नैतिक आत्मानुशासन के दो अन्य स्तर

पुनरावलोकन

आध्यात्मिक विकास के आरम्भिक स्तर पर हम विनाशकारी व्यवहार से बचने के लिए नैतिक आत्मानुशासन का पालन करते हैं। हमारा लक्ष्य होता है कि हम न केवल इस जीवनकाल में, बल्कि आने वाले जन्मों में भी अपनी स्थिति को बदतर होने से रोक सकें। हम बेहतर गतियों में पुनर्जन्म प्राप्त करने और उन जन्मों में हमें मिलने वाले सामान्य सुखों से अधिक उत्कृष्ट सुखों को प्राप्त कर सकें। हम और अधिक दुख और कष्ट भोगने की आशंका के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित होते हैं। लेकिन हमें यह बोध हो चुका होता है कि इससे बचने का एक मार्ग उपलब्ध है, यानी आत्मनियंत्रण रखते हुए और विनाशकारी व्यवहार से दूर रहकर हम ऐसी नियति से बच सकते हैं। जब भी लोभ या क्रोध जैसे किसी अशांतकारी मनोभाव के कारण हमारे भीतर कोई विनाशकारी कृत्य करने, वचन कहने या विचार करने की इच्छा जाग्रत होती है तो हम उस भाव को पहचान जाते हैं और उसे क्रियान्वित करने से अपने आप को रोक लेते हैं। हालाँकि कुछ विनाशकारी करने की इच्छा महसूस होने और फिर बाध्यकारी ढंग से उसे करने के बीच के अन्तराल को खत्म करने के लिए हमें बहुत धीमा होना पड़ता है, और शुरुआत में ऐसा करने में सचमुच बहुत कठिनाई होती है, लेकिन हम अभ्यास से स्वयं को इस योग्य बना सकते हैं कि हम उसे पहचान पाएं।

उस स्थिति के बारे में सोचिए जब आप बैठकर किसी काम को करने की कोशिश कर रहे होते हैं, और आपको ऊब होने लगती है। आपके मन में इच्छा जाग्रत होती है कि आप अपनी फेसबुक वॉल को देखें या एक बार फिर अपने फोन पर समाचार पढ़ें, या किसी मित्र को टैक्स्ट संदेश भेजें। विकास के इस स्तर पर पहुँच कर हम ऐसी भावना के जाग्रत होते ही उसे पहचान लेंगे और साफ तौर पर तय कर लेंगे, “यदि मैंने ऐसा किया तो मैं अपना काम पूरा नहीं कर पाऊँगा और उसके कारण समस्याएं उत्पन्न होंगी। इसलिए भले ही मेरे मन में कुछ और करने की इच्छा हो रही हो, मैं वैसा करने वाला नहीं हूँ।“

वीडियो: डा. चोन्यी टेलर – व्यसनकारी आवर्ती क्रम को भंग करना
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दूसरा स्तर: पुनर्जन्म से पूरी तरह मुक्त होने के लिए प्रयास करना

लाम-रिम की प्रेरणा के मध्यवर्ती स्तर पर अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म से पूरी तरह मुक्ति पाने के लिए प्रयास किया जाता है। याद कीजिए, “संसार” का यही अर्थ है, अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाला पुनर्जन्म, जो बार-बार अनियंत्रित ढंग से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से भरा होता है, और आप इसे रोक नहीं पाते हैं। ये समस्याएं केवल दुख की ही समस्याएं नहीं होती हैं, बल्कि उनका सम्बंध दुख सत्य के उन दो पहलुओं से भी होता है जिनका उल्लेख बुद्ध ने किया था:परिवर्तनशीलता का दुख और सर्व-व्यापक दुख।

सामान्य सुख

परिवर्तनशीलता के दुख से आशय हमारे सामान्य सुख से होता है; दुर्भाग्य से इसके साथ अनेक प्रकार की समस्याएं जुड़ी होती हैं। पहले तो वह स्थायी नहीं होता है – इसीलिए इसे “परिवर्तनशीलता का दुख” कहा जाता है – और यह कभी भी संतोष प्रदान करने वाला नहीं होता है क्योंकि हम हमेशा और अधिक पाने की कामना करते रहते हैं। यदि हमें यह सुख बहुत अधिक मिल जाए या अधिक लम्बे समय के लिए मिल जाए तो हम उससे ऊब जाते हैं या फिर वह हमारे लिए दुख में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण के लिए बाहर धूप में रहने के अनुभव को ही ले लें: कुछ समय तक धूप में रहना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन आप हर समय धूप की गर्मी में ही बने रहना नहीं चाहेंगे। कुछ समय बाद वह असहनीय हो जाता है और आपको छाँव में जाना पड़ता है। या उस स्थिति के बारे में सोचिए जब कोई प्रिय व्यक्ति आपको दुलराते हुए आपके हाथ को सहला रहा हो। यदि वह व्यक्ति तीन घंटे तक लगातार आपके हाथ को सहलाता रहे तो आपका हाथ दुखने लगेगा! तो इस प्रकार सामान्य सुख के साथ समस्याएं जुड़ी हुई होती हैं।

रचनात्मक और सकारात्मक ढंग से व्यवहार करने के परिणामस्वरूप हमें सामान्य सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु यह भ्रममिश्रित होता है, जैसाकि हमने किसी सनकी परिपूर्णतावादी के उदाहरण में देखा था जो अप्रतिरोध्यकारी ढंग से अपने घर की सफाई करने में जुटा रहता है और यह सुनिश्चित करता रहता है कि सब कुछ साफ-सुथरा और व्यवस्थित हो। जब वह सफाई का काम पूरा कर लेता है तो कुछ समय के लिए खुश हो जाता है, लेकिन कुछ ही समय बाद असंतोष उत्पन्न होने लगता है और वह सोचने लगता है, “अभी घर ठीक ढंग से साफ नहीं हुआ है, हो सकता है कि मुझसे कोई जगह छूट गई हो। इसलिए मुझे फिर से सफाई करनी होगी।“ ऐसे लोगों को जो भी सुख मिलता है वह ज्यादा समय तक टिकता नहीं है। उन्हें हमेशा यही लगता रहता है कि उनका घर अभी और अधिक साफ किया जा सकता है।

