नैतिक आत्मानुशासन का पहला स्तर

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बौद्ध शिक्षाओं में कर्म का विशेष महत्व है और नैतिक आत्मानुशासन के साथ इसका गहरा सम्बंध है। हम नैतिक आत्मानुशासन की सहायता से कर्म से मुक्ति पा सकते हैं। “चार आर्य सत्यों,” जोकि बुद्ध की शिक्षाओं का मूल हैं, की दृष्टि से भी यह बात पूरी तरह से प्रासंगिक है:

  • हम सभी अपने जीवन में दुख और बहुत सारी समस्याओं का सामना करते हैं।
  • हमारे दुख के कारण होते हैं।
  • एक ऐसी स्थिति सम्भव है जहाँ हमारे समस्त दुख और उनके कारण हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो सकते हैं।
  • इस स्थिति को यथार्थ, आचारनीति आदि का सही बोध हासिल करने के एक मार्ग के माध्यम से हासिल किया जा सकता है।

यह एक व्यवस्था है जो भारतीय दर्शन और धर्म में सामान्यतया प्रस्तुत की जाती है। लेकिन, बुद्ध ने कहा कि उनके पूर्ववर्तियों ने इन विषयों को उतनी गहराई से नहीं समझाया था, इसलिए उन्हें जो बोध हुआ उसे उन्होंने दुख सत्य, दुख का कारण सत्य, दुख के कारणों का निरोध सत्य और उस निरोध को सम्भव बनाने वाले मार्ग को मार्ग सत्य कहा। हालाँकि हो सकता है कि दूसरे लोग इस बात से सहमत न हों, लेकिन आर्य जन, निर्वैचारिक तौर पर यथार्थ के बोध की उच्च सिद्धि हासिल करने वाले सत्व इसे सत्य मानते हैं।

यहाँ बुद्ध द्वारा प्रयुक्त “आर्य” अभिव्यक्ति बहुत दिलचस्प है। इसका प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जिन्होंने बुद्ध से लगभग 5000 वर्ष पहले भारत पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया था, और वे वेदों को अपने साथ लेकर आए थे। लेकिन बुद्ध ने जिन्हें आर्य कहा है वे लोग इन आक्रमणकारी विजेताओं से भिन्न हैं। ये वे लोग हैं जो न केवल दुख सत्य और उसके कारणों का बोध हासिल कर चुके हैं, बल्कि उनके ऊपर विजय भी पा चुके हैं। वे विजेता हैं। बौद्ध निरुक्त में इसी अर्थ में इस अभिव्यक्ति का प्रयोग किया गया है।

“कर्म” का अर्थ

वीडियो: डा. अलेक्ज़ेंडर बर्ज़िन – कर्म क्या है?
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कर्म दुख सत्य का एक यथार्थ कारण है, लेकिन कर्म दरअसल है क्या? संस्कृत भाषा के इस शब्द की उत्पत्ति “कृ” धातु से हुई है जिसका मतलब “करना” होता है। जब इसमें -म प्रत्यय जुड़ जाता है तो इसका अर्थ “करने वाला” या “कृत्यों के लिए प्रेरित करने वाला” हो जाता है। इसी प्रकार “धर्म” शब्द की उत्पत्ति धृ से हुई है जिसका अर्थ “रक्षा करना” होता है। इसमें -म जुड़ने से इसका अर्थ “रक्षा करने वाला” जैसे “दुख से रक्षा करने वाला” हो जाता है। इस प्रकार कर्म वह है जो कृत्य करने के लिए प्रेरित करता है और दुख का कारण बनता है, और धर्म वह है जो दुख से हमारी रक्षा करता है।

इस प्रकार कर्म से आशय केवल हमारे कृत्यों से ही नहीं होता है। लेकिन, चूँकि कर्म का तिब्बती भाषा में अनुवाद एक ऐसे शब्द के रूप में किया गया जिसका अर्थ बोलचाल की भाषा में “कृत्य” होता है, इसलिए अधिकांश तिब्बती शिक्षक, यदि वे अंग्रेज़ी भाषा में बोल रहे हों, तो वे कर्म को “कृत्य” के रूप में ही बताएंगे। यह स्थिति बहुत भ्रामक है, क्योंकि यदि हमारे द्वारा किए जाने वाले कृत्य ही दुख का यथार्थ कारण होते, तो फिर हमें केवल इतना भर ही करने की आवश्यकता रह जाती कि हम कुछ भी करना बंद कर देते और हम मुक्त हो जाते! इस बात का कोई अर्थ नहीं है।

