गम्पोपा का जीवन

मोक्षरत्नालंकार कदम और महामुद्रा परम्पराओं की मिली-जुली धाराओं को प्रस्तुत करता है। इस ग्रंथ के लेखक गम्पोपा (1079-1153 ईसवी) ने कदम्पा परम्परा के अनेक आचार्यों से शिक्षा ग्रहण की जिन्होंने उन्हें अपनी-अपनी गुरु परम्पराओं की साधनाओं और विचारधाराओं का ज्ञान प्रदान किया। अपने गुरु मिलारेपा से महामुद्रा की शिक्षाओं और परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त करने के बाद गम्पोपा ने शिक्षाओं की इन दोनों धाराओं को एक धारा के रूप में सम्मिश्रित कर दिया।

इस ग्रंथ का अध्ययन और उसकी विवेचना करने के लिए हमें उसके लेखक गम्पोपा का थोड़ा परिचय प्राप्त करने की आवश्यकता होगी। ग्रंथकार के जीवन परिचय के बिना उसके ग्रंथ का महत्व अधिक नहीं रहेगा। हमें गम्पोपा को जानना होगा और समझना होगा कि एक साधारण मनुष्य के रूप में जीवन बिताने वाले गम्पोपा ने अपनी साधना से किस प्रकार वास्तविक आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हासिल कीं। उनकी शिक्षाएं उनके अनुभव और धर्म की साधना का परिणाम हैं।

भविष्यवाणियाँ

जब मिलारेपा अपने विभिन्न शिष्यों से मिले भी नहीं थे, उससे पूर्व बुद्ध-स्वरूपा वज्रयोगिनी उनके स्वप्न में प्रकट हुईं और उन्होंने भविष्यवाणी की उन्हें निकट भविष्य में सूर्य के समान तेजवान, चन्द्रमा के समान दीप्तिमान, और तारों के समान देदीप्यमान अनेक अन्य शिष्य प्राप्त होंगे। वह सूर्य के समान तेजवान शिष्य गम्पोपा थे, जिन्हें दाग्पो के महान चिकित्सक के नाम से भी जाना जाता है। वे रेचुंग्पा (1084-1161 ईसवी) और कई अन्य विद्वानों के साथ-साथ मिलारेपा के मुख्य शिष्यों में से एक हुए।

गम्पोपा कोई साधारण मनुष्य नहीं थे। इस समयखण्ड और ब्रह्माण्ड में उनकी उपस्थिति की भविष्यवाणी कई सूत्रों, विशेष तौर पर सद्धर्म पुंडरीकसूत्र में स्पष्ट तौर पर इस प्रकार की गई थी:

शाक्यमुनि बुद्ध के समय में एक दिन बुद्ध अपने शिष्य आनन्द से बोले, “आनन्द, मेरे परिनिर्वाण में प्रवेश करने के बाद, इस गोलार्ध के उत्तर की दिशा में एक पूर्ण दीक्षित भिक्षु होगा जिसे लोग भिक्षु चिकित्सक कह कर सम्बोधित करेंगे।” गम्पोपा एक भिक्षु थे, एक योग्य चिकित्सक थे और चिकित्साशास्त्र की नैसर्गिक प्रतिभा से सम्पन्न थे। “यह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो धर्म की पूर्ण समर्पित साधना के कई जन्मों से गुज़र चुका होगा, और कई आध्यात्मिक गुरुओं से शिक्षा प्राप्त कर चुका होगा।”

गम्पोपा का गृहस्थ जीवन

गम्पोपा का जन्म नेपाल की सीमा के निकट तिब्बत के दक्षिणी क्षेत्र दाग्पो में स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता उस गाँव के एक विख्यात चिकित्सक थे। गम्पोपा अपने माता-पिता के दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र थे। बालक के रूप में गम्पोपा अत्यंत बुद्धिमान थे। उन्होंने अपने पिता के व्यवसाय को सीख लिया और वे स्वयं भी एक महान चिकित्सक हो गए। जब वे लगभग पन्द्रह वर्ष के थे, तब उन्होंने बहुत से निंग्मा धर्मग्रंथों का अध्ययन कर लिया और इस प्रकार उन्होंने निंग्मा परम्परा के बारे में भी विशाल ज्ञानराशि अर्जित कर ली। उन्होंने और भी बहुत से आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया और बाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पड़ोसी गाँव के एक बहुत ही धनाढ्य परिवार की पुत्री चोग्मे से विवाह किया। विवाह के बाद उनके घर एक पुत्र और एक पुत्री ने जन्म लिया।

कुछ वर्ष बाद उनके पुत्र की अचानक मृत्यु हो गई। गम्पोपा अपने पुत्र के शव को श्मशान लेकर गए और उस क्षेत्र की रीति के अनुसार उसका अन्तिम संस्कार किया। जब वे पुत्र का अन्तिम संस्कार करके घर लौटे तो पाया कि उनकी पुत्री की भी मृत्यु हो चुकी है। पुत्री की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ही उनकी पत्नी भी अनेक रोगों से ग्रसित हो गई। स्वयं चिकित्सक होने के नाते गम्पोपा ने पत्नी को सभी प्रकार की ओषधियाँ दीं, दूसरे चिकित्सकों से भी परामर्श किया और पत्नी के स्वास्थ्य लाभ के लिए विभिन्न प्रकार से पूजा-पाठ भी किया, किन्तु कोई लाभ न हुआ। ज्यों-ज्यों पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ता गया, उनकी उम्मीद टूटती चली गई। आखिरकार गम्पोपा पत्नी के सिराहने बैठे और उसकी मृत्यु की तैयारी के लिए एक सूत्र का पाठ किया। किन्तु पत्नी के प्राण नहीं छूटे।

गम्पोपा चकित थे कि पत्नी के प्राण क्यों नहीं छूट पा रहे हैं। ऐसा क्या है जो उसे मरने से रोक रहा है? लगातार पीड़ा और दुख भरे इस जीवन में किस मोह के कारण वह जीवन का त्याग नहीं कर पा रही है? गम्भीर रूप से बीमार और निश्चेष्ट पड़ी पत्नी की दशा देखकर गम्पोपा का हृदय करुणा से भर आया, उन्होंने धीमे स्वर में पत्नी से पूछा, “मैं तुम्हें पुनः स्वस्थ करने के लिए हरसम्भव प्रयत्न कर चुका हूँ। तुम्हारे स्वास्थ्य लाभ के लिए अनेक चिकित्सकों, ओषधियों और सभी प्रकार की पूजा-प्रार्थना और कर्मकाण्डों का सहारा लिया, किन्तु सब कुछ निष्फल रहा। ये सभी उपाय तुम्हारे पिछले कर्मों के कारण प्रभावी नहीं हो सके। हमारे पूर्व जन्मों की कार्मिक शक्तियाँ और प्रार्थनाएं तुम्हें और मुझे एक साथ जोड़ती हैं। किन्तु अब, हालाँकि मुझे तुमसे बहुत स्नेह और प्रेम है, मुझे तुमसे पूछना पड़ेगा कि वास्तव में ऐसा क्या है जो तुम्हें यहाँ रोके हुए है? हमारे घर की कोई धन-सम्पत्ति, कोई भौतिक साधन जो हमने साथ मिलकर जुटाए हैं, यदि ये तुम्हें रोक रहे हैं या तुम्हें इनमें से किसी से भी बहुत अधिक लगाव या मोह है, तो मैं उन सब को त्याग दूँगा। मैं उन्हें बेच दूँगा या मठ को उपहारस्वरूप भेंट कर दूँगा या निर्धनों में बाँट दूँगा। ऐसी कोई भी वस्तु जो तुम्हारे देहत्याग करने में बाधक हो रही हो, मैं उससे छुटकारा पा लूँगा। मैं वही करूँगा जो तुम चाहती हो।”

चोग्मे ने उत्तर दिया, “मुझे धन सम्पत्ति या घर की किसी वस्तु से कोई मोह नहीं है। इन सब के कारण मेरे प्राण नहीं अटके हैं। मैं तो तुम्हारे भविष्य को लेकर चिन्तित हूँ, और इसी कारण से मेरे प्राण नहीं छूट पा रहे हैं। मेरी मृत्यु के बाद तुम आसानी से दुबारा विवाह कर सकोगे और तुम्हारे हम से भी अधिक पुत्र और पुत्रियाँ होंगी। लेकिन मुझे लगता है कि इस प्रकार के जीवन का तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारे विषय में विशेष तौर पर चिन्तित हूँ। यदि तुम मुझे वचन दो कि तुम ऐसा जीवन व्यतीत करने के बजाए धर्म के समर्पित साधक के रूप में अपना जीवन बिताओगे ─ जो कि अपनी और दूसरे सचेतन जीवों की खुशी की प्राप्ति का सबसे प्रभावशाली और योग्य साधन है, तो मैं शांतिपूर्वक इस जीवन का त्याग कर सकूँगी। नहीं तो मेरे प्राण लम्बे समय तक यूँ ही अटके रहेंगे।”

