भारत लौटने के बाद अतिश ने तीन अवसरों पर अबौद्ध चरमपंथियों को औपचारिक शास्त्रार्थ में हराकर जिन सद्धर्म की रक्षा की और उसे परिपुष्ट किया। बौद्ध धर्मसंघ के भीतर उन्होंने जहाँ-जहाँ यात्रा की वहाँ उन्होंने अनेक संस्थानों की स्थापना की, और जहाँ भी उन्हें अपभ्रष्ट या अशुद्ध अनुशीलन के संकेत दिखाई देते, वे तुरन्त उनका सुधार करते। उनकी ख्याति पूरे भारतवर्ष में फैल गई। उनकी करुणा और उनकी अन्तर्दृष्टि के कारण उन्हें विद्वान आचार्यों के सिरमौर के रूप में सम्मान दिया जाता। किन्तु उनकी विद्वता का सर्वाधिक लाभ हिमाच्छादित भूमि, तिब्बत के निवासियों को मिला।
हालाँकि मुख्यतः गुरु रिंपोश पद्मसम्भव और अनेक अन्य विद्वान आचार्यों के प्रयासों के परिणामस्वरूप कई शताब्दियों पहले ही तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार हो चुका था, किन्तु सम्राट लांगदरमा (863-906 ईसवी) के दमन के कारण बौद्ध धर्म के इस शुरुआती विकास को धक्का पहुँचा था। इस धर्म के साधकों की संख्या बहुत थोड़ी रह गई थी और बाद में स्थिति यह हो गई कि साधाना की बारीकियों को समझने वाला अब कोई नहीं बचा था। बहुत से लोग मानने लगे थे कि नैतिक आत्मानुशासन और तंत्र परस्पर असंगत हैं और उन्मत्तता तथा विभिन्न प्रकार के यौन दुराचारों के माध्यम से ज्ञानोदय की प्राप्ति सम्भव है। इस प्रकार कुछ अन्य लोग मानते थे कि हीनयान और महायान, जो क्रमशः निर्वाण और ज्ञानोदय की प्राप्ति के साधन हैं, की शिक्षाओं में भी अन्तरर्विरोध है।
पतन की ऐसी स्थिति से दुखी तिब्बत के राजा येशे-वो की उत्कट इच्छा थी कि भारत के महान मठीय केन्द्रों में से किसी विद्वान को तिब्बत आने का निमंत्रण भेजा जाए और वे आकर इस भ्रम की स्थिति को स्पष्ट करें। उन्हें अतिश के बारे में तो जानकारी नहीं थी, किन्तु उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन करने और किसी योग्य आचार्य की तलाश करने के लिए इक्कीस युवकों का एक दल भारत भेजा। इनमें से दो को छोड़ कर शेष सभी की गर्मी के कारण मृत्यु हो गई। वे दोनों किसी विद्वान आचार्य को तो आमंत्रित न कर सके, किन्तु उन्होंने संस्कृत भाषा का ज्ञान अर्जित कर लिया था, और नए अनुवादकों के रूप में रिंचेन-ज़ांग्पो (958-1051 ईसवी) और लेग्शे तिब्बत लौट आए और राजा को अतिश के बारे में समाचार बताया।
राजा ने जैसे ही अतिश के बारे में सुना, उन्होंने निश्चय कर लिया कि उन्हें इसी व्यक्ति की आवश्यकता है। फिर बिना समय गँवाए, उन्होंने बहुत सारा सोना देकर ग्यात्सॉन्सेंग के नेतृत्व में एक दूसरा दल इस आचार्य को तिब्बत आने का निमंत्रण देने के लिए भेज दिया। किन्तु इस दल के आठ सदस्यों की भी मृत्यु हो गई और, अतिश को बुला कर लाने में विफल ग्यात्सॉन्सेंग भारत में ही रुक गए। जब येशे-वो को इस दूसरे दल के भी विफल हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने एक और दल भेजने के लिए और सोना इकट्ठा करने के उद्देश्य से एक अभियान दल का स्वयं नेतृत्व करने का निश्चय किया। लेकिन इस अभियान के दौरान नेपाल की सीमा पर गार्लोग के विरोधी राजा ने उन्हें बन्दी बना लिया, क्योंकि वह तिब्बत में बौद्ध धर्म का और अधिक प्रसार नहीं होने देना चाहता था।
