बौद्ध आध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए हमें अपनी प्रेरणा में नैष्काम्य और करुणा की दो महत्वपूर्ण चित्तावस्थाओं को विकसित करने की आवश्यकता होती है। यहाँ मैं इन दोनों चित्तावस्थाओं से जुड़े कुछ विषयों के बारे में चर्चा करना चाहूँगा, विशेषतः इसलिए क्योंकि इन दोनों के बीच गहरा परस्पर सम्बंध है। दरअसल ये दोनों चित्तावस्थाएं एक ही हैं, बस अन्तर इस बात का होता है कि इनमें से प्रत्येक का लक्ष्य क्या है।
सभी बौद्ध शिक्षाओं का उद्देश्य हमें दुख और समस्याओं से मुक्ति दिलाने में हमारी सहायता करना होता है। इसके लिए प्रयोग की जाने वाली विधि यह है कि अपने भीतर दुख और समस्याओं के यथार्थ कारणों का पता लगाया जाए और स्वयं को उन कारणों से मुक्त किया जाए ताकि वे दुख उत्पन्न न कर सकें। यह विधि इस दृढ़ विश्वास पर आधारित है कि इन कारणों को इस प्रकार समाप्त करना सम्भव है कि वे दोबारा फिर कभी उत्पन्न न हो सकें। इसे हासिल करने के लिए हमें एक चित्त मार्ग विकसित करना होगा: एक ऐसा बोध जो हमारी समस्याओं के मूल कारण, जोकि मूलतः हमारा अज्ञान, हमारी अनभिज्ञता है, का प्रतिरोध करके उसे पूरी तरह समाप्त कर देगा।
यह विधि चार आर्य सत्यों, जोकि बुद्ध की पहली और सबसे आधारभूत शिक्षाएं हैं, की अवधारणा के अनुरूप है। यदि नैष्काम्य और करुणा को देखा जाए, तो हम पाते हैं कि दोनों इस कामना के साथ दुख पर लक्षित हैं कि दुख समाप्त हो जाए। इन दोनों के बीच मुख्य अन्तर यह है कि नैष्काम्य के मामले में हमारा चित्त स्वयं अपने दुख पर केंद्रित होता है, और करुणा के मामले में वह दूसरों के दुख पर केंद्रित होता है। इस प्रकार, चित्त की अवस्था बहुत मिलती-जुलती है, है न? लेकिन इसके बाद यह प्रश्न उठते हैं कि क्या यह मनोभाव वास्तव में एक ही है और हम एक मनोभाव से दूसरे का परिवर्तन किस प्रकार कर सकते हैं?
नैष्काम्य और करुणा का अर्थ
केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही नहीं बल्कि उन सभी दूसरी भाषाओं में भी “रिनन्सिएशन” शब्द का प्रयोग किया जाता है जिन भाषाओं के माध्यम से पश्चिम जगत में बौद्ध धर्म को प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन फिर भी मन में यह प्रश्न उठता है कि संस्कृत या तिब्बती भाषाओं में प्रयुक्त शब्द के लिए यह सही अनुवाद है या नहीं। मन में यह विचार आता है कि सम्भवतः इस शब्द को उन धर्मप्रचारकों के द्वारा गढ़ा गया होगा जो पश्चिम जगत में बौद्ध साहित्य के पहले-पहले अनुवादक रहे होंगे और जिन्होंने बौद्ध शिक्षाओं को मूल के बजाए एक अलग अवधारणा के ढांचे में समझा होगा। आखिर, “रिनन्सिएशन” शब्द का लक्ष्यार्थ इसलिए सब कुछ त्याग देना ही तो होता है क्योंकि दुनियादारी में लिप्त होना बुरा माना जाता है और, उसका अर्थ सब कुछ त्याग कर किसी गुफा में या मठ में जीवन व्यतीत करना ही तो होता है। लेकिन संस्कृत भाषा में प्रयुक्त शब्द (निःसरण) या तिब्बती भाषा के शब्द (न्गेस-ब्युंग) का वास्तविक अर्थ यह तो नहीं है। इस शब्द का, विशेष तौर पर यदि हम तिब्बती भाषा के शब्द को देखें, तो उसका अर्थ एक प्रकार का निश्चय होता है; उसका अर्थ निश्चय हासिल करना होता है। उसका आशय विशिष्टतः दुख से मुक्ति प्राप्त करने के निश्चय से होता है जिस पर वह भाव केंद्रित होता है।
दुख से मुक्ति पाने के इस दृढ़ निश्चय को विकसित करने के लिए दुख और उसके कारणों को त्यागने की तत्परता की आवश्यकता होती है। इसलिए इसमें किसी चीज़ को त्यागने या उससे विरत होने का भाव होता है। वह “कोई चीज़” दुख है और उसके कारण हैं जिनकी पहचान करने के बाद हम अपने ध्यान को उन पर केंद्रित करते हैं। हम हमें यह बोध हो जाता है कि हमें यह दुख है और उसका यह कारण है, और मैं इस दुख को और अधिक नहीं भोगना चाहता हूँ, मैं इससे बाहर निकलना चाहता हूँ, तब ही हम उसे त्यागने की तत्परता को जाग्रत कर सकते हैं। शायद इस बात को कहने की अधिक तटस्थ अभिव्यक्ति यह होगी कि, “मैं चाहता हूँ कि यह दुख समाप्त हो जाए।“ यह बात दोनों ही स्थितियों पर लागू होती है चाहे चित्त की यह व्यवस्था स्वयं हमारे अपने दुख पर केंद्रित हो, या करुणा के मामले में दूसरे लोगों के दुख पर केंद्रित हो। हालाँकि दुख को भोगने वाला व्यक्ति – स्वयं हम या फिर अन्य लोग – अलग होता है, लेकिन कामना एक ही रहती है। हम चाहते हैं कि दुख से मुक्ति हो जाए।
नैष्काम्य और करुणा को विकसित करने के लिए आवश्यक कारक
केवल यह जान लेना ही बहुत आवश्यक नहीं होता है कि हम अपना ध्यान किस चीज़ पर केंद्रित कर रहे हैं, यानी कोई विशिष्ट दुख और उसका वास्तविक कारण, जिसे हम भोग रहे होते हैं – बल्कि उसके साथ जुड़े दूसरे कारकों को समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है। त्सोंग्खापा ने अपने सूत्र तथा तंत्र सम्बंधी व्यावहारिक उपदेश में बहुत स्पष्ट तौर पर बताया है कि प्रभावशाली सामान्य ध्यानसाधना के लिए कौन-कौन से कारक आवश्यक होते हैं। सबसे पहले तो हमें समझना होगा कि ध्यानसाधना क्या है। ध्यानसाधना वह विधि है जिसके द्वारा हम बार-बार उस किसी विशेष चित्तावस्था को विकसित करके या उस पर अपने ध्यान को केंद्रित करके अपने चित्त को उस चित्तावस्था के प्रति अभ्यस्त बनाते हैं।
यह सीखने के लिए कि हम अपने चित्त को उस चित्तावस्था के प्रति अभ्यस्त किस प्रकार बनाएं, हमें उसकी सभी बारीकियों का बोध हासिल करने आवश्यकता होती है। हमें यह जाने की आवश्यकता होती है:
- वह चित्तावस्था किस बात या चीज़ पर केंद्रित है – इस मामले में वह दुख और उसके कारणों पर केंद्रित है,
- चित्त उस लक्षित बात या चीज़ को कैसे समझता है। इसके लिए तकनीकी अभिव्यक्ति है “चित्त उस लक्षित चीज़ को किस दृष्टि से देखता है।“ यहाँ हमारा चित्त उस लक्षित चीज़ को इस प्रकार से देखता है कि हम चाहते हैं कि वह समाप्त हो जाए। हमारा चित्त केवल दुख और उसके कारणों पर ही केंद्रित नहीं होता है। हमारा चित्त उन्हें इस दृष्टि से देखता-समझता है कि “चले जाओ!”
कोई भी चित्तावस्था एकाग्रता, प्रयोजन आदि जैसे बहुत से मानसिक कारकों का मिला-जुला रूप होती है। यदि हमें इन सभी कारकों का बोध हो तो हमें उस वांछित चित्तावस्था को विकसित करने में सहायता मिलती है। इसके लिए त्सोंग्खापा ने बहुत सी दूसरी बातें भी बताई हैं जिन्हें हमें भी जानना चाहिए। इनमें निम्नलिखित चीज़ें शामिल हैं:
- वह चित्तावस्था किन बातों पर आधारित है – यानी, उस चित्तावस्था को विकसित करने से पूर्व हमें और किन-किन चित्तावस्थाओं को विकसित करने की आवश्यकता है, इससे हमें वांछित चित्तावस्था को विकसित करने की प्रक्रिया में मदद मिलेगी, उदाहरण के लिए हमें स्वयं अपने भीतर और दूसरों के भीतर दुख की पहचान करनी होगी;
- हम जिस चित्तावस्था को विकसित करना चाहते हैं उसे विकसित करने में कौन-कौन से मानसिक कारक सहायक होंगे और कौन से कारक बाधक होंगे – उदाहरण के लिए, प्रेम का भाव, स्वयं अपने प्रति या दूसरों के प्रति, सहायक होगा; और घृणा का भाव, स्वयं के प्रति हो या दूसरों के प्रति, उस चित्तावस्था को विकसित करने में बाधक होगा।
- जब हम उस चित्तावस्था को विकसित कर लेंगे तो वह किस प्रकार लाभकारी और उपयोगी होगा – उदाहरण के लिए, नैष्काम्य हमें उपने दुख से मुक्ति पाने में सहायक होगा, और करुणा हमें इस प्रकार सहायता करेगी कि हम दूसरों को अपने दुख से मुक्त होने के योग्य बना सकें।
हालाँकि यह सब बहुत तकनीकी विवरण जैसा प्रतीत हो सकता है, लेकिन वास्तव में यह बौद्ध साधना या प्रेम या करुणा जैसे भावों को विकसित करने के लिए किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना में बेहद उपयोगी साबित होता है। यह सब किया कैसे जाए? प्रायः ऐसा होता है कि हमें ठीक-ठीक मालूम ही नहीं होता है कि प्रेम या करुणा क्या क्या मतलब है, और हम बैठे-बैठे सोचते रहते हैं पर हमें कुछ सुझाई नहीं देता है। या ऐसा हो सकता है कि प्रेम या करुणा के बारे में हमारी अपनी ही कोई धारणा हो, लेकिन आम तौर पर हमारे अपने विचार बहुत अस्पष्ट होते हैं। यदि हम किसी अस्पष्ट भाव को विकसित करने का प्रयास करेंगे तो अधिक से अधिक हम यही अपेक्षा कर सकते हैं कि हमें उसकी अस्पष्ट सी अनुभूति होगी, और बौद्ध धर्म हमें ऐसी अस्पष्ट अनुभूतियों की विकसित करने की बात नहीं सिखाता है।
हालाँकि बौद्ध साधना में हम “आध्यात्मिक मान्यताओं” चित्त की अवस्थाओं आदि के बारे में अभ्यास करते हैं, लेकिन उनके अभ्यास का तरीका एकदम वैज्ञानिक और सटीक होता है। इसे सटीक इसलिए कहा जाता सकता है क्योंकि हमें ठीक-ठीक मालूम होता है कि हम अपने चित्त के साथ क्या करना चाहते हैं और उसे करने का तरीका क्या है। यदि इस बात को लेकर सटीकता हो कि हम अपने चित्त, हृदय, और मनोभावों से सम्बंधित अभ्यास कैसे करेंगे, तो हम इन्हें सकारात्मक ढंग से विकसित कर सकते हैं। अन्यथा यह सब बहुत ही अनिश्चित सा होगा।
हो सकता है कि हम में से कुछ लोगों का दृष्टिकोण बहुत वैज्ञानिक या तर्क आधारित न हो। हो सकता है कि हममें से कुछ लोग अन्तर्बोध या सहजज्ञान से अधिक काम लेते हों और मनोभावों पर अधिक ध्यान देने वाले हों। लेकिन यदि हम सहजज्ञान के बारे में अधिक गहराई से सोचें तो हम पाएंगे कि सबसे अच्छा सहजज्ञान वही है जो सटीक हो। अस्पष्ट सहजज्ञान हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकता है। इसलिए, हमारा व्यक्ति जैसा भी हो, सटीकता का होना बहुत उपयोगी होता है।
नैष्काम्य और करुणा के साथ जुड़े हुए मानसिक कारक: “बहुत हो चुका” का निश्चायक भाव
नैष्काम्य और करुणा के साथ कौन-कौन से मानसिक कारक जुड़े होते हैं? मैं यहाँ एक स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करना चाहूँगा कि बौद्ध शिक्षाओं में बताई गई ये मनोदशाएं कौन सी हैं। लेकिन यदि हम इन चित्तावस्थाओं और मनोभावों का सटीकता से वर्णन कर भी लें, तब भी यह सहज प्रश्न उठता है कि वास्तव में हमें इनकी अनुभूति किस प्रकार हो सकती है? और, फिर हमें यह कैसे मालूम होगा कि जो हमें जो अनुभूति हो रही है वह वास्तविक ही है?
