शरणागति ग्रहण करने के निहितार्थ

शरणागति हमारे जीवन का मूलभूत अभिविन्यास

हमने कई समस्याओं के विषय में चर्चा की है जिनका हम बौद्ध-धर्म में सामना करते हैं, और हमने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया है कि बौद्ध शिक्षाओं को अपने जीवन में लागू करने में हम में से अधिकांश को क्या समस्या होती है | इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए हमें शरणागति के समग्र विषय को देखना आवश्यक है | बौद्ध-धर्मी मार्ग के प्रारम्भिक चरणों में ऐसी कई बातें हैं जिन्हें हम नगण्य मानकर छोड़ देते हैं | कई लोगों के लिए शरणागति इनमें से एक है | यह दुःख की बात है, क्योंकि जब शरणागति हमारे लिए नगण्य और अर्थहीन हो जाती है, तब हम स्वयं को बौद्ध साधना की आधारशिला से वंचित कर लेते हैं |

शरणागति ग्रहण करना केवल सूत्र दोहराना और बालों की छोटी-सी लट काटना, जैसे कुछ परम्पराओं में होता है, और एक बौद्ध नाम अपनाना नहीं है - यह शरणागति का सार-तत्त्व नहीं है | बल्कि, यह जीवन के प्रति मनोदृष्टि में पूर्ण मौलिक परिवर्तन है | यह चित्त की अवस्था है जिससे हम अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा देते हैं, जो है आत्म-सुधार की दिशा - संसार को कुछ बेहतर बनाने के लिए आत्म-उत्थान, जैसे हमने पहले चर्चा की थी, या विमुक्ति प्राप्त करने के लिए, या ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए ताकि हम दूसरों की अधिकाधिक सहायता कर सकें | ऐसा नहीं है कि शरणागति से हम किसी पंथ के प्रति अपनी निष्ठा प्रतिबद्ध कर रहे हैं | और पंथ से मेरा अभिप्राय केवल संगठित पंथ नहीं है; यह किसी गुरु के विशिष्ट व्यक्तित्व का पंथ भी हो सकता है | इसके स्थान पर, शरणागति हमारे जीवन को एक पूर्णतः नया अभिविन्यास देती है ताकि जब यह अभिविन्यास हमारे जीवन में स्थिर हो जाए, तो हम यह समझ पाएँ कि हमें जीवन में क्या करना है, हमारा जीवन किस दिशा में जा रहा है, और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है | वह है विकास |

जब हमें यह समझ में आ जाएगा कि हम जीवन में किस ओर जा रहे हैं - हम जीवन में क्या कर रहे हैं - तब सारी शिक्षाएँ इस आधारशिला पर टिक जाती हैं | विशेष रूप से, हम बुद्ध की शिक्षाओं और बुद्ध के उदाहरण से उस सुरक्षित और सकारात्मक दिशा की आशा करते हैं | शरणागति पर लम्बे प्रवचन की आवश्यकता नहीं है, परन्तु मेरे विचार में, जो बात अत्यंत सहायक सिद्ध होगी वह है इन शिक्षाओं के प्रति ऐसी मनोदृष्टि विकसित करना जिसका आधार हमारे जीवन में शरणागति की सुरक्षित दिशा हो | इसका अर्थ है कि हम सभी शिक्षाओं को इस प्रसंग में देखें कि वे दुखों को कम करें या उनका निवारण करें और दूसरों की सहायता करने में सक्षम हों | हम इन शिक्षाओं को गंभीरता से लेते हैं और हमें विश्वास है कि बुद्ध ने, या किसी परवर्ती अनुयायी ने, केवल इस उद्देश्य से इन्हें प्रदान किया था ताकि हम दुःख को कम अथवा पूर्णतः समाप्त कर पाएँ और दूसरों के प्रति सहायक होने में समर्थ हो सकें | किसी भी शिक्षा का पूर्ण उद्देश्य यही होता है | हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि इस शिक्षा में ऐसा क्या है जो इन लक्ष्यों की प्राप्ति में हमारी सहायता कर सकता है |

आनुष्ठानिक साधना के गहनतर उद्देश्य को देखना

आइए हम इन विभिन्न अनुष्ठानों का उदाहरण लें जिन्हें हम प्रायः बौद्ध साधना कहते हैं | देवी-देवताओं के साथ ये सभी साधनाएँ - अनुष्ठान, पूजा इत्यादि - बुद्ध की शिक्षाएँ हैं | इसका अर्थ है कि इनसे हमारी समस्याओं का निवारण होना चाहिए और दूसरों की सहायता होनी चाहिए | यह कैसे संभव होता है? शरणागति प्राप्त करने का अर्थ है कि हम इन अनुष्ठानों को गंभीरता से लें और इनका विश्लेषण करके समझें कि ये इन लक्ष्यों को कैसे सिद्ध करते हैं | और फिर हम इन्हें उस उद्देश्य के लिए लागू करें | हम इन आनुष्ठानिक साधनाओं को इस प्रकार समझें |

ये हमारी विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्ति में किस प्रकार सहायता करती हैं, इसका उत्तर इतना स्पष्ट नहीं होगा | किन्तु, इसका केवल यही अर्थ है कि यह चुनौतीपूर्ण है | अपने जीवन में शरणागति की सुरक्षित दिशा से उत्पन्न यह मनोदृष्टि यदि न हो, तो हमारे जीवन के लिए ये विभिन्न आनुष्ठानिक साधनाएँ अप्रासंगिक हैं - वे हमारे अन्तर्मन को छू नहीं पातीं और इसलिए इनका नगण्य या शून्य प्रभाव होता है | बल्कि, यह सोचते हुए इन साधनाओं के प्रति इस प्रकार की मनोदृष्टि होना, कि,"ये केवल किसी प्रकार के प्राच्य अनुष्ठान हैं जिन्हें करने में, हमारे अच्छे क्षणों में, आनंद आता है परन्तु अन्य क्षणों में कुछ नीरस और थोपी गई प्रतीत होती हैं," जब हमारी ऐसी मनोदृष्टि होगी तो इनसे कोई लाभ नहीं होगा | इनका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा | और इस सकारात्मक प्रभाव का अभाव यह दर्शाता है कि हम इन शिक्षाओं को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं | हमारा बुद्ध के प्रति अथवा इस तथ्य के प्रति कि उनकी सिखाई साधनाओं से हमारी सहायता होगी, उन्मुक्तता और आदर की मनोदृष्टि नहीं है | उन्होंने केवल मनोरंजक अथवा भीषण रूप से नीरस शिक्षाएँ ही नहीं दीं, जिनका पालन हमें कर्तव्य अथवा अपराध की भावना सहित केवल "अच्छा" बनने के लिए करना पड़े |

