है और, यदि हम परिस्थिति को बदलना चाहते हैं तो, हमें इससे पीछा छुटाना होगा | ऐसा इसलिए है क्योंकि अन्य कारण तथा परिस्थितियाँ या तो उस अनभिज्ञता से व्युत्पन्न हैं या ऐसी हैं जिन्हें बदलना हमारे लिए असंभव है | हम उस कृत्य को नहीं बदल सकते जो हमारी माता ने हमारी तीन वर्ष की आयु के समय किया था | वह बात समाप्त हो चुकी है; वह इतिहास है | दूसरे आर्य सत्य के साथ इस अनिर्णयकारी ढंग से शून्यता तथा अवलम्बित उत्पत्ति की शिक्षाएँ लागू करके कार्य करना अत्यंत आवश्यक है |

आप मेरी बात समझ रहे हैं न? हम पहले आर्य सत्य के प्रसंग में जिस प्रक्रिया से होकर निकले यह प्रक्रिया भी उसके समकक्ष है | हम अपने भीतर झाँककर देखते हैं, "निस्संदेह, मैं भ्रमित हूँ और, निस्संदेह, मैं नहीं जानता कि मैं जीवन में क्या कर रहा हूँ," परन्तु हम बिना निर्णयकारी हुए उसे स्वीकार करने का प्रयास करते हैं | यह नाज़ुक बात है | यह ऐसा है जैसे सब्ज़ी काटते समय यदि हमारे घाव हो जाए, तो इसके बारे में बहुत हाहाकार मचाने के स्थान पर -"ओह, मैं कितना मूर्ख हूँ, मैं कितना बुरा हूँ," हमें उसे शान्ति से स्वीकार कर लेना चाहिए | हो सकता है हम सावधानीपूर्वक काम न कर रहे हों, या जो भी कारण रहा, ऐसा हो गया | ऐसा हो जाता है | हम बस इसे स्वीकार कर लेते हैं | इसके अतिरिक्त, हमारा हाथ केवल इसलिए नहीं कटा क्योंकि हम ध्यान नहीं दे रहे थे | यह इसलिए भी हुआ क्योंकि चाकू की धार तेज़ थी | यदि धार तेज़ न होती, तो हमारा हाथ न कटता | यह इस तथ्य पर भी अवलम्बित है कि हमें भूख लग रही थी और हमारा ऐसा मानव शरीर है जिसे प्रतिदिन भोजन चाहिए | यदि वह न होता, तो यह दुर्घटना न हुई होती |

यह बात हमारे जीवन की सभी समस्याओं पर लागू होती है | वे इन सभी कारकों के संयोजन से उत्पन्न होती हैं और यह उस तथ्य की भाँति है कि हमारा हाथ कटने का अर्थ यह नहीं है कि हम बुरे हैं | हम पुनः दानव-को-पोषित करने की मनोदृष्टि अपनाकर ऐसा कर सकते हैं | एक बार जब हम अपने प्रति अपने जीवन की समस्याओं के कारणों को लेकर यह अनिर्णयकारी दृष्टि अपना लेंगे, तब हम दूसरों के साथ भी ऐसा कर पाएँगे | आइए प्रयास करें | 

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तीसरा आर्य सत्य - दुःख सत्य निरोध

तीसरे आर्य सत्य से हम अपनी समस्याओं के सत्य निरोध की संभावना को देख रहे हैं | "निवारण" शब्द का अर्थ ही यही है - हम अपनी समस्याओं को समाप्त कर सकते हैं, हम उनसे छुटकारा पा सकते हैं | अंग्रेज़ी भाषा में, "निवारण" शब्द का अधिकांश लोगों के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं है | यह एक भारी-भरकम शब्द है जिसका प्रायः प्रयोग नहीं होता | यह आम शब्द नहीं है, इसलिए हममें से अधिकतर लोग इसका अर्थ नहीं जानते | मेरी माँ को निस्संदेह इस शब्द का अर्थ पता नहीं होगा, और न ही उन्होंने अपने जीवन में कभी इसका प्रयोग किया होगा | तो, आइए तीसरे आर्य सत्य को "सत्य निरोध" कहें |

