ईर्ष्या: अशांतकारी मनोभावों को कैसे निपटें

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ईर्ष्या के अनेक रूप होते हैं। यह केवल दूसरों की उपलब्धियों को सहन कर पाने की अक्षमता के रूप में हो सकती है, या इसमें यह इच्छा भी शामिल हो सकती है कि वे उपलब्धियाँ हमें हासिल हों। हमें चाहना हो सकती है कि हमारे पास वह हो जो किसी दूसरे के पास है, और हम यह भी चाह सकते हैं कि उससे वह वस्तु छिन जाए। इसमें प्रतिस्पर्धा का भाव भी हो सकता है, और इसमें अपने आप को “परास्त” के रूप में और दूसरों को “विजेता” के रूप में देखने की द्वैतवादी सोच भी शामिल हो सकती है। इन सभी में स्वयं के प्रति तल्लीनता का भाव अन्तर्निहित है। बौद्ध धर्म में इन सभी घटकों का विश्लेषण करते हुए इन अशांतकारी मनोभावों को विखण्डित करके हमें इन से मुक्त करने की उन्नत विधियाँ सिखाई गई हैं।

अशांतकारी मनोभाव

हम सभी अशांतकारी मनोभावों (संस्कृत भाषा में क्लेश ) से प्रभावित होते हैं – ये ऐसी मनःस्थितियाँ हैं जिनके उत्पन्न होने पर हमारी मानसिक शांति भंग हो जाती है और ये हमें इतना विवश कर देती हैं कि हम आत्मनियंत्रण खो बैठते हैं। लोभ, आसक्ति, शत्रुता, ईर्ष्या और जलन इसके आम उदाहरण हैं। इनके कारण मानसिक प्रेरणाएं (कर्म), सामान्यतया ऐसी मानसिक प्रेरणाएं जाग्रत होती हैं जो विनाशकारी व्यवहार का कारण बनती हैं। ये प्रेरणाएं दूसरों के प्रति विनाशकारी व्यवहार करने के लिए हो सकती हैं या फिर आत्मविनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए हो सकती हैं। नतीजा यह होता है कि ऐसे व्यवहार से हम दूसरों के लिए समस्याएं और दुख उत्पन्न करते हैं और, अपरिहार्य रूप से स्वयं अपने लिए भी समस्याएं और दुख उत्पन्न करते हैं।

कई प्रकार के अशांतकारी मनोभाव होते हैं। हर संस्कृति अपने समाज के अधिकांश लोगों के सामान्य भावात्मक अनुभवों के किसी समूह के इर्द-गिर्द मनमाने ढंग से एक रेखा खींच लेती है, उन्हें एक श्रेणी के रूप में दर्शाने वाले कुछ निर्धारक गुण तय कर देती है और फिर उस श्रेणी को एक नाम दे देती है। स्वाभाविक है कि हर संस्कृति समान भावात्मक अनुभवों के अलग-अलग समूहों का चुनाव करती है, उन्हें दर्शाने वाले अलग निर्धारक गुणों को चुनती है, और इस प्रकार अशांतकारी मनोभावों की अलग-अलग श्रेणियों का निर्माण करती है।

विभिन्न संस्कृतियों द्वारा निर्धारित अशांतकारी मनोभावों की श्रेणियाँ आम तौर पर पूरी तरह से समान नहीं होती हैं, क्योंकि मनोभावों की परिभाषाओं में थोड़ा अन्तर होता है। उदाहरण के लिए संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में एक-एक ऐसा शब्द है जिसका अनुवाद सामान्यतया अंग्रेज़ी में “जैलसी” के रूप में किया जाता है, जबकि पश्चिम की अधिकांश भाषाओं में इसके लिए दो शब्द हैं। अंग्रेज़ी भाषा में “जैलसी” और “ऐन्वी” दो शब्द हैं, जबकि जर्मन में “आइफरज़ुख्त” और “नाइड”  दो शब्द हैं। अंग्रेज़ी भाषा में प्रयोग किए जाने वाले दोनों शब्दों के बीच का भेद एकदम वही नहीं है जो जर्मन भाषा में प्रयुक्त दोनों शब्दों के बीच है, और संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में प्रयोग किए जाने वाले शब्द अग्रेज़ी और जर्मन भाषाओं के एकदम समानार्थी नहीं हैं। यदि हम पश्चिमी जगत के लोग इस सामन्य श्रेणी की भावात्मक समस्याओं को अनुभव करते हैं जिन्हें हमारी अपनी संस्कृतियों और भाषाओं के द्वारा तय की गई श्रेणियों में बांटा गया है, और यदि हम इन्हें नियंत्रित करने के लिए बौद्ध उपायों को सीखना चाहें तो हमें अपने मनोभावों का विश्लेषण करने और उन्हें विखंडित करके देखने की आवश्यकता होगी क्योंकि हम उनकी कल्पना बौद्ध धर्म में यथापरिभाषित विभिन्न प्रकार के अशांतकारी मनोभावों के मिले-जुले रूप में करते हैं।

