अतिशा का जीवन

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बाल्यकाल तथा राजसी जीवन का परित्याग

पूर्वी भारत के बंगाल स्थित सहोर के स्वर्ण पताका प्रासाद में सम्राट कल्याण और उनकी साम्राज्ञी प्रभावती रहा करते थे। राजप्रासाद में तेरह स्वर्णजड़ित छतें थीं जो एक-दूसरे के ऊपर बनी थीं, और 25,000 स्वर्ण-पताकाओं से सुसज्जित थीं। प्रासाद अनगिनत उद्यानों, तालाबों, और सुन्दर बाग-बगीचों से घिरा था। उनका साम्राज्य चीन के समृद्ध राजवंशों की ही भांति वैभवसम्पन्न था।

राज-दम्पत्ति के तीन पुत्र थे, पद्मगर्भ, चंद्रगर्भ, और श्रीगर्भ। इनमें से दूसरा राजकुमार बड़ा होकर विख्यात आचार्य अतिश (982-1054 ईसवी) के नाम से जाना गया।

जब अतिश अठारह माह के थे, तब उनके माता-पिता ने कमलापुरी के स्थानीय मन्दिर में उनके लिए पहली सार्वजनिक सभा का आयोजन किया। किसी के निर्देश के बिना ही अतिश ने मन्दिर में स्थापित पूजनीय प्रतीकों को साष्टांग प्रणाम किया और फिर बिना किसी पूर्व तैयारी के सहज भाव से उच्चार करने लगे, “मेरे माता-पिता की कृपा के फलस्वरूप मुझे यह बहुमूल्य जीवन प्राप्त हुआ है जो आप जैसी महान प्रतिमाओं के दर्शन के सुअवसरों से परिपूर्ण है। मैं जीवन में सदैव आपकी शरण ग्रहण करूँगा।” मन्दिर के बाहर जब प्रजा से उनका परिचय कराया गया तो उन्होंने प्रार्थना की कि वे अपनी प्रजा की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी पूरी क्षमता से कार्य कर सकें। उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि वे पारिवारिक जीवन का त्याग करने वाले आध्यात्मिक जिज्ञासु के वस्त्र धारण करने योग्य बन सकें, कभी अहंकारी न हों, और दूसरों के लिए सदैव करुणामय सहानुभूति और हितकारिता का भाव बनाए रख सकें। इतने छोटे बालक के लिए ऐसा व्यवहार करना एक अत्यंत असाधारण घटना थी।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ अतिश की भिक्षु बनने की इच्छा बलवती होती चली गई, किन्तु उनके माता-पिता की इच्छाएं कुछ और ही थीं। तीनों पुत्रों में वे सबसे मेधावी थे, और उनके जन्म के समय घटित शुभ लक्षणों के कारण माता-पिता को विश्वास हो चला था कि वे ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी बनेंगे। इसलिए, जब बालक अतिश ग्यारह वर्ष के हुए, जो उस समय की प्रथा के अनुसार विवाह योग्य आयु मानी जाती थी, तो उनके विवाह के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियाँ की गईं।

विवाह की पूर्वसंध्या पर बुद्ध-स्वरूपा तारा अतिश के स्वप्न में प्रकट हुईं। उन्होंने अतिश को बताया कि पिछले लगातार 500 जन्मों से वे भिक्षु ही रहे हैं और इसलिए उन्हें अनित्य सांसारिक सुखों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। तारा ने उन्हें समझाया कि किसी साधारण मनुष्य को संसार की मरीचिका से बचा कर निकालना उसी प्रकार आसान होगा जैसे बलुआ-पंक में फंसी किसी बकरी को आसानी से मुक्त कराया जा सकता है। लेकिन एक राजकुमार के रूप में उन्हें बचाना उसी प्रकार दुःसाध्य होगा जैसे किसी हाथी को बलुआ-पंक से निकालना कठिन होता है। बालक अतिश ने इस स्वप्न के विषय में किसी से भी चर्चा नहीं की, किन्तु कोई अन्य कारण बताकर वे बड़ी चतुराई से अपने विवाह को टाल गए।

अतिश अपने लिए एक आध्यात्मिक गुरु तलाश करने का निश्चय कर चुके थे, किन्तु अपने माता-पिता को उन्होंने यही कहा कि उनकी इच्छा आखेट पर जाने की है; और इस प्रकार अतिश 130 घुड़सवारों के साथ अपने महल से निकल पड़े। वन में सबसे पहले उनकी भेंट पुण्यात्मा जेतारि से हुई, जो एक ब्राह्मण पुरोहित थे और एक बौद्ध के रूप में वन में एकान्तवास में रह रहे थे। नौजवान अतिश ने उनसे जीवन में सुरक्षित मार्ग और बोधिसत्व की प्रतिज्ञाओं की औपचारिक दीक्षा ग्रहण की। बाद में पुण्यात्मा जेतारि ने उन्हें नालंदा के एकान्त मठीय विश्वविद्यालय में जाने और आचार्य बोधिभद्र से भेंट करने की सलाह दी।

जल्दी ही अतिश अपने सभी घुड़सवारों के साथ नालंदा के लिए रवाना हो गए, और वहाँ पहुँच कर उन्होंने एक बार फिर बोधिसत्व की प्रतिज्ञाओं और शिक्षाओं की दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद उन्हें आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्याकोकिला के पास भेज दिया गया और तदनंतर उन्हें यशस्वी विद्वान अवधूतिपाद के पास भेजा गया। अवधूतिपाद ने किशोर अतिश को अपने घर लौट जाने, सभी के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करने, लेकिन साथ ही अपने विलासितापूर्ण जीवन के दोषों को समझने और फिर लौट कर अपना अनुभव बताने की सलाह दी।

अतिश के माता-पिता उन्हें लौटा देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और सोचने लगे कि अब उनके पुत्र का घर बस जाएगा, वह विवाह कर लेगा और भविष्य में अपने राज-काज के लिए तैयारी करेगा। किन्तु किशोर अतिश ने उन्हें बताया कि वे तो दरअसल जीवन में दिशानिर्देश प्राप्त करने के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु की तलाश में गए थे। उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी इच्छा तो केवल एक शांत, मननशील जीवन जीने की है और वे तो केवल अपने राजसी दायित्वों से मुक्त होने की अनुमति लेने के लिए ही लौटे हैं।