यहाँ मुद्दा केवल यह नहीं है कि हम अपनी समस्याओं को केवल रोकें अथवा समाप्त करें, बल्कि उन समस्याओं के कारणों का समापन भी अनिवार्य है। और हम केवल किसी एक विशिष्ट समस्या की बात नहीं कर रहे, क्योंकि निस्संदेह कोई एक विशिष्ट समस्या तो समाप्त हो ही जाएगी। जब हम भोजन पकाकर खा लेते हैं, तो हमारी भूख की विशिष्ट समस्या उस समय के लिए समाप्त हो जाती है। परन्तु इससे बड़ी समस्या यह है कि हमें दोबारा भूख लगेगी। तो यहाँ पर हम आवर्ती समस्या तथा समस्या के आवर्ती कारणों को रोकना चाहते हैं। आज रात के भोजन के बाद मेरी भूख का कारण आज के लिए लुप्त हो जाएगा। परन्तु जब मैं रात का भोजन कर लूँगा तो मेरी भूख की समस्या सदा के लिए नहीं मिटेगी। हम किसी एक विशिष्ट समस्या, जैसे अभी की भूख, के कारण को मिटाने की बात नहीं कर रहे । हम बात कर रहे हैं कारण की सतत उत्पत्ति को मिटाने की। यहाँ पर मुख्य बात यही है।

मुद्दा यह है: "क्या मैं इस बात पर सचमुच विश्वास करता हूँ कि मेरी समस्याओं के कारणों के अनियंत्रित रूप से आवर्ती प्रवाह से छुटकारा पाना संभव है? और यदि मुझे इस संभावना पर विश्वास है, तो मैं वास्तव में इससे छुटकारा कैसे पाऊँ?" दूसरे शब्दों में, क्या मुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्त करना सचमुच संभव है?

ये अत्यंत कठिन बातें हैं। यदि हम, कुछ हद तक, आश्वस्त नहीं हैं कि हमारी समस्याओं से सदा के लिए छुटकारा पाना संभव है, तो हम बौद्ध-धर्म में क्या कर रहे हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? क्या हम केवल एक काल्पनिक उपलब्धि को लक्षित कर रहे हैं जिसकी प्राप्ति की संभावना में हमें सचमुच विश्वास नहीं है? यदि ऐसा है तो बुद्ध बनना और मुक्ति पाना केवल एक बाल-कल्पना है। और हम स्वयं को छल रहे हैं, उस लक्ष्य-प्राप्ति के प्रयास में समय नष्ट कर रहे हैं जिसे पाने की संभावना में हमें विश्वास नहीं है। यह एक गंभीर प्रश्न है।

दुर्भाग्य से मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर पाना किस प्रकार संभव है यह समझने की तर्क-शृंखला अत्यंत कठिन है। इसका सम्बन्ध प्रासांगिका दर्शनशास्त्र की सम्पूर्ण प्रस्तुति से है जिसमें सत्यनिरोध शून्यता के समकक्ष है। इसे वास्तव में समझना अत्यंत कठिन है। तो इसका अब हमारे लिए क्या अर्थ है? इस सप्ताहांत के कोर्स के सन्दर्भ में इसका अर्थ है कि हम तत्काल यह नहीं समझ पाएँगे कि मुक्ति पाना किस प्रकार संभव है। यह एक दीर्घ प्रक्रिया है; परन्तु जब तक हम यह नहीं समझते कि यह संभव है हम इसके प्रति आश्वस्त नहीं होंगे। और यदि हम आश्वस्त नहीं होते, तो हम इसे अनुभव नहीं कर पाएँगे, जैसे हमने कल चर्चा की थी - उस पूरी प्रक्रिया के द्वारा कि जब हम किसी बात को समझ लेते हैं तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं। इस सबका निचोड़ यही है कि हमें इस बात को अनंतिम रूप से इस विश्वास पर स्वीकार करना होगा - कि मुक्ति और ज्ञानोदय संभव हैं। यह इन्हें समझने का अनंतिम ढंग है।

