दस विनाशकारी कृत्यों से कैसे बचें

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हम सभी चाहते हैं कि हमारा स्वास्थ्य बेहतर हो, और हममें से अधिकांश लोग कामना करते हैं कि दूसरों के साथ हमारे सम्बंध अधिक स्वस्थ और सुखकारी हों। लेकिन यह सब केवल हवा में बात करने से तो नहीं हो जाएगा : इसके लिए एक आचारनीति की आवश्यकता होती है। इसका मतलब यह है कि हम अहितकर व्यवहार से दूर रहते हुए सकारात्मक और हितकारी व्यवहार करते हैं। हम विनाशकारी व्यवहार उस समय करते हैं जब हम क्रोध और लोभ जैसे अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में आ जाते हैं, जिसके कारण हमारे मन की शांति भंग हो जाती है और आत्मनियंत्रण समाप्त हो जाता है। बाध्यतावश हम अपनी बुरी आदतों पर अमल करते चले जाते हैं जिससे दूसरों को तो कष्ट पहुँचता ही है, अन्ततः स्वयं हमें भी पीड़ा उठानी पड़ती है : हमारा अपना व्यवहार ही लम्बे समय तक हमारे दुख का कारण बन जाता है। वहीं दूसरी ओर यदि हम आत्मनियंत्रण से काम लें और प्रेम और करुणा का व्यवहार करें तो हम दूसरों के लिए और खुद अपने लिए भरोसेमंद साथी साबित हो सकेंगे, और ज़ाहिर है कि हमारा जीवन भी और अधिक सुखी होगा।

विनाशकारी व्यवहार की परिभाषा

आचार नीति की हर पद्धति में विनाशकारी व्यवहार के वर्गों की अपनी एक अलग सूची होती है जो इस बात पर आधारित होती है कि उस पद्धति में कौन से प्रकार का व्यवहार स्वीकार्य है और कौन सा स्वीकार्य नहीं है। धार्मिक और नागर पद्धतियाँ किसी दैवी सत्ता, किसी राष्ट्राध्यक्ष, या किसी विधानमंडल द्वारा निर्धारित व्यवस्था विधान पर आधारित होती हैं। जब हम उस विधान का उल्लंघन करते हैं तो हम दोषी होते हैं और दंड के भागी होते हैं; जब हम उसका पालन करते हैं तो हमें या तो स्वर्ग में, या फिर इसी जन्म में सुरक्षित और सद्भावपूर्ण समाज के रूप में पुरस्कृत किया जाता है। मानवतावादी पद्धतियाँ दूसरों को नुकसान न पहुँचाए जाने पर बल देती हैं, लेकिन इसमें भी एक समस्या है:क्या हम हमेशा यह निर्णय कर सकते हैं कि किसी दूसरे के लिए कौन सी बात सचमुच हानिकारक या फायदेमंद है? उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति पर चीखने से उसकी भावनाओं को चोट पहुँच सकती है, या फिर ऐसा करके उसे किसी खतरे से बचने के लिए चेताया जा सकता है।

बौद्ध आचार नीति में आत्मनाशकारी व्यवहार से बचने पर ज़ोर दिया जाता है, विशेष तौर पर ऐसे व्यवहार से बचने पर बल दिया जाता है जिससे हमें लम्बी अवधि में नुकसान पहुँचने की आशंका हो। यदि हम सड़क पर हमसे आगे निकलने का प्रयास कर रहे किसी वाहन चालक पर चिल्लाते हैं, तो हो सकता है कि थोड़ी देर के लिए हमें ऐसा करना अच्छा लगे, लेकिन इससे हमारा चित्त भी विचलित हो जाता है और हमारी ऊर्जा नष्ट होती है जिसके परिणामस्वरूप हमारे चित्त की शांति भंग होती है। जब हमें दूसरों पर चिल्लाने की आदत हो जाती है, तो हम क्रोधित हुए बिना किसी प्रकार की असुविधा को सहन नहीं कर पाते हैं; इससे न केवल दूसरों के साथ हमारे सम्बंध खराब होते हैं, बल्कि हमारा स्वास्थ्य भी खराब होता है।