उनके वचनों को सुनकर स्तब्ध माता-पिता ने अतिश को रुकने के लिए मनाने का यत्न किया। उन्होंने कहा कि अतिश वहीं रहकर दोनों प्रकार का जीवन जी सकते हैं और राजप्रासाद के निकट ही एकांत मठों का निर्माण करने का प्रस्ताव तक रखा जहाँ रहते हुए अतिश अपना अध्ययन और निर्धनों के पोषण आदि का कार्य जारी रख सकते थे। उन्होंने मिन्नतें कीं कि अतिश वन में लौट कर न जाएं। किन्तु अतिश ने उनसे स्पष्ट कहा कि राजसी जीवन के प्रति उन्हें लेशमात्र भी मोह नहीं है। वे बोले, “यह स्वर्ण-जड़ित प्रासाद मेरे लिए किसी कारावास से भिन्न नहीं है। जिस राजकुमारी से आप मेरा विवाह करने का प्रस्ताव करते हैं वह मेरे लिए किसी राक्षस-पुत्री से अलग नहीं है, ये मिष्ठान्न किसी श्वान के विगलित मांस से अलग नहीं हैं, और ये साटन के वस्त्र और आभूषण कूड़े के ढेर पर पड़े चीथड़ों से अधिक कुछ नहीं हैं। मुझे केवल थोड़ा सा दूध, शहद, और गुड़ उपलब्ध करा दिया जाए और फिर मैं आपसे विदा लेने की आज्ञा चाहूँगा।”

अतिश के माता-पिता उन्हें रोकने के लिए कुछ न कर सके इसलिए उन्होंने अतिश के अनुरोध को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार अतिश माता पिता के बहुत अनुनय करने पर राजसी अनुचरों की एक बड़ी टोली के साथ वन को लौट गए। इस बार अवधूतिपाद ने युवा राजकुमार को तंत्र की साधना शुरू करने के लिए काले पर्वत पर निवास करने वाले आचार्य राहुलगुप्त के पास भेजा। अतिश अपने सभी घुड़सवारों के साथ इस वज्रयान आचार्य के पास पहुँचे और उन्हें बताया कि वे अनेक आचार्यों के पास शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं लेकिन अभी तक राजसी जीवन के साथ अपने बंधन को काट नहीं सके हैं। राहुलगुप्त ने उन्हें अपना पहला अभिषेक दिया, जो कि हेवज्र बुद्ध-स्वरूप से सम्बंधित था, जिससे वे अपने चित्त को बाँध सकें। इसके बाद राहुलगुप्त ने उन्हें अपने आठ शिष्यों, चार पुरुष और चार महिला शिष्यों जो अत्यल्प वस्त्र और अस्थिनिर्मित आभूषण धारण करते थे, के साथ उनके राजमहल वापस भेज दिया।

तीन महीने तक अशित पूर्णतः विचित्र और अमर्यादित व्यवहार वाले सहचरों के साथ राजप्रासाद के वातावरण में रहे। अन्ततः विवश हो कर उनके माता-पिता ने अपने प्रिय पुत्र के बारे में हर प्रकार की आशा छोड़ दी। यह मानते हुए कि उनके पुत्र का मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है, उन्होंने अशित को पूर्ण आज्ञा दे दी कि वे अपनी अरुचिकर मित्र मंडली को लेकर चले जाएं और फिर कभी लौट कर न आएं।

भारत और सुवर्णद्वीप में अध्ययन

अतिश तुरन्त अपने गुरु अवधूतिपाद के पास लौट आए और फिर इक्कीस वर्ष से लेकर पच्चीस वर्ष की उम्र तक उन्होंने वास्तविकता के माध्यमिक दृष्टिकोण का गहन अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने बहुत से अन्य गुरुओं से भी शिक्षा ग्रहण की और तंत्र साधना की सभी पद्धतियों में अत्यंत प्रवीण हो गए। वस्तुतः उन्हें अपने पाण्डित्य का अहंकार हो गया और वे समझने लगे कि वे चित्त की रक्षार्थ किए जाने वाले इन गुप्त उपायों में अत्यंत पारंगत हो गए हैं और उन्होंने इन साधनाओं के सभी ग्रंथों पर महारत हासिल कर ली है। किन्तु फिर उन्होंने स्वप्न में एक डाकिनी को देखा जो अज्ञान से पूर्णतः मुक्त थी और उसने अपने हाथों में इन तंत्र पद्धतियों के बहुत से ग्रंथ उठा रखे थे। डाकिनी ने उनसे कहा, “तुम्हारे जगत में ऐसे ग्रंथ थोड़े से ही हैं, किन्तु हमारे जगत में ऐसे ग्रंथों की भरमार है।” इस स्वप्न के बाद उनका सारा अहंकार नष्ट हो गया।

एक दिन उन्होंने तय किया कि वे वहाँ से चले जाएं और इसी जीवन में अपनी पूरी अन्तर्निहित शक्ति को प्राप्त करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा तंत्र की साधना में लगा दें। तब वज्रयान के उनके गुरु राहुलगुप्त उनके स्वप्न में प्रकट हुए और उन्हें सलाह दी कि वे सब को छोड़ कर न जाएं, बल्कि भिक्षु बन जाएं। इस प्रकार वे अपनी सतत साधना को जारी रखते हुए पूर्ण ज्ञानोदय को प्राप्त करें। इस प्रकार उनतीस वर्ष की आयु में अशित ने शीलरक्षित से पारिवारिक जीवन का त्याग करने वाले अध्यात्म के अन्वेषक के वस्त्र प्राप्त किए और उन्हें दीपंकर ज्ञान अर्थात “वह जिसकी गहन चेतनता दीप के समान द्युतिमान है” नाम दिया गया।

भिक्षु के वस्त्र धारण करने के बाद के पहले बारह वर्ष तक अशित ने उदन्तपुरी के मठीय विश्वविद्यालय में चित्त के शोधन के लिए लिखे गए विख्यात ग्रंथ सुदर्शन चक्र के लेखक महान आचार्य धर्मरक्षित से शिक्षा प्राप्त की। वहाँ मुक्ति की प्राप्ति के लिए हीनयान की सभी प्रविधियों की शिक्षा पर बल दिया जाता था, किन्तु अशित उतने भर से कभी संतुष्ट न हो पाते। वे अपनी अन्तर्निहित क्षमता का पूरा उपयोग करने के शीघ्रगामी मार्ग की तलाश में रहते।

अतिश के वज्रयान के आचार्य राहुलगुप्त ने उनसे कहा, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको स्वप्नों में कितनी शिक्षाएं प्राप्त होती हैं, आपको समानुभूति आधारित प्रेम, करुणायुक्त सहानुभूति, और पूर्णतः परहितार्थ और ज्ञानोदय की प्राप्ति के उद्देश्य से बोधिचित्त की प्राप्ति के लिए अभ्यास करना चाहिए।” उन्होंने अतिश को सलाह दी कि वे बुद्ध स्वरूप अवलोकितेश्वर के प्रति पूरे मनोयोग से समर्पित हो जाएं ताकि वे अपने चित्त को अवलोकितेश्वर से जोड़कर प्रबुद्ध हो सकें और सभी को संसार में बार-बार जन्म के बंधन से मुक्त कर सकें। ऐसा करके ही वे अपनी सम्पूर्ण क्षमता का पूरा उपयोग कर पाएंगे।