कर्म का अर्थ दरअसल बाध्यता है, वह बाध्यता जो हमें भ्रम के प्रभाव में कृत्य करने, वचन कहने, और विचार करने के लिए प्रेरित करती है: यह भ्रम इस बात को लेकर होता है कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, दूसरे लोग किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, और यथार्थ क्या है। क्योंकि हमें इस बात को लेकर भ्रम होता है कि हम कौन हैं और दुनिया में क्या चल रहा है, इसलिए हम बाध्यतावश आचरण करते हैं। ये कृत्य बाध्यकारी ढंग से नकारात्मक हो सकते हैं, जैसे दूसरों पर चीखना-चिल्लाना और उनके साथ क्रूरता का व्यवहार करना, या बाध्यकारी ढंग से सकारात्मक हो सकते हैं, जैसे पूर्णतावादी या आदर्शवादी होना।

पूर्णतावादी या आदर्शवादी होने के उदाहरण को ही ले लें। आपको परिपूर्ण होने आदि की सनक सवार हो सकती है जैसे, “मुझे अच्छा बनना है” या “सब कुछ साफ-सुथरा और व्यवस्थित होना चाहिए।“ हालाँकि अच्छा बनना और चीज़ों को साफ सुथरा और व्यवस्थित रखना सकारात्मक होता है, लेकिन इस प्रकार बाध्यकारी ढंग से विचार करने से बहुत दुख उत्पन्न होता है। इसलिए कर्म के बारे में चर्चा करते समय हम यह नहीं कह रहे हैं कि हम सकारात्मक ढंग से आचरण करना बंद कर दें। हम यहाँ अपने कृत्यों के पीछे की विक्षिप्तताकारी अप्रतिरोध्यता से मुक्ति प्राप्त करने के बारे में बात कर रहे हैं, क्योंकि दुख का कारण यही है। हमारा यह आदर्शवाद अपने अस्तित्व को लेकर हमारे भ्रम के कारण होता है। हम अपने आप को एक मूर्तिमान “मैं, मैं, मैं” समझते हैं और यह मानते हैं कि इस “मैं” को परिपूर्ण और उत्कृष्ट होना चाहिए। क्यों? ताकि हमारी माता या हमारे पिता “मैं” की पीठ थपथपाएंगे और “मुझे” अच्छा लड़का या लड़की बताएंगे? मेरे एक शिक्षक कहा करते थे, “तब फिर हम क्या करें? किसी कुत्ते की तरह अपनी दुम हिलाएं?”

लाम-रिम क्रमिक मार्ग के संदर्भ में कर्म की भूमिका

जब हम अपने आपको कर्म, जोकि दुख का एक सत्य कारण है, से मुक्त करने के लिए प्रयत्नरत होते हैं, तो हम ज्ञानोदयप्राप्ति के क्रमिक स्तरों वाले मार्ग की लाम-रिम प्रस्तुति के अनुसार क्रमबद्ध ढंग से साधना करते हैं। लेकिन यह “क्रमिक मार्ग” कोई ऐसा भौतिक मार्ग नहीं है जिस पर आप चल सकते हों। बल्कि इसका आशय चित्त की उन अवस्थाओं, बोध के उन स्तरों, और उस आन्तरिक विकास से होता है जो किसी मार्ग की भांति उत्तरोत्तर हमें क्रमबद्ध ढंग से अपने लक्ष्यों की ओर ले जाता है। इस मार्ग के प्रत्येक चरण में हम अपनी प्रेरणा, अपने लक्ष्य, और अपने उद्देश्य के दायरे को बढ़ाते चले जाते हैं और हर चरण के साथ नैतिक आत्मानुशासन की सहायता से कर्म पर विजय प्राप्त करते चले जाते हैं।

बहुत संक्षेप में कहा जाए तो प्रेरणा के तीन स्तर होते हैं। लाम-रिम की शास्त्रीय प्रस्तुति में यह मान कर चला जाता है कि पुनर्जन्म होता है, और इसलिए प्रेरणा का प्रत्येक स्तर इस मान्यता के इर्द-गिर्द घूमता है। यदि हम पुनर्जन्म को न भी मानते हों और केवल इस जीवनकाल को सुधारने की इच्छा रखते हों, तब भी हम इस क्रमिक व्यवस्था के अनुसार कर्म पर विजय पाने के लिए प्रयास कर सकते हैं। लेकिन, पहले हम यह देखेंगे कि जिसे मैं “यथार्थ धर्म” संस्करण कहता हूँ, उसमें कर्म का क्या स्थान है।

