सेरकोँग रिंपोछे: एक विशुद्ध लामा

जर्मनी के लिए रवाना होने से पहले परम पावन दलाई लामा के साथ औपचारिक बैठक वार्ता

एक लम्बी व्याख्यान यात्रा और मंगोलिया तथा पश्चिम में गहन लेखन कार्य करने के बाद मैं अप्रैल 1998 में धर्मशाला, भारत लौटा। मैं 1969 से हिमालय की तलहटी में रहते हुए अपना अध्ययन और परम पावन दलाई लामा के इर्द-गिर्द एकत्र तिब्बती शरणार्थी समाज के साथ मिलकर कार्य कर रहा था। अब मैं अपना सामान लेकर म्यूनिख, जर्मनी लौटने के लिए आया था जहाँ लौटकर मैं और अधिक दक्षता के साथ अपनी पुस्तकें लिख सकता था और ज़्यादा नियमित ढंग से बौद्ध धर्म के बारे में शिक्षण कार्य कर सकता था। मैं परम पावन को अपने निर्णय के बारे में सूचित करना चाहता था और इस सम्बंध में उनका परामर्श लेना चाहता था। मेरे आध्यात्मिक गुरु के रूप में परम पावन ने पहले एक बार मुझे निर्देश दिया था कि मैं अपना निर्णय स्वयं करूं कि दूसरों के लिए सार्थक योगदान करने के लिए मैं अपना समय किस प्रकार और कहाँ बिताऊँ। इस कार्य में अनुभव मेरा सबसे भरोसेमन्द मार्गदर्शक सिद्ध होने वाला था।

जब मेरी परम पावन के साथ पहली भेंट हुई थी तब मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय के सुदूर पूर्वी भाषाओं तथा संस्कृत और भारतीय अध्ययन विभागों कि लिए अपना पीएच.डी. शोधप्रबंध लिखने के लिए फुलब्राइट स्कॉलर के रूप में भारत आया था। उन दिनों शैक्षणिक दृष्टि से बौद्ध धर्म को मिस्र के पुरातत्व के अध्ययन की ही भांति एक अप्रचलित विषय के रूप में पढ़ाया जाता था। मुझे यह स्थिति स्वीकार नहीं थी और मैंने कई वर्ष यह विचार करते हुए बिताए थे कि किसी बौद्ध की तरह जीवन जीना और सोचना किस प्रकार का अनुभव होगा। परम पावन से भेंट करने पर मैं इस विचार से अभिभूत हो गया कि यह प्राचीन परम्परा अभी तक जीवित थी और परम पावन मुझे एक ऐसे गुरु लगे जो इस परम्परा का पूरी तरह ज्ञान रखते थे और उसे मूर्त रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते थे।

कुछ महीने बाद मैंने स्वयं को परम पावन के समक्ष प्रस्तुत किया और उनसे अनुरोध किया कि वे मुझे प्रामाणिक शिक्षाओं को सीखने और उनका प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें। मैं परम पावन की सेवा करना चाहता था और जानता था कि अपने ऊपर कड़ी मेहनत करके मैं स्वयं को इस योग्य बना सकता था। परम पावन ने कृपा करके मेरे प्रस्ताव को स्वीकार किया। फलतः मुझे उनके अनियतकालीन अनुवादकों में से एक अनुवादक के रूप में काम करने और उनकी ओर से दुनिया भर में आध्यात्मिक नेताओं तथा शैक्षिक संस्थानों के साथ सम्पर्क स्थापित करने में सहायता करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

अपना ठिकाना बदल कर यूरोप जाने के मेरे निर्णय के बारे में परम पावन ने प्रसन्नता ज़ाहिर की और मुझसे पूछा कि मैं अगली किताब किस विषय पर लिखने वाला हूँ। मैंने उन्हें बताया कि मेरी इच्छा एक आध्यात्मिक गुरु के साथ सम्बंध के विषय पर पुस्तक लिखने की है।

परम पावन के साथ पश्चिम के बौद्ध शिक्षकों के नेटवर्क की तीन बैठकों में हिस्सा ले चुकने के कारण मैं इस विषय पर पश्चिम के लोगों की समस्याओं के बारे में परम पावन के दृष्टिकोण से भली भांति परिचित था। परम पावन ने इस सम्बंध में केवल इतनी बात और जोड़ दी थी कि समस्या मुख्यतः इस कारण है कि बहुत कम शिक्षक ही वास्तव में योग्यता रखते हैं।

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