“अशांतकारी मनोभाव” क्या है?
अशांतकारी मनोभाव चित्त की एक ऐसी अवस्था है जिसके उत्पन्न होने पर हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और हम आत्म-नियंत्रण खो बैठते हैं।
हमारे चित्त की शांति खो जाने के कारण हमें व्यग्रता होती है; इससे हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है। चूँकि चित्त की शांति भंग हो जाने के कारण हम अशांत हो जाते हैं, इसलिए हमारे विचारों और भावनाओं में स्पष्टता नहीं होती है। स्पष्टता के अभाव के कारण हमारा विवेक-बोध नष्ट हो जाता है जो कि आत्म-नियंत्रण के लिए बहुत आवश्यक होता है। हमारे पास यह योग्यता होनी चाहिए कि हम उपयोगी और अनुपयोगी के बीच भेद कर सकें; यह भेद कर सकें कि किन्हीं विशिष्ट स्थितियों में क्या उचित है और क्या अनुचित है।
अशांतकारी मनोभाव सकारात्मक चित्त-वृत्तियों के साथ भी जुड़े हो सकते हैं
आसक्ति या लालसा, क्रोध, ईर्ष्या, मिथ्याभिमान, अहंकार आदि अशांतकारी मनोभावों के उदाहरण हो सकते हैं। इनमें से कुछ अशांतकारी अभाव हमें विनाशकारी व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि हमेशा ऐसा ही हो। उदाहरण के लिए, आसक्ति और लालसा हमें विनाशकारी व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकता है – किसी चीज़ की चोरी करने के लिए प्रेरित कर सकता है। किन्तु यह भी हो सकता है कि हमारे भीतर प्रेम प्राप्त करने की लालसा हो और उसकी आसक्ति के कारण हम दूसरों की सहायता करते हैं ताकि हमें उनका प्रेम और स्नेह प्राप्त हो सके। दूसरों की सहायता करना कोई विनाशकारी आचरण नहीं है; यह तो सकारात्मक है, किन्तु उसकी उत्पत्ति एक अशांतकारी मनोभाव की प्रेरणा से हो रही है: “मैं प्रेम पाना चाहता हूँ, इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप बदले में मुझे प्रेम करें।”
या क्रोध को ही ले लें। क्रोध हमें विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकता है, किसी को क्षति पहुँचाने या उसकी हत्या करने के लिए प्रेरित कर सकता है, क्योंकि हम बहुत क्रोधित होते हैं। इस प्रकार यह एक बहुत ही विनाशकारी व्यवहार हुआ। किन्तु, मान लीजिए कि हम किसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था या किसी स्थिति को लेकर बहुत क्षुब्ध हैं – और हमें इतना क्रोध आता है कि हम उस व्यवस्था या स्थिति को बदल डालने के लिए कुछ प्रयास करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि हम कोई हिंसक कार्रवाई ही करें। लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ कुछ रचनात्मक या सकारात्मक करने के लिए प्रेरणा भी एक अशांतकारी मनोभाव से ही मिल रही है। हमारा चित्त शांत नहीं होता है, और चूँकि हमारा चित्त शांत नहीं होता है, इसलिए उस सकारात्मक कार्य को करते समय हमारा चित्त और हमारी भावनाएं बहुत स्पष्ट नहीं होती हैं और हमारी मनोदशा बहुत स्थिर नहीं होती है।