यहाँ हम “ऐन्वी” के अर्थ का बोध कराने वाली इस बौद्ध अभिव्यक्ति पर ध्यान केंद्रित करेंगे क्योंकि यह शब्द उसकी परम्परागत परिभाषा के अधिक नज़दीक है। हम सम्बंधों की दृष्टि से जलन के भाव के बारे में “मौलिक तत्व” खंड [देखें: सम्बंधों में ईर्ष्या से कैसे निपटें] में अलग से चर्चा कर चुके हैं।

ईर्ष्या क्या है?

बौद्ध ग्रंथों में “ईर्ष्या” को शत्रुता के भाव के अंग के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन ग्रंथों में इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि यह “एक ऐसा अशांतकारी मनोभाव है जो दूसरों की उपलब्धियों पर केंद्रित होता है – और अपने लाभ या स्वयं को प्राप्त प्रतिष्ठा से अत्यधिक आसक्ति के कारण दूसरों की अपलब्धियों को बर्दाश्त न कर पाने की दुर्बलता है।”

यहाँ आसक्ति से आशय यह है कि हम जीवन के किसी ऐसे पहलू पर अधिक केंद्रित होते हैं जिसमें दूसरों को हमसे अधिक उपलब्धि हासिल हुई हो, और हम उसके सकारात्मक पहलुओं को अतिरंजित करके देखते हैं। हम अपने चित्त में इस पहलू को जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक मान लेते हैं और अपने आत्मसम्मान को उसी के आधार पर देखने लगते हैं। इसमें “मैं” को अनावश्यक रूप से अधिक महत्व देने और उसके प्रति आसक्ति का भाव अन्तर्निहित होता है। इसीलिए हमें ईर्ष्या होती है क्योंकि हम जीवन के उस पहलू की दृष्टि से “स्वयं अपने लाभ या हमें प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा” के प्रति आसक्त होते हैं। उदाहरण के लिए, हमें इस बात को लेकर असाधारण रूप से आसक्ति हो सकती है कि हमारे पास बहुत सी धन-सम्पत्ति है या हम बहुत सुंदर और आकर्षक दिखाई देते हैं। शत्रुता के पहलू के रूप में ईर्ष्या इस आसक्ति में दूसरों को जीवन के उस पहलू में हासिल हुई उपलब्धियों के प्रति द्वेष की भावना भी जोड़ देती है। यह स्थिति दूसरों की उपलब्धि को देखकर आनन्दित और प्रसन्न होने के विपरीत होती है।

अक्सर ईर्ष्या में किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति द्वेष का भाव भी शामिल होता है जो हमारे विचार में हमसे श्रेष्ठता की स्थिति में होता है। यह श्रेष्ठता वास्तविक भी हो सकती है या नहीं भी हो सकती है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में हम अपने आप में तल्लीन होते हैं और जो हमारे पास नहीं है उसे लेकर बेचैन रहते हैं।