“यदि ऐसा है,” गम्पोपा ने कहा, “तो मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं धर्म का समर्पित साधक बन जाऊँगा और अपनी इस जीवनचर्या का त्याग कर दूँगा।”

चोग्मे ने कहा, “यद्यपि मुझे आपके वचन पर भरोसा है, किन्तु मुझे पूर्णतः प्रसन्न और अपने वचन के प्रति आश्वस्त करने के लिए आप कृपया किसी साक्षी को ले आएं।”

गम्पोपा ने अपने चाचा से अपनी शपथ का साक्षी बनने का आग्रह किया। अपनी प्रिय पत्नी के समक्ष और अपने चाचा को साक्षी मानते हुए गम्पोपा ने शपथ ली कि वे अपना जीवन धर्म को समर्पित कर देंगे। चोग्मे बहुत प्रसन्न हुईं और बोलीं, “अपनी मृत्यु के बाद भी मैं आपकी देखभाल करूँगी।” इतना कहकर उन्होंने गम्पोपा का हाथ थामा और अश्रुपूरित नेत्रों से जगत से विदा हो गईं।

गम्पोपा ने अपनी पत्नी के अन्तिम संस्कार के लिए व्यापक व्यवस्था की। उनकी देह की राख, हड्डियों और मिट्टी से उन्होंने बहुत सी मन्नत की पटलिकाएं बनाईं जिन पर प्रबुद्ध जनों की प्रतिमाएं अंकित की गई थीं। अपनी पत्नी के सम्मान में उन्होंने “चोग्मे के स्तूप” का निर्माण करवाया जो आज भी तिब्बत में मौजूद है।

अब जब गम्पोपा एकाकी हो गए, तो उन्होंने अपनी सम्पत्ति को दो बराबर हिस्सों में बाँट दिया। एक हिस्सा उन्होंने बेच दिया और उससे प्राप्त धन को उन्होंने त्रिरत्न के लिए अर्पण के रूप में भेंट कर दिया और निर्धनों और ज़रूरतमन्दों को बाँट दिया। सम्पत्ति का दूसरा भाग उन्होंने अपने जीवनयापन और धार्मिक कार्यों के लिए बचा रखा।

एक दिन गम्पोपा के चाचा, जो गम्पोपा द्वारा चोग्मे को दिए गए वचन के साक्षी बने थे, यह सोचकर गम्पोपा से मिलने पहुँचे कि वे अपनी प्रिय पत्नी की मृत्यु के बाद गहरे शोक में होंगे। उन्होंने कहा कि वे उन्हें सलाह देने आए थे, उनसे यह कहने के लिए आए थे कि गम्पोपा चिन्तित न हों, और वे कर्म के सिद्धान्त के आलोक में स्थिति को समझा कर गम्पोपा को सांत्वना देने के उद्देश्य से आए थे।

गम्पोपा ने उन्हें उत्तर दिया कि वे बिल्कुल भी चिन्तित नहीं हैं। बल्कि वे खुश थे कि उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। यह सुनकर चाचा अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने मुट्ठी भर धूल उठाकर गम्पोपा के चेहरे पर फेंक दी। “क्या कहना चाहते हो तुम?” वे चिल्लाए। “तुम्हें उससे बेहतर पत्नी नहीं मिल सकती थी, उसका व्यक्तित्व इतना सुन्दर था!”

क्रोध के इस आवेग से हैरान गम्पोपा ने अपने चाचा से प्रश्न किया, “आप कैसे साक्षी हैं? क्या आप उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे जब मैंने धर्म की साधना के लिए समर्पित होने का वचन दिया था? क्या आपने सुना नहीं था?” यह उत्तर सुनकर चाचा बहुत लज्जित हुए और बोले, “तुमने बिल्कुल सत्य कहा। हालाँकि मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे कभी धर्म की साधना करने का स्मरण नहीं रहता है, जबकि तुमने इतने युवा होते हुए भी अध्यात्म के मार्ग पर चलने का साहस दिखाया है। यदि मैं किसी प्रकार से तुम्हारी सहायता कर सकूँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।”

भिक्षु की दीक्षा ग्रहण करना और कदम परम्परा के आचार्यों से शिक्षा ग्रहण करना

एकाकी जीवन व्यतीत करने का निर्णय कर चुके गम्पोपा ने एक दिन बहुत से कपड़े और भोजन आदि की रसद इकट्ठा की, और अपने सम्बंधियों और मित्रों को कुछ भी बताए बिना वे किसी गुरु की तलाश में अपने गृहनगर से पैन्पो क्षेत्र की ओर निकल पड़े।

कुछ ही दिनों बाद उनकी मुलाकात कदम परम्परा के करुणावान आचार्य शावा-लिंग्पा से हुई और उन्होंने अनुरोध किया कि वे उन्हें नवदीक्षित और पूर्ण भिक्षु की प्रतिज्ञाओं की दीक्षा दें। उन्हें सोनम-रिंचेन दीक्षा नाम प्राप्त हुआ। भिक्षु के रूप में उन्होंने अनेक कदम्पा गेशेगण के साथ गहन साधना करते हुए इन महान आचार्यों के साथ ध्यानसाधना का अभ्यास और अध्ययन किया। वे अक्सर कई दिनों तक बिना भोजन या पानी की एक भी बूँद के आनन्दमय मानसिक और शारीरिक अवस्था में पूर्ण एकाग्रता को बनाए रखते थे। गम्पोपा समाधि एकाग्रता के उस स्तर को प्राप्त कर चुके थे कि वे सात दिनों तक पूर्ण एकाग्रता के साथ ध्यानस्थ रह सकते थे।

इस प्रकार अपने गुरु मिलारेपा की खोज में निकलने से पहले गम्पोपा अपनी धर्म साधना व्यापक अन्तर्दृष्टि और आत्मविश्वास अर्जित कर चुके थे। उन्होंने कदम परम्परा की सम्पूर्ण शिक्षाओं पर महारत हासिल कर ली थी और वे दशम स्तर के बोधिसत्व जैसे अद्भुत स्वप्नों का अनुभव करते थे। वे अक्सर स्वप्न में छड़ी की सहायता से चलने वाले एक नीले योगी को देखा करते थे जो अपना दाहिना हाथ उनके सिर पर रख देता था और कभी-कभी उन पर थूक भी दिया करता था। उन्हें लगा कि यह विचित्र स्वप्न उनकी धर्म की साधना में व्यवधान और बाधा डालने का प्रयत्न करने वाली किसी बुरी आत्मा का संकेत हैं, जिससे मुक्ति के लिए उन्होंने अचल की एकांत गहन साधना की। अचल प्रचंड आकृति वाले संरक्षक देव हैं जिनकी ध्यान साधना विशेष रूप से कदम परम्परा में साधना के मार्ग के सभी विघ्नों को दूर करने के लिए की जाती है। किन्तु इस एकांत साधना के बाद उन्हें वह स्वप्न और अधिक दिखाई देने लगा, उसकी तीव्रता और प्रबलता अब पहले से अधिक हो गई थी। गम्पोपा को इस बात का आभास तक नहीं था कि यह स्वप्न इस बात का संकेत था कि शीघ्र ही उनकी भेंट उनके अगले शिक्षक महान योगी मिलारेपा से होने वाली थी।

मिलारेपा से भेंट

गम्पोपा को मिलारेपा के नाम की जानकारी पहली बार उस समय हुई जब उन्होंने एक स्तूप स्मारक की परिक्रमा करते समय तीन भिक्षुकों को आपस में बातचीत करते हुए सुना। उनमें से एक भिक्षुक बार-बार देश में चल रहे अकाल के बारे में शिकायत कर रहा था और कह रहा था कि अकाल के कारण उसे लम्बे समय से भोजन नहीं मिला था। दूसरे भिक्षुक ने उत्तर में कहा कि यह उनके लिए लज्जा की बात थी कि वे लोग बार-बार भोजन की ही बात कर रहे थे, यदि स्तूप की परिक्रमा कर रहे उस भिक्षु ने उन बातों को सुन लिया तो बड़ी लज्जाजनक स्थिति होगी। “और उसके अलावा,” उस भिक्षुक ने कहा, “अकेले हम लोग ही भूखे नहीं हैं। विख्यात संत योगी मिलारेपा के बारे में सोचो, जो कभी भोजन नहीं करते हैं, बस पर्वतों पर रहते हुए केवल धर्म की साधना के लिए समर्पित रहते हैं। वे तो कभी भोजन की अनुपलब्धता की शिकायत नहीं करते हैं। हम सभी को प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे भीतर भी उनके जैसा सादगीपूर्ण जीवन जीने का भाव जाग्रत हो सके।”

मिलारेपा का नाम सुनकर गम्पोपा को अत्यंत आनन्द और प्रसन्नता की अनुभूति हुई। जब उन्होंने यह बात अपने शिक्षक को बताई तो उनके शिक्षक बोले, “मैं तो पहले से ही जानता था कि ध्यान साधना के ऐसे महान आचार्य के साथ तुम्हारा घनिष्ठ कार्मिक सम्बंध है। उनके पास चले जाओ और सब मंगल होगा।”