और, यदि हमें इस बात की सटीक जानकारी हो कि वास्तविक होने के लिए इन चित्तावस्थाओं में कौन से गुण होने चाहिए, तो हम तुलना करके देख सकते हैं कि हमें कैसा अनुभव हो रहा है और वास्तविक अनुभूति कैसी होनी चाहिए। अपनी वर्तमान अनुभूति की जाँच करने के लिए हम उस अनुभूति को विखंडित करके उसके सभी अवयवों की जाँच कर सकते हैं और पता लगा सकते हैं कि उस अनुभूति के कौन से ऐसे अवयव हैं जो कमज़ोर या दोषपूर्ण हैं। तब हमें मालूम हो सकेगा कि उस चित्तावस्था को और अधिक सटीक ढंग से विकसित करने के लिए हमें क्या सुधार करने की आवश्यकता है। अपनी भावनाओं का विश्लेषण करने और उन्हें समझने की प्रक्रिया कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जो भावनाओं को नष्ट कर देने वाली हो। मनश्चिकित्सा में भी इस प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है ताकि हम स्वस्थ हो सकें और दूसरों के साथ-साथ स्वयं अपने लिए भी और अधिक उपयोगी बन सकें।
नैष्काम्य और करुणा में वह कौन सा मनोभाव है जो अधिक प्रबल रहता है? तिब्बती भाषा में इसके लिए “यिद-ब्युंग” शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अनुवाद कर पाना आसान नहीं है। लेकिन यह किसी बात या चीज़ से ऊब जाने की अवस्था होती है: “मैं किसी बात को बहुत बर्दाश्त कर चुका हूँ।“ कभी-कभी इसका अनुवाद “अरुचि” के रूप में की जाती है जो कि एक अधिक कठोर अभिव्यक्ति है, और पूर्व में मैं स्वयं भी इसका अनुवाद इसी रूप में कर चुका हूँ। लेकिन बाद में और अधिक विचार करने पर मैंने पाया है कि यह एक ज्यादा कठोर शब्द है क्योंकि अरुचि की आगे चलकर घृणा में परिणत हो जाने की बहुत सम्भावना होती है। मुझे लगता है कि इस मनोभाव की रंगत इससे कहीं अधिक तटस्थ है। “दुख बहुत हुआ, इसे खत्म होना ही होगा” – चाहे दुख स्वयं हमारा हो या किसी दूसरे का हो। इस प्रकार, इसमें एक प्रकार से निश्चायक होने का भाव होता है। “बस, बहुत हुआ!”
मुझे लगता है कि इसे हम अपने सामान्य अनुभव से समझ सकते हैं। हम दुख से गुज़र रहे हो सकते हैं और उससे बाहर निकलना चाहते हैं। लेकिन हम उससे बाहर निकलने के लिए तब तक वास्तव कुछ नहीं करते हैं जब तक कि हम दृढ़तापूर्वक निश्चय न कर लें और उस सीमा तक न पहुँच जाएं जहाँ हम कहें, “बस, बहुत हुआ।“ इसलिए, यह अनुभूति कि “बहुत हो चुका” नैष्काम्य का एक अवयव है और यह एक प्रमुख भावनात्मक भेद है।
किसी तथ्य को सत्य मानना
किसी तथ्य को सत्य मानना एक अन्य मानसिक कारक है जो नैष्काम्य और करुणा से जुड़ा होता है। कई बार इसका अनुवाद “निष्ठा” के रूप में किया जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि यह अनुवाद अनुपयुक्त है। अनुपयुक्त इसलिए है क्योंकि निष्ठा तो किसी असत्य या अनिश्चित चीज़ में भी हो सकती है, जैसे किसी अर्थव्यवस्था के सतत विकास में निष्ठा रखना। लेकिन यहाँ किसी तथ्य में विश्वास रखने की बात किसी ऐसी चीज़ के बारे में है जो सत्य हो, और उसे सत्य माना गया हो। यहाँ हम ईस्टर पर्व से जुड़े खरगोश के सत्य होने पर विश्वास करने की बात नहीं कर रहे हैं।
तर्क पर आधारित तथ्य पर विश्वास करना
किसी तथ्य में तीन प्रकार की मान्यताएं होती हैं। पहले प्रकार की मान्यता तर्क पर आधारित किसी तथ्य पर विश्वास करने की होती है। इस मान्यता में हम ध्यान को दुख पर केंद्रित करते हैं और इस तथ्य पर दृढ़ विश्वास करते हैं कि यही वास्तव में दुख है और यह अमुक कारण से उत्पन्न हुआ है। इसके अलावा, हमारी यह निश्चित मान्यता होती है कि इस दुख को दूर किया जा सकता है, और इसे सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है।
अन्तिम अवयव बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि तर्क पर आधारित यह निश्चित मान्यता न हो कि दुख को समाप्त किया जा सकता है और कोई विशेष प्रतिकारी उपाय इसे सदा-सदा के लिए समाप्त कर सकता है, तो पूरा भावात्मक प्रकार ही बदल जाएगा। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हमें अपने जीवन में कोई समस्या हो और हमें उसके कारण का भी कुछ बोध हो। हो सकता है कि हम उस समस्या से बाहर निकलना चाहते हों, और यह भी हो सकता है कि हम उस स्थिति तक भी पहुँच चुके हों जहाँ हमें पूरी तरह महसूस होता हो कि हम बहुत सहन कर चुके हैं। हम उस स्थिति से निपटने के लिए सचमुच कुछ करना चाहते हैं। लेकिन मान लीजिए कि हमें ऐसा लगता हो कि प्रयास करना बेकार है, वास्तव में हमारी उस समस्या के बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है और हमें खामोशी से उसे सहते रहना सीखना होगा। या कि हमें ऐसा लगता हो कि हम हमेशा-हमेशा के लिए उस समस्या को सहते रहने के लिए अभिशप्त हैं। बौद्ध धर्म में बताई गई तथ्य में विश्वास की अवस्था से यह एक बिल्कुल ही अलग चित्तावस्था है, है न? चित्त की ऐसी अवस्था में जहाँ हमें लगता हो कि कोई उम्मीद ही नहीं है, उस स्थिति को लेकर व्यक्ति का अवसादग्रस्त हो जाना बहुत ही आम बात है। हम बुरी तरह कुंठित हो जाते हैं क्योंकि हालाँकि वास्तव में हम अपनी उस समस्या से बाहर निकलना चाहते हैं, लेकिन हमें यह अनुभव होता है कि यह तो केवल अभिलाषा को वास्तविकता समझने वाली बात है और इसमें करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है।
यही कारण है कि यहाँ हमारा यह दृढ़ विश्वास कि हम अपने दुखों से सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं, तर्क पर आधारित होना चाहिए। हम यह बोध हासिल करते हैं कि हम स्वयं को समस्या से मुक्त कर सकते हैं और हमें दृढ़ विश्वास होता है कि हमारा प्रयास कारगर होगा। इससे हमारे भीतर आशा जागती है, और आशा से हमें बल मिलता है, और स्वयं को समस्या से मुक्त करने के लिए कुछ करने योग्य बनने की दृष्टि से यह बल बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। तर्क के आधार पर किसी तथ्य पर विश्वास करने का यही अर्थ है।
किसी चीज़ से सम्बंधित तथ्य पर विचारशीलतापूर्वक विश्वास करना
किसी तथ्य को सत्य मानने के बारे में दूसरे प्रकार की मान्यता को “किसी चीज़ से सम्बंधित तथ्य पर विचारशीलतापूर्वक विश्वास करना” कहते हैं। यह मान्यता हमारे विचारों को इस दृष्टि से स्पष्ट कर देती है कि यह ध्येय को हटाए बिना हमारे चित्त को अशांतकारी मनोभावों से मुक्त कर देती है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि यह विश्वासयुक्त मान्यता कि दुख को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है, हमारे चित्त को अवसादमुक्त कर देती है; अपनी स्थिति के बारे में हमारे मन को संदेह से मुक्त कर देती है; हमारे मन को असहाय होने और भय के भाव से मुक्त कर देती है। जब हम बहुत सी समस्याओं और कठिनाइयों से घिरे होते हैं तो हम बड़े भय में जीते हैं और सोचते हैं, “हमेशा ऐसा ही चलता रहेगा” या “मुझे कुछ भी करने से डर लगता है कि कहीं मैं स्थिति को और ज्यादा न बिगाड़ दूँ।“
मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि हम सभी स्वयं अपने भीतर या फिर दूसरों में इसके उदाहरणों से परिचित हैं। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम किसी व्यक्ति के साथ ऐसे सम्बंध में हों जो बहुत खराब हो, विनाशकारी हो, दुर्व्यवहारपूर्ण हो, लेकिन फिर भी हम उस सम्बंध का विच्छेद इस डर से नहीं करते हैं कि कहीं उस व्यक्ति के बिना जीवन और भी दूभर न हो जाए। लेकिन हम अपने चित्त को इस दृढ़ मान्यता के साथ भय और अनिर्णय से मुक्त कर सकते हैं कि इस सम्बंध को समाप्त करके हम अपनी समस्या से मुक्त हो सकते हैं और इस सम्बंध को समाप्त करने से हमारे जीवन में सब कुछ बेहतर हो जाएगा।
दूसरे प्रकार की दृढ़ मान्यता के साथ हम दुख की नकारात्मकता को बढ़ा-चढ़ा कर देखने की समस्या से भी मुक्त हो जाते हैं। हो सकता है कि वास्तव में हमें समस्या हो, लेकिन यदि हम उस समस्या की नकारात्मकता को बढ़ा-चढ़ा कर देखेंगे तो अपने मन में एक भयानक हौआ खड़ा कर लेंगे। हम अपनी उस समस्या को मूर्त रूप भी दे सकते हैं जिसके कारण हमारा भय और अधिक बढ़ जाता है। लेकिन यदि हमारा नैष्काम्य इस विचारशीलतापूर्ण विश्वास पर आधारित हो कि दुख से स्थायी मुक्ति सम्भव है, तो फिर हमें डर नहीं लगता है। हम अपनी समस्याओं से भागते नहीं हैं, भय में आश्रय नहीं ढूँढते हैं, बल्कि हम अपनी समस्याओं का सामना करते हैं और इस दृढ़ मान्यता के साथ उन्हें नियंत्रित करते हैं कि हम अपने प्रयास में सफल होंगे।