सर्व-व्यापक दुख

तीसरे प्रकार के दुख को “सर्व-व्यापक दुख” कहा जाता है। अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले हमारे पुनर्जन्मों की दृष्टि से यह वास्तविकता है कि प्रत्येक पुनर्जन्म में हम ऐसी देह और ऐसा चित्त धारण करते हैं जो स्वतः ही समस्याएं और कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं। इसके बारे में जरा सोच कर देखें। अभी हमने जैसा शरीर धारण कर रखा है, उस शरीर के साथ यह सम्भव ही नहीं है कि हम किसी न किसी जीव को कुचलकर उसकी हत्या किए बिना चल फिर सकें। यदि आप शाकाहारी हों, तब भी हमारे लिए ऐसा कोई आहार नहीं है जिसके उत्पादन में किसी न किसी तरह के कीट या किसी अन्य जीव की हत्या न की गई हो। हमारा शरीर रोगों का शिकार हो जाता है और हमारा शरीर और चित्त थक भी जाते हैं। हमें विश्राम करने की आवश्यकता पड़ती है; हमें भोजन करना पड़ता है; हमें आजीविका कमानी पड़ती है। यह सब आसान नहीं है, है न?

इसके बाद अगले जन्म में यदि हम भाग्यशाली भी हुए, तो मनुष्य के रूप में हमारा पुनर्जन्म होता है और हम किसी शिशु के रूप में जन्म लेते हैं। कितनी खराब स्थिति होती है! आप रोने के अलावा और किसी ढंग से अपनी बात को अभिव्यक्त ही नहीं कर सकते हैं; आप अपना कोई काम स्वयं नहीं कर पाते हैं और आपको सब कुछ नए सिरे से सीखना पड़ता है। यह सचमुच बड़ा उबाऊ है! और इसमें खराब बात यह है कि हमें असंख्य बार इस प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। कल्पना कीजिए कि आपको दोबारा स्कूल जाना होगा! क्या आप आगे भी लाखों बार स्कूल जाते रहना चाहेंगे, और अनन्तकाल तक स्कूल का होमवर्क करते रहना चाहेंगे और अनगिलत बार परीक्षाएं देते रहना चाहेंगे?

तो इस प्रकार हमें अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म के कारण इस सर्व-व्यापक दुख को भोगना पड़ता है। चाहे हमारा पुनर्जन्म बहुमूल्य अपेक्षाकृत बेहतर गति में, मनुष्य जैसी बहुमूल्य गति में ही क्यों न हो, तब भी हमें इन सभी सर्व-व्यापक दुखों का समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हम इसी से मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, और उसके लिए हमें सभी प्रकार के बाध्यकारी कर्म, केवल नकारात्मक ही नहीं, बल्कि सकारात्मक बाध्यकारी कर्म से भी मुक्त होने की आवश्यकता होती है।

मुक्ति से प्राप्त होने वाला सुख

एक बार फिर अपने सामान्य सुख के बारे में सोच कर देखिए। तकनीकी दृष्टि से इस सुख को “दूषित सुख”कहा जाता है क्योंकि यह ऐसा सुख इस दृष्टि से भ्रम से दूषित या मिश्रित होता है कि यह भ्रमजनित होता है, भ्रमयुक्त होता है और, जब तक कि हम इसके प्रति अपने दृष्टिकोण को न बदल लें, यह और अधिक भ्रम उत्पन्न करता है। इसके स्थान पर हम एक ऐसा सुख चाहते हैं जो भ्रमयुक्त न हो। ऐसा सुख ही स्थायी और संतोषदायी होता है। यह सुख हमारे सामान्य सुख से बिल्कुल भिन्न है। यह ऐसा सुख है जो समस्त अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होने पर उत्पन्न होता है। इसमें भ्रम के लिए कोई स्थान नहीं होता है।

एक उदाहरण देखें जो कुछ हद तक ऐसे सुख से मिलता-जुलता है, लेकिन निश्चित तौर पर यह वैसा सुख नहीं है जिसके बारे में हम चर्चा कर रहे हैं: आप दिन भर बहुत ही कसे हुए जूते पहने रहते हैं। दिन खत्म होने पर आप अपने जूते उतार देते हैं और आपको बड़ी राहत अनुभव होती है। “आहा! मैं इस बंधन से और अपने पैर की पीड़ा से मुक्त हुआ!” यह सुख उस सुख से अलग प्रकार का होता है जो हमें अपनी पसंद की चीज़ खाने पर अनुभव होता है, है न?यहाँ हम लगभग वैसी ही अनूभूति की बात कर रहे हैं जो हमें विक्षिप्तता के विचारों से मुक्त होने पर, चिंता से मुक्त होने पर, असुरक्षा आदि के भावों से मुक्त होने पर होती है। क्या ऐसी अनुभूति शानदार नहीं होगी यदि आप कभी भी भावनात्मक रूप से अस्थिर न हों, दोबारा कभी असुरक्षित या चिंतित अनुभव न करें? वह बहुत बड़ी राहत होगी!

यह एक संकेत मात्र है उन चीज़ों को जो हमें अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म से मुक्ति मिलने पर प्राप्त होती हैं – हमें समस्त प्रकार के दुख सत्य से मुक्ति मिलती है जिसमें पुनर्जन्म का दुख भी शामिल है। ऐसा कर पाने के लिए हमें केवल विनाशकारी कर्म की ही नहीं, बल्कि सभी प्रकार के कर्म की अप्रतिरोध्यता पर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। हमें इस अप्रतिरोध्यता पर विजय पाने की आवश्यकता इसलिए होती है ताकि हम सकारात्मक ढंग से व्यवहार कर सकें। साफ-सुथरा रहने और सभी कामों को अच्छी ढंग से करने में कोई बुराई नहीं है। समस्या तब होती है जब यह एक बाध्यकारी और विक्षिप्तता का संलक्षण बन जाता है और हमारे नियंत्रण से बाहर जाकर हमारे चित्त की शांति को भंग कर देता है; हमें इसी अप्रतिरोध्यता से मुक्त होने की आवश्यकता है।

