बौद्ध धर्म से जुड़ी सामान्य भ्रांतियाँ

बौद्ध धर्म को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित हैं और ये भ्रांतियाँ विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती हैं। कुछ भ्रांतियाँ विशिष्ट संस्कृतियों जैसे पाश्चात्य संस्कृति या एशियाई और आधुनिक पाश्चात्य चिंतन से प्रभावित संस्कृतियों से जुड़ी हैं। कुछ भ्रांतियाँ पारंपरिक चीनी चिंतन जैसे दूसरे सांस्कृतिक क्षेत्रों से आई हैं। कुछ भ्रांतियाँ ऐसी भी हो सकती हैं जो लोगों के अशांतकारी मनोभावों के कारण उत्पन्न होती हैं। कुछ भ्रांतियाँ ऐसी हो सकती हैं जो बताई गई जानकारी की दुरूहता के कारण उत्पन्न हो सकती हैं। मिथ्याबोध इस कारण से भी उत्पन्न हो सकते हैं कि शिक्षकों द्वारा विषयवस्तु को ठीक ढंग से न समझाया गया हो या अस्पष्ट छोड़ दिया गया हो, परिणामतः हम अपनी समझ के आधार पर उनके अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि शिक्षकों ने स्वंय ही शिक्षाओं को गलत ढंग से समझा हो, क्योंकि सभी शिक्षक पूरी तरह से योग्य नहीं होते हैं: बहुत से शिक्षकों को पूरी योग्यता हासिल करने से पहले ही शिक्षा देने के लिए कह दिया जाता है या भेज दिया जाता है। इसके अलावा, शिक्षक यदि ठीक-ठीक व्याख्या कर भी दें, तब भी ऐसा हो सकता है कि हमने उनकी बात को ठीक ढंग से न सुना हो, या बाद में हमें उनकी बताई हुई बात ठीक ढंग से याद न रही हो। या हो सकता है कि हमने शिक्षकों की बताई बातों को ठीक ढंग से लिखकर न रखा हो या बाद में कभी दोबारा पढ़कर ही न देखा हो। हालाँकि इन कारणों से उत्पन्न होने वाले मिथ्याबोधों की संख्या बहुत बड़ी है, यहाँ हम केवल कुछ सामान्य विषयों से जुड़ी कुछ सामान्य भ्रांतियों को ही स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे, हालाँकि इनके अलावा और भी कई प्रचलित भ्रांतियों के बारे में चर्चा की जा सकती है।

बौद्ध धर्म के बारे में प्रचलित सामान्य भ्रांतियाँ

यह धारणा कि बौद्ध धर्म एक निराशावादी धर्म है

बुद्ध ने सबसे पहला उपदेश चार आर्य सत्यों के बारे में दिया था, और इनमें सबसे पहला सत्य “दुख सत्य” था। चाहे हम दुख की बात करें, हमारे साधारण सुखों की बात करें, या अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म के सर्वव्यापी अनुभव की बात करें, ये सभी दुख हैं। किन्तु दुख के लिए अंग्रेज़ी भाषा में प्रयोग किया जाने वाला “सफरिंग” शब्द एक कठोर शब्द है। यहाँ इसका यह अर्थ है कि ये सभी अवस्थाएं असंतोषजनक और समस्याएं उत्पन्न करने वाली हैं, और चूँकि हर कोई सुख चाहता है, दुख नहीं चाहता है, इसलिए हमें अपने जीवन की समस्याओं से उबरने की आवश्यकता है।

यह कहना एक गलत धारणा है कि बौद्ध धर्म कहता है कि सुख को प्राप्त करने में कुछ बुराई है। किन्तु हमारे साधारण सुखों में कमियाँ होती हैं – वे कभी स्थायी नहीं होते, कभी संतोष प्रदान करने वाले नहीं होते, और जब वे बीत जाते हैं, तो हमें उन्हें और पाने की लालसा बनी रहती है। यदि हमें अपनी पसंद की कोई चीज़, जैसे हमारा कोई प्रिय व्यंजन, बहुत अधिक मात्रा में मिल जाए तो हम उससे ऊब जाते हैं, और उसे और अधिक मात्रा में खाने पर दुखी हो जाते हैं। इसलिए बौद्ध धर्म हमें ऐसे सुख को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने की शिक्षा देता है जो इस प्रकार का असंतोष उत्पन्न करने वाली सभी स्थितियों से मुक्त हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि कुछ भी महसूस न करना ही चरम लक्ष्य है। इसका अर्थ यह है कि सुख के अनेक प्रकार होते हैं, और आम तौर पर हम जिसे अनुभव करते हैं वह दुख से बेहतर होते हुए भी उस सुख की अभीष्टतम अवस्था नहीं है जिसे हम अनुभव कर सकते हैं।

यह धारणा कि नश्वरता का निहितार्थ केवल नकारात्मक ही है

यह सोचना एक गलत धारणा है कि नश्वरता की बात केवल हमारे साधारण सुख के मामले में ही लागू होती है: कि वह समाप्त हो जाएगा और उसकी परिणति असंतोष और दुख के रूप में होगी। नश्वरता का अर्थ यह भी है कि हमारे जीवन का दुख का कोई विशिष्ट समय भी समाप्त होगा। इससे हौसला हासिल करने और नए अवसरों का लाभ उठाकर अपने जीवन की स्थिति को सुधारने की सम्भावना खुलती है। इस प्रकार बौद्ध धर्म में ऐसी बहुत सी विधियाँ उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से हम जीवन के बारे में अपने दृष्टिकोण को बदल सकते हैं और अन्ततः मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के सभी बदलावों की उत्पत्ति भी नश्वरता के मूलभूत सिद्धांत से ही होती है।

यह धारणा कि बौद्ध धर्म नास्तिवाद का ही एक रूप है

बुद्ध ने सिखाया था कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की समस्याओं का यथार्थ कारण यथार्थ के बारे में व्यक्ति की अविद्या (अज्ञानता) ही है –कि स्वयं उस व्यक्ति के और दूसरे सभी जीवों के अस्तित्व का क्या आधार है। उन्होंने सिखाया कि शून्यता इस भ्रम का प्रतिकारक है। ऐसा मानना एक मिथ्याबोध है कि शून्यता नास्तिवाद का ही एक स्वरूप है और यह कि बुद्ध का कहना था कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है – आपका अस्तित्व नहीं है, दूसरों का भी अस्तित्व नहीं है, इसलिए आपकी समस्याओं का समाधान यह मानना है कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है।

शून्यता का यह अर्थ कदापि नहीं है। हम यथार्थ पर चीजों के असंभव ढंग से अस्तित्व की कल्पना को आरोपित कर लेते हैं – उदाहरण के लिए, कि वे दूसरी सभी चीज़ों से अलग और स्वतंत्र हैं। हमें यह बोध नहीं होता है कि सब कुछ चेतन के स्तर पर बाकी दूसरी चीज़ों से परस्पर सम्बंधित और निर्भर है। इस भ्रम का अभ्यस्त होने के कारण हमारे चित्त को चीजें असंभव ढंग से अस्तित्वमान प्रतीत होती हैं, जैसे यह वैबसाइट जैसी है वैसी ही अपने ही दम पर अस्तित्वमान दिखाई देती है, इसका अस्तित्व इसे तैयार करने वाले सौ से अधिक लोगों के हज़ारों घंटों के परिश्रम से स्वतंत्र दिखाई देता है। इस प्रकार का स्वतंत्र अस्तित्व किसी भी प्रकार से यथार्थ के अनुरूप नहीं है। शून्यता तो ऐसे किसी भी वास्तविक सूचक का अभाव है जो अस्तित्वमान होने की असंभव विधियों के बारे में हमारी कल्पना से मेल खाता हो। किसी भी चीज़ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है; इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है।

आचारनीति और व्रतों से सम्बंधित भ्रांतियाँ

यह धारणा कि बौद्ध आचारनीति अच्छे और बुरे के नैतिक निर्णयों पर आधारित है

आचारनीति की दृष्टि से, और दूसरे कई मामलों में भी, अक्सर भ्रामक अनुवाद के कारण भ्रांतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। गलत अनुवाद की इन अभिव्यक्तियों के कारण हम गैर-बौद्ध अवधारणाओं के बौद्ध शिक्षाओं में शामिल होने की कल्पना कर लेते हैं।उदाहरण के लिए हम ऐसी शब्दावली का प्रयोग कर सकते हैं जिसके अर्थ हमारी बाइबल की परंपराओं से लिए जा सकते हैं, जैसे नेक, बद, पुण्य, और पाप। इस प्रकार के शब्द आचारनीति सम्बंधी बौद्ध शिक्षाओं पर नैतिक मूल्यांकन और दोष के भाव को आरोपित कर देते हैं: कि कुछ चीजें अच्छी होती हैं, यानी भली और उचित होती हैं। यदि हम उन चीजों को करते हैं तो हम अच्छे लोग हैं, और उस प्रकार का आचरण करने पर हमें किसी प्रकार के पुरस्कार के रूप में पुण्य की प्राप्ति होगी। लेकिन यदि हम बदी का व्यवहार करते हैं,‘अधर्म’ के कृत्य करते हैं, तो हम बुरे हैं और अपने लिए पाप संचित करते हैं जिसके लिए हमें दुख भोगना पड़ेगा। यह स्पष्ट तौर पर बौद्ध आचारनीति पर बाइबल सम्बंधी नैतिकता का आरोपण है।