इसलिए हमें इस बात की सावधानी बरतने की आवश्यकता है कि हम “संसार के बंदीगृह से छूटने” जैसी अभिव्यक्तियों से जुड़ी भावनात्मक अवस्थाओं को किस दृष्टि से देखते हैं। ऐसा नहीं होता है कि अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाले दुख के कारण हमारी सांसारिक स्थिति को लेकर भय या घृणा के कारण हमारे चित्त में अस्तव्यस्तता या भ्रम हो। इस विचारशीलतापूर्ण विश्वास के साथ कि यह एक तथ्य है कि हम अपने आप को इन सभी दुखों से मुक्त कर सकते हैं, हमारी चित्तावस्था शांत, स्पष्ट और निश्चित होती है।
किसी तथ्य से सम्बंधित आकांक्षा के साथ उस तथ्य पर विश्वास करना
तीसरे प्रकार की मान्यता किसी तथ्य से सम्बंधित आकांक्षा के साथ उस तथ्य पर विश्वास करने से जुड़ी होती है। यहाँ आकांक्षा यह है कि, “मैं इस स्थिति से बाहर निकलूँगा, और इससे बाहर निकलने के लिए कुछ करूँगा।“ इस प्रकार की चित्तावस्था के रूप में हम किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण ले सकते हैं जो गरीबी में पला-बढ़ा हो और उसकी सीमाओं के बंधनों को तोड़कर जीवन में और अधिक सफल होने के लिए दृढ़ संकल्प हो। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों के मन में अपनी स्थिति को लेकर घृणा का भाव होता है। वे अपने मन में बड़े स्पष्ट, शांत होते हैं और उन्हें मालूम होता है कि उन्हें अपनी गरीबी से बाहर निकलने के लिए क्या करने की ज़रूरत है, और वे वैसा करने के लिए निश्चय किए हुए होते हैं, क्योंकि वे उस स्थिति को और अधिक बर्दाश्त नहीं करना चाहते हैं। उन्हें मालूम होता है कि उन्हें क्या करना है, और वे सीधे वैसा ही करते हैं।
मुझे अपने एक मित्र का उदाहरण याद आता है जो एक बहुत ही गरीब परिवार में पला-बढ़ा था और बड़े ही विषम इलाके से आया था। वह एक ऐसे स्कूल में पढ़ा था जहाँ उसकी कक्षा के अधिकांश छात्र गिरोहों में शामिल थे और आपस में लड़ते-झगड़ते थे। उसने अपनी स्थिति से मुक्ति पाने का निश्चय कर रखा था। वह जानता था कि उसे क्या करना है; उसने विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए पैसा और अवसर पाने के लिए कड़ी मेहनत की। विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर उसने चिकित्साविज्ञान का अध्ययन किया और आज वह एक एक बहुत ही सफल मस्तिष्क शल्यचिकित्सक है।
करुणा और नैष्काम्य के अवयव एक समान होते हैं
जब हमारा नैष्काम्य हमारे अपने दुख पर ही केंद्रित होता है तब उसकी यही स्थिति होती है। जब वह दूसरों के दुखों पर केंद्रित होता है, तब भी उसकी वही स्थिति होती है। हमारा चित्त दूसरों के दुख पर केंद्रित होता है और हमारा चित्त उसे इस दृष्टि से देखता है कि, “इसे समाप्त होना चाहिए।“ उसके साथ जुड़ी हुई चित्तावस्था और मनोभाव यही होती है, “बहुत हो चुका।“ हमें यह बोध होता है कि दूसरे सभी लोग उन्हीं समस्याओं से जूझ रहे हैं जिनका हम स्वयं भी सामना करते हैं, लेकिन हम इस बात को लेकर विरुचि या असहायता का भाव अनुभव नहीं करते हैं। ये मनोभाव भी अशांतकारी मनोभाव ही हैं। हमें अपने बोध पर विश्वास और भरोसा होता है कि यही उनकी समस्याओं का कारण है और दूसरे लोगों के लिए भी यह सम्भव है कि वे भी इन समस्याओं से बाहर निकल सकते हैं। ऐसा नहीं होता है कि हम केवल उनकी भलाई की कामना ही करते हैं, लेकिन अन्तर्मन में हम जानते हैं कि यह स्थिति निराशाजनक है। हमारी मान्यता विवेकशील मान्यता होती है, और इसलिए इस करुणा के प्रभाव से हमारा चित्त अशांतकारी मनोभाव से मुक्त हो जाता है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है।
मैं दूसरे उदाहरणों के बारे में बात करना चाहूँगा। मुझे याद है कि मेरी माँ अमेरिकी टेलीविज़न पर स्थानीय खबरें देखा करती थीं और हर दिन होने वाली हत्या, डकैती, बलात्कार आदि की घटनाओं के बारे में सुना करती थीं जिन्हें सुनकर वे बहुत क्रोधित होकर भड़क उठती थीं: “कितनी बुरी बात है; ऐसा नहीं होना चाहिए।“ यह भाव करुणा जैसा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह एक बहुत ही अशांतकारी मनोभाव है। यह तो “वास्तविक” करुणा नहीं है। यह तो करुणा और चिन्ता के भाव के साथ-साथ क्रोध और परेशानी के भावों का मिश्रण है।
करुणा – “वास्तविक” करुणा – कोई अस्तव्यस्तता का मनोभाव नहीं है; वह तो एक निर्मल चित्तावस्था है। वह तो इस आकांक्षा वाली मान्यता के साथ जुड़ी होती है कि, “मैं इसे ठीक करने के लिए कुछ करने का प्रयास करूँगा, इस दुख को दूर करने में सहायता करूँगा।“ इस प्रकार यह सिर्फ ऐसी कामना मात्र नहीं है कि “उन लोगों को” इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ करना चाहिए, बल्कि मैं मदद करने का प्रयास करूँगा। किन्तु, यह आकांक्षा और यह प्रयोजन इस व्यावहारिक बोध पर आधारित होना चाहिए कि समस्या क्या है और हम उसे दूर करने के लिए क्या कर सकते हैं। यह कोई ऐसा मिश्रित विचार नहीं होता है कि, “मैं ही सर्वशक्तिमान ईश्वर हूँ और मैं बाहर निकल कर दुनिया की रक्षा करूँगा,” और “यदि मैं इस व्यक्ति की मदद करने में सफल हुआ तो मैं कितना अच्छा व्यक्ति हूँ; और यदि मैं नाकाम रहा, तो मैं दोषी हूँ।“ यही कारण है कि हमें अच्छी तरह बोध होना चाहिए और उस प्रक्रिया पर भरोसा होना चाहिए जिसकी सहायता से दुख को दूर किया जा सकता है। यह प्रक्रिया अनेकानेक कारणों और कारकों पर निर्भर होती है, केवल मेरी इच्छा शक्ति और दुख को दूर कर देने की मेरी कामना पर ही निर्भर नहीं होती है।
पीड़ा और दुख के कष्ट पर केंद्रित नैष्काम्य और करुणा
जैसाकि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, नैष्काम्य या करुणा को विकसित करने के लिए आवश्यक पहला अवयव यह है कि ये भाव दुख, चाहे वह स्वयं हमारा अपना हो या फिर दूसरों का हो, पर केंद्रित होने चाहिए। उस स्थिति में, पहला प्रश्न यह उठता है कि यह भाव किस प्रकार के दुख पर केंद्रित होता है? बुद्ध ने तीन प्रकार के यथार्थ दुख के बारे में बताया था। यहाँ उसके बारे में बहुत ज्यादा विस्तार में जाए बिना हम कह सकते हैं कि पहले प्रकार का दुख जिस पर हम ध्यान केंद्रित कर सकते हैं वह पीड़ा और दुख का है।
पीड़ा और दुख के खत्म होने की कामना करना इतना कठिन भी नहीं है। मैं विश्वासपूर्क कह सकता हूँ कि हम सभी दंतचिकित्सक की कुर्सी पर बैठ कर इसका अनुभव कर चुके हैं। लेकिन विचार करने की दृष्टि से दरअसल यह एक बहुत ही रोचक प्रश्न है। जब हम किसी दंतचिकित्सक की कुर्सी पर बैठे होते हैं और दंतचिकित्सक द्वारा नोवोकेन दवा दिए बिना ही हमारे दाँतों पर ड्रिल चलाए जाने की पीड़ा को सहन कर रहे होते हैं तो क्या उस पीड़ा के प्रति हमारे मन में नैष्काम्य का भाव होता है? क्या वह हमारे चित्त की अवस्था होती है? मुझे लगता है कि हममें से अधिकांश के मन में भय और चिंता का भाव होता है। जहाँ तक नैष्काम्य की बात है, हमारा ध्यान हमें अनुभव हो रही पीड़ा पर केंद्रित होता है, लेकिन नैष्काम्य की स्थिति के विपरीत, यहाँ सामान्यतया हम इस पीड़ा को बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं और उसे एक हौवा बना लेते हैं। और हम शांत चित्त तो बिल्कुल ही नहीं होते हैं।
लेकिन कल्पना कीजिए कि हम इस स्थिति को नैष्काम्य के भाव से देखें। तब भी हमारा ध्यान ड्रिलिंग के कारण होने वाली पीड़ा पर ही केंद्रित होगा। हम उस दर्द के खत्म हो जाने की कामना करेंगे। हम उसे बहुत बर्दाश्त कर चुके हैं और हमें विश्वास है कि हम उससे मुक्त हो सकते हैं। लेकिन अब इसमें एक दिलचस्प जटिलता प्रवेश करती है। हम यह बोध हासिल कर सकते हैं कि हम धैर्य धारण करके और उस प्रक्रिया के खत्म होने की प्रतीक्षा करके उस दर्द से मुक्ति पा सकते हैं। ऐसा नहीं होने जा रहा है कि हम जिंदगी भर दंतचिकित्सक की कुर्सी पर ही बैठे रहेंगे और चिकित्सक हमारे दाँत में ड्रिलिंग करता रहेगा। इस स्थिति में अनित्यता का भाव है और ड्रिलिंग की प्रक्रिया खत्म हो जाने वाली है; बस हमें उसे बर्दाश्त करना है। इस सोच के साथ हम शांत बने रह सकते हैं और आश्वस्त रह सकते हैं कि यदि हम शांत बने रहें और दंतचिकित्सक की कुर्सी पर बैठे हुए घबरा न जाएं और तनावग्रस्त न हो जाएं, तो ड्रिलिंग की पीड़ा की तकलीफ खत्म हो जाएगी।
एक दूसरी सम्भावना यह हो सकती है कि हमें यह विश्वास हो कि हम इस पीड़ा की तकलीफ के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदल कर इससे मुक्त हो सकते हैं। इसका सम्बंध प्रतिकूल स्थितियों को सकारात्मक स्थितियों में बदलने के लिए चित्त साधना या दृष्टिकोण को साधने की विधि से है। उदाहरण के लिए, यदि हम तिब्बत में या दुनिया भर में दूसरे स्थानों पर प्रताड़ित किए जा रहे लोगों की पीड़ा के बारे में सोचें तो हमें समझ में आएगा कि उसकी तुलना में हमारी पीड़ा बड़ी तुच्छ है। अपनी पीड़ा की सापेक्षता को समझने से हमें अपनी अपेक्षाकृत छोटी तकलीफों में स्वयं को शांत बनाए रखने में सहायता मिलती है और वह हमें उतनी अधिक पीड़ा नहीं पहुँचाती है। पीड़ा तो फिर भी बनी रहेगी, लेकिन वह इतनी बड़ी बात नहीं रह जाती है।
