थेरवाद, महायान और तंत्र में बुद्ध की प्रस्तुतियाँ: क्या ये एक समान हैं?

बुद्ध के जीवन की विभिन्न प्रस्तुतियों को ऐतिहासिक संदर्भ में केवल तथ्यों के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, न ही उन्हें परस्पर विरोधी समझा जाना चाहिए। बल्कि हमें यह समझना चाहिए कि प्रत्येक प्रस्तुति को एक निश्चित संदर्भ में लिखा गया है और उसे उसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए, और यह कि प्रत्येक प्रस्तुति या विवरण सही और मान्य है। यदि हम देखें कि ये अलग-अलग संदर्भ किस प्रकार हमें कुछ विशिष्ट शिक्षाओं की जानकारी उपलब्ध कराते हैं, तो न केवल हम सामान्य दृष्टि से बुद्ध की शिक्षाओं को और अधिक गहराई से समझ सकेंगे, बल्कि हम यह भी सीख सकेंगे कि हम इन विभिन्न प्रस्तुतियों में बताई गई शिक्षाओं को किस प्रकार अपने जीवन में लागू कर सकते हैं। यदि हम इस प्रकार से शिक्षाओं को लागू करते हुए बुद्ध के जीवन के विभिन्न पड़ावों का अनुकरण करें तो बुद्ध की ही भांति सत्य का साक्षात्कार कर सकेंगे और करुणा भाव के साथ दूसरों की सहायता करने के उद्देश्य को भी हासिल कर सकेंगे।

परिचय

जब हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि बौद्ध धर्म के संस्थापक शाक्यमुनि कौन थे, तो हम पाते हैं कि बुद्ध के जीवनवृत्त के अनेक वृत्तांत मिलते हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न पूछा जा सकता है: क्या इन सभी वृत्तांतों में एक ही व्यक्ति का उल्लेख किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर देना आसान कार्य नहीं है।

बुद्ध के जीवन का एक वृत्तांत पालि ग्रंथों से मिलता है, जोकि थेरवादी परम्परा के धर्मग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में दरअसल किसी एक ही स्थान पर बुद्ध के जीवनवृत्त का पूरा वृत्तांत नहीं मिलता है, लेकिन हम अलग-अलग ग्रंथों में दिए गए अंशों को जोड़कर एक पूरा वृत्तांत तैयार कर सकते हैं। कालांतर में बौद्ध साहित्य में इस प्रारूप मात्र में कई और विवरण जोड़ दिए गए।

महायान, जिसमें बुद्ध के व्यक्तित्व के विवरण को बहुत विस्तार दिया गया, बुद्ध के जीवन का एक और वर्णन प्रस्तुत करता है जो थेरवाद के वर्णन से भिन्न है। थेरवादी संस्करण के अनुसार बुद्ध एक इतिहास पुरुष हैं जिनका जीवनकाल सामान्यतया 566 से 485 ई.पू. के बीच माना जाता है, जिन्होंने अपनी मृत्यु के साथ ही अपने सातत्य को समाप्त करते हुए अपने जीवनकाल में ज्ञानोदय को प्राप्त कर लिया था। महायान के वर्णन में पाली ग्रंथों में दिए गए वर्णन की विस्तार से व्याख्या की गई है और बताया गया है कि किस प्रकार बुद्ध ने अनेकानेक जन्म पहले ही ज्ञानोदय को प्राप्त कर लिया था और वे शाक्यमुनि के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। पृथ्वी पर उन्होंने किसी ज्ञानोदय प्राप्त व्यक्ति के रूप में बारह ऐसे कौतुक किए जिनकी सहायता से उन्होंने दूसरों के लिए यह प्रदर्शित किया कि ज्ञानोदय कैसे प्राप्त किया जा सकता है, और मृत्यु के बाद उनका सातत्य जारी है ताकि वे अलग-अलग गतियों में प्रकट होकर शिक्षाएं दे सकें और सभी सत्वों की भलाई कर सकें।

बुद्ध का एक अन्य विवरण हमें तंत्रों में मिलता है। इस विवरण में बुद्ध एक ही समय में अनेक अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं। इन रूपों, जिन्हें “यिदम” कहा जाता है, के अलग-अलग रंग, अनेक भुजाएं, मुखाकृतियाँ और पैर होते हैं, जो बुद्ध के बोध के विभिन्न पक्षों को दर्शाते हैं। बुद्ध इन अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं, लेकिन साथ ही साथ वे मनुष्य रूप में शिक्षाएं भी देते हैं, जैसे उन्होंने भारत में गृद्धकूट पर्वत पर उपदेश दिया, जहाँ उन्होंने सूत्रों की भी शिक्षा दी।

