आज शाम मुझे चार आर्य सत्यों के बारे में चर्चा करते हुए हमारी इस व्याख्यान माला को प्रारम्भ करने के लिए कहा गया है। शुरुआत करने का यह बहुत उपयुक्त तरीका है क्योंकि बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं की शुरुआत ऐसे ही की थी। शिक्षाओं, आध्यात्मिक शिक्षाओं, चाहे उन्हें हम धर्म कहें या दर्शन कहें, की कई पद्धतियाँ हैं, बुद्ध को उनके समय में प्रचलित विभिन्न पद्धतियों की जानकारी थी और आज हमारे सामने और भी बहुत सी पद्धतियाँ हैं। और इसलिए. जब हम बौद्ध धर्म की चर्चा करते हैं तो मेरे विचार से यह मालूम करने का प्रयास करना बहुत महत्वपूर्ण है कि बौद्ध धर्म की विशिष्ट पहचान क्या है। अवश्य ही बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में बहुत सी ऐसी बाते हैं जो दूसरे धर्मों में भी समान हैं: सदय, नेक, स्नेहमय व्यक्ति बनो, किसी को दुख न दो। ये बातें हमें लगभग सभी धर्मों में मिलती हैं, है न, हर दर्शन में मिलती हैं। इसलिए बौद्ध धर्म में भी इन बातों की शिक्षा दी जाती है। लेकिन यह सब सीखने के लिए हमें बौद्ध शिक्षाओं का रुख करने की आवश्यकता नहीं है, हालाँकि बौद्ध धर्म दया, प्रेम और करुणा के भाव विकसित करने की अनेक विधियों की दृष्टि से बहुत समृद्ध है, और चाहे हम बौद्ध शिक्षाओं में से कुछ और स्वीकार करें या न करें, हम इन विधियों से लाभान्वित हो सकते हैं।
किन्तु यदि यह प्रश्न पूछा जाए कि, “बौद्ध धर्म की खास विशेषता क्या है?” तो हमें चार आर्य सत्यों की ओर मुड़ना होगा। और इन चार आर्य सत्यों की चर्चा में भी हमें ऐसी बहुत सी बातें मिलेंगी जो दूसरी पद्धतियों में भी समान रूप से पाई जाती हैं।
अब यदि हम “आर्य सत्य” अभिव्यक्ति की बात करें तो मैं समझता हूँ कि यह थोड़ा अजीब सा अनुवाद है, क्योंकि वास्तव में इस अभिव्यक्ति का अर्थ यह है कि चार ऐसे तथ्य हैं जिन्हें वे लोग सत्य मानते हैं जिन्होंने वास्तविकता को निर्वैचारिक ढंग से अनुभव किया है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि हालाँकि ये तथ्य सत्य हैं किन्तु अधिकांश लोग उनके वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते हैं। उन्हें इनका कोई बोध नहीं होता है। इसलिए जैसा कि मैंने कहा, इस “आर्य” शब्द को सबसे उपयुक्त अनुवाद नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इससे मध्ययुगीन अभिजात-वर्ग का बोध होता है, बल्कि इसका आशय उन लोगों से है जो उच्च कोटि के सिद्ध हों।
इसलिए पहले सत्य तथ्य को “दुख” कहा जाता है। बुद्ध ने कहा कि हमारा जीवन दुख से भरा है और जिसे हम अपने साधारण सुख के रूप में देखते हैं, उसके साथ भी अनेक समस्याएं जुड़ी होती हैं। यदि आप शब्द पर गौर करें ─ आप जानते हैं कि मैं एक अनुवादक हूँ और इसलिए शब्दों पर ध्यान देता हूँ ─ तो यदि आप उस शब्द पर गौर करें जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी में “सफरिंग” के रूप में किया गया है, तो इसके लिए संस्कृत शब्द “दुख” है। ख उसका विस्तार है और दुः उसमें जोड़ा गया उपसर्ग है। इस प्रकार सुख शब्द का अर्थ आनन्द है और दुःख शब्द का अर्थ अप्रसन्नता है; इस प्रकार दुः उपसर्ग का अर्थ असंतोषजनक, अप्रिय होता है। मैं “बुरा” जैसे आलोचनात्मक शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहता हूँ, किन्तु अर्थ उसी दिशा में इंगित करता है। तो, इसका अर्थ यह है कि इस विस्तार में कुछ समस्या है, और इस विस्तार से आशय हमारे मानसिक विस्तार से है, हमारे जीवन के विस्तार से है। यह एक अप्रिय स्थिति है।
