समस्यामूलक परिस्थितियों से जूझना
हम इस पूरे विषय पर चर्चा कर रहे थे कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए और उससे जो भय उत्पन्न होता है, इत्यादि | हमने देखा कि यह पूरा विवाद अपने बारे में भ्रांत धारणा से होता है | हमें परम्परागत, अपने और अपने आसपास हर किसी के सामान्य अस्तित्व, तथा यथार्थ अस्तित्व, जो वास्तव में है ही नहीं, के बीच विभेद करना चाहिए | याद रखें, जब हम शून्यता की बात करते हैं, हम असंभव रूप से अस्तित्वमान होने के अभाव की बात कर रहे हैं, जो विद्यमान है ही नहीं |
परन्तु,वस्तुतः वस्तुओं का अस्तित्व कैसे होता है? बौद्ध-धर्म में, हम कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु की अनेक कारकों के आधार पर उत्पत्ति होती है - कारण, अंग, मानसिक झुकाव और उनके सिद्धांत, इत्यादि | हम केवल इस स्तर पर रहेंगे जहाँ घटनाओं की उत्पत्ति और उनका अस्तित्व उनके कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर होता है | इस दृष्टिकोण से, हम कह सकते हैं कि घटनाएँ यथार्थ नहीं है - यथार्थ से अभिप्राय है किसी एक कारण से उनकी उत्पत्ति नहीं होती - अपितु, सबकुछ काफी जटिल है और इसलिए अत्यंत जटिल अंतःक्रिया से उद्भूत होता है |
उदाहरण के लिए, जब हम परिस्थितियों का सामना करते हैं, सबकुछ काला और सफ़ेद नहीं होता: "तुम्हें ऐसा करना चाहिए और ऐसा नहीं, " तथा, उसके कारण, केवल एक प्रकार का व्यवहार उचित है और दूसरा अनुचित | वास्तव में, जिस भी समस्याकारी परिस्थिति में हम हैं वह बहुत जटिल है और उसका हम जो भी समाधान निकालेंगे वह कई कारकों पर निर्भर करेगा | इसलिए हमारे समाधान में बहुत संवेदनशीलता और सजगता होनी चाहिए | जब हम विधानों का आँख मूँदकर अनुसरण करने और "होना चाहिए" व "नहीं होना चाहिए" के संलक्षण से उबरने लगेंगे, तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि हमारे निर्णय का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि यह सब केवल हमारी कल्पना में है | इसका अर्थ यह है कि इन समस्याकारी परिस्थितियों का समाधान ढूंढ़ने की हमारी क्षमता में हठी होने के बजाय: "यह रही नियम पुस्तिका और इसलिए मैं नियम देखकर उसका पालन करूँगा" - जो "होना चहिए" और "नहीं होना चाहिए" शब्दावली में हठी प्रतिक्रिया है - हम अपनी भेद-दृष्टि, अपना विवेक और अपना सारा अनुभव प्रयुक्त करके परिस्थिति का उपयुक्त समाधान ढूँढ़ते हैं | इसके लिए बहुत लचीलेपन की आवश्यकता है | किसी समस्या के समाधान के लिए हम जितने अधिक कारकों को ध्यान में रखेंगे, समझदारी से उसके समाधान की उतनी अधिक संभावना होगी | जब हम अनेक कारकों को ध्यान में नहीं रखते, तो हमारे समाधान से समस्या सुलझती नहीं है |
इसलिए, जब हम कहते हैं कि सबकुछ सफ़ेद या काला नहीं होता, तो इससे इस तथ्य का खंडन नहीं होता कि किसी समस्या का हमारे पास प्रभावी या प्रभावहीन समाधान हो सकता है | यह याद रखना आवश्यक है | साथ ही, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हम भगवान नहीं हैं | हम चुटकी बजाते ही हर समस्या का समाधान नहीं कर सकते |
शून्यता को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए सकारात्मक शक्ति का विकास
क्या ध्यान-साधना सत्र में स्वयं शून्यता अथवा रिक्तता को प्रत्यक्ष अनुभव करना संभव है और क्या मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? या यह केवल तभी संभव है जब कोई गुरु शून्यता से हमारा परिचय करवाए?
त्सांग्खपा मूर्ख नहीं थे | उन्होंने बहुत परिश्रम किया और उन्हें शून्यता के विषय में हम सब से कहीं अधिक सटीक बोध था | किन्तु, उन्होंने देखा कि शून्यता के सही निर्वैचारिक बोध के लिए उन्हें आवश्यकता थी अधिक सकारात्मक संभाव्यता विकसित करने की, जिसे प्रायः "पुण्य" कहा जाता है | इसी पथ पर बहुत आगे चलकर, उन्होंने निश्चय किया कि 100,000 दंडवत प्रणाम के 35 आसन करना और 100,000 भेंटों के 18 आसन करना आवश्यक है | यह सब करने के बाद, वे निर्वैचारिक और सही रूप में शून्यता को समझ पाए | मेरे विचार में वह बहुत महत्त्वपूर्ण शिक्षा है | चाहे हम स्वयं बैठकर शून्यता समझने का प्रयास कर रहे हों अथवा एक गुरु आकर कहे, "अलेक्स, यह शून्यता है, शून्यता यह अलेक्स है, आओ तुम्हारा परिचय करवाऊँ, " यदि हमारे भीतर वह सकारात्मक संभाव्यता या तथा-कथित "पुण्य" नहीं है, तो कुछ नहीं होगा |
हम सदा पुण्य एवं अंतर्दृष्टि के दो संग्रहों को संचित करने की आवश्यकता के विषय में सुनते हैं, अथवा मैं उन्हें "भण्डार" या "सकारात्मक सम्भाव्यताओं" के "नेटवर्क" या "सकारात्मक बल" और "गहन सजगता" कहना पसंद करता हूँ | मेरे विचार में, चाहे हम उन्हें कुछ भी कहें, इन दोनों को संचित करना अत्यंत आवश्यक है और यह सत्य है, ऐसा मैं अपने अनुभव से जानता हूँ | जब हम कुछ समझने का प्रयास कर रहे होते हैं या कुछ पाने का या कुछ भी, चाहे वह साधना में हो या पुस्तक लिखने में या और कुछ - कोई समस्या समझना - कभी-कभी हम ऐसे पड़ाव पर पहुँच जाते हैं कि हमें एक प्रकार के मानसिक अवरोध का सामना करना पड़ता है | हम आगे नहीं जा पाते | हम एक पठार पर पहुँच जाते हैं या हम एक प्रकार से नीरस से हो जाते हैं | समस्या यह है कि अब आगे जाने के लिए हमारी शक्ति बहुत क्षीण पड़ चुकी है | और आगे जाने के लिए, हमें कुछ सकारात्मक ऊर्जा, किसी प्रकार के सकारात्मक बल अथवा संभाव्यता की आवश्यकता होती है | पुण्य यही बतलाता है | ऐसा नहीं कि हमें और अंकों की आवश्यकता है जैसे किसी खेल को जीतने के लिए होती है | ऐसी स्थितियों में जहाँ हम अटक गए हों, जिससे सहायता मिलती है वह है वर्तमान कार्य को एक ओर रखकर कुछ सकारात्मक करना - उदाहरण के लिए, जाकर दूसरों की सहायता करना |