तो क्या यह "अन्धविश्वास" है? "मुझे विश्वास है! हालेलूईया!?" हम इसपर कैसे विश्वास करें? हो सकता है कुछ लोग कहें, "मैं इसपर विश्वास कर सकता हूँ, क्योंकि मेरे गुरु एक बुद्धजन हैं। मैं उनमें ज्ञानोदय देखता हूँ, तो यह संभव है।" यह बात अधिकांश लोग नहीं मानेंगे, क्योंकि हम आध्यात्मिक रूप से बहुत पहुँचे हुए अनेक गुरुओं में विभिन्न दोष देखते हैं। कभी-कभी वे भूल करते हैं। हमें इस पूरे विषय के बीच विभेद करना होगा - और उसकी चर्चा हम बाद में करेंगे - कि "क्या गुरु स्वतः बुद्धजन हैं," अथवा "क्या गुरु का बुद्धजन होना अवलम्बित रूप से गुरु तथा शिष्य के बीच के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है?" निस्संदेह दूसरा विकल्प सही है। ये बातें अवलम्बित रूप से एक दृष्टिकोण से उत्पन्न होती हैं। बुद्धजन होना विशुद्ध सत्य नहीं है जिसे गुरु अपनी ओर से एक तथ्य के रूप में स्थापित करें जिसे अक्षरशः स्वीकार करना हो। साधना में हम प्रायः देखते हैं कि जिन गुरुओं को हम अत्युत्तम समझ रहे थे, उनमें से कई गुरु भूल करते हैं। और फिर हमें निराशा और मोहभंग हाथ आते हैं और हम सोच बैठते हैं कि ज्ञानोदय संभव नहीं है।

क्रमिक-स्तर की लाम-रिम पद्धति को इस विश्वास पर लागू करना कि मुक्ति संभव है

हम लाम-रिम के मूल ढाँचे, मार्ग के क्रमिक स्तर, के माध्यम से यह विश्वास करने की दुविधा से बच सकते हैं कि मुक्ति और ज्ञानोदय संभव हैं | परम पावन के लाम-रिम वर्णन में प्रेरणा के तीन स्तर प्रस्तुत किए गए हैं - तीन लक्ष्य, तीन ध्येय | उच्चतम स्तर ज्ञानोदय के लिए है, और मध्यम मुक्ति के लिए | एक प्राथमिक स्तर की प्रेरणा भी है, जो है किसी बेहतर पुनर्जन्म अवस्था में पुनः जन्म लेना | यदि हम उस प्राथमिक लक्ष्य को बिना पुनर्जन्म की बात किए सरल शब्दों में कहें, तो वह है संसार को बेहतर बनाने की प्रेरणा - अपनी सांसारिक उपस्थिति को सुधारना | परन्तु उन भावी जन्मों को सुधारने से पूर्व, हमें पहले इस जन्म को सुधारने के विषय में सोचना चाहिए | यह एक पूर्व-लाम-रिम स्तर होगा; आइए इसे "प्रेरणा का प्रारम्भिक स्तर" कहें | [डा. बर्ज़िन ने परवर्ती वर्षों में इसे "धर्म-लाइट" कहा है | ]

यहाँ महत्त्वपूर्ण बात है अपने साथ ईमानदार होना और आध्यात्मिक रूप से कपटी न होना | मेरे विचार में, बौद्ध साधकों में से बहुत कम लोग, सच्चाई से यह कह सकते हैं कि उनका ध्येय मुक्ति और ज्ञानोदय है | यदि हम सचमुच मुक्ति की कामना कर रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि हमारे भीतर आदर्श परित्याग है | परन्तु परित्याग होना तो दूर की बात है, अधिकतर लोग तो इसके बारे में सुनना भी नहीं चाहते |

हम चॉकलेट अथवा टेलीविज़न का त्याग नहीं कर रहे | हम त्याग कर रहे हैं अपनी समस्याओं के कारणों का, जो मूलतः, प्रारम्भिक स्तर पर हैं, हमारे व्यक्तित्व के नकारात्मक लक्षण और उनसे उत्पन्न विनाशकारी व्यवहार | हमें इन्हें त्यागने की आवश्यकता है: क्रोध, स्वार्थ, लोभ, दीवारें | हममें से अधिकांश लोग इन्हें नहीं त्यागना चाहते | हम सब अपने जीवन में वृद्धि चाहते हैं - सुख व और सभी अच्छी वस्तुएँ - परन्तु बिना कुछ त्यागे हुए | इसलिए, बिना त्याग के, जब हम कहते हैं, "मेरा लक्ष्य ज्ञानोदय है, मेरा लक्ष्य मुक्ति है," तो इसमें कोई सच्चाई नहीं है |