राजा येशे-वो के भतीजे, जंगचुब-वो को सूचना दी गई कि या तो भारत यात्रा के इस अभियान को रोक दिया जाए या फिर बन्धक बनाए गए राजा की रिहाई के लिए राजा के शरीर के वज़न के बराबर मात्रा में सोने का भुगतान किया जाए। राजा के भतीजे ने सोना इकट्ठा करने के लिए पूरे साम्राज्य का दौरा किया, किन्तु वह राजा के धड़ और हाथ-पैरों के बराबर ही सोना इकट्ठा कर सका। वह राजा के सिर के बराबर अतिरिक्त सोना जुटाने में असफल रहा। जब गार्लोग के राजा ने रिहाई के लिए तय सोने की पूरी मात्रा की मांग की तो भतीजे ने अनुरोध किया कि उसे अपने चाचा से मिलने का अवसर दिया जाए।
उसे सलाखों से बनी कारावास की एक अंधेरी कोठरी में ले जाया गया। वहाँ पहुँच कर उसने बेड़ियों में जकड़े अपने चाचा, जो बहुत दुर्बल हो चुके थे, को पूरी स्थिति की जानकारी दी, और कहा कि वह बाकी सोने की जमा करने के अपने प्रयास को जारी रखेगा। “आप उम्मीद न छोड़े,” उसने अपने चाचा से कहा, “क्योंकि मैं रिहाई के लिए आवश्यक सोना जुटा ही लूँगा। मैं तो गार्लोग के इस राजा के साथ युद्ध भी छेड़ देता, किन्तु उसमें बहुत से लोग मारे जाएंगे। इसलिए आपकी रिहाई की कीमत चुकाना ही सबसे अच्छा विकल्प दिखाई देता है।”
“प्रिय भतीजे,” राजा ने उत्तर दिया, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम इतने करुणावान और बुद्धिमान होगे। मुझे प्रसन्नता है कि तुम हिंसा की बुराइयों को समझते हो, लेकिन अब तुम मेरे बारे में सोचना छोड़ दो। बल्कि, जो भी सोना तुमने इकट्ठा किया है उसका उपयोग महान आचार्य अतिश को तिब्बत बुलाने के लिए करो। पूर्वजन्मों में मेरी मृत्यु अनगिनत बार हो चुकी है, लेकिन मैंने पहले कभी भी जिन धर्म के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग नहीं किया है। अब मुझे ऐसा करते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। तुम जिसे भी भारत भेजो, उसे कहना कि वह अतिश को बताए कि मैंने अपनी प्रजा के कल्याण और धर्म के लिए अपना जीवन न्योछावर किया है ताकि उन्हें तिब्बत बुलाया जा सके। यद्यपि मुझे इस जीवनकाल में उनसे भेंट करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि आगे के किसी जन्म में उनके दर्शन कर सकूँ।” भतीजे ने अपने चाचा की आज्ञा को स्वीकार किया और शोकविह्वल हालत में उनसे विदा ली।
जंगचुब-वो अब तिब्बत का शासक बन चुका था। उसने निश्चय किया कि अनुवादक नाग्त्सो, जो पहले भी कई बार भारत जा चुका था, तीसरे अभियान पर भेजे जाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति होगा। नए राजा ने उसे अपने महल में बुलवाया और अनुवादक नाग्त्सो को आग्रहपूर्वक राजसिंहासन पर बैठाया, और उससे मिन्नत की। “मेरे चाचा ने इसलिए अपने प्राण दिए कि अतिश को तिब्बत बुलाया जा सके। यदि उनकी यह इच्छा पूरी न हुई तो इस देश के विपदाग्रस्त लोग निश्चय ही भयावह पुनर्जन्मों के चक्र में फँस जाएंगे। मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि इन अभागे लोगों की रक्षा करें।” इसके बाद युवा राजा फूट-फूट कर रोने लगा। नाग्त्सो के सामने इस आग्रह को स्वीकार करने और भारत की एक और यात्रा की कठिनाइयों का सामना करने के सिवा और कोई विकल्प न था।