बौद्ध आचारनीति शुद्ध रूप से सविवेक बोध विकसित करने पर आधारित है। हमें यह भेद करना आना चाहिए कि क्या करना सकारात्मक है और कौन से कृत्य विनाशकारी हैं, क्या करना लाभप्रद होगा और क्या करना हानिप्रद है, और फिर इस बोध की सहायता से हमें हानिकारक, विनाशकारी व्यवहार करने से बचना चाहिए।

यह धारणा कि बौद्ध आचारनीति नियमों के पालन पर आधारित है

फिर, बौद्ध आचारनीति को सविवेक बोध पर आधारित होने के बजाए नियमों के पालन पर आधारित होने की धारणा बना लेना भी एक भ्रांति है। कुछ संस्कृतियों में लोग नियम-कानूनों को बड़ी गम्भीरता से लेते हैं, और फिर बड़ा कठोर रवैया अपना लेते हैं: वे नियमों को टूटने नहीं देना चाहते हैं। जबकि आचारनीति सम्बंधी दिशानिर्देशों की दृष्टि से तिब्बती लोग काफी शिथिल रवैया रखते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे आलसी या लापरवाह होते हैं, बल्कि इसका मतलब यह है कि कुछ प्रकार की स्थितियों में व्यक्ति को किसी दिशानिर्देश को लागू करने की दृष्टि से सविवेक बोध का प्रयोग करने की आवश्यकता होती है। यहाँ हम विवेक से यह भेद करने का प्रयास कर रहे होते हैं कि हम किसी अशांतकारी मनोभाव के प्रभाव में आचरण कर रहे हैं या वैसा आचरण करने के पीछे कोई सकारात्मक कारण है।

यह धारणा कि व्रत ऐसे कानूनों के जैसे होते हैं जिनमें पालन से बच निकलने की सम्भावनाएं छिपी होती हैं

वहीं दूसरे सिरे पर हम व्रतों को किसी वकील की दृष्टि से देख सकते हैं। और उस स्थिति में हम कर्म सम्बंधी प्रस्तुति की जाँच विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के बहाने तलाशने या किसी व्रत के पालन से समझौता करने और उसे कमज़ोर बनाने के बहाने तलाशने की दृष्टि से करते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। हम कोई व्रत धारण कर सकते हैं, जैसे अनुचित यौन व्यवहार से दूर रहने का व्रत ले सकते हैं, और फिर हम कहें कि मुख-मैथुन अनुचित नहीं है क्योंकि यह प्रेम की अभिव्यक्ति है। क्योंकि हमें इस प्रकार का यौन व्यवहार पसंद होता है इसलिए हम अपने आपको दोषमुक्त करने का बहाना ढूँढ लेते हैं। या, शराब छोड़ने की प्रतिज्ञा करने के बाद हम कहते हैं कि भोजन करते समय अपने माता-पिता का अनादर करने से बचने के लिए उनके साथ शराब पीने में कुछ बुराई नहीं है, या यदि हम नशे में धुत न हो जाएं तो कभी-कभार शराब पी लेने में कुछ बुरा नहीं है। हम अपने व्रतों का पालन करने से बचने के लिए इस तरह के बहाने बनाने की कोशिश करते हैं।

बात यह है कि यदि हम कोई व्रत धारण करते हैं तो फिर वह पूरी तरह निभाए जाने के लिए होता है। हम कोई आंशिक व्रत धारण नहीं करते हैं। इस दृष्टि से किसी व्रत के निर्देश स्पष्ट होते हैं। यदि हम व्रतों, या किसी विशिष्ट व्रत के सभी नियमों का पालन न कर सकते हों, तो फिर हम व्रत को धारण ही न करें। व्रत को धारण करने की कोई बाध्यता नहीं है।

इसका एक विकल्प उपलब्ध है। व्रतों के बारे में अभिधर्म सम्बंधी चर्चा में व्रतों की तीन श्रेणियों का उल्लेख है: एक ऐसा व्रत होता है जिसमें आप मूलतः किसी प्रकार के विनाशकारी व्यवहार से दूर रहने की प्रतिज्ञा करते हैं। और फिर एक और व्रत है जिसका अनुवाद करना बहुत कठिन है – यह वस्तुतः एक विपरीत प्रतिज्ञा है। यह हत्या करने जैसे किसी प्रकार के विनाशकारी व्यवहार से दूर न रहने की प्रतिज्ञा है। उदाहरण के लिए, यदि आप सेना में भर्ती होते हैं तो आपको ऐसी प्रतिज्ञा करनी पड़ सकती है कि दुश्मन द्वारा हमला किए जाने की स्थिति में आप गोली चलाने से परहेज़ नहीं करेंगे। फिर एक श्रेणी बीच की स्थिति वाली है: यानी किसी व्रत में विनिर्दिष्ट बातों में से केवल कुछ हिस्सों से ही परहेज़ करना।

हम इस मध्यवर्ती श्रेणी को यहाँ लागू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, उपासकों के लिए अनुचित यौन व्यवहार से दूर रहने सम्बंधी संवर की दृष्टि से यदि उस व्रत या संवर के कुछ ऐसे हिस्से हों जिनके बारे में हमें लगता है कि हम उनका पालन नहीं कर सकते हैं, तो हम केवल यह प्रतिज्ञा ले सकते हैं कि हम किसी अन्य के जोड़ीदार के साथ यौन सम्बंध नहीं रखेंगे और किसी के साथ बलात्कार करने या किसी को यौन सम्बंध के लिए बलपूर्वक बाध्य करने जैसा यौन हिंसा का व्यवहार नहीं करेंगे। इस प्रकार का व्रत धारण करना दरअसल ग्रंथों में निर्दिष्ट किए गए अनुसार लिया गया व्रत नहीं है। लेकिन ऐसा करना काफी सकारात्मक होता है, इससे सकारात्मक बल विकसित होता है – मैं सकारात्मक बल को पुण्य से बेहतर मानता हूँ और नकारात्मक बल को पाप से बेहतर मानता हूँ – इससे हमारे मानसिक सातत्य में उस प्रकार के व्यवहार से परहेज़ करने मात्र की तुलना में अधिक सकारात्मक बल संचित होता है। इससे व्रत पर समझौता भी नहीं होता और फिर भी यह बहुत ही प्रबल नैतिक साधना का आधार बन जाता है।

यह धारणा कि बौद्ध आचारनीति मानववादी है – बस दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचें

बौद्ध आचारनीति को मानववादी मानने का मिथ्याबोध आचारनीति की दृष्टि से एक और भ्रांति है। “मानववादी” होने का अर्थ है कि हम ऐसे कृत्यों को करने से बचते हैं जिनसे दूसरों को हानि हो सकती है। यदि किसी कार्य को करने से किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचता है तो फिर उसे करना ठीक है। यही मानववादी आचारनीति है, या कम से कम मैं तो मानववादी आचारनीति का यही अर्थ समझता हूँ। हालाँकि ऐसा करना बहुत अच्छी और भली बात है, लेकिन यह बौद्ध आचारनीति का आधार नहीं है। बौद्ध आचारनीति का आधार यह है कि इसमें ऐसे कृत्यों से बचने पर बल दिया जाता है जो आत्मविनाशकारी हों, क्योंकि दरअसल हम नहीं जानते हैं कि दूसरों को किस बात से नुकसान पहुँच सकता है: हो सकता है कि आप किसी को यह समझते हुए एक मिलियन यूरो की राशि दे दें कि इससे उसे लाभ होगा। और अगले दिन उस पैसे के कारण ऐसा हो सकता है कि कोई उस व्यक्ति को लूट ले और उसकी हत्या कर दे। इसलिए हम नहीं जानते हैं कि किसी दूसरे व्यक्ति के लिए क्या फायदेमंद होगा। हम भविष्यदृष्टा नहीं हैं। बौद्ध शिक्षाओं में जो बात बताई गई है वह यह है कि यदि हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं, क्रोध, लोभ, लालसा, ईर्ष्या, नासमझी आदि जैसे अशांतकारी मनोभावों से प्रभावित होकर व्यवहार करते हैं – तो वह आत्मविनाशकारी होता है। इससे उस व्यवहार को बार-बार दोहराने का एक नकारात्मक अभ्यास विकसित होता है जिसके परिणामस्वरूप स्वयं हमें दुख भोगना पड़ता है। यही बौद्ध आचारनीति का आधार है।

पुनर्जन्म सम्बंधी भ्रांतियाँ

पुनर्जन्म को छोड़ देने, अपने विनाशकारी व्यवहार और अशांतकारी मनोभावों को नियंत्रित न करने के कारण उत्पन्न भ्रांतियाँ