  • प्रारम्भिक स्तर की प्रेरणा में हम निम्नतर गतियों के पुनर्जन्मों पर विजय पाने के लिए प्रयास करते हैं ताकि हमें बेहतर गतियों में भविष्य के जन्म मिलते रहें। विशेष तौर पर, हम केवल बेहतर गतियों में पुनर्जन्म ही प्राप्त नहीं करना चाहते हैं, बल्कि बहुमूल्य मानव जीवन के रूप में पुनर्जन्म चाहते हैं ताकि हमें अपने आप को विकसित करने और उच्चतर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सबसे अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती रहें। चूँकि हमारा बाध्यकारी विनाशकारी आचरण निम्नतर पुनर्जन्मों का कारण बनता है, इसलिए हम इस प्रारम्भिक स्तर पर अपने आप को कर्म की इस अप्रतिरोध्यता से मुक्त करने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं।
  • मध्यवर्ती स्तर पर हम पुनर्जन्म पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करना चाहते हैं। आपने “संसार” शब्द के बारे में तो सुना होगा जिसका सम्बंध अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म से होता है, जहाँ हम किसी भी गति में पुनर्जन्म ले लेने के बावजूद दुख और समस्याओं से घिरे रहते हैं। विनाशकारी और सकारात्मक, दोनों ही प्रकार से कर्म की अप्रतिरोध्यता ही संसार चक्र में हमारे पुनर्जन्मों को प्रेरित करने वाली प्रमुख शक्तियों में से एक है। इसलिए इस मध्यवर्ती स्तर पर हम इस संसार चक्र से मुक्ति को लक्ष्य बनाकर साधना करते हैं।
  • उन्नत स्तर पर पहुँच कर हम उस स्थिति में आने का प्रयास करते हैं जहाँ हम संसार से मुक्त होने की दृष्टि से प्रत्येक जीव की अधिक से अधिक सहायता कर सकें। इसका मतलब यह है कि हम बुद्धत्व को प्राप्त करने, एक सर्वदर्शी सत्व बनने का प्रयास करते हैं ताकि हम सभी के कर्म को समझ कर यह जान सकें उनकी अधिक से अधिक सहायता किस प्रकार की जा सकती है। इस प्रकार कर्म लाम-रिम के तीनों स्तरों से जुड़ा हुआ है।

प्रेरणा का प्रारम्भिक स्तर: निम्नतर पुनर्जन्मों पर विजय पाने के लिए साधना

बुद्ध ने दुख सत्य या जीवन की वास्तविक समस्याओं के बारे में चर्चा की। प्रारम्भिक स्तर पर हम अपनी सबसे आधारभूत समस्याओं और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं जोकि हमारे भौतिक और मानसिक कष्टों के रूप में होती हैं – यानी दुख, पीड़ा, हमारे साथ घटित होने वाली भयंकर घटनाओं आदि के रूप में होती हैं।

निम्नतर पुनर्जन्म तो सचमुच भयंकर घटनाओं से भरे हुए होंगे ही। यह कल्पना करना कोई सुखद बात नहीं है कि आपका पुनर्जन्म समुद्र में तैरती हुई किसी मछली के रूप में हो, और फिर अचानक कोई बड़ी मछली आकर हमें टुकड़े-टुकड़े करके खा जाए, या फिर हमारा जन्म किसी कीड़े के रूप में हो और फिर कोई बड़ा कीड़ा या कोई पक्षी हमें मार कर खा जाए। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे हम अनुभव करना चाहें। उन पशुओं के भ्रमयुक्त भय की कल्पना करके देखिए जो हमेशा यह सुनिश्चित करने के लिए अपने आस-पास देखते ही रहते हैं कि कहीं कोई बड़ा जानवर आकर उन्हें अपना निवाला न बना ले। उन मुर्गों की स्थिति की कल्पना कीजिए जिन्हें परम पावन दलाई लामा के शब्दों में “कैदी मुर्गों” की तरह रहना पड़ता है। उन्हें दड़बों में इस तरह ठूँस कर भर दिया जाता है कि वे हिल-डुल तक नहीं सकते हैं और उनकी देखरेख इसलिए की जाती है ताकि अन्ततः उन्हें मारकर किसी मैकडॉनल्ड रैस्तरां में खा लिया जाएगा, और उनके आधे शरीर को कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा!

