कर्म की व्याख्या
यदि हम कर्म पर विजय पाने के लिए साधना करना चाहते हैं, अपने व्यवहार की इस अप्रतिरोध्यता से मुक्त होना चाहते हैं, तो हमें समझना होगा कि कर्म किस प्रकार प्रभाव डालता है। बौद्ध साहित्य में इसके बारे में बहुत सी विस्तृत व्याख्याएं मिलती हैं। सामान्य तौर पर एक व्याख्या पालि परम्परा में पाई जाती है और इसके अलावा संस्कृत परम्पराओं में भी व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। पालि और संस्कृत प्राचीन भारत की दो प्रचलित भाषाएं थीं। थेरवादी परम्परा में पालि विवरण को अपनाया गया है। मैं जिस व्याख्या के बारे में चर्चा करने जा रहा हूँ, वह संस्कृत परम्परा से ली गई है, और इसके भी दो स्वरूप हैं। मैं इन दोनों स्वरूपों के बीच के अन्तरों को प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा, लेकिन इन अन्तरों पर बहुत अधिक बल नहीं दूँगा क्योंकि बहुत सी बातों को इन दोनों के बीच में समान रूप से स्वीकार किया जाता है।
लेकिन यह चर्चा शुरू करने से पहले मैं एक उपयोगी सलाह देना चाहूँगा। जब हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म में कर्म जैसे विभिन्न विषयों की बहुत सी अलग-अलग व्याख्याएं दी गई हैं, तो यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम उनके बारे में बाइबलवादी सोच से विरासत में मिले एक ईश्वर, एक सत्य वाले इस दृष्टिकोण को न अपनाएं: “केवल एक ही तरीका सही है बाकी सभी गलत हैं।“ बल्कि इनमें से प्रत्येक व्याख्या में कर्म को एक अलग नज़रिए से देखा गया है और उससे हमें कर्म को अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर समझने में सहायता मिलती है। ये सभी व्याख्याएं दुख पर विजय पाने में सहायक हैं, और यही तो हमारा प्रयोजन है।
“कुछ करने या कहने की इच्छा होना” कर्म को समझने की दिशा में पहला कदम
संस्कृत भाषा में अभिधर्म वह साहित्य है जिसमें कर्म के बारे में चर्चा की गई है। इस अभिधर्म परम्परा में हम अपनी अनुभूतियों की दृष्टि से “इच्छा” शब्द से शुरुआत करेंगे। यहाँ मैं “इच्छा” शब्द का प्रयोग सुख या दुख, या किसी अन्य मनोभाव या अनुभूति के लिए नहीं कर रहा हूँ। यहाँ मैं इसका प्रयोग कुछ करने या कहने या किसी चीज़ के बारे में विचार करने की इच्छा होने के अर्थ में कर रहा हूँ। इसके लिए तिब्बती भाषा में प्रयुक्त शब्द का अर्थ कामना, या कुछ करने की इच्छा होना होता है।
रोज़मर्रा के जीवन में जब हमें कुछ करने, कहने या किसी चीज़ के बारे में विचार करने की इच्छा होती है, तो हमें यह इच्छा क्यों होती है? ऐसा उन परिस्थितियों के कारण हो सकता है जिन परिस्थितियों से होकर हम गुज़र रहे होते हैं, जैसे मौसम, या हमारे साथ मौजूद लोग या दिन का कोई विशेष समय। यह इस बात से भी प्रभावित होता है कि हम सुख अनुभव कर रहे हैं या दुखी हैं। “मैं खुश नहीं हूँ, इसलिए मैं जाकर कुछ और करना चाहता हूँ।“ ऐसा कुछ विशेष प्रकार से व्यवहार करने या बोलने या विचार करने की पुरानी प्रवृत्तियों के कारण भी हो सकता है। इसमें कोई प्रेरक मनोभाव भी शामिल हो सकता है। “मेरी इच्छा हो रही है कि मैं तुम्हारे ऊपर चीखूँ-चिल्लाऊँ, क्योंकि मैं नाराज़ हूँ।“ हो सकता है कि आपने मुझसे कोई अप्रिय बात कही हो, और मैं उस बात के कारण क्रोधित और दुखी हूँ। मेरी यह प्रवृत्ति है कि जब भी कोई व्यक्ति मुझसे कोई अप्रिय बात कहता है तो मैं चीखने-चिल्लाने लगता हूँ, इस प्रकार यह बात मेरी इच्छा को बढ़ावा देती है। फिर इसके अलावा एक मूर्तिमान “मैं” के प्रति आसक्ति का भाव भी होता है। मैं, मैं, मैं। “तुमने मुझसे कोई अप्रिय बात कही,” या “मुझसे ऐसा कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?” जब हमें कुछ करे, कहने या किसी प्रकार से विचार करने की इच्छा होती है तो ये सभी कारक एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं। विचार करना कुछ इस प्रकार का हो सकता है जैसे यह षडयंत्र करना, “मैं ऐसा क्या कहूँ जिससे तुम सचमुच बहुत आहत हो जाओ?” इस प्रकार से विचार करना।