विशिष्ट संदर्भों में बुद्ध का जीवन चरित्र

बुद्ध के बारे में ये अलग-अलग विवरण, जिनकी उपशाखाएं भी हैं, भ्रामक प्रतीत होते हैं, इसलिए प्रश्न उठता है कि बुद्ध वास्तव में थे कौन? इन अलग-अलग वर्णनों को समझने की दृष्टि से पहले हमें इस आधारभूत बौद्ध सिद्धांत को समझना होगा कि बुद्ध के जीवन चरित्र के प्रत्येक विवरण में बौद्ध धर्म के किसी विशिष्ट दृष्टिकोण के अनुसार, यानी एक विशिष्ट संदर्भ में, धर्म ग्रंथों की शिक्षा दी गई थी। पालि धर्म ग्रंथों में वर्णित बुद्ध ने थेरवाद की शिक्षाओं के संदर्भ में उपदेश दिए। इसलिए यह कहने का कोई अर्थ नहीं होगा कि उन्हीं बुद्ध ने महायान और तंत्र की सामान्य शिक्षाओं के उपदेश दिए।

महायान के ग्रंथों में वर्णित बुद्ध “ऐतिहासिक बुद्ध” नहीं हैं (अर्थात, वे बुद्ध जिन्होंने एक ही जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त कर लिया था और मृत्यु के साथ ही जिनका सातत्य समाप्त हो गया था)। तंत्र की शिक्षाओं में वर्णित बुद्ध के बारे में भी यही बात लागू होती है।

सार की बात यह है कि बुद्ध के जीवन चरित्र की चर्चा करते समय, या दूसरे विषयों की चर्चा करते समय भी, इस बुनियादी बौद्ध सिद्धांत को ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि विभिन्न शिक्षाओं में जो भी बातें बताई गई हैं या निर्धारित की गई हैं, उन्हें एक एक विशेष संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। एक ही सामग्री को अलग-अलग संदर्भों में समझने का एक अन्य तरीका यह हो सकता है कि इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाएं: मेरे दैनिक जीवन की दृष्टि से इस सामग्री का अध्ययन करने की क्या उपयोगिता है? बौद्ध आध्यात्मिक मार्ग पर इस सामग्री से क्या लाभ होगा?

शाक्यमुनि बुद्ध के जीवन चरित्र को अलग-अलग संदर्भों में देखकर हम इस प्रकार के समस्या उत्पन्न करने वाले प्रश्नों से बच सकते हैं: क्या बुद्ध ने सचमुच महायान सूत्रों की शिक्षा दी थी? क्या उन्होंने सचमुच तंत्र की शिक्षा दी थी?बुद्ध के समय शिक्षाओं का प्रसार केवल मौखिक परम्परा से ही होता था और कुछ भी लिख कर नहीं रखा जाता था, इसलिए बौद्धों के बीच इस बात को लेकर कई बार वाद-विवाद हुआ कि बुद्ध ने महायान और तंत्र की शिक्षाएं दी थीं या नहीं। एक तर्क भारत के महान आचार्य शांतिदेव के ग्रंथ “बोधिचर्यावतार” में प्रस्तुत किया गया जहाँ उन्होंने कहा है, “आप हीनयानी (थेरवादी आदि) लोग हमारे महायान सूत्रों को खारिज करने के लिए जिन कारणों का प्रयोग करते हैं, मैं उनमें से ही किसी भी कारण का प्रयोग आपके सूत्रों को अयोग्य ठहराने के लिए कर सकता हूँ।“ यानी, हीनयान और महायान, दोनों ही मतों का कहना है कि उनकी शिक्षाओं का प्रसार मौखिक परम्परा से हुआ है। इसलिए, यदि थेरवादी महायानियों से ऐसा कहते हैं, “आपकी शिक्षाएं प्रामाणिक नहीं हैं क्योंकि बुद्ध ने उनके बारे में उपदेश नहीं दिया था, क्योंकि उन्हें बाद में जोड़ा गया है,” तो महायानी प्रत्युत्तर में कह सकते हैं, “आपकी शिक्षाओं के मामले में भी यही बात लागू होती है। आपकी शिक्षाओं का प्रसार भी मौखिक परम्परा के माध्यम से हुआ और उन्हें भी बहुत बाद में लिखा गया था। इसलिए यदि हमारी शिक्षाएं प्रामाणिक नहीं हैं तो आपकी शिक्षाएं भी प्रामाणिक नहीं हैं।“