ये बातें केवल इन आनुष्ठानिक साधनाओं पर ही नहीं, अपितु शिक्षाओं के सभी पहलुओं पर लागू होती हैं | हम बौद्ध शिक्षाओं के विषय में विभिन्न विचित्र बातें सुनते हैं | कभी-कभी यह अनुवाद की समस्या भी हो सकती है | इसके कई उदाहरण हैं, जहाँ पाश्चात्य भाषाओं में अनुवाद के लिए प्रयुक्त किया गया शब्द पूर्णतः अशुद्ध व्याख्या देता है | मेरे प्रिय उदाहरण हैं: सद्गुण और दुर्गुण, पुण्य, पाप, आदि |यह सारी ईसाई शब्दावली है; यह बौद्ध-धर्मी नहीं है | यह सब चाहिए  के विचार के इर्दगिर्द घूमता है: "मुझे ऐसा करना चाहिए और मुझे वैसा नहीं करना चाहिए; यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो मैं अच्छा हूँ, और यदि मैं वैसा नहीं करता, तो मैं बुरा हूँ |" इसका सम्बन्ध निर्णयकारी पृष्ठभूमि से है जिसमें ईश्वर न्यायाधीश हैं | यह बौद्ध-धर्म का प्रसंग बिलकुल नहीं है |

जब हमें शिक्षाओं में समस्या या विभ्रांति होती है, तब हमें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि कहीं यह अनुवाद के कारण तो नहीं हो रहा | यह बहुत महत्त्वपूर्ण चरण है | परन्तु जैसा मैंने कहा था, शिक्षाओं में कई विचित्र बातें हैं, जैसे नरक गतियों या मेरु पर्वत के विषय में शिक्षाएँ | हम उन्हें देखकर कह सकते हैं, "यह मूर्खता है और यह मुझे पसंद नहीं है," या हम उनका प्रयोजन समझने का प्रयास कर सकते हैं जिसके कारण वे हमारे लिए बेहतर पुनर्जन्म, मुक्ति अथवा ज्ञानोदय प्राप्ति का साधन बनती हैं | यदि हमारे जीवन में शरणागति की सुदृढ़ दिशा होती, तो हम इन सभी शिक्षाओं को अस्वीकार करने के बजाय उन्हें समझने का प्रयास करते |

कहानियाँ पढ़ाना

मुझे कर्म विषयक शिक्षाएँ याद हैं | सरकॉंग रिन्पोचे कालजयी उदाहरणों के द्वारा कर्म पढ़ाते थे, जैसे उस व्यक्ति का उदाहरण जिसका हाथी सोने का मलत्याग करता था | क्योंकि यह हाथी इतनी भीड़ और हंगामा आकर्षित करता कि वह व्यक्ति जब भी उससे पीछा छुटाने की कोशिश करता, वह ऐसा न कर पाता | हाथी हर बार वापस लौट आता | पश्चिमवासी होने के कारण हम ऐसी कहानी को सुनकर कहेंगे, "छोड़ो! ऐसा असंभव है |" हम थोड़ा झेंप भी जाते हैं | हम अपने माता-पिता को ऐसी पुस्तक नहीं दिखाना चाहेंगे कि जो हम पढ़ रहे हैं उसमें ऐसा कुछ है | वे निस्संदेह सोचेंगे कि हम पागल हो गए हैं | जब मैं सरकॉंग रिन्पोचे से यह कहता था तो उनका उत्तर बहुत रोचक होता था | वे कहते थे, "यदि बुद्ध एक अच्छी कहानी बनाना चाहते, तो वे इससे अच्छी कहानी बना सकते थे |"

हम रिन्पोचे की बात को दो तरह से समझ सकते हैं | एक कि हम कहानी को केवल उसके शाब्दिक स्तर पर लें, और मेरा पक्का विश्वास है कि पारम्परिक एशियाई संस्कृतियों में कई लोग इन्हें शाब्दिक स्तर पर लेते भी होंगे | परन्तु, मुझे नहीं लगता कि सरकॉंग रिन्पोचे के उत्तर का केवल यही अर्थ रहा होगा | इसे समझने का दूसरा ढंग यह है कि यह केवल मनोरंजन के लिए नहीं कही गई, क्योंकि, बुद्ध चाहते तो हमारा इससे कहीं अधिक मनोरंजन कर सकते थे | परन्तु इस कहानी में हमारे लिए एक सीख है | पश्चिम में भी हमारे यहाँ ऐसी मौखिक परम्परा है; हर आयु के लोगों को ये कहानियाँ सुनाई जाती हैं, जिन्हें नीति कथा, पौराणिक कथा, कल्पित कथा, एवं परी कथा कहा जाता है | हर कथा में एक सीख छिपी होती है, प्रायः कारण और प्रभाव के विषय में, और यह एक अत्यंत मान्य और प्रभावकारी शिक्षा पद्धति है | हमें बात को सीधे, क्रमबद्ध ढंग से सिखाने की आवश्यकता नहीं है | हम इस प्रकार की कहानियों द्वारा भी सीख दे सकते हैं |

