क्रोध: अशांतकारी मनोभावों को कैसे निपटें

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जीवन की समस्याएं

हममें से लगभग हर कोई यह महसूस करता है कि हमारे जीवन में कुछ न कुछ समस्याएं हैं। हम सुख चाहते हैं। हम किसी तरह की समस्याएं नहीं चाहते हैं, लेकिन फिर भी हमें बार-बार कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी हम खिन्न और उदास हो जाते हैं; जब हम कठिनाइयों का सामना करते हैं तो हम अपने कामकाज के प्रति कुंठित हो जाते हैं, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, अपने जीवन या अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के प्रति हताशा महसूस करते हैं। हमें इच्छित वस्तुएं न मिलने का दुख रहता है। हम सफल होना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे परिवार के लिए और हमारे व्यापार में सब कुछ अच्छा ही हो, किन्तु हमेशा ऐसा नहीं होता है। और फिर जब हमें इन समस्याओं का सामना करना पड़ता है तो हम दुखी हो जाते हैं। कई बार हमारे साथ कुछ ऐसी चीज़ें घटित हो जाती है जिन्हें हम नहीं चाहते कि वे घटित हों, जैसे बीमार होना या बूढ़े हो जाने शरीर का बहुत दुर्बल हो जाना, या ऊँचा सुनाई देना या कम दिखाई देना। बेशक, कोई भी नहीं चाहता कि यह सब उसके साथ घटित हो।

हमारे सामने व्यवसाय सम्बंधी समस्याएं होती हैं। कई बार नुकसान हो जाता है और हमारा व्यापार घट जाता है या ठप्प हो जाता है। स्पष्ट है कि हम नहीं चाहते कि ऐसा हो, लेकिन फिर भी ऐसा हो जाता है। कभी-कभी हमें कोई क्षति हो जाती है, हमें चोट लग जाती है; कोई दुर्घटना हो जाती है; हम बीमार पड़ जाते हैं। ये सब बातें हमारे सामने आने वाली समस्याओं के रूप में घटित होती रहती हैं।

इन सब के अलावा, हमारे सामने कई तरह की भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी होती हैं। ये कुछ ऐसी बातें हो सकती हैं जिनके बारे में हम दूसरों को बताना या उनके साथ चर्चा न करना चाहते हों। लेकिन अपने भीतर हम जानते हैं कि कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो हमें परेशान कर रही होती हैं जैसे अपने बच्चों के बारे में हमारी अपेक्षाएं, हमारी चिंताएं या हमारे भय – इनके कारण हम बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करते हैं। इन्हें हम “अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाली स्थितियाँ या समस्याएं” कहते हैं जिनके लिए संस्कृत भाषा में संसार शब्द का प्रयोग किया जाता है।

अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याएं ही संसार हैं

मेरी पृष्ठभूमि एक अनुवादक की रही है और इसका मैंने प्रशिक्षण लिया है, और बतौर अनुवादक मैंने दुनिया भर के कई देशों की यात्राएं की हैं और बौद्ध धर्म पर व्याख्यान भी दिए हैं। मैंने पाया कि बौद्ध धर्म को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ व्याप्त हैं। ऐसा लगता है कि बौद्ध धर्म के बारे में ये भ्रांतियाँ मुख्यतः अंग्रेज़ी भाषा के उन शब्दों के कारण हैं जिनका चुनाव मूल अभिव्यक्तियों और विचारों का अनुवाद करने के लिए किया गया। इनमें से बहुत से शब्द पिछली शताब्दी में विक्टोरियाकालीन मिशनरियों द्वारा प्रचलित किए गए और इन शब्दों के लक्ष्यार्थ बड़े तीखे हैं और ये एशियाई भाषाओं में प्रयुक्त मूल शब्दों के लक्ष्यार्थों या अर्थों से भिन्न हैं। उदाहरण के लिए हम अक्सर समस्याओं की बात करते हैं। सामान्यतया इसका अनुवाद “दुख” के रूप में किया जाता है। जब हम दुख की बात करते हैं तो बहुत से लोगों के मन में यह विचार आता है कि बौद्ध धर्म एक बड़ा ही निराशावादी धर्म है, क्योंकि इसमें कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन दुख से भरा है। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें सुखी होने का कोई अधिकार ही न हो। आराम और सम्पन्नता का जीवन जी रहे किसी व्यक्ति से बात करते हुए यदि हम कहें, “तुम्हारा जीवन दुखों से भरा है,” तो वह बचाव की मुद्रा में आ जाएगा। वह तर्क देते हुए कह सकता है, “आप कहना क्या चाहते हैं? मेरे पास वीडियो रिकॉर्डर है, बढ़िया कार है और एक अच्छा परिवार है। मुझे कोई दुख नहीं है।”

“दुख” शब्द के प्रयोग के दृष्टिगत उसका यह उत्तर सही है क्योंकि यह एक बड़ा भारी-भरकम शब्द है। लेकिन यदि हम उसी बौद्ध अवधारणा का अनुवाद “समस्याओं” के रूप में करें और फिर किसी से कहें: “आप भले ही कुछ भी बन गए हों, कितने भी धनी हों, आपके कितने भी बच्चे हों, फिर भी हर व्यक्ति के जीवन में समस्याएं तो होती ही हैं,” तो हर कोई इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाएगा। इसलिए मैं तिब्बती परम्परा की इन बौद्ध व्याख्याओं के बारे में चर्चा करते समय सामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले शब्दों के बजाए थोड़े अलग शब्दों का प्रयोग करूँगा।

अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याओं को संसार कहते हैं। मोटे तौर पर “संसार” से आशय उन स्थितियों से होता है जिन पर हमारा कोई वश नहीं होता और जो बार-बार उत्पन्न होती रहती हैं – जैसे, हमेशा निराशा अनुभव करना या चिंताओं और व्यग्रता से घिरे रहना। इन स्थितियों के उत्पन्न होने के यथार्थ कारण क्या हैं? बुद्ध ने बताया था कि किस प्रकार न केवल यथार्थ समस्याएं होती हैं जिनका हम सामना करते हैं, बल्कि उनके यथार्थ कारण भी होते हैं और इन्हें रोक पाना भी सम्भव है। समस्याओं को रोकने की विधि, उनका यथार्थ निवारण हासिल करने के लिए यथार्थ मार्ग का अनुसरण करने की आवश्यकता होती है, यानी यथार्थ चित्तमार्ग, कारणों को समाप्त करने वाले बोध को विकसित करने की आवश्यकता होती है। एक बार हम कारणों से मुक्त हो जाएं, तो फिर हम समस्या से भी मुक्त हो जाते हैं।

समस्याओं का मूल: किसी मूर्त पहचान से चिपकने की प्रवृत्ति

हमारे जीवन में अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाली इन समस्याओं का वास्तविक कारण यह है कि हमें यथार्थ का बोध नहीं होता। हम इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं, दूसरे लोगों की वास्तविकता क्या है, जीवन का क्या अर्थ है, दुनिया में वास्तव में क्या चल रहा है। मैं “अज्ञान” के बजाए “अनभिज्ञता” शब्द का प्रयोग करना पसंद करता हूँ। “अज्ञान” शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है मानो कोई यह कह रहा हो कि आप मूर्ख हैं और कुछ नहीं समझते। जब असल में हम सिर्फ अनभिज्ञ होते हैं, और चूँकि हम अनभिज्ञ होते हैं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर हम इस बात को असुरक्षा के भाव के रूप में अनुभव करते हैं। असुरक्षा के इस भाव के कारण हम किसी प्रकार की मूर्त पहचान, किसी प्रकार के “मैं” से चिपके रहने के लिए प्रवृत्त होते हैं: “मैं” नहीं जानता कि मैं कौन हूँ या मेरे अस्तित्व का क्या आधार है और इसलिए मैं किसी ऐसी चीज़ को पकड़ कर बैठता हूँ जो या तो यथार्थ होती है या फिर मेरे अपने बारे में कोई कल्पना होती है और मैं कहता हूँ कि यह मैं हूँ, यही मेरी वास्तविक पहचान है।

उदाहरण के लिए, हम पिता के रूप में अपनी पहचान से चिपके हुए हो सकते हैं: “यह मैं हूँ, मैं पिता हूँ, अपने परिवार में मुझे सम्मान मिलना चाहिए। मेरी संतानों को मेरे प्रति आदर और आज्ञाकारिता का भाव रखना चाहिए।” यदि जीवन में सभी चीज़ों को हम एक पिता होने की दृष्टि से देखेंगे तो ज़ाहिर है इससे हमारे लिए कुछ कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि हमारे बच्चे उस तरह सम्मान नहीं करेंगे तो फिर समस्या होगी। दफ्तर में वहाँ के लोग हमें “पिता” के रूप में या इस प्रकार का सम्मान प्राप्त करने योग्य व्यक्ति की दृष्टि से नहीं देखते हैं। इससे भी बड़ी अशांति उत्पन्न हो सकती है। उस स्थिति में क्या होगा जब मैं अपने परिवार का शासक होऊँ लेकिन जब मैं दफ्तर जाऊँ और वहाँ के दूसरे लोग मुझे हेय और अपने से कमतर समझें और उल्टे मुझे ही उनके प्रति सम्मान प्रकट करना पड़े? यदि हम ऐसा पिता होने की पहचान से बहुत ज़्यादा कसकर चिपकेंगे जिसके प्रति परिवार को सम्मान प्रकट करना पड़ता हो, तो फिर दफ्तर में हमें उस समय बहुद दुख होगा जब वहाँ के दूसरे लोग हमारे साथ परिवार जैसा व्यवहार नहीं करेंगे।

हमारी पहचान एक सफल व्यवसायी की हो सकती है: “मैं एक सफल व्यापारी हूँ। मैं ऐसा ही हूँ; मुझे ऐसा ही होना चाहिए।” लेकिन, यदि हमारा व्यापार बंद हो जाए, या व्यापार बहुत मंदा हो जाए तो हम पूरी तरह बिखर जाते हैं। यदि उनका व्यापार बंद हो जाए तो कुछ लोग तो आत्महत्या तक कर सकते हैं या कुछ भी बुरा कर सकते हैं क्योंकि वे अपनी उस मज़बूत पहचान, जिससे वे चिपके चले आ रहे थे, के बिना आगे का जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

या हो सकता है कि हमने अपनी पहचान को किसी मर्दाने पुरुष की छवि से जोड़ रखा हो: “मैं एक मर्दाना, रूपवान और आकर्षक व्यक्ति हूँ।” लेकिन जैसे ही हम बूढ़े होने लगते हैं और हमारी मर्दानगी ढलने लगती है तो हम पागल हो सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने इसी को अपनी पहचान समझ रखा हो तो वह पूरी तरह से टूट सकता है। ऐसे लोग यह समझने के लिए तैयार नहीं होते हैं कि जीवन में सब कुछ परिवर्तनशील है और यह पहचान शाश्वत नहीं है।

यह भी हो सकता है कि हम अपने आपको एक परम्परावादी व्यक्ति मानते हों और इसलिए चाहते हों कि सब कुछ पारम्परिक ढंग से ही होना चाहिए। जब समाज में बदलाव आते हैं और युवाजन उन परम्पराओं का पालन नहीं करते जिन पर हमारी पहचान टिकी होती है, तो हम बहुत नाराज़, परेशान और बहुत आहत हो सकते हैं। दरअसल हम यह कल्पना ही नहीं कर पाते हैं कि हम ऐसी दुनिया में कैसे जिएंगे जहाँ हमारे पारम्परिक उन चीनी तौर-तरीकों का पालन न किया जा रहा हो जिनमें हम पले-बढ़े थे।