यह कई प्रकार से किया जा सकता है | सबसे सरल ढंग, जिसका मैं प्रायः प्रयोग करता हूँ जब मैं कुछ समझ नहीं पाता और समझना चाहता हूँ और जल्दी से अपने चित्त को निर्मल करना चाहता हूँ - जैसे लिखते समय यदि मुझे सही शब्द न सूझे या स्पष्ट रूप से कहने का सही ढंग समझ न आए - तब मैं रूककर उपयुक्त मानस-दर्शन सहित मंजुश्री मन्त्र दोहराता हूँ | यह बहुत लाभकारी होता है | यदि हम बिना मन्त्र जाप करे स्वयं पर दबाव डालें - "मुझे समझना है; मुझे समझना है!" - , तो उपमा के लिए क्षमा चाहूँगा, परन्तु यह ऐसा है कि हमें कब्ज़ है और हम शौच के लिए ज़ोर लगा रहे हैं | कुछ नहीं निकलेगा | हमें केवल कष्ट होगा |
फिर, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, वह है शांत रहना ताकि हम अधिक सपष्ट हो जाएँ, और उसके लिए इस प्रकार की मन्त्र साधना बहुत प्रभावी है | विशेषतः जब मैं चाहूँ कि मेरा चित्त बहुत तीक्ष्ण और स्पष्ट हो और इसलिए मैं एक बहुत प्रबल लक्ष्य निश्चित करता हूँ और वैसा बनने की इच्छा करता हूँ, तब मन्त्र और अधिक प्रभावी हो जाता है | और वह उससे भी अधिक प्रभावी हो जाता है जब मैं अपने मंत्रोच्चार मानस-दर्शन सहित करता हूँ जिससे मुझे अपना चित्त तीव्रता से केंद्रित करने में सहायता मिलती है | ऐसी स्थिति में हम मानो उस नुस्खे में कुछ मिला रहे हैं | हम इस मंत्रोच्चार से सकारात्मक बल और संभाव्यता मिश्रित करते हैं ताकि हम उस मानसिक अवरोध को पार कर सकें | मैंने देखा है कि यह कारगर होता है | फिर, यदि हम बहुत निर्मल हैं, तो समाधान बिना शक्ति लगाए निकल आता है |
यह एक स्थिति है जिसमें हमें एक प्रकार के त्वरित समाधान की आवश्यकता होती है, उदाहरण के लिए भाषांतरण करते समय जब मैं सही शब्द नहीं ढूंढ़ पाता | कुछ अन्य परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें हमारी ऊर्जा एक प्रकार से कुछ मंद पड़ जाती है | मैंने अपने अनुभव से यह जाना है कि जब मैं भ्रमण करता हूँ और शिक्षा देता हूँ, तो मैं उसे एक प्रकार का बोधिचित्त एकांतवास मानता हूँ, और इससे सहायता मिलती है | मैं उसको इस दृष्टि से भी देख सकता हूँ, "यह मेरे लेखन में एक बड़ी अड़चन है, " और अपनी मेज़ तथा अपने कंप्यूटर से दूर व्यतीत किए गए इस समय को कोस भी सकता हूँ | या मैं इसे सकारात्मक रूप में देख सकता हूँ जो मेरे लेखन को अधिक स्पष्ट बनाने में मेरी सहायता करेगा |
मैं ये उदाहरण केवल अपने जीवन से ले रहा हूँ, पर यह रवैया किसी के भी जीवन पर लागू किया जा सकता है - चाहे हम घर में किसी परिस्थिति का सामना कर रहे हों, परिवार में, या किसी रिश्ते में और हम अवरुद्ध महसूस कर रहे हों | यदि हम अस्पताल में सकारात्मक स्वैच्छिक योगदान दें या ऐसा कोई कार्य करें, जो भी हमारी परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त हो, तो इससे सकारात्मक बल तथा संभाव्यता अर्जित करने में बहुत सहयोग मिलेगा |
सकारात्मक संभाव्यता के भण्डार को संचित करने की यह विधि केवल हमारे मानसिक अवरोध तक सीमित नहीं है | उदाहरण के लिए, इस व्याख्यान यात्रा के लिए निकलने से पहले मेरा लेखन बहुत अच्छा जा रहा था | कहीं कोई रुकावट नहीं थी | पर मैं एक मायने में चाहता हूँ कि यह और अच्छा हो; मेरे भीतर और अधिक ऊर्जा हो | मुझे नहीं लगता कि त्सोंगखपा ऐसे मोड़ पर आए होंगे जहाँ उन्हें कुछ न सूझ रहा हो | बल्कि, मुझे लगता है कि वे जान गए होंगे कि कुछ अनोखा अनुभव करने के लिए, शून्यता का सटीक निर्वैचारिक बोध प्राप्त करने के लिए, उन्हें और अधिक सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होगी |
हमारी सकारात्मक संभाव्यता को विकसित करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम बोधिचित्त एकांतवास में अवश्य जाएँ जैसे मैं जाता हूँ और अपना लेखन पीछे छोड़ जाता हूँ जब भी मुझे पढ़ाने के लिए यात्रा करनी पड़ती है | हम इन दोनों का समागम भी कर सकते हैं - ध्यान-साधना और दूसरों की सहायता | इसका अर्थ यह नहीं कि अवरोध के कारण हम शून्यता पर साधना करना बंद कर दें, परन्तु हमें कुछ और सकारात्मक ऊर्जा प्रयुक्त करनी होगी | यह हम अपनी साधना के बीच में भी कर सकते हैं | मेरे विचार में यह बहुत महत्त्वपूर्ण है | केवल बैठकर साधना करना पर्याप्त नहीं है, बिलकुल नहीं | हमें और सक्रिय होना होगा, उत्तरोत्तर सकारात्मक बल विकसित करना होगा और वास्तव में दूसरों की सहायता करनी होगी |
एक आध्यात्मिक गुरु होने का महत्त्व
यह हमें आध्यात्मिक गुरु के विषय की ओर लाता है | इस प्रक्रिया में गुरु की भूमिका क्या है? स्पष्टतः, हमारे समक्ष प्रत्येकबुद्धजन, "आत्म-साधकों" का उदाहरण है | हमें प्रत्येकबुद्धजनों को भूलना नहीं चाहिए | उनका मार्ग वही है जो महात्मा बुद्ध ने सिखाया था | शरणागति के वृक्ष पर उनका स्थान बहुत ऊँचा है | ये वे बुद्धजन हैं जो तमोयुग में विद्यमान थे जब न कोई अन्य बुद्धजन थे और न ही गुरु | साधना और प्रगति के लिए, धर्म के सन्दर्भ में उन्हें केवल अपने सहज-बोध का सहारा था, जो उन्होंने महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को ग्रहण करके अपने पूर्वजन्मों में संचित किया था |