फिर, यदि हमारी शरणागति सुदृढ़ है, तो जब हम ये सभी अद्भुत बातें ग्रंथों में पढ़ते हैं, जैसे, "लाखों बुद्धक्षेत्रों में लाखों बुद्धजन हैं, और प्रत्येक बुद्ध के प्रत्येक रंध्र में लाखों अन्य बुद्धक्षेत्र हैं," तो हम उनका अभिप्राय समझने का प्रयास करते हैं | "यह निस्संदेह मेरी सहायता के लिए है, वहाँ उस मूर्ख के लिए नहीं जो इस सब पर विश्वास कर लेगा | ध्येय है कि जीवन में मैं अपनी समस्याओं से उबर पाऊँ, ताकि मैं दूसरों के लिए अधिक हितकारी सिद्ध होऊँ | यह कैसे संभव है? यहाँ मेरे लिए क्या शिक्षा है?" इस मनोदृष्टि के साथ, हम अधिक सरलता से सभी शिक्षाओं से व्यक्तिगत रूप से सम्बद्ध हो सकते हैं |

गोरखधंधे के हिस्सों को मिलाना

बौद्ध-धर्म की मूल शिक्षा पद्धति को समझना अत्यंत आवश्यक है | मूल पद्धति है शिष्य को गोरखधंधे के हिस्से देना | फिर शिष्य की ज़िम्मेदारी है कि वह उन्हें मिलाए | और एक कुशल गुरु हमें गोरखधंधे के सारे हिस्से एक साथ नहीं देते | हमें अन्य हिस्से माँगने पड़ते हैं। यदि हम नहीं माँगते, तो इसका अर्थ है कि हमारे भीतर इसके प्रति रूचि नहीं है, हम वास्तव में प्रेरित नहीं है। तो इसलिए यदि गुरु ने हमें अधिक हिस्से दिए होते, तो वे व्यर्थ हो जाते।

इस प्रकार शिक्षाएँ प्रस्तुत करने से शिष्य के भीतर उत्साह, धैर्य, एवं कठिन परिश्रम विकसित होता है - ये सब गुण शिक्षाओं को हमारे भीतर जड़ पकड़ने में सहायता करते हैं। बौद्ध शिक्षण प्रक्रिया केवल कंप्यूटर की फाइल की प्रतिलिपि खाली सीडी (CD) में डालना भर नहीं है। यह गुरु से शिष्य में ज्ञान का केवल स्थानांतरण नहीं है। पूरी शिक्षण प्रक्रिया का उद्देश्य शिष्यों के रूप में हमारे व्यक्तित्व का विकास है।

इसलिए हमें उसी ढंग से इन शिक्षाओं को ग्रहण करना चाहिए एवं अधीर होकर शिकायत नहीं करनी चाहिए, "आपने सबकुछ व्याख्यायित नहीं किया" अथवा "यह स्पष्ट नहीं है," इत्यादि। हमें गोरखधंधे के सभी हिस्से बटोरकर उन्हें सही ढंग से लगाने का प्रयास करना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि वास्तव में उनका अर्थ क्या है? उनका जीवन से सम्बन्ध क्या है? सीखने की प्रक्रिया के प्रति वैसी मनोदृष्टि विकसित करने में शरणागति हमारी सहायता करती है। यह शरणागति का एक बिंदु है।

शरणागति के अनंतिम तथा अंतिम स्रोत  

शरणागति का दूसरा बिंदु है: जब जीवन कठिन हो और सबकुछ गड़बड़ चल रहा हो तब हम किसकी शरण में जाएँ? जब कुछ बुरा होता है या लोग घबराहट महसूस करते हैं तो उनमें से कुछ फ्रिज की ओर जाते हैं। अथवा वे मदिरा या नशीले पदार्थों या काम-क्रिया या खेल-कूद की शरण लेते हैं। लोग अनेक प्रकार की वस्तुओं में शरण लेते हैं। हमारे भीतर शरणागति का यह पहलू समझने की दृष्टि से अत्यंत रोचक है | जब हालात कठिन हों, तब हम किस वस्तु या व्यक्ति का सहारा लें? क्या हम किसी मित्र से मदद माँगें? क्या हम मदिरापान करें? हम कह सकते हैं, "किन्तु मुझे बुद्ध, धर्म और संघ का सहारा लेना चाहिए |" परन्तु वह थोड़ा कष्टप्रद हो जाता है, क्योंकि वह मनोदृष्टि आसानी से "भगवान मेरी सहायता कीजिए - बुद्ध मेरी सहायता कीजिए, " में क्षरित हो जाती है |

शिक्षाओं में अनंतिम शरणागति एवं अंतिम शरणागति की बात की गई है | मैं अपना उदाहरण लेता हूँ | जब मैं किसी बात को लेकर घबराया हुआ या परेशान होता हूँ, तब मैं फ्रिज की ओर जाता हूँ | मैं अपनी मनपसंद चीज़ खाता हूँ, और थोड़ा बेहतर महसूस करता हूँ | आपको याद होगा हमने पहले आर्य सत्य की बात की थी: जीवन कठिन है | इसको स्वीकार करना आवश्यक है | मैं अपने विषय में जानता हूँ कि जब मेरी ऊर्जा-वात थोड़ी घबराई अथवा असंतुलित होती है, तब मैं यदि कुछ खा लूँ, विशेषतः गेहूँ की ब्रेड, तो वह उस वात को शांत करके मुझे थोड़ा धीरज देती है | जब हम अस्वस्थ होते हैं तो एक एस्पिरिन लेते हैं, पर यह मेरी समस्याओं का पूर्ण समाधान नहीं है | मैं यह बात अच्छी तरह जानता हूँ | मैं स्वयं से कहता हूँ, "मैं जानता हूँ कि यह केवल सतही स्तर पर मेरी सहायता करेगी, परन्तु, मेरे पास वह गहनतर दिशा है जिसकी सहायता से मेरी समस्या का वास्तव में समाधान होगा |"

निस्संदेह, हमें यहाँ विवेक से काम लेना होगा, क्योंकि यदि समस्या से जूझने से लिए हमारी अनंतिम सहायता ही परिवर्ती कारक होता, तो हम कह सकते थे, "यदि मैं हेरोइन का सेवन करूँ, तो वह भी मेरी अनंतिम एस्पिरिन है, और मैं गहनतर समाधान जानता हूँ |" चॉकलेट खाने और हेरोइन के सेवन में अंतर है। हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारी किसी भी अनंतिम शरणागति से हमें अथवा दूसरों को कोई भी हानि नहीं होगी। ऐसा नहीं होने देना चाहिए कि, "चूँकि मुझे बाहर निकलकर खरगोश का शिकार पसंद है, इसलिए जब भी मुझे घबराहट हो, तो मैं बाहर जाकर किसी को भी अपना शिकार बना लूँ।"