अनुवादक नाग्त्सो 700 स्वर्ण मुद्राओं और अपने छह सहयात्रियों के साथ अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। इस यात्रा में राजा ने उनके साथ कई दिनों तक यात्रा की, और वापस लौटने से पहले उसने नाग्त्सो को स्मरण कराया कि वह अतिश से कहे, “तिब्बत में अब बस इतना ही सोना बचा था, और मेरे चाचा तिब्बत के अन्तिम महान व्यक्ति थे। यदि अतिश के मन में दूसरों के लिए थोड़ा भी करुणा भाव हो, तो उन्हें आना चाहिए। यदि तिब्बत के गंवार लोगों में धर्म के प्रति इतनी चिन्ता का भाव है, और अतिश के मन में यदि चिन्ता नहीं है, तो फिर इसमें संदेह नहीं कि बौद्ध धर्म बहुत जर्जर हो चुका है और उसके उद्धार की कोई आशा शेष नहीं है!” इतना कहकर राजा अपने महल की ओर लौट गया।
भारत जाने के मार्ग में यात्रियों की इस मंडली की भेंट के एक लड़के से हुई जिसने उनसे उनकी यात्रा का प्रयोजन पूछा। प्रयोजन जानकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, “यदि आप इस प्रार्थना का उच्चार करते रहें, ‘मैं सुरक्षित मार्ग प्राप्त करने के लिए अवलोकितेश्वर को प्रणाम करता हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि तिब्बत में जिन धर्म खूब फले-फूले,‘ तो आप अपने उद्देश्य में सफल होंगे।” जब उस बालक से उसका परिचय पूछा गया तो उसने उत्तर दिया कि समय आने पर उन्हें उसका परिचय मालूम हो जाएगा।
आखिरकार यात्रियों का यह जत्था एक दिन देर रात को विक्रमशिला के एकांत मठीय विश्वविद्यालय पहुँच गया और उन्होंने विक्रमशिला के प्रवेश द्वार पर अपना डेरा डाल दिया। उनके ठीक ऊपर एक कमरे में ग्यात्सॉन्सेंग नाम का वही तिब्बती यात्री ठहरा हुआ था जिसने राजा येशे-वो के दूसरे अभियान का नेतृत्व किया था। जब उसने अपनी तिब्बती भाषा में बोलने वालों की आवाज़ें सुनी तो उसने चकित हो कर नीचे देखा और यात्रियों के दल को नीचे ठहरा हुआ पाया, और उनसे आने का कारण पूछा। तिब्बतियों के दल ने उत्साहपूर्वक उसे पूरा वृत्तान्त सुनाया, और यह भी बता दिया कि उनके भारत आने का वास्तविक उद्देश्य स्वयं अतिश को अपने साथ तिब्बत ले कर जाना था। ग्यात्सॉन्सेंग ने उन्हें सावधान किया कि वे अपने उद्देश्य को सबके सामने उजागर न करें। उसने उन्हें कहा कि वे अपना सोना द्वार पर तैनात लड़के को सौंप दें और अगली सुबह उससे आकर मिलें। यात्रियों के दल ने वैसा ही किया और उस छोटे लड़के ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे विश्राम करें और उस पर भरोसा रखें।
अगली सुबह तड़के ही उस लड़के ने उन्हें जगा दिया और उनसे भारत आने का उद्देश्य पूछा। जब यात्रियों ने उसे सब कुछ बता दिया तो लड़के ने क्रोधपूर्वक कहा, “आप तिब्बती लोग बहुत बोलते हो! आपको अपना प्रयोजन गुप्त रखना चाहिए। नहीं तो आपके काम में बहुत हस्तक्षेप होगा। महत्वपूर्ण कार्यों में कभी जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए, बल्कि ऐसे कार्यों को धीरे-धीरे, सावधानीपूर्वक और गोपनीय ढंग से करना चाहिए।” इसके बाद उसने यात्रियों को उनकी स्वर्ण मुद्राएं लौटा दीं और उन्हें मठ के बड़े से मैदान में लेकर गया।