वहीं दूसरी ओर, एक युवा के रूप में हम एक आधुनिक व्यक्ति होने की छवि को अपनी पहचान बना सकते हैं: “मैं एक आधुनिक व्यक्ति हूँ; मुझे इन पारम्परिक मूल्यों की कोई आवश्यकता नहीं है।” यदि हम अपनी इस छवि को बहुत अधिक कसकर पकड़ते हैं और फिर जब हमारे माता-पिता इस बात पर ज़ोर देने लगते हैं कि हम पारम्परिक मूल्यों का पालन करें और उनके साथ पारम्परिक ढंग से व्यवहार करें, तब भी एक आधुनिक युवा के रूप में हम इसका बहुत विरोध कर सकते हैं, हमें बहुत गुस्सा आ सकता है। हो सकता है कि हम उसे प्रकट न करें, लेकिन अपने भीतर हमें क्रोध आता है क्योंकि हमारी पहचान तो एक आधुनिक व्यक्ति के रूप में होती है, हम चीनी नववर्ष के मौके पर अपने माता-पिता के पास मिलने के लिए जाना आवश्यकता नहीं मानते; हम विभिन्न प्रकार की पारम्परिक चीज़ों को करने की आवश्यकता नहीं समझते, और यहाँ भी हमारे सामने बहुत सी समस्याएं उत्पन्न होंगी।

हम अपनी पहचान को अपने व्यवसाय से भी जोड़कर देख सकते हैं। फिर जब हमारा व्यवसाय बंद हो जाए तो हम सोचते हैं कि हमें केवल वही व्यवसाय करना है, हम लचीला रुख अपनाने से इंकार कर देते हैं। जब हम उस व्यवसाय को नहीं कर पाते जिसे हम पहले किया करते थे तो हमें लगता है कि हमारी तो दुनिया ही खत्म हो गई। हम यह नहीं समझ पाते कि किसी दूसरे व्यवसाय में जाना भी सम्भव है और यह आवश्यक नहीं है कि हमें केवल एक प्रकार का व्यवसाय ही करना चाहिए।

हम अपने आप को सुरक्षित महसूस करवाने के लिए इन विभिन्न प्रकार की पहचानों को कस कर जकड़े रहते हैं। हमारे मन में कुछ पूर्वधारणाएं होती हैं कि हम कौन हैं, हम किस प्रकार के नियमों का पालन करते हैं, हम अपने जीवन में किस प्रकार की चीज़ें चाहते हैं। हम यह सोचने लगते हैं कि यह सब स्थायी है, यह मूर्त है, वास्तव में यही मैं हूँ। होता यह है कि अपने बारे में हमारी इस धारणा, इस आत्म-छवि के कारण अनेक प्रकार के अशांतकारी मनोभाव इस पहचान को पुष्ट करने के लिए उत्पन्न होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम यह महसूस करते हैं कि हमारी यह पहचान अभी भी असुरक्षित है, इसलिए हमें महसूस होता है कि हमें इस पहचान को साबित करना चाहिए और बराबर उसका दावा करते रहना चाहिए।

उदाहरण के लिए, यदि हम सोचते हैं कि, “मैं ही परिवार का पिता हूँ,” तब हमारे लिए अपने आपको परिवार का पिता महसूस करना ही काफी नहीं होता; उसके प्रभुत्व को जताना भी हमारे लिए आवश्यक हो जाता है। हमें परिवार के ऊपर अपनी सत्ता को दर्शाना होता है और यह सुनिश्चित करना होता है कि परिवार का प्रत्येक सदस्य हमारे सामने झुके, क्योंकि हमें सबको यह दिखाना होता है कि परिवार पर हमारी सत्ता अभी भी बरकरार है। हमारे लिए इस बात को जान लेना भर काफी नहीं होता है। यदि हमें लगता है कि हमारी इस पहचान के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है तो हम बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं, या फिर अपनी बात को साबित करने के लिए बहुत आक्रामक हो सकते हैं। “मैं साबित कर दूँगा कि मैं कौन हूँ। मुझे साबित करना है कि मेरी मर्दानगी और आकर्षण अभी भी बरकरार है,” और इसलिए हम दूसरी पत्नी रख लेते हैं, या किसी युवती से प्रेम सम्बंध स्थापित कर लेते हैं ताकि हम साबित कर सकें कि यह हमारी पहचान है, यही हमारे अस्तित्व का अंदाज़ है।

अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण

आकर्षण और लालसा

अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण ऐसी चित्तवृत्तियाँ हैं जिनकी सहायता से हम किसी मूर्त पहचान को सिद्ध करने या बरकरार रखने के लिए प्रयास करते हैं। ये अशांतकारी मनोभाव कई प्रकार के हो सकते हैं, जैसे आकर्षण और लालसा। लालसा तब उत्पन्न होती है जब हम यह आवश्यकता महसूस करते हैं कि कोई चीज़ हमें प्राप्त हो जाए, हमारे आस-पास रहे ताकि हम अपनी उस पहचान को सुरक्षित कर सकें। उदाहरण के लिए यदि मेरी पहचान पिता या परिवार के प्रधान की है तो मैं इस प्रकार विचार कर सकता हूँ: “मुझे सम्मान मिलना चाहिए; मेरी इच्छा से बच्चे नववर्ष के अवसर पर घर आएं और मेरी हर आज्ञा का पालन करें।” कहीं मुझे ऐसा महसूस होता है कि यदि मुझे पर्याप्त सम्मान मिले तो मैं अपने आप को बड़ा सुरक्षित महसूस करूँगा। और ज़ाहिर है कि जब मुझे वह सम्मान नहीं मिलता है तो मैं बहुत आहत महसूस करता हूँ और बहुत क्रोधित हो सकता हूँ।

मुझे यह भी लग सकता है कि मेरी पहचान यह है कि मैं एक भाग्यशाली व्यक्ति हूँ: “मेरा भाग्य हमेशा अच्छा रहना चाहिए और मेरा माहजोंग के खेल में हमेशा जीतना ज़रूरी है।” यदि मैं इसे अपनी पहचान मानता हूँ तो मुझे लगता है कि यदि मैं हमेशा माहजोंग के खेल मे जीतूँगा और हमेशा विभिन्न प्रकार के दाँव लगाने वाले खेलों में जीतूँगा तो इससे मैं अपने आप को सुरक्षित महसूस करूँगा। या मुझे हमेशा ज्योतिषियों के पास जाना पड़ेगा या चीनी बौद्ध मंदिरों में भाग्य बताने वाले पाँसे फेंकने पड़ेंगे ताकि मुझे अनुकूल उत्तर मिल सकें, जिससे मैं आश्वस्त हो सकूँगा कि मैं सफल हूँ, कि मैं ठीक हूँ। मैं अपनी व्यावसायिक योग्यताओं की दृष्टि से इतना असुरक्षित महसूस करता हूँ कि मुझे यकीन ही नहीं होता कि मैं सफल हो सकता हूँ। मुझे हमेशा ज़्यादा से ज़्यादा पूर्व संकेतों, दैवी संकेतों की आवश्यकता होती है या जिससे भी मिल सकें ऐसे संकेतों की आवश्यकता होती है ताकि मैं सुरक्षित महसूस कर सकूँ, और इसलिए मैं बाध्यतावश हमेशा इन तरीकों को आज़माता हूँ।

मैं यह भी महसूस कर सकता हूँ कि “मैं अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान का सत्ताधीश हूँ। मुझे सत्ता के प्रति आकर्षण है, और सत्ता मिलने पर ही मैं अपने आप को सुरक्षित महसूस करूँगा।” यह दृष्टिकोण विभिन्न प्रकार की मनोवैज्ञानिक दशाओं से उद्भूत होता है। यह इस भावना पर आधारित हो सकता है कि मैं एक शक्तिशाली व्यक्ति हूँ, या इस भावना पर आधारित हो सकता है कि वास्तव में मैं शक्तिशाली नहीं हूँ लेकिन अपने आप को सहारा देने के लिए मुझे उस ताकत की आवश्यकता है। उस स्थिति में हम सोचते हैं कि “यदि मैं अपने दफ्तर में सभी लोगों को अपना आज्ञा मानने के लिए बाध्य कर दूँ, कि वे मेरी इच्छा के अनुसार काम करें, तो फिर मैं अपने आप को सुरक्षित महसूस करूँगा।” या, यदि मेरे घर में नौकर काम करते हों तो यह सिद्ध करने के लिए कि घर में मेरी सत्ता चलती है, मैं इस विचार के प्रति आकर्षित होता हूँ कि वे मेरी इच्छा के अनुसार काम करें, और सिद्ध करने के लिए कि घर की सत्ता पर किसका नियंत्रण है, मैं उन्हें ऐसे कार्य करने के लिए भी कह सकता हूँ जिन्हें किए जाने की आवश्यकता नहीं है।

व्यक्ति ध्यान आकर्षित करने की भावना के प्रति भी मुग्ध हो सकता है। एक युवा के रूप में हम यह महसूस कर सकते हैं कि: “मेरी पहचान एक आधुनिक, युवा फैशनपरस्त कपड़ों के शौकीन व्यक्ति की है, और यदि मैं हमेशा ताज़ा फैशन के साथ कदम मिलाकर चल सकूँ, नए-नए वीडियो, ताज़ा सी.डी. और फैशन पत्रिकाओं में छपने वाली ताज़ा जानकारी के साथ कदम मिलाकर चल सकूँ तो इससे मेरी पहचान अक्षुण्ण बनी रहेगी।”

ऐसे बहुत से ढंग हो सकते हैं, बहुत सी चीजें हो सकती हैं जिनके ऊपर ध्यान केंद्रित करते हुए हमें यह महसूस हो सकता है कि यदि हम उन चीज़ों को अपने आस-पास जुटा पाएं और उनकी पर्याप्त मात्रा जमा कर लें, पर्याप्त धन, पर्याप्त सम्पत्ति, पर्याप्त सत्ता, पर्याप्त आदर-सत्कार या पर्याप्त प्रेम तो हम उस सब की सहायता से हम सुरक्षित हो सकते हैं। ज़ाहिर है कि इससे काम नहीं चलता है। वास्तव में यदि इससे काम चलता तो एक हद तक पहुँच कर हमें यह लगता कि अब हमारे पास पर्याप्त है और अब हम पूरी तरह संतुष्ट हैं। लेकिन हमें कभी ऐसा महसूस नहीं होता है कि अब हमारे पास पर्याप्त है और हम हमेशा और अधिक पाने की इच्छा पाले रहते हैं, और जब हमें उतना नहीं मिलता तो फिर हम क्रोधित होते हैं। क्रोध अनेक तरीकों से उत्पन्न होता है।