यदि हम उनके विषय में सोचें, तो प्रत्येकबुद्ध अत्यंत साहसी होते हैं | जब अन्य लोग आध्यात्मिक विकास के प्रति उदासीन अथवा पूर्णतः प्रतिकूल होते हैं, तब वे धर्म की साधना करते हैं जिसका उन्हें स्वाभाविक रूप से बोध होता है | और जब उनके मन में शंका आती है तो उनकी सहायता के लिए उनके पास कोई नहीं होता | वे सचमुच आदर के योग्य हैं | हमें यह नहीं सोचना चाहिए, "ओह, वे अत्यधिक स्वार्थी लोग हैं जो अकेले गुफ़ाओं में चले जाते हैं |" परन्तु आजकल, जब आसपास कोई बुद्धजन और गुरु नहीं हैं, प्रश्न यह है कि, "हम उनपर आश्रित हो या नहीं, और उनपर आश्रित होने का असली अर्थ क्या है?" मेरे विचार में आध्यात्मिक गुरु-सम्बन्धी यह विषय समझ पाना बहुत कठिन है |
गुरु-शिष्य सम्बन्ध के विषय में कई दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहा जा सकता है और इस अवसर पर उन सबकी चर्चा अनिवार्य नहीं है | मेरे विचार में एक बहुत व्यावहारिक स्तर पर, इस सन्दर्भ में कि गुरु उचित रूप से योग्य हो, कोई विदूषक नहीं, एक आध्यात्मिक गुरु को अपनी शिक्षाएँ मानवीय बनानी चाहिएँ - "वास्तविक" शब्द में बहुत-सी अर्थध्वनियाँ छिपी हुई हैं | गुरु धर्म को मानवीय बनाता है | यदि हमारा कोई गुरु न हो और हम केवल पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करें, तो इन शिक्षाओं को समझकर वास्तविक जीवन में इन्हें साकार करने का चित्र या विचार केवल हमारी कल्पनाओं पर आधारित होगा | अन्य शब्दों में, हमारे पास इसका कोई जीवंत उदाहरण नहीं है कि शिक्षाओं को केवल समझना नहीं बल्कि उन्हें जीवन में प्रयुक्त करने का अर्थ क्या होता है | एक जीवंत उदाहरण देखकर हम इन्हें समझने और आत्मसात करने के लिए अत्यधिक प्रेरित होंगे |
इन शिक्षाओं को सीखने में दो कारक शामिल हैं | एक है किसी विशिष्ट शिक्षा का सही तकनीकी अर्थ समझना, जैसे शून्यता | यह एक बात है, और एक शिक्षक प्रश्नों के उत्तर दे सकता है, जो एक पुस्तक नहीं दे सकती | परन्तु, बोध में तकनीकी विशुद्धता के अतिरिक्त, गुरु हमें उस बोध का जीवन में रूपांतरित होने का जीवंत उदाहरण देता है | मेरे विचार में यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है |
हम परम पावन दलाई लामा की ओर देखकर निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि उन्हें शून्यता की अत्यधिक विकसित समझ और बोधिचित्त का ज्ञान है | हम हर दृष्टिकोण से इसपर सहमत होंगे | अंकों के कार्ड के साथ जाँचने का प्रयास करना, "क्या वे बोधिसत्व के इस पड़ाव पर हैं या उसपर?" मूर्खता होगी | परवाह किसे है? परन्तु हम उनके आचरण से अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी धर्म की समझ का अर्थ यह नहीं कि वे कोई सपनों में खोए हुए, अपने विचारों में लीन व्यक्ति हों जो अपना जीवन न चला पा रहे हों | परम पावन के उदाहरण से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि विवेक और करुणा के संयोग का अर्थ क्या होता है | धर्म या, विशेषतः, शून्यता से परिचय-सम्बन्धी यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आयाम है |
धर्म से परिचय
धर्म से परिचित होने के कई स्तर हैं | एक स्तर है कि गुरु ऐसी स्थिति पैदा करते हैं कि हम भावविह्वल होकर अपने भ्रांत तोश से झटके से निकलकर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं | यह एक ज़ेन विधि है, जो कुछ तिब्बती गुरु अपनाते हैं, पर बहुत नहीं | गेशे वांग्याल, जो संयुक्त राज्य अमरीका में एक काल्मीक मंगोल गुरु थे, इस विधि को बहुत दक्षता से प्रयुक्त करते थे | उनका कई वर्ष पहले देहांत हो गया, वे अपने शिष्यों से अपने और उनके लिए घर, मठ आदि का निर्माण करवाते थे | एक बार, उनका एक शिष्य, बक्शी - उनके शिष्य उन्हें यही बुलाते थे, "गुरु" के लिए मंगोल शब्द - के लिए एक घर बना रहा था और छत पर काम कर रहा था | एक दिन बक्शी छत पर चढ़े और उसके पास जाकर बोले, "तुम क्या कर रहे हो?! यह बिलकुल ग़लत है! तुम सबकुछ नष्ट कर रहे हो! निकल जाओ यहाँ से!!" और शिष्य ने कहा, "ग़लत का क्या अर्थ है?! मैं बिलकुल आपके बताए ढंग से कर रहा हूँ और कई महीनों से कर रहा हूँ !" गेशे वांग्याल तुरंत बोले, " आहा ! इसी 'मैं' को खंडित करना है |"
गुरु शून्यता से हमारा परिचय करवाने के लिए ऐसी स्थिति पैदा कर सकते हैं यानी ऐसी स्थिति जिसमें हम भावात्मक रूप से देखकर अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकें | परन्तु प्रभावी रूप से ऐसा करने के लिए अत्यंत दक्ष होने की आवश्यकता है | तो धर्म के किसी तत्व से परिचित होने का यह ढंग भी है | कोई पुस्तक ऐसा नहीं कर सकती |
परिचय होने का दूसरा ढंग है बहुत स्पष्ट व्याख्या का दिया जाना | कोई पुस्तक ऐसा कर सकती है | किसी गुरु का बहुत स्पष्ट व्याख्यान एक पुस्तक में लिखा जा सकता है | परन्तु चाहे वह कितना भी स्पष्ट क्यों न हो, यदि हमारे भीतर किसी प्रकार का मानसिक अवरोध है, तो हम उसे समझ नहीं पाएँगे | और इसलिए एक अन्य उपाय है: एक गुरु धर्म की पहेली को हमें स्वयं सुलझाने दें, हमें उसका एक समय पर एक भाग समझाकर, बजाय इसके कि एक शिशु की भाँति वे चम्मच से हमें धर्म की घुट्टी पिलाएँ |
परिचय की एक अन्य विधि है ऐसे गुरु को देखना जो इसे समझते हों | हर हाल में, यदि हम स्पष्ट व्याख्या किसी पुस्तक में पढ़ें, तो वह पुस्तक भी तो किसी ने लिखी होगी | तो चाहे हम उनसे मिले हों या नहीं, वहाँ एक गुरु तो रहा ही होगा | एक अर्थ में हम उस गुरु से मिलते हैं, चाहे उसकी मृत्यु हुए कई वर्ष ही क्यों न हो गए हों, क्योंकि उस पुस्तक को पढ़ने के माध्यम से हम उस गुरु के शब्दों से मिलते हैं | यदि हम प्रत्येकबुद्धजन न हों, तो हमें इस चक्र को निर्मित करने की आवश्यकता नहीं है; हमें स्वयं यह ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है | यह किसी के द्वारा ही हमें मिलता है, किसी गुरु के द्वारा | और, यदि हम इसपर विचार करें, प्रत्येकबुद्धजनों में शिक्षा देने की जो पूर्व वृत्ति हैं, वह भी किसी पूर्वजन्म में किसी गुरु की शिक्षाओं को सुनकर उनके भीतर अंकुरित हुई होंगी |