मानसिक कर्म
इस प्रकार की भावना से मानसिक कर्म उत्पन्न होता है, यानी एक अप्रतिरोध्यता उत्पन्न होती है। यहाँ अप्रतिरोध्यता एक ऐसी प्रबल मानसिक इच्छा होती है जो हमें विचार करने के लिए उद्यत करती है – उस चीज़ को कर गुजरने के लिए उद्यत करती है जिसे करने की हमें पहले इच्छा हो चुकी हो। वह हमें उसके बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती है, हो सकता है कि उस विचार के कारण हम जो कहने या करने के बारे में सोचते हैं उसे वास्तव में क्रियान्वित करें या न करें। एक प्रेरक मनोभाव, इरादा और “मैं” के प्रति आसक्ति, ये सभी कुछ करने या कहने के बारे में विचार करने की इस मानसिक प्रेरणा में शामिल होते हैं।
यदि हम ध्यानसाधना से इस प्रक्रिया को इतना धीमा कर दें कि हम संवेदनशील रहते हुए यह भेद कर सकें कि हमारे चित्त में क्या चल रहा है, तो हम इन चरणों के बीच भेद कर पाते हैं, हालाँकि आम तौर पर ये चरण बहुत तेज़ी के साथ घटित होते हैं। उदाहरण के लिए: क्योंकि मुझे गुस्सा आ रहा है, इसलिए मुझे इच्छा होती है कि मैं तुम्हारे ऊपर चीखूँ-चिल्लाऊँ। एक बाध्यकारी उत्तेजना मुझे चीखने-चिल्लाने के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती है, जिसके अन्त में मैं तय करूँगा कि मैं वास्तव में कुछ कहूँ या न कहूँ। यदि मैं चीखने-चिल्लाने का फैसला करता हूँ तो फिर उसके बाद अगले चरण लागू होंगे।
भौतिक और शाब्दिक कर्म की सरल व्याख्या
अगला विषय भौतिक या शाब्दिक कर्म का है, और इसके दो अलग-अलग संस्कृत रूपांतर या परम्पराएं होने के कारण इसकी दो अलग-अलग व्याख्याएं हैं। हम अपेक्षाकृत सरल व्याख्या से शुरुआत करेंगे। इस व्याख्या के अनुसार मानसिक कर्म की ही भांति भौतिक और मानसिक कर्म भी मानसिक प्रेरणाएं होती हैं जो हमें किसी कृत्य को शुरू करने, उसे जारी रखने, और अन्ततः उस कृत्य को समाप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। कुछ करने या कहने का विचार करने की मानसिक प्रेरणा को “प्रेरक उत्तेजना” कहा जाता है और हमें वास्तव में कुछ करने या कहने के लिए प्रेरित करने वाली मानसिक उत्तेजना को “हेतुक उत्तेजना” कहा जाता है। ध्यान रखें कि भले ही हम कुछ करने या कहने का विचार कर रहे हों, लेकिन फिर भी हो सकता है कि हम वैसा न करें या वैसे वचन न कहें; और यदि हम कुछ करते हैं या कहते हैं, तब भी यह आवश्यक नहीं है कि हमने पहले उसके बारे में विचार किया हो। चारों ही स्थितियाँ सम्भव हैं।
किसी कृत्य के प्रत्येक चरण के साथ जुड़े मनोभावों में बदलाव हो सकता है और वे एकदम अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, मेरा बच्चा सोया हुआ है। और कमरे में बहुत से मच्छर हैं। यदि मैं किसी मलेरिया प्रभावित क्षेत्र में हूँ तो मुझे चिंता होगी कि मच्छर मेरे बच्चे को काट सकते हैं और उसे मलेरिया हो सकता है। मच्छरों पर प्रहार करके उन्हें मार डालने का विचार करने के लिए मुझे प्रेरित करने वाली प्रेरक उत्तेजना के साथ मेरे बच्चे के लिए करुणा के भाव का “प्रेरक मनोभाव” जुड़ा हो सकता है। यदि मच्छरों को मारने के बारे में सोचने के बाद यदि मैं सचमुच उन्हें मार डालने का निर्णय ले लेता हूँ, तो इसकी बहुत अधिक सम्भावना है कि मेरा मनोभाव बदल जाएगा। दरअसल प्रहार करके मच्छरों को मार डालने के लिए मुझे प्रेरित करने वाली हेतुक उत्तेजना के साथ जुड़ा हुआ “हेतुक मनोभाव” अब शत्रुता और क्रोध का भाव बन जाता है। मेरे भीतर मच्छरों के प्रति शत्रुता का भाव होना चाहिए, नहीं तो मैं वास्तव में उन्हें मारने के लिए प्रयास ही नहीं करूँगा। मैं सिर्फ उन्हें डरा कर वहाँ से भगाना ही नहीं चाहता हूँ, बल्कि मैं उन पर इतनी ज़ोर से आघात करना चाहता हूँ कि उन्हें मार सकूँ। मेरा मनोभाव बदल चुका होता है।
