भूमिका
शाक्यमुनि बुद्ध गौतम बुद्ध के नाम से भी जाने जाते हैं। ऐतिहासिक तिथि-निर्धारण पर उनका जीवन काल मध्य उत्तरी भारत में ईसा पूर्व 566 से 485 के बीच रहा। बौद्ध स्त्रोतों में उनके जीवन के विभिन्न विवरण मिलते हैं जिनमें बाद में धीरे धीरे और विस्तार आता गया। चूंकि बौद्ध साहित्य बुद्ध के परिनिर्वाण के तीन शताब्दियों के बाद ही लिखा गया, अत: इन विवरणों में दिए गए ब्यौरों की सच्चाई के बारे में निश्चित रूप से कहना कठिन है। इसके साथ ही, मात्र इसलिए कि कुछ वृत्तान्त लिखित रूप में बाद में प्रकाश में आए उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता। कुछ घटनाओं के लिखित रूप से आने के बाद भी कुछ अन्य बातों को मौखिक रूप स बताने का क्रम चलता रहा होगा।
इसके अतिरिक्त महात्मा बुद्ध सहित, महान बौद्ध गुरूओं की पारम्परिक जीवनियों का संकलन साधारण रूप से शिक्षा देने के लिए किया गया था न कि ऐतिहासिक अभिलेख तैयार करने के लिए। विशेष रूप से महान गुरूओं की जीवनियों को इस प्रकार से लिखा जाता था कि वे बौद्ध धर्म का पालन करने वालों के लिए मुक्ति तथा संबोधि के मार्ग पर चलने हेतु शिक्षाप्रद तथा प्रेरणादायक बन सकें। इसलिए बुद्ध की जीवन कथा से लाभ उठाने के लिए हमें उन्हें इसी संदर्भ में समझना होगा और उनसे मिल सकने वाली शिक्षाओं का विश्लेषण करना होगा।
स्त्रोत
बुद्ध के जीवन विषयक प्रारंभिक स्रोत हैं – थेरवाद के धार्मिक ग्रंथों में माज्झिम निकाय के अनेक पालि सूक्त तथा हीनयान सम्प्रदाय के कई विनय ग्रंथ जिनमें संघ विषयक अनुशासन का वर्णन है। यद्यपि इनमें से प्रत्येक ग्रंथ में बुद्ध की जीवन गाथा का अंशों में ही वर्णन मिल पाता है।
सबसे पहले इनके जीवन का अधिक विस्तृत वृत्तान्त, हीनयान की महासंघिका परम्परा की काव्य रचना महावस्तु में मिलता है। यह ग्रंथ त्रिपिटका में संगृहीत नहीं है। इसमें इस वृत्तांत को कुछ आगे बढ़ाया गया। उदाहरण के लिए यह विवरण दिया गया कि बुद्ध का जन्म एक राजकुमार केरूप में एक राज परिवार में हुआ था। इसी तरह का एक अन्य काव्य ग्रंथ ललितविस्तर सूत्र, हीनयान की सर्वास्तिवाद परंपरा में सामने आया। बाद के महायानी संस्करणों में इस संस्करण का और विस्तार किया गया। उदाहरण के लिए उसमें यह समझाया गया कि शाक्यमुनि को बुद्धत्व तो सदियों पहले ही प्राप्त हो गया था, सिद्धार्थ के रूप में उनका प्रकट होने का उद्देश्य केवल दूसरों को निर्वाण के मार्ग की शिक्षा देना था।
अंतत: इनमें से कुछ जीवनियों को त्रिपिटक जैसे संकलनों में स्थान प्राप्त हुआ। इनमें सबसे जाना माना है अश्वघोष का बुद्धचरित, जो कि ईसा की पहली शताब्दी में लिखा गया था। अन्य वृतान्त चक्रसंवर साहित्य जैसे बाद के तंत्र ग्रंथों में सामने आए। वहां हमें इस बात का विवरण मिलता है कि शाक्यमुनि के रूप में प्रकट होकर प्रज्ञापारमिता सूत्र की शिक्षा देते समय बुद्ध ठीक उसी समय वज्रधारा के रूप में भी प्रकट हुए और तंत्र की शिक्षा दी।
इन सभी वृत्तांतों से हम कुछ सीख सकते हैं और प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। पर हम मूलत: उन वृत्तांतों पर ध्यान दें जो कि ऐतिहासिक बुद्ध का चित्रण करते हैं।
जन्म, प्रारंभिक जीवन और संन्यास
प्रारंभिक विवरणों के अनुसार शाक्यमुनि का जन्म वर्तमान भारत-नेपाल सीमा स्थित शाक्य राज्य की राजधानी कपिलवस्तु में, एक धनाढ्य परिवार में हुआ था। उनके किसी राज परिवार में जन्म लेने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। केवल बाद के वर्णनों में उनके राज परिवार में जन्म और सिद्धार्थ नाम की चर्चा आती है। उनके पिता का नाम शुद्धोदन न था। बाद के वृत्तांतों में उनकी माता माया देवी की चर्चा आती है और साथ ही उनके स्वप्न में चामत्कारिक गर्भधारण जिसमें छ: दंत वाले हाथी के उनके शरीर में एक तरफ से प्रवेश करने की और साथ ही मुनि असित की भविष्यवाणी का उल्लेख है कि बालक या तो चक्रवर्ती राजा होगा अथवा महान मुनि। बाद के साहित्य में कलिवस्तु से कुछ दूरी पर लुम्बिनी के एक वृक्ष कुंज में माता के शरीर के एक तरफ से बुद्ध के निष्पाप जन्म और जन्म के पश्चात् सात कदम रखने और यह घोषणा करने कि ‘मैं आ गया हूं’ की बात और प्रसव के बाद उनकी मां की मृत्यु का उल्लेख है।