इस अर्थ में एक गुरु का बहुत महत्त्व है | वास्तव में, हमें एक गुरु में इन सभी का सम्मिश्रण चाहिए | हमें एक ऐसे गुरु की आवश्यकता है जो हमें स्पष्ट और सही जानकारी दे, और हम जो सीखने का प्रयास कर रहे हैं वह उसका जीवंत उदाहरण हो और वह हमें प्रेरित कर सके | इसके अतिरिक्त हमें एक ऐसे गुरु की आवश्यकता है जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सके जो हमें अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए अनुकूल हों और जो हमें धर्म की पहेली का एक समय पर एक भाग दे, सही ढंग से |
निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत सम्बन्ध
एक आध्यात्मिक गुरु-शिष्य के संबंध के विषय में हम बहुत कुछ कह सकते हैं, परन्तु पाश्चात्य लोगों के साथ एक समस्या हमेशा आती है कि उन्हें व्यक्तिगत देखरेख चाहिए | हमारे भीतर वैयक्तिकता बहुत प्रबल होती है | सब सोचते हैं, "मैं विशिष्ट हूँ और मेरी विशेष देखभाल होनी चाहिए |" इसका आदर्श यह है कि हम एक मनोचिकित्सक या ऐसे किसी व्यक्ति के पास जाते हैं, पैसे देते हैं, और हमें वैयक्तिक देखरेख मिलती है | परन्तु, एक बौद्ध सन्दर्भ में यह सदा संभव नहीं है | यह हास्यास्पद है | हम एक ऐसे गुरु को खोज रहे हैं जो "मेरे लिए विशिष्ट होंगे" परन्तु उस सम्बन्ध की हमारे मन में एक हॉलीवुड जैसी छवि है | हम उसे मिलरेपा और मारपा के सम्बन्ध जैसा नहीं चाहते: हम ऐसा गुरु नहीं चाहते जो हमसे कठोर परिश्रम करवाए |
मैं अपना और सरकाँग रिनपोचे का उदाहरण दूँगा | मुझे उनके सामीप्य का अद्भुत सौभाग्य प्राप्त हुआ और लगभग नौ वर्ष तक मैं उनका भाषांतरकार, अंग्रेज़ी सचिव, विदेश यात्राओं का प्रबंधक, आदि तथा उनका निजी शिष्य रहा | 1983 में उनके देहांत तक मेरा उनसे ऐसा सम्बन्ध रहा | किन्तु, मुझे यह कहना पड़ेगा कि हमारा पूरा सम्बन्ध एक "निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत सम्बन्ध" था | उन्होंने कभी भी मेरे व्यक्तिगत जीवन के विषय में कोई प्रश्न नहीं पूछा - कभी भी नहीं | उन्होंने कभी मेरे परिवार आदि के विषय में कुछ नहीं पूछा | और मुझे कभी उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में बताने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई | परन्तु, फिर भी, वर्तमान क्षण को जीने के सन्दर्भ में हमारा सम्बन्ध सदैव अत्यंत अंतरंग रहा |
तो हम साथ-साथ कार्य करते रहे, पर एक अत्यंत विशेष रूप में | मैं इसे "निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत" कहूँगा इस रूप में कि हमारे दो विशालकाय अहम् नहीं थे जो कहते, "चलो हम साथ में काम करें - मैं और तुम |" और न ही यह उस प्रकार का आओ-हम-अपना-टूथब्रश-सांझा-करें वाला सम्बन्ध था, जहाँ मैं तुम्हें अपने बारे में सबकुछ बताऊँ और तुम मुझे अपने बारे में सबकुछ बताओ | यह किसी को अपने मलिन अंतर्वस्त्र दिखाने जैसा है | उस रूप में, हमारा सम्बन्ध निर्वैयक्तिक था | पर इस रूप में वह व्यक्तिगत भी था कि वे मेरा चरित्र और मेरा व्यक्तित्व समझते थे, और हम उसका आदर करने के आधार पर कार्य करते थे | मैं उनकी वय और आवश्यकताएँ व अपेक्षाएँ समझता था, और इस रूप में हमारा सम्बन्ध व्यक्तिगत था, परन्तु निर्वैयक्तिक भी |
मुझे लगता है कि उस सम्बन्ध की सफलता की एक सबसे बड़ी आधारशिला थी कि दोनों ओर से इस सम्बन्ध में परस्पर बहुत आदर-भाव था और दोनों ही परिपक्व वयस्क की भाँति साथ-साथ कार्य कर रहे थे | एक वयस्क के रूप में, मैंने कभी बालकों की भाँति उनके समर्थन की या मेरे जीवन के हर पहलू के लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराने की चेष्टा नहीं की - उन्हें नियंत्रण नहीं दिया | पर इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं दूसरे सीमान्त पर पहुँच गया, जो इस प्रकार होता: "मैं सबकुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहता हूँ और आप मुझे नहीं बता सकते कि मुझे क्या करना है |" मेरे जीवन के कठिन निर्णयों में मैंने हमेशा उनकी सलाह ली, परन्तु उनकी सलाह लेने पर भी मैंने स्वयं निर्णय लिए | यह कुछ इस प्रकार है, कि बच्चा बनकर यह पूछने के बजाय कि, "मैं क्या करूँ ?" -जो "करना चाहिए" के मुद्दे पर बात को ले जाता है - मैं पूछता था कि क्या यह करना अधिक हितकारी होगा कि वह |
उदाहरणार्थ, हमारी दूसरी विश्व यात्रा के अंत में मैंने उनसे पूछा, "क्या मेरे लिए अमरीका में रहकर अपने परिवार के साथ कुछ और समय व्यतीत करना बेहतर होगा, या आपके साथ भारत जाकर मोनलाम प्रार्थना समारोह में भाग लेना जो परम पावन दक्षिण भारत में आयोजित कर रहे थे? अधिक हितकारी क्या होगा?" यदि मैं निर्णय नहीं कर पाता तो उनसे इस प्रकार के प्रश्न पूछता था | रिन्पोचे ने सुझाव दिया कि मुझे प्रार्थना समारोह में जाना चाहिए, क्योंकि वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्यक्रम होगा, और मैंने उनकी सलाह मानी | परन्तु उन्होंने मुझे आदेश नहीं दिया, जिसको मैंने सिर माथे पर रखा और कहा, "जी, अच्छा!" मैं उनके आदेश की अपेक्षा नहीं कर रहा था | वे परिस्थिति को कुछ अधिक स्पष्ट और विस्तृत दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते थे, ताकि मैं अपने विवेक से अपना निर्णय स्वयं ले सकूँ | अन्य स्थितियों में, जब मुझे पता होता था कि उत्तम चयन क्या होगा, तब भी मैं उनसे पूछ लेता था कि मेरे निर्णय में क्या उन्हें कोई दोष दिखाई देता है |
