आपात स्थितियों में भय को नियंत्रित करने के तरीके
तिब्बती बौद्ध परम्परा में तारा एक स्त्री बुद्ध स्वरूप हैं जो किसी बुद्ध के भय रक्षक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। तारा दरअसल शरीर और श्वास की ऊर्जा वायु का प्रतिनिधित्व करती हैं। अपने शुद्ध रूप में वे कर्म करने और अपने लक्ष्यों को हासिल करने की योग्यता का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। यह प्रतीक भय को नियंत्रित करने के उद्देश्य से अपने श्वास को नियंत्रित करने और सूक्ष्म ऊर्जाओं को संचालित करने के अनेक तरीके सुझाता है।
आपात स्थितियों सम्बंधी ये तरीके ध्यानसाधना, अध्ययन, या उपदेश श्रवण से पूर्व किए जाने वाले प्रारम्भिक अभ्यासों से उत्पन्न होते हैं। अपने आप में ये अभ्यास हमें ऐसी आपात स्थितियों में अपने चित्त को शांत करने में सहायक होते हैं जब हम अत्यधिक भयभीत हों या संत्रस्त हों। ये तरीके और अधिक गूढ़ विधियों का प्रयोग करने से पहले उठाए जाने वाले शुरुआती उपायों के रूप में भी कार्य करते हैं। हम इनमें से किसी एक को भी लागू कर सकते हैं या फिर नीचे बताए गए क्रमानुसार इनका अभ्यास कर सकते हैं:
- भीतर लिए जाने वाले और बाहर छोड़े जाने वाले श्वास, और भीतर जाते हुए श्वास की अनुभूति, श्वास के और नीचे जाने, पेट के निचले भाग के ऊपर उठने, और फिर गिरने, और फिर श्वास छोड़े जाने को एक चक्र मानते हुए आखों को बंद करके श्वास चक्रों को गिनें।
- आखों को अधखुला रखते हुए, अनिबद्ध भाव से ध्यान केंद्रित रखते हुए, नीचे फर्श की ओर दृष्टि रखकर श्वास बाहर छोड़ने, उसके बाद कुछ समय रुककर फिर श्वास भीतर लेने को एक चक्र मानते हुए, ऊपर बताए गए अनुसार ध्यान केंद्रित करते हुए श्वास चक्रों को गिनें, और कुछ समय बाद अपने अधोभाग के कुर्सी या फर्श को स्पर्श करने को अनुभव करें
- अपने उस लक्ष्य या उद्देश्य (अपने चित्त को और अधिक शांत करना) को दोहराएं जिसे आप हासिल करना चाहते हैं और दोहराएं कि उसे आप क्यों हासिल करना चाहते हैं।
- कल्पना करें कि आपका चित्त और आपकी ऊर्जा उसी प्रकार एक केंद्र बिंदु में आ रहे हैं जैसे किसी कैमरे का लैंस केंद्र में आता है।
- श्वासों को गिने बिना, पेट के निचले भाग के उतार और चढ़ाव पर ध्यान केंद्रित करते हुए श्वास लें और अनुभव करें कि शरीर की समस्त ऊर्जा पूरे तालमेल के साथ प्रवाहित हो रही है।
भय क्या है?