सकारात्मक मनोभावों और अशांतकारी मनोभावों के बीच अंतर करना

जब हम सकारात्मक व्यवहार करते हैं, तो उस व्यवहार के साथ कुछ सकारात्मक मनोभाव भी जुड़े होते हैं, जैसे:

  • अनासक्ति – किसी चीज़ पर भावनात्मक रूप से निर्भर न होना। यह आसक्ति के भाव के विपरीत होता है।
  • दूसरों को नुकसान न पहुँचाने की भावना
  • अज्ञानी न होना – अपने व्यवहार से स्वयं अपने ऊपर और दूसरों के ऊपर पड़ने वाले व्यवहार के प्रति संवेदनशील होना।

इसके अलावा कुछ दूसरे सकारात्मक मानसिक कारक भी होते जो सकारात्मक या रचनात्मक व्यवहार के साथ जुड़े होते हैं:

  • सद्गुणों और उन्हें धारण करने वाले व्यक्तियों का सम्मान करना
  • अपने आप को नकारात्मक व्यवहार करने से रोकने के लिए आत्म-नियंत्रण
  • नैतिक आत्माभिमान का भाव, ताकि हम स्वयं अपना और अपनी भावनाओं का सम्मान कर सकें
  • इस बात की परवाह करना कि हमारे आचरण के कारण दूसरों की छवि पर कैसा प्रभाव पड़ेगा।

इनमें से कोई भी भाव समस्या उत्पन्न करने वाला नहीं होता है। वे हमारे सकारात्मक और रचनात्मक व्यवहार के साथ जुड़े होते हैं; हम इनसे मुक्त नहीं होना चाहते हैं। लेकिन हमारे बाध्यकारी सकारात्मक व्यवहार के साथ एक अशांतकारी मनोभाव भी जुड़ा होता है जो समस्याएं उत्पन्न करने वाला होता है। आसान शब्दों में कहा जाए तो यह मनोभाव एक मूर्तिमान “मैं” के साथ चिपके रहने का मनोभाव होता है। उदाहरण के लिए, अपने अस्तित्व के बारे में भ्रमित होने के कारण हम कल्पना कर लेते हैं कि हम एक मूर्त “मैं” के रूप में विद्यमान हैं जिसकी एक स्थायी वास्तविक पहचान है, जैसे हम मानते हैं कि हम एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसे हर समय अच्छा होना चाहिए, परिपूर्ण होना चाहिए। “मुझे अच्छा बनना है। मुझे सहयोगभावी बनना है। मुझे दूसरों के लिए उपयोगी बनना है।“

जिन माता-पिता के बच्चे बड़े हो चुके हों वे इसका एक आम उदाहरण हैं। माता-पिता अब भी चाहते हैं कि उनकी आवश्यकता महसूस की जाए और वे उपयोगी बने रहें, और इसलिए वे बच्चों को सलाह देते हैं और मदद करने की कोशिश करते हैं, फिर भले ही बच्चों को उसकी आवश्यकता न हो। उनका यह व्यवहार इसलिए बाध्यकारी होता है क्योंकि वे एक मूर्तिमान “मैं” के भाव से ग्रस्त होते हैं और सोचते हैं, “मैं केवल तभी तक उपयोगी हूँ और मेरा अस्तित्व सार्थक है जब मेरे बच्चों को मेरी आवश्यकता बनी रहे।“ वे इसी को इस मूर्तमान “मैं” की वास्तविक पहचान मानकर उसके साथ चिपके रहते हैं ताकि वह “मैं” अपने आप को सुरक्षित महसूस करता रहे। उन्हें ऐसा लगता है कि, “यदि मैं अपने बच्चों की सहायता करता हूँ, तो मेरा अस्तित्व सार्थक है।“

अपने बच्चों को सलाह और मदद देने की इच्छा के पीछे का मनोभाव सकारात्मक होता है। वे सलाह और मदद इसलिए देना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अपने बच्चों से प्रेम होता है। वे हितकारी और उपयोगी बने रहना चाहते हैं। इसमे कुछ भी गलत नहीं है। समस्या स्वयं अपने बारे में, उस “मैं” के बारे में उनके दृष्टिकोण के कारण उत्पन्न होती है:“मैं केवल तभी उपयोगी हूँ जब मेरे बच्चों को मेरी आवश्यकता बनी रहे।“ इस दृष्टिकोण के कारण ही वह विक्षिप्तता जैसा, बाध्यकारी स्वभाव उत्पन्न होता है जिसके कारण वे उस स्थिति में भी सहायता करना चाहते हैं जब उसकी बिल्कुल भी आवश्यकता न हो और वैसा करना उपयुक्त न हो।

यदि आप इस मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हो रहे हों तो आप उसे अनुभव कर सकते हैं क्योंकि “अशांतकारी मनोभाव” और “अशांतकारी दृष्टिकोण” इन दोनों में एक शब्द समान रूप से शामिल है जो उन्हें परिभाषित करता है –“अशांतकारी।“ यह दृष्टिकोण और मनोभाव, दोनों ही हमारे चित्त की शांति को भंग कर देते हैं और आत्मनियंत्रण को खत्म कर देते हैं। यदि आप कोई ऐसे माता या पिता हैं जो अपने बारे में यह सोचता है कि, “व्यक्ति के रूप में मेरा जीवन तभी तक सार्थक है जब मैं अपने बच्चों के लिए कुछ कर सकूँ,” तो उसमें ऐसा क्या है जिसके कारण आपको लगता है कि आपके चित्त में शांति का अभाव है? वह एक असुरक्षा का भाव है; आप स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं, और इसलिए आपको लगता है कि आपको हमेशा अपने बच्चों के मामलों में दखल देना चाहिए, जैसे आप उन्हें बताएं कि वे अपने बच्चों की परवरिश कैसे करें। प्रेम और फिक्रमंदी के सकारात्मक मनोभावों के बावजूद आपके चित्त में शांति नहीं होती है और ज़ाहिर है कि अपने ऊपर आपका नियंत्रण भी नहीं होता है। इस दृष्टि से हमें  आत्मानुशासन को विकसित करने की आवश्यकता होती है।