बौद्ध धर्म में इससे भी अधिक भयानक स्थितियों का उल्लेख किया जाता है, लेकिन अभी हमें उस सबके बारे में चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इस सब से बचना चाहते हैं, सचमुच, और हम सुख प्राप्त करना चाहते हैं। हर कोई सुखी होना चाहता है; कोई भी दुख नहीं चाहता है। यह बौद्ध धर्म का एक बुनियादी सिद्धांत है। यहाँ हम केवल अपने सामान्य सुख की बात कर रहे हैं जिसके बारे में दूसरे स्तर पर चर्चा करते समय बात करेंगे।

नैतिक आचरण की बौद्ध अवधारणा

दुख और निम्नतर पुनर्जन्मों के इस प्रकट दुख का वास्तविक कारण क्या है? नकारात्मक कर्म ही इसका मुख्य कारण है। यह विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने की ऐसी बाध्यता है जो अशांतकारी मनोभावों के कारण उत्पन्न होती है। इसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम विनाशकारी या नकारात्मक आचरण की बात करते हैं तो हम किसी ऐसी नैतिक व्यवस्था की बात नहीं कर रहे होते हैं जो किसी दैवी नियम-व्यवस्था या किसी सरकार द्वारा बनाए गए नागरिक कानून पर आधारित हो। नैतिक आचरण की उन व्यवस्थाओं में नीतिसम्मत व्यक्ति होने के लिए आपको किसी अच्छे नागरिक के रूप में या किसी अच्छे धार्मिक आस्थावान व्यक्ति के रूप में, या फिर दोनों ही प्रकार से, कानून या नियमों का पालन करना होता है। इसके अलावा, कानून के साथ ही व्यक्ति के दोषी या निर्दोष होने सम्बंधी निर्णय भी जुड़े होते हैं। यह तो नैतिक आचरण की बौद्ध अवधारणा बिल्कुल नहीं है।

बल्कि, बौद्ध धर्म नैतिक आचरण की एक ऐसी व्यवस्था के बारे में सिखाता है जो इस सही बोध और विवेक पर आधारित होती है कि क्या लाभप्रद है और क्या नुकसानदेह है। जब हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं तो ऐसा इसलिए नहीं होता है कि हम आज्ञाकारी नहीं हैं, बुरे हैं; बल्कि, हम यथार्थ के बोध की दृष्टि से भ्रमित होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप अपना हाथ किसी गर्म तवे पर रख दें, तो ऐसा आपने इसलिए नहीं किया है क्योंकि आप किसी ऐसे कानून की अवज्ञा नहीं कर रहे होते हैं जिसमें कहा गया हो, “अपना हाथ किसी गर्म तवे पर मत रखो।“ आपने अपना हाथ गर्म तवे पर इसलिए रख दिया क्योंकि आपको यह बोध नहीं था कि तवा गर्म है। आप भ्रम में थे; आपको मालूम नहीं था कि यदि आप उस तवे पर हाथ रखेंगे तो आप जल जाएंगे। आप उसके हेतुक सम्बंध से अनभिज्ञ थे।

इसका एक और उदाहरण यह हो सकता है कि मान लीजिए मैंने निष्कपट भाव से आप से कोई ऐसी बात कह दी और उससे आपकी भावनाएं आहत हो गईं। ऐसा नहीं है कि ऐसा कहने के कारण मैं एक बुरा व्यक्ति था। मैं सचमुच नहीं जानता था कि इससे आपकी भावनाएं आहत हो जाएंगी। मैं नहीं जानता था कि मेरे शब्दों का क्या प्रभाव होगा; मैं भ्रम में था।

अशांतकारी मनोभाव और विनाशकारी आचरण

जब हम कोई विनाशकारी कार्य करते हैं तो वह किसी न किसी अशांतकारी मनोभाव के कारण होता है।

अशांतकारी मनोभाव क्या है? यह एक ऐसा मनोभाव है जिसके उत्पन्न होने पर हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और हम आत्मनियंत्रण नहीं रख पाते हैं।