तो हमें कुछ इस प्रकार काम करना चाहिए, "आवश्यकता पड़ने पर मैं किसकी शरण में जाऊँ?" बजाय इसके कि, "मुझे बुद्ध, धर्म, संघ, की शरण में जाना चाहिए, इसलिए मैं यहाँ बैठकर ध्यान-साधना करूँगा । और यदि मैं इसके बजाय कुछ बिस्कुट खा लूँ इसका अर्थ है कि मैं एक बुरा व्यक्ति या बुरा बौद्ध-धर्मी हूँ।" जब तक हम समझते हैं कि यह हमारा अंतिम समाधान नहीं है, तब तक एस्पिरिन खाना, बिस्कुट या वह चॉकलेट खाना - किसी से फ़ोन पर बात करना - या कुछ भी करना ठीक है। यदि हम उसे गहनतम समाधान के रूप में देखेंगे तब उसके निष्फल होने पर हमें हताशा होगी। उसके द्वारा मिली किसी भी राहत का चिरस्थायी होना असंभव है। वह सतही है। अंततः, जीवन कठिन है। ये शरणागति के कुछ पहलू हैं।

बाइबिल-सम्बन्धी नैतिकता

यदि मेरे भीतर खरगोश को मारने की इच्छा होती, तो मेरे मन में यह विचार भी आता, "मुझे खरगोशों को नहीं मारना चाहिए।" यह "चाहिए" का प्रश्न फिर आ गया है।

कदाचित हमें चित्र के इस भाग में कूची से छोटी-छोटी रेखाएँ जो "चाहिए" और "नहीं चाहिए" हैं नहीं बनानी चाहिए तथा इस विषय को और गहनता से समझना चाहिए।  

"चाहिए" और "नहीं चाहिए" की चर्चा कई बातों के इर्द-गिर्द घूमती है: नीति शास्त्र और नीति शास्त्र विषयक समग्र दृष्टिकोण, तथा शून्यता विषयक शिक्षाएँ। उदाहरण के लिए बाइबिल-सम्बन्धी नैतिकता एक तंत्र है जो ऐसे उच्चतर आधिकारिक सत्व पर आधारित है जिसने कुछ नियम और क़ानून बनाए हैं, और इसलिए ऐसे तंत्र में नीति शास्त्र के अनुसार आज्ञाकारी होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में एक नैतिक व्यक्ति एक आज्ञाकारी व्यक्ति है जो इन उच्चतर नियमों का पालन करता है। यदि हम इनका पालन करते हैं तो हम अच्छे हैं। यदि हम इनकी अवज्ञा करते हैं, तो हम बुरे हैं और हमें दंड मिलेगा। इस उच्चतर आधिकारिक सत्व की हमारे प्रति एक विशेष मूल भावात्मक प्रतिक्रिया होती है, इसलिए यदि हम इस सत्व की आज्ञा मानते हैं, तो वह हमें चाहेगा और उसका फल देगा। यदि हम उसकी अवज्ञा करेंगे, तो यह सत्व हमें नापसंद करेगा, भविष्य में हमें नहीं चाहेगा और हमें दंड देगा। इस प्रकार के नीति शास्त्र की यह भावात्मक गुणवत्ता है।

हम इसके विषय पर ईश्ववर अथवा अपने माता-पिता के सन्दर्भ में बात कर सकते हैं। हम इसे अपने माता-पिता पर भी प्रक्षेपित करते हैं, जो सदा हमसे कहते हैं, "अच्छी लड़की बनो; अच्छा लड़का बनो; बुरे मत बनो।" यदि हम अवज्ञा करते हैं, तो हम बुरे हैं और हमें लगता है कि वे हमें अब नहीं चाहते और इसलिए हम उन्हें खुश करना चाहते हैं। हमारा नैतिक आचरण इस उच्चतर आधिकारिक सत्व को खुश करने की इच्छा पर आधारित है जिसने नियम बनाए हैं।

इसलिए, हम में से अधिकांश लोग जो बाइबिल का अनुसरण करने वाली सभ्यताओं में बड़े हुए हैं, हमारी पूरी आचारनीति "चाहिए" और "नहीं चाहिए" पर आधारित है। हम जानना चाहते हैं, "मुझे क्या करना चाहिए?" ताकि मुझे पसंद किया जाए, मुझे पुरस्कृत किया जाए, और सबकुछ ठीक रहे। यद्यपि, एक स्तर पर, जो मैं समझा रहा हूँ वह संभवतः कुछ अधिक ही एकपक्षीय प्रतीत होता है, तथापि यह अचरज की बात है कि हम कितना अधिक इस प्रकार का व्यवहार करते हैं। जब हम किसी नई स्थिति में होते हैं, तो हम जानना चाहते हैं कि हमें क्या करना चाहिए। हम चाहते हैं कि कोई आकर हमें नियम बताए। जब हम एक बार नियम समझ लेते हैं, तब हमें पता होता है कि किस बात का पालन करना है और फिर हमें सुखद अनुभूति होती है। फिर सबकुछ व्यवस्थित और हमारे नियंत्रण में होता है।

नियंत्रण में रखने का मुद्दा

यह बिंदु "नियंत्रण में रखने" के विषय में है। जब हम सभी नियम जानते हैं तथा यह भी जानते हैं कि हमें उनका पालन करना है, तब हमें ऐसा लगता है कि यदि हम उनका पालन करेंगे, तो हम स्थिति को "नियंत्रण में" रख पाएँगे। हमें लगता है कि हमें भविष्य की घटनाओं का ज्ञान है, इसलिए सभी क़ानून जानने से हम थोड़ा सुरक्षित महसूस करते हैं। जब हम जीवन को इस मनोदृष्टि से देखते हैं कि स्थिति हमारे नियंत्रण में हो, वह आज्ञाकारिता की मनोदृष्टि, ये नियम और सबकुछ सुव्यवस्थित हो, तब हम वास्तव में उस मनोभाव को अपने आचरण का आधार बनाते हैं जो हमें अच्छा बनने तथा दूसरों को खुश रखने का ज्ञान देता है।