विकर्षण और विद्वेष

विकर्षण, विद्वेष और क्रोध एक और ऐसा तरीका है जिसकी सहायता से हम अपनी सुदृढ़ दिखाई देने वाली पहचान को सुरक्षित बनाने का प्रयास करते हैं: “यदि मैं कुछ ऐसी चीज़ों से अपना पीछा छुड़ा लूँ जो मुझे नापसंद हैं, जिनसे मेरी पहचान को खतरा होता है, तो ऐसा करके मैं सुरक्षित हो जाऊँगा।” इसलिए यदि मैं अपने राजनैतिक विचारों या अपनी जाति या अपनी संस्कृति को अपनी पहचान का आधार बनाता हूँ: “यदि मैं ऐसे सभी लोगों को दूर कर दूँ जो मुझसे अलग विचार रखते हों, अलग वर्ण के हों, किसी अलग धर्म के हों, तो फिर ऐसा करके मैं सुरक्षित हो जाऊँगा।” या, यदि हमारे नौकर हमारी इच्छा से थोड़े अलग ढंग से काम करते हों, या मेरे दफ्तर में काम करने वाले लोग जैसा मैं चाहता हूँ उससे थोड़ा अलग ढंग से काम कर रहे हों तो हमें लगता है, “यदि मैं इन लोगों को सुधार सकूँ, यदि मैं इनमें बदलाव कर सकूँ तो फिर मैं सुरक्षित हो जाऊँगा।” मैं चाहता हूँ कि मेरी मेज़ पर कागज़ों को एक विशेष तरीके से व्यवस्थित किया जाए, लेकिन मेरे दफ्तर में काम करने वाला व्यक्ति कागज़ों को कुछ अलग ढंग से व्यवस्थित करता है। कहीं न कहीं हमें लगता है कि इससे हमारे लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है: “यदि मैं इस व्यक्ति से कागजों को अपने ढंग से व्यवस्थित करवा सकूँ तो फिर मुझे सुरक्षित महसूस होगा।” इससे क्या फर्क पड़ता है? इस प्रकार हम अपने लिए खतरा दिखाई देने वाली हर चीज़ को अपने से दूर करने की कोशिश में दूसरे लोगों के प्रति विद्वेष को प्रकट करने लगते हैं।

या, जब हम अपनी पहचान की कल्पना किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में कर लेते हैं जो हमेशा अपने आप को सही समझता है, तो जब कोई व्यक्ति हमसे असहमत होता है या हमारी आलोचना करता है तो हम बड़े रक्षात्मक, शत्रुतापूर्ण और क्रोधित हो जाते हैं। हम उस व्यक्ति की आलोचना को इस दृष्टि से आभारपूर्वक स्वीकार नहीं करते कि इससे हमें अपना विकास और सुधार करने का मौका मिलेगा – या, यदि उसकी आलोचना अनुचित ही हो तब भी हमें यह अवसर मिलेगा कि हम अपने आप को जाँच कर यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि हम कोई ढिलाई नहीं बरत रहे हैं और न ही हम गलती पर हैं – बल्कि हम उस व्यक्ति पर कड़े शब्दों की बौछार कर देते हैं, या उस व्यक्ति को अनदेखा करके और उससे बोलचाल बंद करके परोक्ष तौर पर उसके साथ शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं। हम ऐसा व्यवहार इसलिए करते हैं क्योंकि हम अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। हमें लगता है कि यह व्यक्ति “मुझे” खारिज कर रहा है जबकि मैं हमेशा सही होता हूँ, और इसलिए इस “मुझे” की रक्षा करने के लिए हम उस व्यक्ति को खारिज कर देते हैं।

अवरुद्ध-चित्त भोलापन

अवरुद्ध-चित्त भोलेपन से काम लेना एक और ऐसा तरीका है जहाँ हम अपने आसपास दीवारें खड़ी कर लेते हैं: “यदि कोई चीज़ मेरे लिए खतरा बन रही है, मेरी पहचान को जोखिम में डाल रही है, तो हम ऐसा दिखावा करते हैं जैसे उस चीज़ का अस्तित्व ही न हो।” हमें परिवार में, दफ्तर के कामकाज में समस्याएं होती हैं और फिर जब हम घर लौटते हैं तो भावशून्य चेहरा बना लेते हैं जैसे कोई बात हमें परेशान ही न कर रही हो। हम उसके बारे में चर्चा नहीं करना चाहते; बस टेलीविजन चला लेते हैं और दिखावा करते हैं जैसे उस समस्या का अस्तित्व ही न हो। यह अवरुद्ध-चित्त वाला दृष्टिकोण है। हमारे बच्चे हमसे अपनी किसी समस्या के बारे में बात करना चाहते हैं और हम उन्हें धकिया कर दूर कर देते हैं। “मेरी पहचान यह है कि हमारे परिवार में कोई समस्या नहीं है; हमारा परिवार एक आदर्श परिवार है; यहाँ सभी पारम्परिक मूल्यों का पालन किया जाता है। फिर आप यह कहकर परिवार के संतुलन को कैसे बिगाड़ सकते हैं, उसकी समरसता को खत्म कर सकते हैं, कि उसमें कोई समस्या है?” हमें लगता है कि समस्या से निपटने का एकमात्र तरीका यह है कि समस्या के न होने का दिखावा किया जाए। इस प्रकार का दृष्टिकोण अवरुद्ध-चित्त भोलेपन का दृष्टिकोण होता है।

हमारे चित्त में उत्पन्न होने वाले आवेग कर्म की अभिव्यक्ति होते हैं

जब हमारे भीतर विभिन्न प्रकार के अशांतकारी मनोवेग उत्पन्न होते हैं तो हमारे चित्त में विभिन्न आवेगों का संचार होता है। कर्म का आशय इन्हीं आवेगों से है। “कर्म” का अर्थ भाग्य या प्रारब्ध नहीं है। दुर्भाग्य से बहुत से लोग यही समझते हैं। यदि किसी व्यक्ति का व्यापार ठप्प हो जाए या किसी व्यक्ति को कोई कार टक्कर मार दे तो हम कहते हैं, “अरे, बड़ा दुर्भाग्य है, यही उसका कर्म है।” यह करने का मतलब लगभग यह कहना है “यही ईश्वर की इच्छा है।”

कर्म की चर्चा करते समय यहाँ हम ईश्वर की इच्छा या प्रारब्ध की बात नहीं कर रहे हैं। हम आवेगों की बात कर रहे हैं, हमारे चित्त में उपजने वाले विभिन्न प्रकार के ऐसे आवेग जो हमें विभिन्न कार्यों को करने के लिए प्रेरित करते हैं। उदाहरण के लिए कोई ऐसा मानसिक आवेग जिसके कारण हमने अपने व्यापार के बारे में कोई निर्णय लिया हो जो बाद में बुरा निर्णय साबित हुआ हो। या वह आवेग जो मुझे अपने बच्चों से सम्मान की मांग करने के लिए प्रेरित करता है। या वह आवेग कि मैं अपने दफ्तर में काम करने वाले लोगों पर चीखूँ-चिल्लाऊँ कि वे काम अपने तरीके से नहीं, बल्कि मेरी इच्छा के मुताबिक करें। मेरे चित्त में एक और आवेग उत्पन्न हो सकता है कि मैं दूसरों के सामने भावशून्य चेहरा बनाए रखूँ, टेलीविजन चालू करके बैठ जाऊँ और किसी की बात न सुनूँ। इस प्रकार के आवेग, या कर्म हमारे चित्त में उत्पन्न होते हैं, फिर हम बाध्यतावश उन्हें क्रियान्वित कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप हमारे सामने अनियंत्रित ढंग से बार-बार समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यही इसकी प्रक्रिया है।

हो सकता है कि हमें कार्यस्थल पर अपनी प्रतिष्ठा के बारे में फिक्र या चिंता बनी रहती हो, या अपने परिवार की समस्याओं को लेकर फिक्रमंद बने रहने की समस्या हो। अपनी इस दृढ़ पहचान से चिपके होने के कारण कि “मुझे सफल होना ही है और अपनी सफलता को प्रदर्शित करके मुझे अपने माता-पिता और समाज को खुश करना है,” हम उस पहचान को सुरक्षित बनाए रखने के लिए फिक्र या चिंता की समस्या के अस्तित्व को ही मानने से इंकार कर देते हैं। हम अवरुद्ध-चित्त हो जाते हैं। फिर भले ही हमारे परिवार में या कार्यस्थल पर सभी प्रकार की समस्याएं चल रही हों, उन्हें हम दबा कर रखते हैं और हम सभी अपने आप को प्रफुल्लित दिखाने का प्रयास करते हैं। लेकिन हमारे भीतर ये सभी चिंताएं और तनाव मौजूद रहते हैं, जो बाद में हिंसा के किसी आवेग के रूप में फटते हैं और यह हिंसा अक्सर परिवार या कार्यस्थल के किसी ऐसे सदस्य के विरुद्ध होती है जिसका उस विषय से कुछ लेना-देना तक नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप भीषण समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

ये ऐसी विभिन्न प्रक्रियाएं हैं जिनसे हमारी बार-बार अनियंत्रित ढंग से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का जन्म होता है। यहाँ हम स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं कि इसका सम्बंध हमारे विभिन्न प्रकार के मनोभावों से होता है, और यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या सभी मनोभाव परेशानी खड़ी करने वाले होते हैं? क्या सभी मनोभाव हमारे लिए समस्याएं पैदा करते हैं?

सकारात्मक मनोभाव

हमें यह भेद करना होगा कि कुछ मनोभाव बहुत सकारात्मक और रचनात्मक होते हैं – जैसे प्रेम, सौहार्द, स्नेह, सहिष्णुता, धैर्य, और दया भाव – जबकि कुछ नकारात्मक या विनाशकारी मनोभाव होते हैं जैसे लालसा, विद्वेष, अवरुद्ध चित्तता, घमंड, अहंकार, ईर्ष्या आदि। पालि, संस्कृत या तिब्बती भाषाओं में अंग्रेज़ी भाषा के “इमोशन्स” शब्द के लिए कोई समानार्थी शब्द नहीं है। हम सकारात्मक या नकारात्मक भावों की बात तो कर सकते हैं, किन्तु अंग्रेज़ी भाषा की तरह दोनों ही प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने वाला कोई सामान्य शब्द नहीं है। 

जब हम कुछ ऐसे मनोभावों या दृष्टिकोणों की बात करते हैं जिनके उत्पन्न हो जाने पर हम स्वंय को व्यग्र या असहज महसूस करते हैं, तो उन्हें अशांतकारी मनोभाव या अशांतकारी दृष्टिकोण कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हमें किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति या उसका जुनून हो जिसके कारण हम बहुत असहज हो जाते हैं। हो सकता है कि हम सम्मान पाने के लिए बहुत आतुर हों, या हम किसी व्यक्ति का प्रेम, उससे आदर-सम्मान या उसका अनुमोदन आदि चाहते हों। चूँकि हम उस व्यक्ति के प्रति आसक्त होते हैं और इसलिए अपने आप को योग्य और सुरक्षित अनुभव करने के लिए उसका अनुमोदन चाहते हैं – लालसा के अशांतकारी मनोभाव या दृष्टिकोण के कारण ये सब कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। जब भी हम विद्वेषपूर्ण होते हैं तो बहुत व्यग्र हो जाते हैं; या यदि हम अवरुद्ध-चित्त होते हैं तो वह भी एक व्यग्रता उत्पन्न करने वाला भाव है। ये सभी दृष्टिकोण परेशानी उत्पन्न करने वाले दृष्टिकोण हैं। इसलिए हमें नकारात्मक मनोभावों को सकारात्मक मनोभावों, जैसे प्रेम, से अलग करके देखना चाहिए।