इन दोनों ही उदाहरणों में हम नैष्काम्य की स्थिति में होते हैं। हम किस चीज़ का त्याग कर रहे होते हैं? सतही स्तर पर हम पीड़ा का त्याग करते हैं। लेकिन पीड़ा के प्रति हमारा दृष्टिकोण जैसा भी हो, हम तत्काल उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं; हमें तब भी ड्रिलिंग बंद होने तक दर्द की भौतिक अनुभूति होती रहती है। दरअसल, जब तक दंतचिकित्सक अपना काम पूरा नहीं कर लेता है तब तक दर्द की अनुभूति होती रहेगी, भले ही हम उसका त्याग कर दें या न करें। लेकिन इस बात के प्रति आश्वस्त होकर कि ड्रिलिंग के कारण होने वाली पीड़ा अस्थायी है और उसकी अनित्यता के कारण हम जल्दी ही उससे मुक्त हो जाएंगे, हम पीड़ा को सहन कर पाते हैं। इस प्रकार यदि हम अधिक गहराई से देखें तो हम दरअसल उस दुख का त्याग कर रहे होते हैं जिसका अनुभव हमें भौतिक पीड़ा को भोगते समय हो सकता था। दृष्टिकोण में बदलाव करके हम तत्काल उस दुख से मुक्त हो सकते हैं।
जब दंतचिकित्सक की कुर्सी पर बैठे होने के हमारे अनुभव के साथ भय और चिंता के भाव जुड़ जाते हैं तो ये मानसिक अवस्थाएं हमें और अधिक दुख देती हैं और हमारी स्थिति को और भी बदतर बना देती हैं। लेकिन यदि हम पीड़ा की अनित्यता या उसकी सापेक्षता के बोध की सहायता से पीड़ा के बारे में अपने दृष्टिकोण को बदल लेते हैं, तो हम इस बात के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं कि हमें ड्रिलिंग के कारण मानसिक या भावनात्मक कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा।
इस प्रकार नैष्काम्य की साधना की जाती है जो इस बोध पर आधारित होती है कि हम किस चीज़ का परित्याग कर रहे हैं और दृष्टिकोण को बदल कर हम वास्तव में किन-किन चीज़ों से मुक्त हो सकते हैं। हम परित्याग कर रहे होते हैं:
- किसी भौतिक संवेदना की अनुभूति से सम्बंधित दुख की अनुभूति का,
- पीड़ादायी मानसिक और भावात्मक अवस्थाओं का,
- इन पीड़ादायी मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं से सम्बंधित दुख की अनुभूति का।
दृष्टिकोण में बदलाव दुख की अनुभूति की स्थिति को पूरी तरह से बदल देता है। हमने इसके उदाहरण उन महान लामाओं के रूप में देखे हैं जिनकी मृत्यु पाश्चात्य जगत के अस्पतालों में कैंसर के कारण या किसी दूसरी मरणांतक बीमारी के कारण हुई है। बेशक वे शारीरिक पीड़ा से होकर गुज़रे होंगे, लेकिन यह बात भी निश्चित है कि उन्होंने दुखी होने और उस पीड़ा से भयभीत होने के भाव का परित्याग किया है। बल्कि वे दूसरों के कष्ट और शोक, खास तौर पर स्वयं को असहाय महसूस करने वाले चिकित्सकों की विकलता के बारे में सोचकर पूरी स्थिति को बदल डालते हैं। ये लामा इस बात का विशेष खयाल रखते हैं कि उनके चिकित्सक को कैसा महसूस हो रहा है और उसी प्रकार उनसे मिलने और सम्मान प्रकट करने के लिए आने वाले लोग भी कैसा महसूस करते हैं।
उनके द्वारा अपनी बीमारी से निपटने के लिए अपनाए जा रहे इस दृष्टिकोण का आधार क्या है? वह आधार नैष्काम्य और करुणा का है। वे लामा लोग स्वयं अपने प्रति और उस स्थिति से जुड़े दूसरे सभी व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण के लिहाज़ से तनाव और मानसिक पीड़ा का परित्याग कर चुके हैं। वे केवल नैष्काम्य से युक्त होने का दिखावा भर नहीं कर रहे हैं। ये लामा केवल बाहरी तौर पर ऐसा नहीं कहते हैं, “सब ठीक है; मैं ठीक हूँ, आप चिंता न करें,” परन्तु भीतर से उन्हें ठीक महसूस नहीं होता है। यदि उन्हें ठीक महसूस होता तो वे इस प्रकार की विचारशील मान्यता से युक्त न होते: वह दृढ़ विश्वास जो इस बोध के कारण भय और कष्ट को दूर कर देता है कि अमुक प्रकार के प्रतिकारी कारक का प्रयोग करने से इस स्थिति का पूरा तनाव दूर हो जाएगा। हाँ, लामाओं की तरह हम भी नैष्काम्य और करुणा की इन साधनाओं से जितने अधिक परिचित होंगे, हमारे भीतर नैष्काम्य अपनी समग्रता में सभी कारकों सहित उतनी ही सहजता से उत्पन्न हो जाएगा। उसे कृत्रिम ढंग से उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
कठिन परिस्थिति का एक और उदाहरण हमारी नौकरी के चले जाने या हमारे बचाए हुए धन का छिन जाना है। हालाँकि हमें उस स्थिति में बहुत बुरा लग सकता है, लेकिन दूसरे किसी भी व्यक्ति को रोज़गार छिन जाने पर या अपनी बचत के धन के छिन जाने पर वैसा ही महसूस होता है। हम चाहते हैं कि यह दुख और अवसाद, चाहे हमारा अपना हो या दूसरों का हो, समाप्त हो जाए। नैष्काम्य से करुणा की ओर बढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि हम स्वयं अपने दुख का परित्याग करना बंद कर दें। बल्कि हम अपने चित्त की अवस्था का इतना विस्तार कर लेते हैं कि बाकी सभी को भी उसमें शामिल किया जा सके: इसका मतलब है कि उसमें हम स्वयं और दूसरे सभी लोग भी शामिल होते हैं।
सामान्य सुख के दुख पर केंद्रित नैष्काम्य और करुणा
यह तो बात केवल पीड़ा और दुख के कष्ट को लक्षित करने वाले नैष्काम्य और करुणा के बारे में थी। लेकिन हमारा सामान्य सुख भी समस्याएं उत्पन्न करने वाला होता है। एक प्रकार से यह भी कष्ट का ही एक रूप है। कष्ट से आशय यह है कि हमारा सामान्य सुख कभी भी स्थायी नहीं होता है; कभी संतोष प्रदान करने वाला नहीं होता है; और हमें कभी ऐसा नहीं लगता है कि हमें पर्याप्त मिला है। और यह सुख जल्दी ही असुविधा और दुख में परिवर्तित हो जाता है। यही कारण है कि इसे “परिवर्तन का दुख” कहा जाता है। उदाहरण के लिए, यदि आइसक्रीम खाना सुख का यथार्थ कारण होता तो फिर यदि हम उसे जितना अधिक खाएं हमें उतना ही अधिक सुखी हो जाना चाहिए था। लेकिन ज़ाहिर है कि हम एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ हम उसे जितना अधिक खाते हैं, हमें उतना ही अधिक लगता है कि हमारी तबियत खराब हो रही है। आइसक्रीम की ही भांति हमारा सामान्य सुख भी परिवर्तनशील होता है और हम सुखी नहीं रह पाते हैं।
संक्षेप में कहा जाए तो सामान्य सुख निराशाजनक होता है। हम कितना भी चाहें कि हम लगातार खुश बने रहें, लेकिन हम नहीं जानते कि कब हमारी मनोदशा बदल जाएगी। इसके अलावा, हम अपने वर्तमान सुख से या विगत सुख से कभी भी संतुष्ट नहीं होते हैं। हमें हमेशा और अधिक की चाह बनी रहती है। हम स्वयं को मुक्त करने के निश्चय के साथ इस दुख का भी परित्याग कर सकते हैं।
लेकिन सामान्य सुख का परित्याग करने का अर्थ क्या है? क्या इसका यह मतलब है कि हम आगे फिर कभी सुखी नहीं होना चाहते हैं? क्या हम यह चाहते हैं: कि हम अपने सुख को इसलिए त्याग दें क्योंकि उससे असंतोष पैदा होता है? इस प्रकार से सोचना बौद्ध धारणा को पूरी तरह से गलत समझना होगा। सामान्य सुख अस्थायी है और उसका खत्म होना निश्चित है, जैसे पीड़ा और दुख का समाप्त होना निश्चित है। लेकिन नैष्काम्य की स्थिति में हम यथार्थ को स्वीकार करते हैं और सामान्य सुख जब तक टिकता है हम उसकी अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखते हैं।
इस प्रकार हम अपने सामान्य सुख से उत्पन्न होने वाले दुख को नियंत्रित करते हैं। हम एक अस्थायी सुखद अहसास के रूप में उसका आनन्द लेते हैं, लेकिन इस बात को भी बखूबी समझते हैं कि वह हमेशा के लिए टिका नहीं रहने वाला है। और चूँकि हमें यह बोध होता है कि वह समाप्त हो जाने वाला है, इसलिए हमें कुंठा या निराशा नहीं होती है। हम उसके चिरस्थायी बने रहने की आशा ही नहीं कर रहे होते हैं। लेकिन जब तक वह टिकता है, हम उसका आनन्द उठाते हैं। हम यह सोचते हुए उसे अनुभव नहीं कर रहे होते हैं कि वह स्थायी होगा, बल्कि उस क्षण के बारे में सोचकर चिंतातुर बने रहते हैं कि जब वह समाप्त हो जाएगा। याद रखिए, जब हम विचारशीलतापूर्वक यह विश्वास करते हैं कि इस सुख का अन्त हो जाने वाला है, तो हमारा चित्त इस विचार के कारण उत्पन्न होने वाले कष्ट से मुक्त हो जाता है।
मैं किसी ऐसे मित्र के साथ समय बिताने का उदाहरण देना चाहूँगा जो हमेशा हमारे साथ न रहता हो। हमारा मित्र कुछ समय के लिए हमारे साथ रहने के बाद लौट जाता है और हम इससे संतुष्ट नहीं होते हैं। हम चाहते थे कि वह व्यक्ति और अधिक समय तक ठहरता। चलिए, उस मुलाकात से हमें ऐसा क्या मिलने की अपेक्षा थी जिसके न मिलने के कारण हम स्वयं को असंतुष्ट अनुभव करते हैं? क्या हम सचमुच यह अपेक्षा कर रहे थे कि उस व्यक्ति के साथ बने रहने से हम आखिरकार सुखी हो जाएंगे और हमें अपने अकेलेपन और असुरक्षा के भाव से हमेशा-हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी? यदि वह व्यक्ति पाँच मिनट और अधिक ठहर जाता तो क्या हम संतुष्ट हो जाते?
