बौद्ध धर्म से जुड़ी सामान्य भ्रांतियाँ

बौद्ध धर्म को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित हैं और ये भ्रांतियाँ विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती हैं। कुछ भ्रांतियाँ विशिष्ट संस्कृतियों जैसे पाश्चात्य संस्कृति या एशियाई और आधुनिक पाश्चात्य चिंतन से प्रभावित संस्कृतियों से जुड़ी हैं। कुछ भ्रांतियाँ पारंपरिक चीनी चिंतन जैसे दूसरे सांस्कृतिक क्षेत्रों से आई हैं। कुछ भ्रांतियाँ ऐसी भी हो सकती हैं जो लोगों के अशांतकारी मनोभावों के कारण उत्पन्न होती हैं। कुछ भ्रांतियाँ ऐसी हो सकती हैं जो बताई गई जानकारी की दुरूहता के कारण उत्पन्न हो सकती हैं। मिथ्याबोध इस कारण से भी उत्पन्न हो सकते हैं कि शिक्षकों द्वारा विषयवस्तु को ठीक ढंग से न समझाया गया हो या अस्पष्ट छोड़ दिया गया हो, परिणामतः हम अपनी समझ के आधार पर उनके अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि शिक्षकों ने स्वंय ही शिक्षाओं को गलत ढंग से समझा हो, क्योंकि सभी शिक्षक पूरी तरह से योग्य नहीं होते हैं: बहुत से शिक्षकों को पूरी योग्यता हासिल करने से पहले ही शिक्षा देने के लिए कह दिया जाता है या भेज दिया जाता है। इसके अलावा, शिक्षक यदि ठीक-ठीक व्याख्या कर भी दें, तब भी ऐसा हो सकता है कि हमने उनकी बात को ठीक ढंग से न सुना हो, या बाद में हमें उनकी बताई हुई बात ठीक ढंग से याद न रही हो। या हो सकता है कि हमने शिक्षकों की बताई बातों को ठीक ढंग से लिखकर न रखा हो या बाद में कभी दोबारा पढ़कर ही न देखा हो। हालाँकि इन कारणों से उत्पन्न होने वाले मिथ्याबोधों की संख्या बहुत बड़ी है, यहाँ हम केवल कुछ सामान्य विषयों से जुड़ी कुछ सामान्य भ्रांतियों को ही स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे, हालाँकि इनके अलावा और भी कई प्रचलित भ्रांतियों के बारे में चर्चा की जा सकती है।

बौद्ध धर्म के बारे में प्रचलित सामान्य भ्रांतियाँ

यह धारणा कि बौद्ध धर्म एक निराशावादी धर्म है

बुद्ध ने सबसे पहला उपदेश चार आर्य सत्यों के बारे में दिया था, और इनमें सबसे पहला सत्य “दुख सत्य” था। चाहे हम दुख की बात करें, हमारे साधारण सुखों की बात करें, या अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म के सर्वव्यापी अनुभव की बात करें, ये सभी दुख हैं। किन्तु दुख के लिए अंग्रेज़ी भाषा में प्रयोग किया जाने वाला “सफरिंग” शब्द एक कठोर शब्द है। यहाँ इसका यह अर्थ है कि ये सभी अवस्थाएं असंतोषजनक और समस्याएं उत्पन्न करने वाली हैं, और चूँकि हर कोई सुख चाहता है, दुख नहीं चाहता है, इसलिए हमें अपने जीवन की समस्याओं से उबरने की आवश्यकता है।