बौद्ध परम्परा में प्रेम को एक ऐसे सकारात्मक मनोभाव के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें हम कामना करते हैं कि दूसरे सभी सुखी हों और उन्हें सुख के साधनों की प्राप्ति हो। यह बात इस तर्क पर आधारित है कि हम सभी समान हैं और सभी सुख चाहते हैं, कोई नहीं चाहता कि उसे किसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़े। सभी को सुखी होने का समान अधिकार है। दूसरों का उतना ही खयाल रखना और उन्हें उतना ही प्रिय समझना जितना हम स्वयं को समझते हैं, वास्तव में प्रेम है। यह दूसरों के सुखी होने के लिए फिक्रमंद होने का भाव है जो इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वे क्या करते हैं। यह प्रेम अपने शिशु के लिए एक माँ के प्रेम जैसा है जो उस स्थिति में भी अपने बच्चे से प्रेम करती है जब बच्चा माँ के कपड़े गंदे कर देता है या उसके ऊपर उलटी कर देता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, माँ सिर्फ इसलिए अपने बच्चे को प्रेम करना बंद नहीं कर देती क्योंकि बच्चा बीमार हो गया हो और उसने माँ के कपड़ों पर उलटी कर दी हो। माँ अपने बच्चे के लिए फिर भी उतनी ही फिक्रमंद रहती है, बच्चे के सुखी होने की कामना करती है। वहीं दूसरी तरफ जिसे हम अक्सर प्रेम कहते हैं, वह निर्भरता या आवश्यकता की अभिव्यक्ति है। “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ” का अर्थ होता है “मुझे तुम्हारी ज़रूरत है, कभी मुझे छोड़कर मत जाना, मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता, और बेहतर हो कि तुम ऐसा या वैसा करो, एक अच्छी पत्नी या अच्छे पति बन कर रहो, हर वेलंटाइन डे पर मुझे फूल भेंट किया करो और सिर्फ वही किया करो जो मुझे अच्छा लगता है। यदि तुम ऐसा न करो, तो मुझे तुमसे नफरत है क्योंकि तुमने वैसा नहीं किया जैसा मैंने चाहा था, जब मुझे तुम्हारी ज़रूरत थी तो तुम मौजूद नहीं थे।”

इस प्रकार का दृष्टिकोण एक अशांतकारी मनोभाव है और बौद्ध दृष्टि से इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता है। प्रेम तो किसी के प्रति फिक्रमंदी का भाव है फिर चाहे वह व्यक्ति हमें फूल भेजे या न भेजे, हमारी बात सुने या न सुने, हमारे साथ मधुर और अच्छा व्यवहार करे या बुरा व्यवहार करे या हमें अस्वीकार ही क्यों न कर दे। यह उस व्यक्ति के सुखी होने के लिए फिक्रमंदी का भाव है। हमें समझना होगा कि जब भी हम प्रेम या इसी प्रकार के मनोभावों की बात करते हैं तो उसके सकारात्मक और अशांतकारी दोनों प्रकार हो सकते हैं।

क्रोध हर हाल में अशांतकारी मनोभाव है

आखिरकार अब हम क्रोध के बारे में चर्चा करेंगे। क्रोध क्या है? क्रोध एक ऐसा भाव है जो सदैव अशांतकारी होता है। क्रोधित होकर कभी कोई सुखी नहीं हुआ। क्रोधित होने के बाद हम बेहतर महसूस नहीं करते हैं। न इससे हमारे भोजन का स्वाद बेहतर होता है। जब हम क्रोधित और क्षुब्ध होते हैं तो हमें आराम नहीं मिलता और हमें नींद नहीं आती। ज़रूरी नहीं है कि हम कोई बड़ा बखेड़ा खड़ा करें, या चीखें-चिल्लाएं, लेकिन यदि हम अपने परिवार या दफ्तर की किसी घटना को लेकर अपने भीतर से क्रोधित होते हैं तो हमारा हाज़मा खराब हो सकता है या अल्सर हो सकता है, या हमें रात को नींद आना बंद हो सकता है। क्रोध को अपने अन्दर पीने के कारण हमें कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और यदि हम उस क्रोध को वास्तव में प्रकट करने लगें और दूसरों को गुस्से की नज़र से देखने लगें, और शत्रुता का भाव प्रदर्शित करने लगें तो कुत्ते और बिल्लियाँ भी हमारे नज़दीक नहीं फटकना चाहेंगे। वे भी हमारे पास से चुपचाप खिसक जाएंगे क्योंकि वे भी हमारे क्रोध के कारण हमारी मौजूदगी में बेचैनी महसूस करेंगे। 

क्रोध से कोई वास्तविक लाभ नहीं है। यदि हमारा क्रोध इतना बढ़ जाए या हम इतने कुंठित हो जाएं कि हमें लगे कि हमें किसी भी तरह से गुस्से के गुबार को निकालना चाहिए और यदि हमारा गुस्सा फूट पड़े और हम किसी को शाप दे दें या उसके खिलाफ कोई जादू-टोना कर दें, तो क्या ऐसा करके हमें बेहतर महसूस होगा? क्या हमें किसी और को घायल या परेशान देखकर अच्छा लगेगा? या हो सकता है कि हमें इतना क्रोध आए कि हमारी इच्छा हो कि हम दीवार को मुक्के मारें। तो क्या दीवार में मुक्के मार कर हमें बेहतर महसूस होगा? ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं होगा, उल्टे चोट ही लगेगी। सच यह है कि क्रोध से हमें किसी भी तरह का लाभ नहीं होता है। जब हम ट्रैफिक में फंसे होते हैं तो हमें इतना क्रोध आ जाता है कि हम तेज़ हॉर्न बजाने लगते हैं, और दूसरों पर चिल्लाने लगते हैं, हर किसी को अपशब्द कहने लगते हैं, ऐसा करने से क्या फायदा? क्या उससे हमें कुछ बेहतर लगने लगा? क्या ऐसा करने से कारें तेज़ी से चलने लगीं? नहीं, इससे हर किसी के सामने हमारी छवि ही खराब हुई क्योंकि हर कोई कहेगा, “इस तरह लगातार हॉर्न बजाने वाला यह कौन मूर्ख व्यक्ति है?” ज़ाहिर है कि ऐसा करने से स्थिति सुधरने वाली नहीं है।

क्या क्रोधित होना हमारे लिए आवश्यक है?

यदि क्रोध जैसे मनोभावों और किसी व्यक्ति पर चीखने-चिल्लाने जैसे बिना सोचे-विचारे किए गए व्यवहार के आधार पर, या विरोधस्वरूप दूसरों से कटे रहने या उन्हें अस्वीकार कर देने के कारण हमारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं, तो क्या इनके कारण हमारे लिए हमेशा परेशानियाँ उत्पन्न होंगी? नहीं, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अशांतकारी मनोभाव चित्त की प्रकृति का हिस्सा नहीं होते हैं। यदि ऐसा होता तो हमारा चित्त हमेशा अशांत बना रहता। यहाँ तक कि इनसे सबसे अधिक गंभीर रूप से प्रभावित लोगों के मामले में भी ऐसे क्षण आते हैं जब हम के कारण अशांत नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, जब हमें नींद आ जाती है तो उसके बाद हमें क्रोध महसूस नहीं होता है।

अतएव कुछ ऐसे क्षण सम्भव हैं जब क्रोध, विद्वेष और आक्रोश जैसे अशांतकारी मनोभाव उपस्थित नहीं होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि ये अशांतकारी मनोभाव स्थायी नहीं होते हैं; ये हमारे चित्त की प्रकृति का हिस्सा नहीं होते हैं और इसलिए इनसे मुक्ति सम्भव है। यदि हम अपने क्रोध के कारणों को समाप्त कर दें – सतही तौर पर नहीं, बल्कि गहनतम स्तर पर – तो फिर क्रोध को नियंत्रित करना और चित्त की शांति को प्राप्त करना निश्चित तौर पर सम्भव है।

इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अपने सभी मनोभावों और भावनाओं को स्टार ट्रैक के स्पॉक की तरह बन जाना चाहिए, किसी रोबोट या कम्प्यूटर की तरह संवेदनाशून्य हो जाना चाहिए। बल्कि हम तो यह चाहते हैं कि हम अपने अशांतकारी मनोभावों से मुक्त हों, भ्रम पर आधारित अपने अशांतकारी मनोभावों से मुक्त हो सकें, और अपनी पहचाने के यथार्थ के बारे में अनभिज्ञता से मुक्त हो सकें। बौद्ध धर्म की शिक्षाएं इसे सम्भव बनाने के लिए अनेक विधियों और साधनों से सम्पन्न हैं।

क्रोध पर नियंत्रण: अपना जीवन कैसे सुधारें

सबसे पहले तो हमें एक ऐसी प्रेरणा या ऐसे आधार की आवश्यकता है जो हमें प्रेरित करे कि हम अपने क्रोध और अपने समस्त अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों से मुक्ति पाने के लिए आत्मसुधार करें। यदि ऐसा करने के लिए हमारे पास कोई कारण ही नहीं होगा तो फिर इस कार्य को क्यों करना चाहेंगे? इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसा करने की प्रेरणा देने वाला कोई तत्व हो।

इस प्रकार की प्रेरणा विकसित करने के लिए हम शुरुआत इस प्रकार विचार करके कर सकते हैं: “मैं सुखी होना चाहता हूँ और किसी प्रकार की समस्याएं नहीं चाहता हूँ। मैं अपने जीवन को सुधारना चाहता हूँ। मेरा जीवन बहुत सुखद नहीं है क्योंकि मैं हमेशा अपने भीतर क्रोध और आक्रोश अनुभव करता हूँ। मैं अक्सर क्रोधित हो जाता हूँ। हो सकता है कि मैं उसे प्रकट न करता होऊँ, लेकिन वह है और उसने मुझे बहुत दुखी बना रखा है, मैं हर समय बहुत परेशान रहता हूँ और यह कोई बहुत अच्छा जीवन नहीं है। इसके अलावा, इसके कारण मेरा हाज़मा खराब रहता है जिसकी वजह से मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। मैं अपने पसंदीदा भोजन का आनन्द तक नहीं ले पाता हूँ।”

कम से कम अपने जीवन की गुणवत्ता को तय करना हमारे अपने हाथ में है। बुद्ध के द्वारा दी गई शिक्षाओं में सबसे बड़े संदेशों में से एक यह था कि हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं। हम अपना पूरा जीवन दुख में जीने के लिए अभिशप्त नहीं हैं। हम इस स्थिति को सुधार सकते हैं।

तब हमें इस प्रकार विचार करना चाहिए, “मैं न केवल अपने वर्तमान जीवन को सुधारना चाहता हूँ, या न केवल इस क्षण के लिए अल्प अवधि के लिए सुधारना चाहता हूँ, बल्कि लम्बी अवधि के लिए भी सुधारना चाहता हूँ। मैं इस स्थिति को बद से बदतर नहीं होने देना चाहता हूँ। क्योंकि, उदाहरण के लिए, यदि मैंने अपने क्रोध और आक्रोश से मुक्ति नहीं पाई और यदि इसे अपने भीतर ही दबाए रखा तो यह और बढ़ेगा और मुझे अल्सर तक हो सकता है। हो सकता है कि मैं इसे नियंत्रित न रख पाऊँ और कुछ बहुत बुरा कर बैठूँ, जैसे किसी को श्राप दे दूँ या किसी पर कोई जादू-टोना कर दूँ और उसका नाश करने का प्रयास करूँ। इसके नतीजे में दूसरा व्यक्ति भी प्रतिकारस्वरूप मुझे और मेरे परिवार को शाप दे सकता है, और अचानक हमारे सामने किसी नए वीडियो या फिल्म के लिए एक आदर्श पटकथा तैयार हो सकती है।”

यदि हम इसके आगे विचार करें कि हम ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहते हैं, तो हम इसमें सुधार करेंगे और अपने क्रोध से मुक्त होने का प्रयास करेंगे ताकि समस्या और गम्भीर न हो जाए। आगे चलकर न केवल हम अपनी समस्याओं को नियंत्रित करने का हौसला कर सकते हैं, बल्कि उससे भी बढ़कर हम अपनी सभी समस्याओं से पूरी तरह मुक्त हो सकें क्योंकि अपने भीतर थोड़ा सा भी क्रोध या आक्रोश महसूस करना कोई आनन्द नहीं देता है: “मुझे अपनी सभी समस्याओं से मुक्त होने के लिए एक दृढ़ संकल्प विकसित करना चाहिए।”