इन स्थितियों में हम लालसा या क्रोध की प्रेरणा से यह कामना करते हैं कि दूसरा व्यक्ति हमें प्रेम करे या हम चाहते हैं कि अन्याय समाप्त हो जाए। ये चित्त की स्थिर अवस्थाएं या स्थिर मनोदशाएं नहीं हैं। चित्त की इन अवस्थाओं या मनोदशाओं में स्पष्टता न होने के कारण हम स्पष्टता से विचार नहीं कर पाते हैं कि हमें क्या करना चाहिए या हम अपनी आकांक्षाओं को किस प्रकार से क्रियान्वित करें। परिणामतः अपने ऊपर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता है। उदाहरण के लिए, हम किसी कार्य को करने में किसी दूसरे व्यक्ति की सहायता कर सकते हैं, लेकिन उसकी सहायता करने का बेहतर तरीका यह होगा कि हम उस व्यक्ति को वह कार्य स्वयं करने दें। मान लीजिए कि हमारी एक बेटी हो जो सयानी हो चुकी हो और हम खाना पकाने या घर को संभालने या बच्चों की देखभाल करने में उसकी सहायता करना चाहते हों – तो बहुत हद तक यह दखलंदाज़ी है। हो सकता है कि हमारी बेटी को यह बात पसंद न आए कि कोई उसे बताए कि खाना कैसे पकाया जाए या वह अपने बच्चों की देखभाल किस तरह से करे। लेकिन हम तो चाहते हैं कि वह हमें प्रेम करे और हम अपने आप को उपयोगी साबित करना चाहते हैं, इसलिए हम अपनी राय उस पर थोपते हैं। हम एक सकारात्मक कार्य कर रहे हैं, लेकिन उस प्रक्रिया में हम आत्म-नियंत्रण खो देते हैं जो हमें ऐसा सोचने के लिए प्रेरित कर सकता था, “बेहतर हो कि मैं इस मामले में अपना मुँह बंद रखूँ और अपनी राय न दूँ और मदद की पेशकश करने से बचूँ।”
जहाँ किसी दूसरे व्यक्ति की मदद करना उचित हो, उस स्थिति में भी किसी की मदद करते समय हम निश्चिंत हो कर सहायता नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमें बदले में कुछ पाने की अपेक्षा बनी रहती है। हम चाहते हैं कि हमें प्रेम किया जाए; हम चाहते हैं कि लोग हमें अपने लिए आवश्यक समझें; हम चाहते हैं कि हमारी सराहना हो। अपने चित्त में इस प्रकार की आकांक्षा लिए जब हम पाते हैं कि हमारी बेटी या वह व्यक्ति उस प्रकार से प्रतिक्रिया नहीं कर रहा जिसकी हमें अपेक्षा है तो हम बहुत परेशान हो जाते हैं।
अशांतकारी मनोभावों के कारण हमारे चित्त की शांति भंग होने और आत्मनियंत्रण खत्म होने की यह प्रक्रिया उस समय और अधिक स्पष्टता से दिखाई देती है जब हम अन्याय का विरोध करने के लिए तैयारी करते हैं। उस अन्याय से नाराज़ होने के कारण हम बहुत उद्विग्न होते हैं। उस उद्विग्नता की स्थिति में जब हम कुछ करने का विचार करते हैं तब स्पष्टता से नहीं सोच पाते हैं कि हमें क्या करना चाहिए। हम जो बदलाव लाना चाहते हैं उसके लिए ऐसी स्थिति में हम अक्सर सबसे अच्छे विकल्प का चुनाव नहीं कर पाते हैं।
संक्षेप में, चाहे हम कोई विनाशकारी कार्य करें या कुछ सकारात्मक करें, यदि हमारा कृत्य किसी विनाशकारी मनोभाव से प्रेरित या युक्त होगा तो फिर हमारे व्यवहार से समस्याएं उत्पन्न होंगीं। हालाँकि हम इस बात का ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं लगा सकते हैं कि हमारे ऐसे व्यवहार से दूसरों के लिए समस्याएं उत्पन्न होंगी या नहीं, लेकिन इससे मूलतः हमारे लिए तो समस्याएं उत्पन्न होंगी ही। यह आवश्यक नहीं है कि ये समस्याएं तत्काल ही उत्पन्न हो जाएं; ये लम्बी अवधि में उत्पन्न होने वाली समस्याएं होती हैं जो अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में व्यवहार करते रहने के कारण अशांतकारी व्यवहार करने की आदतों का रूप धारण कर लेती हैं। इस प्रकार अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में बाध्यतावश किया गया हमारा व्यवहार समस्याएं खड़ी करने वाले आचरण की एक लम्बी श्रृंखला का निर्माण कर देता है। हमारा चित्त कभी शांत नहीं होता है।