वहीं दूसरी ओर जब हमारा व्यवहार दूसरों के प्रति वास्तविक फिक्रमंदी, प्रेम, करुणा और समझबूझ से प्रेरित होता है तो हम दूसरों पर चीखने-चिल्लाने की स्वतः इच्छा होने के बावजूद स्वभावतः अपने आप को ऐसा करने से रोक लेते हैं – हम शालीनतापूर्वक उस वाहन चालक को आगे निकल जाने देते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि उस वाहन चालक को खुशी मिलती है, और स्वयं हमें भी फायदा होता है : एक मूलतः सुखी चित्त दशा के साथ हमारी शांति और स्थिरता कायम रहती है। हम ऐसा नहीं करते कि हम दूसरों पर चीखने-चिल्लाने की अपनी इच्छा का दमन करें जिसके कारण हमें कुंठा हो। बल्कि हम इस स्थिति को ऐसे देखते हैं कि सड़क पर चलने वाला प्रत्येक व्यक्ति जल्दी से जल्दी अपने गंतव्य तक पहुँचना चाहता है, और इस प्रकार हम समझ जाते हैं कि सड़क पर अपनी यात्रा को एक स्पर्धा बनाने का प्रयास करना व्यर्थ और निरर्थक है।

बौद्ध धर्म विनाशकारी व्यवहार को अशांतकारी मनोभावों और हानिकारक आदतों के प्रभाव में बाध्यतावश किए गए व्यवहार के रूप में परिभाषित करता है। हम ठीक ढंग से भेद नहीं कर पाते हैं कि कौन सी बात नुकसानदेह है और कौन सी फायदेमंद है, ऐसा या तो इसलिए होता है क्योंकि हमें मालूम ही नहीं होता कि क्या सबसे उपयुक्त है, क्योंकि हमारा अपने ऊपर नियंत्रण ही नहीं होता। लोभ और क्रोध सबसे प्रमुख अशांतकारी भाव हैं, इसके अलावा इन अशांतकारी मनोभावों की प्रेरणा से व्यवहार करने, वचन कहने और विचार करते हुए हमारे व्यवहार के परिणाम के प्रति अनभिज्ञता भी एक प्रमुख कारण है। इससे भी बढ़कर, अक्सर हमारे भीतर आत्म-प्रतिष्ठा का अभाव होने के कारण हम परवाह ही नहीं करते कि हम कैसा व्यवहार करते हैं। हम चाह जो हो जाए का रवैया अपनाते हैं, जहाँ सिवाय ऐसी सतही बातों के कि हमने कैसे कपड़े पहने हैं, हमारे बाल कैसे हैं और कौन-कौन लोग हमारे दोस्त हैं। हमें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि हमारे व्यवहार से हमारी पूरी पीढ़ी, लिंग, जाति, राष्ट्रीयता या हमारे समूह के बारे में कैसी छवि बनेगी। हमारे अन्दर आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान का भाव नहीं रहता।

दस विनाशकारी कृत्यों की पारम्परिक सूची

मन, वचन और कर्म के ऐसे बहुत से कृत्य हैं जो विनाशकारी होते हैं। बौद्ध धर्म में ऐसे ही दस सर्वाधिक विनाशकारी कृत्यों का वर्णन किया गया है। ये कृत्य इसलिए विनाशकारी होते हैं क्योंकि ये लगभग हमेशा निर्लज्जता, शर्मिंदगी न महसूस करने और परवाह न करने जैसे अशांतकारी मनोभावों से उत्पन्न होते हैं। ये कृत्य गहरी जड़ें जमा चुकी आदतों से उत्पन्न होते हैं और हमारी नकारात्मक प्रवृत्तियों को प्रबल बनाते हैं। दीर्घावधि में हमारा विनाशकारी व्यवहार हमारे जीवन को दुख से भर देता है जहाँ हम स्वयं अपने लिए समस्याएं पैदा करते चले जाते हैं।

 शारीरिक कर्म से तीन प्रकार के व्यवहार विनाशकारी होते हैं:

  • दूसरों की जान लेना – किसी दूसरे व्यक्ति से लेकर तुच्छ से तुच्छ जीव तक। नतीजा यह होता है कि हम किसी भी ऐसी चीज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं जो हमें अप्रिय लगती है; हमें पसंद न आने वाली किसी भी चीज़ के प्रति हमारी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह होती है कि हम उस पर प्रहार करके उसे नष्ट कर देते हैं; हम बार-बार दूसरों से झगड़ा करते हैं।
  • जो चीज़ हमें न दी गई हो उसे हड़प लेना – चोरी करना, उधार ली गई वस्तु को वापस न लौटाना, बिना अनुमति के दूसरों की वस्तुओं का उपयोग करना आदि। नतीजा यह होता है कि हम हमेशा अपने आप को बेचारा और पीड़ित महसूस करते हैं। कोई भी हमें कुछ भी उधार नहीं देता; दूसरों के साथ हमारे सम्बंध मुख्यतः परस्पर शोषण पर आधारित होते हैं।
  • अनुचित यौन व्यवहार करना – बलात्कार, व्यभिचार, कौटुम्बिक व्यभिचार आदि। इसका नतीजा यह होता है कि हमारे यौन सम्बंध अधिकांशतः टिकाऊ नहीं होते और हम तथा बार-बार बदलने वाले हमारे जीवन साथी एक दूसरे को सिर्फ एक वस्तु के रूप में देखते हैं; हम ऐसी चीज़ों के प्रति आकर्षित होते हैं जो मूलतः भ्रष्ट और अपवित्र होती हैं।

वचन की दृष्टि से चार प्रकार के व्यवहार विनाशकारी होते हैं:

  • मिथ्याभाषण करना – जानबूझकर असत्य वचन कहना, दूसरों को गुमराह करना आदि। परिणामतः कोई भी हमारी कही हुई बातों पर न तो विश्वास करता है और न भरोसा करता है और हम स्वयं भी दूसरों की कही हुई बातों पर विश्वास नहीं करते हैं; हम वास्तविकता और अपनी मनगढ़ंत बातों के बीच भेद नहीं कर पाते हैं।
  • फूट डालने वाली बातें कहना – दूसरों को एक-दूसरे से अलग करने या उनके बीच की शत्रुता या वैमनस्य को बढ़ाने की दृष्टि से दूसरों के बारे में बुरे वचन कहना। परिणामतः हमारी मित्रता ज़्यादा समय तक नहीं टिकती है क्योंकि हमारे मित्रों को यह संदेह बना रहता है कि हम उनकी पीठ के पीछे दूसरों से भी उनकी बुराई करते होंगे; हमारा कोई घनिष्ठ मित्र नहीं होता और इसलिए हम अपने आपको अलग-थलग और अकेला महसूस करते हैं।
  • कटु वचन बोलना – दूसरों की भावनाओं को आहत करने वाले वचन कहना। परिणामतः लोग हमें नापसंद करते हैं और हमारे साथ रहने से बचते हैं; जब वे हमारे साथ भी होते हैं तब भी वे सहज नहीं होते हैं और पलट कर हमसे कटु वचन बोलते हैं; हम अलग-थलग और अकेले होते चले जाते हैं।
  • निरर्थक बकबक करना – निरर्थक बकबक करके अपना और दूसरों का समय खराब बरबाद करना; अपनी बेमतलब बातों से दूसरों के सार्थक कार्यों में व्यवधान डालना। इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी हमारी बात को गम्भीरता से नहीं लेता; हम हर कुछ मिनटों के बाद अपने हाथ में थामे हुए मोबाइल फोन आदि जैसे उपकरणों को देखे बिना किसी काम पर अपने ध्यान को केंद्रित नहीं रख पाते; हम कोई सार्थक काम नहीं कर पाते।

विचार के स्तर पर तीन प्रकार के व्यवहार विनाशकारी होते हैं:

  • लोलुपतापूर्ण विचार करना – ईर्ष्यावश हर समय यह सोचते रहना और योजना बनाते रहना कि किसी और के पास किसी वस्तु या गुण को कैसे हासिल किया जाए, या इससे भी बढ़कर, स्वयं को किस प्रकार उस व्यक्ति से श्रेष्ठ साबित किया जाए। परिणामतः न हमें कभी मन की शांति मिलती है और न ही खुशी का अनुभव होता है क्योंकि हम हर समय दूसरों की उपलब्धियों के बारे में नकारात्मक विचारों से संतप्त रहते हैं।
  • दुर्भावनापूर्ण विचार करना – किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुँचाने या उसके द्वारा कही गई किसी बात या उसके किसी कृत्य का बदला लेने के बारे में सोचते रहना या योजना बनाते रहना। नतीजा यह होता है कि हम कभी भी अपने आप को सुरक्षित अनुभव नहीं करते और न ही चैन से रह पाते हैं; हम हर समय सशंक और भ्रमित रहते हैं, इस भय से आक्रांत रहते हैं कि दूसरे भी हमारे खिलाफ षड़यंत्र कर रहे हैं।
  • शत्रुता के भाव के कारण विकृत विचार करना – हम न केवल जो सत्य और उचित है, उसके विरुद्ध विचार करते हैं, बल्कि मन ही मन में अपने आप से असहमत लोगों के साथ तर्क-वितर्क भी करते रहते हैं और उग्रतापूर्वक उन्हें नीचा दिखाते हैं। नतीजा यह होता है कि हमारे विचार और भी संकुचित होते चले जाते हैं और अपने हित में दिए गए सुझावों और सलाह को सुनने-मानने से इंकार करने लगते हैं; हमारे हृदय में दूसरों के लिए कोई स्थान नहीं रहता, हम हमेशा केवल अपने बारे में सोचते हैं और यह मानते हैं कि हमारी बात ही हमेशा सही होती है; हम अज्ञानी और मूढ़ बने रहते हैं।