मुक्ति पाने के लिए दृढ़ संकल्प

आम तौर पर जिसे मैं “मुक्ति पाने के लिए दृढ़ संकल्प” कहता हूँ उसका अनुवाद “परित्याग” के रूप में किया जाता है, जोकि थोड़ा भ्रामक अनुवाद है। इससे लगता है कि हमें सब कुछ त्याग देना चाहिए और किसी गुफा में जाकर रहना शुरू कर देना चाहिए। यहाँ ऐसा हर्गिज़ नहीं कहा जा रहा है। यहाँ जो बात हम कह रहे हैं वह यह है कि हम ईमानदारीपूर्वक और साहसपूर्वक अपनी समस्याओं का निरीक्षण करें और यह समझें कि इन समस्याओं के साथ जीते रहना कितना हास्यास्पद है कि हम निश्चय करें: “मैं इस स्थिति को ऐसे ही नहीं चलने देना चाहता हूँ। बहुत हो चुका। मैं इन समस्याओं से उकता चुका हूँ; तंग आ चुका हूँ। मुझे इस स्थिति से बाहर निकलना होगा।”

यहाँ आवश्यक यह है कि स्वयं को मुक्त करने के लिए एक दृढ़ संकल्प विकसित किया जाए और उसके साथ ही अपने पुराने, अशांतकारी विचारों, वचन और व्यवहार के अभ्यास या आदत से मुक्त होने के लिए इच्छाशक्ति विकसित की जाए। यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। जब तक कि हम अपने संकल्प में बहुत दृढ़ नहीं होंगे, हम इस कार्य में अपनी पूरी ऊर्जा नहीं लगा पाएंगे। जब तक कि हम अपनी ऊर्जा नहीं लगाएंगे, मुक्त होने के लिए हमारा प्रयास अधूरे मन से किया गया प्रयास होगा और हम कभी इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएंगे। हम सुख पाने के इच्छुक तो बने रहेंगे, लेकिन अपनी नकारात्मक आदतों और मनोभावों को त्यागने के लिए तैयार नहीं होंगे। ऐसे प्रयास कभी सफल नहीं होते हैं। इसलिए, यह बहुत ज़रूरी है कि इस प्रकार का दृढ़ निश्चय विकसित किया जाए कि हमें अपनी समस्याओं को उत्पन्न होने से रोकना ही है और हमें समस्याओं और उनके कारणों को त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए।

इससे अगले उच्चतर स्तर पर हमें यह विचार करना चाहिए: “मुझे न केवल स्वयं अपने सुख के लिए बल्कि अपने आसपास के सभी लोगों के सुख के लिए अपने क्रोध से मुक्त होना चाहिए। अपने परिवार, अपने मित्रों, सहकर्मियों और समाज की खातिर मुझे अपने क्रोध से मुक्त होना चाहिए। दूसरों का खयाल करते हुए मुझे इस पर विजय पानी ही होगी। मैं उनके लिए परेशानी उत्पन्न करके उन्हें दुखी नहीं करना चाहता हूँ। यदि मैं अपने क्रोध को प्रकट करूँगा तो न केवल इससे मेरी प्रतिष्ठा ही गिरेगी, बल्कि इससे मेरे पूरे परिवार को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। इससे मेरे सभी सहयोगियों को शर्मिंदा होना पड़ेगा। इसलिए, उन सभी की खातिर मुझे अपने क्रोध को नियंत्रित करना सीखना होगा और उससे मुक्त होना पड़ेगा।”

यह विचार करके इससे भी प्रबल प्रेरणा विकसित की जा सकती है: “मुझे इस क्रोध करने की आदत से मुक्त होना ही होगा क्योंकि यह मुझे दूसरों की सहायता करने से रोकता है। यदि दूसरे लोगों को, जैसे मेरे बच्चों को या कार्यस्थल पर मेरे सहयोगियों या मेरे माता-पिता को मेरी सहायता की आवश्यकता हो, और यदि मैं क्रोध या आक्रोश के कारण पूरी तरह परेशान या अशांत होऊँ तो फिर मैं उनकी सहायता कैसे कर पाऊँगा?” यह एक प्रमुख बाधा है और इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि हम ईमानदारी से प्रेरणा के इन विभिन्न स्तरों को विकसित करने के लिए आत्मसुधार करों।

क्रोध को नियंत्रित करने के लिए हमारा तरीका चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो, यदि हमारे पास उसे क्रियान्वित करने के लिए दृढ़ प्रेरणा नहीं होगी तो फिर हम क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे। और यदि हम सीखे गए तरीकों को लागू न करें तो फिर उन्हें सीखने का क्या मतलब है? इसलिए, पहला कदम यह है कि हम प्रेरणा विकसित करने के बारे में विचार करें।

वीडियो: डा. अलेक्ज़ेंडर बर्ज़िन — मनोभावों की स्वस्थ अभिव्यक्ति
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क्रोध को काबू करने के लिए तरीके

ऐसे कौन से वास्तविक तरीके हैं जिनका प्रयोग हम क्रोध को पराजित करने के लिए कर सकते हैं? क्रोध को चित्त के उत्तेजित होने की एक ऐसी अवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है जो किसी सजीव या निर्जीव वस्तु के विरुद्ध हिंसा उत्पन्न करना चाहती है। यदि हम किसी व्यक्ति, किसी पशु, किसी स्थिति या किसी वस्तु को देखते हैं और वह हमें पसंद न आए तो हम उसे हिंसात्मक तरीके से बदलने के लिए उसके प्रति कुछ हिंसा और उत्तेजना को व्यक्त करना चाहते हैं, यही क्रोध है। इस प्रकार, जिसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते, उसे क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से असहिष्णुता और अधीरता का भाव ही क्रोध है। एक ओर इसका प्रतिलोम धैर्य है जो असहिष्णुता का विलोम है, और दूसरी ओर प्रेम। चूँकि प्रेम किसी को सुखी देखने की कामना है, इसलिए प्रेम किसी को क्षति पहुँचाने की इच्छा का विरोधी भाव है।

अक्सर हम ऐसी स्थितियों में क्रोधित हो जाते हैं जहाँ हमारे साथ ऐसा कुछ घटित हो जाता है जिसका होना हमें पसंद नहीं होता। लोग हमारी इच्छाओं को ध्यान में रखकर वैसा व्यवहार नहीं करते जैसा हम चाहते हैं। उदाहरण के लिए, वे हमारे प्रति सम्मान प्रदर्शित नहीं करते, कार्यस्थल पर वे हमारे आदेश का पालन नहीं करते, या व्यापार में वे हमारे लिए कुछ करने का वादा करते हैं और फिर अपना वादा पूरा नहीं करते। चूँकि वे लोग हमारी अपेक्षा के अनुसार कार्य नहीं करते, हम उनपर बहुत क्रोधित हो जाते हैं। एक अन्य उदाहरण लें, हो सकता है कि किसी व्यक्ति के जूते से हमारा पैर कुचल जाए तो हम उस व्यक्ति से बहुत नाराज़ हो जाते हैं क्योंकि हमें इस घटना का होना अच्छा नहीं लगता। लेकिन ऐसे बहुत से तरीके उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से हम क्रोधित हुए बिना ही ऐसी परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकते हैं।

धैर्य विकसित करने के लिए शांतिदेव का उपदेश

आठवीं शताब्दी के महान बौद्ध आचार्य शांतिदेव ने इस सम्बंध में बहुत से ऐसे विचार दिए हैं जो लाभकारी हैं। यदि उनके द्वारा लिखी गई बात को मैं आसान शब्दों में बताऊँ तो उन्होंने कहा था: “यदि किसी कठिन परिस्थिति में हमारे लिए यह संभव है कि हम उसे बदल सकें, तो फिर हम चिंतित और क्रोधित क्यों हों, बस उसे बदल दें। यदि उसे बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता, तब भी चिंता और क्रोध करने से क्या लाभ? यदि उस परिस्थिति को बदला नहीं जा सकता, तो फिर क्रोध करने से कोई लाभ नहीं होगा।”

उदाहरण के लिए, हम यहाँ पेनांग से सिंगापुर जाने वाली उड़ान में सवार होना चाहते हैं, लेकिन जब हम हवाई अड्डे पहुँचते हैं तो पता चलता है कि उस उड़ान में पहले से ही बहुत से यात्री अपना स्थान आरक्षित करा चुके हैं और वह भर चुकी है। इस स्थिति में क्रोधित होने का कोई लाभ नहीं है। क्रोध करने से हमें विमान में स्थान पाने में मदद नहीं मिलने वाली है। लेकिन, इस स्थिति को बदलने के लिए हम अवश्य कुछ कर सकते हैं – हम अगली उड़ान पकड़ सकते हैं। क्रोधित क्यों हुआ जाए? अगली उड़ान में अपने लिए बुकिंग कराइए, सिंगापुर में अपने मित्रों को टेलीफोन करके सूचित कर दीजिए कि आप विलम्ब से पहुँच रहे हैं; बात खत्म। समस्या को हल करने के लिए हम ऐसा कर सकते हैं। यदि हमारा टेलीविजन काम न कर रहा हो, तो उस पर गुस्सा करने और ठोकर मारने, कोसने से क्या फायदा? उसे ठीक कर लीजिए। यह बड़ी ज़ाहिर सी बात है। यदि कोई परिस्थिति ऐसी है कि उसे हम बदल सकते हैं; फिर क्रोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है, उस स्थिति को बदल लीजिए।

यदि किसी परिस्थिति को बदलने के लिए हम कुछ न कर सकते हों, जैसे यदि हम भीड़-भाड़ वाले समय में यातायात में फंसे हों, तो फिर हमें उस परिस्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए। हमारी कार के आगे कोई लेज़र बीम वाली गन तो लगी नहीं है कि हम अपने से आगे वाली सभी कारों को प्रहार करके नष्ट कर दें या ट्रैफिक के ऊपर से उड़ कर चले जाएं, जैसा किसी जापानी कार्टून में होता है। इसलिए हमें उस परिस्थिति को शिष्ट ढंग से स्वीकार करते हुए यह विचार करना चाहिए: “कोई बात नहीं, मैं यहाँ ट्रैफिक में फंसा हूँ, मैं रेडियो चला लूँगा या कैसेट रिकॉर्डर चला लूँगा और कोई बौद्ध उपदेश सुन लूँगा या किसी प्रकार का मधुर संगीत सुन लूँगा।” ज़्यादातर ऐसा होता है कि हमें पहले से मालूम होता है कि हम भीड़-भाड़ वाले समय में ट्रैफिक में फंसेंगे, और इसलिए हम पहले से तैयारी करके अपने साथ कोई टेप अपने साथ ले जा सकते हैं जिसे हम सुन सकें। यदि हमें मालूम हो कि हमें इस तरह भीड़ भरे यातायात में गाड़ी चलानी होगी, तो फिर हम उस समय का उपयोग बेहतर ढंग से कर सकते हैं। उस समय में हम अपने दफ्तर या परिवार की या किसी अन्य समस्या के बारे में सोच-विचार कर सकते हैं और उस समस्या का कोई अच्छा समाधान निकालने का प्रयास कर सकते हैं।

यदि किसी कठिन परिस्थिति को बदलने के लिए कुछ भी कर पाना सम्भव न हो, तो फिर हमें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए और अच्छे से अच्छे ढंग से उसका सामना करना चाहिए। यदि अंधेरे में ठोकर लगने के कारण हमारे अंगूठे में चोट लग जाए और हम उछलते हुए चीखने-चिल्लाने लगें तो क्या हमारे अंगूठे का दर्द कुछ कम हो जाएगा? अमेरिकी बोल-चाल की भाषा में हम इसे “चोट लगने के कारण किया गया नृत्य” कहते हैं। आप दर्द से इतने बिलबिला जाते हैं कि आप ऊपर-नीचे उछलने लगते हैं; लेकिन इससे आपका दर्द तो कम नहीं होने वाला है। इस परिस्थिति में हम ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं। बस इतना ही किया जा सकता है कि जो भी काम हम कर रहे हैं उसे करना जारी रखें। पीड़ा अस्थायी है, वह बीत जाएगी। दर्द हमेशा नहीं होता रहेगा और ऊपर-नीचे उछलने या चीखने-चिल्लाने से हमारा दर्द कम नहीं हो जाएगा। हम क्या चाहते हैं? क्या हम चाहते हैं कि हर कोई दौड़ा-दौड़ा आए और कहे: “अरे, तुम्हारे अंगूठे में तो चोट लगी है?” यदि किसी शिशु या छोटे बच्चे को चोट लग जाती है तो उसकी माँ आकर उसे दुलारती-पुचकारती है और बच्चे को बेहतर महसूस होता है। तो क्या हम भी यह अपेक्षा करते हैं कि लोग हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करे, किसी छोटे बच्चे की तरह?