बौद्ध आचारनीति के मानववादी होने – कि बस दूसरों को दुख न पहुँचाया जाए – सम्बंधी भ्रांत धारणा अक्सर महायान के अभ्यास पर पहले से ही अधिक बल दिए जाने के कारण, यह समझने के कारण उत्पन्न होती है कि हम लाम-रिम के आरम्भिक और मध्यवर्ती चरणों को छोड़कर आगे बढ़ सकते हैं। “लाम-रिम” का सम्बंध ज्ञानोदय प्राप्ति के मार्ग के क्रमिक स्तरों से होता है। आरम्भिक स्तर की प्रेरणा निम्नतर पुनर्जन्मों से बचने के लिए होती है। लेकिन, हम तो पुनर्जन्म में विश्वास तक नहीं रखते। मध्यवर्ती स्तर का सम्बंध अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म को पूरी तरह रोकने से होता है। लेकिन, चूँकि हम इस स्तर पर भी पुनर्जन्म को नहीं मानते, इसलिए वह सब वास्तविकता हमें महत्वपूर्ण नहीं लगती है; हम सोचते हैं, “चलो, इसे छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं।“ लेकिन हम महायान की शिक्षाओं की ओर अनेक प्रकार से आकर्षित होते हैं क्योंकि वे हमारी कुछ पाश्चात्य परम्पराओं के प्रेम, करुणा, सहिष्णुता, उदारता, दानशीलता आदि के भावों से बहुत कुछ मिलती-जुलती दिखाई देती हैं। यह सब हमें बहुत अच्छा दिखाई देता है, और इसलिए हम आरम्भिक दो चरणों को छोड़कर या उनके महत्व को कम आँकते हुए इसके प्रति आकर्षित हो जाते हैं।

ऐसा करते समय हम शिक्षाओं के एक और महत्वपूर्ण भाग को छोड़ जाते हैं, कि हमें अपने विनाशकारी व्यवहार और अशांतकारी मनोभावों को नियंत्रित करने के लिए प्रयास करना चाहिए क्योंकि ये आत्मविनाशकारी होते हैं। हम सीधे दूसरों की सहायता करने वाले स्तर पर छलांग लगा देते हैं। ऐसा करना एक भूल है। हालाँकि महायान को महत्व दिया जाना आवश्यक होता है, लेकिन उसे आरम्भिक और मध्यवर्ती स्तरों की साधना के आधार पर किया जाना चाहिए। हमें पहले तो अपने विनाशकारी व्यवहार और अशांतकारी मनोभावों को नियंत्रित करना चाहिए क्योंकि वे दूसरों की सहायता करने के हमारे प्रयासों पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

पुनर्जन्म को गम्भीरता से न लेना

हममें से बहुत से लोगों द्वारा आरम्भिक स्तर की शिक्षाओं को छोड़े जाने का एक प्रबल कारण यह है कि हम पुनर्जन्म के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। आखिर, आरम्भिक स्तर में तो निम्नतर पुनर्जन्मों से बचने पर ही बल दिया जाता है; यही कारण है कि हम शरणागत होते हैं (अपने जीवन को एक सकारात्मक दिशा देते हैं) और विनाशकारी व्यवहार से बचने के लिए कर्म के सिद्धांतों का पालन करते हैं क्योंकि विनाशकारी व्यवहार करने से हमें निम्नतर अवस्थाओं में पुनर्जन्म की प्राप्ति होगी। और विशेष तौर पर हम नरक गति और प्रेत गति, और देवताओं और विरोधी-देवताओं को तो मानते ही नहीं हैं। हम समझते हैं कि इनका अस्तित्व ही नहीं है और धर्म के ग्रंथों में इनके बारे में दिए गए विवरण केवल मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक दशाओं को ही दर्शाते हैं। यह शिक्षाओं के साथ अन्याय है और एक बड़ी भ्रांति है।

गैर-मनुष्यों, गैर-पशु जीवों में पुनर्जन्म को गम्भीरता से न लेना

मैं यहाँ इसकी बहुत विस्तार से चर्चा नहीं करना चाहता हूँ, लेकिन यदि हम स्वयं अपने या किसी दूसरे जीव के चित्त, या मानसिक सातत्य की दृष्टि से देखें, तो ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि वह पूरी तरह से सुख या दुख और आनंद और पीड़ा को अनुभव करने में सक्षम नहीं है, और वह उस पूर्ण अनुभूति की उस सीमित मात्रा को ही अनुभव कर सकता है जिसे मनुष्य के रूप में हमारे शरीर और चित्त द्वारा परिभाषित किया गया है। विभिन्न प्रकार के इंद्रिय बोधों के मामले में ऐसा ही तो होता है। कुछ पशु हम मनुष्यों से अधिक दूरी तक देख सकते हैं; कुछ हमसे बेहतर सुन सकते हैं आदि। तब ऐसा क्यों नहीं हो सकता है कि सुख, दुख, आनंद और पीड़ा को अनुभव कर पाने की हमारी क्षमता की दृष्टि से तय सीमाओं का विस्तार किया जा सके और उसके लिए नरक देह या देव देह जैसे किसी भौतिक स्वरूप का आधार हो।

वीडियो: खांद्रो रिंपोशे – बौद्ध धर्म में नरक की अवधारणा
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दूसरे जीवों के महत्व को कम करके उन्हें केवल मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक अवस्थाएं मान लेना

हाँलाकि कर्म की प्रस्तुति में इस बात का उल्लेख है कि इन अन्य गतियों में हमें पिछले जन्मों के उत्तरप्रभावों, शेषांशों की अनुभूति हो सकती है – हमें उन चीज़ों की अनुभूति होती है जो हमने अपने उन पूर्वजन्मों में अनुभव की थीं; फिर भी, इसका यह मतलब नहीं है कि हम इन दूसरे जीव रूपों, जिन्हें हम स्वयं या दूसरे भी धारण कर सकते हैं, की चर्चा के महत्व को घटाकर उन्हें बस मानव मनोविज्ञान की अवस्थाएं मात्र मान लें। इसका यही मतलब है कि हमने शिक्षाओं को ठीक ढंग से नहीं समझा है।

कर्म के सिद्धांत को केवल एक जन्म तक सीमित करने के कारण ऐसा समझना कि कर्म सिद्धांत तर्कसंगत नहीं है

पुनर्जन्म और अस्तित्व की इन अन्य अवस्थाओं को स्वीकार न करने के कारण हम कर्म के बारे में यह भ्रांत धारणा बना लेते हैं कि वह केवल इस जीवनकाल में हमारे द्वारा किए गए कृत्यों के परिणामों से ही सम्बंध रखता है। हमारी इस सीमित धारणा के कारण कर्म सम्बंधी शिक्षाओं के बारे में अनेक प्रकार की शंकाएं उत्पन्न होती हैं। आखिर ऐसा भी तो होता है कि बड़े-बड़े अपराधी कभी पकड़े ही नहीं जाते हैं और लगता है कि वे बच कर निकल गए हैं। और हमारे अपने जीवनकाल में हमारे साथ ऐसी बहुत सी भयानक बातें हो सकती हैं, जैसे कैंसर के कारण मृत्यु हो जाना, जबकि हमने ऐसा कुछ किया ही नहीं होता है जिसे विशेष रूप से विनाशकारी कहा जा सके। यदि हम अपनी चर्चा या अपने दृष्टिकोण को केवल इसी जन्म तक सीमित रखें तो कर्म का सिद्धांत तर्कसंगत नहीं दिखाई देता है।

धर्म सम्बंधी भ्रांतियाँ

बौद्ध धर्म में अप्रिय लगने वाले हिस्सों को छँटनी कर देना

इसके पीछे कहीं और ज्यादा बड़ी समस्या, धर्म के बारे में अपेक्षाकृत काफी बड़ी भ्रांत धारणा छिपी है, जो यह है कि हम केवल उन शिक्षाओं को चुन सकते हैं जो हमें पसंद हैं, और उन बातों को छोड़ सकते हैं या अनदेखा कर सकते हैं जिन्हें स्वीकार करने में हमें समस्या हो: कि हम एक “छँटनी किया हुआ” बौद्ध धर्म तैयार कर सकते हैं। हम उसमें से उन सब चीजों को छाँट देते हैं या हटा देते हैं जो हमें कठिन लगती हैं।

जब हम कर्म के बारे में पृथ्वी के नीचे जाने वाले और सोने का गोबर करने वाले हाथियों की कथाएं आदि को सुनते हैं, तो हम सोचते हैं, “छोड़िए, से सब बच्चों की परी-कथाएं हैं!” हमें नहीं लगता कि इन कथाओं में कोई शिक्षा दी गई है। यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि हम इन कहानियों को कुछ तिब्बतियों की तरह शब्दशः सच मानते हैं या नहीं। बात यह है कि हम उन्हें खारिज न करें; वे शिक्षाओं का भाग हैं। एक दूसरा उदाहरण महायान सूत्रों में मिलता है जहां बुद्ध जन कई करोड़ जीवों को उपदेश दे रहे हैं; और कई करोड़ बुद्ध वहाँ उपस्थित हैं; और प्रत्येक बुद्ध के प्रत्येक रोम में करोड़ बुद्ध मौजूद हैं आदि। अक्सर हम इन कथाओं को सुन कर असमंजस में पड़ जाते हैं और कहते हैं, “यह तो बहुत अजीबोगरीब है।“ हम इन्हें धर्म के भाग के रूप में स्वीकार नही करते हैं।