भय किसी ज्ञात या अज्ञात चीज़ के बारे में हमें महसूस होने वाली एक ऐसी शारीरिक या भावात्मक बेचैनी है जिसके ऊपर हमारा न तो कोई नियंत्रण होता है और न ही हम उसे अपने इच्छित परिणाम तक ले जा सकते हैं। हम जिससे भयभीत होते हैं उससे हम मुक्त होना चाहते हैं और इसलिए हमारे भीतर उसके प्रति एक प्रबल विकर्षण होता है। यह भय भले ही सामान्य चिंता के रूप में हो, भले ही उस चिंता का कोई स्पष्ट कारण न हो, फिर भी हमारे भीतर एक प्रबल इच्छा होती है कि हम उस अनाम “कुछ” से मुक्त हो जाएं।
भय केवल क्रोध नहीं होता है। फिर भी क्रोध की ही भांति इसका सम्बंध हमारे भय के कारण के नकारात्मक पक्षों के विस्तार और “मैं” के भाव के प्रसार से होता है। भय क्रोध में यह भेद करने के इस मानसिक तत्व को जोड़ देता है कि हम स्थिति को नियंत्रित कर सकने या सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं हैं। उसके बाद हम भेद कर पाने की इस योग्यता के आधार पर उस चीज़ पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिससे हमें भय लगता है और अपने आप पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं। भेद करने या ध्यान देने का यह तरीका सटीक हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।
भय के साथ अनभिज्ञता जुड़ी होती है
भय के साथ हमेशा किसी तथ्य या वास्तविकता से सम्बंधित अनभिज्ञता (अज्ञान, मिथ्या-दृष्टि) जुड़ी रहती है – या तो उसके बारे में बोध ही नहीं होता या वह बोध ऐसा होता है जो यथार्थ के विरुद्ध हो। अब हम इसके छह सम्भावित प्रकारों के बारे में चर्चा करेंगे।
[1] जब हम भयभीत होते हैं कि हम किसी स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे या सम्भाल नहीं पाएंगे, तो हमारे भय के साथ कारण और प्रभाव के बारे में अनभिज्ञता जुड़ी हो सकती है और यह अनभिज्ञता जुड़ी हो सकती है कि चीज़ें किस प्रकार अस्तित्वमान रहती हैं। भयपूर्वक स्वयं को और जिससे हमें भय लगता है उसे देखने के हमारे भयत्रस्त तरीके के कल्पित लक्ष्य निम्नलिखित होते हैं:
- एक मूर्तिमान “मैं” – एक ऐसा व्यक्ति जिसे अकेले अपनी ही शक्ति से सबकुछ नियंत्रित करने के योग्य होना चाहिए, जैसे हमारे बच्चे को कोई चोट न लगे
- एक मूर्तिमान “वस्तु” – कोई ऐसी वस्तु जो अपने ही दम पर अस्तित्वमान हो और किसी अन्य बल से प्रभावित न होती हो, जिसे हमें अपने ही प्रयासों से नियंत्रित कर पाना चाहिए, किन्तु हम अपनी ही किसी अक्षमता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे होते हैं।
यह असंभव ढंग से अस्तित्व और कारण तथा प्रभाव के सिद्धान्त के प्रभाव डालने के असंभव ढंग हैं।
[2] जब हम भयत्रस्त होते हैं कि हम किसी स्थिति को सम्भाल नहीं सकेंगे, तब उसके साथ जुड़ी हुई अनभिज्ञता चित्त की प्रकृति और नश्वरता से सम्बंधित हो सकती है। हमें डर लगता है कि हम अपने मनोभावों को नियंत्रित नहीं कर सकेंगे या किसी प्रिय की मृत्यु की क्षति को सहन नहीं कर सकेंगे, तब हम इस तथ्य के प्रति अनभिज्ञ होते हैं कि हमारी पीड़ा और दुख की अनुभूतियाँ केवल प्रतीतियों की उत्पत्ति और बोध होती हैं। ये अस्थायी हैं और बीत जाएंगी, जैसे किसी दंत-चिकित्सक द्वारा दाँत पर चलाई जाने वाली ड्रिल मशीन से होने वाला दर्द बाद में चला जाता है।
[3] किसी स्थिति को नियंत्रित कर पाने में अक्षम होने सम्बंधी हमारा भय इस डर के कारण हो सकता है कि हम उस स्थिति को अकेले नहीं सम्भाल पाएंगे। इसके साथ अकेले होने और अकेलेपन का डर भी जुड़ा हो सकता है। हम सोचते हैं कि हमें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो उस परिस्थिति को आसान बना दे। यहाँ कल्पित लक्ष्य निम्नलिखित होते हैं