यहाँ यात्री दल की भेंट एक बूढ़े व्यक्ति से हुई जिसने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आए हैं और उनके आने का क्या प्रयोजन है। एक बार फिर यात्रियों ने बिना कुछ छिपाए सब कुछ बता दिया तो वृद्ध ने उन्हें डपटते हुए कहा, “यदि आप लोग इस प्रकार का अविवेकपूर्ण व्यवहार जारी रखेंगे तो आप कभी अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर सकेंगे। अपना ध्येय केवल अतिश को ही बताना।” इसके बाद उसने उन्हें ग्यात्सॉन्सेंग के कमरे तक ले जाने का प्रस्ताव किया। हालाँकि वह छड़ी की सहायता से धीरे-धीरे चलता था, लेकिन कोई भी उसके साथ नहीं चल पाता था, क्योंकि अवलोकितेश्वर ही पहले दोनों लड़कों के रूप में और अब इस वृद्ध के रूप में प्रकट हुए थे, और उनके शिष्टमंडल का मार्गदर्शन कर रहे थे।
अब तिब्बतवासियों ने एक कार्य योजना तैयार की। ग्यात्सॉन्सेंग ने उन्हें यह बताने के लिए कहा कि वे संस्कृत का अध्ययन करने के लिए आएं हैं। “हमारे मुख्य मठाधीश, ज्येष्ठ रत्नाकर, अतिश के वरिष्ठ हैं और उनका बड़ा सम्मान करते हैं। यदि उन्हें आपके वास्तविक प्रयोजन के बारे में मालूम होगा तो वे आपको कभी अतिश से भेंट नहीं करने देंगे।”
अगले दिन सुबह वे मठाधीश के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें अपनी आधी स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं। उन्होंने मठाधीश से कहा कि विगत में उनके बहुत से देशवासी अतिश जैसे विद्वान आचार्यों को तिब्बत आने का निमंत्रण देने के लिए आए थे। किन्तु वे लोग तो अध्ययन करने और स्वयं विद्या प्राप्त करने के लिए आएं हैं। यह सुनकर सम्मान्य मठाधीश बहुत आश्वस्त हुए और बोले, “अवश्य ही आप लोग वैसा करें। मेरी बात को अन्यथा न समझें। ऐसा नहीं है कि मेरे मन में तिब्बत के प्रति करुणा का भाव नहीं है, किन्तु अतिश हमारे सबसे ज्ञानी आचार्यों में से एक हैं, विशेष तौर पर उनके बोधिचित्त के दृष्टिगत वे हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। यदि वे भारत छोड़ कर चले गए, तो फिर बुद्ध की शिक्षाओं को उनके ही जन्मस्थान में संरक्षित रखने की कोई उम्मीद नहीं है।” फिर भी मठाधीश इन संदिग्ध विदेशियों के प्रति शंकालु थे और उन्होंने उन्हें अतिश से नहीं मिलने दिया।
अपनी चाल की सफलता से आश्वस्त तिब्बती यात्रियों ने कक्षाओं में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। फिर कई महीनों के बाद एक महत्वपूर्ण मठीय अनुष्ठान के आयोजन का अवसर आया। चूँकि सभी को इस अनुष्ठान में भाग लेना था, इसलिए तिब्बती यात्रियों को आशा थी कि उन्हें अतिश की एक झलक देखने के लिए मिल सकेगी। प्रतीक्षा करते करते उन्होंने कई महान आचार्यों को प्रवेश करते हुए देखा। विख्यात नरोपा जैसे आचार्यों ने सहायकों की विशाल मंडली के साथ प्रवेश किया। कुछ आचार्यों के अनुचर फूल और लोबान लिए उनके आगे-आगे चल रहे थे। अन्त में अतिश वहाँ पहुँचे। उनके वस्त्र जीर्ण-शीर्ण थे, और पूजाघर और भंडारकक्ष की चाबियाँ उन्होंने अपनी कमर पर बाँध रखी थीं। तिब्बती यात्री अतिश की साधारण और प्रभावहीन छवि को देख कर बहुत निराश हुए और उन्होंने ग्येत्सॉन्सेंग से पूछा कि क्या दूसरे आकर्षक दिखने वाले आचार्यों में से किसी एक को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित करना क्या बेहतर नहीं होगा। ग्येत्सॉन्सेंग ने जवाब दिया, “नहीं, अतिश का तिब्बत के साथ गहरा लगाव है, और उनकी साधारण छवि के बावजूद आपको उन्हें ही लेकर जाना चाहिए।”