यदि आप थोड़ा ठहर कर देखें कि आपकी मनोदशा किस तरह बदलती है तो यह बड़ा दिलचस्प रहेगा। उदाहरण के लिए, यदि आपको कोई कॉकरोच दिखाई दे तो मूलतः आपको अपने बच्चे के प्रति करुणा से प्रेरित होकर यह सोचेंगे, "मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि यह कॉकरोच मेरे बच्चे के चेहरे पर रेंगने लगे।“ फिर उसके बाद क्रोधित होकर आप सोचते हैं, “मैं इस कॉकरोच को मार डालना चाहता हूँ, उसे तब तक मसलना चाहता हूँ जब तक कि वह मर न जाए।“ लेकिन जब आप उसे कुचलने के लिए अपना पैर उसके ऊपर रखते हैं और आपको उसके शरीर के पिचकने की आवाज़ सुनाई देती है, तो आपका मनोभाव बदलकर जुगुप्सा का रूप धारण कर लेता है। जब तक अपना जूता उठा कर उसे कुचलते हुए इस कृत्य को पूरा करने की तीव्र इच्छा जाग्रत होती है और जब आप उसके कुचले हुए शरीर से हुए रिसाव की गंदगी को देखते हैं, तो आपका मनोभाव पूरी तरह घृणायुक्त विरक्ति का रूप धारण कर चुका होता है। इस प्रकार इस पूरी प्रक्रिया में आपके मनोभाव में बहुत सारे बदलाव होते हैं जो आपको इस कृत्य को करने के लिए प्रेरित करने वाली अप्रतिरोध्यता की शक्ति और बाद में उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले परिणामों को प्रभावित करते हैं।
कर्म की यह सरल व्याख्या है: कर्म चाहे मानसिक हो, मौखिक, या कायिक हो, सभी प्रकार के कर्म मानसिक कारक होते हैं। ये सभी तीव्र मानसिक इच्छाएं हैं, केवल अलग-अलग तरह की मानसिक अप्रतिरोध्यताएं जिनमें इस आधार पर भेद किया जाता है कि वे किस प्रकार के कृत्य के लिए हमें प्रेरित करती हैं – कायिक, मौखिक या मानसिक।
यह बहुत महत्वपूर्ण होता है कि हम कर्म (अप्रतिरोध्यता) के साथ जुड़े सकारात्मक या नकारात्मक मनोभाव को ही कर्म समझने की भूल न करें। ये दोनों अलग-अलग हैं। ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो कार्मिक उत्तेजना और मनोभाव दोनों रूपों में हो। कर्म एक प्रकार का चुम्बक है जो हमें किसी कृत्य को करने के बारे में सोचने, उसे करते रहने, और फिर बंद करने के लिए प्रेरित करता है। और यदि हम उसकी बाध्यकारी शक्ति के नियंत्रण से बाहर निकलने के लिए कोई प्रयास न करें, तो वह हमारे नियंत्रण से बाहर ही बना रहता है।
भौतिक और शाब्दिक कर्म की अपेक्षाकृत जटिल व्याख्या
दूसरी व्याख्या के अनुसार मानसिक कर्म – बाध्यकारी मानसिक उत्तेजनाएं – हमें तीनों प्रकार के कर्मों अर्थात विचार करने, कुछ कहने या कुछ करने के लिए प्रेरित करते हैं। वहीं दूसरी ओर भौतिक और शाब्दिक कर्म मानसिक कारक नहीं हैं, बल्कि भौतिक परिघटनाओं का रूप होते हैं। दरअसल इनमें से प्रत्येक के दो प्रकार के रूप होते हैं, एक विज्ञप्तिरूप और दूसरा अविज्ञप्तिरूप जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि वे प्रेरणा को प्रकट करते हैं अथवा नहीं। दोनों ही स्थितियों में कर्म फिर भी कृत्य से भिन्न ही रहता है। फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि स्वयं को भौतिक या शाब्दिक कर्म से मुक्त करने के लिए हमें कुछ भी करना या कहना बंद कर देना चाहिए।
विज्ञप्ति रूप
- भौतिक कर्म के सम्बंध में विज्ञप्ति रूप वह बाध्यकारी स्वरूप होता है जिसे हमारे द्वारा किए गए कृत्य धारण करते हैं। एक प्रकार से यह एक ऐसी अप्रतिरोध्यता है जो हमारे द्वारा किए जाने वाले भौतिक कृत्यों का रूप निर्धारित करती है और उसी प्रक्रिया में उन कृत्यों को करते समय हमारे शरीर के स्वरूप को निर्धारित करती है। बाध्यकारी आकार कृत्यों के पीछे की प्रेरणा को प्रकट करता है, यानी उसके साथ जुड़ी हमारी मंशा और मनोभाव दोनों को प्रकट करता है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी व्यक्ति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उसके कंधे को थपथपाते हैं, तो हो सकता है कि हम उसके बाध्यकारी ढंग से उसके कंधे पर जोर से प्रहार कर सकते हैं या धीरे से उसे छू भर सकते हैं। हमारे कृत्य द्वारा ग्रहण किए गए इस स्वरूप की बाध्यकारिता हमारे भौतिक कृत्य में निहित है। वह मंशा – किसी का ध्यान आकृष्ट करना - को प्रकट करता है और उसके पीछे के मनोभाव – खीझ या प्रेम – को भी प्रकट करता है।