यह दृष्टिकोण एक मूर्त "मैं" तथा एक मूर्त "आप", जो नियम बना रहा है, की अवधारणा पर आधारित है। इस प्रकार हम सदा इस "मैं" के बारे में चिंतित रहते हैं जिसका तिरस्कार अथवा परित्याग कर दिया जाएगा - अदनवाटिका से खदेड़ दिया जाएगा - यदि हमने बुरा व्यवहार किया। इस मूर्त "मैं" के साथ उलझे रहने के कारण, हमारे समक्ष यह भय और नियंत्रण के ये सारे मुद्दे आते हैं - नियंत्रण में रखने की धुन सवार रहना । हमें लगता है कि पूर्ण अव्यवस्था ही इसका विकल्प है और वह हमारे उस भय के समान है जो हम दीवारें ढहाकर महसूस करते है, सबकुछ अस्त-व्यस्त होगा तो हमारे पास अपने बचाव के लिए कोई आड़ नहीं होगी। पश्चिम में हमारे पास प्रायः यह सुदृढ़ सांस्कृतिक धरोहर होती है, नीतिशास्त्र के प्रति इस प्रकार की मनोदृष्टि जो "चाहिए"  और "नहीं चाहिए" तथा नियमों का पालन करने पर आधारित होती है।

फिर, यदि हमारी यह मनोदृष्टि है, तो हम इसी रूप में बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं को देखते हैं। हम बौद्ध नीतिशास्त्र को भी "मुझे क्या करना चाहिए" और क्या "नहीं करना चाहिए" के नियमों की दृष्टि से देखते हैं: "मुझे कीड़े-मकौड़ों को नहीं  मारना चाहिए । मुझे प्रतिदिन अपना मंत्रोच्चार करना चाहिए । यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो मैं बुरा हूँ और मेरे गुरु मुझे नहीं चाहेंगे। वे अप्रसन्न होंगे और मुझे भविष्य में प्यार नहीं करेंगे।"

हमारे मध्यांतर में किसी ने कहा था कि कभी-कभी हमारे गुरु की दी गई शिक्षाओं का पालन करना बहुत कठिन होता है | परन्तु फिर भी हम अच्छा शिष्य बनना चाहते हैं; हम चाहते हैं कि गुरु हमें पसंद करें और हम उन्हें खुश करें | इसलिए, गुरु की शिक्षा का पालन करने के स्थान पर, हम उनके प्रति एक प्रकार की धर्म-पंथी मानसिकता अपना लेते हैं जिसका आधार यह विचार होता है, "मेरे गुरु सबसे उत्तम हैं |" हम, कदाचित अनजाने में, मान लेते हैं कि इससे हमारे हुरु प्रसन्न होंगे | उनकी दी गई शिक्षाओं पर अमल करके उनके प्रति अपनी निष्ठा दिखाने के बजाय हम सोचते हैं कि उनके प्रति निष्ठावान होने का अर्थ है उनकी आराधना करना | इसलिए हम "चाहिए" और "नहीं चाहिए" के विचार को अपने गुरु की आराधना पर अध्यारोपित कर लेते हैं, जैसे एक धर्म-सम्प्रदाय में होता है | हम ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि हमारे गुरु द्वारा दी गई धर्म की शिक्षा का पालन करना अत्यंत कठिन होता है |

बौद्ध-धर्मी नैतिकता

वास्तव में, पाश्चात्य नैतिक-शास्त्र बाइबिल के दृष्टिकोण एवं प्राचीन यूनान के दृष्टिकोण का संयोजन है | यूनानी वर्णन में, क़ानून दैविक देन न होकर, नागरिकों के विधानमंडल द्वारा बनाए गए हैं | नागरिक एकजुट होकर समाज के कल्याण के लिए क़ानून बनाते हैं | यह फिर वही प्रश्न है, "उनका पालन करो और सब ठीक होगा; उनकी अवज्ञा करो और तुम्हें कारागार में डालकर समाज के एक बुरे नागरिक के रूप में दंड मिलेगा |"

पाश्चात्य समाज बाइबिल एवं नागर नीतिशास्त्र को एक रोचक ढंग से जोड़ता है, परन्तु ये दोनों ही बौद्ध नीतिशास्त्र के लिए प्रासंगिक नहीं हैं | बौद्ध नीतिशास्त्र में प्रमुख बात यह नहीं है कि हम जानें कि क़ानून क्या हैं और यदि हम उन्हें स्पष्टतः समझ लें, तो हमें केवल इनका पालन करना है | यह स्थिति-निर्धारण बिलकुल नहीं है | बुद्ध ने यह कभी नहीं कहा कि हमें क्या करना "चाहिए" और क्या "नहीं करना चाहिए" | बुद्ध ने कहा, "यदि तुम ऐसा कर्म करोगे, तो ऐसा फल मिलेगा | यदि तुम वैसा कर्म करोगे, तो वैसा फल मिलेगा |" अन्य शब्दों में, हम क्या करना चाहते हैं, यह हमारे हाथ में है | हम क्या करते हैं यह हमारा चयन है | यदि हम दीवार से अपना सिर फोड़ते रहेंगे, तो हमें चोट लगती रहेगी | यदि हम दीवार से अपना सिर फोड़ना बंद कर देंगे, तो हम अधिक सुखी हो पाएँगे | उन्होंने यह नहीं कहा था, "तुम्हें दीवार से अपना सिर फोड़ना बंद कर देना चाहिए |" उन्होंने केवल यह बताया कि यदि तुम सिर फोड़ोगे तो क्या होगा, और यदि नहीं फोड़ोगे तो क्या होगा |

