महामुद्रा क्या है?

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महामुद्रा अनेक तिब्बती बौद्ध सम्प्रदायों में पाया जाने वाला शिक्षाओं का समूह है जिसमें हमें स्वयं अपने चित्त की यथार्थ प्रकृति को समझने के तरीके सिखाए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हमें ज्ञानोदय की प्राप्ति होती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलग-अलग सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्धतियाँ अपनाई गई हो सकती हैं, लेकिन किसी भी पद्धति को अपनाते हुए अपने चित्त की वास्तविक प्रकृति को समझने का अभ्यास हमारे जीवन को बहुत ही सार्थक बना सकता है।

“महान प्रमाण-चिह्न” का अर्थबोध कराने वाले संस्कृत भाषा के महामुद्रा शब्द से आशय चित्त की प्रकृति की ध्यानसाधना और उससे हासिल होने वाले बोध की एक उन्नत और जटिल साधना पद्धति से होता है। जिस प्रकार कानूनी दस्तावेज़ों पर किए गए हस्ताक्षर को प्रमाणित करने के लिए मोम की मुद्रा या मुहर अंकित की जाती है, उसी प्रकार सभी जीवों की भलाई करने के लिए ज्ञानोदय प्रदान करने वाली प्रामाणिक साधनाओं पर महामुद्रा की मुहर अंकित होती है।

महामुद्रा की ध्यानसाधना का विशेष गुण यह है कि इसमें चित्त और पारम्परिक प्रतीतियों तथा शून्यता के बीच के घनिष्ठ सम्बंध पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इस सम्बंध के बारे में मिथ्या दृष्टि और अज्ञान हमारे अशांतकारी मनोभावों और अप्रतिरोध्यकारी व्यवहार को प्रेरित करता है जिसके कारण निरन्तर दुख और समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं। महामुद्रा की ध्यानसाधना इन दुखों से मुक्ति का एक बहुत ही प्रभावी तरीका है, लेकिन यह तभी सम्भव होता है जब यह ध्यानसाधना बहुत दृढ़ आधार पर टिकी हो। इसका मतलब है कि इस दिशा में प्रगति करने के लिए लाम-रिम के पूरे क्रमिक मार्ग की व्यापक साधना करने की आवश्यकता होती है।

तिब्बती बौद्ध धर्म की काग्यू, शाक्य और गेलुग परम्पराओं में भी महामुद्रा शैली की साधनाएं पाई जाती हैं। काग्यू और गेलुग परम्पराओं में इसमें साधना के सूत्र तथा अनुत्तरयोग तंत्र दोनों के स्तर शामिल होते हैं, जहाँ क्रमशः चित्त के सामान्य स्तरों और निर्मल प्रकाश स्तरों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। शाक्य परम्परा में केवल अनुत्तरयोग तंत्र स्तर का ही संचरण किया जाता है। यहाँ हम गेलुग और कर्म काग्यू के अनुसार सूत्र स्तर पर ध्यान को केंद्रित करेंगे। गेलुग में चित्त की शून्यता की ध्यानसाधना पर बल दिया जाता है, जबकि कर्म काग्यू में निर्वैचारिक ढंग से शून्यता का बोध करने वाले चित्त की ध्यानसाधना पर बल दिया जाता है।

इन दोनों ही पद्धतियों में यह समझना बहुत महत्वपूर्ण होता है कि चित्त वास्तव में क्या है।

चित्त किसी विषय को अनुभव करने का विशिष्ट, आत्मपरक मानसिक क्रियाकलाप है।

यह क्रियाकलाप हमारे पूरे जीवनकाल भर निरन्तर जारी रहता है, इसका कोई आदि या अन्त नहीं होता है। स्वयं चित्त को पहचानना अत्यंत कठिन होता है, और इसलिए इस साधना की सफलता केवल व्यापक सकारात्मक बल और बारंबार प्रारम्भिक साधनाओं, या न्गोंद्रो के माध्यम से नकारात्मक सम्भाव्यताओं की शुद्धि द्वारा ही सम्भव है।

गेलुग परम्परा

मानसिक क्रियाकलाप की दो मूलभूत प्रकृतियाँ होती हैं: पारम्परिक प्रकृति और गूढ़तम प्रकृति। गेलुग परम्परा में पारम्परिक प्रकृति को “स्पष्टता और बोध मात्र” के रूप में परिभाषित किया गया है।