यहाँ समस्या बौद्ध धर्म के ऐसे हिस्सों को चुनने और स्वीकार करने की है जो हमें पसंद हों। कुछ ऐसे तांत्रिक और बोधिसत्व व्रत हैं जिनमें कुछ बौद्ध शिक्षाओं को अस्वीकार न करने या ऐसा दावा न करने की बात की जाती है कि वे प्रामाणिक नहीं हैं; दूसरे शब्दों में हमें ऐसा न करने के लिए कहा जाता है कि हम शिक्षाओं के कुछ भागों को स्वीकार कर लें और शेष को अनदेखा कर दें, सिर्फ वही चुनें जो हमें पसंद हो। यदि हम बौद्ध धर्म को अपने आध्यात्मिक मार्ग के रूप में स्वीकार करने जा रहे हैं तो फिर हमें इतना उदार तो होना ही चाहिए कि कोई शिक्षा हमें बहुत अजीब लगती हो तब भी हम कह सकें, “मैं इस शिक्षा को समझ नहीं सका हूँ” और “मैं जब तक इसकी और गहराई से व्याख्या न सुन लूँ और इसे बेहतर ढंग से न समझ लूँ, तब तक मैं इसके बारे में अपनी राय कायम नहीं करूँगा।“ यह आवश्यक होता है कि हम अपने चित्त को संकुचित न बनाएं और इन्हें अस्वीकार न करें।

यह समझना कि एक बार फिर मानव के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करना आसान होगा

एक और मिथ्या बोध यह है कि यदि हम पुनर्जन्म की बात को स्वीकार भी कर लें, तब भी हम ऐसा मान लेते हैं कि एक बार फिर मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त कर लेना आसान रहने वाला है। हम अक्सर सोचते हैं, “हाँ, मैं पुनर्जन्म को मानता हूँ, और इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं एक बार फिर मनुष्य के रूप में जन्म लूँगा और मुझे अपनी साधना को जारी रखने के सभी अवसर मिलेंगे,” आदि। ऐसा समझना बहुत बड़ी नासमझी है। खास तौर पर यदि हम इसके बारे में विचार करें कि हमने कितना अधिक विनाशकारी व्यवहार किया है, क्रोध, लोभ, स्वार्थपरायणता आदि जैसे अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में कितना अधिक समय बिताया है – और फिर इसकी तुलना करें कि हमने शुद्ध प्रेम और करुणा के भावों से प्रेरित हो कर कितने समय तक व्यवहार किया है, तो यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि हमें अगली बार फिर मानव के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करने में बहुत कठिनाई होने वाली है।

अपने प्रियजन के साथ बने रहने की दृष्टि से मानव के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करने के लिए प्रयास करना

यह भी एक मिथ्या बोध है कि हम अपने प्रियजनों और परिजनों के साथ बने रह सकें क्योंकि हमें उनके प्रति आसक्ति है, इसलिए हमें मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए। या यह सोचना कि यदि मैं मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त कर सकूँ तो फिर मैं अपने सभी मित्रों, सम्बंधियों और प्रियजन से एक बार फिर मिल सकूँगा। यह भी एक भ्रांति है। यहाँ असंख्य प्रकार के जीव हैं। हममें से प्रत्येक के कर्म इतिहास के अनुसार हम सभी का पुनर्जन्म अलग-अलग अवस्थाओं में होगा। इसलिए इस बात की बिल्कुल भी कोई गारंटी नहीं है कि अगले जन्मों में हमारा पुनर्जन्म किस जीव के रूप में होगा या हम किस-किस से मिलेंगे। वास्तविकता यह है कि इस बात की सम्भावना अधिक है कि हमारे इस जन्म के किसी परिचित से दोबारा भेंट होने में हमें बहुत अधिक लम्बा समय लगने वाला है। उनसे हमारी भेंट हो सकती है; ऐसा नहीं है कि यह असम्भव है। लेकिन यह समझना एक भ्रांति है कि यह बहुत आसान है या ऐसा होने की गारंटी है।

कर्म सम्बंधी भ्रांतियाँ

यह धारणा कि हम बहुत बुरे हैं और अपने नकारात्मक कर्म विपाक के हकदार हैं

कर्म और पुनर्जन्म से जुड़ी एक और बात यह है कि यदि हम इस बात को स्वीकार भी कर लें कि इस जन्म में दुख पिछले जन्मों में संचित किए गए नकारात्मक कर्मों के परिपक्व होने का परिणाम है, तो हम सोचेंगे कि “यदि मुझे दुख भोगना पड़ता है, यदि मेरे साथ कुछ बुरा होता है, तो मैं इसी के योग्य हूँ।“ या यदि आपके साथ वैसा होता है तो आप उसके योग्य हैं। यहाँ भ्रांति यह है कि इस विचार में एक मूर्त रूप में अस्तित्वमान “मैं” निहित है जिसने कानून भंग किया, जो दोषी और बुरा है, और अब उसे उसके दोष के अनुसार दंड मिल रहा है। उस स्थिति में हम दोष “मैं” – इस मूर्त “मैं” पर मढ़ देते हैं जो इतना बुरा है और अब दंडित हो रहा है – ऐसा कर्म के सिद्धांत, व्यवहारगत कारण और प्रभाव के सिद्धांत के बारे में मिथ्या बोध के कारण होता है।

यह धारणा कि हम दूसरों के कर्मों के परिपक्व होने के लिए जिम्मेदार हैं

इसके बाद हम इस दोष की भावना का विस्तार दूसरों के कर्मों के फलों की उत्पत्ति तक कर देते हैं। हम यह नहीं देखते हैं कि कर्म के फल के परिपक्व होने के साथ कई कारक और परिस्थितियाँ जुड़ी हुई होती हैं और उनमें से प्रत्येक के भी स्वयं अपने कारण होते हैं। यह समझना एक मिथ्या बोध है कि मैं दूसरों के कर्मों के फल के परिपक्व होने का कारण हूँ। दूसरों को जो अनुभव हो रहे हैं वे अकेले मेरे कारण न होकर उन सभी कारकों पर अवलंबित उत्पत्ति का परिणाम हैं।

मैं एक उदाहरण दूँगा। मान लीजिए कि कोई कार हमें टक्कर मार देती है। ऐसा नहीं है कि पिछले किसी जन्म में मेरे द्वारा किए गए किसी कृत्य के कारण किसी दूसरे व्यक्ति ने मुझे टक्कर मारी है। यदि हम सोचें, “कर्म की दृष्टि से मैं इस बात के लिए जिम्मेदार हूँ कि उस व्यक्ति ने मुझे टक्कर मारी है,” तो ऐसा सोचना सही नहीं है। कर्म की दृष्टि से हम टक्कर खाने के लिए जिम्मेदार हैं। उस दूसरे व्यक्ति का कर्म उसके द्वारा हमें कार से टक्कर मारे जाने के लिए जिम्मेदार है। इस प्रकार हमारे साथ जो कुछ घटित होता है वह बहुत सारे कार्मिक कारकों की परस्पर क्रिया के साथ-साथ अशांतकारी मनोभावों और सामान्य कारकों – जैसे मौसम: उस समय बारिश हो रही थी, सड़क पर फिसलन थी आदि परिणाम होता है। ये सभी मिलकर एक ऐसा संजाल बनाते हैं जिससे वह स्थिति उत्पन्न होती है जिसमें हमें दुख या समस्याओं की अनुभूति होती है।

गुरुजन के बारे में भ्रांतियाँ

इस बात की अनदेखी करना कि गुरुओं को योग्य और प्रेरणादायी होना चाहिए

अब हम गुरुओं के बारे में बात करें, मैं मानता हूँ कि इस दृष्टि से केवल पाश्चात्य जगत के लोगों के बीच ही नहीं बल्कि दूसरे स्थानों में भी बहुत बड़ी भ्रांति है। सबसे पहले तो गुरु के महत्व को इतनी प्रमुखता दिए जाने के कारण हम इस बात की अनदेखी कर जाते हैं कि गुरुओं को योग्य होना चाहिए – और उनकी योग्यताओं की सूचियाँ दी गई हैं। और यदि गुरु योग्य भी हो तो वह ऐसा होना चाहिए कि हमें प्रेरित कर सके।

आध्यात्मिक गुरु को महत्व दिए जाने का एक प्रमुख कारण यह है कि गुरु प्रेरणा देता है, साधना के लिए हमें ऊर्जा प्रदान करता है और हमारे लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है जिसका हम अनुसरण कर सकें। जानकारी तो हमें पुस्तकों, इंटरनेट आदि से भी मिल सकती है। गुरु ऐसा होना चाहिए जो हमारे प्रश्नों और जिज्ञासाओं का उत्तर दे सके और यदि हमसे अपनी ध्यानसाधना के अभ्यास में कोई गलती हो तो उसे सुधार सके। लेकिन यदि वह हमें प्रेरणा न दे पाए तो फिर हम अपनी साधना में बहुत आगे तक नहीं जा सकेंगे।

समुचित पूर्व जाँच किए बिना किसी को गुरु स्वीकार कर लेना

चूँकि हमें यह मिथ्या बोध होता है कि गुरु जन योग्य ही होंगे और हमें प्रेरणा देंगे, इसलिए हम पहले से पूरी जाँच किए बिना ही किसी को भी अपना गुरु स्वीकार कर लेने की जल्दी में रहते हैं। हम इस बात के दबाव में रहते हैं: “आपका कोई गुरु होना चाहिए; आपको कोई गुरु बना लेना चाहिए।“ ऐसी स्थिति में इस बात की सम्भावना बनी रहती है कि बाद में निष्पक्ष रूप से जाँच करने पर हमें गुरु के दोष दिखाई दें और हमारा भ्रम टूटने पर हमें निराशा हो। क्योंकि हमने ठीक ढंग से जाँच नहीं की। यह एक बड़ी समस्या है, क्योंकि आध्यात्मिक गुरुओं को लेकर ऐसे कई लोकापवाद हुए हैं जहाँ उन अनुचित व्यवहार करने के सही या गलत आरोप लगे हैं। कभी-कभी उन पर ऐसे आरोप सही कारणों से लगाए जाते हैं; ऐसे शिक्षक सचमुच योग्य नहीं होते हैं और हम गुरु पर इतना ज़ोर दिए जाने के दबाव में होते हैं कि वह हमारा गुरु बनना स्वीकार कर लें। और फिर जब हमें अपने गुरु के अनैतिक आचरण के बारे में खबरें मिलती हैं तो हमें आघात पहुँचता है।