हम असंतुष्ट इसलिए रह गए क्योंकि हमारी अपेक्षा पूरी नहीं हुई, लेकिन हमारी अपेक्षा पूरी तरह अव्यावहारिक थी। हमने जो अपेक्षा की थी वैसा होना असम्भव है। वहीं दूसरी ओर यदि हम किसी चमत्कार के होने की अपेक्षा न रखें तो फिर जो कुछ होता है हम उससे संतुष्ट हो जाते हैं। इसी को यथार्थ को स्वीकार करना कहते हैं। हम उस व्यक्ति के साथ मुलाकात, भोजन, घनिष्ठता आदि का आनन्द उठाते हैं। हमें यह बोध बना रहता है कि इससे हमारा दुख या अकेलापन या भूख आदि हमेशा-हमेशा के लिए खत्म नहीं हो जाने वाले हैं; हमें इस बात का स्पष्ट बोध होता है और इसलिए जब वह व्यक्ति विदा हो जाता है तो हम उदास या निराश नहीं होते हैं। हम उस अवसर का आनन्द उसी रूप में उठाते हैं जैसा वह है और जब वह समाप्त हो जाता है तो हम उसे समाप्त मान लेते हैं।
जब हम स्वयं अपने सामान्य सुख से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का परित्याग कर देते हैं, तो उसके बाद फिर हम इसका विस्तार करके दूसरों के सामान्य सुख के सम्बंध में कैसे लागू कर सकते हैं? ज़ाहिर है कि जब हम किसी दूसरे व्यक्ति के सामान्य सुख से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर ध्यान को केंद्रित करते हैं तो उस स्थिति में भी विचारशील बने रहना बहुत महत्वपूर्ण होता है। ऐसा बिल्कुल नहीं होता है कि हमें इस बात की ईर्ष्या हो कि दूसरा व्यक्ति तो सुखी है लेकिन हम सुखी नहीं हैं, हालाँकि हमें इस बात का बोध होता है कि उस व्यक्ति का सुख भी उसे संतुष्ट नहीं करने वाला है। बल्कि हमें यह बोध होता है कि यह व्यक्ति अपने किसी मित्र से साथ अपने सम्बंध से ज़्यादा ही अपेक्षा कर रहा है, या उसके साथ कितना भी अच्छा क्यों न हो जाए वह हमेशा कुंठित और निराश ही रहने वाला है। इस स्थिति को हम एक समस्या के रूप में देखते हैं। ऐसा नहीं है कि हम उस व्यक्ति को सुखी नहीं देखना चाहते हैं। हमारा ध्यान उस दुख या समस्या पर केंद्रित होता है जो सामान्य सुख को अनुभव करने के उस व्यक्ति के ढंग के कारण उत्पन्न होता है।
यहाँ सुख और सुखजनित समस्याओं के बीच भेद करने से हमें दूसरों के द्वारा अनुभव किए जा रहे सुख से आनन्दित होने की योग्यता हासिल होती है। बौद्ध शिक्षाओं में आनन्द पर विशेष रूप से बल दिया गया है। हम उन लोगों के सामान्य सुख से आनन्दित होते हैं, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से हमें सामान्य सुख के दोषों का बोध होता है और सामान्य सुख से उस व्यक्ति के सामने उत्पन्न होने वाली सम्भावित समस्याओं के प्रति हमारे मन में करुणा का भाव होता है। लेकिन फिर भी इस सांसारिक सुख के साधारण होते हुए भी हम इसका आनन्द उठा पाते हैं।
सर्वव्यापी दुख पर केंद्रित नैष्काम्य और करुणा
बुद्ध ने “सर्वव्यापी दुख” को दुख का सबसे गहनतम स्वरूप बताया था। इसका आशय अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म से है जिसे “संसार” कहा जाता है जिसमें पहले दो प्रकार के दुखों की अनुभूति होती है। यह उस दुख का स्वरूप है जिसके बारे में बुद्ध ने अपनी चार आर्य सत्यों की प्रस्तुति में स्पष्ट तौर पर बताया था। हम लगातार किसी न किसी रूप में एक प्रकार के “दूषित” शरीर को धारण करते रहेंगे जो जन्म लेने की प्रक्रिया से होकर गुज़रेगा, उसे नए सिरे से बार बार चलना और काम करना सीखना पड़ेगा, और जिसे बार-बार चोट लगेगी या जो बीमार होगा, जराजीर्ण होकर अपनी क्षमताएं खो देगा और फिर मर जाएगा। और हमारा चित्त भी “दूषित” रहेगा जो किसी न किसी प्रकार से भ्रम में रहेगा, तमाम तरह की कल्पनाएं करेगा, अजीब प्रकार के विचार सोचेगा, और लगातार बदलती मनोदशाओं के कारण उतार-चढ़ावों से होकर गुज़रता रहेगा।
यह हमेशा होता रहेगा कि हम ऐसे जटिल सम्बंधों में उलझेंगे जो कभी भी संतोषप्रद नहीं होंगे। हमारे साथ ऐसी घटनाएं होती रहेंगी जिन्हें हम नहीं चाहते कि वे हमारे साथ घटित हों। ऐसा हमेशा नहीं होगा कि हमें मनचाही चीज़ें मिलती रहें; वास्तविकता तो यह है कि अक्सर हमें उन चीज़ों से बिछड़ जाएंगे जो हमें पसंद हों और ऐसी चीज़ें मिलेंगी जो हमें नापसंद हैं। जब दूसरे लोग ऐसा-वैसा व्यवहार करते हैं तो हमें वह अच्छा नहीं लगता है: हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कुछ नहीं कर पाते हैं। हम कुंठित हो जाते हैं; बहुत प्रयास करने के बाद भी हमें अच्छी नौकरी, अच्छा जीवनसाथी, या कुछ भी नहीं मिल पाता है। केवल भविष्य के जीवन को लेकर ही अनिश्चितता नहीं है, बल्कि यह भी निश्चित नहीं है कि अगले क्षण हमें कैसा अनुभव होगा।
हमें हर बार अपने वर्तमान शरीर और जीवन को त्यागना पड़ेगा और एक बार फिर पुनर्जन्म से गुज़रते हुए सब कुछ नए सिरे से सीखना होगा, एक बार फिर मित्र आदि बनाने होंगे। और फिर इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अगली बार हमारा जन्म मनुष्य के रूप में ही होगा; सम्भावना यही है कि हमारा अगला जन्म मनुष्य के रूप में नहीं होगा। हमारा पुनर्जन्म किसी कॉकरोच या उससे भी निम्नतर प्राणी के रूप में हो सकता है। नैष्काम्य की अवस्था में हम निश्चय करते हैं कि हमारे साथ यह सब बहुत हो चुका।
इस स्तर के नैष्काम्य से जुड़ी चित्तावस्था के बारे में विचार करना बहुत दिलचस्प है। मुझे लगता है कि इसमें संसार में अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म को लेकर ऊब का भाव भी शामिल होता है। चूँकि हम सांसारिक जीवन को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखते हैं इसलिए हम उसके प्रति बहुत मुग्ध भी नहीं होते हैं। बस उसमें हमारी रुचि नहीं होती है: बार-बार एक ही प्रक्रिया दोहराई जाती रहती है।
हालाँकि हम जीवन में लगातार बार-बार घटित होने वाले दुख के प्रति मुग्ध नहीं होते हैं, बल्कि इस सबसे ऊब चुके होते हैं, तब भी ऐसा नहीं है कि इसके परिणामस्वरूप हमें घटित होने वाली बातों की कोई परवाह ही न होती हो। ऐसा नहीं है कि हम “जो हो सो हो” का रवैया अपना लेते हों। बल्कि हम यह बोध हासिल करते हैं कि बार-बार अनियंत्रित ढंग से होने वाले पुनर्जन्म की इस सर्वव्यापी समस्या का मूल हमारे अशांतकारी मनोभावों में है, हमारे अशांतकारी दृष्टिकोण, और उनकी प्रेरणा से किए जाने वाले हमारे बाध्यकारी व्यवहार में है। इससे भी बढ़कर, हमें यह बोध होता है कि इस दुख का यथार्थ कारण अज्ञान है और हमारी अशांत चित्तावस्थाओं और बाध्यकारी व्यवहार के पीछे छिपा हुआ भ्रम है। हम स्वयं को इससे मुक्त करने के लिए दृढ़ संकल्प होते हैं।
संसार के चक्र से मुक्त होने यह दृढ़ संकल्प ही “असल” बात है, नैष्काम्य का गहनतम स्तर है। इसके अलावा, हमें यह विश्वास हो जाता है कि हम संसार में पुनर्जन्म के इस भयानक चक्र को तोड़ सकते हैं। परिणामतः हमारा चित्त इस बात से अशांत नहीं होता है कि हम इस अवस्था में हैं; हमारा चित्त निर्मल और साफ होता है। हम स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करने के लिए कृतसंकल्प होते हैं। और हमें मालूम होता है कि ऐसा करने के लिए हमें क्या करना है और हमें विश्वास होता है कि हम वैसा करने की क्षमता रखते हैं। जब हम संसार से मुक्त होने के इस दृढ़ संकल्प को केवल अपने ऊपर ही केंद्रित न रखते हुए दूसरे सभी लोगों पर भी समान रूप से केंद्रित कर देते हैं तो वह “महाकरुणा” का रूप धारण कर लेता है।