  • स्पष्टता – प्रतीतियों (प्रतीति-उत्पत्ति), अर्थात दृश्य, ध्वनि, गंध, स्वाद, भौतिक संवेदना और विचार के मानसिक होलोग्रामों को उत्पन्न करने वाला मानसिक क्रियाकलाप, जहाँ ये सब किसी न किसी स्तर पर सुख, विभिन्न मनोभावों, और ध्यान तथा एकाग्रता जैसे मानसिक कारकों से सम्बद्ध होते हैं।
  • बोध – किसी प्रकार का संज्ञानात्मक सम्बंध। यह न तो प्रतीति-उत्पत्ति से अलग होता है और न ही उसका उत्तरवर्ती होता है – ऐसा नहीं है कि कोई विचार पहले उत्पन्न होता है और उसके बाद हम उसे सोचते हैं। बोध तो उसी मानसिक क्रियाकलाप को प्रतीति-उत्पत्ति के रूप में दर्शाने का एक आत्मपरक तरीका है।
  • मात्र – केवल यही मानसिक क्रियाकलाप होता है, और इसमें इस क्रियाकलाप के अभिकर्ता या प्रेक्षक के रूप में कोई पृथक ढूँढे जा सकने योग्य “मैं”, या कोई पृथक ढूँढा जा सकने योग्य चित्त नहीं होता है जो किसी अमूर्त मशीन की तरह यह सब कर रहा हो। मानसिक क्रियाकलाप मस्तिष्क और तंत्रिका प्रणाली के भौतिक आधार पर घटित होता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि चित्त किसी भौतिक वस्तु के समतुल्य होता है।

मानसिक क्रियाकलाप की “आत्म-स्थापित अस्तित्व की शून्यता” उसकी गूढ़तम प्रकृति होती है।

  • शून्यता – मात्र स्पष्टता और बोध के साथ ढूँढे जा सकने योग्य किसी भी ऐसी चीज़ का पूर्ण अभाव जो अपनी ही सत्ता से मानसिक क्रियाकलाप के होने को प्रमाणित करती है, स्वयं ये निर्धारक गुण भी नहीं। इस बात के पक्ष में कि पारम्परिक तौर पर हम सभी इस बात से सहमत हैं कि हम आत्मपरक ढंग से व्यक्तिगत तौर पर चीजों को अनुभव करते हैं, हम केवल मानसिक लेबलिंग का ही उल्लेख कर सकते हैं।
  • मानसिक लेबलिंग – यह तथ्य कि एक समाज के रूप में हम “चित्त” की संकल्पना और शब्द का प्रयोग करते हैं, और यह कि इसे हमने अपनी अनुभूति की प्रतीति-उत्पत्ति और संज्ञानात्मक सम्बंध के क्षण प्रति क्षण के सातत्य के मानसिक लेबल और निर्धारक के रूप में गढ़ा है। लेकिन मानसिक लेबलिंग कोई ऐसा सक्रिय अभ्यास नहीं है जो कुछ भी उत्पन्न कर सकता हो – यह तो बस चीज़ों के मान्य पारम्परिक अस्तित्व को समझाने का एक तरीका है। मानसिक क्रियाकलाप या उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने वाली किसी भी चीज़ के साथ किसी भी प्रकार की स्वतः प्रमाणनकारी प्रकृति नहीं होती है – ऐसा होना असम्भव है। किसी भी चीज़ के पारम्परिक अस्तित्व को प्रमाणित करने के असम्भव तरीकों का पूर्ण अभाव ही शून्यता है।

