“कालचक्र” का अर्थ समय का चक्र होता है, जहाँ समय को परिवर्तन के माप के रूप में देखा जाता है, यह परिवर्तन बाह्य जगत और ब्रह्माण्ड में हो सकता है और शरीर के भीतर आन्तरिक तौर पर हो सकता है। इसे कई तरीकों से मापा जा सकता है। बाहरी तौर पर इसे ग्रहों की कक्षाओं के चक्र, महीनों और वर्ष की ऋतुओं, चन्द्रमा की कलाओं, दिन के घंटों आदि के रूप में मापा जा सकता है, और शांति तथा युद्ध के ऐतिहासिक चक्रों या युगों के रूप में भी मापा जा सकता है। आन्तरिक तौर पर जीवन की अवधियों के चक्र होते हैं (शैशव, बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ता, और वृद्धावस्था), मासिकधर्म, निद्रा, और शरीर की आंतरिक घड़ी के चक्र, दिन भर में लिए गए श्वास, आदि। ये बाह्य और आन्तरिक चक्र एक दूसरे के समानान्तर चलते रहते हैं। जिस तरह नक्षत्र, आकाशगंगाएं और ब्रह्माण्ड अपनी उत्पत्ति, स्थायित्व, और विनाश के चक्रों से होकर गुज़रते हैं, उसी तरह मनुष्य भी जन्म, जीवनकाल, वृद्धावस्था और बर्दो या अन्तराभाव की अवधि के साथ मृत्यु के चक्रों से होकर गुज़रते हैं। इसके अलावा, आन्तरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार के चक्र ब्रह्माण्डों और जीवनकालों के बार-बार होने वाले पुनर्जन्म के साथ अनादि रूप से दोहराए जाते रहे हैं।
समय के इन बाह्य और आन्तरिक चक्रों की हमारी अनुभूति हमारे कर्म के द्वारा निर्धारित होती है। कर्म वह मानसिक कारक है जो हमें बाध्यकारी रूप से कुछ करने, कहने या विचार करने के लिए प्रेरित करता है, और यह हमारे व्यवहार के प्रभाव और हम स्वयं, दूसरे लोग और हर जीव किस प्रकार अस्तित्वमान है, इस बारे में हमारे अज्ञान और मिथ्या दृष्टि पर आधारित होता है। कुछ व्याख्याओं के अनुसार कर्म में हमारे व्यवहार और वाणी की बाध्यकारी ऊर्जा, और हमारे कृत्यों का बाध्यकारी स्वरूप और हमारी वाणी का बाध्यकारी स्वर भी शामिल होता है। अपने कार्मिक व्यवहार के परिणामस्वरूप हम अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म भोगते हैं जो समय के बाह्य और आन्तरिक चक्रों के विध्वंस के अध्यधीन होते हैं। इसका यह परिणाम भी होता है कि हम उन चक्रों को दुख और अस्थायी और संतुष्ट न करने वाले सुख के चक्रों के रूप में भोगते हैं। कालचक्र के इस विवरण में कर्म पवनों के चक्र भी शामिल होते हैं जो उन प्रतीतियों (मानसिक होलोग्राम्स) के लिए जिम्मेदार होती हैं जो हमारे जाग्रत होने, स्वप्न में होने, नींद में होने, और कामोन्माद आनंद के अनुभव के चक्रों के दौरान हमारे मानसिक क्रियाकलाप से उत्पन्न होते हैं।
समय का एक तीसरे प्रकार का चक्र होता है जिसे “वैकल्पिक कालचक्र” कहा जाता है, जो तांत्रिक अभिषेक का एक चक्र होता है, इसमें अभ्यास और बुद्धत्व की प्राप्ति के दो चरण होते हैं। यह चक्र बाह्य और आन्तरिक कालचक्रों का विकल्प तो है ही, साथ ही यह उनके प्रतिकूल प्रभाव का भी प्रतिकारक है। क्योंकि यदि हमारी ऊर्जा और चित्त की स्पष्टता और हमारी मनोदशा मौसम, दिन भर में धूप की मात्रा, हार्मोन सम्बंधी बदलावों, जराजीर्णता आदि से प्रभावित होती है, तो यह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की हमारी क्षमता को तो बाधित करता ही है, साथ ही यह हमारी प्रभावी ढंग से दूसरों की सहायता करने की क्षमता को भी बाधित करता है।