हमें यहाँ इस "चाहिए" के मुद्दे पर एक और बार कूची फेरनी होगी | हममें से अनेक सोचते हैं कि "मेरा ध्येय ज्ञानोदय होना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा नहीं है, तो मैं बुरा साधक हूँ और मेरे गुरु मुझे नहीं चाहेंगे |" यह थोड़ी बचकानी बात है, नहीं क्या? यहाँ हमें यह देखने का प्रयास करना चाहिए कि अपने सांसारिक जीवन को बेहतर बनाने के लक्ष्य की प्रारम्भिक स्तर की प्रेरणा बिलकुल उचित है | प्रारम्भिक स्तर पर होने में कोई बुराई नहीं है | बल्कि, प्रारम्भिक स्तर तक पहुँच पाना अपनेआप में बहुत बड़ी उपलब्धि है | भावी जीवनों की बात तो छोड़ ही दीजिए, अधिकांश लोगों में इस जीवन को सुधारने की भी कोई अवधारणा नहीं होती | और यहाँ हम आर्थिक रूप से उन्नत जीवन की बात नहीं कर रहे, हम बात कर रहे हैं आतंरिक विकास की | इस संसार के अधिकांश लोग उसमें रूचि नहीं रखते | उसे अपना लक्ष्य बनाना अच्छा है, और, उस आधार पर, हम धर्म-साधना में प्रविष्ट हो सकते हैं तथा, एक लम्बे समय के बाद, हम यह समझने का प्रयास कर सकते हैं कि मुक्ति और ज्ञानोदय पाना संभव है, क्योंकि इस बात पर विश्वास कर पाना आसान नहीं है |

अन्य शब्दों में, यह सोचने में अधिक ईमानदारी है कि, "मैं अभी यह नहीं कह सकता कि मेरा लक्ष्य मुक्ति और ज्ञानोदय है, क्योंकि मैं आश्वस्त नहीं हूँ कि उन्हें पाना संभव है और मैं किसी काल्पनिक कथा के सहारे नहीं रहना चाहता | इसलिए मेरा लक्ष्य है यह समझना कि यह संभव है, क्योंकि मैं तब उस दिशा में सच्चाई से बढ़ पाऊँगा | इस बीच, मैं अभी अपनी सांसारिक स्थिति को सुधारने के स्तर पर कार्यशील रहूँगा, जीवन में मेरी समस्याकारी स्थिति, और, उस सन्दर्भ में, मुझे विश्वास है कि मेरी समस्याओं के कारणों को क्षीण किया जा सकता है और मेरी भ्रान्ति की तुलना में अधिक सरलता से मिटाए जा सकने वाली बातों को मिटाया जा सकता है |" मुझे लगता है कि इस विचारपद्धति के साथ हम अधिक सुगमता से अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ कार्य कर सकते हैं |

अब मुद्दा यह नहीं है कि गुरु वास्तव में मुक्ति अथवा ज्ञानोदय-प्राप्त हैं या नहीं | अब यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा | अब मुद्दा यह है कि यह व्यक्ति हमसे अधिक विकसित व्यक्ति है, जिसने, काफी हद तक, अपनी भ्रान्ति तथा क्रोध इत्यादि को कम कर लिया है | हमें सोचना चाहिए, "चाहे यह व्यक्ति कभी-कभी भूल कर भी ले और भावात्मक स्तर पर अव्यवस्थित हो भी जाए, तब भी इसमें कोई बड़ी बात नहीं है | बाद में, जैसे मैं इस मार्ग पर आगे बढूँगा, तब मैं ऐसी बातों से इस सन्दर्भ में 'मेरे गुरु मुझे कुछ सिखाना चाहते हैं' निपट लूँगा | मैं उस मुद्दे से बाद में निपट लूँगा | अभी इस स्तर पर, मेरा इतना स्वीकार करना काफ़ी है कि यह अत्यंत विकसित व्यक्ति हैं | मेरे गुरु उत्तम हैं अथवा नहीं इससे अभी मेरा कोई सरोकार नहीं है | वे जैसे भी हैं, मुझे प्रगति करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं |"