गेलुग शैली की महामुद्रा ध्यानसाधना में पहले मानसिक क्रियाकलाप की पारम्परिक प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जहाँ ध्यान और जागरूकता को हटने से बचाने और ध्यान हटने का पता लगाने के लिए सचेतनता का प्रयोग किया जाता है। किसी टॉर्च के बारे में सोचे, लेकिन हम इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि वह किस चीज़ को प्रकाशित कर रही है (सेवेदी वस्तुएं और विचार, और उनके साथ जुड़ी हुई भावात्मक अन्तर्वस्तु)। बल्कि हम हर क्षण घटित होने वाले टॉर्च के क्रियाकलाप – प्रतीतियों को दृष्टिगोचर करना – पर ध्यान को केंद्रित करते हैं। यह महत्वपूर्ण होता है कि हम इस प्रकार ध्यान केंद्रित न करें जैसे वह ध्येय हो, बल्कि मानसिक क्रियाकलाप को घटित होने के समय ध्यान को केंद्रित बनाए रखें। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हम टॉर्च की मदद से “मैं” को टॉर्च को धारण करने वाले या प्रतीति को देखने वाले व्यक्ति के रूप में न पहचानें। जब विचार उठते हैं तो हम बस उन्हें देखते भर हैं उनके कथानक की ओर आकर्षित नहीं होते हैं; विचार स्वतः विलुप्त हो जाते हैं और केवल चित्त पर ही ध्यान साधने की हमारी मूल मंशा हमारे ध्यान को पुनः मानसिक क्रियाकलाप पर वापस ले आती है। विकल्पतः हम विचार का विच्छेद कर देते हैं और सायास अपने ध्यान को वापस ले आते हैं।

एक बार जब हम मानसिक क्रियाकलाप की पारम्परिक प्रकृति पर शमथ की शांत और स्थिर अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं, तो फिर हम उसकी गहनतम प्रकृति, स्वतः प्रमाणित अस्तित्व की उसकी शून्यता पर अपने ध्यान को केंद्रित करते हैं। अन्ततः हमें विपश्यना सहित शमथ की असाधारण बोधग्राही अवस्था की प्राप्ति होती है और हम चित्त की शून्यता पर केंद्रित हो जाते हैं। हम तब तक अभ्यास को जारी रखते हैं जब तक कि यह युग्म निर्वैचारिक नहीं हो जाता है, और फिर हमें क्रमवार मुक्ति और ज्ञानोदय की प्राप्ति हो जाती है।

कर्म काग्यू परम्परा

तीसरे कर्मापा की प्रस्तुति

मानसिक क्रियाकलाप की पारम्परिक प्रकृति “अवियोज्य प्रतीति-उत्पत्ति (स्पष्टता) और प्रतीतियों” की होती है। मानसिक क्रियाकलाप की गूढ़तम प्रकृति “अवियोज्य सचेतनता और शून्यता” तथा “अवियोज्य प्रतीति-उत्पत्ति/ प्रतीतियाँ तथा सचेतनता/ शून्यता” होती है।

  • शून्यताअन्य-शून्यता दृष्टिकोण, जिसके अनुसार शून्यता एक ऐसी मानसिक अवस्था है जो शब्दों और विचारों से परे है – एक ऐसी सचेतनता के रूप में जो चित्त के उन निम्नतर स्तरों से मुक्त होती है जहाँ शब्द और विचार घटित होते हैं, साथ ही साथ इस प्रकार से अस्तित्वमान होने की दृष्टि से भी जो शब्दों या विचारों के सदृश हो।
  • अवियोज्य, अद्वैत के समतुल्य – किसी अवियोज्य युग्म का कोई भी सदस्य स्वतः अस्तित्वमान नहीं होता है और न ही दूसरे सदस्य से स्वतंत्र रहते हुए स्वयं को प्रमाणित कर सकता है।

 नौवें कर्मापा की प्रस्तुति

मानसिक क्रियाकलाप की पारम्परिक प्रकृति “स्पष्टता-उत्पत्ति, बोध और सम्पूर्णता” की होती है।

  • स्पष्टता-उत्पत्ति, या सिर्फ “स्पष्टता (प्रतीति-उत्पत्ति)” - जिसका उल्लेख “उज्जवल” के रूप में किया जाता है।
  • बोध – “जाग्रत” होने के अर्थ में “सचेतनता” का समतुल्य
  • सम्पूर्णता – निर्वैचारिक तौर पर, धारणात्मक विचार से मुक्त संज्ञानात्मक अवस्था। धारणात्मक विचार यथार्थ रूप में स्थापित अस्तित्व का प्रक्षेपण करता है और परिघटनाओं को “यह” या “वह” के रूप में वर्गीकृत करता है।

