अतिशा का जीवन

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बाल्यकाल तथा राजसी जीवन का परित्याग

पूर्वी भारत के बंगाल स्थित सहोर के स्वर्ण पताका प्रासाद में सम्राट कल्याण और उनकी साम्राज्ञी प्रभावती रहा करते थे। राजप्रासाद में तेरह स्वर्णजड़ित छतें थीं जो एक-दूसरे के ऊपर बनी थीं, और 25,000 स्वर्ण-पताकाओं से सुसज्जित थीं। प्रासाद अनगिनत उद्यानों, तालाबों, और सुन्दर बाग-बगीचों से घिरा था। उनका साम्राज्य चीन के समृद्ध राजवंशों की ही भांति वैभवसम्पन्न था।

राज-दम्पत्ति के तीन पुत्र थे, पद्मगर्भ, चंद्रगर्भ, और श्रीगर्भ। इनमें से दूसरा राजकुमार बड़ा होकर विख्यात आचार्य अतिश (982-1054 ईसवी) के नाम से जाना गया।

जब अतिश अठारह माह के थे, तब उनके माता-पिता ने कमलापुरी के स्थानीय मन्दिर में उनके लिए पहली सार्वजनिक सभा का आयोजन किया। किसी के निर्देश के बिना ही अतिश ने मन्दिर में स्थापित पूजनीय प्रतीकों को साष्टांग प्रणाम किया और फिर बिना किसी पूर्व तैयारी के सहज भाव से उच्चार करने लगे, “मेरे माता-पिता की कृपा के फलस्वरूप मुझे यह बहुमूल्य जीवन प्राप्त हुआ है जो आप जैसी महान प्रतिमाओं के दर्शन के सुअवसरों से परिपूर्ण है। मैं जीवन में सदैव आपकी शरण ग्रहण करूँगा।” मन्दिर के बाहर जब प्रजा से उनका परिचय कराया गया तो उन्होंने प्रार्थना की कि वे अपनी प्रजा की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी पूरी क्षमता से कार्य कर सकें। उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि वे पारिवारिक जीवन का त्याग करने वाले आध्यात्मिक जिज्ञासु के वस्त्र धारण करने योग्य बन सकें, कभी अहंकारी न हों, और दूसरों के लिए सदैव करुणामय सहानुभूति और हितकारिता का भाव बनाए रख सकें। इतने छोटे बालक के लिए ऐसा व्यवहार करना एक अत्यंत असाधारण घटना थी।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ अतिश की भिक्षु बनने की इच्छा बलवती होती चली गई, किन्तु उनके माता-पिता की इच्छाएं कुछ और ही थीं। तीनों पुत्रों में वे सबसे मेधावी थे, और उनके जन्म के समय घटित शुभ लक्षणों के कारण माता-पिता को विश्वास हो चला था कि वे ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी बनेंगे। इसलिए, जब बालक अतिश ग्यारह वर्ष के हुए, जो उस समय की प्रथा के अनुसार विवाह योग्य आयु मानी जाती थी, तो उनके विवाह के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियाँ की गईं।

विवाह की पूर्वसंध्या पर बुद्ध-स्वरूपा तारा अतिश के स्वप्न में प्रकट हुईं। उन्होंने अतिश को बताया कि पिछले लगातार 500 जन्मों से वे भिक्षु ही रहे हैं और इसलिए उन्हें अनित्य सांसारिक सुखों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। तारा ने उन्हें समझाया कि किसी साधारण मनुष्य को संसार की मरीचिका से बचा कर निकालना उसी प्रकार आसान होगा जैसे बलुआ-पंक में फंसी किसी बकरी को आसानी से मुक्त कराया जा सकता है। लेकिन एक राजकुमार के रूप में उन्हें बचाना उसी प्रकार दुःसाध्य होगा जैसे किसी हाथी को बलुआ-पंक से निकालना कठिन होता है। बालक अतिश ने इस स्वप्न के विषय में किसी से भी चर्चा नहीं की, किन्तु कोई अन्य कारण बताकर वे बड़ी चतुराई से अपने विवाह को टाल गए।

अतिश अपने लिए एक आध्यात्मिक गुरु तलाश करने का निश्चय कर चुके थे, किन्तु अपने माता-पिता को उन्होंने यही कहा कि उनकी इच्छा आखेट पर जाने की है; और इस प्रकार अतिश 130 घुड़सवारों के साथ अपने महल से निकल पड़े। वन में सबसे पहले उनकी भेंट पुण्यात्मा जेतारि से हुई, जो एक ब्राह्मण पुरोहित थे और एक बौद्ध के रूप में वन में एकान्तवास में रह रहे थे। नौजवान अतिश ने उनसे जीवन में सुरक्षित मार्ग और बोधिसत्व की प्रतिज्ञाओं की औपचारिक दीक्षा ग्रहण की। बाद में पुण्यात्मा जेतारि ने उन्हें नालंदा के एकान्त मठीय विश्वविद्यालय में जाने और आचार्य बोधिभद्र से भेंट करने की सलाह दी।