यह स्थिति अप्रिय क्यों है? सबसे पहले तो हम स्थूल दुख को अनुभव करते हैं: पीड़ा, अप्रसन्नता, शोक। और इसे हम सभी समझ सकते हैं और हर कोई इससे बचना चाहता है, यहाँ तक कि पशु भी। तो बौद्ध धर्म यदि कहता है कि पीड़ा और शोक एक असंतोषजनक स्थिति है, तो इसमें कोई खास बात नहीं है, बेहतर हो कि हम इस विचार को यहीं छोड़ दें। दूसरी प्रकार के दुख को परिवर्तन का दुख कहा जाता है और उसका सम्बंध हमारी सामान्य रोजमर्रा की खुशी से है। तो इसमें क्या समस्या है? समस्या यह है कि यह खुशी ज़्यादा समय तक नहीं टिकती है। यह परिवर्तनशील है। यदि जिसे हम साधारण खुशी कहते हैं वही सच्ची खुशी होती, तो हमारे पास जितना अधिक होता, हम उतने ही ज़्यादा खुश होते। इसलिए यदि हमें चॉकलेट खाने से खुशी मिलती है, तो फि हम जितनी अधिक चॉकलेट खाएं, घंटों-घंटों तक लगातार, हमें उतना ही अधिक खुश होना चाहिए; लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसा होता नहीं है। ऐसे ही जब कोई प्रियजन हमारे हाथ को प्रेमपूर्वक सहलाता है, और यदि वह कई घंटों तक हमारे हाथ को यूँ ही सहलाता रहे तो हमारा हाथ दुखने लगेगा। इसलिए यह खुशी परिवर्तनशील है। और हमारी साधारण खुशी की भी यही स्थिति है, हम उससे कभी अघाते नहीं हैं, कभी संतुष्ट नहीं होते। हमें हरदम और चॉकलेट चाहिए, अगर तुरन्त नहीं, तो थोड़ी देर बाद चाहिए।
इस बारे में विचार करना बड़ा दिलचस्प रहेगा, “आपको अपना पसंदीदा भोजन कितनी मात्रा में खाना चाहिए ताकि आप उसका आनन्द ले सकें?” एक कौर, थोड़ी सी मात्रा स्वाद के लिए काफी होनी चाहिए, है कि नहीं? लेकिन हमें और चाहिए, और चाहिए। इस प्रकार की समस्या का समाधान करने की इच्छा करना, अपनी साधारण सांसारिक खुशी से जुड़ी समस्या का हल करना, यह भी अकेले बौद्ध धर्म का ही उद्देश्य नहीं है। हमारी इस साधारण खुशी पर विजय पाना और किसी प्रकार के श्रेष्ठतर चिरस्थायी आनन्द को प्राप्त करना अकेले बौद्धों का ही ध्येय नहीं है। ऐसे बहुत से धर्म हैं जो “सांसारिक सुखों के पार, किसी नित्य आनन्द वाले स्वर्ग को प्राप्त करने” की नसीहत देते हैं। इसलिए यह विषय विशेषतया बौद्ध धर्म से जुड़ा विषय नहीं है।
इस प्रकार दुख का एक तीसरा प्रकार है और यह विशेषतया बौद्ध धारणा है और इसे “सर्वव्यापी दुख” या “सर्वव्यापी समस्या” कहा जाता है। यह दुख हमारी सभी अनुभूतियों में व्याप्त है; इसका आशय हमारे नियंत्रणातीत पुनर्जन्म के चक्र से है जोकि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन के उतार-चढ़ावों का आधार है। दूसरे शब्दों में, जैसा जीवन हमें प्राप्त हुआ है, जैसा मन और शरीर हमें प्राप्त हुआ है, उसके साथ बार-बार पुनर्जन्म के चक्र से गुज़रना ही पहली दो समस्याओं का आधार है। तो, यह विचार भी हमें पुनर्जन्म के विषय की ओर ले जाता है, जिसके बारे में हम कल चर्चा करेंगे, और इसलिए मैं उसके अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा।
और, ऐसी बहुत सी भारतीय दर्शन पद्धतियाँ हैं जो पुनर्जन्म की बात करती हैं, इसलिए यह कोई नई बात नहीं है जिसकी बुद्ध ने शिक्षा दी थी। लेकिन उन्होंने इसकी व्याख्या की और इसे समझा और इसकी प्रक्रिया को अधिक गहराई से और अपने समय के दूसरे दर्शनों और धर्मों की व्याख्या से भिन्न दृष्टिकोण से समझा। और फिर उन्होंने पुनर्जन्म की प्रक्रिया की पूरी व्याख्या दी, उन्होंने बताया कि हमारा चित्त और शरीर पीड़ा, दुख, और हमारी साधारण खुशी के इन उतार-चढ़ावों को किस प्रकार अनुभव करते हैं।
इस प्रकार यह चर्चा हमें दूसरे सत्य की ओर ले जाती है, दूसरा आर्य सत्य जिसके बारे में मैंने कहा कि मैं पुनर्जन्म की प्रक्रिया की पूरी व्याख्या नहीं करूँगा, लेकिन इसका क्या कारण है? यदि हम इसके यथार्थ कारण को देख सकें तो हम यह समझने लगेंगे कि बुद्ध क्या कहना चाह रहे थे। इसलिए आज की शाम हम पुनर्जन्म की चर्चा न करके यह समझने का प्रयास करें कि बुद्ध सहज तर्कपूर्ण ढंग से हमें क्या समझा रहे थे। हम दुख और साधारण खुशी की बात करते हैं ─ इनकी उत्पत्ति किसी कारण से होती है, और बुद्ध “यथार्थ कारणों” की बात कर रहे थे। हमें ऐसा लग सकता है कि हमें पुरस्कार या दंडस्वरूप या ऐसे ही अन्य अनेक कारणों से इनकी प्राप्ति होती है, किन्तु बुद्ध ने यथार्थ कारण के बारे में बताया, और उन्होंने विनाशकारी व्यवहार और सकारात्मक व्यवहार के बारे में बताया।