एक युवा के रूप में बुद्ध ने आनन्द-वैभव से परिपूर्ण जीवन बिताया। उनका विवाह सम्पन्न हुआ और उनका राहुल नाम का एक पुत्र भी था। बाद के वर्णनों में उनकी पत्नी यशोधरा का नाम आता है। परन्तु उनतीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपने परिवार का और अपने राजसी उत्तराधिकार का परित्याग किया और एक श्रमण का जीवन जीने लगे।
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम बुद्ध के वैराग्य को उनके समय और समाज के संदर्भ में देखें। भ्रमणशील (श्रमण) आध्यात्मिक साधक और खोजी का जीवन अपनाते समय उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे को अकेले गरीबी में रहने के लिए नहीं छोड़ दिया था। निश्चित रूप से उनके धनी परिवार ने उनकी देख रेख की होगी। साथ ही साथ एक क्षत्रिय परिवार का सदस्य होने का अर्थ यही है कि किसी न किसी दिन उन्हें युद्ध के लिए अपना घर छोड़ना ही पड़ता। एक क्षत्रिय परिवार इसे एक पुरूष के कर्तव्य के रूप में स्वीकार कर लेता। प्राचीन भारत के योद्धा अपने परिवार को सैन्य शिविरों में साथ नहीं ले जाते थे।
यद्यपि बाहरी शत्रुओं के विरूद्ध लड़ाई लड़ी जासकती है पर असली युद्ध हमारे अपने अंदर के शत्रुओं से लड़ना होता है और बुद्ध इसी युद्ध को लड़ने के लिए गए थे। इस उद्देश्य के लिए बुद्ध द्वारा अपने परिवार को छोड़ने का अर्थ यह है कि आध्यात्मिक साधक का यह कर्तव्य है कि वह आध्यात्मिक खोज में अपना सारा जीवन लगा दे। पर यदि आज के हमारे आधुनिक संसार में हम संन्यासी बनने और इस अंदर की लड़ाई छेड़ने के लिए घर छोड़ें तो हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि हमारे परिजनों की देखभाल ठीक से हो। इसका अर्थ केवल हमारे जीवन साथी और बच्चों की ही नहीं परन्तु अपने वृद्ध माता पिता की भी देखरेख है। चाहे हम अपने परिवार को छोड़ें अथवा नहीं छोड़ें लेकिन प्रत्येक बौद्ध आध्यात्मिक खोजी का यह कर्तव्य है कि वह दु:ख को कम करने के लिए सुख सुविधा की लत पर काबू पाए जैसा कि बुद्ध ने किया था।
दु:ख पर विजय प्राप्त करने के लिए बुद्ध जन्म, जरा, व्याधि, मरण, पुनर्जन्म, अवसाद और भ्रम की प्रकृति कोसमझना चाहते थे। इसका विस्तृत वृत्तांत एक घटना के रूप में बाद में सामने आया जबकि सारथी छन्ना उन्हें शहर घुमाने के लिए रथ की सवारी पर ले गया। जब बुद्ध ने बीमार, वृद्ध, मृत और संन्यासी लोगों को देखा तो छन्ना ने उन्हें इन लोगों की दशा के बारे में समझाया। इस तरह बुद्ध को लोगों के द्वारा अनुभव किए जा रहे वास्तविक दु:ख और उससे बाहर निकलने के संभावित मार्ग का स्पष्ट तौर पर अनुभव हुआ। आध्यात्मिक मार्ग पर एक सारथी द्वारा सहायता प्राप्त करने की घटना भगवत् गीता में अर्जुन की घटना के समकक्ष है जिसमें कृष्ण ने उन्हें अपने क्षत्रिय धर्म का पालन कर युद्ध क्षेत्र में अपने संबंधियों के विरूद्ध युद्ध करने का उपदेश दिया है। बौद्ध और हिन्दू दोनों ही प्रकरणों में हम अपने जाने पहचाने सुख सुविधा के जीवन की चारदीवारी से बाहर निकलकर सत्य की खोज के अपने कर्तव्य को कभी न छोड़ने का एक और गहरा अर्थ पाते हैं। दोनों प्रसंगों में संभवत: रथ प्रतीक है, चित्त के वाहन का जो उसे मुक्ति तक ले जाता है और सारथी के वचन प्रतीक हैं उस प्रेरणा शक्ति के जो इस वाहन अर्थात् यथार्थ संबंधी ज्ञान को आगे बढ़ाता है।
अध्ययन और सम्बोधि
ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले एक भ्रमणशील आध्यात्मिक अन्वेषक के रूप में बुद्ध ने दो शिक्षकों के निर्देशन में ध्यान के विभिन्न स्तरों की प्राप्ति और निराकार को आत्मसात करने के उपायों का अध्ययन किया। यद्यपि वे एकाग्रता के परिशुद्ध रूपों के गहन स्तर तक पहुंचने में सक्षम हुए जिसमें वे स्थूल दु:खों अथवा साधारण सांसारिक सुखों से प्रभावित नहीं होते थे पर वे इतने से संतुष्ट न थे। ये उच्चतर स्थितियां इन अनुभवों से केवल अस्थायी राहत दे पायी, दूषित भावनाओं से स्थायी मुक्ति और निश्चित रूप से उन गहरे सार्वभौमिक दु:खेां को दूर न कर सकीं जिन पर वे काबू पाना चाहते थे। उसके बाद उन्होंने पांच तपस्वियों के साथ कठोर तपस्या का अभ्यास किया, पर इससे भी उन्हें संसार से संबंधित अन्य समस्याओं को दूर करने का उपाय न मिला। केवल बाद के वर्णनों में निरंजना नदी के तट पर उनके छ: वर्ष के उपवास को तोड़ने और सुजाताद्वारा उन्हें खीर की कटोरी भेंट करने की घटना का वर्णन मिलता है।