यह धारणा कि सभी तिब्बती, विशेषतः मठवासी, और विशेषतः उपाधियुक्त तिब्बती परिपूर्ण बौद्ध होते हैं

इसके सहायक विचार के रूप में, यह मानना एक भ्रांति है कि सभी तिब्बती; या, इसे सीमित करके कहा जाए तो, सभी भिक्षु और भिक्षुणियाँ; या, और भी सीमित अर्थ में कहा जाए तो सभी रिंपोशे, गेशे और केंपो बौद्ध साधना के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। यह एक बड़ी आम भ्रांति है। हम सोचते हैं, “ये लोग सबसे उत्तम बौद्ध होंगे: ये तिब्बती हैं,” या “ये शुद्ध बौद्ध हैं: इन्होंने बौद्धों द्वारा पहने जाने वाले लबादे पहन रखे हैं।“ “ये सबसे अच्छे बौद्ध हैं: इन्हें रिंपोशे की उपाधि दी गई है। ये ज्ञानोदय प्राप्त होंगे।“ ऐसा समझना बड़ी नासमझी है। उनमें से अधिकांश सामान्य लोगों जैसे ही होते हैं।

हो सकता है कि अधिकांश समाजों की तुलना में तिब्बतियों में बौद्ध साधकों का अनुपात अधिक हो और यह भी हो सकता है कि उनकी संस्कृति में कुछ बौद्ध मान्यताएं शामिल हों; लेकिन किसी भी दृष्टि से इसका यह मतलब नहीं है कि वे सभी परिपूर्ण हैं। और यदि कोई व्यक्ति भिक्षु या भिक्षुणी बनता है तो इसके कई कारण हो सकते हैं। तिब्बतियों के मामले में यह कारण हो सकता है कि आपके परिवार ने आपको बचपन में किसी मठ में इसलिए भर्ती करवा दिया हो क्योंकि वे आपका भरण-पोषण नहीं कर सकते थे, और उन्हें लगा कि मठ में आपके भोजन और शिक्षा की व्यवस्था हो जाएगी। इसके पीछे कोई स्वप्रेरित कारण भी हो सकता है – मैं अपने जीवन में समस्याओं का सामना कर रहा हूँ और मुझे इन समस्याओं पर विजय पाने के लिए मठीय जीवन के अनुशासन की आवश्यकता है।

मेरे एक रिंपोशे मित्र ने बताया था, “बौद्ध लबादा धारण करना एक संकेत है कि मुझे इस प्रकार के अनुशासन की आवश्यकता है क्योंकि मैं बहुत अनुशासनहीन व्यक्ति हूँ और मैं अनेक प्रकार के अशांतकारी मनोभावों से ग्रस्त हूँ और इसलिए मैं इन पर विजय पाने के लिए पूरा प्रयास कर रहा हूँ।“ इसका मतलब यह नहीं होता है कि उन्होंने अपने दोषों पर विजय प्राप्त कर ली है। इसलिए हमें अज्ञानतावश यह नहीं समझना चाहिए कि वे लोग, विशेष तौर पर ये रिंपोशे गण, ज्ञानोदय प्राप्त हैं। जैसाकि परम पावन दलाई लामा हमेशा कहते हैं: किसी पूर्ववर्ती के सिर्फ बड़े नाम पर विश्वास कर लेना एक बड़ी भूल है। वे ज़ोर देकर इस बात को कहते हैं कि इन रिंपोशे गण को केवल अपने नाम की प्रतिष्ठा पर निर्भर न हो कर अपनी योग्यताओं को प्रदर्शित और प्रमाणित करना होता है।

भिक्षुओं और भिक्षुणियों का असम्मान करना, उनसे उपासकों की सेवा करवाना

वहीं दूसरी ओर, भिक्षुओं और भिक्षुणियों का सम्मान और सहायता न करना, बल्कि धर्म के केंद्रों में उनसे उपासकों की सेवा का कार्य करवाना एक भ्रांत धारणा है। अक्सर ऐसा होता है कि किसी भी धर्म केंद्र में एक निवासी भिक्षु या भिक्षुणी होते हैं। इस भिक्षु या भिक्षुणी के जिम्मे केंद्र की सफाई करने, उसे साफ-सुथरा रखने और उपदेशों की व्यवस्था करने, शुल्क आदि जमा करने का काम होता है। और यदि वह आवासीय केंद्र हो तो उन्हें सप्ताहांत के पाठ्यक्रमों के लिए आने वाले लोगों के ठहरने आदि की व्यवस्था करनी होती है और व्यस्तता के कारण उन्हें उपदेशों में शामिल होने का भी समय नहीं मिल पाता है। वहाँ ऐसी दशा होती है जैसे वहाँ के उपासक उन्हें अपना सेवक मानते हों।

स्थिति इसके उलट होनी चाहिए। आचारनीति की दृष्टि से उनका जो भी स्तर हो, भिक्षु और भिक्षुणियों के रूप में वे सम्मान के हकदार होते हैं। शरणागति या संघ की शरण लेने सम्बंधी शिक्षा में यह बात शामिल है: सभावस्त्रों का भी सम्मान किया जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप ऐसा मान लें कि वे परिपूर्ण हैं और निष्कपट हैं। लेकिन एक निश्चित स्तर का सम्मान प्रकट किया जाना आवश्यक होता है।

यह कल्पना करना कि गुरु पूरी तरह दोषमुक्त हैं और अपने जीवन का पूरा दायित्व उन पर छोड़ देना

इसके अलावा “गुरु भक्ति” की इस तथाकथित अभिव्यक्ति को लेकर भी एक बड़ी भ्रांति व्याप्त है। मुझे लगता है कि यह अनुवाद बहुत उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ में गुरु की लगभग अंधभक्ति का भाव प्रतीत होता है जैसा किसी उपासना पद्धति में होता है। यह एक बड़ी भ्रांति है। आध्यात्मिक गुरु के साथ सम्बंध के बारे में यहाँ जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसका अर्थ यह है कि किसी पर उस प्रकार विश्वास और भरोसा किया जाए जैसे कोई व्यक्ति किसी योग्य चिकित्सक पर निर्भर करता है और उस पर भरोसा करता है। इसलिए गुरु के साथ सम्बंध के लिए उसी शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका प्रयोग हम अपने चिकित्सक के साथ अपने सम्बंध के लिए करते हैं। लेकिन क्योंकि गुरु को किसी बुद्ध के रूप में देखने की हिदायत दी जाती है, इसलिए हम भ्रमवश ऐसा समझते हैं कि हमारा शिक्षक कोई गलती नहीं कर सकता है और इसलिए हमें कोई प्रश्न पूछे बिना गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए, जैसा कि किसी उपासना पद्धति में होता है। यह एक भूल है। इसी वजह से हम गुणदोष परीक्षा करना बंद कर देते हैं और मो (पाँसा फेंक कर भविष्य दर्शन) के माध्यम से भविष्य निर्णय पर निर्भर हो जाते हैं – बस पाँसा फेंकिए और अपने बारे में सारे निर्णय करवा लीजिए।

हम स्वयं बुद्ध बनने की दिशा में प्रयासरत हैं, ऐसा सविवेक बोध विकसित करना चाहते हैं कि हम हम स्वयं विवेकबोध के आधार पर करुणासम्पन्न निर्णय कर सकें। ऐसी स्थिति में यदि कोई शिक्षक हमें अपने ऊपर निर्भर बनाना चाहता है, तो कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। इसे सही मान लेना और उसके आधार पर आगे बढ़ना एक मिथ्या बोध है। किसी शिक्षक को अपने ऊपर सत्ता और नियंत्रण सौंप देने की ऐसी स्थिति का मतलब है कि हम दिशानिर्देशों का ठीक ढंग से पालन नहीं कर रहे हैं।

गुरु की कल्पना किसी चिकित्सक या पुरोहित के रूप में करना

यह भी एक भ्रांति है कि हम किसी बौद्ध शिक्षक को किसी पुरोहित या चिकित्सक की भूमिका में देखने लगें और उसके साथ अपनी निजी समस्याओं की चर्चा करके उनके समाधान के लिए सलाह मांगने लगें। यह तो बौद्ध शिक्षक की भूमिका नहीं है। कोई भी बौद्ध शिक्षक पारम्परिक तौर पर उपदेश देता है और यह तय करना हमारा काम है कि हम उसके द्वारा दी गई शिक्षाओं को किस प्रकार व्यवहार में लागू करें। शिक्षक से तो बस शिक्षाओं को समझने के लिए और अपनी ध्यानसाधना के अभ्यास के बारे में प्रश्न पूछना ही उचित है।