इसके अलावा, बौद्ध धर्म में बताई गई परिभाषा के अनुसार ईर्ष्या शब्द में अंग्रेज़ी भाषा के “ऐन्वी” शब्द का अर्थ आंशिक रूप से ही शामिल है। अंग्रेज़ी संकल्पना उसके अर्थ का थोड़ा और विस्तार कर देती है। वह उस भाव को भी जोड़ देती है जिसे बौद्ध धर्म में “कॉवेटसनेस” या लोलुपता कहा जाता है। लोलुपता “किसी ऐसी चीज़ को प्राप्त करने की अत्यधिक लालसा होती है जो किसी दूसरे व्यक्ति के पास हो।” इस प्रकार “ईर्ष्या” की परिभाषा के अनुसार यह “किसी दूसरे व्यक्ति को प्राप्त किसी ऐसी श्रेष्ठता का पीड़ादायी या द्वेष-भाव युक्त बोध है जिसे आप स्वयं पाना चाहते हैं।” दूसरे शब्दों में ईर्ष्या जीवन के किसी ऐसे क्षेत्र में दूसरों की उपलब्धि को सहन करने की अक्षमता है जिसे बौदध धर्म के अनुसार हम बहुत अधिक महत्व देते हैं और जिसे हम स्वयं अपने लिए प्राप्त करना चाहते हैं। हम उस क्षेत्र में दूसरों से पिछड़े हो सकते हैं या हो सकता है कि हमारे पास उस क्षेत्र की पर्याप्त या औसत से अधिक योग्यता हो। यदि हम ईर्ष्यालु होते हैं और उस योग्यता या लाभ को और अधिक पाना चाहते हैं तो हमारी ईर्ष्या लालच का रूप धारण कर लेती है। अक्सर ऐसा होता है, किन्तु हमेशा नहीं, कि ईर्ष्या के कारण यह भाव जन्म लेता है कि दूसरों से वह उपलब्धि या लाभ छिन जाए ताकि उसे हम प्राप्त कर सकें। ऐसी स्थिति में ईर्ष्या के इस मनोभाव में द्वेष या बैर का तत्व भी जुड़ जाता है।

ईर्ष्या का भाव लोलुपता के साथ मिलकर होड़ का रूप धारण कर लेता है। यही कारण है कि त्रुंगपा रिंपोशे ने ईर्ष्या का वर्णन एक ऐसे अशांतकारी मनोभाव के रूप में किया है जो हमें बहुत अधिक प्रतिस्पर्धी बन जाने और दूसरों को या स्वयं अपने आप को पछाड़ने के लिए प्रेरित करता है। इसका सम्बंध उग्र कर्म – जिसे “कर्मकुल” कहा जाता है – से होता है। दूसरों की उपलब्धि के प्रति ईर्ष्यालु होने का कारण हम स्वयं को या अपने अधीन दूसरे लोगों को अधिक से अधिक प्रयास करने के लिए बाध्य करते हैं, जैसा कि व्यापार या खेल में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के कारण होता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म में घोड़ा ईर्ष्या को दर्शाता है। वह ईर्ष्या के कारण दूसरे घोड़ों के साथ दौड़ की होड़ करता है। वह यह सहन नहीं कर पाता है कि कोई दूसरा घोड़ा उससे तेज़ दौड़ता हो।

ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा

यह सत्य है कि बौद्ध धर्म में ईर्ष्या का प्रतिस्पर्धा के साथ घनिष्ठ सम्बंध माना जाता है, हालाँकि यह आवश्यक नहीं है कि ईर्ष्या हमेशा ही प्रतिस्पर्धा का कारण बनती हो। हो सकता है कि कोई व्यक्ति दूसरों से ईर्ष्या करता हो, लेकिन आत्म-सम्मान के अभाव के कारण प्रतियोगिता करने का प्रयास ही न करता हो। इसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रतिस्पर्धा के भाव के कारण ईर्ष्या का जन्म हो। कुछ लोग खेलों में केवल खेल और दूसरों के साथ का आनन्द उठाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा करते हैं, और कभी भी हासिल किए गए अंकों का हिसाब रखने की इच्छा नहीं रखते।
बौद्ध धर्म ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा के बीच सम्बंध को अलग ढंग से जोड़ता है। उदाहरण के लिए, बोधिचर्यावतार में भारत के महान आचार्य शांतिदेव एक वर्णन में अपने से ऊँची हैसियत वालों के प्रति ईर्ष्या, बराबर वालों के साथ प्रतिस्पर्धा, और अपने से कम हैसियत वालों के सामने हेकड़ी जताने की बात करते हैं। उनकी यह चर्चा ज्ञान अर्जित करने की दृष्टि से सभी जीवों को बराबर समझने के संदर्भ में है।