प्रतीतियों और शून्यता, स्पष्टता-उत्पत्ति और शून्यता, और बोध तथा शून्यता की अवियोज्यता या अद्वैत ही गूढ़तम प्रकृति है।

  • शून्यता – आत्म-शून्यता दृष्टिकोण, जिसके अनुसार शून्यता सिर्फ इस अर्थ में शब्दों और विचारों से परे इस प्रकार अस्तित्वमान होने की अवस्था होती है जो शब्दों और विचारों (जैसे यथार्थ रूप में अस्तित्वमान, गैर-यथार्थ रूप में अस्तित्वमान, दोनों या दोनों में से एक भी नहीं) के अनुरूप होने से परे हो।

महामुद्रा ध्यानसाधना की कर्म काग्यू शैली में व्यक्ति को स्पष्टता-उत्पत्ति, बोध और सम्पूर्णता के वर्तमान क्षण में किसी भी प्रकार के धारणात्मक विचार से मुक्त होकर सचेतनता और सजगतापूर्वक शांतचित्त होने से शमथ की अवस्था की प्राप्ति होती है। इसका अर्थ अपेक्षाओं और चिन्ताओं से मुक्त रहते हुए, और वैचारिक दृष्टि से “यह” या “वह” मूर्तमान वस्तु को धारणात्मक दृष्टि से पहचाने बिना ध्यान साधना करना होता है:

  • आपको किसका बोध हो रहा है – कोई संवेदी सूचना या कोई यादृच्छिक विचार
  • आप क्या कर रहे हैं
  • उसका कर्ता कौन है
  • चित्त की पारम्परिक प्रकृति क्या है।

इस ध्यानसाधना में भी ध्यान को एकाग्र करने के लिए ऊपर वर्णित उन्हीं विधियों का प्रयोग किया जाता है जिनका प्रयोग गेलुग शैली में किया जाता है। चित्त की गूढ़तम प्रकृति में विपश्यना की अवस्था को प्राप्त करने के लिए इस ध्यानसाधना में चित्त, उसके पारम्परिक अर्थ, और प्रतीतियों के बीच के सम्बंध के बारे में विचार और विश्लेषण किया जाता है।

सारांश

गेलुग महामुद्रा ध्यानसाधना में चित्त और पारम्परिक प्रतीतियों के बीच के सम्बंध पर इस दृष्टि से ध्यान केंद्रित किया जाता है कि चित्त सभी पारम्परिक दृष्टि से अस्तित्वमान चीज़ों को प्रकट करता है और उनका बोध कराता है और वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह किसी ढूँढे जा सकने योग्य आत्म-प्रकृति की सत्ता से अस्तित्वमान नहीं होता है। चित्त और पारम्परिक प्रतीतियों, दोनों को ही क्षण-प्रति-क्षण मात्र प्रतीति-उत्पत्ति और सचेतनता के आधार पर उनके लिए प्रयुक्त अवधारणाओं और शब्दों के रूप में ही वर्णित किया जा सकता है।

कर्म काग्यू महामुद्रा ध्यानसाधना में चित्त और प्रतीतियों पर उनकी अद्वैत स्थिति के दृष्टिगत ध्यान केंद्रित किया जाता है – इन दोनों में से किसी एक को भी दूसरे से स्वतंत्र रुप में अपनी ही सत्ता से अस्तित्वमान सिद्ध नहीं किया जा सकता है। दोनों का ही अस्तित्व इस दृष्टि से शब्दों और विचारों से परे होता है कि इनमें से कोई भी शब्दों या विचारों के अनुरूप बक्से-जैसी श्रेणियों में ढूँढे जा सकने योग्य वस्तुओं के रूप में अस्तित्वमान नहीं होता है।

हम जिस किसी भी विधि का प्रयोग करें, हम एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: हम प्रतीतियों की प्रकृति को केवल चित्त के साथ उनके सम्बंध की दृष्टि से ही समझ सकते हैं। जब हमें चित्त और सभी प्रकार की धारणात्मक प्रतीतियों का बोध हो  जाता है, और जब हम लाम-रिम क्रमिक मार्ग की साधनाओं और व्यापक प्रारम्भिक अभ्यासों का दृढ़ आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर सतत महामुद्रा ध्यानसाधना की सहायता से हम सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं।

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