मेरे विचार में, एक गुरु के साथ हमारे सम्बंध में यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | यदि हमें यह आशा रही है कि हमारा सम्बन्ध इतना वैयक्तिक और व्यक्तिगत होने वाला है, तो, एक दृष्टि से, हम स्वयं को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देते आए हैं | यदि हम वैयक्तिक ध्यान की माँग करते हैं तो हम अत्यधिक अहंकार की भावना से ग्रस्त हैं | इसके अतिरिक्त, यदि हम यह माँग करते हैं, तो धोखे में पड़ना आसान हो जाता है जहाँ हम स्वयं को बालक और गुरु को माता-पिता की दृष्टि से देखते हैं, या स्वयं को किशोर अथवा किशोरी तथा गुरु को एक पॉप संगीत विभूति की दृष्टि से | ऐसे में एक प्रकार के रोमांस की कल्पना भी हो सकती है |
एक मधुमक्खी और फूलों का सादृश्य
एक आध्यात्मिक गुरु के संग हमारे सम्बन्ध को व्यक्तिगत निर्वैयक्तिक रूप में देख पाना सरल नहीं है | और ऐसा कर पाने का महत्त्व केवल आध्यात्मिक गुरु के संग हमारे सम्बन्ध तक सीमित नहीं है | अत्यंत लाभकारी होगा यदि हम सबके साथ अपने संबंधों में ऐसा कर पाएँ | शान्तिदेव ने लिखा था कि दूसरों के साथ हमारे संबंधों में, यह अत्यंत लाभकारी होगा यदि हम एक मधुमक्खी की भाँति हों जो एक से दूसरे फूल पर जाती है और केवल फूलों के रस से सरोकार रखती है, परन्तु किसी एक फूल पर टिकी नहीं रहती |
मैं पुनः सरकोंग रिन्पोचे का उदाहरण दूँगा | उनका कोई अभिन्न मित्र नहीं था | अपितु, उस घड़ी में वे जिसके भी साथ होते थे, वही उनका अभिन्न मित्र होता था | ऐसा हो पाना उस उदारता का परिणाम है जिसके विषय में हम पहले सत्र में बात कर रहे थे: सबके साथ ऐसा व्यवहार करना जैसे वे आपके अभिन्न मित्र हों | जब हम इस भावना के साथ किसी के संग होते हैं, तो हमारे हृदय उस व्यक्ति के प्रति बिलकुल निष्कपट होते हैं | हम पूर्ण व्यक्तिगत रूप से उस व्यक्ति के साथ होते हैं यानी हम उससे आत्मिक रूप से जुड़े होते हैं | परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि मैं आपको अपने मलिन अंतर्वस्त्र दिखाऊँ और आप मुझे दिखाएँ | इन विविध व्यक्तिगत विस्तृत विवरणों की आवश्यकता नहीं है, मानो हम चाहते हों कि उनके लिए कोई हमारा सिर थपथपाए |
यदि हम उन विवरणों में पड़ेंगे तो यह ऐसा होगा जैसे हम दूसरे पर अपनी समस्याएँ थोप रहे हों ताकि वे भी उनमें उलझ जाएँ | हम सबकी अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ होती हैं जिनसे हमें अपने जीवन में जूझना पड़ता है, परन्तु ये दूसरे लोगों और उनके साथ हमारे संबंधों पर हावी नहीं होनी चाहिए | हम इस व्यक्ति से सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं क्योंकि वह पूर्णतः खुले मन का है; और वह हमारे अभिन्न मित्र जैसा है | हम ऐसे व्यक्ति से हार्दिक सम्बन्ध जोड़ सकते हैं, परन्तु बिना किसी उलझन में पड़े और हम सबसे इस प्रकार व्यवहार कर सकते हैं, जैसे मधुमक्खी एक से दूसरे फूल पर जाती है – अपने हृदय से अंतरंग रूप से जुड़ी हुई, परन्तु बिना किसी से चिपकी हुई |
गुरु के साथ भी हमारा वैसा ही सम्बन्ध है | जब हम गुरु के समक्ष होते हैं, तो हमारे बीच अत्यंत मुक्त सम्प्रेषण होता है, परन्तु फिर हम वहाँ से बाहर निकल आते हैं और अगला व्यक्ति भीतर जाता है | यदि हमारा मनोभाव इस प्रकार का हो जाए कि "मुझे अपना गुरु चाहिए!", तो हम अत्यंत ईर्ष्यालु और स्वामी जैसे भाव से ग्रस्त हो जाऍंगे और यह बहुत यातनामय होगा: "गुरु के इर्द-गिर्द यह आत्मीय शिष्य-समूह है और मैं इस आत्मीय शिष्य-समूह का अंग नहीं हूँ" तथा.... ओह, क्या कष्ट है! परन्तु हम सभी को अपने मलिन अंतर्वस्त्र धोने पड़ते हैं | हमें अपनी समस्याओं से जूझना पड़ता है | यह आशा करने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है कि यह कार्य गुरु करेंगे |
दूसरों के निर्वैयक्तिकरण के अतिवाद से बचना
जब हम इस प्रकार किसी से संपर्क स्थापित कर रहे हैं या व्यवहार कर रहे हैं, इस निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत ढंग से, चाहे वह गुरु हो अथवा मित्र, तो दो स्तर होते हैं: गहनतम स्तर और परम्परागत, सापेक्ष स्तर | गहनतम स्तर पर सब समान होते हैं और कोई विशिष्ट नहीं होता, तो यह किसी भी सम्बन्ध के निर्वैयक्तिक पहलू की ओर ले जाता है | परम्परागत स्तर पर, लोग व्यक्ति विशेष हैं, तो यह वैयक्तिक पहलू की ओर ले जाता है |
यह अत्यंत आवश्यक है कि गहनतम स्तर पर हम किसी से जुड़ने की प्रक्रिया में अतिवाद की सीमा तक न जाएँ | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह एक व्यक्ति विशेष है | अन्य शब्दों में, यदि मैं आप से अत्यंत निर्वैयक्तिक रूप में व्यवहार करुँ, तो एक तरह से मैं आप से जुड़ ही नहीं रहा हूँ - चाहे वह सम्बन्ध कितना भी आत्मीय क्यों न हो | हमें ऐसा महसूस करने से बचना चाहिए, "तुम विचार-धारा संख्या 14762 हो और यह दूसरा व्यक्ति विचार-धारा संख्या 14763 है, और मैं किसी भी क्रमाँक की किसी भी विचार-धारा के साथ समान रूप से आत्मीय और भावात्मक रूप से अंतरंग हो सकता हूँ |" यह एक भूल होगी | यह इस प्रकार होगा जैसे धर्म में "सभी सचेतन प्राणियों" के विषय में कही गई बात को सबको अवैयक्तिक दृष्टि से देखने की अति तक ले जाएँ | हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि वह व्यक्ति स्वयं को अत्यंत व्यक्तिगत दृष्टि से देख रहा है | हमें यह समझना होगा |