यह कहना एक गलत धारणा है कि बौद्ध धर्म कहता है कि सुख को प्राप्त करने में कुछ बुराई है। किन्तु हमारे साधारण सुखों में कमियाँ होती हैं – वे कभी स्थायी नहीं होते, कभी संतोष प्रदान करने वाले नहीं होते, और जब वे बीत जाते हैं, तो हमें उन्हें और पाने की लालसा बनी रहती है। यदि हमें अपनी पसंद की कोई चीज़, जैसे हमारा कोई प्रिय व्यंजन, बहुत अधिक मात्रा में मिल जाए तो हम उससे ऊब जाते हैं, और उसे और अधिक मात्रा में खाने पर दुखी हो जाते हैं। इसलिए बौद्ध धर्म हमें ऐसे सुख को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने की शिक्षा देता है जो इस प्रकार का असंतोष उत्पन्न करने वाली सभी स्थितियों से मुक्त हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि कुछ भी महसूस न करना ही चरम लक्ष्य है। इसका अर्थ यह है कि सुख के अनेक प्रकार होते हैं, और आम तौर पर हम जिसे अनुभव करते हैं वह दुख से बेहतर होते हुए भी उस सुख की अभीष्टतम अवस्था नहीं है जिसे हम अनुभव कर सकते हैं।

यह धारणा कि नश्वरता का निहितार्थ केवल नकारात्मक ही है

यह सोचना एक गलत धारणा है कि नश्वरता की बात केवल हमारे साधारण सुख के मामले में ही लागू होती है: कि वह समाप्त हो जाएगा और उसकी परिणति असंतोष और दुख के रूप में होगी। नश्वरता का अर्थ यह भी है कि हमारे जीवन का दुख का कोई विशिष्ट समय भी समाप्त होगा। इससे हौसला हासिल करने और नए अवसरों का लाभ उठाकर अपने जीवन की स्थिति को सुधारने की सम्भावना खुलती है। इस प्रकार बौद्ध धर्म में ऐसी बहुत सी विधियाँ उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से हम जीवन के बारे में अपने दृष्टिकोण को बदल सकते हैं और अन्ततः मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के सभी बदलावों की उत्पत्ति भी नश्वरता के मूलभूत सिद्धांत से ही होती है।

यह धारणा कि बौद्ध धर्म नास्तिवाद का ही एक रूप है

बुद्ध ने सिखाया था कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की समस्याओं का यथार्थ कारण यथार्थ के बारे में व्यक्ति की अविद्या (अज्ञानता) ही है –कि स्वयं उस व्यक्ति के और दूसरे सभी जीवों के अस्तित्व का क्या आधार है। उन्होंने सिखाया कि शून्यता इस भ्रम का प्रतिकारक है। ऐसा मानना एक मिथ्याबोध है कि शून्यता नास्तिवाद का ही एक स्वरूप है और यह कि बुद्ध का कहना था कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है – आपका अस्तित्व नहीं है, दूसरों का भी अस्तित्व नहीं है, इसलिए आपकी समस्याओं का समाधान यह मानना है कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है।

शून्यता का यह अर्थ कदापि नहीं है। हम यथार्थ पर चीजों के असंभव ढंग से अस्तित्व की कल्पना को आरोपित कर लेते हैं – उदाहरण के लिए, कि वे दूसरी सभी चीज़ों से अलग और स्वतंत्र हैं। हमें यह बोध नहीं होता है कि सब कुछ चेतन के स्तर पर बाकी दूसरी चीज़ों से परस्पर सम्बंधित और निर्भर है। इस भ्रम का अभ्यस्त होने के कारण हमारे चित्त को चीजें असंभव ढंग से अस्तित्वमान प्रतीत होती हैं, जैसे यह वैबसाइट जैसी है वैसी ही अपने ही दम पर अस्तित्वमान दिखाई देती है, इसका अस्तित्व इसे तैयार करने वाले सौ से अधिक लोगों के हज़ारों घंटों के परिश्रम से स्वतंत्र दिखाई देता है। इस प्रकार का स्वतंत्र अस्तित्व किसी भी प्रकार से यथार्थ के अनुरूप नहीं है। शून्यता तो ऐसे किसी भी वास्तविक सूचक का अभाव है जो अस्तित्वमान होने की असंभव विधियों के बारे में हमारी कल्पना से मेल खाता हो। किसी भी चीज़ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है; इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है।

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