इस लेख में पूर्व में एक और तर्क प्रस्तुत किया गया था कि थेरवाद और महायान के संदर्भ में बुद्ध की अवधारणा में अंतर है। थेरवादी मत के बुद्ध ने थेरवाद के धर्मग्रंथों की शिक्षा दी थी और महायान मत के बुद्ध ने महायान के ग्रंथों की शिक्षा दी थी। इन तीनों परम्पराओं: हीनयान का प्रतिनिधित्व करने वाले थेरवाद, महायान की सूत्र परम्परा, और महायान की तांत्रिक परम्परा के अलग-अलग संदर्भों की सहायता से हम बुद्ध के सामान्य जीवन के बारे में जान सकते हैं।

बुद्ध के जीवनकाल का समय

सबसे पहले हमें यह प्रश्न पूछना चाहिए: बुद्ध कब से कब तक जिए? वे एक निश्चित अवधि के दौरान एक निश्चित समाज में जिए, अर्थात एक निश्चित संदर्भ में जिए। उस समाज में पहले से ही कुछ मान्यताएं प्रचलित थीं, जिनके बारे में बुद्ध ने व्याख्यान दिए। मान्यताओं की इस व्यवस्था में उस समय के सभी भारतीय दर्शनों में प्रचलित कुछ ऐसे आधारभूत विषय थे जो बहुत पहले से ही विकसित होते चले आए थे। बुद्ध ने इन विषयों की व्याख्या प्रस्तुत की, जैसे पुनर्जन्म, जिसका निर्धारण कर्म (वैयक्तिक कृत्यों) के आधार पर होता है, और बताया कि पुनर्जन्म के इस चक्र से किस प्रकार मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। सामान्यतया सभी भारतीय पद्धतियों में कहा गया है कि ज्ञान, या यथार्थ का बोध ही वह तरीका है जो किसी व्यक्ति को पुनर्जन्म से मुक्ति पाने में सहायक होता है। बुद्ध उस समय प्रचलित सभी दर्शनों और धर्मों में दिए गए उत्तरों से संतुष्ट नहीं थे, इसलिए उन्होंने विचार किया, तपस्या की और सत्य के बोध को हासिल करने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनाएं कीं।

बुद्धकालीन भारत में एक निरंकुश व्यवस्था की स्थापना के लिए एक सशक्त आंदोलन चल रहा था। वहाँ कई प्रकार के साम्राज्य थे जहाँ के व्यापारी धनाढ्य होते जा रहे थे और सम्पत्ति जुटाने की दृष्टि से शासक राजाओं के साथ मुकाबला कर रहे थे। प्रतिक्रियास्वरूप शासक भी और अधिक निरंकुश हो गए थे। भारत के कुछ इलाकों में छोटे-छोटे गणतंत्रों में सामान्य जनता को आधार मानते हुए गैर-पदानुक्रमिक दर्शन पद्धति स्थापित होने लगी थी। चूँकि बुद्ध का जन्म एक ऐसे ही गणतंत्र में (या उसके नज़दीक) हुआ था, इसलिए वे इस व्यवस्था से प्रभावित हुए और उन्होंने अपने एक मठीय संगठन की स्थापना की जिसमें निर्णय संघ के सभी सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से लिए जाते थे।

इसके अलावा, उस समय एक और जन आन्दोलन चल रहा था जो पुराने वैदिक धर्मऔर उसके कर्मकांड और पंडित-पुरोहितों आदि का विरोध करता था। वैदिक धर्म एक ऐसा धर्म था जिसका पालन गणतंत्रों और एकतंत्रीय शासन व्यवस्थाओं सहित सभी प्रकार के राज्यों में किया जाता था। ये प्रतिक्रियावादी “श्रमण”, या घुमक्कड़ सन्यासी या समाजको छोड़कर आए हुए लोग थे वनों में भटकने, तपस्या करने और अपने आध्यात्मिक विकास के लिए समाज का त्याग कर देते थे। इस प्रकार के आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करने वालों में केवल बुद्ध ही नहीं बल्कि दूसरे सम्प्रदाय और उनके अनुयायी भी शामिल थे। यदि कोई व्यक्ति किसी आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है तो सत्य की खोज करने की दृष्टि से स्वतंत्र होने के लिए व्यक्ति का कम से कम कुछ समय के लिए समाज से दूर हो जाना आवश्यक होता है। जब हमें लगे कि हमने सत्य को खोज लिया है तो फिर उसे किसी वर्गीकृत व्यवस्था में और स्वेच्छाचारी ढंग से दूसरों पर थोपने के बजाए एक अधिक “लोकतांत्रिक” ढंग से उसे दूसरों के सामने उद्घाटित करना चाहिए।