मैं वह उदाहरण देता हूँ जब पिछले वर्ष मेरी माँ की मृत्यु हुई | उनकी मृत्यु के उपरान्त, पहले-पहल मैं उनके लिए प्रार्थनाएँ कर रहा था और विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ निभा रहा था, परन्तु एक अवैयक्तिक रूप में, उन्हें एक विचार-धारा संख्या के रूप में देखकर | स्नेहासक्ति की वेदना से बचने के लिए, मैं उन्हें अपनी माँ के रूप में नहीं, अपितु किसी ऐसे रूप में देख रहा था जो, सभी की भाँति, अनेक पूर्वजन्मों से अनेक भावी जन्मों की ओर जा रही थीं | अंततः, बौद्ध धर्म सिखाता है कि कभी न कभी सब हमारी माता रहे होंगे। इसलिए, बीच की अन्तराभाव अवस्था में उनसे मेरा सम्बन्ध कुछ अमूर्त था।
फिर, मेरे अनुभव के विषय में एक अभिन्न मित्र से चर्चा करने के बाद, मुझे समझ में आया कि इस स्थिति को अन्तराभाव में मेरी माता के दृष्टिकोण से देखना अधिक लाभकारी होगा, बजाए मुझ जैसे धर्म साधक के दृष्टिकोण से जिसे पूर्व और वर्तमान जन्मों, अमूर्त पहचान, इत्यादि की कुछ समझ है। अन्तराभाव में मेरी माता के दृष्टिकोण से वे अभी भी अपनी रोज़ बर्ज़िन की पहचान से जुड़ी हुई थीं और मुझे अपने पुत्र के रूप में देख रही थीं।
उस अंतराभाव अवधि में उनकी सहायता करने के लिए मैंने अपनी साधना तुरंत बदल दी और उनसे सीधी बात की। मैं उस समय चिली में पढ़ा रहा था और ताहिती की ओर जाने वाला था, और इसलिए मैंने उन्हें अपने प्रत्येक सत्र में आने और मेरा साथ देने के लिए आमंत्रित किया। मैंने उनसे वे बातें और उस प्रकार की प्रार्थनाएँ कीं जो उन्हें पसंद थीं, जिनके साथ वे सहज अनुभव करती थीं। दूसरे शब्दों में मैं उनके संभावित भय को पहचानकर उन्हें उसकी सहायता से शांत करने का प्रयास कर रहा था जो उनके लिए उपयुक्त था।
उदाहरण के लिए मेरी माँ को बौद्ध धर्मी मंत्रोच्चार अच्छा लगता था। उससे वह शांत अनुभव करती थीं। और इसलिए, यद्यपि मैं अन्तराभाव में होता तो यह मंत्रोच्चार मेरे लिए सहायक नहीं था, तथापि मैंने उस ढंग से उच्चार आरम्भ किया जो उन्हें बहुत शांति प्रदान करता था। और मुझे यह महसूस हुआ कि ऐसा करके मैं उनसे जुड़ पा रहा था। मैंने इसे उनके लिए विशिष्ट रूप से ढाला। यथार्थ के सापेक्ष स्तर के उनके अनुभव को मैंने बहुत गंभीरता से लिया। बात यही है। यदि मेरी माँ को किसी ईसाई अथवा यहूदी प्रार्थना या और किसी के उच्चार से शान्ति मिलती, तो मैं वही करता। परन्तु मेरी माँ को बहुत धीमी गति में मन्त्रों को सुनना अच्छा लगता था। जैसा मैंने कहा है, जब मैंने यह करना प्रारम्भ किया तो मुझे एक बहुत बड़े बदलाव का अनुभव हुआ।
इससे पहले, जब मैं केवल अमूर्त रूप से सोच पाता था जैसे, "आप सुखी रहें और हमारा प्रत्येक जीवनकाल में नाता रहे और आपको सदा बहुमूल्य मानव जीवन मिले और मैं आपको प्रत्येक जीवनकाल में ज्ञानोदय की ओर अग्रसर कर पाऊँ" और इस प्रकार के अन्य अच्छे विचार, तब मैं उनसे एक व्यक्ति के रूप में वास्तव में नहीं जुड़ पा रहा था। परन्तु मुझे यह दूसरा ढंग कहीं अधिक प्रभावी लगा। मुझे लगा कि इससे उन्हें वास्तव में लाभ हो रहा है, यद्यपि निस्संदेह मैंने अपनी अन्य सामान्य प्रार्थनाएँ जारी रखीं। संक्षेप में जब हम किसी से निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत रूप में जुड़ते हैं, जैसे मैं बता रहा था, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि हम एक व्यक्ति के रूप में उनसे जुड़ाव महसूस न करें या वे कौन हैं इस विषय में उनके व्यक्तिगत अनुभव का आदर न करें।
विशिष्ट शब्दावली में कहा जाए तो: "मैं आपके प्रति और व्यक्तिगत होने के प्रति पूर्णतः प्रस्तुत हूँ, परन्तु बिना किसी लगाव के - अपनी और आपकी व्यक्तिगत समस्याओं में उलझे बिना। परन्तु उस सामान्य सन्दर्भ में, मैं आपकी वैयक्तिकता और आपके स्वयं के बारे में दृष्टिकोण के प्रति संवेदनशील हूँ, इसलिए मैं आपसे संप्रेषणात्मक रूप से जुड़ पाता हूँ।" यह फिर किसी व्यक्ति से जुड़ने के लिए पाँच प्रकार के सचेतनता-सम्बन्धी विषय की ओर ले जाता है, परन्तु उसकी चर्चा हम किसी और समय करेंगे।
मैं ये सब बातें कई कारणों से बता रहा हूँ, परन्तु विशेषतः उस एक बड़ी समस्या के कारण जिसका हमें महायान बौद्ध साधना में सामना करना पड़ता है जब हम "समग्र सचेतन प्राणी सुखी रहें" के स्तर पर बोधिचित्त, करुणा, और इस प्रकार की सभी साधनाएँ करते हैं। हमारे सामने जो व्यक्ति है - तुम या तुम - उनके वैयक्तिक सन्दर्भ में "समग्र सचेतन प्राणियों" का कुशलतापूर्वक अनुवाद करना अत्यंत कठिन है। यदि हम केवल "समग्र सचेतन प्राणियों" के स्तर पर साधना कर रहे हों तो इसे हम किसी के साथ व्यक्तिगत रूप से न घुलने-मिलने के बहाने के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं।
अब, यदि व्यक्तिगत घुलने-मिलने का अर्थ है लगाव और उससे जुड़ी हुई सारी बेकार बातें, तो हमें उससे बचने के किसी उपाय की आवश्यकता है। परन्तु, लगाव और क्रोध और ऐसी अन्य बातों के स्थूल स्तर पर जब हम इन सबसे निपट चुके हों - जो इतना आसान कार्य नहीं है - तब हमें व्यक्तिगत जुड़ाव की आवश्यकता होगी, पर उस प्रकार के जुड़ाव की जो निर्वैयक्तिक व्यक्तिगत हो, अन्य शब्दों में, बिना चिपकाव के व्यक्तिगत।
आध्यात्मिक गुरु से सम्बन्ध के विषय में अब तक हमने जो भी चर्चा की है, वह इस पूरे विषय पर निर्भर नहीं करती कि हम गुरु को बुद्ध के रूप में देखते हैं या नहीं। यदि हम गुरु को बुद्ध के रूप में नहीं भी देखते, तब भी मैंने जिसका विवरण दिया है, वह गुरु के साथ किसी भी प्रकार के अर्थपूर्ण, सफल सम्बन्ध के लिए आवश्यक है। निश्चित रूप से गुरु को बुद्ध के रूप में देखने के सन्दर्भ में, हमें इस सम्बन्ध को एक वयस्क की भाँति और गुरु को एक वयस्क के रूप में देखने की आवश्यकता है, मेरे पिता, कोई पॉप संगीत का बड़ा नाम, अथवा ऐसे किसी विचित्र रूप में नहीं, जो हम प्रायः उन लोगों पर प्रक्षेपित करते हैं, जिनका हमारे अनुसार हमारे साथ विशिष्ट सम्बन्ध होना चाहिए क्योंकि मैं इतना विशिष्ट हूँ ।