हमारी धार्मिक पृष्ठभूमि या मान्यता जो भी हो, एक सुखी जीवन जीने के लिए इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए इन दस बातों से दूर रहना उपयोगी है।

विनाशकारी व्यवहार की दस व्यापक श्रेणियाँ

ये दस प्रकार के कृत्य व्यवहार की उन दस व्यापक श्रेणियों को दर्शाते हैं जिनसे हमें बचना चाहिए। हमें अपने व्यवहार और उसके परिणामों के बारे में जहाँ तक सम्भव हो, व्यापक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं जिनके बारे में हम विचार कर सकते हैं, लेकिन मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति इन उदाहरणों की सूची में और उदाहरण जोड़ सकता है।

  • दूसरों की जान लेना – लोगों के साथ मारपीट या अशिष्टता का व्यवहार करना, शारीरिक श्रम कर रहे किसी ऐसे व्यक्ति को अनदेखा कर देना जिसे सहायता की आवश्यकता हो, किसी बीमार या बुज़ुर्ग व्यक्ति के साथ तेज़ गति से चलना, और पर्यावरण को प्रदूषित करने और धूम्रपान न करने वाले व्यक्तियों, विशेषतः बच्चों के निकट धूम्रपान करने सहित किसी अन्य प्रकार की शारीरिक क्षति पहुँचाना।
  • जो चीज़ हमें न दी गई हो उसे हड़प लेना – गैर कानूनी ढंग से इंटरनेट से सामग्री डाउनलोड करना, साहित्य चोरी करना, बेईमानी, कर की चोरी करना, दूसरों की निजता में दखल देना, अपने साथी या मित्र से अनुमति लिए बिना उसकी थाली में रखे भोजन को चख लेना।
  • अनुचित यौन व्यवहार करना – किसी का यौन उत्पीड़न करना, यौन सम्बंधों में अपने साथी की आवश्यकताओं की अनदेखी करना, और बहुत कम या बहुत अधिक प्रेम प्रदर्शित करना।
  • मिथ्या भाषण करना – किसी दूसरे व्यक्ति के साथ अपने सम्बंध में उसे अपनी सच्ची भावनाओं या इरादों के बारे में धोखे में रखना।
  • फूट डालने वाली बातें कहना – किसी ऐसी सकारात्मक या नैतिक दृष्टि से निष्पक्ष बात की आलोचना करना जिसे कोई दूसरा व्यक्ति कर रहा हो या करने का इरादा रखता हो और उसे वैसा करने से हतोत्साहित करना।
  • कटु वचन बोलना – लोगों पर चीखना-चिल्लाना, उग्र स्वर में बात करना, किसी भावनात्मक रूप से कमज़ोर व्यक्ति से असहमति और आलोचना के स्वर में बात करना, और उचित स्थान और समय का लिहाज़ किए बिना अभद्र और निंदापूर्ण वचन कहना।
  • निरर्थक बकबक करना – दूसरों का विश्वास तोड़ना और उनके बारे में निजी गोपनीय बातें दूसरों पर प्रकट करना, तुच्छ और निरर्थक बातों के बारे में विशेषतया देर रात्रि के समय दूसरों को टैक्स्ट अथवा मैसेज भेजना, अपने दैनिक जीवन के महत्वहीन विषयों के बारे में फोटो और टिप्पणियाँ सोशल मीडिया पर पोस्ट करना, दूसरों की बात खत्म होने से पहले उनकी बात को बीच में काटना, और गम्भीर चर्चा के दौरान नासमझी भरी टिप्पणियाँ करना या मूढ़तापूर्ण बातें कहना।
  • लोलुपतापूर्ण विचार करना – यह इच्छा रखना कि हम जिस व्यक्ति के साथ किसी रेस्तराँ में भोजन कर रहे हैं वह स्वयं अपने लिए मंगाई गई भोजन वस्तुओं को हमें चखने देगा, और सोशल मीडिया पर दूसरे लोगों के आमोद-प्रमोद सम्बंधी फोटो को देखते और पोस्ट को पढ़ते हुए अपने भाग्य को कोसना और ईर्ष्यावश यह सोचना कि काश हम भी उतने ही लोकप्रिय और खुश हो पाते।
  • दुर्भावनापूर्ण विचार करना – जब कोई दूसरा व्यक्ति हमसे कोई कड़वी या कठोर बात कहता है और हम हमें उसकी बात का कोई जवाब सुझाई नहीं देता, तब बाद में अपने मन में यह सोचते रहना कि हम प्रत्युत्तर में उस व्यक्ति से ऐसी कौन सी बात कह सकते थे जो उस व्यक्ति को भी उतनी ही पीड़ा पहुँचा सकती थी।
  • शत्रुता के भाव के कारण विकृत विचार करना – किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति नकारात्मक और द्वेषपूर्ण भाव रखना जो हमें किसी काम को करने में हमारी मदद करने का प्रस्ताव करता हो या मदद करना चाहता हो जिसे हमारी राय में हम स्वयं कर सकते हैं, और यह सोचना कि वह व्यक्ति कितनी मूर्ख है कि अपने आप को किसी ऐसे कार्य को करने में बेहतर बनाना चाहता है जो नुकसानदेह नहीं है, लेकिन ऐसा है जिसमें हमारी या तो रुचि नहीं है या जिसे हम महत्वहीन समझते हैं।