वज्रासन, जो वज्र पीठ है और आधुनिक बोध गया में स्थित है, में बुद्ध के सम्मान में निर्मित स्तूप स्मारक की परिक्रमा करते हुए अतिश ने आले में खड़ी दो प्रतिमाओं को धीमे स्वर में आपस में बात करते हुए सुना। एक प्रतिमा ने दूसरी प्रतिमा से पूछा, “यथाशीघ्र ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए किस विषय का अभ्यास करना चाहिए?” उत्तर आया, “बोधिचित्त के लिए पूर्णतः समर्पित हृदय।” और फिर स्मारक के गुम्बद की परिक्रमा करते समय बुद्ध की एक प्रतिमा ने उनसे कहा, “हे भिक्षु, यदि तुम यथाशीघ्र अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग करना चाहते हो तो प्रेम, करुणा, और बोधिचित्त का अभ्यास करो।”

उस समय बोधिचित्त विकसित करने सम्बंधी सम्पूर्ण शिक्षाओं के सबसे विख्यात आचार्य सुवर्णद्वीप के वासी धर्मकीर्ति (धर्मपाल) थे। अतः अतिश व्यापारियों के एक जहाज़ पर सवार होकर 125 विद्वान भिक्षुओं की मंडली के साथ सुवर्णद्वीप, आधुनिक सुमात्रा के लिए रवाना हुए। उन दिनों लम्बी समुद्री यात्राएं करना आसान नहीं होता था और उन्हें मार्ग में तूफ़ानों, व्हेल मछलिओं का सामना करने और मार्ग से भटकने जैसी समस्याओं से जूझना पड़ा। उन्हें इस दुष्कर यात्रा को पूरा करने में तेरह महीने का समय लगा, किन्तु पूरी यात्रा के दौरान अतिश कभी भी विचलित नहीं हुए।

जब आखिरकार वे सुवर्णद्वीप पहुँच गए, तो अतिश सीधे विख्यात आचार्य धर्मकीर्ति से मिलने के लिए नहीं गए, बल्कि पूरे दो सप्ताह तक आचार्य के शिष्यों के साथ रहे। उन्होंने शिष्यों से कुरेद-कुरेद कर उनके शिक्षक के बारे में जानकारी हासिल की और उनका पूरा जीवन परिचय प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे हमें आध्यात्मिक गुरु के बारे में पूरी छानबीन करने और उससे शिक्षा प्राप्त करने से पहले उसकी योग्यताओं के बारे में मालूम कर लेने के महत्व का पता चलता है।

इसी दौरान सुवर्णद्वीप के इस उदात्त शिक्षक को आध्यात्मिक खोज के लिए भारत से आए हुए विद्वान और उसके भिक्षु साथियों के बारे में जानकारी मिल चुकी थी। उन्होंने अतिथियों के स्वागत के लिए अपने समुदाय के भिक्षुओं को एकत्र किया, और जब अतिश उनसे मिलने के लिए पहुँचे, तो उन्होंने मांगलिक भविष्य के लिए मिलकर अनेक औपचारिक अनुष्ठान सम्पन्न किए। उन्होंन अतिश को एक बुद्ध प्रतिमा भी भेंट की और भविष्यवाणी की कि एक दिन वे उत्तरी हिमाच्छादित भूमि के लोगों के मानस को अपने वश में करेंगे।

बारह वर्ष तक सुवर्णद्वीप में अपने प्रवास के दौरान अतिश ने इन आचार्य से उत्साहपूर्वक शिक्षा ग्रहण की। पहले उन्होंने सर्वज्ञ के व्यापक सविवेक बोध सूत्रों(प्रज्ञापारमिता सूत्र) को समझने के लिए जिन मैत्रेय के दिशानिर्देश वाले अभिसमय अलंकार का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने मैत्रेय और असंग की परम्परा के परिव्यापक आचरण की सम्पूर्ण शिक्षाओं के साथ साथ स्वार्थपरायणता को परार्थ में परिवर्तित करने सम्बंधी उन शिक्षाओं का भी अध्ययन किया जिन्हें जिन के आध्यात्मिक पुत्र बोधिसत्व शान्तिदेव ने सीधे उदात्तकारी, निष्पाप मंजुश्री से स्वयं प्राप्त किया था। इन पद्धतियों की सहायता से बोधिचित्त लक्ष्य का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद पैंतालीस वर्ष की अवस्था में अतिश भारत लौट आए और उसके बाद वे अधिकांशतः विक्रमशिला के एकांत मठीय विश्वविद्यालय में ही रहे।

अतिश ने कुल मिलाकर 157 आचार्यों से शिक्षा ग्रहण की, किन्तु सुवर्णद्वीप के इस महान आचार्य और उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी अगाध थी कि वे जब भी उनका नाम लेते या सुनते तो उनकी आँखें अश्रुपूरित हो जातीं। बाद में जब उनके तिब्बती शिष्यों ने उनसे पूछा कि क्या इस भावातिरेक का अर्थ यह है कि वे अपने एक शिक्षक को अन्य गुरुओं की तुलना में अधिक चाहते हैं, तो अतिश ने उत्तर दिया, “मैं अपने सभी आध्यात्मिक परामर्शदाताओं के बीच कोई भेदभाव नहीं करता। किन्तु सुवर्णद्वीप के मेरे उदात्तमना आचार्य की कृपा से मेरे चित्त को शांति मिली है और मेरा हृदय बोधिचित्त की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त हुआ है।”

अतिश को तिब्बत आने के लिए आमंत्रण

भारत लौटने के बाद अतिश ने तीन अवसरों पर अबौद्ध चरमपंथियों को औपचारिक शास्त्रार्थ में हराकर जिन सद्धर्म की रक्षा की और उसे परिपुष्ट किया। बौद्ध धर्मसंघ के भीतर उन्होंने जहाँ-जहाँ यात्रा की वहाँ उन्होंने अनेक संस्थानों की स्थापना की, और जहाँ भी उन्हें अपभ्रष्ट या अशुद्ध अनुशीलन के संकेत दिखाई देते, वे तुरन्त उनका सुधार करते। उनकी ख्याति पूरे भारतवर्ष में फैल गई। उनकी करुणा और उनकी अन्तर्दृष्टि के कारण उन्हें विद्वान आचार्यों के सिरमौर के रूप में सम्मान दिया जाता। किन्तु उनकी विद्वता का सर्वाधिक लाभ हिमाच्छादित भूमि, तिब्बत के निवासियों को मिला।