दूसरों से प्रेम और सराहना पाने की आशा में दूसरों की सहायता करने और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए प्रेरित होना इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण है। इसके पीछे मूल कारण यह होता है कि हम अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। लेकिन हम इस भावना से जितना अधिक प्रेरित होते हैं, हम उतने ही अधिक असंतुष्ट होते चले जाते हैं, हमें कभी ऐसा महसूस नहीं होता, “ठीक है, अब मुझे प्रेम की प्राप्ति हो गई। इतना काफ़ी है, अब मुझे और अधिक की आवश्यकता नहीं है।” हमें कभी ऐसा महसूस नहीं होता। और इस प्रकार हमारा व्यवहार बाध्यतावश यह महसूस करने की हमारी आदत को प्रबल बनाता चला जाता है और अधिक सुदृढ़ करता चला जाता है कि, “मुझे लगना चाहिए कि मुझे प्रेम किया जाता है, मुझे लगना चाहिए कि मैं महत्वपूर्ण हूँ, मुझे लगना चाहिए कि मेरी सराहना की जाती है।” आप दूसरों के प्रेम को पाने की आशा में और अधिक देते चले जाते हैं, लेकिन आपको हमेशा निराशा ही हाथ लगती है। आपको निराशा इसलिए होती है क्योंकि यदि कोई व्यक्ति आपको धन्यवाद भी देता है तो आप सोचते हैं, “यह व्यक्ति सच्चे मन से धन्यवाद नहीं कर रहा है,” इस तरह की भावना आपके मन में रहती है। यही कारण है कि हमारा चित्त कभी शांत नहीं होता है। और यह स्थिति बद से बदतर होती चली जाती है क्योंकि इस संलक्षण को बार-बार दोहराया जाता रहता है। वैसे, इसी को “संसार” कहते हैं – एक ऐसी स्थिति जहाँ समस्याएं अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होती हैं।
जब कोई अशांतकारी मनोभाव हमें नकारात्मक या विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए उद्वेलित करता है तब इस संलक्षण को पहचानना इतना कठिन भी नहीं है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम हमेशा नाराज़ रहते हों, और क्योंकि हम नाराज़ रहते हैं और छोटी से छोटी बात पर भी क्रोधित हो जाते हैं, तो उस स्थिति में दूसरों के साथ अपने सम्बंधों में हम कठोर भाषा का इस्तेमाल करते हैं और अप्रिय बातें कहते हैं। और इसलिए ज़ाहिर है कि कोई भी हमें पसंद नहीं करता है और न ही हमारे साथ रहना चाहता है और इससे लोगों के साथ हमारे सम्बंधों में बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह पहचान करना काफी आसान होता है कि क्या हो रहा है। लेकिन जब हमारा सकारात्मक व्यवहार किसी अशांतकारी मनोभाव से प्रेरित होता है तब इसकी पहचान करना इतना आसान नहीं होता है। लेकिन यह आवश्यक है कि दोनों ही स्थितियों में हम इसे पहचानें।
कैसे पहचानें कि हम किसी अशांतकारी मनोभाव, दृष्टिकोण या चित्तवृत्ति से प्रभावित हैं
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि हम कैसे पहचान करें कि हम किसी अशांतकारी मनोभाव, दृष्टिकोण या चित्तवृत्ति से प्रभावित होकर व्यवहार कर रहे हैं? यह आवश्यक नहीं है कि ऐसा केवल किसी मनोभाव के कारण ही हो रहा हो; ऐसा जीवन के प्रति या स्वयं अपने प्रति किसी दृष्टिकोण के कारण भी हो रहा हो सकता है। इसके लिए हमें इतना संवेदनशील तो होना ही पड़ेगा कि हम आत्मनिरीक्षण कर सकें और यह जान सकें कि हमारे भीतर क्या कुछ चल रहा है। ऐसा करने में अशांतकारी मनोभाव या अशांतकारी दृष्टिकोण की परिभाषा बहुत उपयोगी सिद्ध होती है: ऐसे मनोभाव या दृष्टिकोण के कारण हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और आत्मनियंत्रण समाप्त हो जाता है।