जीवनियों का प्रयोजन और प्रामाणिकता

भारतीय या तिब्बती बौद्ध धर्म के संदर्भ में जीवनियों का उपयोग केवल तथ्यों को प्रस्तुत करने के बजाए किसी महान व्यक्ति की जीवन गाथा की कुछ बातों के बारे में शिक्षा देने और उनके उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है। इस संदर्भ में किसी महान धार्मिक चरित्र का जीवन दूसरों को प्रेरणा प्रदान करता है, और इसलिए पाश्चात्य जगत की दृष्टि से उस कथा के कुछ हिस्से बहुत काल्पनिक लग सकते हैं। उदाहरण के लिए बुद्ध की जीवनी के अनुसार उनकी माता ने स्वप्न में छह दाँतों वाले एक सफेद हाथी को देखा था, या बुद्ध का जन्म उनकी माता के पार्श्व से हुआ था और उन्होंने सात डग भर कर कहा था “मैं आ गया” आदि। भारतीय/ तिब्बती दृष्टि से यह महत्वपूर्ण नहीं है कि यह कथा ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी तरह सटीक है या नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कथा क्या दर्शाती है या अपने श्रोताओं या पाठकों को क्या शिक्षा देती है। प्रासंगिक बात यह है कि क्या हम ऐतिहासिक दृष्टि से यह मालूम करने के लिए बुद्ध के जीवन की घटनाओं को जोड़कर देखना चाहते हैं कि बुद्ध ने वास्तव में क्या-क्या किया, या यह समझना चाहते हैं कि उनके अनुयायियों के बीच क्या घटित हुआ। या फिर, क्या हम कथा को इस दृष्टि से देखना चाहते हैं कि कोई भारतीय या तिब्बती व्यक्ति उस कथा को किस नजरिए से पढ़ेगा। प्रत्येक संदर्भ में बुद्ध का जीवन चरित्र हमें कुछ न कुछ सिखाता है और उसका कोई एक पक्ष किसी दूसरे पक्ष से अधिक प्रामाणिक नहीं है। बौद्ध चिंतन किस प्रकार से काम करता है इसे समझने का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि हम चीज़ों को अलग-अलग दृष्टिकोणों से अलग-अलग स्तरों पर समझें, और यह जानें कि उनमें से बहुत से दृष्टिकोण पूरी तरह मान्य हो सकते हैं; वास्तविक यथार्थ का एक सत्य होता है।

बौद्ध साहित्य में किसी तरल पदार्थ का उदाहरण बार-बार दिया जाता है। मनुष्यों को यह तरल पानी जैसा लगता है; भूख प्रेतों को यह मवाद जैसा लगता है; नरक के जीवों को यह अम्ल जैसा प्रतीत होता है; देवताओं को यह अमृत जैसा लगता है। इनमें से कौन सा दृष्टिकोण सही है? बौद्ध मत के अनुसार ये सभी सही हैं क्योंकि किसी चीज़ की विधिमान्यता किसी विशेष संदर्भ के सापेक्ष होती है।

पारिवारिक मनश्चिकित्सा की एक शाखा में इसका एक और उदाहरण मिलता है जिसे संदर्भगत रोगोपचार कहा जाता है जहाँ किसी परिवार में प्रत्येक सदस्य को किसी विशेष परिस्थिति के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। पिता उस परिस्थिति को किसी एक नज़रिए से बताता है, माता एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है और परिवार का प्रत्येक बालक अपने-अपने ढंग से परिस्थिति का बखान करता है। इनमें से प्रत्येक विवरण सही है और प्रत्येक को समान रूप से महत्व दिया जाता है क्योंकि परिवार के सभी सदस्य उस परिस्थिति को अपने-अपने ढंग से अनुभव करते हैं। विचार करने का यह एक बहुत ही बौद्ध तरीका है और इसे बुद्ध के जीवन चरित्र के मामले में लागू किया जा सकता है। यदि हमें उनके जीवन की गाथा अनेकानेक रूपों में पढ़ने के लिए मिलती है, तो उनमें से प्रत्येक में दिया गया विवरण सही है और हमें कुछ न कुछ शिक्षा देता है।