यह परिभाषा बहुत उपयोगी है। सामान्यतया हमें यह आभास हो जाता है कि कब हम अशांत होते हैं, कब हमारा चित्त शांत नहीं होता है, और कब हम बाध्यतावश आचरण कर रहे होते हैं। इससे हमें पता चलता है कि हमें जो अनुभूति हो रही है वह किसी अशांतकारी मनोभाव के कारण है।

प्रमुख अशांतकारी मनोभाव कौन-कौन से हैं? सबसे पहले तो राग, मोह और लोभ जैसे मनोभावों का एक समूह आता है। इन तीनों के प्रभाव में हम किसी चीज़ के सकारात्मक गुणों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं, और उसके किसी भी नकारात्मक पहलू को पूरी तरह अनदेखा कर देते हैं या मानने से इंकार कर देते हैं। अशांतकारी मनोभावों के रूप में ये हमें किसी भी चीज़ का लाभ उठा पाने से रोकते हैं:

  • राग – जो हमारे पास नहीं है उसे प्राप्त करने की उत्कंठा
  • मोह – जो हमारे पास है उसे पकड़े रहने की भावना
  • लोभ – जितना हमारे पास है उससे संतुष्ट न होना और अधिक पाने की कामना रखना

फिर इसके बाद क्रोध भी एक अशांतकारी मनोभाव है जिसके कई भेद होते हैं: रोष, बैर, द्वेष, घृणा, दुर्भाव, वैमनस्य प्रतिशोध लेने का भाव आदि। ये सभी भाव किसी व्यक्ति या वस्तु के नकारात्मक पक्षों को अतिरंजित कर देते हैं और उसके गुणों को पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं। इसके कारण हमारे भीतर हमें पसंद न आने वाली चीज़ या व्यक्ति के प्रति वितृष्णा की ऐसी भावना विकसित होती है कि हम उससे छुटकारा पा लें या उसे नष्ट ही कर दें।

नासमझी का एक और अशांतकारी मनोभाव होता है, उदाहरण के तौर पर हमें अपने व्यवहार से स्वयं अपने ऊपर और दूसरों पर पड़ने वाले प्रभाव की समझ नहीं होती है। जैसे, हम सदैव परिश्रम करते रहने के आदी होते हैं और अपने आपको हमेशा कड़े परिश्रम में खपाए रहते हैं। हमें यह समझ नहीं होती है कि ऐसा करना स्वयं हमारे स्वास्थ्य के लिए और हमारे परिवार के लिए नुकसानदेह होने वाला है, इसलिए यह आत्मविनाशकारी है। या, हम हमेशा लेट-लतीफी करते हैं और कभी भी दूसरों से मिलने के लिए नियत समय पर नहीं पहुँचते हैं। ऐसा समझना नासमझी है कि यह व्यवहार दूसरों की भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाएगा, इसलिए यह आचरण भी विनाशकारी है।

ये कुछ सामान्य प्रकार के अशांतकारी मनोभाव हैं जिनके कारण हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और आत्म-नियंत्रण खत्म हो जाता है। इनके कारण विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने की बाध्यता उत्पन्न होती है। इनके अलावा कुछ और भी अशांतकारी मनोभाव हैं जो हमें नकारात्मक ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं:

  • सद्गुणों और उन्हें धारण करने वाले लोगों के प्रति असम्मान का भाव रखना
  • अपने आपको नकारात्मक ढंग से व्यवहार करने से रोकने के लिए आत्म-नियंत्रण न होना
  • नैतिक आत्म-गौरव या आत्म-सम्मान का अभाव – आत्म-सम्मान बहुत महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, हमारे भीतर इतना आत्म-सम्मान होता है कि हम किसी के पीछे-पीछे गिड़गिड़ाते हुए नहीं जाएंगे, “कभी मुझे छोड़ कर मत जाना!” हमारे भीतर एक आत्म-गौरव का भाव होता है। जब हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं तब हमारे भीतर इस भाव का अभाव हो जाता है।
  • इस बात की बिल्कुल परवाह न करना कि हमारे आचरण से दूसरों की छवि पर क्या प्रभाव पड़ेगा – उदाहरण के लिए, आप एक जर्मन नागरिक के रूप में कहीं छुट्टियाँ मनाने के लिए जाते हैं और वहाँ किसी उपद्रवी जैसा व्यवहार करते हैं, हमेशा शराब के नशे में रहते हैं, ऊँची आवाज़ में बात करते हैं और होटल में अपने कमरे में सामान को बेतरतीबी से बिखराते हैं, तो इससे जर्मन सैलानियों की बदनामी होगी। इस प्रकार का विनाशकारी रवैया अपनाते हुए आप इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि आपके ऐसे व्यवहार का आपके साथी देशवासियों की छवि पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