उस रात गम्पोपा शायद ही सो सके। रात के अधिकांश समय वे गहन प्रार्थना करते रहे कि शीघ्र ही महान योगी मिलारेपा से उनकी भेंट हो जाए। आखिरकार जब उन्हें नींद आई तो उन्हें एक विशेष स्वप्न दिखाई दिया जिसमें उन्हें एक सफेद शंख का नाद सुनाई दिया, जो पृथ्वी पर तीव्रतम स्वर था। जब उन्होंने अपने शिक्षक को इस स्वप्न के विषय में भी बताया तो उनके शिक्षक ने कहा, “यह एक अत्यंत शुभ संकेत है। तुम इसी क्षण मिलारेपा की खोज में निकल पड़ो।”

गम्पोपा दौड़ते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ वे भिक्षुक ठहरे हुए थे, और उनसे पूछने लगे कि क्या वे व्यक्तिगत तौर पर मिलारेपा से परिचित हैं और यदि वे जानते हैं कि मिलारेपा कहाँ रहते हैं, तो क्या वे उन्हें इस महान शिक्षक के पास ले जा सकेंगे। उन्होंने भिक्षुकों से कहा कि उनके सोलह आउंस सोना है जिसमें से आधा वे उन भिक्षुकों को दे देंगे और आधा वे अपने गुरु से भेंट के समय उन्हें उपहारस्वरूप देने के लिए अपने पास रख लेंगे। उनमें से सबसे बुज़ुर्ग भिक्षुक ने कहा कि वह मिलारेपा को जानता है और वह गम्पोपा को मिलारेपा की गुफ़ा तक का मार्ग दिखाने के लिए सहमत हो गया।

वह बुज़ुर्ग भिक्षुक धूर्त था, और रास्ते में उसने स्वीकार किया कि उसे गुफ़ा का रास्ता मालूम नहीं है। उसने कहा कि उसकी तबियत ठीक नहीं है और वह गम्पोपा को उससे आगे का रास्ता नहीं दिखा सकता है। वे एक ऐसे निर्जन स्थान पर आ पहुँचे थे जहाँ न कोई बस्ती थी, न लोग या कोई पशु; वह स्थान एकदम सुनसान था। भिक्षुक गम्पोपा को छोड़ कर चला गया और वे एकदम अकेले रह गए। वे बिना भोजन के कई दिनों तक अकेले भटकते रहे, फिर व्यापारियों के एक समूह से उनकी मुलाकात हुई। गम्पोपा ने उनमें से एक व्यापारी से मिलारेपा का पता पूछा। व्यापारी ने उन्हें बताया कि वह मिलारेपा को जानता है, और उसने यह भी कहा कि वे एक बड़े साधक और महान योगी हैं। उसने बताया कि मिलारेपा एक गुफ़ा से दूसरी गुफ़ा में और एक शहर से दूसरे शहर में अपना ठिकाना बदलते रहते हैं, लेकिन इन दिनों वे इसी नगर में ठहरे हुए हैं और उस गुफ़ा में रहते हैं। उसने एक गुफ़ा की ओर इशारा करते हुए भावी शिष्य को महान योगी के पास पहुँचने का स्पष्ट मार्ग दिखाया। आनन्द से अभिभूत गम्पोपा ने अपना आभार व्यक्त करते हुए व्यापारी को गले लगा लिया और बहुत देर तक उसे गले लगाए रखा।

कई दिनों की लम्बी यात्रा की थकान और भूख के कारण गम्पोपा मूर्छित हो कर ज़मीन पर गिर पड़े। जब उन्हें होश आया तो वे सोचने लगे कि उनके कर्मफल ऐसे नहीं हैं कि वे इस महान योगी से मिल सकें और उन्हें लगा कि अब उनकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए उन्होंने हाथ जोड़ लिए और गहरी कृतज्ञता और सम्मान के भाव के साथ प्रार्थना करने लगे कि उनका पुनर्जन्म मनुष्य के रूप में हो और वे मिलारेपा के शिष्य के रूप में जन्म लें।

जब गम्पोपा अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए ज़मीन पर लेटे हुए थे तभी एक कदम्पा आचार्य की दृष्टि उन पर पड़ी। गम्पोपा को कठोर ज़मीन पर गिरा हुआ देख कर वे सहायता के लिए दौड़े आए। उन्होंने पूछा, “तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” गम्पोपा ने उत्तर दिया, “मैं महान आचार्य मिलारेपा को तलाश कर रहा हूँ। मैं कई दिनों से भूखा-प्यासा यात्रा कर रहा हूँ। अब मुझे लगता है कि मृत्यु मेरे सामने खड़ी है, और मुझे बहुत दुख है कि मेरा कर्मफल ऐसा नहीं है कि मैं इस महान गुरु के दर्शन कर सकूँ।” कदम्पा आचार्य पानी और कुछ भोजन लेकर आए और फिर उन्होंने गम्पोपा को उस नगर का मार्ग बताया जहाँ मिलारेपा ठहरे हुए थे।

जब वे उस नगर में पहुँचे तो उन्होंने कई लोगों से पूछताछ की कि वे इन महान गुरु से किस प्रकार मिल सकते हैं और उनसे अपने इच्छित विषयों की शिक्षाएं किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं। आखिरकार उनकी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो स्वयं एक महान आचार्य था और उन सिद्ध योगी का शिष्य था। गम्पोपा ने उसे बताया कि वे इस महान गुरु के दर्शन करने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने की उत्कट इच्छा लेकर आए हैं। उस आचार्य ने बताया कि महान योगी मिलारेपा से शीघ्र भेंट कर पाना सम्भव नहीं होगा। उसने गम्पोपा से कहा कि उन्हें कुछ दिन प्रतीक्षा करनी होगी और शिक्षा का आरम्भ करने से पहले परीक्षा से होकर गुज़रना होगा।

कुछ ही दिनों पहले मिलारेपा ने अपने शिष्यों के साथ एक बैठक की थी जिसमें उन्होंने अपने शिष्यों को गम्पोपा के आगमन कि विषय में बताया था। उन्होंने कहा था कि वे एक ऐसे भिक्षु चिकित्सक के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो उनसे शिक्षा प्राप्त करके बुद्ध की समस्त शिक्षाओं को ग्रहण करेगा और दसों दिशाओं में उनका प्रसार करेगा। मिलारेपा ने शिष्यों को पिछली रात के अपने उस स्वप्न के बारे में बताया जिसमें उन्होंने देखा था कि एक भिक्षु चिकित्सक उनके पास शीशे से बना एक खाली कलश लेकर आया था। मिलारेपा ने उस कलश को पानी से भर दिया, जिसका संकेतार्थ यह था कि वह नया शिष्य पूरी तरह से खुले और ग्राही चित्त के साथ उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आने वाला था और मिलारेपा उसके चित्त के कलश को अपनी शिक्षाओं और अपने पूर्ण ज्ञान के अमृत से परिपूर्ण कर देंगे।

उसके बाद मिलारेपा हँसने लगे और आनन्दित स्वर में बोले, “अब मुझे विश्वास हो गया है कि बौद्ध धर्म सूर्य की भांति सभी दिशाओं को प्रकाशित करेगा।” फिर वे उपस्थित जन के बीच गाने लगे, “श्वेत सिंह का दूध निःसंदेह पोषक होता है, किन्तु जिसने इसका आस्वादन ही नहीं किया वह इसके पोषण का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। इसका आस्वादन आपको स्वयं करना होगा ─ एक बूँद ही सही ─ तब जाकर आप इसके पोषक प्रभाव को समझ सकेंगे। मेरी शिक्षाओं के बारे में भी यही बात लागू होती है। पहले आपको उन्हें अनुभव करना होगा, अभिरुचि विकसित करनी होगा, तब जाकर आपको उनकी पोषकता का अनुभव होगा।”

“तिलोपा और नारोपा की परम्परा से प्राप्त शिक्षाओं की मान्यता और गहनता के विषय में कोई संदेह नहीं है। यदि आप उनका चिन्तन न करें तो आप उनकी गहराई को नहीं समझ सकेंगे। उनके बारे में चिन्तन करने और सच्चा अनुभव प्राप्त करने के बाद ही आप उनकी गूढ़ता की थाह पा सकते हैं। मेरे महान पिता-समान गुरु मारपा इन शिक्षाओं को भारत से लेकर आए हैं, और मैंने एक योगी के रूप में इनकी ध्यान साधना की है। मैंने इन शिक्षाओं की मान्यता की परख की है और उसी के अनुरूप अनुभवों को विकसित किया है।”

“श्वेत सिंह के दूध को धारण करने वाला पात्र भी विशेष होना चाहिए। उसे किसी साधारण पात्र में नहीं रखा जा सकता। उदाहरण के लिए यदि उसे मिट्टी के किसी बर्तन में उँड़ेला जाए तो जैसे ही दूध पात्र को छुएगा, पात्र चटक जाएगा। इस परम्परा की इन व्यापक और गहन शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिए साधक को विशेष गुणों से सम्पन्न होना चाहिए। मेरे पास शिक्षा प्राप्ति के लिए आने वाले ऐसे किसी भी व्यक्ति को मैं ये शिक्षाएं प्रदान करने से मना कर देता हूँ जो इन्हें ग्रहण करने के लिए तैयार न हो। मैं ये शिक्षाएं केवल उन्हीं व्यक्तियों को दूँगा जो इनके लिए पूर्ण रूप से विकसित और उपयुक्त हों, जो इन शिक्षाओं और उनसे जुड़ी साधना के लिए तैयार हों।”