बुद्ध के जीवन के प्रमुख तथ्य और हमारी साधना में उनकी प्रासंगिकता

बुद्ध का जन्म एक विशेषाधिकार प्राप्त और सम्पन्न परिवार में हुआ था (इस बात को लेकर विवाद हो सकता है कि वे राजकुमार थे या नहीं), और इसलिए उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ-साथ आमोद-प्रमोद के बहुत से साधन और सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं। उनका विवाह हुआ और उनका एक पुत्र हुआ। जीविका की दृष्टि से उन्हें एक गणतंत्र के मुखिया के रूप में अपने पिता का स्थान लेने प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन श्रमण आन्दोलन के अनुयायी के रूप में बुद्ध ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। यहाँ इस बात को बल देकर कहना आवश्यक है कि बुद्ध ने अपनी पत्नी और बच्चों का त्याग इसलिए नहीं कर दिया था क्योंकि वे गैर-जिम्मेदार थे। भारतीय समाज में दादा-दादी और दूसरे सदस्यों वाले विस्तृत परिवारों में पत्नियों और बच्चों की देखरेख हो जाती है। इसके अलावा बुद्ध का जन्म एक क्षत्रिय जाति में हुआ था, यह एक ऐसी जाति थी जहाँ के पुरुष युद्ध लड़ने के लिए घर-परिवार को छोड़ कर चले जाते थे। बुद्ध ने भी अपना एक अलग युद्ध लड़ा, अज्ञान और अशांतकारी मनोभावों के खिलाफ एक आन्तरिक युद्ध।

अपने पारिवारिक जीवन का त्याग कर देने का बुद्ध का निर्णय हमें यह शिक्षा देता है कि सत्य की खोज करना, यानी पुनर्जन्म या मानसिक और भावनात्मक दुख की दृष्टि से दुख का अन्त करना जीवन में ऊँचा पद, सत्ता और धन पाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। स्वयं के लिए सत्ता और धन प्राप्ति के साधन खोजने के बजाए क्रोध, लोभ, स्वार्थपरायणता, आदि जैसी निजी सार्वभौमिक समस्याओं या सामाजिक समस्याओं के समाधान खोजने की विधियों का पता लगाना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। बुद्ध के जीवन से हमें यही शिक्षा मिलती है।

परम पावन दलाई लामा कहते हैं कि सौ प्रतिशत आध्यात्मिक जीवन अपना पाना हर किसी के बूते की बात नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि आपका अपना जीवन और आपके आसपास के लोगों का जीवन कितना अच्छा है। बुद्ध रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु, और उन भटकने वाले लोगों के दुखों को देखकर एक रथ में सवार होकर महल से निकल पड़े थे (भगवत गीता से लिया गया एक उदाहरण) जो उन्हें महल में दिखाई नहीं देते थे, और उन्होंने एक आध्यात्मिक जीवन को अपना लिया था।

बुद्ध के जीवन के इन प्रतीकों को कार्ल युंग के उस सिद्धांत पर लागू किया जा सकता है जहाँ वे धन-सम्पत्ति और भौतिक सुखों में इतने लिप्त हो जाते हैं कि उन्हें दुनिया के दुख दिखाई ही नहीं देते हैं। जब वे अपना रथ लेकर महल से बाहर निकलते हैं, जोकि उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत है, तभी उन्हें दुख का साक्षात्कार होता है और दूसरों के सभी प्रकार के दुखों से उनका परिचय होता है।

बुद्ध के जीवन की कथा और बौद्ध शिक्षाओं का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि साधना की अतिशयता नहीं करनी चाहिए। महल का त्याग करने के बाद बुद्ध ने बहुत गहन साधना की और अत्यधिक कठोर तपस्या की जिसके कारण वे भूख-प्यास से मृत्यु के सन्निकट पहुँच गए। एक वृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए उन्हें यह बोध हुआ कि ये साधनाएं बहुत उपयोगी नहीं हैं और उन्होंने एक ग्वालिन से दही स्वीकार करके अपना व्रत तोड़ दिया। भारतीय दर्शन में गाय (उसका दूध, दही) मातातुल्य प्रेम और करुणा का प्रतीक है, इसीलिए प्रतीक रूप में बुद्ध को गाय का दही समर्पित किया गया ताकि हम यह शिक्षा ग्रहण कर सकें कि करुणा ही हमें आत्मदमन की प्रवृत्ति से जागृत करती है ताकि हम सही मार्ग तलाश कर सकें, एक ऐसा मार्ग दो सभी जीवों की दुख से मुक्ति का मार्ग हो।