नैष्काम्य विकसित करते समय किन बातों से बचें
लाम-रिम यानी ज्ञानोदय प्राप्ति के क्रमिक स्तरों में प्रेरणा के तीन स्तरों के संदर्भ में नैष्काम्य और करुणा की प्रस्तुति की गई है, और इसलिए यहाँ हम इसी संदर्भ में चर्चा करेंगे कि इन्हें विकसित करते समय उत्पन्न हो सकने वाले किन-किन खतरों से बचने की आवश्यकता होती है। आरम्भिक स्तर की प्रेरणा में हम अपने आने वाले जन्मों को सुधारने के लिए कार्य करते हैं ताकि हमें बहुमूल्य मनुष्य जीवन प्राप्त होता रहे और ज्ञानोदय प्राप्ति के आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए सभी अवसर प्राप्त होते रहें। प्रेरणा के इस आरम्भिक स्तर को विकसित करते समय खतरा इस बात से उत्पन्न हो जाता है कि हमें बहुमूल्य मनुष्य जीवन से बड़ी आसानी से आसक्ति हो सकती है। हमें लगता है, “मैं पुनर्जन्म लेना चाहता हूँ और अपने मित्रों और प्रियजन के साथ बने रहना चाहता हूँ, और मुझे धन-दौलत और सुख-सुविधाएं मिलती रहें” आदि। इस प्रकार बेहतर पुनर्जन्म के लिए हमारे प्रयास आसक्ति में गुम हो सकते हैं। जब ऐसा हो जाता है तो हम बहुमूल्य मनुष्य जीवन के गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं। आखिर कामना और आसक्ति किसी चीज़ की अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ा कर देखने पर ही तो निर्भर होती हैं। जब कोई चीज़ हमारे पास न हो तो कामना से प्रेरित होकर हम सोचते हैं, “मुझे इस चीज़ को पाना ही है” और जब कोई चीज़ पहले से हमारे पास हो तो आसक्ति के प्रभाव के कारण हम सोचते हैं, “मैं इसे छोड़ना नहीं चाहता हूँ।“
नैष्काम्य विकसित करने में बाधक खतरा आसक्ति के खतरे जैसा ही है, लेकिन वह विकर्षण या घृणा के रूप में होता है। बहुमूल्य मनुष्य रूपी पुनर्जन्म के गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर देखने के कारण उत्पन्न होने वाले आकर्षण के बजाए नैष्काम्य की स्थिति में सांसारिक अस्तित्व की नकारात्मक बातों को बढ़ा-चढ़ा कर देखने का खतरा होता है। इस अतिशयता के कारण हमें उसके प्रति विकर्षण होता है जो हमें घृणा की ओर ले जाता है जिसके बारे में हम पहले चर्चा कर चुके हैं। घृणा और विकर्षण के बीच घनिष्ठ सम्बंध होता है।
जब हम नैष्काम्य विकसित करने के लिए अभ्यास करते हैं तो हम इस अभ्यास को प्रेरणा के मध्यवर्ती स्तर का अभ्यासी बनने के लिए कार्य करते हैं जो संसार, अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के लिए प्रयासरत होता है। यह इतना आसान नहीं है। हम संसार की कमियों या त्रुटियों पर ध्यान को केंद्रित कर रहे होते हैं, जिसे “चित्त को धर्म की ओर प्रवृत्त करने वाले चार विचार” कहा जाता है। हम हर समय संसार के दोषों के बारे में विचार करते रहने का प्रयास करते हैं।
जब हम वास्तव में यह अभ्यास शुरू कर देते हैं तब हम जीवन के सभी अनुभवों में संसार की त्रुटियों को तलाश करते हैं। इससे हमारे मनोभावों और जीवन के अनुभवों के प्रति हमारी दृष्टि पर भारी प्रभाव पड़ सकता है। हम जिस किसी भी स्थिति हों, हमारे मन में सबसे पहला खयाल दुख का आएगा। उदाहरण के लिए जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं और हमें उसके प्रति थोड़ा आकर्षण होता है, तो साथ ही हमें “दुख” का खयाल आता है। हम कोई नई नौकरी शुरू करते हैं और सोचते हैं, “दुख; यह तो बहुत बुरा होगा।“ जो कुछ भी हो, सब में “दुख”। टेलीफोन की घंटी बजे, “दुख”। कुछ भी। हम शावर में प्रवेश करते हैं, “दुख; यह खत्म हो जाएगा, और फिर बाद में मुझे किसी और दुख की आवश्यकता होगी। उबाऊ।“ इस प्रकार, आम जीवन के बारे में एक नकारात्मक दृष्टिकोण बना लेने की बहुत सम्भावना होती है: अपने सभी अनुभवों के प्रति और खास तौर पर लोगों के प्रति। हम कोई नया कम्प्यूटर खरीदते हैं, “दुख; यह खराब हो जाएगा; कोई वाइरस इसे बिगाड़ देगा।“ हम किसी मित्र से मिलते हैं और हमारा पहला खयाल यह होता है कि हमारी मुलाकात का समय कितना असंतोषजनक होगा। हम किसी भी चीज़ का आनन्द नहीं ले पाते हैं। हर चीज़ को बुरा और मूर्खतापूर्ण समझने का यह दृष्टिकोण अवसाद का कारण बन सकता है।
नैष्काम्य और करुणा में आनन्द को मिलाना
नकारात्मकता और अवसाद के इस खतरे को हम किस प्रकार नियंत्रित कर सकते हैं? क्या यह कह देना भर ही इसका समाधान है कि, “जीवन की सुंदरता का आनन्द लो?” यहाँ बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। क्या जीवन का आनन्द उठाना जीवन की दुखमय प्रकृति के प्रति अनजान बने रहना होता है? क्या यह नैष्काम्य के प्रतिकूल है? इसे करुणा में बदल दीजिए; हम सोचते हैं, “कितनी बुरी बात है कि सभी दुख भोग रहे हैं; कितनी खराब स्थिति है।“ क्या इस दुख को किसी व्यक्ति से मिलने की खुशी के साथ मिलाने का मतलब यह है कि, “मैं तुम्हारे दुख से खुश हूँ?” नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। तो फिर आनन्द और प्रसन्नता के भाव को नैष्काम्य या करुणा के साथ किस प्रकार मिलाया जा सकता है?
जब हम स्वयं अपने जीवन में आनन्द ढूँढने और दूसरों से मिलने में आनन्द तलाशने और उनके जीवन में आनन्द ढूँढने का प्रयास कर रहे होते हैं, तब हम किसी ऐसी चीज़ पर ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं जो हमारी नैष्काम्य और करुणा की अनुभूति से अलग होती है। हम आनन्दपूर्वक अपने, दूसरे लोगों के बुद्ध स्वभाव की क्षमताओं पर और आध्यात्मिक प्रगति के उन अवसरों पर ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं जो हमारा जीवन हमें प्रदान कर सकता है। हम सभी के भीतर बुद्धत्व को प्राप्त करने की क्षमताएं विद्यमान हैं और यह अपने आप में एक आनन्दित होने का विषय है। यही आनन्द का स्रोत है। हम आनन्दपूर्वक स्वयं अपने या दूसरों के जीवन की दुखमय प्रकृति पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे होते हैं।
उदाहरण के लिए, नैष्काम्य की स्थिति में हम स्वयं को और अपने जीवन को देखते हैं और उसमें व्याप्त दुख को देखते और स्वीकार करते हैं। हालाँकि यह दुखमय है, लेकिन उसके कारण हम अवसादग्रस्त नहीं होते हैं। न ही हम “जो भी हो” का दृष्टिकोण अपनाते हैं जोकि दरअसल एक असाहयता और आशाहीनता का भाव होता है। बल्कि, नैष्काम्य से युक्त होकर हम आश्वस्त होते हैं कि हम स्वयं को अपने दुख से मुक्त कर सकते हैं। हम कृतसंकल्प और निश्चित होते हैं कि हम इस असहनीय स्थिति को बदलने के लिए कुछ करेंगे; हमें मालूम होता है कि हमें क्या करना है और विश्वास होता है कि हम वैसा कर सकते हैं और इस स्थिति से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार विचार करने से हमें खुशी होगी, है न?
फिर भी, आनन्द और नैष्काम्य या करुणा, चित्त की इन दोनों अवस्थाओं को आपस में मिलाना एक बड़ा ही नाज़ुक काम है। क्या ये एक साथ घटित होती हैं; क्या इनमें से कोई एक दूसरी में निहित होती है? क्या ये बारी-बारी से उत्पन्न होती हैं, जैसा कि टाँग्लेन के अभ्यास में किया जाता है जहाँ दुख को लेकर सुख देने की बात की जाती है? वास्तव में इन्हें हम अपने दैनिक जीवन में किस प्रकार मिला सकते हैं – वास्तविक नैष्काम्य के साथ, लेकिन नकारात्मक चित्तावस्था के बिना कि सब कुछ व्यर्थ और निरर्थक है, और बिना अवसादग्रस्त हुए?
