नैतिक आत्मानुशासन का पहला स्तर

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बौद्ध शिक्षाओं में कर्म का विशेष महत्व है और नैतिक आत्मानुशासन के साथ इसका गहरा सम्बंध है। हम नैतिक आत्मानुशासन की सहायता से कर्म से मुक्ति पा सकते हैं। “चार आर्य सत्यों,” जोकि बुद्ध की शिक्षाओं का मूल हैं, की दृष्टि से भी यह बात पूरी तरह से प्रासंगिक है:

  • हम सभी अपने जीवन में दुख और बहुत सारी समस्याओं का सामना करते हैं।
  • हमारे दुख के कारण होते हैं।
  • एक ऐसी स्थिति सम्भव है जहाँ हमारे समस्त दुख और उनके कारण हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो सकते हैं।
  • इस स्थिति को यथार्थ, आचारनीति आदि का सही बोध हासिल करने के एक मार्ग के माध्यम से हासिल किया जा सकता है।

यह एक व्यवस्था है जो भारतीय दर्शन और धर्म में सामान्यतया प्रस्तुत की जाती है। लेकिन, बुद्ध ने कहा कि उनके पूर्ववर्तियों ने इन विषयों को उतनी गहराई से नहीं समझाया था, इसलिए उन्हें जो बोध हुआ उसे उन्होंने दुख सत्य, दुख का कारण सत्य, दुख के कारणों का निरोध सत्य और उस निरोध को सम्भव बनाने वाले मार्ग को मार्ग सत्य कहा। हालाँकि हो सकता है कि दूसरे लोग इस बात से सहमत न हों, लेकिन आर्य जन, निर्वैचारिक तौर पर यथार्थ के बोध की उच्च सिद्धि हासिल करने वाले सत्व इसे सत्य मानते हैं।

यहाँ बुद्ध द्वारा प्रयुक्त “आर्य” अभिव्यक्ति बहुत दिलचस्प है। इसका प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जिन्होंने बुद्ध से लगभग 5000 वर्ष पहले भारत पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया था, और वे वेदों को अपने साथ लेकर आए थे। लेकिन बुद्ध ने जिन्हें आर्य कहा है वे लोग इन आक्रमणकारी विजेताओं से भिन्न हैं। ये वे लोग हैं जो न केवल दुख सत्य और उसके कारणों का बोध हासिल कर चुके हैं, बल्कि उनके ऊपर विजय भी पा चुके हैं। वे विजेता हैं। बौद्ध निरुक्त में इसी अर्थ में इस अभिव्यक्ति का प्रयोग किया गया है।

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