यहाँ बौद्ध धर्म इस भावना को रखने की समस्या का समाधान कर रहा है कि “मैं” विशेष हूँ – यह भावना तीनों अशांतकारी मनोभावों में अन्तर्निहित होती है। जब हम ऐसा सोचते और महसूस करते हैं कि अकेला “मैं” ही किसी कार्य विशेष, जैसे जीवन में प्रगति करना, को करने की योग्यता रखता हूँ, और यदि कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा करने में सफल हो जाता है तो ईर्ष्यालु हो जाते हैं और उसके साथ होड़ करने लगते हैं। यहाँ ईर्ष्या “मैं” का एक प्रबल भाव है और केवल अपने आपको अत्यधिक महत्व देने का परिणाम है। हम दूसरों को उतनी प्रधानता नहीं देते जितनी हम अपने आप को देते हैं। हम अपने आप को विशेष समझते हैं।

इस प्रकार की ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा की भावना, और अहंकार की समस्याओं से उत्पन्न होने वाली समस्याओं और दुख के उपचार के लिए बौद्ध धर्म यह सुझाव देता है कि हम “मैं” और “तुम” से सम्बंधित मूल भ्रांति का उपचार करें। यह आवश्यक है कि हम हर किसी को बराबर समझें। हर किसी के भीतर इस दृष्टि से समान आधारभूत क्षमताएं विद्यमान हैं कि हर किसी के भीतर बुद्धधातु विद्यमान है – हर किसी में वह क्षमता विद्यमान है जो ज्ञानोदय की प्राप्ति में सहायक होती है। इसके अलावा, सभी समान रूप से सुखी और सफल होना चाहते हैं, और कोई भी दुखी या विफल होना नहीं चाहता। और हर किसी को समान रूप से सुखी और सफल होने का अधिकार है और दुखी न होने और विफल न होने का भी समान रूप से अधिकार है। इस प्रकार “मैं” किसी भी दृष्टि से विशेष नहीं है। बौद्ध धर्म प्रेम – सभी के समान रूप से सुखी होने की कामना – की भी शिक्षा देता है।

जब हम सभी को बुद्धधातु और प्रेम की दृष्टि से बराबर समझना सीख लेते हैं तो हम उदार होकर यह समझ पाते हैं कि किसी ऐसे व्यक्ति से साथ किस प्रकार जुड़ें जो या तो हमसे अधिक सफल हो चुका हो या उस स्थिति में सफल हो गया हो जहाँ हम स्वयं सफल न हुए हों। हम उसकी सफलता को देखकर आनन्दित होते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि सभी सुखी हों। जो हमारे बराबर होते हैं, उनके साथ प्रतिस्पर्धा करने और उन्हें पछाड़ने का प्रयास करने के बजाए हम उनकी भी सहायता करने का प्रयास करते हैं। जो लोग हमसे कम सफल हैं, हम उन्हें देखकर अपनी सफलता पर संतोष करने और अहंकारपूर्वक अपने आपको उनसे बेहतर समझने के बजाए उनकी सहायता करने का प्रयत्न करते हैं ताकि वे भी बेहतर प्रदर्शन कर सकें।

ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की भावनाओं का सांस्कृतिक प्रबलन

बौद्ध धर्म में सुझाए गए ये उपाय अतिउन्नत हैं और इन्हें व्यवहार में लाना उस समय विशेष तौर पर कठिन हो जाता है जब हमारे भीतर स्वतः उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की भावनाएं कुछ पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्यों के कारण और भी प्रबल और मज़बूत हो जाती हैं। आखिरकार, लगभग सभी बच्चों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे जीतना पसंद करते हैं और हारने पर वे रोने लगते हैं। लेकिन, उससे भी बढ़कर यह कि पश्चिमी जगत की बहुत सी संस्कृतियाँ सिखाती हैं कि पूँजीवाद सहज रूप से सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था है। इसके पीछे सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता का सिद्धांत होता है जो प्रेम और स्नेह के बजाए प्रतिस्पर्धा को जीवन की प्रेरक शक्ति के रूप में स्थापित करता है। इसके अलावा, पश्चिम जगत की संस्कृतियाँ खेल-कूद की प्रतिस्पर्धा, श्रेष्ठ खिलाड़ियों और दुनिया के सबसे धनवान लोगों को महिमांडित करके सफलता और जीत के जुनून को और अधिक बढ़ावा देती हैं।