आखिरकार एक गुप्त बैठक आयोजित की गई। नाग्त्सो ने एक गोल मण्डल प्रतीक वाले थाल पर ऊँचे ढेर के रूप में सजी स्वर्ण मुद्राएं अतिश को भेंट कीं और अतिश को तिब्बत में हो रहे पवित्र धर्म के ह्रास की पूरी कथा सुनाई। राजा येशे-वो के बलिदान की बात बताकर और राजा तथा उसके भतीजे दोनों के वचनों को दोहराते हुए नाग्त्सो ने अतिश से अनुनय किया के वे तिब्बत पधारें।
अतिश ने उनकी उदारता की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनके मन में इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है कि तिब्बत के वे दोनों ही राजा दरअसल बोधिसत्व हैं। उन्होंन कहा कि वे समस्याओं को समझते हैं और तिब्बत के राजा के बलिदान का सम्मान करते हैं, किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि अतिश अब बूढ़े हो रहे हैं और उन पर मठ के भंडारकक्ष की बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं। फिर भी उन्होंन उम्मीद जताई कि वे जा सकते हैं, और उन्होंने स्वर्ण मुद्राएं वापसी की यात्रा के प्रबंध के लिए लौटा दीं। “किन्तु, उससे पूर्व,” उन्होंने तिब्बती यात्रियों से कहा, “मुझे अपनी इष्टदेवी की सम्मति लेनी होगी।”
उस रात तारा अतिश के स्वप्न में प्रकट हुईं और उन्होंने अतिश को बताया कि उनकी यात्रा पूरी तरह सफल होगी। तिब्बतवासियों को उनसे बहुत लाभ होगा और वहाँ उन्हें एक ऐसा शिष्य मिलेगा जिसके साथ उनकी विशेष घनिष्ठता होगी। यह शिष्य गृहस्थ प्रतिज्ञाओं वाला उपासक होगा और धर्म का और भी अधिक प्रसार करेगा। “किन्तु,” तारा ने अतिश से कहा, “यदि तुम भारत में ही रहोगे तो तुम बानवे वर्ष की अवस्था तक जिओगे, और यदि तुम तिब्बत गए तो तुम बहत्तर वर्ष की आयु तक ही जीवित रहोगे।” अब अतिश के मन में विश्वास जाग्रत हो गया कि वे इन तिब्बतियों के साथ जा सकते हैं, और यदि वे सचमुच दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं तो अपने जीवन के बीस वर्षों का त्याग करने में कोई हानि नहीं है। बस उन्हें उस चालाक मठाधीश से जाने की आज्ञा पाने के लिए कोई कुशल युक्ति सोचनी होगी।
पहले उन्होंने विक्रमशिला के पूर्व, दक्षिण, और उत्तर में तीर्थयात्राओं पर जाने की अनुमति मांगी। उन्हें अनुमति मिल गई और उन्होंने बहुत से पवित्र स्थलों का दौरा किया। इसके बाद उन्होंने उत्तर की ओर यात्रा करने के लिए अनुमति मांगी, किन्तु उनके ज्येष्ठ ने उनकी छिपी हुई मंशा को भांपते हुए अनुमति देने से इन्कार कर दिया।
इससे तिब्बती शिष्टमण्डल में घोर निराशा छा गई और उन्होंने निश्चय किया कि अब मठाधीश को पूरी सच्चाई बता देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उनकी बात सुनकर अविचल मठाधीश ने दिखावटी क्रोध प्रदर्शित किया तो तिब्बती यात्री उसके चरणों में गिर पड़े और क्षमा की याचना करने लगे। “अतिश को आप लोगों के साथ न भेज पाने के मेरे कारण वही हैं जो पहले थे,” मठाधीश ने उनसे कहा, “किन्तु चूँकि तिब्बत को उनकी इतनी अधिक आवश्यकता है, इसलिए मैं उन्हें तीन वर्ष के लिए आपके देश जाने की अनुमति दे सकता हूँ। किन्तु आप लोगों को वचन देना होगा कि यह अवधि बीतने के बाद आप उन्हें भारत वापस भेज देंगे।” आनन्द से अभिभूत तिब्बतवासियों ने अपना वचन दे दिया।