विनाशकारी व्यवहार से हमारा क्या आशय है? क्या इसका अर्थ केवल किसी को नुकसान पहुँचाना है? दरअसल, जब हम नुकसान पहुँचाने वाले व्यवहार की बात करते हैं, तो इसका आशय दूसरों को नुकसान पहुँचाने से या स्वयं को नुकसान पहुँचाने से हो सकता है। इसलिए हमारे व्यवहार के आधार पर यह कहना बहुत कठिन है कि उससे किसी दूसरे को नुकसान होगा कि नहीं। हो सकता है कि हम किसी को बहुत सा धन दें, और उसके परिणामस्वरूप कोई दूसरा व्यक्ति उस धन को चुराने के लिए उस व्यक्ति की हत्या कर दे। हम नहीं जानते कि हम दूसरों के लिए जो कार्य करने जा रहे हैं उसका दूसरे व्यक्ति के लिए क्या परिणाम होगा। हम चाहते हैं कि हमारे कुछ करने से दूसरे व्यक्ति की मदद हो सके, यही हमारा ध्येय है, लेकिन ऐसा होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन यह निश्चित है कि कुछ प्रकार का व्यवहार हमारे लिए नुकसानदेह होगा। विनाशकारी व्यवहार से बुद्ध का यही आशय था। ऐसा व्यवहार आत्मनाशी होता है।
और इसका उल्लेख करने का अर्थ अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में बर्ताव करना, या बोलना या विचार करना होता है। ये अशांतकारी मनोभाव हमें अशांत करते हैं। इनके कारण हमारे चित्त की शांति भंग होती है और हम स्वयं पर नियंत्रण खो बैठते हैं। ऐसे मनोभावों से हमारा आशय क्रोध, लोभ और मोह, ईर्ष्या, अहंकार, सरलता, अनिर्णय (आप तय नहीं कर पाते हैं कि आपको क्या करना चाहिए) से होता है। ऐसे मनोभावों की एक लम्बी सूची है, और जब हमारी सोच इन सब में उलझ जाती है तो हम इनके प्रभाव में बोलते हैं, बर्ताव करते हैं, और इससे स्वयं हमारे लिए दुख ही उत्पन्न होगा। हो सकता है कि हमें तुरन्त दुख न हो, लेकिन लम्बी अवधि में होगा, क्योंकि इससे ऐसे व्यवहार को जारी रखने की प्रवृत्ति बन जाती है। वहीँ दूसरी ओर सकारात्मक व्यवहार ऐसा व्यवहार है जो इन अशांतकारी मनोभावों से प्रभावित नहीं होता है, बल्कि यह व्यवहार प्रेम और करुणा या धैर्य जैसे अधिक सकारात्मक मनोभावों से प्रभावित हो सकता है।
वहीँ दूसरी ओर, जब हम सकारात्मक व्यवहार करते हैं तो इससे सुख उपजता है। ठीक? हमारा चित्त अधिक सहज, अधिक शांत होता है। स्वयं अपने ऊपर हमारा नियंत्रण अधिक होता है, और उस स्थिति में हम न मूढ़ता की बातें करते हैं और न [मूढ़ता का] व्यवहार करते हैं। और हो सकता है कि ऐसा प्रभाव तुरन्त न उत्पन्न हो, बल्कि लम्बी अवधि में उत्पन्न हो, इस प्रकार का सकारात्मक व्यवहार से हमें जो सुख मिलता है उसमें हमारे अपने अस्तित्व के बारे में, दूसरों के अस्तित्व के बारे में, और वास्तविकता के बारे में सामान्यतया एक सरलता का भाव अन्तर्निहित होता है।
अब हम अपनी साधारण खुशी या दुख की बात करें, तो ये किसी न्यायकर्ता, किसी बाहरी शक्ति द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार या दण्ड नहीं हैं। ये तो भौतिक विज्ञान के किसी सिद्धान्त की ही भांति संचालित होते हैं। और इसका आधार क्या है? इसका आधार हमारा भ्रम है। उदाहरण के लिए, हमें मैं को लेकर भ्रम होता है; कि हमेशा सब कुछ मेरी मर्ज़ी के अनुसार हो। ठीक है? हम सोचते हैं, “मैं ही सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ; हमेशा मेरी इच्छा का सम्मान होना चाहिए और मुझे सुपरमार्केट में कतार में आगे खड़े होने का अवसर मिलना चाहिए; मुझे सबसे आगे होना चाहिए,” आदि। और इसलिए हमें स्वयं से आगे खड़े व्यक्तियों पर क्रोध आता है; हम उन्हें धक्का देते हैं। हमें सबसे आगे होने का लोभ होता है। है न? हम यह सोच कर अधीर हो जाते हैं कि आगे खड़ा व्यक्ति इतना अधिक समय लगा रहा है और फिर हमारा मन उस व्यक्ति के बारे में बहुत बुरे विचारों से भर उठता है, क्या ऐसा नहीं होता? और यदि हम सकारात्मक ढंग से बर्ताव करें, तब भी उस बर्ताव की सतह के नीचे “मैं” को लेकर बड़ा भ्रम बना रहता है। हम अक्सर लोगों की मदद इसलिए करते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि लोग हमें पसन्द करें। हम चाहते हैं कि लोग हमसे प्रेम करें या कम से