इस प्रकार हमें अपने सकारात्मक कर्म की अप्रतिरोध्यता पर विजय पाने के लिए नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है क्योंकि सकारात्मक कर्म की यह अप्रतिरोध्यता हमें केवल सामान्य सुख ही दे सकती है – यह सुख अल्पकालिक होता है और जल्दी ही एक अरुचिकर स्थिति में बदल जाता है। जब असुरक्षा के भाव के कारण और उपयोगी बनने रहने की इच्छा के कारण हम प्रेम और फिक्रमंदी के भाव से प्रेरित होकर अपनी अवांछित सलाह देना चाहते हैं, तो हमें यह बोध होता है कि भले ही ऐसा करने से हमें कुछ समय के लिए खुशी महसूस हो, लेकिन यह खुशी जल्दी ही उस समय दुख में बदल जाएगी जब हमारी बेटी इस बात पर अपनी अप्रसन्नता जाहिर कर देगी कि उसे हमारी कही हुई बात पसंद नहीं आई है। इसलिए हम आत्मानुशासन का पालन करते हुए अपने आप को कुछ भी कहने से रोक लेते हैं। लेकिन अपना मुँह बंद रखना भी तो बड़ा कठिन काम है!

नैतिक आत्मानुशासन का दूसरा स्तर लाम-रिम की मध्यवर्ती प्रेरणा के अनुकूल है

हालाँकि आत्मनियंत्रण – नैतिक आत्मानुशासन के पहले स्तर – का प्रयोग ऊपर बताए गए परिवर्तनशीलता के दुख से बचने में सहायक हो सकता है, लेकिन अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले पुनर्जन्म का सर्वव्यापक दुख फिर भी बना रहता है। इसे आसान तरीके से इस प्रकार बताया जा सकता है कि अवांछित सलाह देने का यह संलक्षण बार-बार अपने आप को दोहराता चला जाता है और उसके ऊपर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है। हम प्रेम की सदाशयतापूर्ण प्रेरणा से – लेकिन असुरक्षा के भाव के कारण – अपने आपको हस्तक्षेप करने से रोक नहीं पाते हैं।

सच्चे अर्थों में परिवर्तनशीलता के दुख और सर्वव्यापक दुख पर विजय पाने के लिए हमें नैतिक आत्मानुशासन के दूसरे स्तर को लागू करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए किसी मूर्तमान “मैं” के प्रति आसक्तिके भ्रमित और अशांतकारी दृष्टिकोण से स्वयं को मुक्त करने के लिए आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि हम अपने बच्चों की मदद करना बंद कर देना चाहते हैं या अपने बच्चों से प्रेम करना बंद कर देना चाहते हैं, बल्कि हम इस मानसिक असुरक्षा के भाव को रोकना चाहते हैं और किसी मूर्त “मैं” के प्रति आसक्ति के उस भाव को रोकना चाहते हैं जो हमें बार-बार बाध्यकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है।

अब हम कोई ऐसा उदाहरण देना चाहेंगे कि हमें क्या विकसित करने की आवश्यकता है, जैसे प्रेम या मैत्री का भाव। प्रेम की बौद्ध परिभाषा के अनुसार यह कामना करना है कि दूसरे सभी सुखी हों और वे जैसा भी व्यवहार क्यों न करें, उन्हें सुखी होने के कारणों की प्राप्ति हो। लेकिन यह भाव भ्रम, आसक्ति और असुरक्षा के भावों से युक्त हो सकता है। “कभी मुझे छोड़ कर मत जाना!”“तुमने मुझे कॉल क्यों नहीं किया?”“तुम्हें अब मुझसे प्रेम नहीं रहा।““मुझे तुम्हारी ज़रूरत है।““मैं, मैं, मैं।“हम अभी भी दूसरे व्यक्ति के सुखी होने की कामना करते हैं, लेकिन “कभी मुझे छोड़ कर मत जाना” और “तुम्हें हर दिन मुझे कॉल करना होगा!” समस्या प्रेम के कारण नहीं है। समस्या आसक्ति के कारण है और इस सबके पीछे के उस विशाल “मैं” के कारण है। इस मध्यवर्ती स्तर पर हम “मैं, मैं, मैं” के इस अपने आप को नुकसान पहुँचाने वाले अशांतकारी मनोभाव पर विजय पाने के लिए नैतिक आत्मानुशासन का पालन करते हैं।

नैतिक आत्मानुशासन के दूसरे स्तर का विवेचन

तीसरे स्तर के बारे में चर्चा शुरू करने से पहले क्यों न हम चंद मिनट पिछली बातों को आत्मसात कर लें? हमने जिन चीजों के बारे में चर्चा की है उन्हें अपने जीवन में पहचानने का प्रयास करें। एक बौद्ध कहावत है, “धर्म के दर्पण को दूसरे लोगों (जैसे अपने माता-पिता) की कमियों को दर्शाने के लिए बाहर की ओर मोड़ने के बजाए स्वयं अपनी ओर मोड़ें ताकि उसमें अपनी छवि देखी जा सके। इसलिए अपने जीवन में और अपने अनुभव से यह समझने का प्रयास करें कि ऐसा कैसे होता है कि यदि आप विक्षिप्ततापूर्ण आत्मतल्लीनता का व्यवहार कर रहे होते हैं, तो सकारात्मक कृत्यों को करते रहने पर भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। उस संलक्षण के पीछे के उस विशाल “मैं” को पहचानने का प्रयास करें जिसके कारण हम महसूस करते हैं कि, “मुझे परिपूर्ण होना चाहिए। मुझे अच्छा होना चाहिए। मुझे उपयोगी बनना है। लोगों को मेरी आवश्यकता महसूस करनी चाहिए और मुझे उपयोगी समझा जाना चाहिए।“ उन समस्याओं को समझना चाहिए जो इसके कारण उत्पन्न होती हैं।