हालाँकि मुख्यतः गुरु रिंपोश पद्मसम्भव और अनेक अन्य विद्वान आचार्यों के प्रयासों के परिणामस्वरूप कई शताब्दियों पहले ही तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार हो चुका था, किन्तु सम्राट लांगदरमा (863-906 ईसवी) के दमन के कारण बौद्ध धर्म के इस शुरुआती विकास को धक्का पहुँचा था। इस धर्म के साधकों की संख्या बहुत थोड़ी रह गई थी और बाद में स्थिति यह हो गई कि साधाना की बारीकियों को समझने वाला अब कोई नहीं बचा था। बहुत से लोग मानने लगे थे कि नैतिक आत्मानुशासन और तंत्र परस्पर असंगत हैं और उन्मत्तता तथा विभिन्न प्रकार के यौन दुराचारों के माध्यम से ज्ञानोदय की प्राप्ति सम्भव है। इस प्रकार कुछ अन्य लोग मानते थे कि हीनयान और महायान, जो क्रमशः निर्वाण और ज्ञानोदय की प्राप्ति के साधन हैं, की शिक्षाओं में भी अन्तरर्विरोध है।

पतन की ऐसी स्थिति से दुखी तिब्बत के राजा येशे-वो की उत्कट इच्छा थी कि भारत के महान मठीय केन्द्रों में से किसी विद्वान को तिब्बत आने का निमंत्रण भेजा जाए और वे आकर इस भ्रम की स्थिति को स्पष्ट करें। उन्हें अतिश के बारे में तो जानकारी नहीं थी, किन्तु उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन करने और किसी योग्य आचार्य की तलाश करने के लिए इक्कीस युवकों का एक दल भारत भेजा। इनमें से दो को छोड़ कर शेष सभी की गर्मी के कारण मृत्यु हो गई। वे दोनों किसी विद्वान आचार्य को तो आमंत्रित न कर सके, किन्तु उन्होंने संस्कृत भाषा का ज्ञान अर्जित कर लिया था, और नए अनुवादकों के रूप में रिंचेन-ज़ांग्पो (958-1051 ईसवी) और लेग्शे तिब्बत लौट आए और राजा को अतिश के बारे में समाचार बताया।

राजा ने जैसे ही अतिश के बारे में सुना, उन्होंने निश्चय कर लिया कि उन्हें इसी व्यक्ति की आवश्यकता है। फिर बिना समय गँवाए, उन्होंने बहुत सारा सोना देकर ग्यात्सॉन्सेंग के नेतृत्व में एक दूसरा दल इस आचार्य को तिब्बत आने का निमंत्रण देने के लिए भेज दिया। किन्तु इस दल के आठ सदस्यों की भी मृत्यु हो गई और, अतिश को बुला कर लाने में विफल ग्यात्सॉन्सेंग भारत में ही रुक गए। जब येशे-वो को इस दूसरे दल के भी विफल हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने एक और दल भेजने के लिए और सोना इकट्ठा करने के उद्देश्य से एक अभियान दल का स्वयं नेतृत्व करने का निश्चय किया। लेकिन इस अभियान के दौरान नेपाल की सीमा पर गार्लोग के विरोधी राजा ने उन्हें बन्दी बना लिया, क्योंकि वह तिब्बत में बौद्ध धर्म का और अधिक प्रसार नहीं होने देना चाहता था।

राजा येशे-वो के भतीजे, जंगचुब-वो को सूचना दी गई कि या तो भारत यात्रा के इस अभियान को रोक दिया जाए या फिर बन्धक बनाए गए राजा की रिहाई के लिए राजा के शरीर के वज़न के बराबर मात्रा में सोने का भुगतान किया जाए। राजा के भतीजे ने सोना इकट्ठा करने के लिए पूरे साम्राज्य का दौरा किया, किन्तु वह राजा के धड़ और हाथ-पैरों के बराबर ही सोना इकट्ठा कर सका। वह राजा के सिर के बराबर अतिरिक्त सोना जुटाने में असफल रहा। जब गार्लोग के राजा ने रिहाई के लिए तय सोने की पूरी मात्रा की मांग की तो भतीजे ने अनुरोध किया कि उसे अपने चाचा से मिलने का अवसर दिया जाए।

उसे सलाखों से बनी कारावास की एक अंधेरी कोठरी में ले जाया गया। वहाँ पहुँच कर उसने बेड़ियों में जकड़े अपने चाचा, जो बहुत दुर्बल हो चुके थे, को पूरी स्थिति की जानकारी दी, और कहा कि वह बाकी सोने की जमा करने के अपने प्रयास को जारी रखेगा। “आप उम्मीद न छोड़े,” उसने अपने चाचा से कहा, “क्योंकि मैं रिहाई के लिए आवश्यक सोना जुटा ही लूँगा। मैं तो गार्लोग के इस राजा के साथ युद्ध भी छेड़ देता, किन्तु उसमें बहुत से लोग मारे जाएंगे। इसलिए आपकी रिहाई की कीमत चुकाना ही सबसे अच्छा विकल्प दिखाई देता है।”

“प्रिय भतीजे,” राजा ने उत्तर दिया, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम इतने करुणावान और बुद्धिमान होगे। मुझे प्रसन्नता है कि तुम हिंसा की बुराइयों को समझते हो, लेकिन अब तुम मेरे बारे में सोचना छोड़ दो। बल्कि, जो भी सोना तुमने इकट्ठा किया है उसका उपयोग महान आचार्य अतिश को तिब्बत बुलाने के लिए करो। पूर्वजन्मों में मेरी मृत्यु अनगिनत बार हो चुकी है, लेकिन मैंने पहले कभी भी जिन धर्म के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग नहीं किया है। अब मुझे ऐसा करते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। तुम जिसे भी भारत भेजो, उसे कहना कि वह अतिश को बताए कि मैंने अपनी प्रजा के कल्याण और धर्म के लिए अपना जीवन न्योछावर किया है ताकि उन्हें तिब्बत बुलाया जा सके। यद्यपि मुझे इस जीवनकाल में उनसे भेंट करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि आगे के किसी जन्म में उनके दर्शन कर सकूँ।” भतीजे ने अपने चाचा की आज्ञा को स्वीकार किया और शोकविह्वल हालत में उनसे विदा ली।