इसके अलावा, लोकतंत्र की पूरी राजनैतिक व्यवस्था और मतदान के लिए प्रतिस्पर्धा अपरिहार्य है – इसमें अपने आपको उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और फिर अपना प्रचार किया जाता है कि हम पद के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों से किस प्रकार अधिक योग्य हैं। पश्चिम में यह आम बात है कि चुनाव प्रचार में यह घमासान तब और भी तेज़ हो जाता है जब विरोधी उम्मीदवार की हर सम्भव कमज़ोरी, यहाँ तक कि उनके निजी जीवन की बातों को भी उघाड़ा जाता है और उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर व्यापक तौर पर प्रचारित किया जाता है ताकि विरोधी उम्मीदवार को कलंकित किया जा सके। बहुत से लोग जलन और प्रतिस्पर्धा पर आधारित इस प्रकार के व्यवहार को सराहनीय और उचित भी मानते हैं। यहाँ इस बौद्ध अभिव्यक्ति का अनुवाद “ईर्ष्या” की तुलना में “जलन” के रूप में करना अधिक उपयुक्त होगा, हालाँकि दोनों ही स्थितियों के पीछे की भावना एक जैसी ही होती है।

वहीं दूसरी ओर तिब्बती समाज में ऐसे लोगों को पसंद नहीं किया जाता है जो दूसरों को नीचा दिखा कर यह दावा करते हैं कि वे स्वयं दूसरों से बेहतर हैं। वहाँ इस प्रकार के स्वभाव को नकारात्मक समझा जाता है। दरअसल बोधिसत्व का पहला मूल व्रत यह है कि हम कभी भी स्वयं अपनी प्रशंसा न करें और दूसरों को ऐसे लोगों की नज़रों में नीचा न दिखाएं जो हमसे कम हैसियत के हों – यहाँ ऐसे व्यवहार में मतदान करने वाली जनता के सामने किसी दूसरे को नीचा दिखाने वाले वचनों का प्रयोग करना शामिल है। यहाँ निर्दिष्ट प्रेरणा सम्बोधित किए जा रहे व्यक्तियों से लाभ, प्रशंसा, प्रेम, सम्मान आदि पाने की कामना है, और नीचा दिखाए गए व्यक्ति के प्रति जलन का भाव है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमने उस व्यक्ति के बारे में जो बात कही है वह सच है या झूठ है। वहीँ इसके विपरीत, स्वयं के बारे में बात करते समय अत्यंत विनम्रता दिखाना और ऐसा कहना प्रशंसनीय समझा जाता है कि, “मुझमें कोई गुण नहीं है; मैं तो निपट अज्ञानी हूँ।” इस प्रकार यदि इन्हें इनके सामान्य पाश्चात्य स्वरूप में अपनाया जाए तो तिब्बती समाज लोकतंत्र और मतों के लिए प्रचार अभियान से पूरी तरह अछूता है और वहाँ ये कारगर नहीं हैं।

यहाँ तक कि यदि कोई कहे कि वह किसी पद के लिए चुनाव लड़ना चाहता है तो इसे भी संदेहपूर्वक अहंकार के लक्षण और गैर-परोपकारी प्रेरणा के रूप में देखा जाता है। एकमात्र सम्भावना केवल उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों के लिए हो सकती है – स्वयं उम्मीदवारों के लिए नहीं – कि केवल वे ही अपने उम्मीदवार के गुणों और उपलब्धियों का दूसरों से बखान कर सकते हैं, वह भी उम्मीदवार के प्रतिद्वंद्वियों के साथ उसकी तुलना किए बिना या प्रतिद्वंद्वियों की बुराई किए बिना। लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता हो। आम तौर पर कुलीन वंश के लोगों या पुनर्जन्मे लामाओं को को उम्मीदवार के रूप में नामित किया जाता है, और उनसे उनकी इच्छा भी नहीं पूछी जाती है कि वे उस पद के ले चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं या नहीं। यदि वह व्यक्ति ऐसा कहता है कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहता है, तो इसे उसकी विनयशीलता समझा जाता है, क्योंकि तुरन्त “हाँ” कह देने को अहंकार और सत्ता लोलुपता का लक्षण समझा जाता है। नामित किए गए किसी व्यक्ति के लिए इन्कार करना लगभग असम्भव होता है। उसके बाद बिना किसी प्रचार के मतदान किया जाता है। लोग आम तौर पर उस उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करते हैं जो सबसे ज़्यादा विख्यात हो।