यद्यपि बौद्ध शिक्षाओं में इसे इस प्रकार व्याख्यायित नहीं किया गया है, एक पश्चिमी व्यक्ति होने के नाते मुझे लगता है कि हमारे आध्यात्मिक विकास में इस प्रारम्भिक स्तर की प्रेरणा का एक चरण के रूप में प्रयोग करना अत्यंत लाभकारी है, क्योंकि हम पश्चिमी लोग प्रायः सबकुछ काले और सफ़ेद ढंग से देखते हैं | दूसरे शब्दों में, या तो गुरु एक आदर्श बुद्ध है अथवा हम सोचते हैं, "इस पूरे आध्यात्मिक मार्ग को भूल जाओ, क्योंकि मैंने उन्हें भूल करते देख लिया है |" उस अतिवाद से बचने के लिए, और ऐसा कहने के अतिवाद से बचने के लिए भी कि हम मुक्ति और ज्ञानोदय के लिए कार्य कर रहे हैं जबकि हम वास्तव में ऐसा नहीं कर रहे, मुझे लगता है कि यह मध्यम चरण अत्यंत सहायक है |

मैंने अपनी व्यक्तिगत साधना में पाया है कि मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मेरे गुरु वास्तव में बुद्धजन हैं या नहीं और उनमें बुद्ध के सारे गुण हैं अथवा नहीं | क्या वे दीवार के आरपार निकल सकते हैं और हवा में उड़ सकते हैं और स्वयं को दस अरब रूपों में गुणा कर सकते हैं? मुझे परवाह नहीं है | मुझे अंतर नहीं पड़ता | परन्तु दूसरे लोगों के साथ अपने व्यवहार, जीवन में अपने आचरण, इत्यादि में वे मुझसे कितने अधिक विकसित हैं इसे मैं देख और समझ सकता हूँ, और यह तथ्य मुझे दर्शाता है कि वे मुझसे बहुत अधिक विकसित हैं | इससे मुझे प्रेरणा मिलती है कि यह प्राप्त कर पाना संभव है |

हम इस स्तर से आरम्भ कर सकते हैं | मुझे लगता है कि यह अधिक सुगम है | यह आश्वासन कि अपनी समस्याओं के कारणों को रोक पाना संभव है - चाहे वह मुक्ति प्राप्त करने के लिए सत्य निरोध न हो - हमारे लिए प्रेरणा के प्रारंभिक क्षेत्र में एक व्यक्ति के रूप में कार्य करने के लिए इतना ही पर्याप्त है | हमारी आध्यात्मिक साधना में इस स्तर से आरम्भ करने के लिए यह एक उत्तम वैध क्षेत्र है | अन्य शब्दों में, जब हम एक गुरु को इस स्तर पर देखते हैं, तब हम आश्वस्त हो जाते हैं कि समस्याओं के कारणों का निरोध किसी स्तर पर संभव है, चाहे यह सत्य निरोध न हो जिससे हम मुक्ति प्राप्त करते हैं | समस्याओं के कारणों के निरोध के इस स्तर की संभावना में आस्था होने से हमें इस पहले स्तर की प्रेरणा में सच्चाई के साथ एक व्यक्ति के रूप में कार्य करने का आत्मविश्वास मिलता है | यह अत्यंत आवश्यक चरण है | यह केवल उपयुक्त ही नहीं है, बल्कि हमारे स्थिर आध्यात्मिक विकास के लिए यह एक आवश्यक चरण है |

इसलिए हमें इससे बचना है कि हम आरम्भ में ही प्रेरणा के उच्चतम स्तर पर छलाँग लगाकर पहुँच जाएँ और जब मोहभंग हो जाए, तो - धड़ाम! - धरती पर आ गिरें | बौद्ध-धर्म के साथ छात्र की भेंट का यह ठेठ पाश्चात्य ढर्रा है | हम ढोंगी न होकर पहले अपनी वर्तमान सांसारिक स्थिति को सुधारकर इससे बच सकते हैं और यही कारण है जिसके कारण सच्चे लोग प्रायः बौद्ध-धर्म अपनाते हैं - हम इसे किसी सैर-सपाटे या क्रीड़ा अथवा मन-बहलाव के लिए नहीं कर रहे | यह बौद्ध-धर्म के साथ सच्चे सम्बन्ध का सबसे पहला स्तर है; यह प्रस्थान-बिंदु है |

फिर हम चौथे आर्य सत्य तक आते हैं: इस आत्म-रूपांतरण को पूरा करने के लिए, हमें स्वयं प्रयत्न करना होगा | हमें उद्यमी होना होगा; यह बिना कारण, बिना प्रयत्न के आसमान से हमारी गोद में नहीं आ गिरेगा | हमें अपने भीतर परिवर्तन लाना होगा | 

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