- शाब्दिक कर्म के मामले में विज्ञप्ति रूप हमारे स्वर का वह रूप है जो हमारे द्वारा चुने गए शब्दों और उन शब्दों को उच्चारित करने के लिए प्रयुक्त लहजे के रूप में प्रकट होता है। यह भी मंशा और मनोभाव दोनों के पीछे की बुनियादी प्रेरणा को प्रकट करता है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उसका नाम पुकारने के बारे में सोचते हैं तो हो सकता है कि हम बाध्यकारी रूप से तेज आवाज में आक्रामक ढंग से उसके नाम को पुकार सकते हैं, या फिर उसे धीमे सौम्य स्वर में भी बुला सकते हैं। यहाँ शाब्दिक कर्म हमारे स्वर की अप्रतिरोध्यता है। यह स्वर मंशा – उस व्यक्ति के ध्यान को आकृष्ट करना – और उसके पीछे के मनोभाव – खीझ या प्रेम का भाव – को प्रकट करता है।
अविज्ञप्ति रूप
अविज्ञप्ति रूप अधिक सूक्ष्म होता है। यह दृष्टिगोचर या श्रव्य नहीं होता है और यह हमारी अन्तर्निहित प्रेरणा को प्रकट नहीं करता है। पाश्चात्य चिन्तन में इसके लिए सबसे निकटतम अभिव्यक्ति सूक्ष्म स्पंदन है। किसी कृत्य के समाप्त हो जाने पर जहाँ हमारे भौतिक और शाब्दिक कृत्यों का विज्ञप्ति रूप समाप्त हो जाता है, वहीं अविज्ञप्ति रूप उस समय भी उत्पन्न होता है जब हम कुछ कर रहे होते हैं या कह रहे होते हैं और हमारे उस कृत्य के समाप्त हो जाने के बाद भी हमारे मानसिक सातत्य के भाग के रूप में कायम रहता है। वह केवल तभी समाप्त होता है जब हम किसी व्रत को धारण करके या किसी व्रत को त्याग कर निश्चित तौर पर यह निर्णय कर लेते हैं कि हम इस अविज्ञप्ति रूप की उत्पत्ति का कारण बनने वाले उस कृत्य को दोबारा फिर कभी नहीं दोहराएंगे।
जब हम किसी व्यक्ति के बारे में यह कहते हैं कि वह बलपूर्वक या बाध्यकारी ढंग से आक्रामक स्वर में बात करता है – यानी उसके व्यवहार और वाणी में बाध्यकारिता का गुण है – तो इसका आशय उस व्यक्ति के भौतिक या शाब्दिक कर्म के अविज्ञप्ति रूप से होता है। जब वह व्यक्ति कुछ न कर रहा हो या कुछ न कह रहा हो, तब भी हम कह सकते हैं कि वह व्यक्ति फिर भी बाध्यकारी रूप से आक्रामक है।
ध्यान रहे कि बाध्यकारी होने का मतलब आवेगशील होना नहीं होता है। “आवेगशील” होने का मतलब है कि आप पहले से सोचे-विचारे बिना वैसा ही कर गुजरते हैं जैसा करने का विचार आपके मन में आ जाता है। “बाध्यकारी” होने का मतलब यह है कि आप जो कुछ कर रहे होते हैं या कह रहे होते हैं या जिस ढंग से कर या कह रहे होते हैं, उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता है। किसी भी प्रकार के प्रतिरोध के बिना आप किसी विशेष प्रकार के व्यवहार के पैटर्न को बार-बार दोहराते चले जाते हैं, जैसे उँगलियों से टेबल को बजाना या किसी भी तरह की गर्मजोशी प्रदर्शित किए बिना आक्रामक स्वर में बात करना।
मानसिक सातत्य पर अंकित होने वाले प्रभाव चिह्न: सम्भाव्यताएं और प्रवृत्तियाँ
कर्म की दोनों व्याख्याओं के अनुसार किसी कृत्य – भौतिक, शाब्दिक या मानसिक - के समाप्त हो जाने के बाद हमारे मानसिक सातत्य पर उसका कुछ न कुछ उत्तरप्रभाव छूट जाता है। ये प्रभाव न तो भौतिक परिघटनाओं (अविज्ञप्ति रूपों से भिन्न) के रूप में होते हैं और न ही किसी बात के प्रति सचेत होने के रूप में होते हैं। ये कहीं अधिक अमूर्त होते हैं और हमारे मानसिक सातत्य पर आरोपित रहते हैं, जैसे हमारी उम्र। इस प्रकार के कार्मिक उत्तरप्रभावों में कार्मिक सम्भाव्यताएं और कार्मिक प्रवृत्तियाँ शामिल होती हैं।