इसलिए, हो सकता है कि पूंजीवाद के गुणों के कायल और पाश्चात्य जगत की चुनावी व्यवस्था से अभिभूत पश्चिम जगत के लोगों के लिए पहले उपाय के रूप में दूसरों की जीत पर खुश होने  - और उससे भी बढ़कर स्वयं के लिए हार को स्वीकार करते हुए दूसरों को जीत का अवसर देने के बौद्ध उपाय को सबसे पहले आज़माना सबसे उपयुक्त उपाय न हो। पश्चिम जगत के वासियों के रूप में हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों की मान्यता का पुनर्मूल्यांकन करना होगा और उन सिद्धांतों को स्वीकार करने के कारण उत्पन्न होने वाले जलन, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा के स्वतः उद्भूत होने वाले स्वरूपों को नियंत्रित करने से पहले उनके सिद्धान्त आधारित स्वरूपों के बारे में चर्चा करनी होगी।
पश्चिम जगत की संस्कृति आधारित जलन, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की सापेक्षता की स्थिति को हम किसी भारतीय बाज़ार के उदाहरण से समझ सकते हैं। भारत में कपड़ा बाज़ार, आभूषण बाज़ार, सब्ज़ी बाज़ार आदि जैसे बाज़ार होते हैं। हर बाज़ार में एक के बाद एक स्टॉलों और दुकानों की कतार पर कतार होती है जहाँ सभी दुकानों में लगभग एक जैसी ही चीज़ें बिक रही होती हैं। वहाँ के अधिकांश दुकानदार आपस में दोस्त होते हैं और अक्सर अपनी दुकानों के बाहर बैठकर मिलजुल कर चाय पीते हैं। उनका नज़रिया यह होता है कि उनकी दुकान अच्छी चलेगी या नहीं चलेगी यह उनके अपने-अपने कर्म पर निर्भर करता है।

ईर्ष्या उत्पन्न करने वाले भ्रांतिकारी आभास

जैसाकि हमने देखा, ईर्ष्या हमारी वह अक्षमता है जब हम किसी ऐसे क्षेत्र में किसी दूसरे व्यक्ति की उपलब्धि को सहन नहीं कर पाते हैं जिसके महत्व को हम अतिरंजित करके देखते हैं, उदाहरण के लिए हमें उस व्यक्ति की वित्तीय सफलता से ईर्ष्या हो सकती है। ईर्ष्यावश हम यह कामना करते हैं कि यह सफलता उस व्यक्ति के बजाए हमें मिलनी चाहिए। किसी दूसरे व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम या स्नेह आदि मिलना इसका एक और रूप हो सकता है। उस स्थिति में भी हमारी इच्छा होती है कि वह प्रेम या स्नेह उस व्यक्ति के बजाए हमें मिलना चाहिए।