शिष्यों ने मिलारेपा से पूछा, “आपने जिस व्यक्ति के आगमन का स्वप्न देखा वह कब आने वाला है?” मिलारेपा ने उत्तर दिया, “वह सम्भवतः परसों यहाँ पहुँचेगा। वह मूर्छित हो कर गिर गया है और उसने सहायता के लिए मुझे पुकारा है। मैंने उसे यहाँ तक बुलाने के लिए अपनी चमत्कारी शक्तियों का प्रयोग किया है।”

अगले दिन ध्यान साधना करते समय मिलारेपा बीच-बीच में ठहाका मारकर हँसने लगते। इन ठहाकों से भौंचक्की उनकी संरक्षिका ने पास जाकर उनसे इसका कारण पूछा, “ऐसा करने का क्या कारण है? कभी आप इतने गम्भीर दिखाई देते हैं और कभी आप हँसने लगते हैं। आपको इसका कारण स्पष्ट करना चाहिए अन्यथा लोग समझेंगे कि आप विक्षिप्त हो गए हैं। यह सब क्या है? आपको यह रहस्य बताना ही होगा!”

मिलारेपा ने उत्तर दिया, “मैं एकदम ठीक हूँ। मेरे चित्त की अवस्था भी बिल्कुल सामान्य है और मैं कोई रहस्य भी नहीं छिपा रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा एक शिष्य मुझसे मिलने के लिए आ रहा है और उसके साथ कुछ निराली घटनाएं घटित हो रही हैं। पहले वह मूर्छित हो गया और अब उसके पूरे शरीर में पीड़ा हो रही है और उसका शरीर घावों से भरा है, लेकिन वह साहसी है और मुझ तक पहुँचने के लिए जी-तोड़ प्रयत्न कर रहा है। यह सब देख कर मुझे हँसी आती है। मुझे खुशी है और मुझे लगता है कि यह सब जो हो रहा है, बहुत अनोखा है।”

“वह शिष्य कुछ ही समय में इस नगर में पहुँचेगा, और जो भी व्यक्ति अपने घर पर सबसे पहले उसका सत्कार करेगा, वह उसके आशीर्वाद से शीघ्र ही ज्ञानोदय को प्राप्त कर लेगा। उस उदारमना आतिथेय को अपने लक्ष्यों की शीघ्र प्राप्ति के लिए विशेष अन्तर्दृष्टि और शक्तियों की प्राप्ति होगी।”

कुछ ही दिनों बाद बहुत कमज़ोर और बीमार हालत में गम्पोपा वहाँ पहुँचे। संयोग से वे सबसे पहले उसी संरक्षिका के द्वार पर पहुँचे जिसने मिलारेपा से प्रश्न किया था। वह पहले से ही उनकी तलाश में थी, और तत्परता से घर से बाहर आई। उसने आगंतुक का परिचय और मंतव्य पूछा। गम्पोपा ने उसे मिलारेपा की तलाश में अपनी पूरी यात्रा का वृत्तांत सुना दिया। संरक्षिका तत्काल समझ गई कि यह वही शिष्य है जिसके बारे में मिलारेपा ने चर्चा की थी। उसने मिलारेपा की भविष्यवाणी को याद करते हुए गम्पोपा को अपने घर में आमंत्रित किया और कई प्रकार की वस्तुएं चढ़ावे के रूप में भेंट कीं।

उस महिला ने गम्पोपा को मिलारेपा की भविष्यवाणियों के किस्से सुना कर मुग्ध कर दिया। वह बोली, “आपके लामा आपकी प्रतीक्षा में हैं; उन्होंने आपके आगमन के बारे में हम सभी को बताया था। उन्होंने बताया था कि आप मूर्छित हो गए थे और फिर उन्होंने अपने चमत्कार से आपकी सहायता की थी, और अब वे आपके आगमन की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप उनसे अभी मिलने के लिए जा सकते हैं और वहाँ आपका हार्दिक स्वागत होगा।” इतनी प्रशंसा सुनकर गम्पोपा फूलकर कुप्पा हो गए, और सोचने लगे, “अरे! मैं तो कितना महान व्यक्ति हूँ, मेरा शिक्षक स्वयं मेरी प्रतीक्षा कर रहा है।” उनके इस अहंकार को देख कर मिलारेपा ने दो सप्ताह तक गम्पोपा की ओर देखा तक नहीं। वे जानबूझ कर गम्पोपा की अनदेखी करते रहे, और गम्पोपा को अपने ठहरने के लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूँढना पड़ा।

दो सप्ताह के बाद वह महिला गम्पोपा को लेकर मिलारेपा के घर गई और वहाँ पहुँचकर मिलारेपा से अनुमति मांगी कि क्या वे गम्पोपा को दर्शन देंगे। मिलारेपा ने इसके लिए अपनी अनुमति दे दी। जब गम्पोपा उनके समक्ष पहुँचे तो मिलारेपा बीच में बैठे हुए थे; रेचुंग्पा उनकी एक ओर उतनी ही ऊँचाई वाले आसन पर बैठे थे, और दूसरी ओर उतनी ही ऊँचाई वाले आसन पर एक अन्य शिष्य बैठे थे। वे तीनों एक समान सफ़ेद वस्त्र धारण किए हुए थे। वे एक जैसे ही दिखाई देते थे, और एक जैसी ही मुद्रा में बैठे हुए थे। उनके चेहरों के भाव भी एक समान थे। मिलारेपा यह जानने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे कि गम्पोपा उन्हें पहचान पाएंगे या नहीं। चतुर गम्पोपा ने सम्भवतः रेचुंग्पा द्वारा गर्दन हिला कर किए गए हल्के इशारे से समझ लिया कि बीच में बैठे व्यक्ति ही मिलारेपा हैं। गम्पोपा ने मिलारेपा को साष्टांग प्रणाम किया, और चढ़ावे के रूप में लाई गई सभी वस्तुओं को उनके सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि उनकी प्रबल इच्छा थी कि वे गुरु के दर्शन करें, उनसे शिक्षा प्राप्त करें और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकें।

मिलारेपा कुछ क्षणों के लिए ध्यान में चले गए, और फिर उन्होंने गम्पोपा द्वारा समर्पित की गई सोने की धूल में से कुछ अपनी मुट्ठी में उठाई और हवा में उड़ा दी। “इसे मैं अपने गुरु मारपा को समर्पित करता हूँ,” उन्होंने कहा। तभी हवा में गड़गड़ाहट का स्वर सुनाई दिया और आकाश में बिजली कड़कने लगी। फिर एक विशाल इंद्रधनुष प्रकट हुआ और बहुत से अन्य शुभ संकेत प्रकट हुए।

मिलारेपा उस समय छांग, एक प्रकार की तीक्ष्ण मदिरा पी रहे थे। मदिरा उनके सामने एक कपाल पात्र में मेज़ पर रखी थी। कुछ देर बाद उन्होंने मदिरायुक्त कपाल पात्र उठाया और गम्पोपा की ओर बढ़ा दिया, जिसे देखकर वे पहले तो ठिठक गए क्योंकि एक पूर्ण दीक्षित भिक्षु के रूप में उन्होंने मद्य-त्याग की शपथ ले रखी थी। वहाँ बैठे दूसरे सभी शिष्यों की उपस्थिति में झिझक हो रही थी। मिलारेपा ने उनसे कहा, “असमंजस में मत पड़ो। जो मैंने तुम्हें दिया है उसे पियो।” और फिर आगे कोई संकोच किए बिना उन्होंने पूरी मदिरा पी ली।

इसके बाद मिलारेपा ने उनसे उनका नाम पूछा, और गम्पोपा ने बताया कि उनका नाम सोनम-रिंछेन है, वह नाम जो उनके कदम्प आचार्य ने उन्हें दिया था। मिलारेपा ने कहा कि यह नाम बहुत शुभ है: सोनम का अर्थ “आशावान ऊर्जस्विता” और रिंछेन का अर्थ होता है “महारत्न”। इस प्रकार वे आशावान ऊर्जस्विता के महारत्न हुए। मिलारेपा ने तीन बार उनका नाम शामिल करते हुए स्तुति के एक छंद का उच्चार किया। गम्पोपा ने अनुभव किया कि उन्हें जो नाम दिया गया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक है।

आचार्य द्वारा अपने जीवन की कथा का वर्णन

इसके बाद मिलारेपा बोले, “सबसे पहले मैं तुम्हें अपने जीवन के बारे में कुछ बातें बताऊँगा। किन्तु उसका वर्णन करने से पहले हम अपने महान गुरु मारपा, जो साधना की उस परम्परा के स्रोत हैं जिसका हम पालन करते हैं, के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करेंगे और उन्हें साष्टांग प्रणाम करेंगे।” गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करने और उन्हें साष्टांग प्रणाम करने के बाद मिलारेपा ने अपनी कथा को बयान किया:

“इन दिनों नारोपा और मैत्रिपा भारतवर्ष में सबसे महान सिद्धजन हैं। मारपा इन दोनों महान भारतीय महासिद्धों के महान आध्यात्मिक पुत्र हैं। और हमारे महान गुरु मारपा उन सभी शिक्षाओं के धारक और स्रोत हैं जिनका हम इतना ध्यानपूर्वक पालन करते आ रहे हैं। डाक, डाकिनी, और धर्म के संरक्षक उनकी कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाते हैं। मारपा की इतनी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा के बारे में सुनने के बाद मैंने हर प्रकार की कठिनाइयों का सामना करके भी उन्हें खोजने का निश्चय कर लिया। जब मैं मारपा से मिला, उस समय मेरे पास उन्हें भेंट करने के लिए कोई भौतिक सामग्री नहीं थी, किन्तु मैंने अपने शरीर, अपनी वाणी और चित्त को उन्हें अर्पित करने के लिए प्रस्तुत किया। मेरे निष्कपट अनुरोध को सुनकर मारपा ने कृपापूर्वक स्वीकार किया कि वे एक ही संक्षिप्त जीवनकाल में ज्ञानोदय की प्राप्ति के ऐसे प्रभावकारी उपायों के ज्ञाता हैं जो उन्हें उनके महान आचार्य नारोपा से प्राप्त हुए थे।”

“सभी सचेतन जीवों की भलाई के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति के उद्देश्य से पूरे समर्पण भाव और शुद्ध प्रेरणा के साथ मैंने वहाँ अपने गुरु से गहन साधनाओं की शिक्षा प्राप्त करते हुए सादगीपूर्ण जीवन के अनेक वर्ष बिताए। मैंने मारपा की सभी शिक्षाओं को पूर्ण रूप में प्राप्त किया है। मेरे गुरु ने शपथपूर्वक कहा था कि उनके पास कोई और ऐसी शिक्षा शेष नहीं बची थी जो वे मुझे दे सकते। मैंने अपने चित्त के कलश को अपने गुरु मारपा की शिक्षाओं के अमृत से लबालब भर लिया है।”

“मारपा ने मुझसे कहा था, और मैं समझता हूँ कि यह सलाह बड़ी महत्वपूर्ण है, ‘यह पाँच विकृतियों का काल है. और विशेष तौर पर इस काल में मनुष्य का जीवन काल अधोगति की ओर जा रहा है। वह घट रहा है, उसमें वृद्धि नहीं हो रही है। हर विषय के ज्ञान की तृष्णा उचित नहीं है। धर्म की साधना के मर्म को समझने और उसी साधना को पूर्ण करने का प्रयत्न करो। तभी तुम एक ही अल्प जीवन में ज्ञानोदय प्राप्त कर सकोगे। प्रत्येक विषय-क्षेत्र में महारत हासिल करने का प्रयास मत करो।”

“मैंने असाधारण दृढ़ता के साथ अपने गुरु मारपा की शिक्षाओं का पालन करते हुए, और अध्यवसाय के बल पर नश्वरता के महत्व को समझ कर इन शिक्षाओं से बहुत सा ज्ञान और अनुभव अर्जित किया है। मैंने अपने अनुभव, अभ्यास और साधना की सहायता से त्रिकाय, अर्थात बुद्ध जनों के तीन शरीरों के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया है। मुझे त्रिकाय की प्राप्यता पर विश्वास है। और, जिस प्रकार मैंने अपनी साधना से इस अन्तर्दृष्टि और अनुभव को विकसित किया है, अपने गुरु मारपा से प्राप्त उस समस्त ज्ञान को मैं तुम्हें देने के लिए तैयार हूँ। तुम्हें भी इन शिक्षाओं को केवल धर्म का सैद्धान्तिक और बौद्धिक ज्ञान मात्र नहीं समझना चाहिए। बल्कि तुम्हें भी मेरी तरह इन शिक्षाओं का वास्तविक अनुभव विकसित करना करना चाहिए।“

फिर मिलारेपा ने गम्पोपा से कहा, “अपना सोने का चढ़ावा वापस ले लो, क्योंकि मुझ जैसे बूढ़े व्यक्ति के लिए सोने की कोई उपयोगिता नहीं है। और जो चाय तुम मेरे लिए लाए हो, उसे भी वापस ले लो क्योंकि चाय बनाने के लिए मेरे पास न बर्तन हैं और न रसोई। सोने या चाय की मेरे लिए कोई उपयोगिता नहीं है; तुम चढ़ावे की सब चीज़ें वापस ले लो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम अपने आपको पूरी तरह मेरे सुपुर्द कर सकते हो, मेरे मार्गदर्शन में रहने के लिए तैयार हो, तो तुम्हें मेरी तरह जीवन व्यतीत करना होगा। तुम्हें सादगी से रहना होगा और मेरी जीवनचर्या और मेरी साधना पद्धति का अनुसरण करना होगा।”

गम्पोपा ने उत्तर दिया, “यदि आप बर्तन या रसोई न होने के कारण मेरी चाय की भेंट को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, तो मैं और कहीं जाकर चाय बना लाता हूँ।” इस प्रकार गम्पोपा पास के किसी घर में गए, वहाँ चाय तैयार की, और अपनी भेंट के साथ अपने गुरु के पास लौट आए। मिलारेपा इससे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दूसरे शिष्यों को भी बुलवा लिया और सभी ने साथ मिलकर गम्पोपा की बनाई हुई सुस्वादु चाय का आनन्द लिया।

मिलारेपा द्वारा गम्पोपा का शिक्षण

मिलारेपा ने गम्पोपा से पूछा कि उन्होंने किस प्रकार की शिक्षाएं और साधनाओं का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। इस पर गम्पोपा ने उन्हें अपने सभी शिक्षकों और उनसे प्राप्त शिक्षाओं और की गई साधनाओं का पूरा विवरण बता दिया। यह जानकार मिलारेपा ने कहा कि वे सभी शिक्षाएं उत्तम हैं और शून्यता के रूप में यथार्थ के सच्चे स्वरूप का बोध हासिल करने के कुशल उपाय तुम्मो, अर्थात आन्तरिक ऊष्मा की शिक्षा हासिल करने के लिए उनका आधारभूत ज्ञान पूरा है।

मिलारेपा ने आगे कहा, “हालाँकि तुमने अपने पिछले गुरुओं से जो अभिषेक, शिक्षाएं और ध्यान साधनाओं का ज्ञान प्राप्त किया है वह मेरी परम्परा में पूरी तरह स्वीकार्य हैं, लेकिन मैं तुम्हें एक अन्य अभिषेक दूँगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि तुमने जो शिक्षाएं हासिल की हैं वे तुम्हारे जीवन की परिस्थितियों के कारण अमान्य न हो गई हों। मैं तुम्हें वज्रयोगिनी की साधना की दीक्षा दूँगा।” दीक्षा दिए जाने के बाद कुछ ही समय में मिलारेपा ने उन्हें सभी शिक्षाएं भी दे दीं। शीघ्र ही गम्पोपा भी इन साधनाओं में तल्लीन हो गए और जल्दी ही उन्होंने इन शिक्षाओं का ज्ञान और अनुभव प्राप्त कर लिया। ज़मीन से फूटे किसी अंकुर की भांति उनका ज्ञान दिनों-दिन बढ़ता चला गया। अपनी प्रगति से वे अत्यंत संतुष्ट और प्रसन्न थे।

उन्होंने तुम्मो की साधना की, और हर दिन उन्हें एक नया अनुभव होने लगा। एक बेहद सर्द रात को वे विकसित की गई आन्तरिक ऊष्मा की जाँच करने के लिए एक गुफ़ा में पूर्ण नग्न अवस्था में ध्यान साधना कर रहे थे। रात भर उनके शरीर की ऊष्मा बनी रही, लेकिन सुबह जब उन्होंने तुम्मो का अभ्यास बन्द कर दिया तो उनका शरीर बर्फ़ की तरह जम गया। उन्होंने एक सप्ताह तक यह साधना की और सप्ताह समाप्त होने पर उन्हें पाँच ध्यानी बुद्धों के दर्शन हुए। जब उन्होंने अपने गुरु को अपने अनुभव और दर्शन के विषय में बताया तो मिलारेपा ने कहा, “न यह अच्छा है, और न ही बुरा। अपने अनुभव को यथार्थ बनाने के लिए और अधिक साधना करो। ऐसे स्वप्न दर्शनों की ओर आकर्षित मत हो, आन्तरिक ऊष्मा की शक्ति को सिद्ध करो।”