कार्मिक सम्भाव्यताएं
किसी विशेष प्रकार के दृष्टिकोण का निर्माण करने वाली कार्मिक सम्भाव्यताएं, जिन्हें “कार्मिक शक्तियाँ” भी कहा जा सकता है, या तो सकारात्मक होती हैं या फिर विनाशकारी होती हैं। कई अनुवादक सकारात्मक सम्भाव्यताओं को “पुण्य” की संज्ञा देते हैं और विनाशकारी सम्भाव्यताओं को “पाप” कह कर बुलाते हैं, लेकिन बाइबिलीय धर्मों से ली गई ये अभिव्यक्तियाँ मुझे अनुपयुक्त और भ्रामक लगती हैं। मैं इन्हें “नकारात्मक कार्मिक सम्भाव्यताएं” या “नकारात्मक कार्मिक शक्तियाँ” और “सकारात्मक कार्मिक सम्भाव्यताएं” या “सकारात्मक कार्मिक शक्तियाँ” कहना पसंद करता हूँ। यहाँ हम इन्हें “सकारात्मक सम्भाव्यताएं” और “नकारात्मक सम्भाव्यताएं” ही कहेंगे।
यह थोड़ा जटिल है, क्योंकि विनाशकारी और सकारात्मक कृत्य भी – विनाशकारी या सकारात्मक कर्म से उद्भूत या सम्बंधित – नकारात्मक या सकारात्मक सम्भाव्यताएं हैं। इस प्रकार, कुछ ऐसी कार्मिक सम्भाव्यताएं होती हैं जो हमारे कृत्यों के रूप में होती हैं और कुछ ऐसी कार्मिक सम्भाव्यताएं होती हैं जो हमारे मानसिक सातत्य पर आरोपित रहते हुए कायम रहती हैं।
ये कार्मिक सम्भाव्यताएं “विपाक हेतु” के रूप में कार्य करती हैं। जिस प्रकार किसी पेड़ पर लगा फल धीरे-धीरे परिपक्व होता है और जब वह पक जाता है तो वह खाने योग्य होकर पेड़ से गिर जाता है, वैसे ही कार्मिक सम्भाव्यताएं एक-दूसरे के साथ मिलजुलकर बनती-बढ़ती हैं – वे आपस में जुड़ी होती हैं – और जब वे पर्याप्त रूप में जमा हो जाती हैं तो कार्मिक परिणामों के रूप में उनका विपाक हो जाता है। नैतिकता की दृष्टि से उनके परिणाम हमेशा निरपेक्ष होते हैं – बुद्ध ने उन्हें सकारात्मक या विनाशकारी के रूप में विभाजित नहीं किया था क्योंकि ये किसी भी प्रकार के कृत्य से जुड़े हो सकते हैं: सकारात्मक, विनाशकारी या निरपेक्ष। उदाहरण के लिए, नकारात्मक सम्भाव्यताओं का विपाक दुख के रूप में और सकारात्मक सम्भाव्यताओं का विपाक सुख के रूप में होता है। हम किसी व्यक्ति की सहायता करते हुए, किसी मच्छर को मारते हुए या बर्तन धोते हुए भी खुश हो सकते हैं। हम इनमें से किसी भी कार्य को करते हुए दुखी भी हो सकते हैं।
कार्मिक प्रवृत्तियाँ
कार्मिक प्रवृत्तियाँ हमारे कार्मिक व्यवहार के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती हैं। यदि बर्तन धोने जैसा कोई कृत्य निरपेक्ष प्रकार का होता है तो उसकी परवर्ती कार्मिक प्रवृत्ति भी तटस्थ होगी। यदि कृत्य सकारात्मक या नकारात्मक हुआ, तो फिर उसकी सकारात्मक या नकारात्मक सम्भाव्यताएं कार्मिक प्रवृत्तियों के मूलभूत गुण को धारण कर लेंगी। यानी, वे कार्मिक प्रवृत्तियों के रूप में कार्य करती हैं लेकिन अपने सकारात्मक या विनाशकारी गुण को बनाए रखती हैं। चूँकि मोटे तौर पर कार्मिक प्रवृत्तियाँ सकारात्मक, नकारात्मक या निरपेक्ष हो सकती हैं, इसलिए समग्रतः इन्हें अक्सर तटस्थ ही बताया जाता है।
कार्मिक प्रवृत्तियाँ, जिन्हें “कर्म-बीज” कहा जाता है, अपने परिणामों के उपादान हेतु के रूप में कार्य करती हैं। यानी जैसे किसी बीज से अंकुर निकलता है, वैसे ही इन प्रवृत्तियों से परिणाम उत्पन्न होता है। यह परिणाम, उदाहरण के तौर पर, पिछले प्रकार के कृत्य को दोहराए जाने के रूप में हो सकता है।
कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों का विवेचन
अविज्ञप्तिरूप सहित विभिन्न प्रकार के कार्मिक परिणामों के बीच का भेद बहुत ही सूक्ष्म और अत्यन्त जटिल होता है। कर्म के बारे में शुरुआती अध्ययन करते समय उन सभी के बीच के भेदों के बारे में विस्तार से चर्चा करना आवश्यक नहीं है। बल्कि सामान्य तौर पर यह समझना आवश्यक होता है कि कार्मिक परिणाम क्या है और इसका सम्बंध किस बात से है।
उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए कि आप किसी पर चीखते-चिल्लाते हैं। चीखने-चिल्लाने का कृत्य स्वयं इस सम्भावना का संकेत देता है कि आप भविष्य में भी ऐसा कर सकते हैं। एक बार जब चीखने-चिल्लाने की घटना समाप्त हो जाती है तो हम कह सकते हैं कि एक बार फिर चीखने-चिल्लाने की सम्भावना आपके मानसिक सातत्य पर फिर भी विद्यमान है और हम उसका उल्लेख लोगों पर चीखने-चिल्लाने की आपकी प्रवृत्ति के रूप में कर सकते हैं।
अब हम अपने किसी विशिष्ट प्रकार के व्यवहार को चुनकर थोड़ी देर के लिए इसके बारे में विचार करेंगे। इसे इस प्रकार से देखने का प्रयास करें: मेरे व्यवहार में एक विशेष प्रकार का पैटर्न है, क्योंकि में कुछ विशेष प्रकार के कृत्यों को बार-बार दोहराता हूँ। उस पैटर्न के कारण निश्चित तौर पर इस बात की सम्भाव्यता है कि मैं उस व्यवहार को फिर दोहरा सकता हूँ। ऐसा इसलिए है क्योंकि उस प्रकार से व्यवहार करना मेरी प्रवृत्ति है। दरअसल मेरा व्यवहार बाध्यकारी है क्योंकि मैं अनियंत्रित होकर बार-बार उस तरह का व्यवहार करता हूँ। मैं जितना ज्यादा उस तरह का व्यवहार करता हूँ, उस व्यवहार को दोहराने की मेरी सम्भावना उतनी ही अधिक प्रबल हो जाती है। इसके अलावा, यह सम्भावना जितनी अधिक प्रबल होगी, मैं दूसरों पर चीखने-चिल्लाने जैसे उस कृत्य को उतनी ही जल्दी दोहराऊँगा।
शरीर क्रियाविज्ञान की दृष्टि से आप कह सकते हैं कि हमारा पुनरावर्ती व्यवहार एक प्रबल स्नायु मार्ग का निर्माण करता है और इस स्नायुमार्ग के कारण हमारे द्वारा उस व्यवहार को दोहराए जाने की सम्भावना भी प्रबल होती है।
अब हम अपने व्यवहार के बारे में और अधिक विस्तार से चर्चा करेंगे। उदाहरण के लिए, मैं बहुत जल्दी क्रोधित हो जाता हूँ, और लोगों पर चीखने-चिल्लाने लगता हूँ। मेरे इस व्यवहार में एक प्रकार की अप्रतिरोध्यता है, एक प्रकार का ऐसा प्रभामंडल है कि संवेदनशील लोग उसे महसूस कर पाते हैं। वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति के साथ रहते समय मुझे बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है, क्योंकि यह बहुत जल्दी नाराज़ हो सकता है।“ वे मेरा वर्णन इस प्रकार करेंगे कि मैं जल्दी आपा खोने और दूसरों पर चीखने-चिल्लाने की प्रवृत्ति वाला व्यक्ति हूँ। हमेशा यह सम्भावना बनी रहती है कि मैं वास्तव में चीखने-चिल्लाने लगूँगा, और जब मैं ऐसा करता हूँ तो मेरी आवाज़ में अप्रतिरोध्यता का एक भाव होता है जो उसे कटु और अप्रिय बनाता है। यदि आप मुझसे कुछ ऐसा कह दें जो चिड़चिड़ापन उत्पन्न करने वाला हो, तो यह निश्चित है कि मेरे भीतर पलट कर आपको कुछ खराब या बुरा कहने की इच्छा अवश्य जाग्रत होगी, और मेरे कर्म की अप्रतिरोध्यता मुझे वास्तव में चीखने-चिल्लाने के लिए प्रेरित करेगी। मैं आपे से बाहर हो जाता हूँ।
कृपया इस प्रकार से आत्मनिरीक्षण करते हुए चिन्तन करें। यदि हम अपनी कार्मिक प्रवृत्तियों और सम्भाव्यताओं को पहचान पाएं तो हम स्वयं को उनसे मुक्त करने के लिए अभ्यास शुरू कर सकते हैं। इसलिए अपने आप से पूछें, मेरी प्रवृत्तियाँ क्या हैं? मेरे व्यवहार के वे ऐसे कौन से पैटर्न हैं जिन्हें मैं बाध्यकारी ढंग से दोहराता हूँ? याद रहे, ये बाध्यकारी पैटर्न सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं, जैसे दूसरों पर चीखना-चिल्लाना या किसी परिपूर्णतावादी के रूप में व्यवहार करना।
कार्मिक परिणाम