यदि आपको कोई मनोवैज्ञानिक समस्या होती है तो उसके समाधान के लिए आप किसी चिकित्सक के पास जाते हैं; इसके लिए आप अपने आध्यात्मिक गुरु के पास तो नहीं जाते हैं। और खास तौर पर किसी भिक्षु या भिक्षुणी के साथ वैवाहिक या सम्बंधों के बारे में या यौन समस्याओं के बारे में चर्चा करना अनुचित है। वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे इन विषयों से जुड़े नहीं होते हैं। इन लोगों से ऐसी समस्याओं के बारे में सलाह नहीं माँगनी चाहिए। लेकिन, चूँकि हम पुरोहितों, पुजारियों और रब्बी धर्मगुरुओं की परम्परा से आते हैं, इसलिए हम उनसे यह अपेक्षा कर लेते हैं कि वे निजी जीवन की कठिनाइयों की स्थितियों में पुरोहित की सामान्य भूमिका को निभाते हुए हमारा मार्गदर्शन करेंगे।

यहाँ मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। मैं अपने आध्यात्मिक गुरु त्सेनझाब सरकांग रिंपोशे के साथ नौ वर्ष तक रहा, हर दिन हम अधिकांश समय साथ-साथ ही होते थे। उन नौ वर्षों में उन्होंने मुझसे कभी कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं पूछा। कभी भी नहीं। न मेरे निजी जीवन के बारे में। न मेरे परिवार के बारे में, न मेरी पृष्ठभूमि के बारे में। कभी कोई प्रश्न नहीं पूछा। हमारी रोजमर्रा बस यही होती थी कि या तो वे मुझे शिक्षा दे रहे होते थे, या मैं उनके साथ मिलकर दूसरों की भलाई के लिए काम कर रहा होता था – उनके लिए अनुवाद कार्य करता था, उनकी यात्राओं की व्यवस्था देखता था, या जो भी कार्य हो उसे करता था। इस प्रकार यह एक बिल्कुल अलग प्रकार का सम्बंध था जो वैसे सम्बंध से भिन्न है जिसके हम पश्चिम जगत में अभ्यस्त हैं, और इसलिए उस प्रकार के सम्बंध को समझ पाना हमारे लिए आसान नहीं है।

शरणागति – अपने जीवन को सुरक्षित दिशा देने के महत्व को घटाना

किसी शिक्षक का शिष्यत्व ग्रहण करने की दृष्टि से अब हम शरण के विषय की चर्चा करेंगे, मैं इसे “सुरक्षित दिशा” कहना पसंद करता हूँ। इसका मतलब है कि हम अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा की ओर मोड़ते हैं जिसे बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाने के रूप में दर्शाया गया है। यदि हम शरणागति को केवल किसी क्लब की सदस्यता पा लेने जैसा समझते हैं तो यह एक भ्रांत धारणा है। आप अपने बाल कटवा लेते हैं, अपने गले मे एक लाल रंग का धागा पहन लेते हैं, कोई तिब्बती नाम रख लेते हैं, और बस आप उस क्लब के सदस्य हो गए। यह समस्या उस समय खास तौर पर उत्पन्न होती है जब शिक्षक किसी विशेष तिब्बती गुरु परम्परा का होता है, हम समझते हैं कि हम सामान्य दृष्टि से बौद्ध मत के सदस्य होने के बजाए तिब्बती मौद्ध मत की किसी विशिष्ट परम्परा के सदस्य बन गए हैं: “अब मैं एक गेलुग्पा हो गया हूँ।“ “अब मैं एक कर्म काग्यू हो गया हूँ।“ “अब मैं एक न्यिंग्मा हो गया हूँ।“ “अब मैं शाक्य हो गया हूँ।“ इसके बजाए हमें सोचना चाहिए: “अब मैं बुद्ध के मार्ग पर चल रहा हूँ।“ इस प्रकार की भ्रांति के कारण हम संप्रदायवादी, एकांतिकतावादी हो जाते हैं, और अपने संप्रदाय के धर्म केंद्र के अलावा और किसी धर्म केंद्र में नहीं जाते हैं। यह देख कर बड़ी हैरानी होती है कि धर्म केंद्रों में जाने वाले अधिकांश पाश्चात्य बौद्ध साधक केवल एक धर्म केंद्र में जाते हैं और दूसरे किसी धर्म केंद्र में कभी कदम नहीं रखते।

पश्चिम जगत में आने वाला हर शिक्षक अपना अलग धर्म केंद्र और संगठन स्थापित करना चाहता है

इससे भी ज्यादा भ्रम उत्पन्न करने वाली बात यह है कि ऐसा लगता है कि पश्चिम जगत में आने वाला हर पारम्परिक शिक्षक अपना अलग धर्म केंद्र और संगठन स्थापित करना चाहता है। मैं मानता हूँ कि यह एक बड़ी भूल है, क्योंकि उस स्थिति में यह विचार अव्यावहारिक हो जाता है। आप भविष्य में बौद्ध धर्म के 400 अलग-अलग ब्रांडों को अनिश्चित काल तक पोषित और जीवित नहीं रख सकते हैं। इसके अलावा यह स्थिति नए छात्रों के लिए भी बहुत भ्रामक है। इतना ही नहीं, पूजा वेदी, पुस्तकालयों, किराए के भुगतान आदि की दृष्टि से इन सभी केंद्रों का वित्तपोषण एक बड़ा बोझ बन जाता है। हालाँकि तिब्बत में भी अलग-अलग शिक्षक भारत से और नेपाल से आए थे और अनेक अलग-अलग मठों की स्थापना की गई, लेकिन कालांतर में वे सब एक साथ आ गए और उन्होंने अपने-अपने समूह बना लिए। ये समूह भारत में मौजूद समूहों से अलग थे – भारत में काग्यू या शाक्य नहीं हैं – लेकिन वे ऐसे बड़े समूहों में मिल गए जो व्यावहारिक थे और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न गुरु परम्पराएं भी साथ आ गईं।

हालाँकि पश्चिम जगत में धर्म के बड़े-बड़े संगठन मौजूद हैं जैसे त्रुंग्पा रिंपोशे, सोग्याल रिंपोशे, लामा येशे और लामा ज़ोपा आदि द्वारा कुछ संगठनों की शुरुआत की गई है, फिर भी हमें विचार करना चाहिए कि ये समूह एक साथ आ सकें और अधिक व्यापक गुरु परम्पराओं का निर्माण हो सके, जैसाकि तिब्बत में हुआ था। लेकिन ऐसा करते समय हमें दो बातों में अति करने से बचना चाहिए। एक तो यह है कि यदि पाश्चात्य बौद्ध मत यदि बहुत अधिक खंडों में बिखरा हुआ हो तो वह सफल नहीं होगा। वहीं दूसरी ओर यदि उस पर बहुत अधिक नियंत्रण होगा, तो वह भी सफल नहीं होगा। इसलिए बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। लेकिन मुझे लगता है कि उसे टिकाऊ बनाना एक बड़ी चुनौती है।

यह धारणा कि यदि हमने एक गुरु बना लिया, तो फिर हम दूसरे गुरुओं से शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते हैं

दूसरे धर्म केंद्रों में न जाने की प्रवृत्ति की दृष्टि से यह समझना भी एक भ्रांति है कि हम दूसरे शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते हैं, फिर भले ही शिक्षक हमारे अपने शिक्षक की गुरु परम्परा वाले ही क्यों न हों। अधिकांश तिब्बतियों के एक से अधिक शिक्षक होते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा उल्लेख मिलता है कि अतिश के 155 शिक्षक थे। अलग-अलग शिक्षकों को अलग-अलग विषयों में महारत होती है। कोई एक शिक्षक किसी एक विषय को अच्छा समझा सकता है तो कोई दूसरा शिक्षक किसी और विषय का विशेषज्ञ होता है। कोई एक शिक्षक किसी एक गुरु परम्परा से होता है तो दूसरा किसी और गुरु परम्परा का होता है। यदि आपके कई शिक्षक हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि आप अपने शिक्षक के प्रति निष्ठावान नहीं हैं। जैसाकि परम पावन दलाई लामा कहा करते हैं: हम अपने गुरुओं को ग्यारह सिरों वाले अवलोकितेश्वर के रूप में देख सकते हैं, जहाँ प्रत्येक शिक्षक एक शीश के समान है, और वे सभी मिलकर हमारे आध्यात्मिक मार्गदर्शन के शरीर का निर्माण करते हैं।

ऐसे बहुत से शिक्षकों का शिष्य होना जिनके बीच परस्पर असहमति हो

तब यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम ऐसे बहुत से शिक्षक न चुनें जो एक-दूसरे से असहमत हों। ऐसा होने पर काम नहीं चलता है। आपको ऐसे शिक्षकों का चुनाव करना चाहिए जिनके बीच अच्छी आपसी घनिष्ठता और समरसता हो जिसे तिब्बती भाषा में डैम-त्शिग कहा जाता है। ऐसा इसलिए आवश्यक है क्योंकि दुर्भाग्य से ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसे हम कुछ मुद्दों पर असहमति रखने वाले विभिन्न आध्यात्मिक गुरुओं के बीच “आध्यात्मिक स्टार वॉर्स” की संज्ञा देते हैं। यह असहमति रक्षकों को लेकर, या इस बात को लेकर हो सकता है कि असली करमापा कौन है या किसी दूसरे कारण से हो सकती है। इसलिए, यदि आप एक से अधिक गुरुओं से शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो ऐसे शिक्षकों को चुनें जिनके बीच सम्मति हो।