ज्ञानोदय की प्राप्ति से ठीक पहले जब बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे (भारतीय दर्शन में धार्मिक वृक्षों का उल्लेख प्रायः किया जाता है) तभी मार उनके समक्ष प्रकट हुआ। मार संस्कृत भाषा में मृत्यु के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द है जो बाधाओं, रुकावटों और प्रलोभनों आदि को दर्शाता है। इस घटना से हमें यह पता चलता है कि ज्ञानोदय प्राप्त करने से ठीक पहले तक बुद्ध को भी किसी सकारात्मक सिद्धि को हासिल करने में रुकावटों और बाधाओं का सामना करना पड़ा था।

ज्ञानोदय प्राप्त करने से ठीक पहले तक बुद्ध बहुत अधिक आध्यात्मिक प्रगति कर चुके थे; ऐसा नहीं है कि वे एकदम नौसिखिए से सीधे ही प्रबुद्ध सत्व बन गए। उनकी साधना के अन्तिम चरण में और भी बड़ी-बड़ी बाधाएं और अड़चनें उत्पन्न हुईं, और जिस प्रकार बुद्ध को अपने उद्देश्य को हासिल करने में बाधाओं का सामना करना पड़ा, उसी प्रकार हमें भी करना पड़ता है। दरअसल, हम किसी जितने अधिक सकारात्मक कार्य को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, उसके मार्ग में उतनी ही अधिक बड़ी बाधाएं उत्पन्न होती हैं। इसलिए, हमें इससे यह शिक्षा मिलती है कि हमें हतोत्साहित नहीं होना चाहिए, बल्कि किसी योद्धा की भांति पूरी शक्ति से बाधाओं का मुकाबला करना चाहिए। यह बात उस विचार से मेल खाती है कि बुद्ध क्षत्रिय जाति में जन्मे थे क्योंकि यह उनका युद्ध वास्तव में हमारे भ्रम, भय आदि के विरुद्ध एक आन्तरिक युद्ध ही तो है।

जब बुद्ध ने ज्ञानोदय प्राप्त कर लिया तब भी उनके मन में दुविधा थी कि वे उपदेश दें या न दें और उनके मन में यह संदेह था कि दुनिया में उनके उपदेश को कौन समझेगा। लेकिन चूँकि उनसे उपदेश देने के लिए आग्रह किया गया था इसलिए उन्होंने सोचा कि वे फिर भी प्रयास करके देखेंगे। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि भले ही दूसरों को उपदेश देना या शिक्षाओं के बारे में बताना अत्यधिक कठिन हो, तब भी हमें करुणावश ऐसा करना चाहिए, फिर भले ही ऐसा करने में कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न हों।

जब बुद्ध ने दूसरों को उपदेश दिए तो बहुत से लोगों ने बुद्ध का अनुयायी बनने की इच्छा व्यक्त की, और इस कारण से मठ-व्यवस्था का जन्म हुआ। शुरुआत में मठों के कोई नियम नहीं थे। लेकिन चूँकि मठवासी समाज में रहते थे, इसलिए अनुशासन के विभिन्न नियम बनाए गए जिन्हें “विनय” कहा जाता है ताकि किसी समुदाय और समाज में रहने सम्बंधी समस्याओं से बचा जा सके। ये नियम इस प्रकार नहीं बने थे कि किसी ने इन्हें थोपा था, बल्कि जैसे-जैसे समस्याएं उत्पन्न होती गईं, नियम बनते गए। उदाहरण के लिए, इस समस्या से बचने के लिए कि भोजन के लिए भिक्षाटन करते समय (उस समय श्रमणों की ऐसा करने की परम्परा थी) लोग भिक्षुओं को लोभी न समझें, यह नियम बनाया गया कि वे भोजन की मांग नहीं कर सकेंगे; उन्हें बस वही स्वीकार करना होगा जो उन्हें दिया गया हो; वे भोजन का संचय नहीं कर सकते थे; वे अधिक भोजन की मांग नहीं कर सकते थे, आदि। ये नियम यह सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे कि समाज मठवासियों को अस्वीकार न कर दे, और ये नियम हमारे लिए आज भी मान्य हैं।