कम हमें धन्यवाद तो दें; या फिर हम दूसरों की मदद यह सोचकर करते हैं कि दूसरों को हमारी आवश्यकता है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, और हालाँकि ऐसी धारणा से किस की मदद करने से हमें खुशी महसूस हो सकती है, लेकिन फिर भी इसके नीचे एक ऐसा भाव छिपा होता है जो बहुत सुखदायी नहीं होता है। और इसलिए जिस खुशी का हमें अनुभव होता है, आवश्यक नहीं कि तत्काल ही हो, बल्कि लम्बी अवधि के बाद भी हो सकता है ─ ऐसी खुशी कभी स्थायी नहीं होती है। वह किसी न किसी असंतोषजनक स्थिति में बदल जाती है। और यह सिलसिला चलता रहता है, हमारे जीवनपर्यन्त चलता है, और बौद्ध दृष्टि से हमारे अगले जन्मों में भी जारी रहता है।
और यदि हम इसे थोड़ा गहराई से देखें, तो हम पाएंगे कि हमें हर चीज़ के बारे में भ्रम होता है। है न? हम किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम में इस तरह डूबे होते हैं कि उसकी अच्छाइयों की तारीफ के पुल बाँधते नहीं थकते हैं। या, हम किसी व्यक्ति से इतनी घृणा करने लगते हैं कि उसकी बुराइयों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बखान करने लगते हैं। फिर हमें उस व्यक्ति में कोई अच्छाई दिखाई नहीं देती। हम जितनी अधिक पड़ताल करते हैं, हम पाते हैं कि हम हर समय उतना ही अधिक भ्रम में जीते हैं, हमारे सभी अनुभव भ्रम पर आधारित होते हैं। और अधिक गहराई से देखने पर हम पाएंगे कि हमारी क्षमताओं की सीमाएं इसका मूल कारण हैं। हमारी अनेक प्रकार की सीमाएं हैं, हमारा चित्त ऐसा है या शरीर ऐसा है। आप विचार करके देखें कि जब हम अपनी आँखें बन्द करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो बाकी दुनिया का अस्तित्व ही नहीं है और केवल मैं ही हूँ; और हमारे मस्तिष्क में एक स्वर सुनाई देता रहता है और ऐसा लगता है कि जैसे यह तो “मैं” हूँ, लेकिन किसके अन्दर? मेरे सिर के भीतर? मेरे शरीर के भीतर? मैं अपने ही भीतर हूँ ─ यह तो बड़ी विचित्र बात है। और हम उसे पहचान पाते हैं क्योंकि वही तो हमेशा शिकायत करता रहता है: “मुझे आगे निकलना है; मुझे यह करना है।“ वही तो है जो हमेशा चिन्ता करता रहता है। और कहीं यह आभास होने लगता है कि “मैं”, हमारे सिर में गूँजने वाला वह स्वर, मैं विशेष हूँ और मेरा अस्तित्व दूसरे सभी लोगों से स्वतंत्र है, क्योंकि जब में अपनी आँखें बन्द करता हूँ, यानी जब कुछ नहीं होता, तब सिर्फ “मैं” ही होता हूँ।
इस प्रकार यह एक बहुत ही भ्रमित सोच है क्योंकि ज़ाहिर है कि हमारा अस्तित्व दूसरों से स्वतंत्र नहीं है; और यह भी सच है कि कोई भी दूसरों से अलग या विशेष नहीं है। हम सभी मनुष्य हैं। मुझे अन्टार्कटिक में बर्फ में खड़े हज़ारों-लाखों पैंग्विन पक्षियों का दृश्य स्मरण हो आता है। इनमें से कौन सा दूसरों से अलग या विशेष है। सभी तो एक जैसे हैं। हम मनुष्यों की भी वही स्थिति है। सम्भवतः पैंग्विन पक्षियों को हम सभी मनुष्य एक जैसे दिखाई देते होंगे। लेकिन अपने विचार के स्तर पर हम सोचते हैं, “मैं तो विशेष हूँ और मैं बाकी सभी से स्वतंत्र और अलग हूँ,” तब हमें लगता है कि सब कुछ मेरी मर्ज़ी से होना चाहिए, और जब ऐसा नहीं होता तो हम नाराज़ हो जाते हैं।
और इस प्रकार हमारे चित्त, हमारे शरीर आदि का स्थूल तत्व इस भ्रम को बढ़ावा देता है। मैं देख रहा हूँ ─ ठीक है, लेकिन इस बात को कहने का यह तरीका अजीब है, जैसे अन्दर कोई “मैं” हो ─ लेकिन मैं इस सिर के आगे की ओर बने इन दो छिद्रों में से देख रहा हूँ। मैं नहीं देख सकता कि इसके पीछे क्या है। मैं बस वही देख सकता हूँ जो अभी घट रहा है। मैं यह भी नहीं देख सकता कि इससे पहले क्या हुआ था। मैं नहीं देख सकता कि बाद में क्या घटित होगा; मेरी क्षमता बहुत सीमित है। मैं बूढ़ा हो रहा हूँ। अब मुझे ठीक से सुनाई नहीं देता, इसलिए जब आप कुछ कहते हैं तो मैं ठीक से सुन नहीं पाता। मुझे लगता है कि आपने कुछ और ही कहा है और फिर उसके कारण में क्रोधित हो जाता हूँ। यह स्थिति हास्यास्पद है, है न?