यह धारणा कि यदि आप कोई व्याख्यान सुनते हैं तो उसका वक्ता आपका आध्यात्मिक गुरु हो जाता है

यहाँ इस बात को समझना भी आवश्यक है कि किसी बौद्ध शिक्षक के किसी व्याख्यान को सुनने मात्र से वह व्यक्ति स्वतः ही आपका आध्यात्मिक गुरु नहीं बन जाता है जिसके प्रति आपको निष्ठा रखनी हो, हालाँकि इसमें संदेह नहीं है कि उस व्यक्ति के प्रति हमें सम्मान तो प्रकट करना ही चाहिए। जैसाकि परम पावन कहा करते हैं, “आप किसी का भी उपदेश सुनने के लिए जा सकते हैं और उसमें वैसे ही भाग ले सकते हैं जैसे आप कोई व्याख्यान सुन रहे हों, जैसा किसी विश्वविद्यालय में दिए जाने वाले व्याख्यान के मामले में होता है।“ इससे अधिक इसका कोई और निहितार्थ नहीं है।

अभ्यास साधना सम्बंधी भ्रांतियाँ

अध्ययन और अभ्यास के बीच तालमेल न बैठाना

जहाँ तक अभ्यास का प्रश्न है, यह समझना एक भ्रांति है कि गेलुग परम्परा शुद्ध रूप से एक अध्ययन परम्परा है और काग्यू और न्यिंग्मा शुद्ध रूप से अभ्यास की परम्पराएं हैं। यह समझ न होने के कारण हमारे मन में यह विचार आ सकता है कि यदि हम इनमें से किसी एक का पालन करते हैं तो दूसरे पक्ष की उपेक्षा करेंगे – या तो हम अध्ययन की उपेक्षा करेंगे या फिर अभ्यास की उपेक्षा करेंगे। यदि हमारे शिक्षक इनमें से किसी एक पर अधिक बल देते हैं – अध्ययन पर या फिर ध्यान साधना पर बल देते हैं – तो इसका यह मतलब नहीं है कि हम इनमें से किसी एक को करें और दूसरे की उपेक्षा कर दें। यह बात बहुत स्पष्ट है कि हमें दोनों की आवश्यकता है।

कुछ समय पहले धर्मशाला के ग्रंथागार में 70 और 80 के दशकों में अध्ययन कर चुके पश्चिम जगत के कुछ लोगों के एक समूह को सम्बोधित करते समय परम पावन दलाई लामा ने एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि तंत्र, महामुद्रा, जोग्चेन और ऐसी ही दूसरी उन्नत साधनाएं हाथ की उँगलियों के समान हैं। नालंदा मठ की भारतीय परम्परा की शिक्षाएं, नालंदा में सूत्र के भारतीय आचार्यों की शिक्षाएं हाथ की हथेली की तरह इनका आधार हैं। उँगलियों को बहुत अधिक महत्व देना एक भ्रांत धारणा है। छात्रों को केवल उँगलियों के अध्ययन और अभ्यास की शिक्षा दी जाती है और हाथ को अनदेखा कर दिया जाता है। उँगलियाँ हाथ से ही निकलती हैं और स्वयं अपने आप कार्य नहीं कर सकती हैं। परम पावन ने इसी उपमा, इसी सादृश्य का प्रयोग किया, और मैं मानता हूँ कि यह बहुत उपयोगी सलाह है। ऐसा सोचना भ्रांतिपूर्ण है, “मुझे सिर्फ जोग्चेन का अभ्यास करने की आवश्यकता है; बस सहज होकर बैठ जाएं।“ ऐसा करने मतलब यह होता है कि हम इन शिक्षाओं के आधार को समझे बिना इनका अतिसरलीकरण कर रहे हैं।

यह धारणा कि हम मिलारेपा हैं और हमें आजीवन एकांतवास पर जाने की आवश्यकता है

इसी प्रकार यह सोचना भी एक भ्रांत धारणा है कि हम मिलारेपा हैं और हर किसी को – खास तौर पर हमें – आजीवन एकांतवास पर जाने की या कम से कम तीन वर्ष का एकांतवास करने की आवश्यकता है। सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही आजीवन एकांतवास करना उपयुक्त होता है; अधिकांश को सामाजिक कल्याण के कार्यों में लगना चाहिए। परम पावन दलाई लामा सीधे यही सलाह देते हैं। ऐसा बहुत विरले ही होता है कि हम सचमुच आजीवन ध्यानसाधना के एकांतवास के लिए उपयुक्त हों या गहन स्तर पर अपने आप में सुधार किए बिना केवल बैठे-बैठे तीन सालों तक मंत्रों को दोहरा कर तीन सालों की एकांतवास साधना से लाभान्वित हो सकते हों।

यह धारणा कि हम केवल अपने खाली समय में ध्यानसाधना करके ही ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं

इसमें संदेह नहीं है कि मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त करने के लिए गहन पूर्णकालिक धर्म साधना की आवश्यकता होती है, और यह अनुमान लगा लेना एक भूल है कि पूर्णकालिक अभ्यास के बिना ही हम मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं। हम सोचते हैं, “मेरे लिए खाली समय में अभ्यास कर लेना ही काफी है और उसी से मुझे मुक्ति और ज्ञानोदय की प्राप्ति हो जाएगी।“ यह भी एक भ्रांत धारणा है। लेकिन भ्रांत धारणा यह भी है कि हम इस समय गहन साधना करने की अपनी क्षमता के बारे में व्यावहारिक दृष्टिकोण न अपनाएं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब हम अपने ऊपर बहुत ज्यादा दबाव डालते हैं और उस प्रकार की साधना को नहीं कर पाते हैं तो हमें बड़ी हताशा होती है। इससे हमारे भीतर हताशाजनक अशांतकारी ऊर्जा, जिसे तिब्बती लोग लंग कहते हैं, उत्पन्न होती है जो मनोवैज्ञानिक, भावात्मक और शारीरिक स्तर पर हमारे ऊपर बहुत विपरीत प्रभाव उत्पन्न करती है।

इस बारे में व्यावहारिक दृष्टिकोण न अपनाना कि हमें ज्ञानोदय तक पहुँचने में कई युग का समय लगेगा

इसका सम्बंध भी कुछ हद तक पुनर्जन्म में विश्वास न करने से है, क्योंकि जब हम पुनर्जन्म को नहीं मानते हैं, तो कई-कई युगों के बाद हासिल होने वाले हमारे दीर्घकालिक लक्ष्यों के बारे में हमारा दृष्टिकोण गम्भीर नहीं होता है। एक शिक्षा में कहा गया है कि इसी जीवनकाल में ज्ञानोदय को प्राप्त कर लेना सम्भव है, लेकिन इस कारण से हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, “हमारे पास तो यही एक जन्म है, क्योंकि पुनर्जन्म तो होता ही नहीं है,” और इसलिए हमें ऐसे कार्य के लिए अपने आप पर बहुत दबाव डालने की क्या आवश्यकता जिसे हम केवल अभी ही कर सकते हैं।

सतत दैनिक अभ्यास के महत्व को कम करके आँकना

यदि इसके दूसरे पक्ष को देखा जाए, तो दैनिक अभ्यास साधना को कम महत्व देना एक भूल है। यदि हम सतत धर्म साधना करना चाहते हैं तो दैनिक ध्यान साधना का नियमित कार्यक्रम रखना आवश्यक है। अनुशासन, प्रतिबद्धता, हमारे जीवन की स्थिरता और विश्वसनीयता की दृष्टि से इसके अनेकानेक फायदे हैं: चाहे कुछ भी हो जाए, मैं प्रतिदिन ध्यानसाधना का अभ्यास करूँगा। यदि हम और अधिक लाभकारी अभ्यास विकसित करना चाहते हैं, यही ध्यानसाधना का ध्येय है, तो फिर हमें अभ्यास करना होगा।

वीडियो: गेशे ल्हाकदोर – सच्ची ध्यान साधना
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“अभ्यास” का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि हम विश्लेषण और बार-बार दोहराव के माध्यम से किसी लाभकारी आदत को विकसित करें। उदाहरण के लिए, एक नियंत्रित वातावरण में हम विभिन्न प्रकार की ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थितियों की कल्पना कर सकते हैं जिनमें हम परेशान हो जाते हैं और फिर अपने भावात्मक उथल-पुथल के कारणों की समीक्षा कर सकते हैं। हम यह जाँच सकते हैं, “मैं इस स्थिति में या उस स्थिति में परेशान क्यों हो जाता हूँ? उदाहरण के लिए, जब मैं अस्वस्थ होता हूँ तो चिड़चिड़ा क्यों हो जाता हूँ? क्या ऐसा इसलिए है...? फिर हम और अधिक गहराई से, और अधिक गहराई से जाँचते हैं और पाते हैं, “मैं अपने ही ऊपर केंद्रित हूँ। ‘मैं’ दुखी हूँ। बेचारा ‘मैं’।“