कालचक्र कई प्रकार से विशिष्ट है। समय के बाह्य चक्रों की प्रस्तुति के एक भाग के रूप में इसके साहित्य में सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों, ग्रीष्म अयनांत के दिन की अवधि, ग्रहणों के समय, चंद्र कैलेंडर और जन्म कुण्डलियों के लिए जटिल गणितीय सूत्र भी दिए गए हैं। इसमें शांति के समय और युद्ध काल में उपयोगी मशीनी उपकरणों के निर्माण के लिए भी इंजीनियरी के निर्देश दिए गए हैं। आन्तरिक चक्रों से सम्बंधित चर्चा में शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली, उसके चक्रों, नाड़ियों और बिंदुओं तथा तिब्बती चिकित्सा परम्परा में समाहित बहुत सी दूसरी विशेषताओं का विस्तार से विवरण दिया गया है, और साथ ही साथ संस्कृत भाषा के ध्वनिविज्ञान का भी विश्लेषण किया गया है।
कालचक्र अभिषेक और उसकी साधना की दो अवस्थाएं भी विशिष्ट हैं, इनकी कई विशेषताएं अनुत्तरयोग तंत्र से भिन्न हैं। बाह्य और आन्तरिक कालचक्रों के बीच की समांतरता को ध्यान में रखते हुए जीवन की अवस्थाओं के अनुरूप ही अभिषेक दिए जाते हैं। मंडल महल तथा मुख्य बुद्ध आकृति को ब्रह्माण्ड और मानव शरीर के मॉडल के अनुपात में बनाया जाता है। बाह्य और आन्तरिक जगत की जटिलता और दोनों की ही शुद्धि की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मंडल में अधिकांश तंत्र पद्धतियों की तुलना में अधिक आकृतियाँ शामिल की जाती हैं। महल के भीतर और उसके आसपास की 722 आकृतियों के समुच्चयों में से विभिन्न आकृति समुच्चय एक चंद्र वर्ष के दिनों और महीनों की संख्या, राशि चक्र के चिह्नों, प्रमुख तारामंडलों, शरीर में हड्डियों की संख्या, शरीर और चित्त के तत्वों और समुच्चय कारकों की संख्या के अनुरूप होते हैं। इसके अलावा, सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली की साधना की अन्तिम अवस्थाओं में निर्मल-प्रकाश चित्त (मानसिक क्रियाकलाप का सूक्ष्मतम रूप) और किसी बुद्ध के रूप शरीर के प्रतिमान के रूप में एस विशिष्ट प्रकार का सूक्ष्म शरीर (एक शून्य आकार) को प्राप्त करने का साधन प्राप्त होता है।
सारांश
कालचक्र की साधना एक अत्यंत उन्नत और जटिल साधना है। अपने अपेक्षाकृत कम जटिल रूप में संक्षिप्त मंडलों और कम आकृतियों के साथ की जाने वाली साधना भी बहुत जटिल होती है। किन्तु यदि उचित प्रेरणा, तैयारी और निरंतर प्रयास से इस साधना को किया जाए तो यह सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए एक अत्यंत प्रभावी साधना है।
यह इस दृष्टि से दूसरे उन्नत तंत्रों से भिन्न है कि कालचक्र का अभिषेक सौहार्द को विश्व शांति को बढ़ावा देने के लिए बड़ी संख्या में लोगों के समूहों को दिया जाता है। परम पावन दलाई लामा ने ल्हासा, तिब्बत में 1954 में पहली बार यह अभिषेक दिया था, और तब से अब तक उनके द्वारा विश्व भर में दिए गए कालचक्र अभिषेकों में लगभग बीस लाख लोग शामिल हो चुके हैं।