जल्दी ही अतिश अपने सभी घुड़सवारों के साथ नालंदा के लिए रवाना हो गए, और वहाँ पहुँच कर उन्होंने एक बार फिर बोधिसत्व की प्रतिज्ञाओं और शिक्षाओं की दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद उन्हें आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्याकोकिला के पास भेज दिया गया और तदनंतर उन्हें यशस्वी विद्वान अवधूतिपाद के पास भेजा गया। अवधूतिपाद ने किशोर अतिश को अपने घर लौट जाने, सभी के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करने, लेकिन साथ ही अपने विलासितापूर्ण जीवन के दोषों को समझने और फिर लौट कर अपना अनुभव बताने की सलाह दी।

अतिश के माता-पिता उन्हें लौटा देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और सोचने लगे कि अब उनके पुत्र का घर बस जाएगा, वह विवाह कर लेगा और भविष्य में अपने राज-काज के लिए तैयारी करेगा। किन्तु किशोर अतिश ने उन्हें बताया कि वे तो दरअसल जीवन में दिशानिर्देश प्राप्त करने के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु की तलाश में गए थे। उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी इच्छा तो केवल एक शांत, मननशील जीवन जीने की है और वे तो केवल अपने राजसी दायित्वों से मुक्त होने की अनुमति लेने के लिए ही लौटे हैं।

उनके वचनों को सुनकर स्तब्ध माता-पिता ने अतिश को रुकने के लिए मनाने का यत्न किया। उन्होंने कहा कि अतिश वहीं रहकर दोनों प्रकार का जीवन जी सकते हैं और राजप्रासाद के निकट ही एकांत मठों का निर्माण करने का प्रस्ताव तक रखा जहाँ रहते हुए अतिश अपना अध्ययन और निर्धनों के पोषण आदि का कार्य जारी रख सकते थे। उन्होंने मिन्नतें कीं कि अतिश वन में लौट कर न जाएं। किन्तु अतिश ने उनसे स्पष्ट कहा कि राजसी जीवन के प्रति उन्हें लेशमात्र भी मोह नहीं है। वे बोले, “यह स्वर्ण-जड़ित प्रासाद मेरे लिए किसी कारावास से भिन्न नहीं है। जिस राजकुमारी से आप मेरा विवाह करने का प्रस्ताव करते हैं वह मेरे लिए किसी राक्षस-पुत्री से अलग नहीं है, ये मिष्ठान्न किसी श्वान के विगलित मांस से अलग नहीं हैं, और ये साटन के वस्त्र और आभूषण कूड़े के ढेर पर पड़े चीथड़ों से अधिक कुछ नहीं हैं। मुझे केवल थोड़ा सा दूध, शहद, और गुड़ उपलब्ध करा दिया जाए और फिर मैं आपसे विदा लेने की आज्ञा चाहूँगा।”

अतिश के माता-पिता उन्हें रोकने के लिए कुछ न कर सके इसलिए उन्होंने अतिश के अनुरोध को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार अतिश माता पिता के बहुत अनुनय करने पर राजसी अनुचरों की एक बड़ी टोली के साथ वन को लौट गए। इस बार अवधूतिपाद ने युवा राजकुमार को तंत्र की साधना शुरू करने के लिए काले पर्वत पर निवास करने वाले आचार्य राहुलगुप्त के पास भेजा। अतिश अपने सभी घुड़सवारों के साथ इस वज्रयान आचार्य के पास पहुँचे और उन्हें बताया कि वे अनेक आचार्यों के पास शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं लेकिन अभी तक राजसी जीवन के साथ अपने बंधन को काट नहीं सके हैं। राहुलगुप्त ने उन्हें अपना पहला अभिषेक दिया, जो कि हेवज्र बुद्ध-स्वरूप से सम्बंधित था, जिससे वे अपने चित्त को बाँध सकें। इसके बाद राहुलगुप्त ने उन्हें अपने आठ शिष्यों, चार पुरुष और चार महिला शिष्यों जो अत्यल्प वस्त्र और अस्थिनिर्मित आभूषण धारण करते थे, के साथ उनके राजमहल वापस भेज दिया।

तीन महीने तक अशित पूर्णतः विचित्र और अमर्यादित व्यवहार वाले सहचरों के साथ राजप्रासाद के वातावरण में रहे। अन्ततः विवश हो कर उनके माता-पिता ने अपने प्रिय पुत्र के बारे में हर प्रकार की आशा छोड़ दी। यह मानते हुए कि उनके पुत्र का मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है, उन्होंने अशित को पूर्ण आज्ञा दे दी कि वे अपनी अरुचिकर मित्र मंडली को लेकर चले जाएं और फिर कभी लौट कर न आएं।

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