नैष्काम्य होने का अर्थ दूसरों से मेलजोल रखने से बचना नहीं है
मान लीजिए कि हम वास्तव में नैष्काम्य विकसित करने में सफल हो जाते हैं जहाँ हम अपने सांसारिक अस्तित्व से जुड़ी चीज़ों की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं। और मान लीजिए कि इसके बाद हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यदि हम किसी भी प्रकार का सांसारिक सम्बंध हमारे लिए दुख का कारण बनने वाला है, और हम भिक्षु या भिक्षुणी बन कर किसी मठ में रहने का फैसला कर लेते हैं। यदि हम ऐसा निश्चय कर भी लें तब भी हमें यह सावधानी बरतने की आवश्यकता है कि हम सामान्य दृष्टि से लोगों से खिन्न न हो जाएं, क्योंकि फिर उनके प्रति करुणा का भाव रखने में यह एक प्रमुख बाधा बन जाती है। फिर हम इस प्रकार सोच सकते हैं, “तुम तो बस परेशानी हो!” इससे किसी के भी साथ सम्बद्ध न होने की आदत पड़ जाती है। यदि हम करुणावान व्यक्ति बनना चाहते हैं तो फिर हमें दूसरों के साथ जुड़ना पड़ेगा और यदि उन्हें आवश्यकता हो तो उनकी मदद करने का प्रयास करना होगा।
इस प्रकार दूसरों के प्रति विरुचि और उदासीनता का भाव रखना नैष्काम्य विकसित करने के मार्ग की सबसे बड़ी समस्या है। जब हम किसी व्यक्ति से मिलते हैं तो हमें ऐसा लग सकता है, “यह व्यक्ति समस्या ही बनेगा। इसके साथ मेलजोल रखने से मेरे लिए दुख और समस्याएं ही उत्पन्न होने वाली हैं। यह मेरी सलाह मानने वाला नहीं है; यह मेरे लिए कठिनाई उत्पन्न करेगा,” आदि। हमें ऐसे विचारों से बचने के लिए सुधार करना चाहिए।
नैष्काम्य विकसित करते समय हमें स्वयं अपने दुख को दो दृष्टिकोणों से देखना चाहिए। पहले तो हम अपने दुख को असहनीय मानते हैं और उससे मुक्त होने के लिए कृतसंकल्प होते हैं। इसके अलावा, हम यह समझते हैं कि हमारे भीतर बुद्धधातु की वे बुनियादी क्षमताएं विद्यमान हैं जो हमें अपने सभी दुखों से मुक्त होने और यहाँ तक कि स्वयं बुद्ध बनने के योग्य बनाती हैं। अपने सभी दुखों से मुक्त होने की अपनी क्षमता को पहचानना जीवन के आनन्द को नहीं नकारता है, बल्कि हमें आनन्द से परिपूर्ण करता है। इसलिए यह आनन्द हमारे नैष्काम्य, मुक्त होने के हमारे दृढ़ निश्चय के खिलाफ नहीं है। दरअसल यह आनन्द हमारे नैष्काम्य को और भी प्रबल करता है। इसलिए “जो भी हो” के उदासीन दृष्टिकोण के साथ अपने आप की अनदेखी करने और अपने आप को मुक्त करने की दिशा में प्रयास करने की अनदेखी करने के बजाए हम अपना विशेष खयाल रखते हैं और एक प्रकार से अपने लिए नैष्काम्य का भाव रखते हैं।
दूसरे सभी लोगों के लिए करुणा का भाव विकसित करने के लिए भी यही विश्लेषण लागू होता है। हम उनके लिए कामना करते हैं कि वे अपने कष्टों से मुक्त हों और हम इस बात के लिए आनन्दित होते हैं कि वे भी अपनी बुद्धधातु की सहायता से मुक्त हो सकते हैं। यानी, हम चाहते हैं कि उनके दुख दूर हो जाएं, लेकिन हमें उन लोगों का खयाल रहता है जो दुख भोग रहे होते हैं और नहीं चाहते हैं कि उनके दुख दूर हो जाएं।
हम इस दृष्टिकोण को पहले अपने ऊपर लागू करते हैं। “मैं चाहता हूँ कि मेरा दुख दूर हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं अपने आप को तबाह कर लेना चाहता हूँ। मेरा अस्वीकरण का नकारात्मक दृष्टिकोण दुख पर केंद्रित है, व्यक्ति के रूप में स्वयं मेरे अपने ऊपर केंद्रित नहीं है।“ इस बात की बहुत सम्भावना है कि हमें इन दोनों के बारे में भ्रम हो जाए और हम सोचें, “मैं अपने दुख से मुक्ति पाने के लिए स्वयं को मार डालूँगा।“ जब स्वयं अपने बारे में यह भेद स्पष्ट हो जाता है तो इसी प्रकार हम करुणा से प्रेरित होकर सोच सकते हैं, “मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा दुख दूर हो जाए, किन्तु मैं यह नहीं चाहता हूँ कि तुम स्वयं चले जाओ।“
यह भेद कर पाना आसान नहीं होता है। ठीक वैसे ही इस दोषपूर्ण नैष्काम्य से मुक्त होना भी आसान नहीं होता है जिसके कारण हमें लोगों से विरुचि होती है और हम यह सोचते हुए लोगों से मेलजोल रखने से बचते हैं कि, “बस मुझे अकेला छोड़ दो। मैं बस अपनी गुफा या मठ में जा कर ध्यानसाधना करना चाहता हूँ।“ भले ही हमारे अशांतकारी मनोभाव इतने प्रबल हों कि दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता में गम्भीर बाधा उत्पन्न करते हों और भले ही हमें इन मनोभावों को सुधारने के लिए एकांत में ध्यानसाधना करने की आवश्यकता हो, तब भी हमें दूसरों के प्रति या स्वयं अपने प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखने और करुणाहीन बने रहने से बचना चाहिए।
लोगों और उनके द्वारा भोगे जाने वाले दुख के बीच सम्बंध
हम नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की इस समस्या से कैसे बच सकते हैं? ऐसा करने के लिए हमें सरलीकृत धर्म, जिसे मैं “धर्म-लाइट” कहता हूँ, के दायरे से आगे निकलना होगा और यथार्थ धर्म या “रीयल थिंग धर्म” की दृष्टि से विश्लेषण करके देखना होगा; यथार्थ धर्म पिछले और भविष्य के जन्मों को स्वीकार करने पर आधारित होता है।
हमारे जीवन के सभी क्षणों के सातत्य पर हमारा जीवनकाल आरोपित होता है। हमारा जीवनकाल किसी एक क्षण के समरूप नहीं होता है, और न ही वह इनमें से किसी भी क्षण से स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। और हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि हमारा जीवनकाल अपने सभी क्षणों के योग के समरूप होता है क्योंकि हमारे जीवनकाल के सभी क्षण एक ही समय पर घटित नहीं होते हैं। जब हम वयस्क हो जाते हैं तब हमारे बचपन की घटनाएं घटित नहीं हो रही होती हैं। हमारा जीवनकाल तो बस एक सातत्य पर आरोपित होता है।
यथार्थ धर्म के अनुसार ऐसे ही व्यक्ति भी किसी विशेष मानसिक सातत्य पर आरोपित होता है। लेकिन वह जिस मानसिक सातत्य पर आरोपित होता है वह सातत्य अकेले इस जीवनकाल तक ही सीमित नहीं होता है। वह अनादि-अनन्त चलता रहता है। इसी प्रकार व्यक्ति भी मानसिक सातत्य के ऐसे किसी एक क्षण के समरूप नहीं होता है जिस पर वह आरोपित होता है; न ही वह सातत्य से स्वतंत्र रूप में अस्तित्वमान होता है और न ही पूरे सातत्य से इस प्रकार समरूप होता है जैसे पूरा सातत्य एक ही समय पर एक साथ घटित हो रहा हो।
मानसिक सातत्य के किसी भी गुण पर आरोपित किसी भी व्यक्ति के बारे में भी यही विश्लेषण लागू होता है। नैष्काम्य और करुणा के मामले में मानसिक सातत्य का वह गुण सर्वव्यापी दुख होता है। अपने अस्तित्व के दौरान व्यक्ति दुख को अनुभव करते हैं, लेकिन वे जिस मानसिक सातत्य पर आरोपित होते हैं उस पर घटित होने वाली दुख की किसी भी विशेष स्थिति के वे समरूप नहीं होते हैं। न ही वे उस सर्वव्यापी दुख के समरूप होते हैं जो अनादि रूप से उनके मानसिक सातत्य में घटित होता चला आ रहा है। जब हम इन तथ्यों का बोध हासिल कर लेते हैं तो हम “मैं” को या किसी अन्य व्यक्ति को हममें से किसी के द्वारा अनुभूत दुख के रूप में नहीं देखते हैं। क्योंकि हम दुख को भ्रमवश “मैं” या “तुम” के रूप में नहीं देखते हैं और यह नहीं समझते हैं कि वे समरूप हैं, इसलिए जब हम यह कामना करते हैं कि वह दुख समाप्त हो जाए, तो हम यह कामना नहीं करते हैं कि उसके साथ ही “मैं” या “तुम” भी समाप्त हो जाएं।
इस प्रकार हमें दूसरों के और स्वयं अपने “मैं” का अधिक स्पष्ट बोध हो जाता है। हमारे मानसिक सातत्य से दुख और उसके कारणों को हमेशा-हमेशा के लिए मिटाया जा सकता है, लेकिन उन दुखों को अनुभव करने वाले व्यक्तियों को कभी नहीं मिटाया जा सकता है। जिस प्रकार मानसिक सातत्य अनन्त है, उसी प्रकार उन मानसिक सातत्यों पर आरोपित व्यक्ति, जिनमें से प्रत्येक एक “मैं” है, का भी कोई अन्त नहीं है।
यदि हम मानसिक सातत्य की सहज शुद्धता को और इस बात को समझ सकते हैं कि दुख और उसके कारणों को सदा के लिए दूर किया जा सकता है, तो हमें इस बात की भी सावधानी रखनी चाहिए कि हम “मैं” को भी शुद्ध मानसिक सातत्य न समझ बैठें। अन्यथा हमें दुख का ज्ञान नहीं होगा और हम उसे दूर करने की बात को गम्भीरता से नहीं लेंगे क्योंकि हमें लगेगा कि दुख का वास्तव में अस्तित्व ही नहीं है।
टाँग्लेन की साधना में दुख को लेकर सुख देने की ओर परिवर्तन करना
जब हम दूसरों के या स्वयं अपने दुख के बारे में विचार करते हैं तो यह विषाद उत्पन्न करने वाला होता है। निश्चित तौर पर हमें यह देख कर खुशी नहीं होती है कि हम या कोई और दुख भोग रहा है; हमें इसके लिए अफसोस होता है। टाँग्लेन, यानी लेना और देना, की साधना में हम ध्यान को दूसरों के दुख पर, या स्वयं अपने दुख पर भी केंद्रित करते हैं, और ज़ाहिर है कि हमें यह दुखद लगता है। ऐसा नहीं है कि हमें कुछ भी महसूस न होता हो, जैसे दुख अवास्तविक हो और कष्ट न पहुँचाता हो। इसके बाद हम दुख को ग्रहण कर लेने की कल्पना करते हैं; हम स्वेच्छा से स्वयं इसे अनुभव करना स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद हम दूसरों को या स्वयं को प्रेम, यानी सुखी होने की कामना देते हैं। इस प्रकार हम स्वयं के ऊपर स्वीकार किए गए दुख की भावना से बाहर दूसरों को दी जाने वाली सुख की भावना में बदलाव करते हैं।
टाँग्लेन का अभ्यास करते समय दुख अनुभव करने से सुख की अनुभूति करने का यह बदलाव कई लोगों के लिए बाधक सिद्ध होता है। हम दुख की भावना को अचानक सुखी होने के भाव में कैसे बदल सकते हैं? आखिरकार ये दोनों भाव परस्पर विरोधी हैं। हमारे सामने इसी तरह की समस्या उस समय उत्पन्न हुई थी जब हम चर्चा कर रहे थे कि नैष्काम्य के साथ दुख पर ध्यान कैसे केंद्रित करें, और साथ ही अवसादग्रस्त हुए बिना जीवन और उसमें मुक्ति की सम्भावनाओं का आनन्द उठा सकें। यह विषय भी वैसा ही है।
दुख को सुख के साथ संतुलित करने की योग्यता के महत्व को समझने के लिए हम किसी बीमार रिश्तेदार या मित्र से मिलने जाने के उदाहरण को देख सकते हैं। हमें इस बात का दुख होता है कि वह बीमार है या तकलीफ में है। लेकिन यदि अपने प्रियजन से मिलते समय हम उदास या दुखी बने रहें तो इससे उस व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होगा। हमें अपने बीमार रिश्तेदार या मित्र का हौसला बढ़ाना चाहिए। लेकिन उस स्थिति में हम खुशी का भाव कैसे विकसित करें? क्या ऐसी खुशी केवल कृत्रिम होती है? क्या हम अपने भीतर के भयानक दुख के बावजूद केवल चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान ओढ़े रहते हैं?