ये उन मनोभावों और दृष्टिकोणों के समूह हैं जो बाध्यतावश विनाशकारी व्यवहार का कारण बनते हैं और दुख तथा हमारे साथ घटित होने वाली दुखद बातों का कारण बनते हैं। ऐसा केवल इस जन्म में ही नहीं होता है, बल्कि लाम-रिम के आरम्भिक स्तर पर हमें इस बात का बोध होता है कि ये मनोभाव आने वाले निम्नतर पुनर्जन्मों में भी और अधिक समस्याओं और दुख का कारण बनने वाले हैं, और हम हर हाल में उस स्थिति से बचना चाहते हैं।

नैतिक आत्मानुशासन का पहला स्तर लाम-रिम की प्रारम्भिक प्रेरणा के अनुकूल है

निम्नतर पुनर्जन्मों के अलावा इस जीवनकाल में बदतर स्थितियों से बचने की दृष्टि से हमें नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है ताकि हम नकारात्मक कृत्यों से बचे रह सकें। हम व्यवहारगत कारण और प्रभाव के बारे में अपने भ्रम को दूर करके ही इस नैतिक आत्मानुशासन को विकसित कर सकते हैं। हम यह बोध हासिल करते हैं कि यदि हम अपने अशांतकारी मनोभावों के हाथों नियंत्रित होते रहें तो फिर हम बाध्य होकर विनाशकारी ढंग से ऐसे कृत्यों को करना शुरू कर देते हैं जो स्वयं हमारे लिए और दूसरों के लिए भी दुख और समस्याओं का कारण बनते हैं।

यहाँ समझने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि हम नैतिक आत्मानुशासन के पहले स्तर के बारे में बात कर रहे हैं, जहाँ केवल आत्मनियंत्रण का अभ्यास किया जाता है। लेकिन आत्म-नियंत्रण केवल अच्छा और आज्ञाकारी नागरिक बनने या किसी धर्म का अच्छा अनुयायी बनने या अच्छा लड़का या लड़की बनने की इच्छा रखने पर ही निर्भर नहीं होता है। बल्कि हम आत्म-नियंत्रण इसलिए रखते हैं क्योंकि हम जान जाते हैं कि यदि हम बाध्यकारी ढंग से व्यवहार करेंगे, अपने ऊपर बिल्कुल भी नियंत्रण नहीं रखेंगे तो इससे बहुत सारी समस्याएं और दुख उत्पन्न होंगे। बौद्ध धर्म को समझने के लिए इस बात पर जोर देना बहुत आवश्यक होता है। यदि हमारी नैतिकता आज्ञाकारिता पर निर्भर हो, तो हम अपने अनुभव से जानते हैं कि बहुत सारे लोग कानून और नियमों के खिलाफ विद्रोह करते हैं, खास तौर पर किशोर ऐसा करते हैं। अपराधी भी सोचते हैं कि किसी तरह वे कानून की गिरफ्त में आने से बच जाएंगे, यानी वे पकड़े नहीं जाएंगे। लेकिन यहाँ नैतिकता केवल बोध पर ही आधारित होती है, इसलिए विद्रोह दरअसल कोई समस्या नहीं है।

हाँ, विनाशकारी व्यवहार और दुख और कठिनाइयों के बीच के सम्बंध को समझ पाना इतना आसान नहीं होता है। आपको इस बात पर यकीन नहीं होगा, और आप कहेंगे, “यह नैतिकता वाली बात बहुत हास्यास्पद है!” लेकिन, एक स्तर पर जब आपको जीवन का थोड़ा अनुभव हो जाता है तो आप जान पाते हैं कि यदि आप हमेशा नकारात्मक व्यवहार करते हैं तो आप कोई बहुत सुखी व्यक्ति नहीं बन पाते हैं। दूसरे लोग आपको पसंद नहीं करते हैं और वे आपसे डर कर रहते हैं। वे आपसे मिलने से डरते हैं कि कहीं आप उनसे किसी बात पर नाराज़ न हो जाएं। इसलिए हम अपने अनुभव से यह बोध हासिल कर सकते हैं कि एक बहुत ही बुनियादी और सतही स्तर पर केवल इस जीवनकाल के बारे में सोचने, नकारात्मक और विनाशकारी व्यवहार करने के कारण दुख भोगना पड़ता है।