जब परिस्थितियाँ पूर्ण हो जाती हैं तो विभिन्न कार्मिक सम्भाव्यताएं और प्रवृत्तियाँ हमें इनमें से किसी एक या अधिक प्रकार की अनुभूतियाँ कराती हैं: सुख, दुख, अपने व्यवहार की पुनरावृत्ति करना, हमने दूसरों के साथ जैसा व्यवहार किया होता है वैसे ही व्यवहार को अनुभव करना, आदि। यह भी बहुत जटिल है। लेकिन इस बात को समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि हमें होने वाले अनुभव कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों के कारण उत्पन्न नहीं होते हैं। वे हमें उनका अनुभव कराती हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई कार मुझे टक्कर मार देती है, तो कार मेरी कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों के कारण उत्पन्न नहीं हुई है, और उन्होंने कार के ड्राइवर को मुझे टक्कर मारने के लिए प्रवृत्त नहीं किया है। ड्राइवर का मुझे टक्कर मारना उसके कार्मिक परिणाम का नतीजा था। केवल मेरा कार्मिक परिणाम ही मुझे टक्कर मारे जाने के लिए जिम्मेदार था।
क्या आप इस फर्क को समझ रहे हैं? हम उन चीज़ों की बात कर रहे हैं जिनकी हमें अनुभूति होती है। उदाहरण के लिए, मुझे मौसम की अनुभूति होती है, लेकिन मेरी कार्मिक सम्भाव्यताओं ने मौसम को निर्मित नहीं किया है। मेरी कार्मिक सम्भाव्यताएं छाता लिए बिना बाहर जाने पर मेरे भीग जाने की घटना का कारण बनती हैं, लेकिन वे वर्षा का कारण नहीं हैं। हाँ, मैं भीगता तो बारिश के पानी के कारण ही हूँ, लेकिन वह कर्म नहीं है। यह तथ्य कि जब भी मैं उस स्थिति में बाहर जाता हूँ जब बारिश होने की सम्भावना हो, मैं बाध्यकारी ढंग से छाता ले जाना भूल जाता हूँ – यह किसी कार्मिक प्रवृत्ति और सम्भाव्यता के कारण होता है। उस प्रवृत्ति के कारण और परिणामस्वरूप मैं भीगने के अनुभव से होकर गुज़रता हूँ।
कार्मिक परिणामों के विभिन्न प्रकार
परिस्थितियों के आधार पर हम अनेक प्रकार के अनुभवों से होकर गुज़रते हैं। हमें क्या-क्या अनुभूतियाँ होती हैं?
- हमें सुख या दुख की अनुभूति होती है। यह बहुत दिलचस्प है क्योंकि हो सकता है कि हमारे आसपास बहुत सी अच्छी-अच्छी चीज़ें हो रही हो सकती हैं, फिर भी हम दुखी महसूस कर रहे हो सकते हैं। हो सकता है कि हम एक ही काम को दो अलग-अलग समयों पर कर रहे हों, और एक समय पर उसे करते समय हम खुश हों, लेकिन किसी दूसरे समय उसी काम को करते समय हम दुखी हों। ऐसा कार्मिक सम्भाव्यताओं के कारण होता है।
- हमें कुछ ऐसी स्थितियों का अनुभव होता है जिनका सम्बंध विशिष्टतः हमसे ही होता है, जैसे कुछ देखना या सुनना। उदाहरण के लिए, ऐसा क्यों होता है कि हमें ऐसे हिंसक दृश्य बार-बार क्यों दिखाई देते हैं जहाँ लोग आपस में लड़-झगड़ रहे हों? ज़ाहिर है कि ये झगड़े हमारे कर्म के कारण उत्पन्न नहीं हुए होते हैं, लेकिन फिर भी हमें हमेशा ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं और उन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है। हमें ऐसी चीज़ों को देखने का अनुभव करना भी हमारी कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों का परिणाम है।
- विभिन्न स्थितियों में हमें अपने पिछले कृत्यों को दोहराने की इच्छा होती है। उदाहरण के लिए मेरी इच्छा होती है कि मैं आपके ऊपर चीखूँ-चिल्लाऊँ या मेरी इच्छा होती है कि आपको गले लगा लूँ। हमारी जो करने की इच्छा हो रही होती है या जो हम करना चाहते हैं वह पहले भी उसी प्रकार का व्यवहार कर चुकने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। ध्यान रखें कि कर्म का विपाक कर्म से नहीं होता है। कार्मिक परिणाम का विपाक हमें किसी कृत्य को करने के लिए प्रवृत्त करने वाली अप्रतिरोध्यता के रूप में नहीं होता है; बल्कि उसका विपाक उस कृत्य को करने की इच्छा के रूप में होता है। हो सकता है कि कुछ करने की इच्छा होना उस अप्रतिरोध्यता के रूप में परिणत हो या न हो जिसके साथ हम उस कृत्य को करते हैं।
- कुछ अन्य स्थितियों में, हमारे साथ वैसा कुछ होता है जैसा हम पहले दूसरों के साथ कर चुके होते हैं। इस प्रकार दूसरों पर चीखने-चिल्लाने की प्रवृत्ति के कारण हमें ऐसे अनुभव से गुज़रना पड़ता है जहाँ दूसरे लोग हमारे ऊपर चीखते-चिल्लाते हैं। यदि हम दूसरों के साथ धोखा करते हैं तो हम दूसरों के हाथों धोखा खाते हैं।