हमारे लिए बुद्ध का उदाहरण यह स्पष्ट करता है कि हम केवल पूर्ण रूप से शांत होकर अथवा साधना के नशे में चूर होकर भी संतुष्ट न हों फिर कृत्रिम नशीले पदार्थ तो दूर की बात है। एक गहरे ध्यान में अपने आपको समेट लेना अथवा स्वयं को पीडि़त करना अथवा सजा देना भी कोई समाधान नहीं है। हमें विमुक्ति और संबोधि की पूरी यात्रा करनी है केवल आध्यात्मिक उपायों से, जो इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपर्याप्त हैं, संतुष्ट नहीं होना है।
तपश्चर्या को त्यागने के बाद बुद्ध ने भय पर काबू पाने के लिए फिर जंगल में अकेले ध्यान किया। भय के पीछे भोग-विलास और मनोरंजन की बलवती इच्छा से भी अधिक बाध्यकारी इच्छा होती है अपने को संजोए रखने और एक असंभव ‘मैं’ के अस्तित्व को पा लेने की। तीखे शस्त्र का चक्र ग्रंथ में ईसा की दसवी शताब्दी के भारतीय शिक्षक धर्मरक्षित ने मोरों के बिम्ब का प्रयोग किया जो वन में विषैली वनस्पतियों के बीच घूमते रहते हैं। ये मोर प्रतीक हैं बोधिसत्वों के जो इच्छा, क्रोध तथा मूढ़ता जैसी विषाक्त भावनाओं को रूपांतरित कर उनकी सहायता से अपने को संजोए रखने और एक असंभव मैं के प्रति ललक को नियंत्रित कर सकें।
बहुत ध्यान-साधना के बाद पैंतीस वर्ष की आयु में बुद्ध को पूर्ण संबोधि की प्राप्ति हुई। बाद के वर्णनों में बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे मार के आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना कर उनकी इस संबोधि प्राप्ति का विस्तृत वर्णन मिलता है। ईर्ष्या से भरकर और बुद्ध के ध्यान का भंग करने के लिए मार बोधि वृक्ष के नीचे भयानक और सम्मोहक रूप लेकर प्रकट हुआ।
प्रारम्भिक वर्णनों में आता है कि तीन प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् बुद्ध को बुद्धत्व मिला जिसमें उनके अपने पूर्व जन्मों का संपूर्ण ज्ञान, दूसरों के कर्म और पुनर्जन्मों का ज्ञान और चार आर्य सत्य थे। बाद के वृत्तांतों में आता है कि संबोधि के साथ उन्हें सर्वज्ञता भी प्रापत हुई।
शिक्षा और संघ की स्थापना
स्वयं मुक्ति और संबोधि प्राप्त करने के बाद दूसरों को इसकी प्राप्ति कराने के लिए शिक्षा देने में बुद्ध को संकोच हुआ। उन्हें लगा कि कोई भी उन्हें समझ न पाएगा।परन्तु भारतीय देवताओं, ब्रह्मा और इन्द्र देव ने उनसे शिक्षा देने का आग्रह किया। ब्राह्मणीय शिक्षा के अनुसार जिसका विकास बाद में हिन्दूधर्म के रूप में हुआ, ब्रह्मा सृजन करने वाले हैं और इन्द्र देवताओं के राजा हैं। यह अनुरोध करते हुए ब्रह्मा ने बुद्ध से कहा कि यदि उन्होंने शिक्षा नहीं दी तो पूरा संसार कभी न समाप्त होने वाले दु:ख में उूब जाएगा अन्यथा कम से कम कुछ लोग तो उनकी शिक्षाओं को समझ लेंगे।
इस विवरण में व्यंग्य का पुट हो सकता है जिसमें बुद्ध की शिक्षा की श्रेष्ठता इंगित हो जो कि उस समय की पारम्परिक भारतीय आध्यात्मिकता की शिक्षा से कहीं बेहतर थी। जब परम देवताओं ने यह स्वीकार किया कि संसार को बुद्ध की शिक्षाओं की आवश्यकता है क्योंकि उनके पास लोगों के दु:खों को स्थायी रूप से दूर करने का कोई रास्ता नहीं है तो हम साधारण अनुयायियों को तो इन शिक्षाओं की और भी अधिक आवश्यकता है। और तो और, बौद्ध प्रतीकों में ब्रह्मा अहंकार के प्रतीक हैं। उनकी यह धारणा कि वे सर्व शक्तिमान सृजनकर्ता हैं, भ्रांति की पराकाष्ठा है कि वह एक असंभव ‘’मैं’’ – अर्थात् ऐसे ‘’मैं’’ के रूप में सत्ता रखते हैं जो कि जीवन में सब कुछ नियंन्त्रित कर सकता है। ऐसा भ्रांत विश्वास अंत में नैराश्य और दु:ख को ही जन्म देता है। हमारे अस्तित्व के विषय में केवल बुद्ध की शिक्षाएं हमें इस वास्तविक दु:ख और उसके वास्तविक कारणों को समाप्त करने का रास्ता दिखाती है।
ब्रह्मा और इंद्र की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए बुद्ध सारनाथ गए और वहां मृग दाव में अपने पहले के पांच साथियों को चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी। बौद्ध प्रतीकों के अनुसार मृग कोमलता का प्रतीक है और इस तरह बुद्ध एक ऐसे कोमल मार्ग की शिक्षा देते हैं जो कि भोग और संन्यास के अतिवादों से दूर है।