यह समझने का प्रयास कीजिए कि हमें कुछ भी सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। हमें हमेशा मदद करने के लिए प्रस्तुत रह कर, भले ही उसकी आवश्यकता न हो, यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि हम अच्छे व्यक्ति हैं। हमें यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि हम बहुत साफ-सुथरे व्यक्ति हैं या कि हम परिपूर्ण हैं।क्या हम ऐसा सोचते हैं, “मैं साफ-सुथरा हूँ, इसीलिए मैं अस्तित्वमान हूँ”“मैं परिपूर्ण हूँ, इसीलिए मेरा अस्तित्व है,” जैसे कहा जाता है, “मैं विचारवान हूँ, इसीलिए मेरा अस्तित्व है?” ऐसा केवल इसलिए होता है कि हम “मैं, मैं, मैं” को लेकर असुरक्षित महसूस करते हैं जिसके कारण हमें ऐसा लगता है कि हम यह सिद्ध कर दें कि हम अच्छे हैं और दूसरों के लिए लाभकर हैं।

हमें कुछ भी साबित करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बारे में ज़रा विचार करके देखिए। हम इतने परिपूर्ण होने का प्रयास करके, इतने अच्छे बनकर, इतने साफ-सुथरे बनकर, इतने कार्यकुशल होकर क्या साबित करना चाहते हैं? पूरा रहस्य यही है:हमें किसी चीज़ से असुरक्षित महसूस करने की आवश्यकता नहीं है, और हमें कुछ भी साबित करने की आवश्यकता नहीं है। बस अपना काम करते रहिए। दूसरों की सहायता करते रहिए।

ज़ाहिर है कि केवल नैतिक आत्मानुशासन का प्रयोग करते हुए यह कह पाना आसान काम नहीं है कि, “असुरक्षित महसूस करना बंद कर दीजिए।“ इसके लिए यह बोध हासिल करने की आवश्यकता होती है कि यह असुरक्षा का भाव इस बात को लेकर भ्रम के कारण उत्पन्न होता है कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, और यह भ्रम किसी ऐसी चीज़ के कारण नहीं होता है जो यथार्थ पर आधारित हो। हम किस बात को लेकर अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं? किसी मिथक के कारण! मिथक यह है कि मैं कार्यकुशल हूँ या उपयोगी हूँ, यही मेरे अस्तित्व का प्रमाण है। यदि मैं कार्यकुशल न होऊँ, तो क्या मेरा अस्तित्व नहीं रहेगा? यह तो बहुत अजीब है, है न? मैं हर समय काम करते रहने का आदी होकर क्या साबित करना चाहता हूँ? यदि हम दूसरों की मदद करना चाहते हैं, तो यह तो अच्छी बात है। दूसरों की मदद कीजिए, लेकिन इसे बाध्यकारी आदत मत बनाइए। यही समस्या का कारण है, और इसी को हमें रोकने की आवश्यकता होती है। इसी को नैतिक आत्मानुशासन का दूसरा स्तर या मध्यवर्ती स्तर कहा जाता है। हम यह समझने के लिए आत्मानुशासन का प्रयोग करते हैं कि हमें कुछ भी साबित करने की आवश्यकता नहीं है, और फिर उस बोध की सहायता से हम असुरक्षा के उस भाव को दूर कर सकते हैं जो हमारे अप्रतिरोध्यकारी कार्मिक व्यवहार का कारण बनता है।

तीसरा स्तर: दूसरों के कर्म से अपरिचय पर विजय प्राप्त करना

लाम-रिम प्रेरणा के उन्नत स्तर पर पहुँच कर हम दूसरों के कर्म के बारे में अनभिज्ञता पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं। हम दूसरों की सहायता करने के इच्छुक होते हैं। यदि हम मुक्ति प्राप्त कर चुके हों तो हम अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले पुनर्जन्म से मुक्त हो चुके होते हैं और अप्रतिरोध्यकारी ढंग से व्यवहार करना बंद कर चुके होते हैं, विनाशकारी ढंग से व्यवहार नहीं करते हैं, और बाध्यकारी ढंग से ऐसे सकारात्मक कार्यों को करने की सनक से मुक्त हो जाते हैं जिन्हें करना उपयुक्त न हो। तब भी, समस्या यह होती है कि हालाँकि हम दूसरों की सहायता करने की प्रबल इच्छा रखते हैं, लेकिन हमें यह बोध नहीं होता है कि उनकी सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है। हमें उन कार्मिक कारणों का ज्ञान नहीं होता है जिनके कारण दूसरे लोग इस समय वैसे हैं जैसे हमें दिखाई देते हैं। और हमें यह बोध भी नहीं होता है कि हम उन्हें जो शिक्षा देंगे उसका क्या प्रभाव होगा – केवल उनके ऊपर ही नहीं, बल्कि उन सभी लोगों के ऊपर जिनके साथ वे लोग व्यवहार करेंगे। चूँकि हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं होती है कि हमारी सलाह या शिक्षा के क्या प्रभाव होंगे, इसलिए दूसरों की सहायता करने की दृष्टि से हमारी क्षमताएं बहुत सीमित होती हैं।

दूसरों की भलाई के लिए काम करना

इस स्थिति से निपटने में आत्मानुशासन हमारी सहायता किस प्रकार कर सकता है? सबसे पहले तो हमें यह अनुशासन विकसित करने की आवश्यकता होती है कि हम उदासीन और बेपरवाह न हों। “अब चूँकि मैं दुख से मुक्त हो चुका हूँ, इसलिए अब मैं यहाँ बैठकर बस ध्यानसाधना करता रह सकता हूँ और हर समय सुख और आनंद की अनुभूति कर सकता हूँ।“ हमें इससे आगे बढ़कर दूसरों की सहायता करने के उद्देश्य से काम करने के लिए नैतिक आत्मानुशान की आवश्यकता होती है। आपको इसका अनुभूति इस स्तर से पहले उस समय होती है जब आप ध्यानसाधना में पर्याप्त प्रगति कर चुके होते हैं। आप बैठे होते हैं, आपका चित्त भटकन और मंदता से मुक्त होता है, और यह बहुत आनंद की स्थिति होती है – अशांतकारी ढंग से नहीं, बल्कि आपको सचमुच बहुत अच्छा महसूस होता है। आप उस स्थिति में बने रहकर बहुत संतुष्ट होते हैं। यदि सचमुच बहुत प्रगति कर चुके हों तो आप बहुत लम्बे समय तक उस अवस्था में बने रह सकते हैं, और यदि आप मुक्ति प्राप्त कर चुके हों तो आप सदा-सदा के लिए उस अवस्था में बने रह सकते हैं।