जंगचुब-वो अब तिब्बत का शासक बन चुका था। उसने निश्चय किया कि अनुवादक नाग्त्सो, जो पहले भी कई बार भारत जा चुका था, तीसरे अभियान पर भेजे जाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति होगा। नए राजा ने उसे अपने महल में बुलवाया और अनुवादक नाग्त्सो को आग्रहपूर्वक राजसिंहासन पर बैठाया, और उससे मिन्नत की। “मेरे चाचा ने इसलिए अपने प्राण दिए कि अतिश को तिब्बत बुलाया जा सके। यदि उनकी यह इच्छा पूरी न हुई तो इस देश के विपदाग्रस्त लोग निश्चय ही भयावह पुनर्जन्मों के चक्र में फँस जाएंगे। मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि इन अभागे लोगों की रक्षा करें।” इसके बाद युवा राजा फूट-फूट कर रोने लगा। नाग्त्सो के सामने इस आग्रह को स्वीकार करने और भारत की एक और यात्रा की कठिनाइयों का सामना करने के सिवा और कोई विकल्प न था।

अनुवादक नाग्त्सो 700 स्वर्ण मुद्राओं और अपने छह सहयात्रियों के साथ अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। इस यात्रा में राजा ने उनके साथ कई दिनों तक यात्रा की, और वापस लौटने से पहले उसने नाग्त्सो को स्मरण कराया कि वह अतिश से कहे, “तिब्बत में अब बस इतना ही सोना बचा था, और मेरे चाचा तिब्बत के अन्तिम महान व्यक्ति थे। यदि अतिश के मन में दूसरों के लिए थोड़ा भी करुणा भाव हो, तो उन्हें आना चाहिए। यदि तिब्बत के गंवार लोगों में धर्म के प्रति इतनी चिन्ता का भाव है, और अतिश के मन में यदि चिन्ता नहीं है, तो फिर इसमें संदेह नहीं कि बौद्ध धर्म बहुत जर्जर हो चुका है और उसके उद्धार की कोई आशा शेष नहीं है!” इतना कहकर राजा अपने महल की ओर लौट गया।

भारत जाने के मार्ग में यात्रियों की इस मंडली की भेंट के एक लड़के से हुई जिसने उनसे उनकी यात्रा का प्रयोजन पूछा। प्रयोजन जानकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, “यदि आप इस प्रार्थना का उच्चार करते रहें, ‘मैं सुरक्षित मार्ग प्राप्त करने के लिए अवलोकितेश्वर को प्रणाम करता हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि तिब्बत में जिन धर्म खूब फले-फूले,‘ तो आप अपने उद्देश्य में सफल होंगे।” जब उस बालक से उसका परिचय पूछा गया तो उसने उत्तर दिया कि समय आने पर उन्हें उसका परिचय मालूम हो जाएगा।

आखिरकार यात्रियों का यह जत्था एक दिन देर रात को विक्रमशिला के एकांत मठीय विश्वविद्यालय पहुँच गया और उन्होंने विक्रमशिला के प्रवेश द्वार पर अपना डेरा डाल दिया। उनके ठीक ऊपर एक कमरे में ग्यात्सॉन्सेंग नाम का वही तिब्बती यात्री ठहरा हुआ था जिसने राजा येशे-वो के दूसरे अभियान का नेतृत्व किया था। जब उसने अपनी तिब्बती भाषा में बोलने वालों की आवाज़ें सुनी तो उसने चकित हो कर नीचे देखा और यात्रियों के दल को नीचे ठहरा हुआ पाया, और उनसे आने का कारण पूछा। तिब्बतियों के दल ने उत्साहपूर्वक उसे पूरा वृत्तान्त सुनाया, और यह भी बता दिया कि उनके भारत आने का वास्तविक उद्देश्य स्वयं अतिश को अपने साथ तिब्बत ले कर जाना था। ग्यात्सॉन्सेंग ने उन्हें सावधान किया कि वे अपने उद्देश्य को सबके सामने उजागर न करें। उसने उन्हें कहा कि वे अपना सोना द्वार पर तैनात लड़के को सौंप दें और अगली सुबह उससे आकर मिलें। यात्रियों के दल ने वैसा ही किया और उस छोटे लड़के ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे विश्राम करें और उस पर भरोसा रखें।

अगली सुबह तड़के ही उस लड़के ने उन्हें जगा दिया और उनसे भारत आने का उद्देश्य पूछा। जब यात्रियों ने उसे सब कुछ बता दिया तो लड़के ने क्रोधपूर्वक कहा, “आप तिब्बती लोग बहुत बोलते हो! आपको अपना प्रयोजन गुप्त रखना चाहिए। नहीं तो आपके काम में बहुत हस्तक्षेप होगा। महत्वपूर्ण कार्यों में कभी जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए, बल्कि ऐसे कार्यों को धीरे-धीरे, सावधानीपूर्वक और गोपनीय ढंग से करना चाहिए।” इसके बाद उसने यात्रियों को उनकी स्वर्ण मुद्राएं लौटा दीं और उन्हें मठ के बड़े से मैदान में लेकर गया।

यहाँ यात्री दल की भेंट एक बूढ़े व्यक्ति से हुई जिसने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आए हैं और उनके आने का क्या प्रयोजन है। एक बार फिर यात्रियों ने बिना कुछ छिपाए सब कुछ बता दिया तो वृद्ध ने उन्हें डपटते हुए कहा, “यदि आप लोग इस प्रकार का अविवेकपूर्ण व्यवहार जारी रखेंगे तो आप कभी अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर सकेंगे। अपना ध्येय केवल अतिश को ही बताना।” इसके बाद उसने उन्हें ग्यात्सॉन्सेंग के कमरे तक ले जाने का प्रस्ताव किया। हालाँकि वह छड़ी की सहायता से धीरे-धीरे चलता था, लेकिन कोई भी उसके साथ नहीं चल पाता था, क्योंकि अवलोकितेश्वर ही पहले दोनों लड़कों के रूप में और अब इस वृद्ध के रूप में प्रकट हुए थे, और उनके शिष्टमंडल का मार्गदर्शन कर रहे थे।

अब तिब्बतवासियों ने एक कार्य योजना तैयार की। ग्यात्सॉन्सेंग ने उन्हें यह बताने के लिए कहा कि वे संस्कृत का अध्ययन करने के लिए आएं हैं। “हमारे मुख्य मठाधीश, ज्येष्ठ रत्नाकर, अतिश के वरिष्ठ हैं और उनका बड़ा सम्मान करते हैं। यदि उन्हें आपके वास्तविक प्रयोजन के बारे में मालूम होगा तो वे आपको कभी अतिश से भेंट नहीं करने देंगे।”