कतार में खड़े होकर बस के लिए इंतज़ार करते समय यदि हम अनित्यता के बारे में विचार करें – कि मैं इस कतार में हमेशा 32वें या 9वें स्थान पर ही नहीं खड़ा रूहूँगा, बल्कि आखिरकार मेरी भी बारी आएगी, तो इससे हमें उस स्थिति को सहन करने में सहायता मिलेगी और हम उस समय को किसी और काम में ला सकते हैं। भारत में एक कहावत है: “इंतज़ार का अपना एक अलग आनन्द होता है।” यह सच है, क्योंकि यदि हमें कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने का या बस के आने का इंतज़ार करना पड़े तो हम उस समय का उपयोग कतार में या बस स्टॉप पर प्रतीक्षा कर रहे दूसरे लोगों के बारे में जानने, दफ्तर में चल रही बातों या किसी भी दूसरे विषय को समझने के लिए कर सकते हैं। इससे हमें दूसरों के प्रति फिक्रमंदी और करुणा का विकसित करने में सहायता मिलती है। जब हम वहाँ अटके हुए ही हैं तो फिर अपने समय को आधे घंटे तक कोसने-झींकने के बजाए सकारात्मक ढंग से क्यों न बिताया जाए?

एक और सलाह देते हुए शांतिदेव हमसे कहते हैं: “यदि कोई व्यक्ति हमें डंडे से मारे, तो फिर हमें किस पर क्रोध करना चाहिए? क्या हम उस व्यक्ति पर क्रोध करें या फिर डंडे पर क्रोधित हों? यदि हम इसे तर्क की दृष्टि से देखें तो फिर हमें डंडे से नाराज़ होना चाहिए, क्योंकि चोट तो हमें डंडे ने ही पहुँचाई है!” लेकिन, यह तो नासमझी है। डंडे से तो कोई नाराज़ नहीं होता; हम तो मारने वाले व्यक्ति से नाराज़ होते हैं। हम उस व्यक्ति से क्यों नाराज़ होते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति ने ही डंडे को वश में लेकर इस्तेमाल किया था। इसी प्रकार यदि हम आगे विचार करें तो वह व्यक्ति अपने अशांतकारी मनोभावों के वशीभूत हुआ था। इसलिए, यदि हमें क्रोध करना हो तो इस व्यक्ति के उन अशांतकारी मनोभावों से करना चाहिए जिनकी प्रेरणा से उसने हमें डंडे से मारा था।

तब हम विचार करते हैं: “यह अशांतकारी मनोभाव कहाँ से उत्पन्न हुआ? वह निर्मूल तो नहीं होगा। मैंने ही कुछ ऐसा किया होगा जिससे वह उत्पन्न हुआ। मैंने कुछ ऐसा किया होगा जिसके कारण उस व्यक्ति को क्रोध आया होगा और फिर उसने मुझे डंडा मारा होगा। इसी प्रकार, मैंने किसी व्यक्ति को अपने लिए कुछ करने के लिए कहा होगा और फिर जब उसने वैसा करने से इंकार कर दिया तो मुझे क्रोध आ गया होगा। इसके कारण मैंने स्वयं को आहत महसूस किया। देखिए, यदि इसके बारे में सोचा जाए तो दरअसल गलती मेरी ही थी। मैं आलसी था और इसलिए मैंने वह कार्य स्वयं नहीं किया। मैंने इस व्यक्ति को वह काम करने के लिए कहा, और जब उसने मना कर दिया तो मुझे क्रोध आ गया। यदि मैं स्वयं इतना आलसी न रहा होता, तो मैं कभी उस व्यक्ति से अनुरोध न करता, और यह समस्या उत्पन्न ही न हुई होती। यदि मुझे गुस्सा करना ही है, तो स्वयं पर करना चाहिए कि मैं इतना नासमझ और आलसी हूँ कि मैंने उस व्यक्ति से अपने लिए कुछ करने का आग्रह किया।”

यदि आंशिक तौर पर हमारी गलती न भी हो, तब भी हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि क्या हम स्वयं उस अशांतकारी मनोभाव, जैसे स्वार्थ, से मुक्त हैं जो उस दूसरे व्यक्ति को ऐसा व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर रहा है: “उसने मेरे लिए कोई काम करने से मना कर दिया। लेकिन, क्या मैं स्वयं हमेशा दूसरों के काम कर देता हूँ? क्या मैं स्वयं दूसरों की मदद करता हूँ, वह भी तत्परता से? यदि मैं स्वयं ऐसा नहीं हूँ, तो फिर मैं दूसरों से यह अपेक्षा क्यों रखूँ कि वे हमेशा तकलीफ उठाकर भी मेरी सहायता करें?” क्रोध को नियंत्रित करने का यह एक और तरीका है।

मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह आवश्यक नहीं है कि क्रोध को हमेशा चीख-चिल्ला कर या दूसरे व्यक्ति को चोट पहुँचा कर ही प्रकट किया जा सकता है। परिभाषा के अनुसार क्रोध एक ऐसा अशांतकारी मनोभाव है जिसके जाग्रत होने पर हम बेचैन हो जाते हैं। इसलिए यदि हम इसे अपने भीतर समेट कर भी रखें और कभी प्रकट न करें, तब भी क्रोध हमारे भीतर विनाशकारी ढंग से काम करेगा और हमें बहुत अशांत कर देगा। बाद में वह बहुत ही विनाशकारी ढंग से फूट कर बाहर निकलेगा। अपने भीतर दबा कर रखे गए क्रोध को नियंत्रित करने के लिए भी हम उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं जिनके बारे में मैंने अभी चर्चा की है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। हमें धैर्य के भाव को विकसित करना चाहिए।

धैर्य के विभिन्न प्रकार

लक्ष्य प्रकार का धैर्य

धैर्य के अनेक प्रकार होते हैं। पहला प्रकार लक्ष्य प्रकार के धैर्य का होता है। इसका आशय यह है कि यदि आप कोई लक्ष्य निर्धारित करके नहीं रखेंगे तो कोई भी उस पर निशाना नहीं लगाएगा। अमेरिका में बच्चे एक छोटा सा खेल खेलते हैं। वे अपने किसी दोस्त की पतलून के आसन पर कागज़ का एक एक टुकड़ा पिन की सहायता से या गोंद से चिपका देते हैं। कागज़ के इस टुकड़े पर वे लिख देते हैं “मुझे लात मारो” और इसे “मुझे लात मारो” संकेत कहा जाता है। जो कोई भी उस छोटे बच्चे के पीछे “मुझे लात मारो” की पर्ची देखता है, उसे लात मारता है। वैसे ही, इस प्रकार के धैर्य में हम विचार करते हैं कि हमने अपने पिछले नकारात्मक और विनाशकारी कृत्यों के माध्यम से अपने पीछे किस प्रकार “मुझे लात मारो” की पर्चियाँ लगा रखी हैं, और इसी कारण से वर्तमान में हमें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

उदाहरण के लिए, कल्पना करें कि किसी सड़क पर हमारे साथ लूटपाट हो जाती है। तो हम सोचेंगे, “यदि मैंने विगत में या पिछले जन्मों में नकारात्मक और विनाशकारी व्यवहार करके यह लक्ष्य निर्धारित न कर दिया होता तो मेरे मन में यह तीव्र इच्छा न जागती कि मैं उस अंधेरी सड़क से होकर ठीक उसी समय गुज़रूँ जब वहाँ कोई लुटेरा मुझे लूटने और मेरे साथ मारपीट करने के लिए प्रतीक्षा कर रहा था। आम तौर पर मैं उस रास्ते से नहीं जाता हूँ, लेकिन उस रात मेरे मन में यह विचार आया कि मैं उस अंधेरी सड़क से होकर ही जाऊँगा। सामान्यतया मैं घर काफी जल्दी लौट आता हूँ, लेकिन उस रात मेरे मन में यह इच्छा हुई कि मैं थोड़ा और देर तक अपने दोस्तों के साथ रुकूँ। इसके अलावा, मैं उस सड़क से ठीक उसी समय पर गुज़रा जब वहाँ कोई लुटेरा घात लगाए किसी के वहाँ से गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरे मन में वैसा करने की प्रेरणा क्यों जाग्रत हुई? ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि पहले कभी मैंने कुछ ऐसा किया होगा जिससे इस व्यक्ति को क्षति पहुँची हो और वही कृत्य अब कारण और प्रभाव की दृष्टि से परिपक्व हो रहा है।”

हमारे चित्त में आवेग कर्म की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होते हैं। इसके बारे में हम इस तरह से विचार कर सकते हैं: “मेरे पुराने नकारात्मक कर्मों का बोझ उतर रहा है। मुझे खुश होना चाहिए कि मेरा पीछा सस्ते में ही छूट गया, क्योंकि मेरे साथ इससे भी बुरा हो सकता था। इस व्यक्ति ने मुझे सिर्फ लूटा है, वरना वह मुझे गोली भी मार सकता था। इसलिए मुझे राहत महसूस करनी चाहिए कि यह नकारात्मकता इतने कम नुकसान से ही परिपक्व हो गई और मैं उससे मुक्त हो गया। मेरे साथ इतना बुरा भी नहीं हुआ और अच्छी बात यह है कि मेरा उससे पीछा भी छूट गया। अब कर्म का यह ऋण मेरे सिर से उतर चुका है।”