तो, यह हमारे हाथ में है कि हम वैयक्तिक स्तर पर विभेद करें और चयन करें | यदि हम अपने कष्ट और अपनी समस्याओं से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो हमें अपने व्यवहार को ऐसे या वैसे बदलने की आवश्यकता है | यदि हम इसकी परवाह नहीं करते... तो, ठीक है | बदलाव मत लाइए | यह अच्छे या बुरे का प्रश्न नहीं है | यह केवल इतना है: यदि आप यातना झेलते रहना चाहते हैं, तो यह आपकी इच्छा है - यह आपका विशेषाधिकार है | यदि आप अपने कष्टों से छुटकारा चाहते हैं, तो आपको अपना व्यवहार बदलना होगा |" यह इस बात का खंडन नहीं करता कि समाज में कुछ क़ानून आवश्यक हैं | हमें अपराधियों को जेल में डालना ही पड़ेगा ताकि वे लोगों की हत्या न करते रहें | बौद्ध नीतिशास्त्र इस बात का विरोध नहीं करता |

वैयक्तिक विकास के लिए, हमें "सविवेकी सचेतनता" अथवा "प्रज्ञा" का विकास करना चाहिए | हमें इसके बीच विभेद करना होगा कि हमारे तथा दूसरों के लिए क्या सहायक है और क्या हानिकारक | दूसरों को किससे हानि होगी, यह जानना अधिक कठिन है, इसलिए हम इस बात पर बल देंगे कि हम उससे बचें जिससे हमें हानि होगी | उदाहरण के लिए, हो सकता है हम किसी को खुश करने के लिए उसे एक गुलाब दें और उसे उससे एलर्जी हो जाए | यह जानना अत्यंत कठिन है कि दूसरे को किससे लाभ होगा | इसलिए, बल इस विभेद करने पर है कि हमारे लिए क्या हानिकारक है और क्या लाभकारी - यह पहचानना अधिक सरल है | मुद्दा यह नहीं है " मुझे ऐसा करना चाहिए या मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए |" परन्तु, यह समझने के बजाय हम अपने गुरु के पास यह सोचकर जाते हैं, "बताइए मुझे क्या करना चाहिए | मैं साधना किस प्रकार करूँ? मुझे क्या करना चाहिए?" यह सहायक नहीं होता |

दंड के भय से निपटना

परन्तु जब मैं कारण और प्रभाव के कार्मिक सत्य के इस पहलू को जान लेता हूँ, तब मेरे मन में हानिकारक कृत्य का भय रहता है - मैं दण्डित होने से भयभीत होता हूँ। मैं भयमुक्त होकर अपने कर्मों के विषय में पूर्णतः मुक्त चुनाव करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं सकारात्मक ढंग से चयन करूँ तथा मेरे हानिकारक व्यवहार को त्यागने का कारण भय न हो। यह बचकानी बात है और मुझे पसंद नहीं है। तो मैं इस भय और अपराध-बोध से मुक्त होने के लिए स्वयं को किस प्रकार प्रशिक्षित कर सकता हूँ?

भय का आधार है एक मूर्त "मैं" के लिए छटपटाना। हम सोचते हैं कि एक मूर्त "मैं" है तथा हम उस मूर्त "मैं" के लिए समर्थन चाहते हैं तथा हम दंड एवं असम्मति से डरते हैं। हमारे भीतर भय है। हमें केवल यही भ्रांत धारणा हो सकती है, जिसका सम्बन्ध केवल "मैं" से हो या हम इसे और अधिक उलझा सकते हैं एक ऐसे मूर्त रूप से विद्यमान आधिकारिक सत्व में आस्था रखकर जिसे यह मूर्त "मैं" खुश करना चाहता है और जिसकी स्वीकृति चाहता है। यह इस बात को और अधिक उलझा देता है, क्योंकि हम उस मूर्त रूप से विद्यमान आधिकारिक सत्व द्वारा त्याग दिए जाने से डरते हैं।

मुझे पता है कि इस प्रकार दी गई व्याख्या उचित नहीं है, क्योंकि हमें शून्यता की चर्चा और गहनता से करनी चाहिए ताकि हम बौद्ध-धर्म की इस सारगर्भित शिक्षा के प्रति यह सोचकर प्रतिक्रिया न करें कि, "मैं बुरा हूँ, मैं इसे समझ नहीं पा रहा, इसलिए मैं मूर्ख हूँ," अथवा दूसरे अतिवाद में जाकर कहें, "मैं विद्यमान नहीं हूँ।" इसलिए, मैं इसकी थोड़ी व्याख्या करता हूँ।

भ्रामक प्रतीतियाँ

मूलतः, हमारा चित्त वस्तुओं को इस रूप में प्रस्तुत करता है जो यथार्थ से मेल नहीं खाता। ऐसा स्वतः होता है। हम सब अपने मन में एक बोलती आवाज़ अनुभव करते हैं और हमारे चित्त उसे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं जैसे हमारे भीतर कोई बोल रहा हो। ऐसा प्रतीत होता है कि उस आवाज़ का कोई जनक है जो वहाँ अंदर बोल रहा है और कह रहा है, "अब मैं क्या करूँ? ओह नहीं, यह होने वाला है।" यह इस प्रकार प्रतीत होता है और हम सोचते हैं कि उस आवाज़ का जनक "मैं" हूँ, एक मूर्त रूप से विद्यमान "मैं"।

जब हम इन तथाकथित "भ्रामक प्रतीतियों" की चर्चा करते हैं, तब हम इन सामान्य प्रकार की प्रतीतियों की बात कर रहे होते हैं जो हम सब में है, जैसे यह। हमारा चित्त इसे इस प्रकार प्रस्तुत करता है जैसे हमारे सिर के भीतर नियंत्रण कक्ष में एक छोटा-सा व्यक्ति, "मैं" बैठा हुआ हो। ये सारी सूचना हमारी आँखों और कानों में आती है, और तब वह छोटा-सा "मैं" कहता है, "ओह, मुझे क्या करना चाहिए? शायद मुझे यह करना चाहिए, शायद मुझे वह करना चाहिए। ओह, मैं यह करूंगा..." और वह एक बटन दबाता है जो हमारे शरीर से यह कहलवाता है या वह करवाता है।