यहाँ उदासी से प्रसन्नता की ओर बदलाव करने के लिए हम “महामुद्रा” यानी “चित्त की मुद्रांकन प्रकृति” की उन्नत साधनाओं का उपयोग कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि जब हम दूसरों के या स्वयं अपने दुख को ग्रहण करते हैं तो हम स्वेच्छा से दुख को स्वीकार कर रहे होते हैं। जब हम इस कार्य को निष्ठापूर्वक करते हैं तो उसे हमें आत्मविश्वास और बल मिलता है। हमारे मन में “पीड़ित होने की मानसिकता” या अरे मैं बेचारा दुख भोग रहा हूँ का भाव नहीं होता है।
महामुद्रा की विधि में हम अनुभव किए जाने वाले दुख से उत्पन्न उदासी को चित्त के सागर के ऊपर की लहर के रूप में देखते हैं। स्वेच्छा से दुख को स्वीकार करने के परिणामस्वरूप प्राप्त आन्तरिक बल के कारण वह लहर हमें उठा कर पटक नहीं पाती है। हम शांतभाव से उदासी की उस लहर को शांत होने देते हैं। एक बार जब वह सहज रूप से शांत हो जाती है तो हम चित्त के अन्तर्जात आनन्द तक पहुँच पाते हैं। वह हमारे भीतर से स्वतः ही चमकता है और टाँग्लेन के अभ्यास में यही हम दूसरों को देते हैं या फिर स्वयं हम इसी की अनुभूति करते हैं।
चित्त के इस सहज आनन्द में कुछ भी अशांत या अशांतकारी नहीं होता है। हम न तो अपनी खुशी का ढिंढोरा पीटते हैं और न ही उसका दिखावा करते हैं, जैसे, “कितनी बुरी बात है कि तुम बीमार हो। मुझे तुम्हारे लिए बहुत दुख है, लेकिन मैं अपने जीवन से खुश हूँ। मेरा तो सब कुछ अच्छा चल रहा है।“ हमारी निश्चिंत, सहज खुशी शांतिपूर्वक दूसरों को और स्वयं हमें भी आराम और सुख की अनुभूति कराती रहती है।
नैष्काम्य और करुणा को विकसित करने के आधार
हमारे इस व्याख्यान की शुरुआत में मैंने कहा था कि त्सोंग्खापा ने सिखाया था कि करुणा जैसी किसी चित्तावस्था को विकसित करने के लिए पहले यह जानने की आवश्यकता होती है कि उस चित्तावस्था का आधार क्या है। करुणा को विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके आधारस्वरूप पहले उचित नैष्काम्य को विकसित किया जाए। नैष्काम्य की अवस्था में हम अपने उन अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होने के लिए कृतसंकल्प होते हैं जो हमारे अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले पुनर्जन्म को प्रेरित करते हैं, और हम स्वयं को ऐसे मनोभावों से मुक्त करने के लिए प्रयासरत होते हैं।
करुणा के आधार को निर्मित करने की दिशा में अगला कदम अपने नैष्काम्य के आधार पर, यानी अपने अशांतकारी मनोभावों को समाप्त करने के लिए प्रयास के आधार पर समवृत्ति को विकसित करने का होता है। समवृत्ति की सहायता से हम सभी जीवों को एक उदार दृष्टि से देखते हैं, आकर्षण, विकर्षण या उनके प्रति उदासीनता के भावों से मुक्त होकर। हम सभी के प्रति समान उदारता का भाव रखते हैं क्योंकि हम सभी इस दृष्टि से समान हैं कि हममें से प्रत्येक एक अनादि और अनन्त मानसिक सातत्य पर आरोपित है। चूँकि अनादिकाल से हम प्रत्येक प्रकार के जीव के साथ प्रत्येक प्रकार के सम्बंध में रह चुके होते हैं, इसलिए हम उनमें से किसी को भी उनके साथ किसी एक समय पर रहे मित्र, शत्रु या अजनबी जैसे किसी एक सम्बंध से नहीं पहचानते हैं। इसलिए किसी के भी प्रति आकर्षण, विकर्षण या उदासीनता का कोई कारण नहीं होता है।
ऐसे किसी भी समय के बारे में ध्यान केंद्रित करने का कोई लाभ नहीं होता है जब प्रत्येक जीव किसी न किसी समय हमारा शत्रु या हमारा हत्यारा रह चुका हो। उस समय पर ध्यान केंद्रित करना अधिक उपयोगी होता है जब हर कोई हमारी माँ रह चुका हो और तब हम विचार करते हैं कि माँ के रूप में या हमारे प्रमुख तौर पर खयाल रखने वाले के तौर पर उन्होंने हमारे ऊपर कितनी दया की है। यदि इस जन्म में भी हमारी माँ ने हमें बुरा भला कहा हो या हमारे साथ दुर्व्यवहार किया हो, तब भी कम से कम इतनी दया तो उसने की ही है कि उसने हमें गर्भ में ही गिरा नहीं दिया। उसने या हमारी स्थानापन्न माता ने हमारे ऊपर विशेष दया की है क्योंकि उन्होंने हमें अपने गर्भ में धारण किया है।
जो अगला चरण है उसका अनुवाद सामान्यतया “दया का प्रतिदान करना” के रूप में किया जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि “प्रतिदान” शब्द से गलत धारणा बनती है। ऐसा इसलिए क्योंकि “प्रतिदान” का मतलब किसी व्यावसायिक सौदे में ऋण के रूप में होता है और यदि हम अपने ऋण को नहीं चुका पाते हैं तो हम दोषी होते हैं। यहाँ इस चरण में जो मनोभाव अभिप्रेत है वह बाध्यता या अपराधबोध का न हो कर हमारे प्रति किए गए उपकार के लिए प्रशंसा और कृतज्ञता का होता है। और फिर उस मनोभाव के आधार पर जब हम अपनी माँ की कल्पना किसी ऐसे दृष्टिहीन, भ्रमित और भ्रांत व्यक्ति के रूप में करते हैं जो किसी चट्टान से हानिकारक व्यवहार की खाई में गिरने वाली है और हम जो उसके साथ खड़े हैं और जानते हैं कि उसकी सहायता कैसे की जा सकती है, स्वाभाविक तौर पर हम उसके पतन को रोकने के लिए हर सम्भव प्रयास करने की जिम्मेदारी लेते हैं। यदि उसका अपना बेटा या बेटी उसकी सहायता नहीं करेगा, तो फिर और कौन करेगा?
इस आधार पर कि हर कोई किसी न किसी समय हमारे साथ दया का व्यवहार कर चुका है और हम उसके लिए बहुत कृतज्ञ हैं और वास्तविक अर्थ में उनकी सहायता करके अपनी कृतज्ञता को दर्शाने के लिए तत्पर होने के कारण हम स्वतः ही “हार्दिक प्रेम” विकसित करते हैं। हम हर किसी के साथ हृदय से ऐसा जुड़ाव महसूस करते हैं कि जब भी हम किसी से मिलते हैं तो स्वतः ही हम स्वयं को उसके बहुत करीब महसूस करते हैं, जैसे कोई माँ अपनी इकलौती संतान के लिए महसूस करती है। हमें ईमानदारी से उनकी भलाई की परवाह होती है और यदि उनके साथ कुछ बुरा घटित हो जाए तो हमें दुख होता है।
इस प्रकार के हार्दिक प्रेम के आधार पर ही बौद्ध धर्म में प्रेम को विकसित किया जाता है: जो इस कामना के रूप में होता है कि सभी जीव समान रूप से सुखी हों और सभी को सुख के साधनों की प्राप्ति हो। सभी के प्रति इस प्रेम के आधार पर हम करुणा के भाव को विकसित करते हैं: यह कामना कि सभी दुख और उसके कारणों से मुक्त हों। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि करुणा के साथ जुड़े हुए सकारात्मक मनोभावों का एक मिश्रित समूह होता है, जैसे उदारता का भाव और सभी के साथ घनिष्ठता, उनकी दया के प्रति कृतज्ञता, हार्दिक प्रेम, स्नेह आदि। ये सभी करुणा में समाहित होते हैं।
इसका अर्थविस्तार यह हुआ कि यदि करुणा नैष्काम्य की वह चित्तावस्था है जो दूसरों के दुख पर लक्षित होती है, तो उसी प्रकार करुणा का आधार भी नैष्काम्य के किसी रूप में निहित होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि सबसे पहले हमें स्वयं अपने प्रति समवृत्ति का भाव रखने की आवश्यकता है – जहाँ कोई आकर्षण, विकर्षण या उदासीनता न हो। इसके बाद हमें यह समझना चाहिए कि हमारे द्वारा इस जन्म में और पिछले जन्मों में किए गए नकारात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने का कोई लाभ नहीं है। दूसरे जीवन में वे हमारी माताएं रह चुके हैं और हमारे साथ दया का व्यवहार कर चुके हैं इस बात पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ हमें उन सकारात्मक चीज़ों पर भी ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है जो हमने स्वयं अपने लिए की हों। हम बहुमूल्य मानवजीवन की समस्त लाभकारी स्थितियों का आनन्द उठा रहे हैं यह विगत में हमारे द्वारा किए गए सकारात्मक कृत्यों का कार्मिक परिणाम है। ऐसा करके हमने अपने साथ जो दयालुता का व्यवहार किया है उसकी हम सराहना करते हैं और आभार मानते हैं। इससे स्वयं के प्रति आत्म-घृणा के स्थान पर हार्दिक प्रेम उत्पन्न होता है। हम ईमानदारी से अपनी भलाई की परवाह करते हैं और यदि हमारे साथ कुछ भी बुरा होता है तो हमें बहुत खराब लगता है।
करुणा का अभ्यास करते समय एक प्रमुख सिद्धान्त जो सभी को बराबर बनाता है वह यह है कि हर कोई सुख चाहता है, कोई भी दुख नहीं चाहता, और हर किसी को समान रूप से सुख पाने का अधिकार है और दुख न चाहने का अधिकार है। यहाँ “हर कोई” में हम स्वयं भी शामिल हैं। इसलिए हमें भी सुखी होने का अधिकार है; हमें भी दुख से बचने का अधिकार है। इसलिए नैष्काम्य विकसित करने के लिए – मुक्त होने के लिए इस दृढ़ निश्चय को विकसित करने के लिए – मूलतः स्वयं अपने प्रति करुणा का भाव विकसित करने की आवश्यकता होती है।
कृपया इसका गलत अर्थ न लें। मैं स्वयं अपने प्रति ऐसा द्वैतवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित नहीं कर रहा हूँ कि मेरे प्रति करुणा का भाव रखने वाला “मैं” उस “मैं” से भिन्न है जिसके प्रति मैं करुणा अनुभव कर रहा हूँ। “स्वयं के प्रति दया का भाव रखना” तो एक आलंकारिक प्रयोग है। लेकिन यदि हम स्वयं के प्रति दया का भाव रखना चाहते हैं और यदि हम स्वयं को कष्ट और दुख से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें इस प्रकार का दृष्टिकोण विकसित करना होगा, जैसे, “मैं इस व्यक्ति के साथ अस्वस्थ सम्बंध नहीं रखना चाहता हूँ; मैं क्रोधित नहीं होना चाहता हूँ; मैं परेशान होना नहीं चाहता हूँ; मैं आसक्त होना नहीं चाहता हूँ।“ इस प्रकार हम स्वयं को अपनी समस्याओं से मुक्त करने के इस दृढ़ निश्चय को विकसित करते हैं, और यह हमें एक और आधार देता है कि हम किस प्रकार “सब कुछ दुखमय है” की भावना को हार्दिक सुख और शांतचित्तता की बुनियादी अनुभूति के साथ संतुलित करते हैं।
सारांश
हमने यहाँ बहुत सी चीज़ों के बारे में चर्चा की है, लेकिन मैं चाहता था कि मैं बौद्ध धर्म के बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर अधिक विस्तृत चित्र प्रस्तुत करूँ। यह केवल अध्ययन का एक विषय मात्र नहीं है, बल्कि हमारे स्वयं के विकास के लिए यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह दर्शाता है कि हम नैष्काम्य और करुणा के भावों को किस प्रकार विकसित कर सकते हैं। हमने यहाँ चर्चा की है कि हम उपयोगी और टिकाऊ तरीके से नैष्काम्य से करुणा तक के बदलाव को किस प्रकार ला सकते हैं और इन दोनों चित्तावस्थाओं के बीच में क्या सम्बंध है।