गुरु के साथ गहन सम्बन्ध का भय
शिष्यों के एक बड़े समूह में, जिसमें अनेक गुरु भी हैं, मैं स्वयं को एक अज्ञात व्यक्ति के रूप में देखने का प्रयास करता हूँ। मैं यह कहना पसंद करूँगा कि मेरे अनेक गुरु हैं, बजाए इसके कि किसी एक गुरु के साथ मेरा अनन्य सम्बन्ध हो।
यहाँ कुछ समस्याएँ हो सकती हैं। इनमें से एक समस्या हो सकती है वचनबद्धता और अंतरंगता के भय की, जिसके कारण हम सोच सकते हैं: "मैं किसी एक गुरु के साथ खुलकर बात नहीं करना चाहता क्योंकि फिर मैं अनियंत्रित हो जाऊँगा।" स्पष्टतः, इस भय से सफलतापूर्वक जीतने के लिए शून्यता की कुछ समझ आवश्यक है। गुरु के साथ मुक्त रूप से बात करने में कोई भय नहीं है। क्योंकि जब हम बात करते हैं, तो ऐसा नहीं है कि एक बेचारा निरुपाय "मैं" है जो आहत होगा। या, "मेरा बहिष्कार होगा और मैं हताश हो जाऊँगा।" ऐसा भी नहीं है कि मैं बात करना चाहूँ और कोई प्रतिक्रिया न हो और फिर मैं खोया हुआ तथा अव्यवस्थित अनुभव करूँ। गुरु के साथ खुलकर बात करने के लिए अपनी उपस्थिति की संवेदनशील समझ आवश्यक है। गुरु के साथ हमारा सम्बन्ध सफल होने के लिए उसका परिपक्व होना आवश्यक है जिसमें एक ऐसा परम्परागत "मैं" सुस्थापित हो जिसे यह विभेद करना आता हो कि क्या लाभकारी है और क्या हानिकारक, तथा क्या उचित है और क्या अनुचित। अन्यथा, एक अपरिपक्व सम्बन्ध बहुत विनाशकारी हो सकता है।
आध्यात्मिक गुरु के साथ धीमी गति से सम्बन्ध स्थापित करना
किसी विशेष गुरु की शरणागति में जाने से पहले आपको उसके विषय में भली-भाँति पता लगाना आवश्यक है परन्तु अब दूषित चित्त के साथ मैं ठीक प्रकार कैसे पता लगा सकता हूँ ? और मैं कैसे जान सकता हूँ कि गुरु एक बुद्ध है अथवा नहीं ?
जब हम कहते हैं कि आध्यात्मिक गुरु के साथ हमारा सम्बन्ध सफल होने के लिए हमें परिपक्व होने की आवश्यकता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि जब तक हम अपरिपक्व हैं हम गुरु के पास न जाएँ। इसका अर्थ यह नहीं होता कि गुरु की बात समझने के लिए हमें तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक हम परिपक्व हो जाएँ। यदि ऐसा होता तो संभवतः हमें बहुत लम्बी अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती। एक कुशल गुरु हमें अधिक परिपक्व होने में हमारी सहायता कर सकता है। दूसरी ओर, हो सकता है कि एक अकुशल गुरु हमारी अपरिपक्वता का लाभ उठाकर हमारे साथ दुर्व्यवहार करे। इसलिए, एक संभावित गुरु के पास जाने से पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हम यह नहीं जानते कि यह व्यक्ति वास्तव में योग्य है अथवा नहीं। हमें बहुत धीमी गति से और ध्यानपूर्वक आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
आध्यात्मिक गुरु के साथ सम्बन्ध प्रायः, समय के साथ धीरे-धीरे विकसित होता है और अनेक चरणों से होता हुआ आगे बढ़ता है। गुरु को बुद्ध के रूप में देखना भी, जो आरम्भिक चरणों में कभी नहीं होता, विकास के कई चरणों से होकर जाता है। मैं इतने विस्तार से अभी इस विषय पर चर्चा नहीं करना चाहता, क्योंकि इसे प्रस्तुत करने में बहुत समय लगेगा। परन्तु उस प्रकार का सम्बन्ध जिसमें हम अपने गुरु को एक बुद्ध के रूप में देखते हैं केवल तभी प्रासंगिक है जब हम उच्चतम श्रेणी की तंत्र-साधना,अनुत्तरयोग, के उन्नत चरणों पर हों।
ग्रैंड प्रेज़ेन्टेशन ऑफ़ द ग्रेडेड स्टेजेस ऑफ़ द पाथ (लाम-रिम चेन-मो ) में त्सोंगखपा ने लिखा था कि आध्यात्मिक गुरु से उचित सम्बन्ध मार्ग की नींव है, और उन्होंने गुरु को बुद्ध के रूप में देखने के सन्दर्भ में इस सम्बन्ध को रेखांकित किया। परन्तु हमें उस सन्दर्भ को समझने की आवश्यकता है जिसकी परिधि में उन्होंने ऐसा लिखा और ऐसा कहा। स्पष्टतः त्सोंगखपा इस विषय को लिखकर भिक्षुओं के समक्ष प्रस्तुत कर रहे थे जो तंत्र साधना में संलग्न थे। हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं क्योंकि उनकी मार्ग की प्रस्तुति में इसके बाद शरणागति की चर्चा की गई है। गुरु को बुद्ध के रूप में देखकर हमारा गुरु के साथ सम्बन्ध भला कैसा हो सकता है यदि हमने शरणागति प्राप्त न की हो और हमें यह भी पता न हो कि बुद्ध क्या होता है। यह स्पष्ट है कि गुरु को बुद्ध के रूप में देखने का निर्देश उसके लिए है जो शरणागति में जा चुका हो और तंत्र में संलिप्त हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि गुरु को बुद्ध के रूप में देखने के दृष्टिकोण को समर्थन देने के लिए त्सोंगखपा के सभी उद्धरण तंत्रों से लिए गए हैं। तो यह स्पष्ट है कि यह प्रमुखतः तंत्र का विषय है। फिर यह हम जैसे लोगों के लिए एक संकेत है, जो तंत्र साधना में संलिप्त भिक्षु अथवा भिक्षुणी की पृष्ठभूमि से नहीं आते, कि हम शरणागति जैसी बातों को आँख मूंदकर स्वीकार नहीं कर सकते। हमें एक पूर्ववर्ती स्तर से आरम्भ करना होगा।
जब हम एक गुरु के साथ अध्ययन आरम्भ करते हैं, विशेषतः एक पाश्चात्य व्यक्ति के रूप में, तो "यह गुरु बुद्ध है अथवा नहीं?" का प्रश्न बिलकुल प्रासंगिक नहीं है। हमें पहले यह देखने की आवश्यकता है कि यह गुरु अच्छा है कि नहीं। क्या ये स्पष्ट रूप से समझा पाते हैं? ये क्या समझाते हैं? क्या इनकी व्याख्या परम्परागत ग्रंथों के अनुरूप है? क्या यह मेरे जीवन से मेल खाता है? यह इस प्रकार है जैसे हम अन्य किसी भी गुरु को जाँचेंगे - उदाहरण के लिए यदि हम कोई भाषा सीखने जाएँ: क्या वे हमें प्रभावी ढंग से सिखा पाते हैं?