मूर्त "मैं" की इस अवधारणा को हम सच मानते हैं। हमारा चित्त इस रूप में वस्तुओं की भ्रामक प्रतीति प्रस्तुत कर रहा है और इस पूरे संलक्षण में, कि "मुझे यह करना चाहिए और मुझे क्या करना चाहिए?" तथा "मैं अच्छा बनना चाहता हूँ" और "मैं बुरा नहीं बनना चाहता", भय का आधार यही है। परन्तु सच यह है कि हमारे सिर के भीतर कोई छोटा-सा मूर्त सत्व नहीं है। वह कहाँ है? - जो इस बात को लेकर बहुत चिंतित है कि मुझे क्या करना चाहिए और जो अनुचित कार्य करने से इतना डरता है। जब हम स्वयं को ऐसे "मैं" के रूप में वास्तव में अस्तित्वमान होने के लिए छटपटा रहे होते हैं - और यह शब्द "छटपटाना" आसानी से समझ नहीं आता - तब हमारे मन में यह भय उत्पन्न होता है।

थामना

आइए इस शब्द "थामना" के विषय में अधिक पता लगाएँ। मेरे मन में हमेशा यह छवि आती है कि एक चूहा पानी के तालाब में डूब रहा है और उसके पास जो कुछ तैर रहा है, वह उसे थामेगा और डूबने से बचने के लिए उसे किसी भी तरह पकड़े रहेगा। जब हम थामने की बात करते हैं, तब एक निराशाजनक स्थिति होती है और हम अत्यधिक असुरक्षित और भ्रमित महसूस कर रहे होते हैं। इसलिए, उस डूबते चूहे की तरह, स्थिति को किसी भी तरह संभालने के लिए हम किसी भी चीज़ का सहारा लेते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी के साथ एक समस्याजनक स्थिति में होते हैं, तो हम उनके किसी भी कृत्य को लपक लेते हैं और सोचते हैं, "आह! इसका अर्थ है कि तुम मुझे वास्तव में नहीं चाहते" अथवा "इसका अर्थ है कि तुम मुझे बिलकुल नहीं चाहते।"

या हम समस्याजनक सम्बन्ध में हैं और दूसरा व्यक्ति हमारे साथ दुर्व्यवहार करता है, हमारे प्रति बहुत नकारात्मक व्यवहार करता है, परन्तु हम इसे स्वीकार नहीं करते और हम त्यागे जाने से डरते हैं, तो हम किसी भी चीज़ को कसकर पकड़ने का प्रयास करते हैं। मान लीजिए कि हम संभोग करते हैं और यदि दूसरा व्यक्ति अपनी कामुक तृप्ति के लिए हमारा मात्र उपयोग कर भी रहा हो, तब भी हम उससे चिपके रहते हैं और सोचते हैं, "मेरे साथ संभोग करने से कम-से-कम यह तो स्पष्ट है कि यह व्यक्ति मुझे सचमुच प्यार करता है।" और हम, उस डूबते चूहे की भाँति, कसकर पकड़े रहते हैं क्योंकि हमें यह डर होता है कि यदि हम अपनी पकड़ ढीली कर देंगे तो हम डूब जाएँगे, हमें त्याग दिया जाएगा।

जीवन भी इसके समान है। यह भयावह है। हमें नहीं पता कि हमें क्या करना है। यह भ्रामक है। हम कुछ स्थायित्व चाहते हैं और इसलिए हम अपने द्वारा प्रक्षेपित किसी मिथक को कसकर पकड़ लेते हैं । हम उसे थाम लेते हैं जो हमारी धारणा के अनुसार हमें अधिक स्थिर और सुरक्षित महसूस कराएगा, जो हमें सच्चे मूर्त अस्तित्व की अनुभूति देगा। उदाहरण के लिए हम अपने मन की आवाज़ को थाम लेते हैं और सोचते हैं, "यह मैं हूँ!" अथवा हम और किसी भी वस्तु को थाम लेते हैं: हमारा शरीर, हमारा व्यवसाय, हमारी गाड़ी, हमारा कुत्ता, कुछ भी। यह बहुत जटिल प्रक्रिया है; अभी हमारे पास उसकी चर्चा का समय नहीं है। परन्तु, चाहे वह सचेतन हो या अचेतन, एक बहुत गहन अनुभूति है कि यदि मैंने किसी वस्तु को नहीं थामा, तो मैं डूब जाऊँगा।

नियमों के प्रति भी हमारी यही मनोदृष्टि है; हम इस बात को थाम लेते हैं कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, क्योंकि हमें लगता है कि यदि हमारे पास वह ढाँचा नहीं होगा और सबकुछ हमारे नियंत्रण में नहीं होगा, तो हम डूब जाएँगे। सच यह है कि हम तैर सकते हैं; तैरने का विकल्प उपलब्ध है और हम तैर सकते हैं | हमें हाथ-पैर मारकर किसी भी वस्तु को थामने की आवश्यकता नहीं है | हम जीवन को स्वाभाविक और मुक्त रूप से जी सकते हैं | निस्संदेह, हमें ऐसा, विवेक के साथ, लाभप्रद और हानिकारक के बीच विभेद करते हुए करना होगा | परन्तु लाभप्रद और हानिकारक का वह ज्ञान पत्थर पर अंकित ठोस नियमों का ज्ञान नहीं हैं |

शाब्दिक अवधारणापरक विचार

कुछ लोगों का मस्तिष्क शब्दों की ध्वनि के साथ धारणापरक रूप से कार्य करता है। ठीक है। ऐसा ही सही। कोई बड़ी बात नहीं है। यह कोई ऐसी उल्लेखनीय बात नहीं है। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ भीतर कोई छोटे आकार का सत्व ये शब्द बोल रहा है, परन्तु वहाँ कोई नहीं है। हमारे सिर में शब्दों की ध्वनि केवल हमारे मस्तिष्क के कार्य करने की प्रक्रिया है। यह अवधारणापरक विचारों सहित कार्य करता है जो प्रायः शब्दों की ध्वनियों के साथ सम्बद्ध हैं।