और इसलिए यह एक सर्वव्यापी समस्या है कि हम इस प्रकार के शरीर, इस प्रकार के चित्त के साथ बार-बार पुनर्जन्म के चक्र से गुज़र रहे हैं जो इस भ्रम को अविरत जारी रखे हुए है। और फिर इस भ्रम के कारण हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं या साधारण सकारात्मक व्यवहार करते हैं जिससे दुख और तकलीफ और साधारण खुशी ही उत्पन्न होती है जो परिवर्तनशील है।
दरअसल, यदि हम और गहराई से देखें ─ लेकिन यह विषय जटिल है, इसलिए मैं इसकी चर्चा नहीं करने वाला हूँ ─ यह भ्रम ही तो है जो बार-बार पुनर्जन्म के इस चक्र को चलाता है जिसपर हमारा वश नहीं है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमें अधिक, और अधिक पाने की लालसा बनी रहती है। तो फिर हमारी वास्तविक समस्याओं और हमारे वास्तविक दुख का यथार्थ कारण यही है। वह कारण हमारा यह भ्रम है; यह भ्रम... मैं इसका प्रयोग एक सामान्य शब्द के रूप में कर रहा हूँ। इसके लिए ज़्यादा सटीक शब्द “अनभिज्ञता” है। अक्सर अनभिज्ञता का अनुवाद “अज्ञानता” के रूप में किया जाता है। मुझे “अज्ञानता” शब्द पसन्द नहीं है क्योंकि इसका निहितार्थ यह होता है कि हम मूढ़ हैं। समस्या यह नहीं है कि हम मूढ़ हैं। यह इसका वास्तविक अर्थ नहीं है, बल्कि “अनभिज्ञता” का अर्थ होता है कि हमें इस बात का ज्ञान नहीं है कि हमारे अस्तित्व का आधार क्या है, या सभी चीज़ों के अस्तित्व का आधार क्या है, इस अर्थ में हम अनभिज्ञ हैं। “मुझे जानकारी नहीं है” या “मुझे इसके बारे में गलत जानकारी है, मैं इस बात को उलटे ढंग से जानता हूँ”; उदाहरण के लिए, मैं ही दुनिया का अकेला व्यक्ति हूँ, मैं ही सबसे महत्वपूर्ण हूँ जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है। वास्तविकता यह है कि हम सब यहाँ एक साथ रहते हैं। हम एक-दूसरे से संवाद करते हैं; ऐसा इसलिए नहीं है कि मैं मूढ़ हूँ, बल्कि ऐसा इसिलिए है क्योंकि इस शरीर के कारण, इस चित्त के कारण ऐसा अनुभव होता है। मैं अपनी आँखें बन्द करता हूँ और मुझे अपने सिर में यह स्वर सुनाई देने लगता है, तो इस प्रकार कहा जाए तो हमारा अनभिज्ञ होना सामान्य बात है, हमारा भ्रमित होना सामान्य बात है।
और इसीलिए हम इन तथाकथित “आर्य सत्यों” की बात करते हैं। आप जानते हैं कि जो लोग वास्तविकता को देख सकते हैं वे इसे दूसरों से अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, क्योंकि हम सभी को लगता है कि हमारा भ्रम और हमारी कल्पनाएं ही वास्तविकता हैं। हम उसी को सच मान लेते हैं। हमने कभी इसके बारे में विचार नहीं किया है, लेकिन हमें ऐसा ही महसूस होता है। “मैं ही सबसे महत्वपूर्ण हूँ। मेरी ही मर्ज़ी चलनी चाहिए। सभी मुझसे ही प्रेम करें,” या इसके उलट, “सभी को मुझसे नफ़रत करनी चाहिए, क्योंकि मैं किसी काम का नहीं।“ मतलब यह कि कोई अन्तर नहीं है। एक ही सिक्के का यह दूसरा पहलू है। तो यही वास्तविक कारण है।
अब, तीसरा आर्य सत्य है... मैं इसे “यथार्थ रोधन” कहता हूँ। सामान्यतया इसका अनुवाद “यथार्थ समाप्ति” के रूप में किया जाता है, लेकिन वह एक भारी-भरकम शब्द है और उसकी आवश्यकता नहीं है; इसका अर्थ सिर्फ रोकना होता है। और इसका अर्थ यह है कि इस भ्रम से मुक्ति, उसे इस प्रकार रोकना सम्भव है कि उसकी पुनरावृत्ति न हो। और यदि हम इस भ्रम से मुक्ति पा लें, जोकि वास्तविक कारण है, तो हमें अपनी वास्तविक समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी: इस उतार-चढ़ाव और हमारे नियंत्रण से बाहर इस बार-बार के पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाएगी। इस प्रकार हमें “मुक्ति” मिल जाएगी। यदि आप संस्कृत भाषा के शब्दों से परिचित हैं तो यह नियंत्रणातीत पुनर्जन्म चक्र संस्कृत में संसार है और यह मुक्ति निर्वाण है।
बुद्ध के समय की दूसरी भारतीय पद्धतियों में भी संसार के चक्र से मुक्ति का उल्लेख किया जाता था। भारत में यह संकल्पना उस समय की विचार पद्धतियों में समान रूप से पाई जाती थी। लेकिन बुद्ध ने पाया कि ये पद्धतियाँ वास्तविक कारण का गहराई से अन्वेषण नहीं करती थीं। और इसलिए हालाँकि व्यक्ति को कुछ समय के लिए बार-बार उत्पन्न होने वाले दुख से मुक्ति मिल सकती है ─ लेकिन फिर वह कई युगों तक ऐसे पुनर्जन्मों से गुज़र सकता है जहाँ उसका चित्त विलग हो सकता है ─ लेकिन उसका भी अन्त होगा। इसलिए इन दूसरी पद्धतियों की सहायता से मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती थी।