शुरुआत में बुद्ध भिक्षुणियों को मठ-व्यवस्था में शामिल करने को लेकर सशंकित थे क्योंकि उन्हें इस बात की चिंता थी कि समाज के लोग ऐसा सोचेंगे कि वन में एक साथ रहते हुए महिलाएं और पुरुष अनुचित व्यवहार करेंगे। लेकिन जब बाद में उन्होंने महिलाओं को इस व्यवस्था में शामिल किया तो उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए अत्यधिक कठोर और स्पष्ट नियम बनाए ताकि समाज की उनके बारे में गलत राय न बने, जैसे किसी भिक्षु और भिक्षुणी को एकांत में एक साथ रहने की अनुमति नहीं थी, एक सहचरी भिक्षुणी का ऐसे अवसर पर हमेशा उपस्थित रहना अनिवार्य था, और उन्हें एक ही आसन या शैया पर साथ-साथ बैठने की अनुमति नहीं थी। इन नियमों से यह शिक्षा मिलती है कि जहाँ एक ओर बुद्ध ने सत्य की खोज के लिए समाज के समस्त वैभवों को त्याग दिया था, वहीं दूसरी ओर वे नहीं चाहते थे कि समाज में गलत छवि बने। भले ही आप समाज की मान्यताओं की दृष्टि से उसके सभी सिद्धांतों से सहमत न हों, तब भी आप अपने आप को समाज से अलग-थलग नहीं करना चाहते हैं। यह बात आजकल के उन राजनीतिज्ञों पर लागू होती है जिन्हें थोड़ी व्यवहार-कुशलता सीखने की आवश्यकता है, यह समझने की आवश्यकता है कि भले ही वे समाज की मान्यताओं से सहमत न हों फिर भी उन्हें किसी को आहत करने या अनावश्यक संदेह उत्पन्न होने देने से बचना चाहिए।

बुद्ध का देवदत्त नाम का एक चचेरा भाई था जो बुद्ध को बहुत नापसंद करता था और हमेशा उनके लिए परेशानियाँ खड़ी किया करता था। दरअसल, यदि आप पालि ग्रंथों में तलाश करें तो पाएंगे कि और भी बहुत से ऐसे लोग थे जो उन्हें नापसंद करते थे और उनके लिए परेशानियाँ खड़ी करते थे। इससे हमें एक महत्वपूर्ण सबक मिलता है कि लोग बुद्ध को भी नापसंद करते थे और बुद्ध स्वयं भी सभी को प्रसन्न नहीं कर पाए, तो फिर हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? इसलिए हमें व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और यदि लोग हमारे प्रति द्वेष का भाव रखें या यदि हम सभी को प्रसन्न न कर पाएं तो हमें निराश नहीं हो जाना चाहिए।

बुद्ध के जीवन की कथाओं में जहाँ बुद्ध की मृत्यु का उल्लेख आता है, आनंद (बुद्ध के एक प्रमुख शिष्य) को बुद्ध से यह अनुरोध करने का अवसर था कि वे मृत्युगति को प्राप्त न हों, लेकिन उन्होंने ऐसा अनुरोध नहीं किया और इस प्रकार बुद्ध के जीवन का अंत हुआ। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि बुद्ध केवल तभी उपदेश देते हैं जब उनसे ऐसा करने के लिए अनुरोध किया जाता है और बुद्ध केवल तभी ठहरते हैं जब उनसे ठहरने के लिए आग्रह किया जाता है। यदि कोई उनसे ठहरने के लिए न कहे तो वे प्रस्थान कर जाते हैं। हम इसे अपने ऊपर इस प्रकार से लागू कर सकते हैं कि यदि लोग हमसे सहायता लेना न चाहते हों या यदि उन्हें हमारी आवश्यकता न हो, तो हमें अपने आपको उनके ऊपर थोपना नहीं चाहिए। ऐसे बहुत से दूसरे लोग मिल सकते हैं जो हमारी सहायता को स्वीकार करने के लिए इच्छुक हों और चाहते हों कि हम उनकी सहायता करें।

निष्कर्ष

बुद्ध के जीवन को हम कई दृष्टिकोणों से देख-समझ सकते हैं। हम उनसे जुड़े सभी ऐतिहासिक तथ्यों का पता लगाने का प्रयास कर सकते हैं जो हालाँकि इतिहास के बारे में पश्चिम जगत के दृष्टिकोण के संदर्भ में मान्य हो सकते हैं, लेकिन उनसे हमें उनके जीवन की घटनाओं से जुड़ी ठीक-ठीक तारीखों या वर्षों के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिल सकेगी। या हम इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि हम बुद्ध के जीवन की कथा में मिलने वाले प्रतीकों से क्या शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, जैसे प्रश्न पूछने सम्बंधी युंग के विश्लेषण में प्रश्न पूछा जाता है: यह क्या दर्शाता है? यह किस बात का प्रतीक है?