- एक मूर्त अस्तित्वमान “मैं” – एक ऐसा व्यक्ति जो अक्षम है, अयोग्य है, निकम्मा है, और कभी कुछ सीख नहीं सकता है
- एक मूर्त अस्तित्वमान “कोई और” – एक ऐसा व्यक्ति जो मुझसे अधिक योग्य हो और जो मुझे बचा सकता हो।
दूसरे लोगों के और स्वयं अपने अस्तित्व के बारे में और कारण तथा प्रभाव के बारे में अनभिज्ञता का यह एक और स्वरूप है। यह बात सही हो सकती है कि इस समय हमारे पास किसी स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त ज्ञान न हो, जैसे कि हमारी कार खराब हो जाए और हो सकता है कि किसी दूसरे व्यक्ति के पास उसे ठीक करने का ज्ञान हो और वह हमारी सहायता कर सकता हो। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कारण और प्रभाव के सिद्धांत के माध्यम से हम सीख नहीं सकते हैं।
[4] जब हम किसी से भयभीत होते हैं, उदाहरण के लिए अपने नियोक्ता से, तब हम उसकी पारम्परिक प्रकृति से अनभिज्ञ होते हैं। हमारे नियोक्ता भी हमारी तरह मनुष्य हैं जिनकी हमारी ही तरह की भावनाएं हैं। वे भी सुखी होना चाहते हैं, दुख नहीं चाहते, और वे भी चाहते हैं कि उन्हें पसंद किया जाए, नापसंद न किया जाए। दफ्तर से बाहर भी उनका जीवन है, और वे बातें उनके चित्त की दशाओं को प्रभावित करती हैं। यदि हम अपने पद और हैसियत के प्रति सजग रहते हुए अपने नियोक्ताओं को मनुष्य होने के नज़रिए से देख सकें तो हमें उनसे कम भयभीत होंगे।
[5] इसी प्रकार जब हमें साँपों से या कीड़े-मकोड़ों से डर लगता है, तब भी हम इस तथ्य से अनभिज्ञ होते हैं कि हमारी तरह वे भी सचेतन जीव हैं, और वे भी सुखी होना चाहते हैं, दुख नहीं चाहते। बौद्ध दृष्टिकोण से हम उनके प्रति इस दृष्टि से अनभिज्ञ हो सकते हैं कि उनका वर्तमान स्वरूप किसी विशिष्ट मानसिक सातत्य का प्रकट रूप है जिसकी किसी एक विशिष्ट प्रजाति के रूप में कोई अन्तर्जात पहचान नहीं है। हम इस सम्भावना से भी अनभिज्ञ होते हैं कि वे पूर्व जन्मों में हमारी माता आदि भी रहे हो सकते हैं।
[6] जब हमें विफलता या बीमारी का भय सताता है तब हम सीमित क्षमताओं वाले सांसारिक जीवों के रूप में अपनी रूढ़िगत प्रकृति से अनभिज्ञ होते हैं। हम हर दृष्टि से पूर्ण नहीं हैं और इसलिए यह तो होगा ही कि हमसे गलतियाँ होंगी और कभी-कभी हम असफल या बीमार भी होंगे। “संसार से आप और क्या अपेक्षा कर सकते हैं?”
सुरक्षा का बोध
बौद्ध दृष्टि से यह आवश्यक नहीं है:
- कि आप किसी सर्वशक्तिशाली सत्व का आश्रय लें जो हमारी रक्षा करेगा, क्योंकि सर्वशक्तिमान होने की स्थिति को प्राप्त करना असम्भव है
- यदि कोई शक्तिमान सत्व किसी प्रकार हमारी सहायता भी कर पाए, तब भी उसकी सुरक्षा या सहायता पाने के लिए उस सत्व को कोई भेंट-चढ़ावा देना होगा बलि चढ़ानी होगी
- कि हम स्वयं सर्वशक्तिशाली बन जाएं।
सुरक्षित महसूस करने के लिए हमें नीचे बताए गए क्रम में निम्नलिखित की आवश्यकता होगी:
- यह जानना कि हमें किससे भय लगता है और उससे जुड़े भ्रम और अनभिज्ञता को पहचानना
- इस बात को व्यावहारिक दृष्टि से समझना कि जिससे हमें भय लगता है उससे निपटने के लिए क्या करने की आवश्यकता होगी, विशेष तौर पर उसमें अन्तर्निहित भ्रम से स्वयं को मुक्त करने की दृष्टि से
- अपनी क्षमताओं को कम या अधिक आँके बिना, और अपने विकास के वर्तमान स्तर को स्वीकार करते हुए हमें जिससे भय लगता है उससे निपटने के लिए वर्तमान स्थिति में और लम्बी अवधि में अपनी क्षमताओं का आकलन करना