इस प्रकार से विचार करना बहुत उपयोगी रहता है। मुझे याद है कि एक बार मैं एक मित्र के साथ समुद्र तट पर सप्ताहांत की छुट्टियाँ बिताने के लिए जा रहा था। हमें कई घंटों तक गाड़ी चला कर सफर तय करना था। गंतव्य स्थान शहर से काफी दूर था। करीब डेढ़ घंटे तक गाड़ी चला लेने के बाद हमें कार में से कुछ अजीब सी आवाज़ सुनाई दी। हमने सड़क के किनारे एक मिस्त्री की दुकान पर गाड़ी को रोका। कार की जाँच करने के बाद मिस्त्री ने बताया कि कार के एक्सल में दरार आ गई थी और इसलिए हम अपना सफर जारी नहीं रख सकेंगे; कार को खींचने वाला ट्रक मँगवाकर उसे बड़े शहर ले जाना पड़ेगा। मेरा दोस्त और मैं इस बात को लेकर बहुत गुस्से में आ सकते थे और परेशान हो सकते थे क्योंकि हम तो समुद्र तट पर एक सुंदर रिसॉर्ट में जाकर अपनी सप्ताहांत की छुट्टी में आराम करना चाहते थे। लेकिन एक अलग दृष्टिकोण अपनाते हुए हमने इस घटना को बिल्कुल अलग अंदाज़ से देखा: “वाह, यह तो बहुत अच्छा है! अच्छा हुआ कि ऐसा हो गया, क्योंकि यदि हम अपने सफर को जारी रखते, तो चलती हुई कार का एक्सल टूट सकता था। हम भयंकर दुर्घटना का शिकार हो सकते थे और हम दोनों मारे भी जा सकते थे। इसलिए बहुत अच्छा हुआ कि यह इस प्रकार से परिपक्व हुआ। हम बिना तकलीफ के छूट गए।” इस प्रकार शांत चित्त से हम गाड़ी खींचने वाले ट्रक को लेकर शहर वापस लौटे, और वहाँ पहुँचने के बाद हमने किसी से एक दूसरी कार मांगी और किसी दूसरे स्थान के लिए निकल गए।

आप देख सकते हैं कि इस प्रकार की स्थिति में हम अनेक प्रकार से प्रतिक्रिया कर सकते थे। क्रोधित और परेशान होने से किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता था। यदि हम इसे इस दृष्टि से देखें: “इस प्रकार मेरे पुराने नकारात्मक कर्मों का बोझ कम हो रहा है। यह कार्मिक ऋण अब परिपक्व हो चुका है। बहुत अच्छा हुआ कि यह खत्म हुआ। मेरे साथ इससे भी बुरा हो सकता था,” स्थिति से निपटने का यह ज़्यादा समझदारी भरा तरीका है।

प्रेम तथा करुणा के प्रकार का धैर्य

एक और प्रकार का धैर्य होता है जिसे “प्रेम तथा करुणा के प्रकार का धैर्य” कहा जाता है। इस प्रकार के धैर्य को धारण कर हम ऐसे किसी भी व्यक्ति को उन्मादी या मानसिक रूप से विक्षिप्त समझते हैं जो हमारे ऊपर क्रोध करता है या हमारे ऊपर चीखता-चिल्लाता है। इस प्रकार के धैर्य को किसी ऐसे व्यक्ति के मामले में भी लागू किया जा सकता है जो दूसरों के सामने हमें शर्मिंदा करने का प्रयास करता है या हमारी आलोचना करता है, जिसके कारण हमारी बदनामी हो सकती है और हमें उसके ऊपर गुस्सा आ सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई तोता दूसरे लोगों के सामने हमें गालियाँ देने लगे; तो इससे हमारी बदनामी नहीं होगी, क्या होगी? उस पक्षी से क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। यह बड़ी नासमझी भरी प्रतिक्रिया होगी। इसी प्रकार यदि कोई उन्मादी व्यक्ति हमारे ऊपर चीखना-चिल्लाना शुरू कर दे तो दरअसल इससे हमारी बदनामी नहीं होती है। सभी जानते हैं कि बच्चे कभी-कभी गुस्से में बखेड़ा खड़ा करते हैं। इसी तरह यदि किसी मनोचिकित्सक का रोगी गुस्सा करने लगे तो चिकित्सक स्वयं क्रोधित नहीं हो जाता है, बल्कि रोगी के प्रति करुणा का भाव रखता है। 

इसी प्रकार हमें भी ऐसे किसी भी व्यक्ति के प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए जो हमें परेशान करता हो, हमारे ऊपर क्रोध करता हो या हमें शर्मिंदा करता हो। हमें समझना चाहिए कि वास्तव में बदनामी स्वयं उस व्यक्ति की ही हो रही है, है न? हमारी बदनामी नहीं हो रही है। हर कोई समझ जाता है कि यह व्यक्ति ही अपने आपको निपट मूर्ख की तरह प्रस्तुत कर रहा है। ऐसी स्थिति में हमें उस व्यक्ति पर क्रोधित होने के बजाए उसके प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए।

इसका मतलब यह नहीं है कि यदि कोई हमारे ऊपर प्रहार करने का प्रयास कर रहा हो फिर भी हमें उसे रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि हमारा बच्चा चीख-चिल्ला रहा हो तो हम उसे शांत करने का प्रयास करते हैं। हम उसे रोकना चाहते हैं ताकि वह हमें या दूसरों को और स्वयं अपने आप को नुकसान न पहुँचाए। महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे रोकने का काम क्रोध के कारण से न किया जाए। यदि हमारा बच्चा शरारत करता है तो हम उसे क्रोध के कारण अनुशासित नहीं करते हैं, बल्कि उसकी अपनी भलाई के लिए अनुशासित करते हैं। हम चाहते हैं कि बच्चे को अपयश न मिले, और लोग उसके बारे में बुरी राय कायम न करें। हम बच्चे को उसकी फिक्र के कारण अनुशासित करते हैं, गुस्से के कारण नहीं।

गुरु-शिष्य प्रकार का धैर्य

फिर एक “गुरु-शिष्य प्रकार का धैर्य” होता है। इसका आधार यह होता है कि कोई भी शिष्य गुरु के बिना ज्ञान अर्जित नहीं कर सकता है, और इसलिए यदि कोई हमारी परीक्षा न ले तो हम धैर्य विकसित नहीं कर सकते हैं। दसवीं शताब्दी में भारत के महान आचार्य अतीश को तिब्बत में बौद्ध धर्म को पुनरुज्जीवित करने के लिए आमंत्रित किया गया। ये भारतीय आचार्य अपने साथ एक रसोइया भी वहाँ लेकर गए। यह रसोइया कोई भी काम सही या सम्मानजनक ढंग से नहीं करता था; उसका व्यवहार बहुत निंदा योग्य और अप्रिय होता था। तिब्बत के लोग अतीश का बहुत सम्मान करते थे और इसलिए वे उनसे पूछा करते थे: “आचार्य, आप इस निंदनीय रसोइये को भारत से अपने साथ क्यों लेकर आए हैं? आप इसे वापस क्यों नहीं भेज देते? हम आपका भोजन पका सकते हैं; हम भी अच्छा भोजन पकाना जानते हैं।” अतीश ने उन्हें उत्तर दिया: “अरे, यह केवल मेरा रसोइया ही नहीं है। मैं इसे अपने साथ इसलिए लाया हूँ क्योंकि यह मुझे धैर्य सिखाने वाला शिक्षक भी है!” 

इसी प्रकार, यदि हमारे दफ्तर में कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसका व्यवहार निंदनीय हो, जो हमेशा दूसरों को नाराज़ करने वाली बातें कहता हो, तो हम ऐसे व्यक्ति को अपना धैर्य सिखाने वाला शिक्षक मान सकते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी आदतें हमेशा खीझ पैदा करने वाली होती हैं, जैसे हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति हमेशा अपनी उँगलियों से थपथपाता रहता हो। यदि कभी कोई हमारी परीक्षा न ले तो हम अपना विकास कैसे कर पाएंगे? यदि हमें हवाई अड्डे पर या बस अड्डे पर लम्बे विलम्ब जैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो हम उस स्वर्णिम अवसर का उपयोग धैर्य का अभ्यास करने के लिए कर सकते हैं: “आहा! मैं तो इसका अभ्यास करता रहा हूँ। मैं धैर्य विकसित करने का अभ्यास करता रहा हूँ, और अब मुझे यह परीक्षा करने का अवसर मिला है कि मैं वास्तव में धैर्य रख पाता हूँ या नहीं।” या, यदि हमें किसी कार्यालय से कुछ फॉर्म प्राप्त करने में कठिनाई हो रही हो तो हम इसे एक चुनौती के रूप में ले सकते हैं। “यह तो वैसा ही जिसका अभ्यास मैं कुछ समय से युद्ध कला सीखने के लिए करता आया हूँ और अब जब मुझे अपने कौशल का प्रयोग करने का मौका मिला है तो मैं बहुत खुश हूँ।” इसी प्रकार, यदि हम धैर्य और सहनशीलता का अभ्यास करते आ रहे हों, और फिर यदि ऐसी किसी अप्रिय स्थिति से हमारा सामना हो, तो फिर हम उसे देख कर बहुत खुश होंगे: “वाह! यह तो एक चुनौती है। देखें मैं अपना आपा खोए बिना, गुस्सा किए बिना, यहाँ तक कि मन में बुरा महसूस किए बिना इस स्थिति को संभाल पाता हूँ या नहीं।”

धैर्य को न खोना युद्ध कला के किसी मुकाबले से कहीं बड़ी चुनौती है। इसका कारण यह है कि यहाँ हमें चुनौती का सामना अपने शारीरिक बल और शारीरिक नियंत्रण के बजाए अपने चित्त, अपनी भावनाओं की सहायता से करना होता है। यदि दूसरे लोग हमारी आलोचना करते हैं तो हमें इस आलोचना को यह मालूम करने के अवसर के रूप में देखना चाहिए कि हमने अपने विकास की यात्रा में कितनी प्रगति की है, इसको लेकर क्रोध नहीं करना चाहिए। “हो सकता है कि मेरी आलोचना करने वाला यह व्यक्ति मेरे बारे में कुछ ऐसी चीज़ों को इंगित कर रहा हो जिनसे मैं कुछ सीख सकता हूँ।” इस प्रकार हमें आलोचना को सहने की कोशिश करनी चाहिए और अपने दृष्टिकोण को बदलकर आलोचना को सहना सीखना चाहिए। यदि हम बहुत नाराज़ हो जाएं, तो इससे हमें जो अपयश मिलेगा वह किसी उन्मादी व्यक्ति द्वारा की गई आलोचना और उसके चीखने-चिल्लाने से मिलने वाले अपयश की तुलना में कहीं अधिक होगा।

वस्तुओं या जीवों की प्रकृति के प्रति धैर्य रखना

“वस्तुओं या जीवों की प्रकृति के प्रति धैर्य रखना” क्रोध को नियंत्रित करने और धैर्य विकसित करने का एक और तरीका है। खराब और अशिष्टता का व्यवहार करना बचकाने लोगों की प्रकृति होती है। यदि हम आग की बात करें तो गर्म होना और जलाना उसकी प्रकृति है। यदि हम अपना हाथ आग में डालें और हमारा हाथ जल जाए तो हम उससे और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? आग गर्म होती है; इसलिए आग जलाती है। यदि हम दोपहर के भोजन के समय शहर में गाड़ी लेकर निकलें तो हम क्या उम्मीद कर सकते हैं? वह दोपहर के भोजन अवकाश का समय है और इसलिए भारी यातायात की भीड़-भाड़ तो होगी ही – चीज़ों की यही प्रकृति है। यदि हम किसी छोटे बच्चे को कोई ट्रे या गर्म चाय से भरा प्याला ले जाने के लिए कहें और वह उसे फैला दे, तो हम उससे क्या अपेक्षा कर सकते हैं? वह एक छोटा बच्चा है और हमें उससे यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए कि वह चीज़ों को न फैलाए। इसी प्रकार जब हम लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे हमारे लिए कोई काम कर दें या हमारे व्यापारिक लाभ के लिए कुछ कर दें, हम उनके साथ समझौता करते हैं, और फिर वे हमें निराश कर देते हैं तो इस स्थिति में हमें क्या अपेक्षा करनी चाहिए? लोग बचकाना व्यवहार करते हैं; हम दूसरों पर भरोसा नहीं कर सकते। भारत के महान आचार्य शांतिदेव ने कहा था: “यदि आप कोई सकारात्मक या रचनात्मक कार्य करना चाहते हैं, तो उसे स्वयं करें। किसी और के भरोसे न रहें। इसका कारण यह है कि यदि आप किसी और के भरोसे पर रहेंगे तो यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति आपको निराश नहीं करेगा।” ऐसी परिस्थितियों के बारे में हमारा यह नज़रिया होना चाहिए: “ठीक है, मैं क्या उम्मीद कर सकता था? यदि दूसरों को नीचा दिखा कर निराश करना ही लोगों की प्रकृति है, तो फिर मेरे क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है।”