इसे समझ पाना हमेशा आसान नहीं होता है क्योंकि इसका सम्बंध पूर्व जन्मों से होता है। लेकिन अपने भीतर के कुछ पैटर्नों का विश्लेषण करना बहुत दिलचस्प होता है। उदाहरण के लिए, फूट डालने वाले वचन कहने को ही लें, जिसका सम्बंध किसी व्यक्ति के बारे में दूसरों, जैसे उसके मित्रों, से बुरे वचन कहने से होता है ताकि वे उस व्यक्ति के साथ अपने सम्बंध खत्म कर लें। ऐसे व्यवहार के कार्मिक परिणाम के कारण हमें इस अनुभव से गुजरना पड़ता है कि हमारे अपने मित्र ही हमें छोड़ जाते हैं। लोगों के साथ हमारी मित्रता या साझेदारी टिकती नहीं है; लोग हमारे जीवन से दूर चले जाते हैं। हमने दूसरों को एक-दूसरे से अलग किया, और अब हम यह अनुभव करते हैं कि हमारे सम्बंबध लम्बे समय तक नहीं टिक पाते हैं।
आप इसे कर्म के स्तर पर समझ ही सकते हैं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इसे समझा जा सकता है। यदि मैं हमेशा आपसे दूसरों की बुराई करता हूँ, खास तौर पर जब मैं आपके दूसरे मित्रों की बुराई आपसे करता हूँ, तो आप क्या सोचेंगे? आप सोचेंगे, “मेरी पीठ के पीछे यह मेरे बारे में क्या कहता होगा?” ज़ाहिर है कि हमारी मित्रता खत्म हो जाएगी।
जब हम इन कार्मिक हेतुक सम्बंधों के बारे में और अधिक गहराई से विचार करते हैं तो ये बातें समझ में आने लगती हैं। हमें उन्हीं चीज़ों का अनुभव होने लगता है जैसा हम दूसरों के साथ कर चुके होते हैं। ध्यान रहे, यहाँ हम उसकी बात कर रहे हैं जो हमें अनुभव होता है, हम उसकी बात नहीं कर रहे हैं जो दूसरा व्यक्ति हमारे साथ करता है? वैसा करने के लिए उस व्यक्ति के अपने कार्मिक कारण होते हैं।
कार्मिक परिणामों का एक और प्रकार वह होता है जब हम जिन चीज़ों को अनुभव करते हैं उन्हें दूसरे भी हमारे साथ अनुभव कर रहे होते हैं, जैसे किसी विशेष प्रकार के वातावरण में या समाज में मौजूद होना और सभी के साथ-साथ वहाँ हो रहे व्यवहार को अनुभव करना। उदाहरण के लिए, किसी ऐसे स्थान पर जन्म लेना या रहना जहाँ बहुत अधिक प्रदूषण हो, या बहुत कम प्रदूषण होना। या हमें किसी ऐसे समाज में रह रहे होने का अनुभव हो सकता है जहाँ बहुत अधिक भ्रष्टाचार हो, या किसी ऐसे समाज में रहने का अनुभव हो जहाँ लोग ईमानदार हों। ये ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम एक ही समाज में या स्थान पर दूसरों के साथ-साथ अनुभव करते हैं।
कर्म व्यवस्था का विवेचन
ये सभी वे चीज़ें हैं जिनके अनुभव से हम कार्मिक परिणाम के कारण गुज़रते हैं। हमें सुख या दुख की अनुभूति होती है, विभिन्न चीज़ों को देखने या सुनने की अनुभूति होती है, विभिन्न प्रकार की चीज़ें हमारे साथ घटित होती हैं, और ये सभी मिलकर उन परिस्थितियों का निर्माण करती हैं जहाँ हमें अपने व्यवहार के पिछले पैटर्नों को दोहराने की इच्छा महसूस करते हैं। यदि हम उस इच्छा पर अमल कर देते हैं तो एक प्रकार की अप्रतिरोध्यता उत्पन्न होती है जो हमें उस इच्छा को क्रियान्वित करने के लिए प्रेरित करती है। अक्सर ऐसा लगता है कि इसमें हमारा कोई निर्णय नहीं हैं। उदाहरण के लिए, एक बार जब मुझे आपके ऊपर चीखने-चिल्लाने की इच्छा होती है, तो मैं बाध्यतावश चीखता-चिल्लाता हूँ और उस पैटर्न को दोहराता रहता हूँ। हालाँकि हम चीखने-चिल्लाने की उस इच्छा को क्रियान्वित न करने का निर्णय ले सकते हैं, लेकिन चीज़ें इतनी तेज़ी से घटित होती हैं कि हम बाध्यतावश चीखने-चिल्लाने लगते हैं। हम इस पैटर्न को दोहराते चले जाते हैं और आगे भी बार-बार चीखने-चिल्लाने की सम्भाव्यता को मज़बूत करते हैं, और हम जिस ढंग से बात करते हैं या जिस ढंग से व्यवहार करते हैं उसमें एक प्रकार की अप्रतिरोध्यता होती है। यही कर्म की व्यवस्था है।
इस सब के बारे में विचार कीजिए और इन बातों के अर्थ को समझिए।