हम यह भी देखते हैं कि जब हम इस व्यक्ति के साथ हों तो हमें किस प्रकार की सामान्य अनुभूति होती है। किसी के साथ होने पर हमें जो अनुभूति होती है उससे हम पता लगा सकते हैं कि उनसे हमारा किस प्रकार का सम्बन्ध होगा। क्या इस व्यक्ति से मुझे प्रेरणा मिलती है या यह मुझे पूर्णतः निरुत्साहित करता है? क्या यह मुझसे सम्प्रेषण कर पाता है अथवा क्या मैं इससे बिल्कुल नहीं जुड़ पाता? यह भाँप लेना संभव है। इसके लिए एक बहुत उच्च स्तर की परिपक्वता अथवा अतीन्द्रिय दृष्टि की आवश्यकता नहीं है।
फिर हम कुछ और ध्यानपूर्वक जाँच-पड़ताल शुरू करते हैं जैसे इस व्यक्ति के नैतिक मूल्य: क्या ये व्यक्ति नीतिपरक हैं? क्या ये प्रायः एवं शीघ्र क्रोधित हो जाते हैं या अपने शिष्यों को लेकर अत्यंत स्वामीवत अधिकार-भाव से ग्रस्त हैं और उनके जीवन को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं? यह जानने के लिए कि ये गुरु अन्य शिष्यों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, हम उनके बारे में दूसरों से पूछ सकते हैं। ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके द्वारा हम एक गुरु को जान सकते हैं, चाहे हमें केवल यह निर्णय लेना हो कि हम उनसे शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं अथवा नहीं।
फिर, हम इस व्यक्ति के साथ सम्बन्ध बनाना चाहते हैं कि नहीं, जिसमें हम उसे बुद्ध के रूप में देखें, यह एक अलग ही प्रश्न है और बहुत उन्नत और आरंभिक स्तर पर इतना प्रासंगिक नहीं है। यदि हमने शरणागति प्राप्त कर ली हो और हम मार्ग के प्राथमिक चरणों से होकर जा चुके हों, और तंत्र की उच्चतम श्रेणी से सम्बद्ध हों तथा गुरु के साथ हमारा प्रगाढ़ सम्बन्ध हो, तब हम पूरे सन्दर्भ का अर्थ समझते हुए गुरु को बुद्ध के रूप में देख सकते हैं। फिर, यदि हम सभी चरणों से होते हुए पुनः मार्ग के आरम्भ में पहुँचें, जैसा एक भिक्षु के साथ होता है जब वह तांत्रिक अभिषेक प्राप्त करने की तैयारी में त्सोंगखपा के लाम-रिम चेन-मो को सुनते हुए सम्पूर्ण वर्गीकृत मार्ग का पुनरावलोकन करता है, तब गुरु के साथ बुद्ध के रूप में वह सम्बन्ध पूरे मार्ग का अनुसरण करने में सफलता का कारण बनेगा। उससे बहुत बड़ा अंतर होता है।
अपनी विवेचन क्षमता को न खोना
हमें सब कुछ सही सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है। यह सरल नहीं है। परन्तु, विशेषतः आरम्भ में, मेरे विचार में यह अनिवार्य है कि हम गुरु के प्रति आलोचनापरक मनोदृष्टि अपनाएँ। बाद में, जब हम गुरु से एक बुद्ध के रूप में सम्बद्ध हों, तो इस गुरु के साथ यह हमारा विशेष अनुबंध होता है और इसमें असीम भावात्मक परिपक्वता की आवश्यकता होती है। मूलतः हम यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि इस अनुबंध के द्वारा, "आप एक बुद्ध हैं जिसका अर्थ है चाहे आप कुछ भी करें मैं आपको एक बुद्ध के रूप में देखूँगा जो मुझे कुछ ज्ञान देने का प्रयास कर रहे हैं।" याद रखें, वस्तुओं के अस्तित्व, अन्य वस्तुओं से स्वतंत्र होकर, स्वतः स्थापित नहीं होते। इसलिए गुरु से इस प्रकार के सम्बन्ध का अस्तित्व इस परिस्थिति के सम्बन्ध में स्थापित होता है कि, "मेरे विकास में आप मेरी सहायता कर रहे हैं।"
इसलिए, हम अपने मन में मूलतः अपने गुरु से यह कह रहे हैं कि, "मुझे यह चिंता नहीं है कि आपका प्रेरणा स्रोत क्या है और मुझे यह भी चिंता नहीं है कि आप वास्तव में वस्तुपरक दृष्टि से से ज्ञानोदय प्राप्त हैं अथवा नहीं। बल्कि, आपके साथ इस सम्बन्ध से मिले इस अवसर को मैं निरंतर विकसित होकर और शिक्षित होने के लिए प्रयोग करूँगा। यदि आप मुझसे कोई मूर्खतापूर्ण कार्य करने के लिए कहेंगे तो मैं पलटकर आपसे यह नहीं कहूँगा कि, 'आप मूर्ख हैं' और आप पर क्रोधित नहीं होऊँगा। बल्कि मैं इसे इस रूप में देखूँगा, 'आपने मुझसे कुछ मूर्खतापूर्ण कार्य करने के लिए कहा ताकि मैं यह पाठ सीख सकूँ कि मुझे वह कार्य न करने के लिए अपने विवेक और अपने मस्तिष्क का प्रयोग करना है।'" दूसरे शब्दों में, वे चाहे कुछ भी करें, हम उसे एक शिक्षा के रूप में ग्रहण करेंगे और उससे कुछ न कुछ सीखने का प्रयास करेंगे। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनकी ओर से क्या हो रहा है।
निश्चित रूप से यही अर्थ होता है जब कहा जाता है कि हमें सबको बुद्ध के रूप में देखने की आवश्यकता है। हम सबकुछ एक शिक्षा के रूप में देखते हैं। तो हम एक बालक से भी सीख सकते हैं। जब एक बालक नटखटपन अथवा मूर्खतापूर्ण ढंग से व्यवहार करता है, तब हम सीख सकते हैं कि हमें ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। बालक हमारा गुरु है। एक कुत्ता भी हमें सिखा सकता है। कोई भी हमें सीख दे सकता है। परन्तु, उसके लिए बहुत उच्च स्तर की भावात्मक परिपक्वता की आवश्यकता है, नहीं क्या - क्रोधित एवं आलोचनात्मक न होने के लिए? यह बहुत उन्नत साधना है। आरम्भिक साधक ऐसा नहीं कर सकते।
स्पष्टतः, हमें यह जानने के लिए बहुत जाँच-पड़ताल करनी होगी कि इस गुरु के संग इस स्तर पर सम्बद्ध होने के लिए हम इस प्रकार का अनुबंध स्थापित कर सकते हैं या नहीं | क्या गुरु योग्य है और क्या हम योग्य हैं? हमारा गुरु के साथ वैसा सम्बन्ध भी हो सकता है जिसमें अत्यधिक व्यक्तिगत संपर्क न हो | जब महान गुरु विशाल समूहों को सामान्य शिक्षण देते हैं, तब भी हम ऐसा ही कर सकते हैं: "आप जो भी कहेंगे और करेंगे, मैं उससे शिक्षा लूंगा।" परन्तु याद रहे, यह सम्बन्ध किसी सैनिक और सेनाध्यक्ष के बीच का नहीं है: "जी, श्रीमान! मुझे क्या करना है? मुझे बताइए। मुझे आदेश दीजिए। जी, श्रीमान! मैं वही करूँगा" - ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।