- हम अभी जो कर सकते हैं उसे क्रियान्वित करना – यदि हम उसे क्रियान्वित कर रहे हों तो उसे करते हुए आनन्दित हों; और यदि हम वैसा न कर रहे हों, तो अपनी पूरी वर्तमान क्षमता से वैसा करने का संकल्प लेना और फिर वैसा करने के लिए प्रयास करना
- यदि हम वर्तमान में उस स्थिति को पूरी तरह नियंत्रित न कर सकते हों, तो यह समझना कि हम किस प्रकार अपने आप को उस स्तर तक विकसित कर सकें जहाँ हम उसे पूरी तरह नियंत्रित कर सकें।
- विकास के उस स्तर तक पहुँचने को अपना लक्ष्य बनाना और उसे हासिल करने के लिए परिश्रम करना
- यह अनुभव करना कि हम सुरक्षित दिशा में बढ़ रहे हैं।
ऊपर बताए गए सात चरण उस प्रक्रिया को दिखाते हैं जिसे बौद्ध धर्म में “सुरक्षित दिशा की ओर बढ़ना” (आश्रय लेना) कहते हैं। यह कोई निष्क्रिय अवस्था नहीं है, बल्कि अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा देने की एक सक्रिय अवस्था है – अपने आप को अपने भयों से मुक्त करने के लिए व्यावहारिक दृष्टि से उस दिशा में परिश्रम करने की अवस्था है। परिणामतः हमें सुरक्षित होने की अनुभूति होती है क्योंकि हम जानते हैं कि हम जीवन की एक सकारात्मक और सही दिशा में बढ़ रहे हैं जो अन्ततः हमें अपनी सभी समस्याओं और कठिनाइयों से मुक्त होने में सक्षम बनाएगी।
भय उत्पन्न करने वाली स्थितियों से निपटने के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण
हमें याद रखना चाहिए:
[1] हमारे प्रियजन के साथ या हमारे साथ जो कुछ भी घटित होता है वह अलग-अलग कार्मिक शक्तियों के विशाल जाल के परिपक्वन के साथ-साथ ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के कारण घटित होता है। चाहे हम कितनी ही सावधानी क्यों न बरत लें या अपने प्रियजन को सावधानी बरतने के लिए कितनी ही सलाह क्यों न दे लें, दुर्घटनाएं और दूसरी अनचाही घटनाएं तो घटित होंगी ही और हम अपने प्रियजन को उन दुर्घटनाओं से सुरक्षित नहीं कर सकते हैं। हम केवल उन्हें अच्छी सलाह देने और उनकी कुशलता की कामना करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते हैं।
[2] दुर्घटनाओं और उनके भय पर विजय पाने के लिए हमें शून्यता का निर्वैचारिक बोध हासिल करने की आवश्यकता होती है। लेकिन पूरी तरह से शून्यता में रमे रहने का मतलब यह नहीं है कि हम रेत में अपना सिर गड़ाए रहते हैं। इसका मतलब भय से दूर भागना नहीं है, बल्कि यह तो हमारे कर्म को अनचाही घटनाओं के रूप में परिपक्व बनाने वाली और हमें भयाक्रांत करने वाली अनभिज्ञता और भ्रम को दूर करने का तरीका है।
[3] स्वयं को अपने कर्म से शुद्ध करने के लिए निर्वैचारिक बोध हासिल करने की दृष्टि से अभ्यास करते समय भी हमें तब तक दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ेगा और भय की अनुभूति होगी जब तक कि हम संसार से पूरी तरह से मुक्ति के स्तर (अर्हत होने के स्तर) तक नहीं पहुँच जाते। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि संसार की प्रकृति में उतार-चढ़ाव शामिल होते हैं। इस मार्ग में प्रगति एकदम सीधी रेखा के समान नहीं होती है; कभी सब कुछ ठीक चलता है तो कभी बाधाएं आती हैं।
[4] किसी अर्हत के रूप में मुक्ति हासिल कर लेने के बाद भी हमें दुर्घटनाओं से होकर गुज़रना पड़ेगा और वे चीज़ें भी घटित होंगी जिन्हें हम नहीं चाहते हैं। किन्तु हम पीड़ा और दुख से मुक्त होकर इन अनुभवों से गुज़र पाएंगे, और चूँकि हम सभी प्रकार के अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों से मुक्त हो चुके होंगे, इसलिए भय रहित होकर इन अनुभवों का सामना कर सकेंगे। अर्हत होने के स्तर पर पहुँचने के बाद ही हम पूरी कुशलता के साथ अपने सभी भयों को नियंत्रित कर सकेंगे।