कौन सी चीज़ आपको उस उदासीनता और संतुष्टि के भाव से बाहर निकाल कर लाती है? यदि आप सचमुच बार-बार अनियंत्रित ढंग से घटित होने वाले पुनर्जन्मों से मुक्त हो चुके हों तो आपका शरीर भी ऐसा सामान्य शरीर नहीं होता है, और इसलिए आपको कभी भी भूख या दूसरी व्याधियाँ परेशान नहीं करती हैं। आप दूसरों के बारे में सोचकर उद्वेलित होते हैं। “जब बाकी सभी लोग दुख भोग रहे हैं तो फिर मैं यहाँ बैठकर सुख और आनंद को कैसे भोग सकता हूँ?”केवल अपनी भलाई करने की इस चिंता पर विजय पाने और दूसरों के बारे में सोचने और उनके लिए काम करने के लिए हमें नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है।

यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि यह अवस्था तब आती है जब हम अपनी भलाई के लिए काम कर चुके होते हैं। यदि हम स्वयं दुखी और मानसिक विक्षिप्तता से पीड़ित रहते हुए दूसरों की सहायता करने का प्रयास करेंगे तो इससे समस्याएं उत्पन्न होंगी। उस स्थिति में जब दूसरे लोग हमारी सलाह नहीं मानेंगे और यदि हमारी दृष्टि में वे पर्याप्त तेज़ी के साथ अपना सुधार नहीं कर पाएंगे तो हमें उन पर गुस्सा आएगा, नाराज़गी होगी। या फिर हम हमें उनसे लगाव हो जाता है, और जब वे किसी दूसरे शिक्षक के पास चले जाते हैं तो हमें उनसे ईर्ष्या होती है। और शायद इससे भी बुरी स्थिति तब होती है जब हम उन लोगों के यौनाकर्षण में पड़ जाते हैं, और तब ऐसे किसी व्यक्ति की सहायता करने में बहुत बड़ी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। हमें पहले अपने आपको सुधारने की आवश्यकता होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरों की सहायता करने का प्रयास करने से पहले हमें स्वयं को पूरी तरह से मुक्त करना होगा – वैसा करने में तो बहुत लम्बा समय लगने वाला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दूसरों की सहायता करने के प्रयास में हमें अपने आपको बेहतर बनाने की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

अपने आपको बेहतर बनाने की प्रक्रिया के दौरान हमें अपने अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों और कर्म की अप्रतिरोध्यता पर विजय पाने पर अपने ध्यान को केंद्रित रखना चाहिए। इस अवस्था में भी हमें अपने आत्मकेंद्रित रहने की प्रवृत्ति पर विजय पाने के लिए आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है;लेकिन साथ ही हमें इस अवस्था में सर्वज्ञ होने में बाधा पहुँचाने वाली अपने चित्त की सीमाओं पर विजय पाने के लिए अनुशासन की भी आवश्यकता होती है। चूँकि हम सर्वदर्शी नहीं होते हैं, इसलिए हम सम्पूर्ण स्थिति को नहीं देख पाते हैं; हम यह नहीं देख पाते हैं कि सभी चीज़ें किस प्रकार आपस में जुड़ी हुई हैं। जो कुछ भी घटित होता है वह अनेकानेक कारणों और स्थितियों के कारण होता है और उन सभी कारणों और स्थितियों के अपने-अपने अलग कारण और स्थितियाँ होती हैं।

हमारी मौजूदा अवस्था में हमारे चित्त की क्षमताएं सीमित होती हैं; हम उन सभी चीज़ों को नहीं देख सकते हैं जिनके कारण लोगों के साथ अलग-अलग बातें घटित हो रही होती हैं। और उससे भी मुश्किल बात यह है कि हम समझते हैं कि कोई प्रभाव केवल किसी एक कारण से ही उत्पन्न होता है, खास तौर पर जब हमें लगता है कि हम उसके पीछे का कारण हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी व्यक्ति के साथ परस्पर व्यवहार कर रहे हों और वह उदास हो जाता है, तो हम कल्पना कर लेते हैं कि हमारे कुछ कहने या करने के कारण ऐसा हुआ है। यह यथार्थ नहीं है। लोगों के साथ जो कुछ भी घटित होता है वह केवल हमारे द्वारा किए गए किसी व्यवहार के कारण ही नहीं होता है, बल्कि बहुत सारे कारणों की वजह से होता है। हमने जो किया उसका अपना योगदान हो सकता है – हम इस बात से इंकार नहीं कर रहे हैं – लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ केवल एक ही कारण से घटित हुआ हो। या, हो सकता है कि हम किसी की सहायता करने का प्रयत्न कर रहे हों और हम उससे कहते हैं, “तुम्हारी समस्या का कारण यह है कि तुम्हें अच्छी शिक्षा हासिल नहीं हुई।“जो कुछ घटित हुआ है हम उसे केवल एक कारण तक समेट कर रख देते हैं। या हम कह देते हैं, “तुम्हारी सारी समस्याएं केवल इस कारण से हैं कि तुम्हारे बचपन के समय तुम्हारे माता-पिता ने ऐसा किया था या वैसा किया था।“ हम पूरी बात को नहीं समझ पाते हैं। बात दरअसल इससे कहीं बहुत अधिक बड़ी होती है।