ईर्ष्या का यह अशांतकारी मनोभाव दो ऐसे भ्रांतिकारी आभासों के कारण उत्पन्न होता है जो मिथ्यादृष्टि और चीज़ों के अस्तित्व की प्रकृति का बोध न होने के कारण हमारे चित्त की कल्पना में उत्पन्न होते हैं। पहला तो एक द्वैतवादी आभास है कि [1] एक आभासीय मूर्तिमान “मैं” हूँ जिसमें कुछ हासिल या प्राप्त करने की पात्रता निहित है, किन्तु उसे वह दिया नहीं गया है, और [2] एक आभासीय मूर्तिमान “तुम” जो उसे प्राप्त करने के लिए पात्र नहीं था। अवचेतन मन में हम सोचते हैं कि दुनिया का हमारे प्रति कुछ दायित्व है और यदि वह चीज़ हमें न देकर किसी और को दे दी गई तो फिर दुनिया हमारे प्रति अन्याय कर रही है। हम दुनिया भर के लोगों को दो मूर्त श्रेणियों में बांट देते हैं: “असफल” और “विजेता,” और यह कल्पना कर लेते हैं कि आभासीय रूप से मूर्त और सत्य इन श्रेणियों में लोगों का अस्तित्व है और उन्हें इन श्रेणियों के दो अलग-अलग बक्सों में खोजा जा सकता है। इसके बाद हम स्वयं को “असफल” व्यक्तियों की मूर्त और स्थायी श्रेणी में रख देते हैं और उस दूसरे व्यक्ति को “विजेता” की मूर्त स्थायी श्रेणी में रख देते हैं। यह भी हो सकता है कि हम अपने आप को छोड़कर बाकी सभी लोगों को विजेताओं वाले बक्से में रख दें। ऐसा करने पर हमें आक्रोश तो अनुभव होता ही है, साथ ही हम अपने आपको अभिशप्त भी समझने लगते हैं। इसके कारण हम हर समय अपने आप को “बेचारा मैं” समझने लगते हैं।

व्यवहार सम्बंधी कारण और प्रभाव के बारे में अनभिज्ञता अक्सर ईर्ष्या के साथ जुड़ी होती है। उदाहरण के लिए, हम इस बात को नहीं समझते हैं और यहाँ तक कि इस बात को मानने से इन्कार भी करते हैं कि जिस व्यक्ति को तरक्की मिली है या स्नेह दिया गया है उसने इन्हें पाने या इनकी पात्रता अर्जित करने के लिए कोई परिश्रम भी किया है। इसके अलावा, हमें यह लगता है कि उसे प्राप्त करने के लिए कुछ किए बिना भी वह हमें ही मिलना चाहिए। या, हमें लगता है कि हमने बहुत परिश्रम किया, किन्तु फिर भी पुरस्कार हमें नहीं मिला। इस प्रकार हमारा चित्त एक दूसरे भ्रांतिकारी आभास की रचना और कल्पना कर लेता है। हमारा भ्रांतचित्त बिल्कुल अकारण, या केवल एक कारण से, कि अकेले हमने क्या किया है, चीजों के होने की कल्पना कर लेता है।

भ्रांतिकारी आभासों का विखंडन

इन दो भ्रांतिकारी आभासों का विखंडन करना हमारे लिए आवश्यक होता है। हो सकता है कि हमारी संस्कृति ने हमें सिखाया हो कि जीवों की दुनिया में बुनियादी प्रेरक सिद्धांत है प्रतिस्पर्धा: जीतने की ललक, सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता। लेकिन हो सकता है कि यह आधार सत्य न हो। फिर भी, यदि हमने इसे स्वीकार कर लिया हो तो फिर हम यह मानते हैं कि दुनिया अपनी प्रकृति के अनुसार आधारभूत ढंग से बंटी हुई है, पूरी तरह से विजेताओं और असफल लोगों की दो श्रेणियों में बंटी हुई है। परिणामतः हम दुनिया को विजेताओं और असफल व्यक्तियों की काल्पनिक श्रेणियों में बांट कर देखते हैं, और स्वाभाविक तौर पर अपने आप को भी इसी काल्पनिक रूपरेखा में देखते हैं।

हालाँकि विजेताओं, असफल व्यक्तियों, और प्रतिस्पर्धा की ये संकल्पनाएं विकास क्रम को बताने के लिए उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन हमें यह समझना होगा कि ये केवल स्वेच्छा से गढ़ी हुई मानसिक रचनाएं हैं। “विजेता” और “असफल” व्यक्ति तो केवल मनोगत नाम-पट्टिकाएं हैं। ये सुविधाजनक मानसिक श्रेणियाँ हैं जिनका उपयोग किसी दौड़ में प्रथम आने, किसी दूसरे व्यक्ति के स्थान पर कार्यस्थल में तरक्की प्राप्त करने, या किसी ग्राहक या छात्र को किसी दूसरे के हाथों खो देने जैसी कुछ घटनाओं का उल्लेख करने के लिए किया जाता है। इसी प्रकार, हम लोगों को “अच्छे” की अपनी परिभाषा के आधार पर “अच्छे लोगों” और “वे लोग जो अच्छे नहीं हैं” की श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं।