जब हम कुछ कहने जा रहे हों या कुछ करने जा रहे हों, उस समय यदि हम अपने भीतर से थोड़ी भी अधीरता अनुभव करते हैं, हम पूरी तरह से शांत नहीं होते हैं, तो यह संकेत है कि हमारे भीतर कोई अशांतकारी मनोभाव मौजूद है।
हो सकता है कि यह भाव हमारे अवचेतन मन में हो और अक्सर यह अवचेतन मन में ही होता है, लेकिन उसके पीछे कोई अशांतकारी मनोभाव होता है।
मान लीजिए कि हम किसी को कोई बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि हमें ऐसा महसूस होता है कि उस व्यक्ति से बात करते समय हमारे पेट में कुछ बेचैनी है तो यह पर्याप्त संकेत है कि इसके पीछे अहंकार जैसा कोई अशांतकारी मनोभाव है। हो सकता है कि हम सोच रहे हों, “मैं कितना होशियार हूँ, मैं इस विषय को जानता हूँ। मैं इसे समझने में तुम्हारी मदद करूँगा।” हो सकता है कि हम उस व्यक्ति को कोई बात समझा कर ईमानदारी से उसकी सहायता करना चाहते हों, लेकिन यदि हमें अपने पेट में कुछ बेचैनी अनुभव होती है तो इसका मतलब है कि हमारे भीतर थोड़ा अहंकार है। ऐसा विशेष तौर पर उस समय होता है जब हम स्वयं अपनी उपलब्धियों या अपनी अच्छाइयों का बखान कर रहे होते हैं। अक्सर हम इसका अनुभव करते हैं कि थोड़ी व्यग्रता होती है।
या हम किसी अशांतकारी दृष्टिकोण, उदाहरण के लिए इस रवैये को देखें कि “हर किसी का ध्यान मेरे ऊपर केंद्रित रहना चाहिए,” हम अक्सर यह रवैया अपनाते हैं। हम अपनी अनदेखी किया जाना पसंद नहीं करते – कोई भी यह बात पसंद नहीं करता कि उसे अनदेखा किया जाए – इसलिए हम सोचते हैं, “लोगों को मेरे ऊपर ध्यान देना चाहिए और जो मैं कह रहा हूँ उसे सुनना चाहिए,” आदि। देखिए, ऐसी स्थिति में भी भीतर कुछ व्यग्रता हो सकती है, विशेष तौर पर तब जब लोग हमारे ऊपर ध्यान न दे रहे हों। वे हमारे ऊपर ध्यान दें भी क्यों? यदि आप विचार करें, तो इसका कोई विशेष कारण नहीं है।
संस्कृत भाषा का शब्द “क्लेश” जिसके लिए तिब्बती भाषा में “न्योन-मोंग” शब्द का प्रयोग किया जाता है, एक बड़ी कठिन अभिव्यक्ति है जिसका अनुवाद यहाँ मैं “अशांतकारी मनोभाव” या “अशांतकारी दृष्टिकोण” के रूप में कर रहा हूँ। यह कठिन इसलिए है क्योंकि कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो न तो मनोदशा की श्रेणी में आती हैं और न ही दृष्टिकोण की श्रेणी में आती हैं, जैसे सरलता या भोलापन। हम इतने भोले हो सकते हैं कि हमें पता ही न चले कि हमारे व्यवहार का दूसरों पर या स्वयं हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ रहा है। या हम किसी स्थिति को लेकर इतने भोले हो सकते हैं कि हमें इस वास्तविकता का पता ही न चले कि क्या हो रहा है। उदाहरण के लिए मान लें कि हम इतने अबोध हैं कि जानते ही नहीं हैं कि किसी व्यक्ति की तबीयत ठीक नहीं है या कोई व्यक्ति परेशान है। ऐसी स्थितियों में हम निश्चित तौर पर इस बात से अनजान होंगे कि उस व्यक्ति से कही गई हमारी किसी बात का क्या परिणाम होगा; हमारी सदिच्छा के बावजूद वह व्यक्ति हमसे बहुत नाराज़ हो सकता है।