अगले दिन सुबह वे मठाधीश के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें अपनी आधी स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं। उन्होंने मठाधीश से कहा कि विगत में उनके बहुत से देशवासी अतिश जैसे विद्वान आचार्यों को तिब्बत आने का निमंत्रण देने के लिए आए थे। किन्तु वे लोग तो अध्ययन करने और स्वयं विद्या प्राप्त करने के लिए आएं हैं। यह सुनकर सम्मान्य मठाधीश बहुत आश्वस्त हुए और बोले, “अवश्य ही आप लोग वैसा करें। मेरी बात को अन्यथा न समझें। ऐसा नहीं है कि मेरे मन में तिब्बत के प्रति करुणा का भाव नहीं है, किन्तु अतिश हमारे सबसे ज्ञानी आचार्यों में से एक हैं, विशेष तौर पर उनके बोधिचित्त के दृष्टिगत वे हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। यदि वे भारत छोड़ कर चले गए, तो फिर बुद्ध की शिक्षाओं को उनके ही जन्मस्थान में संरक्षित रखने की कोई उम्मीद नहीं है।” फिर भी मठाधीश इन संदिग्ध विदेशियों के प्रति शंकालु थे और उन्होंने उन्हें अतिश से नहीं मिलने दिया।

अपनी चाल की सफलता से आश्वस्त तिब्बती यात्रियों ने कक्षाओं में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। फिर कई महीनों के बाद एक महत्वपूर्ण मठीय अनुष्ठान के आयोजन का अवसर आया। चूँकि सभी को इस अनुष्ठान में भाग लेना था, इसलिए तिब्बती यात्रियों को आशा थी कि उन्हें अतिश की एक झलक देखने के लिए मिल सकेगी। प्रतीक्षा करते करते उन्होंने कई महान आचार्यों को प्रवेश करते हुए देखा। विख्यात नरोपा जैसे आचार्यों ने सहायकों की विशाल मंडली के साथ प्रवेश किया। कुछ आचार्यों के अनुचर फूल और लोबान लिए उनके आगे-आगे चल रहे थे। अन्त में अतिश वहाँ पहुँचे। उनके वस्त्र जीर्ण-शीर्ण थे, और पूजाघर और भंडारकक्ष की चाबियाँ उन्होंने अपनी कमर पर बाँध रखी थीं। तिब्बती यात्री अतिश की साधारण और प्रभावहीन छवि को देख कर बहुत निराश हुए और उन्होंने ग्येत्सॉन्सेंग से पूछा कि क्या दूसरे आकर्षक दिखने वाले आचार्यों में से किसी एक को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित करना क्या बेहतर नहीं होगा। ग्येत्सॉन्सेंग ने जवाब दिया, “नहीं, अतिश का तिब्बत के साथ गहरा लगाव है, और उनकी साधारण छवि के बावजूद आपको उन्हें ही लेकर जाना चाहिए।”

आखिरकार एक गुप्त बैठक आयोजित की गई। नाग्त्सो ने एक गोल मण्डल प्रतीक वाले थाल पर ऊँचे ढेर के रूप में सजी स्वर्ण मुद्राएं अतिश को भेंट कीं और अतिश को तिब्बत में हो रहे पवित्र धर्म के ह्रास की पूरी कथा सुनाई। राजा येशे-वो के बलिदान की बात बताकर और राजा तथा उसके भतीजे दोनों के वचनों को दोहराते हुए नाग्त्सो ने अतिश से अनुनय किया के वे तिब्बत पधारें।

अतिश ने उनकी उदारता की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनके मन में इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है कि तिब्बत के वे दोनों ही राजा दरअसल बोधिसत्व हैं। उन्होंन कहा कि वे समस्याओं को समझते हैं और तिब्बत के राजा के बलिदान का सम्मान करते हैं, किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि अतिश अब बूढ़े हो रहे हैं और उन पर मठ के भंडारकक्ष की बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं। फिर भी उन्होंन उम्मीद जताई कि वे जा सकते हैं, और उन्होंने स्वर्ण मुद्राएं वापसी की यात्रा के प्रबंध के लिए लौटा दीं। “किन्तु, उससे पूर्व,” उन्होंने तिब्बती यात्रियों से कहा, “मुझे अपनी इष्टदेवी की सम्मति लेनी होगी।”

उस रात तारा अतिश के स्वप्न में प्रकट हुईं और उन्होंने अतिश को बताया कि उनकी यात्रा पूरी तरह सफल होगी। तिब्बतवासियों को उनसे बहुत लाभ होगा और वहाँ उन्हें एक ऐसा शिष्य मिलेगा जिसके साथ उनकी विशेष घनिष्ठता होगी। यह शिष्य गृहस्थ प्रतिज्ञाओं वाला उपासक होगा और धर्म का और भी अधिक प्रसार करेगा। “किन्तु,” तारा ने अतिश से कहा, “यदि तुम भारत में ही रहोगे तो तुम बानवे वर्ष की अवस्था तक जिओगे, और यदि तुम तिब्बत गए तो तुम बहत्तर वर्ष की आयु तक ही जीवित रहोगे।” अब अतिश के मन में विश्वास जाग्रत हो गया कि वे इन तिब्बतियों के साथ जा सकते हैं, और यदि वे सचमुच दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं तो अपने जीवन के बीस वर्षों का त्याग करने में कोई हानि नहीं है। बस उन्हें उस चालाक मठाधीश से जाने की आज्ञा पाने के लिए कोई कुशल युक्ति सोचनी होगी।

पहले उन्होंने विक्रमशिला के पूर्व, दक्षिण, और उत्तर में तीर्थयात्राओं पर जाने की अनुमति मांगी। उन्हें अनुमति मिल गई और उन्होंने बहुत से पवित्र स्थलों का दौरा किया। इसके बाद उन्होंने उत्तर की ओर यात्रा करने के लिए अनुमति मांगी, किन्तु उनके ज्येष्ठ ने उनकी छिपी हुई मंशा को भांपते हुए अनुमति देने से इन्कार कर दिया।

इससे तिब्बती शिष्टमण्डल में घोर निराशा छा गई और उन्होंने निश्चय किया कि अब मठाधीश को पूरी सच्चाई बता देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उनकी बात सुनकर अविचल मठाधीश ने दिखावटी क्रोध प्रदर्शित किया तो तिब्बती यात्री उसके चरणों में गिर पड़े और क्षमा की याचना करने लगे। “अतिश को आप लोगों के साथ न भेज पाने के मेरे कारण वही हैं जो पहले थे,” मठाधीश ने उनसे कहा, “किन्तु चूँकि तिब्बत को उनकी इतनी अधिक आवश्यकता है, इसलिए मैं उन्हें तीन वर्ष के लिए आपके देश जाने की अनुमति दे सकता हूँ। किन्तु आप लोगों को वचन देना होगा कि यह अवधि बीतने के बाद आप उन्हें भारत वापस भेज देंगे।” आनन्द से अभिभूत तिब्बतवासियों ने अपना वचन दे दिया।