स्वयं अपने प्रति विनाशकारी व्यवहार

स्वयं अपने प्रति हमारा व्यवहार उतना ही विनाशकारी हो सकता है जितना कि वह दूसरों के प्रति होता है। सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए यह आवश्यक है कि हम इन नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानें और उनमें सुधार करने के लिए प्रयास करें। पुनः, ये दस प्रकार के विनाशकारी व्यवहार दर्शाते हैं कि हमें किस प्रकार के व्यवहार को बंद कर देना चाहिए।

  • दूसरों की जान लेना – अतिशय परिश्रम करके, कम भोजन करके, व्यायाम न करके, या पर्याप्त नींद न लेकर अपने साथ बुरा व्यवहार करना।
  • जो चीज़ हमें न दी गई हो उसे हड़प लेना – तुच्छ चीज़ों पर पैसा बरबाद करना, जब ऐसा करने की आवश्यकता न हो, तब अपने ऊपर खर्च करते समय कंजूसी करना या सस्ती चीज़ें खरीदना।
  • अनुचित यौन व्यवहार करना – इस प्रकार का यौन आचरण करना जो हमारे स्वास्थ्य को खतरे में डाल सकता हो, या अश्लील साहित्य आदि से अपने मस्तिष्क को प्रदूषित करना।
  • मिथ्या भाषण करना – अपनी भावनाओं या प्रेरणा की दृष्टि से अपने आप को धोखे में रखना।
  • फूट डालने वाली बातें कहना – हर समय इस प्रकार की अप्रिय बातें करना, जैसे शिकायतें करते रहना, जिससे लोगों को हमारे साथ रहना अरुचिकर लगने लगे, वे हमारी सोहबत से बचने लगें।
  • कटु वचन बोलना – स्वयं अपने लिए अपशब्दों का प्रयोग करना।
  • निरर्थक बकबक करना – अपने निजी मामलों, संदेहों या चिंताओं के बारे में अनर्गल बातें करना, या सोशल मीडिया को देखते, निरर्थक वीडियो गेम्स खेलते, या इंटरनेट को सर्फ करते कई-कई घंटों तक समय नष्ट करना।
  • लोलुपतापूर्ण विचार करना – आदर्शवादी होने के कारण यही सोचते रहना कि हम अपने प्रदर्शन को बेहतर किस तरह बनाएं।
  • दुर्भावनापूर्ण विचार करना – अपराध बोध के कारण अपने बारे में यह सोचना कि हम बहुत बुरे हैं और इसलिए हमें सुखी होने का अधिकार नहीं है।
  • शत्रुता के भाव के कारण विकृत विचार करना – यह सोचना कि अपने भीतर सुधार करने या दूसरों की सहायता करने का प्रयास करना हमारी मूढ़ता है।