जब हम ऐसी मनोदशा में होते हैं, जिसे हम अशांतकारी मनोदशा कह सकते हैं, उस समय यह आवश्यक नहीं है कि हमें अपने भीतर व्यग्रता महसूस हो। लेकिन जैसा हमने देखा, जब हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है तो हमारे चित्त की स्पष्टता खत्म हो जाती है। और इसलिए जब हम सरलता या भोलेपन के कारण अनजान होते हैं तो हमारे चित्त में स्पष्टता नहीं होती है; हम अपनी एक छोटी सी अलग दुनिया में जी रहे होते हैं। हमारा आत्म-नियंत्रण इस दृष्टि से खत्म हो जाता है कि चूँकि हम अपनी ही छोटी सी दुनिया में जी रहे होते हैं इसलिए हम यह भेद नहीं कर पाते हैं कि किसी विशेष परिस्थिति में क्या लाभदायक और उचित है और क्या अनुचित है। इस विवेक-बोध के अभाव के कारण हम उचित और संवेदनशील ढंग से व्यवहार नहीं कर पाते हैं। इस दृष्टि से सरलता या भोलापन अशांतकारी चित्तवृत्ति की परिभाषा में ठीक बैठता है, हालाँकि उसे मनोभाव या दृष्टिकोण की श्रेणी में बांटना कठिन है। जैसाकि मैंने पहले कहा, “क्लेश” एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसके लिए एक बिल्कुल सटीक और अच्छा अनुवाद ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है।
गैर-अशांतकारी मनोभाव
संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में अंग्रेज़ी शब्द “इमोशन्स” के लिए कोई शब्द नहीं है। इन भाषाओं में उन मानसिक कारकों की बात की जाती है जो हमारी मनोदशा के प्रत्येक क्षण की रचना करने वाले तत्व होते हैं। ये तत्व इन मानसिक कारकों को अशांतकारी और गैर-अशांतकारी तत्वों में विभाजित करते हैं, रचनात्मक और विनाशकारी तत्वों में विभाजित करते हैं। ये दोनों श्रेणियाँ पूरी तरह परस्पर व्याप्त नहीं होती हैं। इसके अलावा, कुछ ऐसे मानसिक कारक होते हैं जो इन दोनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आते हैं। इसलिए, पश्चिम जगत में जिन्हें हम “मनोभाव” कहते हैं उनमें से कुछ ऐसे हैं जो अशांतकारी होते हैं और कुछ ऐसे हैं जो अशांतकारी नहीं होते हैं। ऐसा नहीं है कि बौद्ध धर्म में हम सभी मनोभावों को खत्म करना चाहते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। हम तो केवल अशांतकारी मनोभावों को खत्म करना चाहते हैं। ऐसा दो चरणों में किया जाता है: पहला चरण यह है कि हम इनके नियंत्रण में न आएं, और दूसरा चरण यह है कि हम इन्हें इस प्रकार समाप्त कर दें कि वे उत्पन्न ही न हों।
गैर-अशांतकारी मनोभाव किसे कहा जाएगा? देखिए, हम विचार कर सकते हैं कि “प्रेम” एक गैर-अशांतकारी मनोभाव है या “करुणा” या “धैर्य” गैर-अशांतकारी मनोभाव हैं। लेकिन जब हम यूरोपीय भाषाओं में इनके लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्दों का विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि इनमें से प्रत्येक मनोभाव का एक अशांतकारी और एक गैर-अशांतकारी स्वरूप हो सकता है। इसलिए हमें थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। यदि प्रेम कोई ऐसा भाव है जिसमें हम यह महसूस करते हैं, “मुझे तुमसे बहुत प्रेम है, मैं तुम्हें चाहता हूँ, मुझे छोड़कर कभी मत जाना!” तो फिर इस प्रकार का प्रेम दरअसल एक बहुत अशांतकारी चित्तवृत्ति है। यह अशांतकारी इसलिए है क्योंकि यदि वह व्यक्ति बदले में हमसे प्रेम न करे या हमारी ज़रूरत न महसूस करता हो तो हम बहुत परेशान हो जाते हैं। हम बहुत नाराज़ हो जाते हैं और अचानक हमारी मनोदशा बदल जाती है, “अब मुझे तुमसे प्रेम नहीं है।”