तिब्बत में धर्म का जीर्णोद्धार और चेतना का पुनर्संचार

इस प्रकार तिरपन वर्ष की अवस्था में अतिश हिमाच्छादित भूमि तिब्बती की यात्रा पर निकल पड़े। मार्ग में अनुवादक ग्यात्सॉन्सेंग बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो कई। अतिश बहुत दुखी हुए और बोले, “मेरी तो जिह्वा ही नहीं रही!” यह सुनकर नाग्त्सो ने सविनय निवेदन किया, “आप कृपया चिन्तित न हों। हालाँकि मेरा संस्कृत भाषा का ज्ञान सम्पूर्ण नहीं है, किन्तु मैं निश्चित रूप से उसमें सुधार कर लूँगा। इसके अलावा अन्य लोग भी हैं जो सम्भवतः आपकी सेवा कर सकते हैं।”

नेपाल पहुँच कर उनकी भेंट विस्मयकारी क्षमताओं वाले अनुवादक मारपा (1012-1099 ईसवी) से हुई जो तीसरी बार भारत की यात्रा पर जा रहे थे। अतिश ने उन्हें अपना अनुवादक बनाने के लिए आमंत्रित किया, किन्तु मारपा ने यह कहते हुए उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, “मेरे गुरु की इच्छा थी कि मैं तीन बार भारत की यात्रा करूँ। इसलिए मेरे लिए इस अन्तिम यात्रा पर जाना आवश्यक है।” उनकी मुलाकात वयोवृद्ध अनुवादक रिंचेन-ज़ांग्पो से भी हुई, लेकिन उन्होंने भी सहायता करने में असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने कहा, “आप मेरे धवल केश देखकर अनुमान लगा सकते हैं कि में अब बहुत बूढ़ा हो चला हूँ। जीवन भर काम करने के कारण मुझे गहन साधना करने का शायद ही कभी अवसर मिला है।” इस प्रकार अतिश नाग्त्सो के सीमित कौशल के ही सहारे अपनी आगे की यात्रा पर निकल पड़े।

दो वर्ष की यात्रा के बाद यात्रीदल आखिरकार ऊपरी तिब्बत (पश्चिमी तिब्बत) स्थित न्गारी शहर में पहुँचे जो येशे-वो के साम्राज्य की राजधानी था। वहाँ के गृहस्थों और भिक्षुओं ने एक शानदार जुलूस के रूप में उनका स्वागत किया और अतिश को नज़दीक के एकांत मठ में ठहरने के लिए आमंत्रित किया। जिन की शिक्षाओं के लिए इतना उत्साह देखकर भारतीय आचार्य बहुत प्रसन्न हुए, और उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने आध्यात्मिक अन्वेषकों के वस्त्र धारण कर रखे थे। पूरे तिब्बत भर से बहुत से विद्वान जमा हुए थे। बुद्ध के सूत्रों और तंत्रों के विषय में पूछे गए प्रश्नों की गहराई से तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें आश्चर्य होने लगा कि जब यहाँ पहले ही इतने सारे विद्वान आचार्य मौजूद थे तो फिर तिब्बतवासियों ने उन्हें तिब्बत बुलाने के लिए इतने कष्ट क्यों उठाए। किन्तु जब उन्होंने यह प्रतिप्रश्न पूछा कि ये दोनों प्रकार के निवारक उपाय आपस में एक साथ मिलकर एक सम्पूर्ण इकाई कैसे बनते हैं, तो वे कोई उत्तर न दे सके। अब अतिश को अपनी यात्रा का प्रयोजन समझ में आ गया।

एक दिन राजा जंगचुब-वो ने अनुरोध किया कि अतिश तिब्बत के लोगों को उपदेश दें। उसने कहा, “हम ऐसे उपायों के बारे में उपदेश नहीं चाहते हैं जो इतने व्यापक या गूढ़ हों कि हम उन्हें अपना ही न सकें। हम तो बस यह चाहते हैं कि आप हमें ऐसी शिक्षा दें कि हम अपने चित्त को नियंत्रित कर सकें और दिन-प्रतिदिन के अपने आवेगपूर्ण व्यवहार (कर्म) तथा उसके परिणामों को संचालित कर सकें। कृपा करके हमें ऐसे उपायों की शिक्षा दें जिन्हें आप स्वयं अपनाते हैं।”

राजा के आग्रह की सादगी और ईमानदारी ने अतिश को इतना प्रभावित किया कि बाद के वर्षों में वे उसे “मेरे गुणवान शिष्य” के रूप में सम्बोधित किया करते थे। यदि उनसे तांत्रिक देवतंत्रों के बारे में अभिषेक देने या विशेष शक्तियाँ प्रदान करने वाली साधनाओं की शिक्षा देने के बारे में अनुरोध किया गया होता तो भी वे इतने प्रसन्न न होते। इस प्रकार उन्होंने न्गारी में उपदेश देते हुए तीन वर्ष बिताए और उनके इन उपदेशों को बाद में बोधिपथप्रदीप के नाम से संकलित किया गया, जो भविष्य में इस विषय पर लिखे जाने वाले सभी ग्रंथों का आधार बना।

वे जिन विषयों पर हमेशा बल देते थे उनके आधार पर ही उन्हें “आश्रय के मार्ग का उदात्त शिक्षक (लामा आश्रय)” और “आवेगपूर्ण व्यवहार और उसके परिणामों (लामा कारण तथा कार्य) का उदात्त शिक्षक” जैसे उपनाम दिए गए। वे इससे बहुत प्रसन्न होते और कहते थे, “इन नामों को सुनने मात्र से भी लाभ हो सकता है।”

इस दौरान अतिश भविष्य के अपने उस गृहस्थ तिब्बती मुख्य शिष्य को भी तलाश करते रहे जिसके बारे में उदात्तकारी, निष्पाप तारा ने भविष्यवाणी की थी, लेकिन जो अभी तक प्रकट नहीं हुआ था। एक दिन एक यजमान ने इस भारतीय आचार्य को अपने घर दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया, और चूँकि वे शुद्ध शाकाहारी थे इसलिए उन्हें जौ की पारम्परिक रोटियाँ (साम्पा) परोसी गईं। चलते-चलते उन्होंने कुछ अतिरिक्त रोटियों और थोड़े मक्खन की मांग की। उसी समय प्रतीक्षित गृहस्थ उपासक श्रद्धेय द्रोमतोंपा (1004-1064 ईसवी) अतिश के घर पहुँचे। उन्होंने अनुचरों से पूछा, “महायान के मेरे उदात्त गुरु कहाँ हैं?” अनुचरों ने उत्तर दिया, “आचार्य अतिश अपने यजमान के घर दोपहर का भोजन कर रहे हैं। आप प्रतीक्षा करें, वे थोड़ी देर में आते ही होंगे।”