शीघ्र ही निकटवर्ती वाराणसी के अनेक नवयुवक बुद्ध के साथ कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक भ्रमणशील आध्यात्मिक साधक के रूप में चल पड़े। उनके माता पिता उनके साधारण शिष्य हो गए और भिक्षा देकर उस समुदाय को सहारा देते रहे। जब कोई सदस्य अच्छी तरह से प्रशिक्षित हो जाता तो बुद्ध उसे दूसरे लोगों को शिक्षित करने के लिए भेज देते। इस तरह बहुत जल्दी भिक्षुओं का समूह बढ़ता गया और शीघ्र ही वे एक स्थान पर बस गए और उन्होंने अलग अलग स्थानों पर भिक्षुओं का संघ बना लिया।
बुद्ध ने इन भिक्षु समुदायों को व्यावहारिक निर्देशों के आधार पर संगठित किया। इस प्रारंभिक काल में यदि हम भिक्षु शब्द का प्रयोग करें तो वे लोगों को संघ में शामिल कर सकते थे पर उनके लिए कुछ प्रतिबंधों का पालन करना आवश्यक था जिससे कि पुरोहित वर्ग के साथ उनका विरोध उत्पन्न न हो। इसलिए बुद्ध ने अपराधियों, राज कर्मचारी जैसे कि सेना के लोगों, दास जिन्हें दासत्व से मुक्ति नहीं मिली थी और छूत की बीमारी जैसे कोढ़ आदि के रोगियों को संघ में शामिल नहीं किया। बीस वर्ष की आयु से कम लोगों को भी प्रवेश पाने की अनुमति नहीं थी। बुद्ध किसी भी प्रकार की मुसीबत से बचना चाहते थे और संघ तथा धर्म की शिक्षाओं के लिए लोगों का सम्मान अर्जित करना चाहते थे। इससे हमें शिक्षा मिलती है कि बुद्ध के अनुयायियों के रूप में हमें स्थानीय रीति रिवाजों के प्रति आदर प्रकट करना चाहिए और हमारा आचरण सम्मानजनक होना चाहिए ताकि लेागों के मन में बौद्ध धर्म के प्रति अच्छी धारणा बने और वे उसके प्रति श्रद्धा-भाव रखें।
शीघ्र ही बुद्ध मगध लौट गए जिस राज्य में बोध गया स्थित था। राजा बिम्बिसार ने उन्हें राजधानी राजगृह में आमंत्रित किया जिसे आज हम राजगीर के नाम से जानते हैं और बाद में वे उनके संरक्षक और शिष्य हो गए। वहां शारिपुत्र और मौद्गल्यायन बुद्ध के बढ़ते संघ में शामिल हो गए और उनके निकटतम शिष्यों में गिने जाने लगे।
निर्वाण के एक वर्ष के अंदर ही वे अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे जहां उनका पुत्र राहुल संघ में शामिल हो गया। बुद्ध के सौतेले सजीले भाई नन्द पहले ही घर छोड़कर उनके साथ शामिल हो गए थे। बुद्ध के पिता राजा शुद्धोदन इस बात को लेकर अत्यंत दु:खी थे कि वंश परंपरा समाप्त हो गई थी इसलिए उन्होंने बुद्ध से प्रार्थना की कि भविष्य में संघ में शामिल होने के लिए पुत्र को माता पिता की सहमति की आवश्यकता होनी चाहिए। बुद्ध इस बात से पूरी तरह सहमत हुए। इस विवरण का उद्देश्य यह दिखाना नहीं कि बुद्ध अपने पिता के प्रति कितने क्रूर थे बल्कि ऐसा संदेश देना है जिससे बौद्ध धर्म के प्रति लोगों में कोई बुरी धारणा न बने, विशेषकर हमारे परिवारों में। बाद के विवरण में आता है कि बुद्ध ने अपनी परा-भौतिक शक्ति के प्रयोग से तैंतीस देवताओं वाले स्वर्ग अथवा कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार तुषित स्वर्ग जाकर अपनी मॉं को उपदेश दिया जिनका वहां पुनर्जन्म हुआ था। इससे मां के स्नेह का आदर करते हुए उसके प्रति कृतज्ञ होने का महत्व सिद्ध होता है।
संघ व्यवस्था का विकास
प्रारम्भिक बौद्ध संघ आकार में छोटे होते थे और एक संघ में बीस से अधिक भिक्षु नहीं रहते थे। प्रत्येक संघ स्वायत्त होता था और संघ में रहने वाले भिक्षु निर्धारित क्षेत्र की सीमाओं में ही भिक्षाटन के लिए जाते थे। किसी भी प्रकार के मतभेद की स्थिति से बचने के लिए प्रत्येक संघ से संबंधित सभी निर्णय सभी संघवासी सदस्यों के बीच सर्वसम्मति के आधार पर लिए जाते थे। किसी भी एक व्यक्ति को पूर्ण सत्ता नहीं सौंपी जाती थी। व्यक्ति के स्थान पर बुद्ध ने अपने अनुयायी भिक्षुओं को धर्म की शिक्षाओं को ही नियम मानने का निर्देश दिया। यहां तक कि आवश्यकता पड़ने पर संघ के अनुशासन के नियम तक बदले जा सकते थे, लेकिन कोई भी बदलाव केवल तभी किया जा सकता था जब पूरे संघवासी समूह की सर्वसम्मति हो।
राजा बिम्बिसार ने सलाह दी कि बुद्ध जैनों जैसे अन्य आध्यात्मिक भिक्षु समूहों की भांति साप्ताहिक सभा (उपोषाढ़) के आयोजन की प्रथा को अनुमति दे दें। इस प्रथा के अनुसार प्रत्येक सप्ताह के पहले दिन उपदेशों पर चर्चा करने के लिए एकत्र होते थे। बुद्ध ने इस प्रस्ताव को अपनाए जाने के लिए अपनी सहमति दे दी, जिससे यह पता चलता है कि वे अपने समय में प्रचलित रीतियों को अपनाए जाने के सुझावों को स्वीकार करने के लिए उदार दृष्टिकोण रखते थे। वास्तविकता तो यह है कि बुद्ध ने अपने आध्यात्मिक संघों और अपने उपदेशों को जैन मत की रीतियों के अनुसार ढाला था। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने बुद्ध से लगभग आधी शताब्दी पूर्व अपनी शिक्षाएं दी थीं।