और इसीलिए यथार्थ रोधन की बात कही जाती है। यह समझना और विश्वास करना बहुत महत्वपूर्ण है कि इस भ्रम से इस प्रकार मुक्त हो पाना सम्भव है कि वह फिर लौट कर न आ सके। अन्यथा आप उससे मुक्त होने का प्रयास ही क्यों करेंगे? नहीं तो, आप भी खामोश हो कर इस मुश्किल स्थिति को स्वीकार कर लें और अपने आप को स्थिति के अनुसार ढाल लें, जो बहुत सी चिकित्सा पद्धतियाँ अपने सर्वोच्च लक्ष्य के रूप में करने का प्रयास करती हैं। “इसे सहना सीखिए; या, कोई दवा ले लीजिए।“
इसलिए ... इस स्थिति को समझने के लिए हमें चौथे आर्य सत्य को समझना चाहिए। इस प्रकार चौथा आर्य सत्य हमें तीसरे आर्य सत्य को समझने में सहायता करता है। चौथे आर्य सत्य के बारे में, दरअसल इसका अनुवाद “सत्य मार्ग” के रूप में किया जाता है, लेकिन मार्ग का अर्थ... हम यहाँ किसी ऐसे मार्ग की बात नहीं कर रहे हैं जिस पर आप चलते हों। इसका शाब्दिक अर्थ नहीं ग्रहण किया जाना चाहिए। मार्ग से आशय उस मनःस्थिति से है जिसे यदि हम विकसित कर पाएं, तो वह मुक्ति का मार्ग बन सकती है। इसलिए मैं इसे “चित्त मार्ग” कहता हूँ, किन्तु अधिकांश दूसरी भाषाओं में इसका अनुवाद करना बहुत कठिन होता है। मूल बात यह है कि यह कोई सड़क मार्ग नहीं है; बल्कि यह चित्त की एक अवस्था है।
अब, हम कई तरह की कल्पनाएं करते हैं जो नितांत निरर्थक होती हैं। हम कई स्तरों पर कल्पनाएं करते हिं। हम बिल्कुल निरर्थक प्रकार की कल्पनाएं करते हैं; मानसिक विक्षेप इसकी पराकाष्ठा हो सकता है: सभी मेरे खिलाफ़ हैं, या विभक्त मनस्कता इसकी पराकाष्ठा हो सकता है। इन कल्पनाओं की अतिशयता कम भी हो सकती है: “मैंने इससे बेहतर चॉकलेट केक कभी नहीं देखा। यदि मैं इसे खाऊँ, तो सचमुच मुझे बड़ी खुशी मिलेगी। मैं यही तो चाहता हूँ।“ है न? मुझे इसका अनुभव यहाँ आते समय उड़ान के दौरान हुआ। मैं अपनी यात्रा के दौरान बीच में विएना में रुका था। विएना का एप्पल स्ट्रूडल, उसे दुनिया में सबसे अच्छा माना जाता है। मैंने अपने लिए एक एप्पल स्ट्रूडल मंगवाया। मुझे तो वह दुनिया में सबसे अच्छा एप्पल स्ट्रूडल नहीं लगा। तो, कल्पनाएं, निरर्थक कल्पनाएं; इनका वास्तविकता से कुछ लेना-देना नहीं है। एप्पल स्ट्रूडल होता है, ठीक है? एप्पल स्ट्रूडल मेरे मन की कल्पना नहीं था, लेकिन उसका अस्तित्व किस रूप में है इसके बारे में मेरे मन की कल्पना थी कि वह बहुत ही नायाब खाने की चीज़ है और मैं उसे खाकर सचमुच निहाल हो जाऊँगा।
इसी प्रकार, मेरा अस्तित्व है, आपका अस्तित्व है। बौद्ध धर्म यह नहीं कहता कि हमारा अस्तित्व नहीं है। लेकिन हम अपने अस्तित्व की इस प्रकार कल्पना करते हैं जो वास्तविकता से एकदम परे होती है। यह सोचना कि वस्तुओं का अस्तित्व एक-दूसरे से स्वतंत्र है ─ ऐसा अस्तित्व असम्भव है। ठीक है? वस्तुओं की उत्पत्ति कारणों और स्थितियों के परिणामस्वरूप होती है। वे सदैव परिवर्तनशील होती हैं, किन्तु हम उसे देख नहीं पाते हैं; हम केवल उतना ही देख पाते हैं जो हमारी आँखों के सामने घटित होता है। “मेरे मित्र को आना था, लेकिन वह नहीं पहुँचा,” तो यह घटना मुझे किस रूप में दिखाई देगी? “तुम बहुत बुरे हो, तुम हमेशा मुझे निराश करते हो; तुम्हें मुझसे प्रेम नहीं रहा।“ हम क्रोधित हो उठते हैं। क्योंकि हम सोचते हैं कि उस मित्र का जीवन इन बातों से स्वतंत्र है कि रास्ते में ट्रैफिक की समस्या हो सकती है, उसे दफ्तर में कोई अतिरिक्त काम हो सकता है, और भी न जाने क्या-क्या सम्भावित कारण हो सकते हैं। लेकिन यह स्थिति कारणों और स्थितियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई, और इसलिए यह असम्भव है कि वह अपनी तरफ से, सभी बातों से स्वतंत्र रहते हुए बुरा व्यक्ति बन जाए। लेकिन हमारा चित्त इसकी कल्पना कर लेता है। हम इस विचार से चिपक जाते हैं और उसे छोड़ते नहीं हैं। इससे क्रोध, अशांतकारी मनोभाव उत्पन्न होते हैं, और जब हम अगली बार उस व्यक्ति से मिलते हैं तो विनाशकारी व्यवहार करते हैं। हम उस पर चीखते-चिल्लाते हैं, उसे अपनी स्थिति स्पष्ट करने का मौका तक नहीं देते। हम भड़क उठते हैं, और इस पूरी प्रक्रिया में हम बड़े अप्रसन्न और दुखी हो जाते हैं, ऐसा होता है न?