अपनी विनाशकारी प्रवृत्तियों को कैसे नियंत्रित करें

जब हम विगत में अपने विनाशकारी आचरण पर ध्यान देना शुरू करते हैं तब यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम स्वयं अपने बारे में नकारात्मक धारणा बनाने से बचें। अपराधबोध के कारण अशक्त हो जाने के बजाए हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हमने जो आचरण किया वह अज्ञान के कारण था और अपने व्यवहार के परिणामों की समझ न होने के कारण हुआ : कि हम वैसा व्यवहार करने के लिए अपने अशांतकारी मनोभावों के हाथों बाध्य हो गए थे, ऐसा नहीं था कि हम अपने भीतर से ही बुरे व्यक्ति थे। हमें अपने किए पर अफसोस होता है और हम सोचते हैं कि वैसा नहीं होना चाहिए था, लेकिन इस बात को भी समझते हैं कि जो हो चुका है उसे बदला नहीं जा सकता। जो बीत गई, सो बात गई – लेकिन अब हम यह संकल्प कर सकते हैं कि हमारा भरसक प्रयास होगा कि हम उस तरह के आचरण को न दोहराएं। फिर हम एक बार फिर उस सकारात्मक दिशा की पुष्टि करते हैं जिसकी ओर हम अपने जीवन को ले जाने का प्रयास कर रहे होते हैं, और जितना अधिक सम्भव हो सके प्रेम और करुणा के सकारात्मक कृत्यों में अपने आप को व्यस्त रखने का प्रयत्न करते हैं। इससे और अधिक सकारात्मक आदतें विकसित होती हैं जो नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रभाव को प्रतिसंतुलित करती हैं और फिर उस प्रभाव की बाध्यकारी शक्ति को खत्म कर देती हैं।

तब हम मिलने वाले लोगों और हमारे सामने घटित होने वाली घटनाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को धीमा कर लेते हैं ताकि हम उस अंतराल में यह तय कर सकें कि कब हम आदतन विनाशकारी ढंग से आचरण करने के लिए प्रवृत्त हो रहे हैं और कब हम वास्तव में अपनी इच्छा से प्रतिक्रिया करना चाहते हैं। हम उस क्षण का उपयोग यह तय करने के लिए करते हैं कि किस प्रकार का आचरण लाभकारी होगा और कौन सा आचरण हानिकारक होगा, इससे हमें ऐसा कुछ भी करने, कहने या सोचने से बचने में मदद मिलती है जो विनाशकारी साबित हो सकता हो। महान बौद्ध आचार्य शांतिदेव ने कहा था, “मनुष्य को लकड़ी के लट्ठे की भांति निस्पृह रहना चाहिए।” हम ऐसा कर सकते हैं, लेकिन इसे समझबूझ, प्रेम, करुणा और स्वयं अपने लिए और दूसरों के प्रति सम्मान के साथ किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि हम किसी भावना का दमन करते हैं, वैसा करने से तो हमारी उद्विग्नता बढ़ेगी और हम तनावग्रस्त हो जाएंगे। विवेकपूर्ण और करुणावान चित्त से हम उस नकारात्मक ऊर्जा को दूर करते हैं जो हमें कुछ ऐसा करने या कहने के लिए बाध्य कर सकती है जिसके लिए हमें बाद में पछताना पड़े। तब हम मुक्त होकर सकारात्मक मनोभाव और विवेक की सहायता से सकारात्मक आचरण कर सकते हैं।

सारांश

जब हम विनाशकारी व्यवहार से दूर रह कर आचरण करते हैं तो इससे न केवल दूसरों को लाभ पहुँचता है, बल्कि अन्ततः यह हमारे अपने हित में भी है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हमारा अपना व्यवहार ही हमारे दुखों का कारण है तो ज़ाहिर है कि हम विनाशकारी आदतों और कृत्यों से स्वेच्छापूर्वक और खुशी से परहेज़ करेंगे। जब हम इन आदतों को बढ़ावा देने बंद कर देते हैं तो दूसरों के साथ हमारे सम्बंधों में सुधार होता है और वे अधिक वास्तविक बनते हैं, और हमें स्वयं भी आंतरिक शांति का अनुभव होता है। यदि हम सचमुच अपने चित्त की शांति चाहते हैं तो हमें अपने विनाशकारी कृत्यों, वचनों और विचारों से मुक्ति पानी होगी। ऐसा करने से हमारे जीवन में बहुत बड़ा सुधार होगा। 

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