कुछ ही समय बाद शारिपुत्र ने संघों के अनुशासन के लिए नियम प्रतिपादित करने का आग्रह किया। किन्तु बुद्ध ने उस समय तक प्रतीक्षा करने का फैसला किया जब तक कि कोई विशेष प्रकार की समस्या उत्पन्न न हो, और फिर समस्या उत्पन्न होने पर उस प्रकार की घटना को दोबारा होने से रोकने की प्रतिज्ञा का प्रावधान करने का निर्णय लिया। बुद्ध ने ऐसे स्वाभाविक रूप से हानिकर कृत्यों, जो कर्ता के लिए भी हानिकर थे, और ऐसे कृत्यों जो नैतिक दृष्टि से न बुरे थे और न अच्छे और कुछ विशेष परिस्थितियों में विशेष कारणों से कुछ विशिष्ट जन के लिए निषिद्ध थे – दोनों ही प्रकार के कृत्यों के लिए इस नीति का पालन किया। इस प्रकार उनके अनुशासन सम्बन्धी नियम (विनय) व्यावहारिक थे और प्रयोजनानुसार तय किए गए थे। ऐसा करने के पीछे बुद्ध का प्रमुख उद्देश्य समस्याओं से बचना और किसी को भी अप्रसन्न करने से बचना था।
अनुशासन के इन्हीं नियमों के आधार पर फिर बुद्ध ने संघों की साप्ताहिक बैठकों में प्रतिज्ञा वाचन की परम्परा शुरू की जिसके साथ-साथ भिक्षु सार्वजनिक तौर पर अपने द्वारा किए गए उल्लंघनों का दोष स्वीकार करने थे। बहुत अधिक गम्भीर उल्लंघनों के मामलों में संघ से निष्कासन का दंड दिया जाता था, अन्यथा परख अवधि पर रखे जाने की लज्जा उठाने मात्र का दंड ही दिया जाता था। बाद में ये बैठकें माह esa में केवल दो बार आयोजित की जाने लगीं।
इसके बाद बुद्ध ने वर्षा ऋतु के तीन महीनों में एकांतवास की परम्परा प्रारम्भ की; इस अवधि के दौरान किसी एक ही स्थान पर रहते थे और यात्रा करने से परहेज़ करते थे। इसका उद्देश्य यह था कि वर्षाकाल में मार्गो के पानी में डूब जाने के कारण खेतों से होकर गुजरते समय भिक्षुओं के पैरों से खड़ी फसलों को नुकसान न पहुंचे। वर्षा ऋतु में एकांतवास की परम्परा को जारी रखने के कारण स्थायी संघों की स्थापना की जाने लगी। यह परम्परा भी सामान्यजन को किसी प्रकार की हानि पहुंचाने से बचने और उनका सम्मान हासिल करने के उद्देश्य से प्रचलन में आई। स्थायी संघों के निर्माण का कार्य इसलिए भी प्रारम्भ किया गया क्योंकि ऐसा करना व्यावहारिक था। दूसरे वर्षा कालके एकांतवास से शुरू करते हुए अगले पच्चीस वर्षा कालों तक का समय बुद्ध ने कौशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती के बाहर जेतवन कुंज में व्यतीत किया। अनाथपिंडद नाम के एक व्यापारी ने इस स्थान पर बुद्ध और उसके भिक्षुओं के लिए एक संघ का निर्माण करवाया और सम्राट प्रसेनजित ने इस संघ को आगे और अधिक आर्थिक संरक्षण दिया। जेतवन के इस संघ में बुद्ध के जीवन की अनेक महान घटनाएं घटित हुईं। इनमें सबसे प्रसिद्ध घटना वह थी जिसमें बुद्ध ने अपने समय के छ: गैर बौद्ध मतों के पथप्रदर्शकों को चमत्कारी शक्तियों की एक स्पर्धा में पराजित किया।
वर्तमान समय में हममें से कोई भी चमत्कार नहीं कर सकता है। किन्तु अपने प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करने के लिए बुद्ध द्वारा तर्क के स्थान पर चमत्कारी शक्तियों का प्रयोग किया जाना यह दर्शाता है कि जब दूसरों की बुद्धि तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार न हो तो अपने कौशल और अपने व्यवहार की सहायता से अपनी निपुणता का प्रदर्शन करके उन्हें अपने तर्क का महत्व स्वीकार करने के लिए मना लेना ही सबसे अच्छा तरीका है। एक अंग्रेजी कहावत है कि, ‘मनुष्य की करनी उसकी कथनी से अधिक प्रभावशाली होती है।‘
भिक्षुणियों के संघों की स्थापना
अपने बाद के शिक्षण काल में बुद्ध ने अपनी मौसी महाप्रजापति के आग्रह पर वैशाली में भिक्षुणियों के एक संघ की स्थापना की। शुरुआत में बुद्ध ऐसे संघ की स्थापना करने के लिए अनिच्छुक थे, लेकिन बाद में उन्होंने फैसला किया कि यदि वे भिक्षुओं की तुलना में भिक्षुणियों के लिए अधिक नियम बनाएं तो ऐसे संघ की स्थापना कर पाना संभव होगा। ऐसा करके बुद्ध यह संकेत नहीं देना चाहते थे कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक अनुशासनहीन हैं और उनके लिए अधिक नियम बना कर उन्हें अधिक मर्यादित रखने की आवश्यकता होगी। बल्कि बुद्ध को तो इस बात की आशंका थी कि भिक्षुणियों के संघ की स्थापना से बौद्ध मत की प्रतिष्ठा कम हो सकती थी और उनकी शिक्षाओं का असमय अन्त हो सकता था। सबसे बढ़कर, बुद्ध जनसमुदाय के बीच निरादर का पात्र नहीं बनना चाहते थे और इसलिए वे चाहते थे कि भिक्षुणियों के संघ अनैतिक आचरण सम्बन्धी किसी प्रकार के संदेह से परे रहें।