सभी उदाहरणों में ऐसा ही होता है। मेरा अस्तित्व है, लेकिन हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा अस्तित्व बाकी सभी लोगों से स्वतंत्र है और मैं विशेष हूँ ─ यह सब निरी कल्पना है। ऐसा सोचना निरर्थक है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं है। वास्तविकता के इस अभाव को हम बौद्ध धर्म में शून्यता कहते हैं। संस्कृत भाषा में इसके लिए शून्य शब्द है; इसका मतलब यह नहीं है कि कोई पेटी या बक्सा है और वह खाली है, ऐसे शब्द का प्रयोग मूर्खतापूर्ण होगा। इसका अर्थ “कुछ नहीं” है: इसका आशय किसी मूर्त वस्तु से नहीं है। वास्तविक कुछ नहीं है, शून्य, इसका तात्पर्य कोई मूल्त वस्तु नहीं है। देखिए, हम कल्पना कर सकते हैं कि यह व्यक्ति, मेरा मित्र, किसी परी कथा के नायक या नायिका की भांति कोई राजकुमार या राजकुमारी है जिसमें कोई भी कमी न हो। ऐसा होना असम्भव है। ऐसे किसी व्यक्ति का अस्तित्व नहीं है, लेकिन हम हमेशा उसकी तलाश में रहते हैं, है न? हम सदैव उस राजकुमार या राजकुमारी की तलाश में रहते हैं और हम किसी व्यक्ति में उन गुणों की कल्पना कर लेते हैं और फिर जब वह व्यक्ति हमारी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो हम निराश हो जाते हैं और फिर किसी और की तलाश में जुट जाते हैं। ठीक, तो इस प्रकार का अस्तित्व सम्भव नहीं है। फिर इसका क्या अर्थ है? शून्य, कुछ नहीं; यही शून्यता है, अविद्यमान है।
इसलिए चित्त का यथार्थ मार्ग, यथार्थ बोध यह है कि हम समझें कि यह सब निरर्थक है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं है। अब यदि आप वास्तविक कारण को देखें, दुख का यथार्थ कारण यह है कि हम ऐसा विश्वास करते हैं कि इसका वास्तविकता से सम्बंध है। सत्य मार्ग यह है कि इसका वास्तविकता से सम्बंध नहीं है। ये बातें परस्पर अनन्य हैं। मैं इसे दोहराता हूँ। यह सोचना भ्रम है कि इसका वास्तविकता से सम्बंध है। सही बोध यह है कि ऐसा कुछ नहीं है। इसका किसी चीज़ से सम्बंध ही नहीं है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो, ऐसा कुछ है या ऐसा कुछ नहीं है, या और अधिक बलपूर्वक कहा जाए तो, ऐसा कुछ है, और ऐसा कुछ है ही नहीं। ये दोनों बातें परस्पर अनन्य हैं। इसका उत्तर या तो हाँ या फिर नहीं के रूप में ही हो सकता है। दोनों बातें एक साथ लागू नहीं हो सकती हैं।
ठीक, तो अब आप विश्लेषण करके देखें। इनमें कौन अधिक प्रबल है, “हाँ” या “नहीं”? यदि हम तर्क के आधार पर सोचें तो ज़ाहिर है कि “नहीं” ही अधिक प्रबल होगा। “हाँ” तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। यदि मैं अपनी आँखें बंद कर लूँ, तो क्या बाकी सभी लोगों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है? नहीं, हर्गिज़ नहीं। क्या यह सोचना उचित है कि हमेशा मेरी मर्ज़ी ही चले, कि मैं दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ? नहीं, यह तो हास्यास्पद है। तो, हम जितना अधिक पड़ताल करते हैं, वैज्ञानिक विधि से भी, कि क्या मेरे सिर में कोई छोटा सा “मैं” बैठा है जो बातों को कहता है? वह कहाँ है? जब आप अपने मस्तिष्क का विश्लेषण करना शुरू करते हैं, निर्णय लेने की प्रक्रिया कहाँ चलती है? सब कुछ कैसे संचालित होता है? तो हमें अपने अन्दर कोई मूर्त रूप “मैं” नहीं मिलेगा। बेशक, मैं चलता-फिरता हूँ, कामकाज करता हूँ, मैं बात करता हूँ। हम इस बात से इन्कार नहीं कर रहे हैं, लेकिन हमें उस बात से इन्कार है जो किसी कार्टून की भांति कोरी कल्पना है, कि मेरे सिर में कोई छोटा सा “मैं” “मैं” “मैं” रहता है और “मेरी मर्ज़ी चलनी ही चाहिए।“ इस प्रकार, ऐसा कुछ नहीं है के पक्ष का समर्थन तर्क से किया जा सकता है, दलील से किया जा सकता है, उसे अन्वेषण करके सिद्ध किया जा सकता है; जबकि यह कहने वाले पक्ष के समर्थन में कुछ नहीं कहा जा सकता है कि यह भ्रम वास्तविकता से सम्बंधित है।