गम्पोपा ने तीन महीने तक गहन साधना की, और इस अवधि की समाप्ति पर उन्हें महसूस हुआ कि पूरा ब्रह्मांड एक विशाल चक्र की भांति घूम रहा है। बहुत समय तक ऐसा अनुभव करने के बाद वे मिलारेपा से उनकी सलाह लेने के लिए गए। उनके गुरु ने उत्तर दिया, “यह न तो अच्छा है, और न ही बुरा। यह इस बात का संकेत है कि विभिन्न सूक्ष्म ऊर्जा सरणियों में जाने वाले विचार और ऊर्जा अब मुख्य सरणी में प्रवेश कर रहे हैं। तुम्हें अभी और अधिक प्रयत्न और अभ्यास करने की आवश्यकता है।”

जब उन्होंने और अधिक साधना का अभ्यास किया तो उन्हें आभास हुआ कि अवलोकितेश्वर ने उनके सिर के ऊपरी भाग से प्रवेश किया है और वे उनके अस्तित्व में समाहित हो गए हैं। जब उन्होंने मिलारेपा से इसके विषय में पूछा, तो उनके गुरु ने उत्तर दिया, “यह न तो अच्छा है, और न ही बुरा। यह इस बात का संकेत है कि तुम्हारे सहस्र चक्र के ऊर्जा केन्द्र का द्वार अब खुल रहा है।”

साधना करते-करते गम्पोपा को अनेक प्रकार के आन्तरिक शारीरिक बदलावों की अनुभूति हुई। उन्होंने अपने मेरुदण्ड में ऊपर-नीचे गर्म वायु के प्रचंड प्रवाह का अनुभव किया। जब उन्होंने मिलारेपा को इसके विषय में बताया, तो वे बोले, “इसमें न कुछ अच्छा है, और न ही बुरा। यह इस बात का संकेत है कि शरीर में स्थित सूक्ष्म ऊर्जा सरणियाँ एक दूसरे से जुड़ रही हैं। जब साधक इन सूक्ष्म ऊर्जा सरणियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है और जब वे आपस में जुड़ती हैं, तब इस प्रकार की हलचल की अनुभूतियाँ होती हैं। अब तुम वापस जाओ और पुनः अभ्यास करो।”

एक अन्य अवसर पर उन्हें देवताओं के दिव्य दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि उच्च पदक्रम वाले देवतागण छोटे देवताओं के ऊपर अमृतवर्षा करके उनका अभिषेक कर रहे हैं। इस सम्बंध में मिलारेपा ने बताया, “यह अच्छा है न बुरा। यह ग्रीवा स्थित ऊर्जा चक्र के खुलने का संकेत है। अब तुम्हारे शरीर के विभिन्न भागों में आनन्द के स्रोत विकसित होने लगे हैं।”

यहाँ मिलारेपा ने गम्पोपा को शरीर के दूसरे सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्रों को खोलने के लिए अनेक प्रकार के योगासनों और मुद्राओं की शिक्षा दी। उन्होंने गम्पोपा से कहा, “अपने ध्यान को इन दर्शनों की ओर आकर्षित मत होने दो। इन्हें केवल अपनी प्रगति के संकेत समझो, लेकिन इनके कारण अपनी साधना में व्यवधान उत्पन्न मत होने दो। बस इस अभ्यासों की साधना जारी रखो।”

ध्यान साधना के इस स्तर पर शिष्य का गुरु के निकट सम्पर्क में रहना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि शिष्य को एकदम सटीक मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यदि शिष्य गुरु से दूर किसी स्थान पर रहता हो तो फिर गुरु निजी तौर पर उसका मार्गदर्शन नहीं कर सकता है जो कि शिष्य की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण होता है। और यदि गुरु को अपने शिष्य की स्थिति के बारे में निजी तौर पर जानकारी न हो तो यह एक बड़ी समस्या है। ऐसी स्थिति में पहुँच कर शिष्य की प्रगति एकदम थम जाती है। इसलिए गुरु का सिद्धिप्राप्त होना और अनुभवी होना और ध्यान साधना के प्रतिदिन के अनुभव के बारे में गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना आवश्यक होता है।

गम्पोपा की प्रगति

इस अवस्था में पहुँच कर गम्पोपा अपनी भोजन सम्बंधी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सामान्य भोजन के बजाए पूरी तरह एकाग्र समाधि पर निर्भर रह सकते थे। एक रात गम्पोपा ने स्वप्न में चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का दृश्य देखा। तिब्बती ज्योतिष में ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के समय कोई राक्षस चन्द्रमा या सूर्य को अपना ग्रास बना लेता है। उन्होंने स्वप्न में यह भी देखा कि दो प्रकार के जीव सूर्य और चन्द्रमा को निगल रहे थे: एक प्रकार के जीव घोड़े की पूँछ के बाल के जैसे आकार के थे, और दूसरी प्रकार के जीव पतली कतरनों के समान कीटों के जैसे दिखाई देते थे। जब गम्पोपा इस स्वप्न के बारे में परामर्श के लिए मिलारेपा के पास गए, तो मिलारेपा उनसे कहा कि वे इस बात को लेकर चिन्तित न हों कि वे गलत मार्ग पर चल रहे हो सकते हैं, और उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा दिखाई देना न तो अच्छा है और न ही बुरा। उन्होंने कहा कि यह स्वप्न ध्यान साधना के मार्ग में गम्पोपा की प्रगति का संकेत है। इसका अर्थ है कि दोनों ओर की ऊर्जा सरणियों की सूक्ष्म ऊर्जा वायु अब मुख्य सरणी की ओर केन्द्रित होने लगी है।

मिलारेपा भांप चुके थे कि ये सभी घटनाएं उनके शिष्य की उपलब्धियों का संकेत हैं, इसलिए उन्होंने गम्पोपा को अपनी साधना आगे भी जारी रखने के लिए प्रेरित किया। जब कोई साधक अपने श्वास और पार्श्विक सरणियों की सूक्ष्म ऊर्जा वायु मध्य सरणी में केन्द्रित करने में सक्षम हो जाता है तो वह बहुत प्रगति कर चुका होता है। सभी सचेतन जीवों में सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली एक जैसी ही होती है। सामान्यतया सचेतन जीव मुख्यतः दाहिनी सरणी से श्वास लेते हैं जिसके कारण उनमें आसक्ति या मोह अधिक होता है, या फिर वे मुख्यतः बाईं सरणी से श्वास लते हैं और परिणामतः उनमें क्रोध अधिक होता है। हम मध्य सरणी से उत्पन्न होने वाले सकारात्मक विचार बिरले ही विकसित कर पाते हैं क्योंकि यह सरणी गाँठों से अवरुद्ध होती है। अनुभवी योगी इन गाँठों को खोल कर मध्य सरणी से श्वास ले पाते हैं। वे दोनों पार्श्व सरणियों से श्वास और सूक्ष्म ऊर्जाओं को मध्य सरणी की ओर भेज कर केवल सकारात्मक विचारों को विकसित करने में सक्षम हो जाते हैं।

अगली बार जब गम्पोपा मिलारेपा से मिले तो मिलारेपा बहुत प्रसन्न दिखाई दिए। लेकिन गम्पोपा की हर नई ज्ञानानुभूति या अनुभव के बारे में सुनने के बाद वे केवल इतना ही कहते, “और फिर उसके बाद? फिर उसके बाद, और उसके बाद?” जिसका अर्थ यह था कि जैसे-जैसे नए अनुभव होते जाएं, गम्पोपा तब तक आगे बढ़ते रहें जब तक कि उन्हें ज्ञानोदय की प्राप्ति न हो जाए। मिलारेपा इस भय के कारण गम्पोपा को उनकी प्रगति के बारे में सीधे नहीं बताना चाहते थे यह सुन कर गम्पोपा को कहीं अहंकार न हो जाए, जिसके कारण मार्ग पर उनकी प्रगति बाधित हो सकती थी।

इसके बाद गम्पोपा एक गुफ़ा में एक महीने तक ध्यान साधना करने के लिए गए। अपने एकांतवास के अन्त में उन्हें स्वप्न में मंडल और हेवज्र बुद्ध स्वरूप के समस्त परिचरगण सहित हेवज्र का पूर्ण दर्शन हुआ। इसे देखते ही गम्पोपा ने मन में सोचा कि जब लामा बार-बार उनसे पूछते थे कि “उसके बाद क्या, और फिर उसके बाद, और उसके बाद,” तो उनका आशय इसी दर्शन से था। उनकी साधना की परिणति इसी दर्शन के रूप में होनी थी। किन्तु कुछ समय बाद उन्हें दूसरे मंडलों और अन्य बुद्ध स्वरूपों के भी दर्शन हुए। एक दिन उन्हें हेरुक के स्वरूप का दर्शन हुआ जिसमें उन्हें देवता का पूरा अस्थिनिर्मित मंडल भी दिखाई दिया। मिलारेपा ने उन्हें आगाह किया कि वे इसे कोई बड़ी उपलब्धि न समझें, और कहा कि यह न अच्छी बात है और न ही बुरी। यह तो केवल नाभि स्थित चक्र के खुलने का संकेत है। नाभि चक्र के पूरी तरह खुल जाने पर सब कुछ सूर्य के तेज़ प्रकाश से विरंजित अस्थियों के समान सफ़ेद दिखाई देता है, क्योंकि श्वेत बोधिचित्त ऊर्जा पूरी तरह विकसित हो चुकी होती है।