हम बुद्ध के जीवन को महायान के व्यापक संदर्भ में भी देख सकते हैं जिसमें बुद्ध को इस प्रकार दर्शाया गया है कि उन्हें कई युग पहले ही ज्ञानोदय प्राप्त हो गया था और उन्होंने हमें महायान की सार्वभौमिकता के मूल विषय और कई जन्मों तक दूसरों की भलाई करने की शिक्षा दी। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम वर्तमान समय में जो कुछ कर रहे हैं वह हमसे पहले की सभी पीढ़ियों द्वारा किए गए कार्यों का परिणाम है, और यदि हम कोई सकारात्मक कार्य करने का प्रयास कर रहे हैं तो हमें भविष्य की पीढ़ियों के बारे में विचार करते हुए आचरण करना चाहिए।

तंत्र की प्रस्तुति में बुद्ध किसी एक स्थान पर गहन दर्शन की शिक्षा दे रहे होते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर वे चार मुखाकृतियों के साथ प्रकट होते हैं, जिनमें से सभी मुखाकृतियाँ एक ही समय पर अलग-अलग चीज़ों के बारे में शिक्षा दे रही होती है। यह दर्शाता है कि हमें इतिहास में बुद्ध की शिक्षाओं के जो विविध पहलू मिलते हैं वे सभी एक ही स्रोत या मूल विचार से उद्भूत हैं और उन्हें अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है।

चाहे हम थेरवादी प्रस्तुति की बात करें, महायान सूत्र की प्रस्तुति को देखें या महायान की तांत्रिक प्रस्तुति को देखें, हम पाते हैं कि बुद्ध की विभिन्न प्रकार की सभी शिक्षाओं में कुछ मूलभूत सिद्धांत मौजूद होते हैं। इन सभी प्रस्तुतियों में कुछ बुनियादी सिद्धांत हं जिन्हें बुद्ध की आकृतियों की विभिन्न भुजाओं, पैरों और मुखाकृतियों की संख्या के आधार पर दर्शाया जाता है। बुद्ध की बुनियादी शिक्षाएं चार आर्य सत्यों के रूप में थीं जो उनकी चार मुखाकृतियों को दर्शाते हैं। बुद्ध के जीवन की इस प्रस्तुति को लिखित तथ्यों के रूप में नहीं प्रस्तुत किया गया है, बल्कि यह पता लगाने की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है कि प्रत्येक प्रस्तुति की क्या उपयोगिता है और उसका क्या प्रयोजन है? इस प्रकार का अन्वेषण करके हम इन प्रस्तुतियों में दी गई सामग्री या जानकारी को गहराई से समझ पाते हैं।

सारांश

बुद्ध के जीवन की कथा की तीन अलग-अलग प्रस्तुतियाँ हैं: थेरवादी प्रस्तुति, और महायान सूत्र तथा तांत्रिक प्रस्तुतियाँ। इस बात को लेकर वाद-विवाद होता है कि क्या ये प्रस्तुतियाँ परस्पर विरोधी हैं, लेकिन तर्क की सहायता से हम सिद्ध कर सकते हैं कि इनमें से प्रत्येक प्रत्येक प्रस्तुति की शिक्षा एक अलग संदर्भ में दी गई है। इन भिन्नमत प्रस्तुतियों का उद्देश्य हमें प्रेरणा और शिक्षा प्रदान करना है। यदि हम बुद्ध के जीवन की गाथा को देखें तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपना जीवन एक ऐसे समाज में बिताया जिसकी दुख से मुक्ति पाने के तरीकों के बारे में अपनी कुछ मान्यताएं थीं। बुद्ध उस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे और इसलिए उन्होंने गैर-पदानुक्रमिक व्यवस्था में सत्य का ज्ञान दिए जाने के लिए कोशिश की। अपने घर-परिवार के सुख-आराम को त्याग कर वे दुखों के अपने आंतरिक युद्ध को लड़ने के लिए निकल पड़े थे। इस युद्ध में उन्होंने विजय कड़ी तपस्या से हासिल नहीं की बल्कि समस्त जीवों के दुखों के प्रति करुणा भाव से प्राप्त की थी। बुद्ध ने बड़ी भीषण बाधाओं का सामना किया लेकिन वे इन बाधाओं से डिगे नहीं और एक बार ज्ञानोदय प्राप्त कर लेने के बाद उन्होंने करुणावश उपदेश देने के अनुरोध को स्वीकार किया। बुद्ध के अनुयायियों में शामिल भिक्षुओं और भिक्षुणियों दोनों के लिए मठ-व्यवस्था स्थापित की गई जिसके लिए समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नियम तय किए गए थे।

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