यह बात बहुत दिलचस्प है क्योंकि हो सकता है कि हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हों और ऐसा व्यवहार करके बहुत अपने मन में खुश होते हों। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि जब आप सोने की कोशिश कर रहे हों तब कोई मच्छर आपके चेहरे पर आकर भिनभिनाने लगे। आप झपट्टा मारकर उसे खत्म कर देते हैं और सोचते हैं, “वाह, मैंने उसका काम तमाम कर दिया!” और आप अपनी इस सफलता पर बहुत खुश होते हैं। लेकिन यदि आप और गहराई से विचार करें तो आप पाएंगे कि आप अभी भी चिंतित और अशांत हैं। क्योंकि जब कोई चीज़ आपको परेशान करती है तो उससे निपटने के लिए आप आदतन उसे खत्म कर देते हैं, और फिर आप अगले मच्छर के आने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। आप समस्या का शांतिपूर्ण समाधान खोजने के बारे में नहीं सोच रहे होते हैं। यदि आप किसी ऐसी जगह पर हों जहाँ बहुत अधिक मच्छर हों, तो शांतिपूर्ण समाधान यह होगा कि मच्छरदानी का प्रयोग किया जाए, या खिड़कियों पर जालियाँ लगा दी जाएं।

विनाशकारी व्यवहार के साथ जुड़े अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों की यह परिभाषा इस संदर्भ में बहुत उपयोगी है। यह “अशांतकारी” के अर्थ को दर्शाती है – हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और अपने ऊपर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है। यह चित्त की कोई बहुत अच्छी दशा नहीं है, है न? “मैं इस बात को लेकर बेचैन हूँ कि एक और मच्छर आकर मेरी नींद खराब कर देगा!” आपके चित्त में शांति नहीं होती है और इतने आत्मनियंत्रित नहीं रह पाते हैं कि शांत होकर सो जाएं, क्योंकि आप डरे हुए होते हैं। आज जैसा व्यवहार कर रहे होते हैं वह किसी विक्षिप्त व्यक्ति के बाध्यकारी व्यवहार जैसा होता है, मानो आप झटके के साथ बिस्तर से उठेंगे और एक पिथ हैलमेट पहन लेंगे जैसे ब्रिटिश लोग अफ्रीका को जंगलों में शिकार यात्रा पर जाते समय पहना करते थे। आप भी एक तरह की शिकार यात्रा पर होते हैं और कमरे में तलाश कर रहे होते हैं कि वहाँ शिकार करने के लिए और मच्छर हैं या नहीं!

यही नैतिक आत्मानुशासन का पहला स्तर है जहाँ हम नैतिक आत्मानुशासन का पालन करके निम्नतर पुनर्जन्मों से बचने के लिए प्रयास करते हैं ताकि जब हमारे भीतर नकारात्मक व्यवहार करने की इच्छा उत्पन्न हो तो हम वैसा न करें।

ध्यानसाधना का समापन

अब हम अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर एक प्रकार की “विश्लेषणात्मक ध्यानसाधना” के रूप में कुछ क्षणों तक उन बातों को आत्मसात करेंगे जो हमने अभी सीखी हैं। मैं इसे “विवेकी ध्यानसाधना” कहना पसंद करता हूँ। “विवेक करने” से आशय यह है कि हम शिक्षोओं में बताई गई किसी बात को अपने जीवन के संदर्भ में देखने का प्रयास करें। इस अभ्यास में हम अपने जीवन की पड़ताल करके ऐसे अवसरों को पहचानने का प्रयास करते हैं जब हमने विनाशकारी ढंग से व्यवहार किया हो, और जो बहुत बाध्यकारी रहा हो। हम पाते हैं कि हमारे उस व्यवहार के पीछे मोह और क्रोध के भाव थे। और उसका नतीजा क्या हुआ? मेरी दशा सचमुच बहुत दयनीय हो गई थी। हम अपने निजी अनुभव के आधार पर इस बात की पुष्टि करते हैं, और इस प्रकार हमारा विश्वास और भी बढ़ जाता है कि यह बात बिल्कुल सही है। उस धारणा या दृढ़ विश्वास के आधार पर कि, “यह जीवन की सच्चाई है”, हम अपने व्यवहार को बदलना शुरू कर देते हैं।

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