किन्तु द्रोमतोंपा प्रतीक्षा करने वाले नहीं थे। वे सीधे यजमान के घर की ओर दौड़े। रास्ते में एक गली में अतिश और द्रोमतोंपा की मुलाकात हुई। हालाँकि दोनों ने पहले कभी एक-दूसरे को नहीं देखा था, किन्तु पिछले जन्मों के घनिष्ठ बंधन के कारण दोनों ने तत्काल एक-दूसरे को पहचान लिया। द्रोमतोंपा ने अतिश को साष्टांग प्रणाम किया, और अतिश ने उन्हें जौ की रोटियाँ देते हुए कहा, “यह तुम्हारे लिए दोपहर का भोजन है। तुम्हें बहुत भूख लगी होगी।” गृहस्थ द्रोमतोंपा ने रोटियाँ खा लीं और मक्खन का उपयोग उन्होंने अपने नए आध्यात्मिक गुरु को भेंट करने के लिए एक दीपक बनाने के लिए किया। उस दिन के बाद वे हर रात को बिना नागा ऐसा दीपक अतिश को भेंट करते रहे।

न्गारी में तीन वर्ष बिताने के बाद अतिश अनुवादक नाग्त्सो के साथ वापस भारत की यात्रा पर निकल पड़े। किन्तु नेपाल की सीमा पर चल रहे एक युद्ध के कारण उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया। इस बात से नाग्त्सो बेहद चिन्तित हो गए क्योंकि अब उन्हें लगने लगा था कि वे विक्रमशिला के मठाधीश को दिए अपने वचन को पूरा नहीं कर सकेंगे। अतिश ने उनकी चिन्ता को यह कह कर तुरन्त दूर कर दिया, “ऐसी स्थिति के बारे में चिन्ता करना निरर्थक है जो आपके नियंत्रण में नहीं है।”

अतिश की बात से नाग्त्सो को बहुत राहत मिली और उन्होंने मठाधीश को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि वापस लौटने की उनकी सदेच्छा के मार्ग में क्या रुकावट उत्पन्न हो रही थी। अपनी अनुपस्थिति की आंशिक तौर पर प्रतिपूर्ति करने के विचार से अतिश ने बोधिपथप्रदीप की एक प्रति पत्र के साथ भेज दी। उन्होंने यह अनुरोध भी किया कि उन्हें शेष जीवन तिब्बत में ही रहने की अनुमति प्रदान की जाए। उसके बाद वे न्गारी लौट गए।

आजकल किसी पुस्तक का प्रकाशन अपेक्षाकृत सरल व्यावसायिक लेन-देन के रूप में होता है। लेकिन अतिश के ज़माने में किसी पाण्डुलिपि को प्रकाशित किए जाने से पहले किसी स्थानीय राजा की अध्यक्षता वाली विद्वानों की समिति की कड़ी परीक्षा से होकर गुज़रना पड़ता था। यदि उसमें किसी भी प्रकार की कमी पाई जाती तो उस पाण्डुलिपि को किसी कुत्ते की दुम से बांध कर धूल भरे रास्तों में घसीटा जाता था। और पुस्तक के लेखक को प्रशंसा और ख्याति के बजाए प्रतिष्ठा के धूल-धूसरित होने का अपमान सहना पड़ता था।

अतिश के ग्रंथ को भी इसी प्रकार की परीक्षा से गुज़ारा गया और जाँच करने वाली समिति ने सर्वसम्मति से उसके मूल्य की उत्कृष्टता पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। समिति की अध्यक्षता करने वाले राजा तो इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा कि इस पुस्तक से न केवल अल्पज्ञानी तिब्बतवासियों को लाभ होगा, बल्कि कुशाग्र भारतीय भी इससे लाभान्वित होंगे। जब विक्रमशिला के मठाधीश ने ग्रंथ को पढ़ा तो उन्होंने अनुवादक नाग्त्सो को लिखे अपने पत्र में कहा, “अब मुझे अतिश के तिब्बत में ही ठहर जाने से कोई आपत्ति नहीं है। उन्होंने जो लिखा है, उससे हम सभी को लाभ मिला है। मुझे उनसे केवल इतना ही आग्रह करना है कि वे इस ग्रंथ पर अपनी टीका लिखें और उसकी प्रति हमें भेंजें।” इस प्रकार इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के जटिल विषयों पर अतिश ने स्वयं अपनी व्याख्या लिखी।

कुछ ही समय बाद द्रोमतोंपा ने अतिश को उत्तर की ओर मध्य तिब्बत की यात्रा करने और ल्हासा का दौरा करने का निमंत्रण दिया। रास्ते में वे तिब्बत में निर्मित पहले मठ समयय मठ में रुके। अतिश वहाँ के पुस्तकालय में उपलब्ध संस्कृत और तिब्बती भाषाओं के ग्रंथों के संग्रह से बहुत प्रभावित हुए और बोले कि संस्कृत भाषा में बौद्ध ग्रंथों का इतना बड़ा संग्रह उस समय भारत में भी नहीं रहा होगा।

कुल मिलाकर, अतिश सत्रह वर्ष तक हिमाच्छादित भूमि, तिब्बत में रहे: तीन वर्ष उन्होंने न्गारी में व्यतीत किए, नौ वर्ष वे ल्हासा के निकट न्येतांग में रहे, और पाँच वर्ष उन्होंने तारा की भविष्यवाणी के अनुसार 1054 ईसवी में बहत्तर वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु के समय तक विभिन्न अन्य स्थानों में रहते हुए बिताए। अतिश के पार्थिव शरीर को न्येतांग में संलेपित और प्रतिष्ठापित किया गया और दो वर्ष बाद (1056 ईसवी में) श्रद्धेय द्रोमतोंपा ने राद्रेंग के एकांत मठ की स्थापना की, जो द्रोमतोंपा के गुरु की परम्पराओं को आगे बढ़ाने वाली कदम परम्परा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है।

अनुवादक नाग्त्सो ने अतिश को स्मरण करते हुए लिखा कि लम्बे समय तक उनके साथ रहते हुए उन्होंने न तो कभी कोई अप्रिय शब्द कहा और न ही कभी कोई अप्रिय व्यवहार किया। सूत्र और तंत्र के समाकलित मार्ग की शिक्षा देकर भारत के इस महान आचार्य ने तिब्बत में जिन धर्म का जीर्णोद्धार करने और उसमें चेतना का पुनर्संचार करने का महान कार्य किया। वस्तुतः यह उन्हीं की कृपा का परिणाम है कि धर्म के ये पुनीत उपाय आज भी अपने मूल स्वरूप में विद्यमान हैं।

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