हमारी सोच यथार्थ पर आधारित नहीं होती है

अभी हमारे पास जितना बोध है, हमें उससे कहीं बहुत अधिक बोध की आवश्यकता है। समस्या यह है कि हमारा चित्त बक्सों की तरह श्रेणियों की कल्पना कर लेता है, और हम सब चीज़ों को इन बक्सों में वर्गीकृत कर देते हैं। हम चीज़ों को इस तरह अलग-अलग कर देते हैं जैसे वे अलग-अलग बक्सों में बंद हों और बाकी सभी बातों से स्वतंत्र अस्तित्व रखती हों, और इसे ही हम यथार्थ समझ लेते हैं। हम यह नहीं देख पाते हैं कि चीज़ें परस्पर जुड़ी हुई होती हैं और एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं। “यही एकमात्र कारण है। यह अच्छा है, और यह बुरा है।“ इस तरह हम श्रेणियाँ निर्धारित कर लेते हैं।

लेकिन चीजें तो इस प्रकार अस्तित्वमान नहीं होती हैं। वे बाकी सभी चीज़ों से पृथक होकर अस्तित्व नहीं रखती हैं। हमें यह बोध हासिल करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है कि भले ही ऐसा प्रतीत होता हो, लेकिन यह यथार्थ नहीं है। एक सामान्य सा उदाहरण देखें: आप दिन भर बच्चों के साथ घर पर रहते हैं। आपका साथी काम से वापस लौटता है और आपसे बात नहीं करता। बस सीधे बैडरूम में चला जाता है, दरवाज़ा बंद करता है और लेट जाता है। हम अपने मन में अपने साथी को “वे लोग जो मुझसे प्रेम नहीं करते” के बक्से में डाल देते हैं। बल्कि, हम उसे “बहुत बुरे व्यक्ति” और “निष्ठुर व्यक्ति” के बक्सों में भी डाल देते हैं। हमारा उस बड़े से “मैं” के प्रति हर समय तल्लीन रहने का भाव ही इसका कारण होता है। वे “बहुत बुरे व्यक्ति” हैं क्योंकि “मैं” मैं, मैं, मैं उनसे बात करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ! मुझे उनसे कुछ अपेक्षा है। क्योंकि हम उसे एक बक्से में डाल चुके होते हैं, इसलिए हम उस सभी बातों के परस्पर सम्बंध को नहीं देख पाते हैं जिनका उसने घर लौटने से पहले अनुभव किया होगा और फिर घर में घुसने के बाद उसने कैसा व्यवहार किया। हो सकता है कि कामकाज के सिलसिले में उसका दिन मुश्किल भरा रहा हो, और घर लौटते समय उसके साथ कुछ न कुछ घटित हुआ हो, आदि।

ऐसा कितनी बार होता है कि हमें चीज़ें ऐसी दिखाई देती हों? कोई घर लौटता है और ऐसा लगता है जैसे वह कहीं से आया ही न हो – और पहुँचने से पहले उसके साथ कुछ घटित ही न हो रहा हो और सब कुछ उस क्षण से ही शुरू होता है जब वह व्यक्ति घर में प्रवेश करता है। इस घटनाक्रम को दूसरी तरह से देखिए। यदि वह दूसरा व्यक्ति घर पर रह कर बच्चों की देखभाल कर रहा होता और आप स्वयं काम से वापस लौटते, तो आपको यह सब कैसा दिखाई देता? वहाँ आपका साथी होता, बिल्कुल तरोताज़ा, जैसे आपके घऱ लौटने से पहले उसके साथ दिन भर में कुछ घटित ही न हुआ हो।

यदि आप इसके बारे में सोच कर देखें तो बेशक ऐसा नहीं है! हम यहाँ बात कर रहे हैं कि हमारा चित्त किस तरह चीज़ों को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। वह चीजों को इस तरह दिखाता है जैसे हमारे साथी के साथ हमारा व्यवहार यहीं से शुरू होता है, उस क्षण से जब वह दरवाज़े से प्रवेश करता है, और उससे पहले कुछ भी नहीं हुआ। सब कुछ उन बक्सों में दिखाई देता है जिनमें हम चीज़ों को श्रेणीबद्ध करते हैं। लोगों, चीज़ों और स्थितियों को बक्सों में वर्गीकृत करने की इस दीर्घस्थायी आदत पर विजय पाने के लिए हमें अनुशासन की आवश्यकता होती है। हमें यह समझना होगा कि दुनिया को वर्गों में बांट कर देखने का यह दृष्टिकोण यथार्थ पर आधारित नहीं है।

हम एक और सामान्य उदाहरण देखेंगे ताकि आप इस बात को अच्छी तरह से समझ लें। हम लोगों को “अपने साथी” के बक्से में वर्गीकृत कर लेते हैं और इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते हैं कि हमारे अलावा कई दूसरे लोगों के साथ भी उसके सम्बंध हैं, मित्रता है। चूँकि हम उसे इस मानसिक बक्से में वर्गीकृत करके रख लेते हैं, इसलिए हमें लगता है, “वह केवल मेरा है। उसे मेरी आवश्यकता के अनुसार हर समय उपलब्ध रहना चाहिए क्योंकि वह तो केवल “मेरा साथी” है। उसके जीवन में और कुछ भी घटित नहीं हो रहा है।“ हम यह नहीं सोच पाते हैं कि उसके अपने माता-पिता के प्रति भी दायित्व हैं, उसके दूसरे मित्र भी हैं, या उसे दूसरे काम भी करने होते हैं। नहीं, उसका अस्तित्व तो केवल इस बक्से तक ही सीमित है। बुरी बात यह है कि हमें ऐसा लगता है कि यही सच है, और हम मान लेते हैं कि यही यथार्थ है। ज़ाहिर है कि ऐसी स्थिति में हमें उससे आसक्ति होती है और यदि उस व्यक्ति को किसी और से मिलने के लिए जाना हो तो हम क्रोधित हो जाते हैं।