सामान्य तौर पर बुद्ध नियम निर्धारण के विरूद्ध थे और चाहते थे कि यदि कोई कम महत्वपूर्ण नियम अनावश्यक पाए जाएं तो उनहें समाप्त कर दिया जाए। उनकी नीति गहरी सत्य के साथ-साथ पारम्परिक सत्य को भी सम्मान देती है। हालांकि गहरी सत्य की दृष्टि से भिक्षुणियों के संघ की स्थापना में कोई बुराई नहीं थी; लेकिन इस स्थिति से बचने के लिए कि जनसामान्य बौद्ध उपदेशों को तुच्छ समझने लगें, भिक्षुणियों के लिए अनुशासन के और अधिक नियम निर्धारित करने की आवश्यकता महसूस की गई। गहरी सत्य की दृष्टि से यह देखना महत्वपूर्ण नहीं है कि भिक्षुणियों के संघ के विषय पर समाज की क्या राय है; पारम्परिक सत्य की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण था कि बौद्ध समाज सामान्यजन का सम्मान और विश्वास हासिल करे। इसलिए आधुनिक युग और समाज में यदि भिक्षुणियों या सामान्य महिलाओं या किसी अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के कारण बौद्ध मत का अपयश होता है, तो बुद्ध की शिक्षा का भाव यह है कि ऐसे नियमों को सामयिक मानदंडों के अनुरूप बदल लेना चाहिए।
आखिर सहनशीलता और करुणा ही तो बुद्ध की शिक्षाओं के प्रमुख बिंदु रहे हैं। उदाहरण के लिए बुद्ध दूसरे धार्मिक सम्प्रदायों से आने वाले अपने शिष्यों को अपने पिछले सम्प्रदाय को समर्थन जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। बौद्ध संघों में भी उन्होंने संघवासियों को शिक्षा दी थी कि वे एक दूसरे का ख्याल रखें। उदाहरण के लिए यदि कोई भिक्षु अस्वस्थ हो जाए तो दूसरे भिक्षु उसकी देखभाल करें क्योंकि वे सभी बौद्ध परिवार के सदस्य हैं। सभी सामान्य बौद्ध अनुयायियों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण उपदेश है।
बुद्ध का शिक्षा देने का ढंग
बुद्ध ने दूसरों को अपने जीवन उदाहरण से और मौखिक निर्देशों के माध्यम से शिक्षा दी। मौखिक रूप से शिक्षा देने के लिए यह देखते हुए कि वे एक समूह को शिक्षा दे रहे हैं अथवा किसी एक व्यक्ति को, उन्होंने दो प्रकार की शैलियां चुनीं। समूह के सामने बुद्ध अपनी शिक्षा एक प्रवचन के रूप में देते जिसमें प्राय: वे किसी एक बिन्दु को अलग अलग शब्दों में दोहराते ताकि श्रोता उसे अच्छी तरह याद रख सके। परन्तु, जब उन्हें किसी को निजी रूप से शिक्षा देनी होती जो कि प्राय: दोपहर के भोजन के बाद किसी ऐसे परिवार में होती थी जिसने उन्हें तथा उनके भिक्षुओं को खाने के लिए निमंत्रित किया होता तो बुद्ध दूसरा ढंग अपनाते। वे कभी सुनने वाले के विचारों का विरोध न करते और न ही तर्क करते बल्कि उस व्यक्ति के विचारों को अपनाकर उससे प्रश्न करते ताकि सुनने वाला अपने विचार खोलकर सामने रख सके। इस तरह बुद्ध उस व्यक्ति को उसके विचार और दृष्टिकोण को सुधारने तथा सत्य को गहराई से समझने में सहायता करते थे। एक उदाहरण है कि बुद्ध ने एक घमंडी ब्राह्मण को यह समझाने में मदद की कि आदमी जिस जाति में पैदा हुआ है उससे बड़ा नहीं होता अपितु सद्गुणों के विकास से बड़ा बनता है।
एक दूसरा उदाहरण उस शोकाकुल मां का है जो अपने मृत बच्चे को उनके पास लाकर उनसे प्रार्थना करने लगी कि वह उसके बच्चे को फिर से जीवित कर दे। बुद्ध ने उससे किसी ऐसे घर से कुछ सरसों के दाने लाने को कहा जहां मृत्यु का आगमन कभी न हुआ हो। इसके बाद ही वे देखेंगे कि क्या किया जा सकता है। वह स्त्री एक घर से दूसरे घर गई पर हर परिवार में किसी न किसी की मृत्यु अवश्य हुई थी। तब उसे अहसास हुआ कि हर व्यक्ति को किसी न किसी दिन मृत्यु कोअवश्य प्राप्त होना है और इस तरह वह शांत मन से अपने बच्चे का अंतिम संस्कर कर सकी। बुद्ध की शिक्षा देने का ढंग हमें बताता है कि लोगों को निजी तौर पर शिक्षा देने के लिए सामने वाले से मुकाबला न करना सबसे अच्छा तरीका है। सबसे प्रभावी तरीका है कि उन्हें अपने ही ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करें। पर सामूहिक रूप से जब लोग शिक्षा लेना चाहते हैं तो हमें उन्हें सीधे ढंग से और स्पष्ट रूप से समझाना होगा।