हम फिर भी निर्णय ले सकते हैं, और ऐसा शब्दों सहित सोचने के आधार पर कर सकते हैं, परन्तु उसे इस मूर्त "मैं" के विचार का आधार लिए बिना जो हमारे मन में बातें करता है और चिंता करता है, "मुझे क्या करना चाहिए?" और अनुचित कार्य करने से इतना डरता है। केवल कर्म कीजिए। जीवन में इसके बीच विभेद करके कर्म कीजिए कि क्या लाभप्रद है और क्या हानिकारक। निस्संदेह, हम कोई हानिकारक कार्य नहीं करना चाहते, परन्तु यह आवश्यक है कि हम स्वयं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर न देखें और ऐसा न सोचें कि जो कुछ होता है मैं उस सब के लिए उत्तरदायी हूँ। ऐसा नहीं है। किसी स्थिति में हमारा योगदान हो सकता है, पर केवल हम ही उसका कारण नहीं हो सकते। हमें हानि का कारण होने से बचना चाहिए, परन्तु उससे डरना नहीं चाहिए।

हमारे भीतर हानि न पहुँचाने की प्रबल इच्छा हो सकती है और वह उससे डरने से भिन्न है। यह एक प्रबल मंशा है: "मैं हानि नहीं पहुँचाना चाहता; मैं प्रयास करूँगा कि मुझसे कोई हानि न पहुँचे। मैं स्वयं अथवा दूसरों को हानि नहीं पहुँचाना चाहता।" हमारे भीतर कोई छोटा-सा मूर्त "मैं" नहीं है जो इस पूरी बात से डर के कारण काँप रहा हो। परन्तु इस बोध के साथ-साथ हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम परम्परागत "मैं" को न नकारें: "मैं यहाँ हूँ और मैं यह कर रहा हूँ और मैं वह नहीं करना चाहता" इत्यादि। "मैं कष्ट भुगतना नहीं चाहता।" परम्परागत "मैं" केवल "मैं" शब्द के शाब्दिक अर्थ के सन्दर्भ में विद्यमान है, जो हमारे व्यक्तिगत अनुभव के क्षण-सातत्य के आधार पर आरोपित है।

संक्षेप में, यद्यपि यह सरल नहीं है, डर से जीतने का केवल एक ही रास्ता है जो है शून्यता का ज्ञान। दूसरी ओर, हमें किसी भी वस्तु और व्यक्ति से डरने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही, हमें यह भी ध्यान रखना है कि हम स्वयं को पूर्ण रूप से न नकारें, जैसे हमारा कोई अस्तित्व हो ही नहीं। एक मध्यम मार्ग अपनाना अत्यंत आवश्यक है जो हमें न तो डर के अतिवाद तक ले जाए और न ही इस अतिवाद तक कि "मेरे कर्म से कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि मैं वास्तव में विद्यमान हूँ ही नहीं।" जब हम यह अनुभव कर रहे हों, इस विषय में इतने चिंतित हों कि "मुझे क्या करना चाहिए?" और "मैं अच्छा बनना चाहता हूँ, मैं बुरा नहीं बनना चाहता," तब हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि यह विचार इस भ्रांत अवधारणा से उत्पन्न हो रहा है कि हमारे भीतर एक छोटा-सा मूर्त "मैं" है जो एक रोता हुआ छोटा बालक है, "मुझे क्या करना चाहिए?"

बुद्ध की शिक्षा विधि

इस "मैं" के बोध पर आधारित बुद्ध की शिक्षा-विधि का एक उदाहरण है जब एक माता अपने मृत शिशु के साथ बुद्ध के पास आई। वे बुद्ध के सामने गिड़गिड़ाई, "बुद्ध, कृपया मेरे शिशु को पुनः जीवित कर दीजिए।" बुद्ध ने उत्तर दिया, "पहले एक ऐसे परिवार के घर से मेरे लिए एक सरसों का दाना लाओ जहाँ कभी भी मृत्यु न हुई हो और फिर हम बात करेंगे।" वह माता एक के बाद एक कई घरों में गई, और शीघ्र ही वह समझ गई कि मृत्यु सब परिवारों में, हर किसी को आती है। इस प्रकार, वह अपने शिशु की मृत्यु को स्वीकार कर पाई। वह स्वतः ही यह बात समझ गई। बुद्ध ने यह नहीं कहा, "तुम्हें मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं पूछना चाहिए। यह मूर्खता है, क्योंकि सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। मृत्यु और अनित्यता को याद रखो। तुम्हारे इस कथन के कारण तुम बुरी हो।" और उन्होंने यह भी नहीं कहा: "ओह, कोई बात नहीं, क्योंकि तुम्हारा शिशु स्वर्ग अथवा किसी बुद्ध-क्षेत्र में चला गया है।" बल्कि, बुद्ध ने ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं, जिनसे वह माता अपने शिशु की मृत्यु को स्वयं समझ पाई।  

इसी प्रकार, जब हम धर्म के गोरखधंधे के हिस्सों को स्वयं लगाते हैं, तो उसका हमपर अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है | यदि हम गुरु के पास जाकर कहें, "मुझे क्या करना चाहिए? मुझे उत्तर दीजिए, ताकि मुझे स्वयं न सोचना पड़े या अपने निर्णय स्वयं न लेने पड़ें, क्योंकि मैं ग़लत निर्णय लेने से डरता हूँ," तो बौद्ध-धर्म के द्वारा हम जिस आध्यात्मिक विकास की खोज कर रहे हैं वह पूरी प्रक्रिया खटाई में पड़ जाएगी। इसके स्थान पर, जैसे मैं कहता आया हूँ, हमें इस बात का ध्यान रखना है कि हम क्या कर रहे हैं तथा हमें अपने कृत्यों का उत्तरदायित्व लेने की और स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। देखभाल करना और सतर्क रहना डर से उत्पन्न नहीं होते। अपने कृत्यों का हमारे ऊपर तथा दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसके प्रति सरोकार रखना अथवा चिंता करना सतर्क रहना है। ऐसी चिंता करुणामय होने के अनुरूप है, अर्थात कष्ट से मुक्त होने की इच्छा। देखभाल करना भी परम्परागत "मैं" - मूर्त "मैं" नहीं - के अस्तित्व का पुष्टिकरण है, जो हमारे कर्मों के चयन के परिणाम को अनुभव करेगा। 

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