नैतिक आत्मानुशासन का तीसरा स्तर लाम-रिम की उन्नत प्रेरणा के अनुकूल है

लाम-रिम की प्रेरणा के उन्नत स्तर पर पहुँच कर हम दूसरों की अधिक से अधिक सहायता करने की दृष्टि से किसी पूर्ण ज्ञानोदयप्राप्त बुद्ध की सर्वदर्शी अवस्था को प्राप्त करने के लिए अभ्यास करते हैं। दूसरों की अधिक से अधिक सहायता कर पाने के लिए यह आवश्यक होता है कि हम प्रत्येक व्यक्ति के कर्म को पूरी तरह से समझ सकें। हमें उसके पिछले सभी प्रकार के बाध्यकारी ढंग से किए गए व्यवहार को समझना होगा, और उसकी वर्तमान स्थिति का कारण बनने वाले दूसरे सभी कारणों और स्थितियों को भी समझना होगा, और साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि हम उसे जो भी शिक्षा देंगे उसके क्या परिणाम होंगे। कारण और प्रभाव के पूरे अन्तर्सम्बंध हो समझने के लिए, विशेषतः कर्म सम्बंधी हेतुक सम्बंधों को समझने के लिए हमें चीज़ों को एक दूसरे से अलग करके उन्हें श्रेणियों के मानसिक बक्सों में वर्गीकृत करने की आदत को बंद करना होगा और यह कल्पना करना बंद करना होगा कि यही उन चीजों के अस्तित्व का यथार्थ है।

इसलिए, हमें न केवल आत्मकेंद्रित बने रहने से रोकने के लिए नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है, बल्कि उसके स्थान पर दूसरों के लिए फिक्रमंदी का भाव विकसित करने के लिए भी यह आवश्यक है। हमें यह बोध हासिल करने के लिए भी नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है कि हमारा चित्त जिस तरह चीजों को अलग-अलग बक्सों में दर्शाता है, वह यथार्थ नहीं है। हमें स्थिति को व्यापक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।

नैतिक आत्मानुशासन के तीसरे स्तर का विवेचन

लाम-रिम के क्रमिक मार्ग की संरचना के अनुसार कर्म की दृष्टि से नैतिक आत्मानुशासन के तीन स्तर होते हैं:

  • अप्रतिरोध्यकारी विनाशकारी व्यवहार से विरत रहने का अनुशासन
  • नकारात्मक या सकारात्मक, दोनों ही प्रकार के बाध्यकारी व्यवहार का कारण बनने वाले अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों पर विजय पाने के लिए अनुशासन
  • हमारा चित्त चीजों को जैसे भ्रामक रूपों में प्रस्तुत करता है उस पर विजय पाने – ऐसी तुच्छ सोच से विरत रहने जिसके कारण हम चीजों को मानसिक बक्सों में विभाजित करते हैं - उसे रोकने के लिए अनुशासन और अपनी स्थिति के कारम दूसरों के प्रति बेपरवाह न होने का अनुशासन ताकि हम दूसरों के कर्म को समझ सकें और उस पर विजय पाने में उनकी सहायता कर सकें।

विवेकी ध्यानसाधना का प्रयोग करते हुए हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि हमारा चित्त किस प्रकार चीजों को दूसरी चीज़ों से असम्बद्ध रहते हुए अलग-अलग बक्सों में दर्शाता है। यहाँ इस कमरे में मौजूद लोगों के बारे में सोच कर देखिए, या यदि आप इसे अपने घर पर पढ़ रहे हों तो आपके साथ किसी बस या सबवे में सवार दूसरे लोगों के बारे में सोचिए। आप उन्हें देखते हैं और लगता है कि वे जैसे हवा में से उत्पन्न हो गए हों। बस वे वहाँ प्रकट हो गए और हम यह नहीं सोचते हैं कि आज सुबह उनके अपने-अपने घरों में क्या-क्या घटित हो रहा था, या उनके बच्चे हैं या नहीं, या उन्हें यहाँ तक पहुँचने में कठिनाई हुई या नहीं – इनमें से किसी भी बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। इसी वजह से हम यह नहीं जान पाते हैं कि उनकी मनोदशा कैसी है, और हमें यह बोध नहीं होता है कि यदि हम उनसे कुछ भी कहेंगे तो उसका क्या प्रभाव होगा। हो सकता है कि वे बहुत थके हुए हों, या गुस्से में हों, या सुबह उनके साथ घटित हुई किसी बात को लेकर परेशान हों, या हो सकता है कि उन्होंने पर्याप्त नींद न ली हो। हमें कैसे मालूम हो? जब हमें लगता है कि लोग अचानक कहीं से भी प्रकट हो गए हैं और उनकी कोई पृष्ठभूमि नहीं है, तो फिर हम यह कैसे जान पाएंगे कि उनकी अधिक से अधिक सहायता किस प्रकार की जा सकती है?

हमें चीजों के इस प्रकार प्रकट होने पर विश्वास नहीं करना है और अन्ततः अपने चित्त को चीज़ों को इस तरह प्रकट करने से रोकना है। तब, उस स्थिति में, भले ही हमें यह जानकारी न हो कि उस व्यक्ति के साथ सुबह क्या घटित हुआ था, फिर भी कम से कम हम यह तो समझ ही सकेंगे कि जब हमने उस व्यक्ति को देखा, उससे पहले भी उसके साथ कुछ घटित हो चुका था। यदि सचमुच हमारी रुचि हो, तो हम उस व्यक्ति से पूछ लेंगे, और रुचि से मेरा आशय यह नहीं है कि हम उसमें ऐसे रुचि दिखाएं जैसे हम कोई वैज्ञानिक सर्वेक्षण कर रहे हों। यहाँ हम सचमुच परवाह करने, प्रेम और करुणा के भाव के साथ फिक्रमंदी दिखाने के भाव की बात कर रहे हैं:“मैं कामना करता हूँ कि आप सुखी हों और आप दुखी न हों।“

इसलिए, यह समझने का प्रयास कीजिए कि हमारा चित्त किस प्रकार चीज़ों को भ्रामक ढंग से प्रस्तुत करता है। यह समझने की कोशिश कीजिए कि हमारे चित्त की क्षमताएं उस स्थिति में कितनी सीमित हो जाती हैं जब हम यह विश्वास कर लेते हैं कि यह यथार्थ है, और यह समझने का प्रयास कीजिए कि इसके कारण किस तरह समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

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