जब हमें यह बोध हो जाता है कि ऐसी सभी द्वैतवादी श्रेणियाँ केवल मन की कल्पनाएं हैं, तो हम यह समझने लगते हैं कि “मैं” या “तुम” में आधारभूत तौर पर ऐसी कोई बात नहीं है जो हमें पक्की श्रेणियों में अवरुद्ध करके रख सके। ऐसा नहीं है कि हम मूलतः असफल हों, और अपने आप को असफल मान कर हमने अपने लिए अन्ततः सत्य की खोज कर ली है – कि वास्तविक “मैं” एक असफल व्यक्ति है। बेचारा “मैं”। जबकि, किसी दूसरे व्यक्ति के हाथों अपने ग्राहक को खो देने के अलावा हमारे भीतर और भी बहुत से गुण हैं, तो फिर हम केवल उसी बात पर क्यों विचार करते रहें जैसे कि केवल वही वास्तविक “मैं” है।

इसके अलावा, हमारे चित्त की सीमित क्षमताओं के कारण ही और “बेचारा मैं” और “घटिया तुम” के बारे में चिन्तित बने रहने के कारण ही ऐसा लगने लगता है कि सफलता और विफलता, फायदा और नुकसान, जैसी चीज़ें अकारण या असम्बद्ध कारणों से घटित होती हैं। इसीलिए हमें लगता है कि हमारे साथ जो हुआ है वह अन्यायपूर्ण था। लेकिन, ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी घटित होता है वह कारण और प्रभाव के एक व्यापक तंत्र के परिणामस्वरूप होता है। इस प्रकार हमारे अपने या दूसरों के साथ घटित होने वाली बातों को बहुत सारी चीज़ें प्रभावित करती हैं, उसके लिए उत्तरदायी सभी कारकों को इसमें शामिल कर पाना हमारी कल्पना शक्ति के परे है।

जब हम इन दो भ्रांतिकारी आभासों (विजेता और असफल व्यक्ति, और बिना कारण होने वाली घटनाएं) को विखंडित करते हैं और उनके बारे में कल्पना करना बंद कर देते हैं तो हमारे मन में अपने साथ अन्याय होने की भावना शांत होती है। हमारी जलन की भावना के पीछे जो सफलता प्राप्त हुई है, जो घटित हुआ है, उसका बोध मात्र ही होता है। हमने किसी दूसरे व्यक्ति के हाथों अपना ग्राहक गवाँ दिया और अब वह ग्राहक उस व्यक्ति के पास है। इससे हमारे मन में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की चेतना जाग्रत होती है। यदि उस सफलता या वस्तु को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के प्रति हमारे मन में पूर्वाग्रह न हो तो शायद हम यह सीख पाएंगे कि उस व्यक्ति ने वह सफलता किस प्रकार हासिल की। इससे हम यह सीख पाते हैं कि हम स्वयं उस सफलता को किस प्रकार हासिल कर सकते हैं। हमें ईर्ष्या या जलन केवल तभी होती है जब हम इस बोध को द्वैतवादी आभासों और मूर्त पहचानों के आवरण से ढक देते हैं।

सारांश

इस प्रकार बौद्ध धर्म में ईर्ष्या, जिसे हम चाहे बौद्ध दृष्टिकोण से परिभाषित करें या फिर पाश्चात्य दृष्टिकोण से,  के अशांतकारी मनोभाव को नियंत्रित करने के लिए अनेक प्रकार की विधियाँ सुझाई गई हैं। जब कोई अशांतकारी मनोभाव हमें परेशान करता है तो चुनौती यह होती है कि उस मनोभाव की निर्धारक विशेषताओं और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाए। जब हम ध्यान की साधना के माध्यम से स्वयं को विभिन्न प्रकार की विधियों में अभ्यस्त कर लेते हैं, तो फिर हम अपनी भावनात्मक कठिनाइयों को हल करने में हमारी सहायता करने के लिए इनमें से किसी उपयुक्त विधि को चुन सकते हैं।

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