इसके बाद उन्हें एक ऐसा अनुभव हुआ जिसे वस्तुतः स्वप्न नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने अनुभव किया कि वे किसी असाधारण बल या योग्यता वाले व्यक्ति की भांति वृहत्काय हो गए हैं। उन्होंने अनुभव किया कि पुनर्जन्म की विभिन्न अवस्थाओं वाले सचेतन जीव उनके हाथ-पैरों और शरीर के विभिन्न हिस्सों पर रेंग रहे हैं। यह इस बात का संकेत था कि वे पूरी तरह सूक्ष्म ऊर्जा तंत्र का यथार्थ बोध हासिल कर चुके हैं। अभी तक वे तुम्मो, अर्थात आन्तरिक ऊष्मा पर ही सामान्य ध्यान साधना करते आए थे। अब उन्हें तुम्मो की साधना के सबसे उन्नत स्तर की शिक्षाएं दिए जाने का समय आ चुका था।

अनुभूतियाँ, दिव्य दर्शन, और उपलब्धियाँ

यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि मिलारेपा जब भी गम्पोपा के अनुभवों के विभिन्न स्तरों के बारे में सुनते तो वे हमेशा यही कहते, “यह अच्छा है, और न ही बुरा। अभी और साधना करो।” वे अपने शिष्य को उसके अनुभवों के अर्थ की पूरी जानकारी देते, लेकिन कभी उसकी प्रशंसा नहीं करते थे। और यही होना भी चाहिए, गुरु को अपने शिष्यों का मार्गदर्शन इसी प्रकार करना चाहिए। यदि गुरु बहुत अधिक प्रशंसा करने लगे और यह कहते हुए बहुत अधिक प्रोत्साहन देने लगे कि, “यह अत्यंत महत्वपूर्ण है,” या “तुम्हारा यह अनुभव तो बहुत महत्वपूर्ण है,” तो शिष्य अतिउत्साहित हो कर आत्मनियंत्रण खो सकता है, जो कि उसके लिए बहुत बाधक हो सकता है। वह आगे प्रगति नहीं कर सकेगा और अपने विभिन्न अनुभवों से अनुरक्त हो जाएगा और उनके वशीभूत हो जाएगा।

हालाँकि गम्पोपा के जीवन वृत्तांत का वर्णन कुछ ही पृष्ठों में किया गया है, लेकिन उन्हें कई-कई महीनों तक ध्यान साधना की थी; इस प्रकार के अनुभवों को विकसित करना आसान नहीं था, इसके लिए कई वर्षों तक गहन ध्यान साधना की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में गम्पोपा को एक के बाद एक करके तेतीस विशेष स्वप्नानुभूतियाँ हुईं, किन्तु चूँकि उनमें से प्रत्येक का यहाँ उल्लेख करना सम्भव नहीं है, इसलिए हम उनमें से केवल अन्तिम अनुभव का ही यहाँ उल्लेख करेंगे।

जब मिलारेपा ने अपने तीन मुख्य शिष्यों गम्पोपा, रेचुंग्पा और लिंगरेपा को अपने स्वप्नों के बारे में बताने के लिए कहा तो लिंगरेपा ने सूर्योदय के स्वप्न का उल्लेख किया। उन्होंने अपने गुरु को बताया कि उनके स्वप्न में जैसे ही पर्वत शिखर पर सूर्योदय हुआ, सूर्य की किरणें उनके हृदयस्थल पर केन्द्रित हो गईं और उनका हृदय एक प्रकाश पुंज में परिवर्तित हो गया। रेचुंग्पा ने बताया कि स्वप्न में वे तेज़ कोलाहल करते हुए तीन नगरों से गुज़र गए।

किन्तु गम्पोपा अपने स्वप्न के बारे में मिलारेपा को बताने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया और फिर रोने लगे और रोते-रोते अपना सिर गुरु लामा की गोद में रख दिया। वे दुखी होकर कहने लगे कि उनका स्वप्न इस योग्य नहीं है कि उसका वर्णन किया जाए। उनका स्वप्न बहुत बुरा था और ऐसे स्वप्न को देखने वाला व्यक्ति भी बुरा ही होगा। गम्पोपा यह सोच कर चिन्तित थे कि उनके स्वप्न का अर्थ यह है कि उनके मार्ग में बहुत से विघ्न हैं और इसलिए उन्होंने मिलारेपा से आग्रह किया कि वे उन्हें अपना स्वप्न सुनाने के लिए बाध्य न करें। मिलारेपा ने कहा कि वे जानते हैं कि कोई स्वप्न कब अच्छा या बुरा होता है, और उन्होंने गम्पोपा को अपना स्वप्न सुनाने के लिए कहा।

लिंगरेपा का स्वप्न तीनों में सबसे अच्छा प्रतीत होता था, और इसी आधार पर वे सोच रहे थे कि वे तीनों शिष्यों में श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनका स्वप्न शुभ संकेतों से भरा था। मिलारेपा ने उनके स्वप्न की व्याख्या करते हुए उसे निकृष्टतम बताया। उन्होंने कहा कि लिंगरेपा की करुणा का दायरा बहुत छोटा है और इसलिए वे सचेतन जीवों को बहुत सीमित लाभ ही पहुँचा सकेंगे। उनके हृदय स्थल पर सूर्य की किरणों के केन्द्रित होने का अभिप्राय यह था कि वे उस जीवनकाल में डाकिनी वज्रयोगिनी को बुद्ध-क्षेत्र में जाएंगे। रेचुंग्पा के स्वप्न का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि रेचुंग्पा एक जीवनकाल में ज्ञानोदय की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। इसके लिए उन्हें तीन जन्मों तक प्रतीक्षा करनी होगी क्योंकि उन्होंने तीन बार मिलारेपा को दिए गए अपने वचन को भंग किया था।

जो स्वप्न गम्पोपा को दुःस्वप्न लगा था उसमें उन्होंने देखा था कि वे एक खुले मैदान में हैं जहाँ बहुत से पशु हैं, और वे उन पशुओं के सिर काटते जा रहे हैं। गम्पोपा को तब आश्चर्य हुआ जब इस भयावह दिखाई देने वाले स्वप्न के बारे में सुनने के बाद मिलारेपा प्रसन्न हुए। जब उन्होंने अपने गुरु के समक्ष अपने स्वप्न का वर्णन समाप्त किया तो मिलारेपा बोले, “मुझे अपना हाथ दो,” और उन्होंने प्रेमभाव से उनका हाथ थाम लिया। उन्होंने कहा कि उन्हें गम्पोपा पर पूरा विश्वास है और गम्पोपा उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं। उन्होंने कहा कि पशुओं के सिरों को काटने का अर्थ यह है कि गम्पोपा अनेकानेक सचेतन जीवों को संसार चक्र से मुक्त कराएंगे।

मिलारेपा ने कहा, “सचेतन जीवों के हित के लिए कार्य करने, धर्म के संरक्षण और प्रसार के ले कार्य करने का मेरा दायित्व अब पूर्ण हुआ। अब मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल गया है जो मेरा स्थान ले सकता है।”

गम्पोपा एक ऐसी अवस्था में पहुँच चुके थे जहाँ अब वे साधारण सचेतन जीवों की भांति श्वास नहीं लेते थे, बल्कि अब वे श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया दिन में केवल एक बार ही करते थे। उन्हें लगातार बुद्धों के सच्चे स्वरूपों, जिनमें आठ चिकित्सा बुद्धों और पैंतीस बुद्धों के दर्शन शामिल हैं, की अनुभूति हो रही थी।

मिलारेपा ने अपने शिष्य से कहा कि अब वे किसी सम्भोगकाय ─ बुद्ध के सूक्ष्म स्वरूप वाले शरीर, जिसे केवल आर्य बोधिसत्व अर्थात शून्यता का निर्वैचारिक बोध रखने वाले ही देख सकते हैं, से शिक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हो चुके हैं। शीघ्र ही उन्हें धर्मकाय ─ सर्वज्ञ चित्त वाले शरीर, जिसका बोध केवल प्रबुद्ध जन को ही होता है, की अनुभूति होगी।

विदाई

एक दिन मिलारेपा ने गम्पोपा से कहा, “अब मैं बहुत बूढ़ा हो चला हूँ और चाहता हूँ कि अपना शेष जीवन तुम्हारे साथ ही बिताऊँ। किन्तु कुछ पुरानी प्रार्थनाओं के कारण हमें बिछड़ना होगा और इसलिए तुम मध्यवर्ती प्रान्त यू में चले जाओ।”