इसलिए, जब हम किसी चित्तवृत्ति का विश्लेषण करते हैं, तो हो सकता है कि हम उसे भावात्मक चित्तवृत्ति मानते हों, और हम उसे “प्रेम” की संज्ञा देते हों, लेकिन वास्तव में यह चित्तवृत्ति बहुत से मानसिक कारकों का मिश्रण होती है। हमें किसी खालिस मनोभाव की अनुभूति नहीं होती है। हमारे मनोभाव हमेशा एक मिश्रण के रूप में होते हैं; उनके विभिन्न प्रकार के अनेक अवयव होते हैं। जिस प्रकार के प्रेम में हम महसूस करते हैं, “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता हूँ” ज़ाहिर तौर पर एक प्रकार की निर्भरता है और यह बहुत अशांतकारी है। लेकिन एक गैर-अशांतकारी प्रकार का प्रेम भी होता है जो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए इस कामना के रूप में होता है कि वह सुखी रहे और वह चाहे कुछ भी करे, उसे सुख के साधनों की प्राप्ति हो। हम उस व्यक्ति से बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते हैं।
उदाहरण के लिए हमारे मन में अपने बच्चों के प्रति गैर-अशांतकारी प्रकार का प्रेम हो सकता है। हम उनसे बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखते हैं। ठीक है, कुछ माता-पिता अपेक्षाएं रखते हैं। लेकिन आम तौर पर, संतान कुछ भी करे, हम फिर भी अपनी संतान से प्रेम करते हैं। हम उसे सुखी देखना चाहते हैं। लेकिन, अक्सर इसमें भी एक दूसरी अशांतकारी चित्तवृत्ति मिल जाती है; हम चाहते हैं कि हम संतान को सुखी बनाने के योग्य बन सकें। यदि हम अपनी संतान को खुश रखने के लिए उसे कठपुतली का खेल दिखाने के लिए ले जाने जैसा कोई कार्य करते हैं और नाकाम होते हैं, क्योंकि संतान खुश नहीं होती, उसके बजाए बच्चा अपना कम्प्यूटर गेम खेलना चाहता है, तो हमें बहुत बुरा लगता है। हमें बुरा इसलिए लगता है क्योंकि हम अपने बच्चे की खुशी का कारण बनना चाहते थे, हम नहीं चाहते थे कि कम्प्यूटर गेम उसकी खुशी का कारण बने। लेकिन फिर भी हम अपनी संतान के प्रति अपने इस भाव को “प्रेम” कहते हैं। “मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ, मैं तुम्हें खुश रखने के लिए कोशिश करूँगा, लेकिन मैं चाहता हूँ कि मैं तुम्हारे जीवन में वह सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बनना चाहता हूँ जो तुम्हें खुश करने के लिए कार्य कर रहा है।”
इसलिए, इस विस्तृत चर्चा का मुख्य बिंदु यह है कि हमें अपनी मनोदशाओं पर बड़ी सावधानी से ध्यान देना चाहिए और हम विभिन्न मनोभावों को व्यक्त करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, हमें उन शब्दों में उलझ कर नहीं रह जाना चाहिए। हमें जाँच करके यह पता लगाना चाहिए कि हमारी चित्तवृत्तियों के ऐसे कौन से पहलू हैं जो हमारे चित्त की शांति को भंग करते हैं, उसकी स्पष्टता को नष्ट करते हैं, हमारे आत्मनियंत्रण को खत्म कर देते हैं। ये वे बातें हैं जिनका हमें अभ्यास करना चाहिए।
अशांतकारी मनोभावों के बुनियादी कारण के रूप में अनभिज्ञता की भूमिका