यदि हम बीमार होने की स्थिति में जानबूझ कर यह न भी सोचें कि “बेचारा मैं”, तब भी यदि हम ईमानदारी से विचार करें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि सामान्यतः हमारा ध्यान “मैं” पर ही केंद्रित होता है जिसे हम सबसे महत्वपूर्ण बना देते हैं। और फिर, चूँकि हम जो कुछ अनुभव कर रहे होते हैं वह हमें पसंद नहीं होता है, इसलिए हम क्रोधी हो जाते हैं और अपने क्रोध को दूसरों पर उतारते हैं। इसलिए, ध्यानसाधना करते समय हम इस तरह की स्थितियों का विश्लेषण करते हैं, और फिर उस चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने के लिए किसी और अधिक लाभकारी मनोभाव – इस मामले में धैर्य – को विकसित करते हैं। ऐसी स्थितियों की विवेचना करने और फिर किसी प्रकार के लाभप्रद अभ्यास को विकसित करने की साधना करने का यह दैनिक अभ्यास अत्यंत लाभकारी है। ऐसा सोचना एक बड़ी भ्रांति है कि इसके बिना हमारा काम चल सकता है।

यह धारणा कि बौद्ध साधना का मतलब केवल एक अनुष्ठान है

यह सोचना भी एक मिथ्या बोध है कि बौद्ध साधना करने का मतलब केवल कर्मकांड करना है और यह मूलतः आत्मसुधार करने के बारे में नहीं है। कई लोग समय-समय पर किसी समूह में या फिर अकेले ही किसी साधना, यानी किसी तांत्रिक मानसकल्पना के पाठ का उच्चारण करते हैं। और अक्सर वे इसका उच्चारण तिब्बती भाषा – जिसे वे समझते तक नहीं हैं – में करते हैं और सोचते हैं कि यही “साधना” है। द्ज़ोंसार ख्येंत्से रिंपोशे ने इसके लिए एक बहुत अच्छी उपमा दी है। उन्होंने कहा कि यदि तिब्बतियों को हर दिन तिब्बती लिपि में लिखी हुई जर्मन भाषा में प्रार्थनाओं और विभिन्न ग्रंथों का पाठ करने के लिए कहा जाए, तो बहुत से तिब्बती लोग इस बात को बिल्कुल भी समझे बिना ही कि वे क्या उच्चारण कर रहे हैं, इसका पाठ करने लगेंगे। पश्चिम जगत के हम लोग भी यही करते हैं और समझते हैं कि यही अभ्यास साधना है और ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए इतना कर लेना ही काफी है। लेकिन असली साधना का मतलब तो अपना सुधार करना होता है: अपने मनोभावों को बदलने के लिए प्रयत्न करना होता है, विश्लेषण और बोध के माध्यम से अपने अशांतकारी मनोभावों पर विजय प्राप्त करना होता है, और इसकी सहायता से प्रेम, करुणा, सही बोध आदि जैसे लाभकारी अभ्यासों को विकसित करना होता है।

यह धारणा कि ठीक ढंग से धर्म की साधना करने के लिए हमें तिब्बती रीति-रिवाजों को अपनाना चाहिए

एक और भ्रांत धारणा यह मानना है कि ठीक ढंग से धर्म की साधना करने के लिए हमें अपने निजी “मंदिर कक्ष” में या धर्म केंद्र में भी तिब्बती शैली की बड़ी सी पूजा वेदी बनवाने जैसी तिब्बती रीतियों या दूसरी एशियाई परिपाटियों का पालन करना चाहिए। बेशक पश्चिम जगत में आने वाले बहुत से तिब्बती शिक्षक धर्म केंद्र की स्थापना करना चाहतें हैं और उन्हें तिब्बती मंदिरों जैसी साज-सज्जा देना चाहते हैं और दीवारों को उसी ढंग से पुतवाना और चित्रकारी से सजवाना चाहते हैं।

मेरे तिब्बती मित्र यही कहेंगे, “यदि आप पश्चिम के लोगों को यह पसंद है, तो फिर क्यों नहीं? इसमें कोई बुराई नहीं है।“ लेकिन यह समझना एक बड़ी भूल है कि उस प्रकार की सजावट करना नितांत आवश्यक है। खास तौर पर तब जब इसमें बहुत अधिक खर्च होता है, इस पैसे का इस्तेमाल दूसरे कार्यों में और अधिक उपयोगी ढंग से किया जा सकता है। इसलिए, चाहे धर्म केंद्र की बात हो या हमारे अपने घर की बात हो, हमें तिब्बती बौद्ध धर्म की साधना करने के लिए तिब्बती शैली के किसी बड़े ताम-झाम की आवश्यकता नहीं है। जिस कमरे में हम ध्यानसाधना करते हैं, यदि वह साफ-सुथरा हो और हम जो साधना कर रहे हैं उसके प्रति सम्मान का भाव रखें तो इतना ही काफी है।

यह धारणा कि हम बहुत कम समय में ही अपने अशांतकारी मनोभावों से मुक्ति पा लेंगे

हालाँकि धर्म में मुख्यतः हमारे दुख के कारणों – अर्थात हमारे अज्ञान, वास्तविकता के बारे में हमारी अनभिज्ञता और हमारे अशांतकारी मनोभावों - को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने पर बल दिया जाता है, किन्तु यह मान लेना एक भ्रांत धारणा है कि हम बहुत कम समय में ही अशांतकारी मनोभावों पर विजय पा लेंगे। हम इस तथ्य को आसानी से भुला देते हैं कि जब हम अर्हत हो जाएंगे, मुक्त जीव हो जाएंगे तभी हम क्रोध, आसक्ति आदि से मुक्त हो सकेंगे, हालाँकि इस मार्ग में हम कम मात्रा में ही सही इन मनोभावों को अनुभव करते रहेंगे। यदि हम इस बात को भुला दें तो फिर कई वर्षों की साधना के बावजूद क्रोध आने पर हम निरुत्साहित हो जाएंगे। ऐसा होना एक आम बात है।

इसलिए धैर्य न रख पाना एक भूल है। हमें इस बात को समझना होगा कि हमारी धर्म साधना में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसार चक्र में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लम्बे समय के अभ्यास के बाद हम सुधार की आशा कर सकते हैं, लेकिन यह आसान नहीं रहने वाला है। इसलिए उतार आने के समय अपने ऊपर धैर्य न रख पाना एक भूल है। लेकिन वहीं दूसरी ओर हमें इस अति से भी बचना चाहिए कि हम अपनी नकारात्मक आदतों के प्रति बहुत शिथिल दृष्टिकोण अपनाएं और आत्मसुधार करने में शिथिलता बरतें या आलस्य करें। यहाँ मध्यम मार्ग यह है कि यदि हमें इतनी साधना के बाद भी क्रोध आता हो तो हम अपने आप को दंडित न करें, वहीं दूसरी ओर यह भी न करें कि बस इतना भर कहें, “मुझे गुस्सा आ रहा है,” या “मेरी मनोदशा अच्छी नहीं है,” और फिर उस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए धर्म की किसी विधि का अभ्यास भी न करें।

यह समझना बहुत दिलचस्प होता है कि जब हमारी मनोदशा अच्छी नहीं होती है तब हम राहत पाने के लिए किस चीज़ का आश्रय लेते हैं। क्या मैं उस स्थिति में ध्यानसाधना का रुख करता हूँ? क्या मैं शरण लेता हूँ? या फिर मैं चॉकलेट, या सैक्स, या टेलीविजन, या मित्रों के साथ गपशप करने या इंटरनेट सर्फ करने का सहारा लेता हूँ? मैं किस चीज़ का आश्रय लेता हूँ? हम अपनी खराब मनोदशा को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय करते हैं - मैं समझता हूँ कि इससे हमारी धर्म साधना के बारे में बहुत कुछ पता चलता है।

सारांश

इस समय बैठ कर इसके बारे में विचार करते समय ये कुछ भ्रांतियाँ हैं जो मेरे दिमाग में आती हैं। मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि ऐसी और भी बहुत सी भ्रांतियाँ हैं जिन्हें इस सूची में शामिल किया जा सकता है। जैसाकि मैंने पहले कहा, बहुत सी भ्रांतियाँ तो केवल उपलब्ध सामग्री के कारण उत्पन्न होती हैं, खास तौर पर शून्यता, विभिन्न धर्म पद्धतियों आदि के बारे में सामग्री के कारण उत्पन्न होती हैं। धर्म के बारे में एक प्रमुख बात यह है कि: बुद्ध ने जो भी शिक्षा दी वह दूसरों की भलाई के लिए थी। यदि हम इस बात को गंभीरता से लें तो फिर हम यह पता लगाने का प्रयास कर सकते हैं कि शिक्षाओं में कही गई इन भ्रामक बातों का क्या प्रयोजन है। यदि हमें कोई बात समझ में न आए तो हमें धर्म में बताई गई विधियों और तर्क की सहायता से उन्हें समझने का प्रयास करना चाहिए, और यदि हम उन्हें न समझ सकें, तो फिर हमें किसी ऐसे व्यक्ति से पूछना चाहिए जो हमारी दृष्टि में उस विषय का जानकार हो। यदि हम ऐसा उदार दृष्टिकोण अपनाएं कि हमारा बहुत सा भ्रम तो स्वयं हमारे मिथ्या बोध के कारण उत्पन्न होता है, तो हम उदार मन से सही बात को स्वीकार कर सकेंगे और शिक्षाओं से अधिक से अधिक लाभ उठा सकेंगे।

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