बुद्ध के विरूद्ध षडयन्त्र
बुद्ध के परिनिर्वाण के सात साल पहले उनके ईर्ष्यालु चचेरे भाई देवदत्तने संघ के मुखिया का स्थान लेने के लिए बुद्ध के विरूद्ध षडयन्त्र रचाया। इसी तरह राजकुमार अजातशत्रु ने अपने पिता बिंबिसार को मगध नरेश के पद से हटाने का कुचक्र चलाया। इसलिए उन दोनों ने मिलकर षडयंत्र रचा। अजातशत्रु ने बिम्बिसार को मार डालने का प्रयत्न किया और इसका नतीजा यह हुआ कि राजा ने अपने पुत्र के लिए राज सिंहासन छोड़ दिया। अजातशत्रु की सफलता को देखकर देवदत्त ने उसे बुद्ध की हत्या करने को कहा परन्तु बुद्धको मारने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं।
फिर देवदतत ने यह दावा करते हुए कि वह अपने चचेरे भाई से अधिक महान है, सारे भिक्षुओं को बुद्ध से दूर करने की कोशिश की और ऐसाकरते हुए उसने और कठिन नियम बनाए। विशुद्धिमग्ग के अनुसार ईसाकी चौथी सदी में थेरवाद के गुरू बुद्धघोष के अनुसार भिक्षुओं के लिए देवदत्त द्वारा निश्चित किए गए नियम निम्नलिखित थे –
- फटे पुराने कपड़ों से बने चीवर पहनें
- केवल तीन चीवर पहनें
- भिक्षाटन के लिए जाएं पर कभी किसी के घर भोजन का निमंत्रण स्वीकार न करें
- भिक्षाटन करते समय किसी घर को छोड़े नहीं
- जो कुछ भी मिला हो उसे एक ही समय बैठकर खाएं
- केवल अपने भिक्षा पात्र से ही खाएं
- खाने की सभी अन्य वस्तुएं अस्वीकार कर दें
- केवल वन में ही रहें
- वृक्ष के नीचे रहें
- खुले वातावरण में रहें, घरों में नहीं
- अधिक से अधिक समय श्मशान भूमि पर रहें
- लगातार एक स्थान से दूसरी जगह पर घूमते हुए ठहरने के लिए जो भी स्थान मिले उसी में संतुष्ट रहें
- केवल बैठ कर सोएं, कभी लेटकर नहीं
बुद्ध ने कहा कि यदि उनके भिक्षु इन अतिरिक्त नियमों का पालन करना चाहते हैं तो ठीक है, पर कोई भी इनके पालन के लिए बाध्य नहीं था। पर उनके शिष्यों में से कई ने देवदत्त का साथ देने का निश्चय किया और वे बुद्ध के संघ से अलग हो गए।
थेरवाद सम्प्रदाय में देवदत्त द्वारा निश्चित किए गए ये नियम दुतांग के नाम से जाने जाते हैं। उदाहरण के लिए अरण्य में रहने वाले भिक्षु की परम्परा जो आज भी थाईलैंड में देखी जा सकती है इसी प्रथा से निकली जान पड़ती है। बुद्ध के शिष्य महाकश्यप इस कठोर अनुशासन का पालन करने वाले शिष्यों में सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। इस प्रकार के अनुशासन का पालन अधिकांश हिन्दू साधु भी करते हैं। ऐसा लगता है कि यह अभ्यास बुद्ध के समय से चली आ रही आध्यात्मिक खोज में लगे साधुओं की परम्परा का ही रूप है।
महायान परम्परा में भी इस प्रकार के अभ्यास वाले बारह गुणों (धातुगुण) की सूची है। इस सूची में ‘’भिक्षाटन के लिए जाते समय किसी घर को न छोड़ें’’ को निकाल दिया गया है और उसमें ‘कूड़े की टोकरी में फेंके गए वस्त्र को पहनना’ जोड़ दियागया है। साथ ही ‘’भिक्षाटन के लिए जाना’’ और ‘’केवल अपने भिक्षा पात्र से खाने को’’ को मिलाकर एक कर दिया गया है। इनमें से अधिकांश नियमों का पालन परवर्ती भारतीय तांत्रिक साधकों (महासिद्धों) ने किया जो कि महायान बौद्ध धर्म तथा हिन्दू धर्म दोनों में पाए जाते हैं।
एक स्थापित बौद्ध परम्परा से अलग होकर एक और सम्प्रदाय को जन्म देना – उदाहरण के लिए आधुनिक समय की दृष्टिसे एक अलग धर्म को बनाना अपने आप में कोई समस्या नहीं थी। ऐसा करना संघ में फूट पैदा करना नहीं है जो कि पांच जघन्य अपराधों में से एक है। पर देवदत्त ने ऐसी फूट को जन्म दिया और ऐसा अपराध किया कि जो दल अलग हो गया था उसके मन में बुद्ध के संघ के प्रति इतनी खटास आ गई कि वे जब तब उसकी कटु आलोचना करते रहते। कुछ विवरणों के अनुसार आने वाली कई शताब्दियों तक इस फूट से जन्मी मलिनता बनी रही।