[5] दुर्घटनाओं और अनचाही घटनाओं के अनुभव से पूरी तरह मुक्ति हमें केवल ज्ञानोदय प्राप्त कर लेने के बाद ही मिलती है। केवल कोई बुद्ध ही भयरहित होकर निम्नलिखित की घोषणा कर सकता है:
- अपनी सभी सिद्धियों, अपने सभी सद्गुणों और योग्यताओं के बारे में
- मुक्ति और ज्ञानोदय को रोकने वाली सभी बाधाओं के यथार्थ निरोध के बारे में
- उन अवरोधों के बारे में जिनसे दूसरे लोगों को मुक्त होने की आवश्यकता है ताकि वे मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकें
- उन प्रतिरोधी साधन शक्तियों के बारे में जिनका प्रयोग दूसरे लोगों को बाधाओं से मुक्त होने के लिए करना चाहिए।
भय को नियंत्रित करने के लिए तात्कालिक उपाय
- ऊपर बताए गए सात चरणों के माध्यम से सुरक्षित दिशा के मार्ग पर चलने का निश्चय करें।
- भय उत्पन्न करने वाली किसी स्थिति का सामना करते समय, जैसे कैंसर का पता लगाने के लिए जाँच कराते समय, किसी भीषणतम स्थिति के दृश्य की कल्पना करें और कल्पना करें कि उस स्थिति में क्या होगा और हम उस स्थिति से कैसे निपटेंगे। इससे अज्ञात के भय को दूर भगाने में सहायता मिलती है।
- समय पर विमान पकड़ने के उद्देश्य से हवाई अड्डे जाने जैसा कोई कार्य करते समय एक से अधिक समाधान तैयार रखें ताकि यदि कोई एक समाधान विफल हो जाए तो हमारे सामने भय उत्पन्न करने वाली ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो कि हमारे पास अपने उद्देश्य को हासिल करने का कोई दूसरा विकल्प ही न बचे।
- जैसा कि शांतिदेव ने सिखाया था, यदि हमारे सामने भय उत्पन्न करने वाली कोई स्थिति हो और हम उसे सुधारने के लिए कुछ कर सकते हों, तो फिर चिंता किस बात की, बस उसे कर डालें। यदि हम कुछ कर पाने की स्थिति में न हों, तो फिर चिंता क्यों करें, चिन्ता करने से कुछ लाभ नहीं होगा।
- चूँकि हमें मुक्ति की प्राप्ति होने तक पूरे मार्ग में भय और दुख के अनुभवों से होकर गुज़रना होगा, इसलिए हमें अपने चित्त को किसी गहरे और विशाल महासागर की तरह समझना चाहिए, जब भय या दुख प्रकट हो तो हम उसे समुद्र में आने वाले उफान की तरह गुज़र जाने दें। समुद्र में आने वाला उफान उसकी गहराइयों की शांति और स्थिरता को भंग नहीं करता है।
- यदि हम अपने सकारात्मक कृत्यों की सहायता से पर्याप्त सकारात्मक कार्मिक बल (पुण्य) संचित कर लेंगे, तो हम भविष्य के जन्मों में भी बहुमूल्य मानव शरीर में पुनर्जन्म प्राप्त करने के प्रति आश्वस्त हो सकेंगे। हमारे सकारात्मक कर्म भय से सबसे बड़ी सुरक्षा हैं, हालाँकि हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि संसार की प्रकृति ऐसी है कि उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।
- किसी भय उत्पन्न करने वाली स्थिति का सामना करते समय हम किसी धर्म रक्षक या किसी बुद्ध-स्वरूप जैसे तारा या भैष्यजगुरु बुद्ध की सहायता के लिए आह्वान करते हुए कोई अनुष्ठान करवा सकते हैं या स्वयं ऐसा अनुष्ठान कर सकते हैं। ये स्वरूप कोई सर्वशक्तिमान सत्व नहीं होते जो हमारी रक्षा कर सकें। हम उनका आह्वान करके अपने आप को उनके प्रबोधनकारी प्रभाव के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं ताकि ऐसा करने से हमारे पूर्व में किए गए कुछ ऐसे सकारात्मक कर्म परिपक्व होकर फलीभूत हो जाएं जो अन्यथा परिपक्व नहीं होने वाले थे। उनके प्रबोधनकारी प्रभाव का एक लाभ यह है कि उनके प्रभाव से हमारे पिछले विनाशकारी कृत्यों का परिणाम छोटी-मोटी असुविधाओं के रूप में ही फलीभूत होता है जो अन्यथा गम्भीर बाधाओं के रूप में परिणत हो सकते हैं और हमारी सफलता को अवरुद्ध कर सकते हैं। इस प्रकार हम कठिनाइयों से भयभीत होने के बजाए उनका स्वागत करते हैं कि वे हमारे नकारात्मक कार्मिक गुणों को “भस्म” करके समाप्त करती हैं।