मिलारेपा ने गम्पोपा को अनेक प्रकार की हिदायतें दीं, और उन्हें अहंकार की भावना के प्रति आगाह किया, विशेषतः इसलिए क्योंकि वे बहुत सी चमत्कारी शक्तियों के धारक थे। उन्होंने गम्पोपा को सीख दी कि वे अपने विगत के या भविष्य के ज्ञान या अपनी विलक्षण शारीरिक शक्तियों से अभिभूत न हो जाएं; क्योंकि ये शक्तियाँ उनकी प्रगति के मार्ग में बाधक बन सकती हैं। उन्होंने विशेष तौर पर सलाह दी कि वे अपने दाएं-बांए, अर्थात अपने आसपास के लोगों में कमियाँ ढूँढने में न उलझें। उन्होंने बताया कि हम दूसरों के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकते हैं; इसका निर्णय तो वे लोग स्वयं ही कर सकते हैं। ऐसा कोई साधन नहीं है जिसकी सहायता से गम्पोपा ठीक-ठीक तौर पर यह निर्णय कर सकें कि दूसरों के कर्म अच्छे हैं या बुरे।

फिर मिलारेपा ने गम्पोपा को किसी निश्चित स्थान पर चले जाने और वहाँ पहुँच कर एक मठ की स्थापना करने का निर्देश दिया। उन्होंने गम्पोपा को बताया कि वहीँ उन्हें अपने सारे शिष्य मिलेंगे, और वहीं उनकी ऐसे सभी लोगों के साथ भेंट होगी जिनके साथ बुद्ध के धर्म का प्रसार करने के लिए उनके कार्मिक सम्बंध हैं। उन्होंने गम्पोपा को आगाह किया कि वे ऐसे लोगों के निकट सम्पर्क में न रहें जो आसक्ति, क्रोध, और नए विचारों को स्वीकार न कर पाने के अज्ञान जैसे तीन मनोभावी विषों की दासता का जीवन जीते हों। उन्होंने सचेत किया कि वे ऐसे लोगों के साथ भी न रहें जो बहुत अधिक आकर्षण या विकर्षण का भाव रखते हों। उन्होंने कहा कि वे कृपण लोगों से भी दूर रहें क्योंकि यदि वे अधिक समय तक ऐसे लोगों के साथ रहे तो वे स्वयं भी लकड़ी के छोटे-छोटे अनुपयोगी टुकड़ों को भी सहेजना शुरू कर देंगे। उन्होंने गम्पोपा को शिक्षा दी कि वे धैर्यशील बने रहें और यदि वे स्वयं प्रबुद्ध भी हो जाएं तब भी कभी अपने लामाओं का अनादर न करें। वे सभी लोगों के साथ निर्मल और मित्रवत व्यवहार करें। और अन्त में मिलारेपा ने गम्पोपा को सलाह दी कि वे अपनी साधना और अभ्यास को जारी रखते हुए अपनी उपलब्धियों की शक्तियों को तब तक बढ़ाते रहें जब तक कि वे अपने अन्तिम लक्ष्य, अर्थात ज्ञानोदय को प्राप्त न कर लें।

मिलारेपा ने गम्पोपा को उसी प्रकार विदा किया जिस प्रकार उनके गुरु मारपा ने उन्हें विदा किया था। उन्होंने अनेक प्रकार की तैयारियाँ कीं और भोजन सामग्री का प्रबंध किया, और फिर अपने अन्य शिष्यों के साथ उन्हें कुछ दूर तक विदा करने के लिए साथ आए। अपने गुरु से विदा लेने से पहले गम्पोपा ने उस जन्म में मिलारेपा जैसा गुरु मिलने के अपने सौभाग्य का उल्लेख करते हुए अनेक स्तुतियों का पाठ किया। उन्होंने अपने वर्णन में कहा कि मिलारेपा से भेंट करना ही उनकी एकमात्र इच्छा थी और वे आभारी थे कि उन्हें न केवल मिलारेपा की परम्परा में शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य मिला, बल्कि अपने सत्कर्म के कारण उन्हें इस ज्ञान को कदम्प आचार्यों से प्राप्त शिक्षा के साथ मिलाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। गम्पोपा ने संतोष व्यक्त किया कि उन्होंने अपने बहुमूल्य मानव जीवन का भरपूर सदुपयोग कर लिया था।

अन्तिम सेतु का पड़ाव

चलते-चलते जब वे एक पुल के निकट पहुँचे तो मिलारेपा ने कहा, “यहाँ से आगे तुम अकेले ही जाओ। अब मैं तुम्हें विदा करता हूँ। मांगलिक कारणों से मैं पुल को पार नहीं करूँगा।” फिर उन्होंने गम्पोपा को आशीर्वाद दिया और गम्पोपा पुल के पार चले गए। जब उन्होंने पुल को पार कर लिया तो मिलारेपा ने उन्हें आवाज़ लगाई, “एक बार फिर लौट कर आओ, मैं तुम्हें एक विशेष शिक्षा देना चाहता हूँ। यदि मैं तुम्हें यह शिक्षा नहीं दूँगा, तो फिर किसे दूँगा?”

गम्पोपा ने प्रश्न किया, “क्या इस विशेष शिक्षा और उपदेश के लिए मैं आपको एक मंडल भेंट करूँ?” मिलारेपा ने उत्तर दिया कि ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने गम्पोपा को आगाह किया कि वे इस सलाह को व्यर्थ न गवाँएं, बल्कि उसे हृदयंगम कर लें। फिर मिलारेपा ने अपनी पीठ गम्पोपा की ओर घुमाते हुए अपना लबादा ऊपर उठाया और अपने अनावृत्त नितम्ब उन्हें दिखाए। गम्पोपा ने देखा कि मिलारेपा के नितम्ब सख्त चमड़े की भांति कठोर और संवेदनाहीन हो चुके हैं।

मिलारेपा ने कहा, “अभ्यास के लिए ध्यान साधना से बढ़ कर कुछ नहीं है ─ बशर्ते कि तुम्हें इस बात का ज्ञान हो कि किस पर ध्यान लगाया जाए और किस प्रकार लगाया जाए। मैंने अनेक प्रकार की ध्यान साधना पद्धतियों के बारे में ज्ञान और जानकारी हासिल की है, और मैंने ध्यान साधना का इतना अभ्यास किया कि मेरे नितम्ब चमड़े की भांति कठोर हो गए। तुम्हें भी इतनी ही साधना करनी होगी। तुम्हारे लिए यही मेरी अन्तिम शिक्षा है।”

इतना कहकर उन्होंने गम्पोपा को चले जाने की आज्ञा दी। शिष्य गम्पोपा अपने आचार्य से विदा लेकर ल्हासा के दक्षिण की ओर चले गए जहाँ उन्होंने मिलारेपा द्वारा की गई भविष्यवाणी के अनुसार अपने मठ की स्थापना की।

समाहार

मोक्षरत्नालंकार गम्पोपा के उन अनुभवों का परिणाम है जिन्हें उन्होंने कदम्प आचार्यो की शिक्षाओं और साधनाओं तथा मिलारेपा की परम्परा के आधार पर विकसित किया था। इन दोनों ही परम्पराओं की मान्यता है कि जब उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की उस समय वे प्रबुद्ध हो चुके थे और उन्होंने इन दोनों ही निकायों के ज्ञान को अपने ग्रंथ में सम्मिलित किया है।

ऐसी परम्परा है कि उपदेशों में ग्रंथ के रचनाकार आचार्य का संक्षिप्त जीवन परिचय अवश्य दिया जाए ताकि रचनाकार के विचारों का शिष्यों पर और गहरा प्रभाव पड़ सके। यदि आप ग्रंथकार के विषय में जाने बिना केवल उसके ग्रंथ को पढ़ लें या कुछ भी अध्ययन कर लें तो वह सार्थक नहीं होगा। मैं उसी परम्परा का पालन कर रहा हूँ।

वस्तुतः गम्पोपा और मिलारेपा के बीच कोई अन्तर नहीं है। शुरुआत में मिलारेपा एक साधारण व्यक्ति थे, उनका व्यक्तित्व हानिकारक कृत्यों की नकारात्मक ऊर्जा से भरा था। लेकिन उन्होंने अशांत करने वाले मनोभावों और भ्रांतियों को दूर करने के लिए कड़ा प्रयत्न किया और धीरे-धीरे ज्ञान और अनुभवों को विकसित किया। गम्पोपा के विषय में भी यही बात लागू होती है; उन्हें भी अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों को हासिल करने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। जब उन्होंने शुरुआत की उस समय वे दोनों प्रबुद्ध नहीं थे, और उनके लिए ध्यान साधना करना और ज्ञान तथा उपलब्धियाँ अर्जित करना आसान नहीं था। मिलारेपा तो हममें से बहुत से लोगों से भी बुरी स्थिति में थे, लेकिन उन्होंने सिद्ध कर दिया कि यदि हम कड़ी मेहनत करने के लिए तैयार हों तो बड़ी से बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की जा सकती हैं। यदि हम इन महान आचार्यों की भांति अध्यवसायी और साहसी बन सकें तो हम स्वयं भी मिलारेपा और गम्पोपा के समान बन सकते हैं।

मोक्षरत्नालंकार एक ऐसे ही आचार्य की कृति है जिन्होंने हमारे लाभ के लिए कदम्प और महामुद्रा परम्पराओं को संयोजित करके एक स्पष्ट मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया।

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