फूट का यह वृत्तान्त स्पष्ट करता है कि बुद्ध अत्यंत सहनशील थे और वे रूढि़वादी नहीं थे। यदि उनके अनुयायी बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट अनुशासन संहिता से अधिक कठोर नियमों का पालन करना चाहते थे तो यह उन्हें स्वीकार्य था। परन्तु यदि वे इसके इच्छुक नहीं थे तो वहभी उन्हें स्वीकार्य था। कोई भी बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करने के लिए बाध्य नहीं था। यहां तक कि यदि कोई भिक्षु अथवा भिक्षुणी संघ की व्यवस्था को छोड़कर भी जाना चाहते थे तो वह भी उन्हें स्वीकार्य था। परन्तु सबसे अधिक विनाशकारी होता है बौद्ध समुदाय को, विशेष रूप से संघ को दो या दो से अधिक गुटों में बांट देना जहां एक या दोनों ही पक्ष मन ही मन एक दूसरे के प्रति विद्वेष का भाव रखें ओर दूसरे पर तरह-तरह के लांछन लगाएं और इस तरह उन्हें नष्ट करें। यहां तक कि इन दोनों संघर्षरत गुटों में से एक में शामिल होकर दूसरे के विरूद्ध घृणा फैलाना भी अत्यन्त अहितकर होता है। यदि कोई गुट ऐसे विनाशकारी अथवा हानिकारक कार्यों में लगा हुआ है अथवा अनुशासन भंग कर रहा है तो ऐसे गुट के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए भी करुणा-भाव अपेक्षित है ताकि उन्हें समझाया जा सके कि ऐसे गुट में शामिल होना कितना खतरनाक है। परन्तु ऐसा करते हुए मन में क्रोध, घृणा अथवा बदले की भावना नहीं होनी चाहिए।
हालांकि मुक्ति की प्राप्ति के साथ ही बुद्ध साधारण मृत्यु के अनुभव से ऊपर उठ चुके थे; पर फिर भी इक्यासी वर्ष की उम्र में बुद्ध ने निश्चय किया कि अपने शिष्यों को अनित्यता की शिक्षा देने के लिए उनका देह त्याग उचित होगा। पर ऐसा करने से पूर्व उन्होंने अपनी सेवा में लगे आनंद को एक मौका दिया कि वह उनसे और जीवित रहने के लिए तथा शिक्षा देने के लिए कहें पर आनंद उनका संकेत समझ न सके। इससे स्पष्ट होता है कि बुद्ध तभी शिक्षा देते हैं जब कोई उनसे शिक्षा देने का अनुरोध करता है और यदि कोई मांग न करे और शिक्षाओं में रूचि न रखता हो तो वे वहां से कहीं और चले जाते हैं जहां लोगों को उनसे लाभ प्राप्त हो। गुरू की उपस्थिति और उनकी शिक्षा से लाभ उठाने के लिए शिष्यों को पहल करनी होती है।
फिर कुशीनगर में चुन्द के घर उसके द्वारा बुद्ध और अन्य भिक्षुओं को दिए गए भोजन को खाने के बाद वे अस्वस्थ होकर मरणासन्न हो गए। अपनी मृत्यु शय्या पर बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा कि यदि उनके मन में कोई शंका हो अथवा अनुत्तरित प्रश्न हों तो उन्हें धर्म की शिक्षाओं और नैतिक अनुशासन का सहारा लेना होगा। अब वे शिक्षाएं और नैतिक अनुशासन ही उनके शिक्षक होंगे। इस तरह बुद्ध यह संकेत दे रहे थे कि हर व्यक्ति को शिक्षाओं में से अपना मार्ग स्वयं ढूंढ लेना चाहिए। ऐसी कोई परम सत्ता नहीं जो सभी प्रश्नों के उत्तर दे सके। उसके बाद उन्होंने देह छोड़ दी।
कुन्द यह सोचकर अत्यन्त उद्विग्न हो उठा कि उसने बुद्ध को विष दे डाला। पर आनंद ने उस गृहस्थ को यह कहते हुए शांत किया कि बुद्ध को उनके परिनिर्वाण से पहले अंतिम बार भोजन कराकर उसने बहुत ‘पुण्य’ कमाया है।
बुद्ध का अंतिम संस्कार हुआ और उनके चिता की राख को स्तूप में उन स्थानों में रखा गया जो बाद में मुख्य बौद्ध तीर्थ स्थान बने :
- लुम्बिनी, जहां बुद्ध का जन्म हुआ था
- बोधगया, जहां बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया
- सारनाथ, जहां बुद्ध ने धर्म का पहला उपदेश दिया
- कुशीनगर, जहां उन्होंने अपना देह त्याग किया
सारांश
अलग अलग बौद्ध परंपराएं बुद्ध के जीवन का अलग अलग विवरण देती हैं। उनका अंतर यह स्पष्ट करता है कि किस तरह हर परंपरा में बुद्ध को समझा गया है और हम उनके उदाहरण से क्या सीख सकते हैं।
- हीनयान परंपरा केवल ऐतिहासिक बुद्ध को मानती है। जिस तरह बुद्ध ने संबोधि प्राप्त करने के लिए सघन प्रयास किये, हम भी स्वयं प्रयास करना सीख सकते हैं।
- महायान के सामान्य विवरणों में बुद्ध कई कल्पों पहले ही संबोधि प्राप्त कर चुके थे। बारह चमत्कारी कार्यों को अपने जीवन में प्रकट कर वह शिक्षा देते हैं कि संबोधि का अर्थ सभी के हित के लिए सदैव कार्यरत रहना है।
- अनुत्तर योगतंत्र विवरण देता है कि बुद्ध एक साथ प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा देते हुए शाक्यमुनि के रूप में और तंत्र की शिक्षा देते हुए वज्रधर के रूप में प्रकट हुए। यह इस बात की सूचक है कि तंत्र का अभ्यास पूर्ण रूप से माध्यमिका शिक्षा के शून्यवाद के सिद्धांत पर आधारित है।
इस प्रकार हम बुद्ध के जीवन के प्रत्येक विवरण से बहुत सी उपयोगी बातें सीख सकते हैं और विविध स्तरों पर प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।