- अपने बुद्ध-स्वरूपों को पुनःप्रभावकारी बनाएं। हमारे पास कठिन और भय उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों को समझने के लिए गहन बोध (दर्पण-समान गहन बोध) का आधारभूत बोध होता है, आदतों को पहचानने (गहन बोध को समरूप करने) का बुनियादी बोध होता है, परिस्थिति की विशिष्टता (विशिष्टता को पहचानने का गहन बोध) को पहचानने, और यह जानने का आधारभूत बोध होता है कि हम किस प्रकार आचरण करें (जिसमें यह बोध भी शामिल होता है कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं) (गहन बोध की सिद्धि)। हमारे पास कर्म करने की आधारभूत ऊर्जा भी होती है।
- इस बोध को पुनःप्रभावकारी बनाएं कि बुद्ध-स्वरूप होने का अर्थ यह है कि समस्त सद्गुण पूरी तरह हमारे भीतर विद्यमान हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान की दृष्टि से ये गुण हमारे सचेतन मन में या अवचेतन मन में हो सकते हैं (हम उनके प्रति सचेत हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं, और ये विभिन्न स्तरों तक विकसित हो सकते हैं)। अक्सर हम अवचेतन गुणों की कल्पना किसी “छाया” के रूप में करते हैं। चूँकि अवचेतन अज्ञात होता है, अनभिज्ञ होने का तनाव अज्ञात से भय के रूप में प्रकट होता है और इसलिए हमें अपने अज्ञात अवचेतन गुणों का भय होता है। इसलिए हो सकता है कि हम अपने सचेत मानसिक पक्ष को तो पहचान लें और अपने अज्ञात, अवचेतन, भावनात्मक पक्ष को अनदेखा कर दें या अस्वीकार कर दें। हम भावनात्मक पक्ष की कल्पना एक छाया के रूप में कर सकते हैं और ऐसे लोगों से भयभीत हो सकते हैं जो बहुत भावुक हों। हम स्वयं अपने भावनात्मक पक्ष से भयभीत हो सकते हैं और अपनी ही भावनाओं से विलग होने के कारण उद्विग्न हो सकते हैं। यदि हम अपने आप को अपने सचेतन भावनात्मक पक्ष के रूप में पहचानते हों और अपने अवचेतन बौद्धिक पक्ष को अस्वीकार करते हों तो फिर हम बौद्धिक पक्ष की कल्पना एक छाया के रूप में करेंगे और ऐसे लोगों से भयभीत हो जाएंगे जो बहुत अधिक बुद्धिमान हों। हमें किसी भी बात को समझने का प्रयास करने में भय लग सकता है और बौद्धिक दृष्टि से मंद होने के कारण उद्विग्नता अनुभव कर सकते हैं। इसलिए हमें पुनः स्वीकार करना चाहिए कि दोनों ही पक्ष हमारे बुद्धधातु के पहलुओं के रूप में हमारे भीतर विद्यमान हैं। हमें कल्पना करनी चाहिए कि ये दोनों ही पक्ष किसी युग्म की भांति आलिंगनबद्ध हैं, जैसी कि तंत्र में कल्पना की जाती है, और यह समझना चाहिए कि हम अपने आप में एक सम्पूर्ण युग्म हैं, जोड़े का कोई एक सदस्य नहीं हैं।
- बुद्धधातु के एक और पक्ष का पुनःनिश्चय करें, यानी, चित्त की यह प्रकृति है कि वह स्वाभाविक तौर पर सभी प्रकार के भयों से मुक्त है और इसलिए भय की अनुभूति होना एक क्षणिक सतही घटना है।
- बुद्धधातु के एक और अन्य पक्ष का पुनःनिश्चय करें, यानी, दूसरों से प्रेरित होकर भय उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों का सामना करने का साहस जुटा सकते हैं।
सारांश
जब हम भय से पूरी तरह पराजित हो जाते हैं, तब यदि हमें उसे नियंत्रित करने के तरीके याद रहें तो हम स्वयं को संयत कर सकेंगे और भयावह प्रतीत होने वाली किसी स्थिति से व्यावहारिक ढंग से निपट सकेंगे।