यदि हम अशांतकारी मनोदशाओं या मनोभावों या दृष्टिकोणों से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें उनकी जड़ों तक जाना होगा। यदि हम उनके मूल को समाप्त कर सकेंगे तो हम उनसे मुक्त हो सकेंगे। बात सिर्फ समस्याएं उत्पन्न करने वाले मनोभावों से मुक्त होने की नहीं है; हमें दरअसल उस अशांतकारी मनोभाव की जड़ तक जा कर उसे समाप्त करना होगा।
तो, फिर इन अशांतकारी मनोदशाओं का गहनतम कारण क्या है? जो मूल कारण हम पाते हैं उसका अनुवाद अक्सर “अज्ञान” या जिसे मैं “अनभिज्ञता” कहता हूँ, के रूप में किया जाता है। हम उससे अनभिज्ञ होते हैं, हमें उसकी जानकारी ही नहीं होती। अज्ञान कहने से ऐसा लगता है जैसे हम मूर्ख हों। लेकिन वैसा नहीं है। बात केवल इतनी है कि हमें उसकी जानकारी नहीं होती, या हो सकता है कि हमें उस विषय का मिथ्या बोध हो: हम किसी बात को गलत ढंग से जानते हैं।
हमें किस बात का मिथ्या बोध है, हम किस बात से अनभिज्ञ हैं? मूलतः यह हमारे व्यवहार और उससे उत्पन्न स्थितियों का प्रभाव होता है। हम बहुत अधिक क्रोधित या अनुरक्त या परेशान होते हैं, और इसके कारण हम अपनी पुरानी आदतों और प्रवृत्तियों के आधार पर बाध्यकारी ढंग से व्यवहार करते हैं। यही कर्म है, हम किसी अशांतकारी मनोभाव या अशांतकारी दृष्टिकोण के प्रभाव से व्यवहार करने के लिए बाध्य होतें हैं जिसपर हमारा नियंत्रण नहीं होता है।
हमारी अनभिज्ञता इस बाध्यकारी व्यवहार का आधार होती है: हमें मालूम नहीं होता है कि हमारे कुछ कहने या करने का क्या प्रभाव होगा। या फिर हम भ्रमित होते हैं: हम सोचते हैं कि चोरी करने से हमें खुशी मिलेगी, लेकिन वैसा होता नहीं है। या हम सोचते हैं कि किसी की सहायता करने से मुझे अनुभव होगा कि लोगों को मेरी आवश्यकता है और वे मुझसे प्रेम करते हैं, लेकिन वैसा नहीं होता। इस प्रकार हमें नहीं मालूम होता कि इस प्रकार के व्यवहार का क्या प्रभाव होगा। “मुझे नहीं मालूम था कि मेरे ऐसा कहने से आपको चोट पहुँचेगी।” या हमें इसका मिथ्या बोध होता है। “मैंने तो सोचा था कि ऐसा करना फायदेमंद होगा, लेकिन वैसा हुआ नहीं।” “मैंने सोचा था कि इससे मैं सुखी हो जाऊँगा, किन्तु वैसा नहीं हुआ।” या इससे आप प्रसन्न होंगे, लेकिन वैसा नहीं हुआ। या स्थितियों के बारे में, “मुझे मालूम नहीं था कि आप व्यस्त हैं।” या “मैं नहीं जानता था कि आप विवाहित हैं।” या हो सकता है कि हमें मिथ्या बोध हो, “मैंने तो सोचा था कि आपके पास बहुत समय होगा।” किन्तु वास्तवकिता यह नहीं है। “मैंने सोचा था कि आप अविवाहित हैं या किसी से सम्बद्ध नहीं हैं, इसलिए मैंने प्रेम सम्बंध बढ़ाने का प्रयास किया,” जो अनुचित है। तो यहाँ भी हम स्थितियों से अनभिज्ञ होते हैं: या तो हमें स्थितियों का बोध नहीं होता या फिर हमें उनके बारे में मिथ्या बोध होता है: हमें उनके बारे में गलत जानकारी होती है।
वास्तविकता यह है कि अनभिज्ञता हमारे बाध्यकारी व्यवहार का मूल कारण है। लेकिन यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है कि अशांतकारी मनोभावों का मूल कारण भी यही है और अशांतकारी मनोभाव बाध्यकारी व्यवहार से आवश्यक रूप से जुड़े होते हैं। इसलिए हमें इन विषयों के बारे में और अधिक सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।