यथार्थ धैर्य का क्षेत्र

क्रोध को नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले इस अंतिम तरीके को “यथार्थ धैर्य का क्षेत्र” कहा जाता है। हमारी यह प्रवृत्ति होती है कि हम स्वयं अपने आपको, दूसरों को और वस्तुओं को किसी प्रकार की दृढ़ पहचान के साथ जोड़कर देखते हैं। यह ऐसा है जैसे हम अपनी कुछ विशेषताओं के आसपास एक बड़ी सी काल्पनिक रेखा खींच लेते हैं और अपनी उस विशेषता को इस तरह ज़ोर देकर प्रदर्शित करते हैं कि जैसे यही हमारी मूर्त पहचान है: “यही मैं हूँ; इसे ही हमेशा मेरी पहचान समझा जाना चाहिए।” उदाहरण के लिए, “मैं दुनिया के लिए ईश्वर का वरदान हूँ,” या “मैं एक असफल व्यक्ति हूँ, नाकाम हूँ।” या हम किसी दूसरे के इर्द-गिर्द एक रेखा खींच देते हैं और कहते हैं: “वह बहुत बुरा है। उसमें कोई अच्छाई नहीं, वह परेशानियाँ खड़ी करने वाला व्यक्ति है।” लेकिन यदि यही उस व्यक्ति की मूर्त पहचान होती तो वह हमेशा वैसा ही रहा होता। बचपन में भी वह व्यक्ति वैसा ही रहा होता। सभी के साथ उसका व्यवहार बुरा रहा होता, उसकी पत्नी के साथ, उसके पालतू कुत्ते, बिल्ली के साथ, और उसके माता-पिता के साथ, क्योंकि वास्तव में वह एक बहुत खराब व्यक्ति है।

यदि हम यह समझ सकें कि लोगों के इर्द-गिर्द ऐसी कोई बड़ी मूर्त रेखा नहीं खिंची होती है जो उनकी मूर्त और वास्तविक पहचान या प्रकृति को दर्शाती हो, तो इससे भी हमारे क्रोध की तीव्रता कम होती है और फिर हमें उस व्यक्ति पर उतना क्रोध नहीं आएगा। हम जान पाते हैं कि इस व्यक्ति का खराब व्यवहार एक अस्थायी घटना थी – भले ही वह बार-बार घटित होता हो – और यह व्यवहार तय नहीं करता कि वह व्यक्ति हमेशा वैसा ही रहेगा।

लाभकारी आदतों को विकसित करना

हो सकता है कि कठिन परिस्थितियों में इन सभी बातों को लागू करना इतना आसान न हो। तर्क करने के ये सब तरीके “निवारक उपाय” कहलाते हैं। मैं “धर्म” को इस प्रकार से परिभाषित करता हूँ। “धर्म” वह उपाय है जिसका उपयोग हम समस्याओं के निवारण के लिए करते हैं। हम लाभकारी आदतों के रूप में धैर्य के इन विभिन्न प्रकारों को विकसित करने का प्रयास करके क्रोधित होने से बचना चाहते हैं। यही तो “ध्यानसाधना” है। तिब्बती भाषा में ध्यानसाधना के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द का अर्थ किसी लाभकारी चीज़ के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाने के उद्देश्य से “किसी चीज़ को अपनी आदत” बनाना है।

पहले तो हमें धैर्य के बारे में इन विभिन्न प्रकार की व्याख्याओं को सुनना चाहिए। फिर हमें इनके बारे में विचार करना चाहिए ताकि हम यह समझ सकें कि वे सही हैं या नहीं। यदि वे सही हों और यदि हमने उन्हें समझ लिया हो, और यदि हम उन्हें लागू करने के लिए प्रेरित भी हों, तो फिर हमें बार-बार इनका अभ्यास करके इन्हें एक लाभकारी आदत के रूप में विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।

ऐसा करने के लिए पहले तो हमें इन बातों को परखना चाहिए। इन्हें परख लेने के बाद हमें चीज़ों को इन बातों के नज़रिए से देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए। हम अपनी कल्पना से ऐसी स्थितियों के चित्र बना सकते हैं। हम किसी ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं जिसमें हमें अक्सर क्रोध आ जाता है और हम अशांत हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे दफ्तर में ऐसा व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति हो सकता है जो हमें पसंद न हो। पहले तो हम उस व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप में, एक मनुष्य के रूप में देखने का प्रयास करते हैं जो सुखी होना चाहता है और दुख नहीं चाहता है। हालाँकि वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन फिर भी वह किसी बच्चे के जैसा है जो वास्तव में यह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। यदि हम उसे इस नज़रिए से देखने और महसूस करने का प्रयास करेंगे और घर में शांति से बैठे हुए अपने चित्त में इसका अभ्यास करेंगे, और हम इसका जितना अधिक अभ्यास कर लेंगे, हमें उस व्यक्ति के प्रति अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया देने में उस समय उतनी ही अधिक सुविधा होगी जब वह हमारे खिलाफ बुरा व्यवहार करना शुरू करेगा। उसके ऊपर क्रोध करने के आवेग में बहने के बजाए हमारे चित्त में एक नए आवेग की उत्पत्ति होगी – और अधिक धैर्य से काम लेने, और अधिक सहिष्णु होने की प्रेरणा मिलेगी।

उस व्यक्ति के शरारतपूर्ण व्यवहार के प्रति धैर्य विकसित करने की दृष्टि से उसे एक बच्चे के रूप में देखने का अभ्यास कर लेने के बाद हम अपने अभ्यास को एक कदम और आगे ले जा सकते हैं। हम यह समझ पाते हैं कि इस प्रकार का खराब व्यवहार करने के कारण स्वयं उस व्यक्ति का ही ज़्यादा अपयश हो रहा है। इस प्रकार हम उस व्यक्ति के प्रति करुणा का भाव विकसित कर पाते हैं। हम ध्यानसाधना के माध्यम से इस प्रकार की दृष्टि और भावना को विकसित कर सकते हैं। जब चीज़ों को धैर्य के दृष्टिकोण से देखने और अनुभव करना एक लाभकारी अभ्यास बन जाता है तो यह अभ्यास हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है। कठिन परिस्थितियों का सामना करते समय यह हमारी सहज प्रतिक्रिया बन जाता है। जब हमारे चित्त में क्रोधित होने के लिए प्रेरणा उत्पन्न होती है तो हमें वैसा करने से पहले एक अंतराल मिल जाता है। हम तुरन्त क्रोधित नहीं होंगे और कुछ सकारात्मक प्रेरणाएं उत्पन्न हो जाएंगी जो लाभकारी ढंग से कार्य करेंगी। 

अक्सर बौद्ध धर्म पर उपदेश देते समय हम हर व्याख्यान से पहले श्वास की अनुभूति पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने श्वास की इक्कीस बार गणना करते हैं। जब हमें लगे कि हमें क्रोध आने वाला है उस समय भी यह अभ्यास बहुत उपयोगी रहता है। इससे हमें समय मिल जाता है कि हम कोई कठोर बात कहने के अपने नकारात्मक आवेग पर तुरंत अमल न करें, और हमें यह विचार करने का भी समय मिल जाता है कि क्या हम क्रोधित या अशांत होना चाहते हैं या नहीं। हम विचार करते हैं, “क्या मैं सचमुच बखेड़ा खड़ा करना चाहता हूँ या क्या इस स्थिति से निपटने का कोई और बेहतर विकल्प उपलब्ध है?” ध्यानसाधना और लाभकारी आदतों को विकसित करने के परिणामस्वरूप हम स्थितियों को और अधिक धैर्यपूर्वक देख सकेंगे और उनके प्रति अधिक सहनशील बन सकेंगे। हमें और अधिक सकारात्मक विकल्प सुझाई देंगे और स्वाभाविक है कि हम उन्हें ही चुनेंगे क्योंकि हम सुखी रहना चाहते हैं और हम जान पाएंगे कि ये वैकल्पिक तरीके उस इच्छित परिणाम को प्राप्त करने में हमारी सहायता करेंगे।

ऐसा करने के लिए हमें एकाग्रता की आवश्यकता होती है। इसीलिए बौद्ध धर्म में एकाग्रता को विकसित करने के कई तरीके सुझाए गए हैं। इन तरीकों को हम केवल वैचारिक अभ्यासों के रूप में ही नहीं सीखते हैं; इनका अभ्यास इन्हें प्रयोग और व्यवहार में लाने के लिए किया जाता है। इन्हें कब लागू किया जाना चाहिए? हम इनका उपयोग कठिन परिस्थितियों में बुरे व्यवहार वाले लोगों या खराब परिस्थितियों से निपटने के लिए करते हैं। ये तरीके हमारे चित्त में धैर्य बनाए रखने के लिए सहायक होते हैं।

सारांश

हम केवल आत्म-नियंत्रण और अनुशासन से ही अपने आपको नकारात्मक और विनाशकारी व्यवहार से नहीं बचा सकते हैं। यदि हम केवल आत्म-नियंत्रण और अनुशासन की सहायता से ऐसा करते भी हैं तो क्रोध हमारे भीतर बना रहता है। हम केवल बाहरी दिखावा कर रहे होते हैं जब कि हमारे भीतर क्रोध धधक रहा होता है जो नासूर बन जाता है। लेकिन इसके विपरीत जब हम इन तरीकों को सही ढंग से इस्तेमाल करते हैं तो क्रोध उत्पन्न तक नहीं होता। यह विषय क्रोध को नियंत्रित करने और उसे अपने भीतर दबाए रखने का नहीं है; बल्कि यह हमारे चित्त में आने वाले आवेगों को बदलने का विषय है। बजाए इसके कि नकारात्मक आवेग उत्पन्न हों जिन्हें हमें अपने भीतर नियंत्रित करके रखना पड़े, हमारे भीतर से सकारात्मक प्रेरणाएं उत्पन्न होंगी। 

एक बार यदि हम ऐसा कर लें तो हमारी प्रेरणा के आधार पर हम अपनी वर्तमान समस्याओं से मुक्त हो सकेंगे और भविष्य में हमारी समस्याएं और अधिक गम्भीर नहीं होंगी। या फिर, हमें किसी भी प्रकार की समस्या ही नहीं रहेगी, या, प्रबलतम और सर्वाधिक उन्नत प्रेरणा से हम अपने परिवार, अपने मित्रों, अपने आस-पास के लोगों के लिए कोई समस्या नहीं खड़ी करेंगे और दूसरों का अधिकाधिक हित कर पाएंगे। हम ऐसा इसलिए कर पाएंगे क्योंकि हमारी क्षमता हमारे अशांतकारी मनोभावों और समस्याओं के कारण सीमित नहीं होगी। इस प्रकार हम अपनी पूरी क्षमता तक स्वयं को विकसित कर पाएंगे।

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