इसके अलावा, अपने अस्तित्व के बारें में असम्भव विचार रखने का क्या परिणाम होता है? मैं अपने आप को ही अप्रसन्नता और दुख देता हूँ। वहीँ दूसरी ओर यह सोचने का क्या परिणाम होता है कि ऐसा कुछ नहीं है? मैं इन सब समस्याओं से मुक्त हो जाता हूँ। और इससे भी बढ़ कर जब मैं “ऐसी कोई चीज़ नहीं होती, यह केवल कल्पना है,” के विचार पर स्वयं को केन्द्रित करता हूँ, तो उसी के साथ मैं यह नहीं सोच सकता हूँ कि यह वास्तविक है। इस प्रकार उचित बोध त्रुटिपूर्ण समझ का स्थान ले सकता है। इसलिए, यदि हम हर समय उचित बोध पर केन्द्रित रह सकें, तो यह भ्रम, यह मिथ्या बोध, फिर कभी उत्पन्न नहीं होगा।
इस प्रकार बुद्ध ने ऐसी शिक्षाओं का उपयोग किया जो केवल बौद्ध धर्म में ही नहीं पाई जाती हैं। यही शिक्षाएं पूर्ण एकाग्रता विकसित करने की अन्य भारतीय पद्धतियों में, उचित बोध प्राप्त करने की अन्य विधियों, जिन्हें हम “ध्यान साधना” कहते हैं, में भी पाई जाती हैं। तब हम दुख को यथार्थ रूप में समाप्त कर सकते हैं, और इसीलिए इसे दुख का यथार्थ रोधन कहा गया है।
और इस सब को करने और विनाशकारी वृत्तियों से छुटकारा पाने की मानसिक शक्ति हमें प्रेरणा से मिलती है। प्रेरणा हमारे चित्त को यह सब हासिल करने की शक्ति प्रदान करती है। और यहाँ प्रेम, करुणा और इसी प्रकार के भावों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। चूँकि हम सभी आपस में एक-दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए जैसे मैं खुशी चाहता हूँ, उसी प्रकार दूसरे सभी लोग भी खुश रहना चाहते हैं। हम सभी समान और बराबर हैं और हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं। और यदि मैं सचमुच दूसरों की सहायता करना चाहता हूँ, तो फिर मुझे अपने इस मिथ्या बोध से मुक्त होना पड़ेगा। तो, चार आर्य सत्यों के बारे में यह एक आधारभूत प्रस्तुति है। और जो चर्चा हमने की है, यदि हम उसे और अधिक गहराई से समझना चाहें, तो हमें कर्म और पुनर्जन्म के बारे में थोड़ा अधिक समझना पड़ेगा, और वह हम कल करेंगे।
सारांश
हालाँकि बौद्ध धर्म की बहुत से प्रमुख धर्मों और दर्शनों के साथ बड़ी समानताएं हैं, लेकिन चार आर्य सत्य, जो बुद्ध की पहली शिक्षाएं हैं, हमारे अस्तित्व, हमें होने वाले दुख और हम किस प्रकार समस्याओं पर विजय पा सकते हैं, इन विषयों की अनूठी प्रस्तुति है।
अक्सर बुद्ध की तुलना किसी चिकित्सक से की जाती है। जिस प्रकार कोई चिकित्सक इस बात की पुष्टि करता है कि हम बीमार हैं, उसी प्रकार बुद्ध ने बताया कि जीव सभी स्थानों पर अनेक प्रकार के दुखों से ग्रसित हैं। जैसे चिकित्सक रोग के कारणों को तलाशता है वैसे ही बुद्ध ने हमें बताया कि दुख का वास्तविक कारण अपने अस्तित्व के बारे में मिथ्या बोध है। फिर चिकित्सक हमें बताता है कि हमारे रोग का उपचार हो सकता है अथवा नहीं, और यदि सम्भव हो तो वह हमें औषधि देता है। बुद्ध ने निरोध आर्य सत्य और उस तक पहुँचने के मार्ग की शिक्षा दी। यदि हमें अपने दुख पर विजय पानी है तो अन्ततः यह हम पर निर्भर करेगा कि हम औषधि को लें, या बताए गए मार्ग पर चलें।