“चित्त साधना के आठ छंदों” की व्याख्या – गेशे ङ्गावाँग धारग्येय

पृष्ठभूमि

यह ग्रंथ गेशे लांग्री तांगपा (लांगतांगपा) द्वारा आठ छंदों में रचा गया था। इस शिक्षण का श्रेय कदम आचार्यों को दिया जा सकता है। मंजुश्री के अवतार गेशे पोटोवा ने इसे गेशे शरावा को दिया और फिर गेशे लांग्री तांगपा को। इन दोनों को कदम शिष्यों का सूर्य और चंद्रमा कहा जाता है।

शिष्यों में विश्वास बढ़ाने और शिक्षण के प्रामाणिक स्रोत को स्थापित करने के लिए ग्रंथकार की एक संक्षिप्त जीवनी प्रस्तुत करना पारंपरिक है, परन्तु यहाँ पूरी कहानी बताने का समय नहीं है।

जिन्होंने इस शिक्षण की खोज की, वे चित्त साधना के सात बिंदु  के लेखक गेशे चेकावा थे। एक अन्य कदम्पा गेशे से भेंट करते समय उन्होंने एक छोटी पुस्तिका में यह पंक्ति देखी कि, "दूसरों को अपने गुण दो और उनके दोष अपने ऊपर लो।" इस पंक्ति को देखते ही सहसा उन्हें इन पतित परिस्थितियों में इसकी उपयोगिता का एहसास हुआ। उन्होंने जब इसके स्रोत के बारे में जानना चाहा तो इसके जनक गेशे लांगतांगपा से पेनबो ज़िले में जाकर मिलने का परामर्श मिला। जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्हें पता चला कि गेशे लांगतांगपा का निधन हो चुका था। अतः उनके मुख से इसे सुनने का सुअवसर गेशे चेकावा को प्राप्त नहीं हुआ। वहाँ के मठ की दशा से असंतुष्ट होकर वे दूसरी जगह चले गए।

फिर वे एक मठ में गए जहाँ गेशे शरावा हीनयान ग्रन्थ श्रावकभूमि - श्रावक (श्रोता) चित्त की अवस्थाएँ - पर प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन उन्हें विशेष रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। उन्हें आशा थी कि उन्हें महायान के वचन सुनने को मिलेंगे परन्तु उन्हें निराश होना पड़ा। प्रवचन के बाद, गेशे शरावा मठ की परिक्रमा करने लगे तो चेकावा उनसे मिलने गए। वे अपनी मठीय गद्दी का ख़ोल अपने साथ ले गए थे जिसे उन्होंने एक मंच पर रख दिया, और उन्हें रुककर शिक्षा देने को कहा। शरावा ने कहा, "मैंने प्रवचन में अपने शिष्यों की शंकाओं का समाधान अपने आसन से ही कर दिया था। मुझे ऐसे विचित्र स्थान पर क्यों रोका?" तो चेकावा ने उस शिक्षा के बारे में बताया जिससे वे इतने प्रभावित हुए थे और उसके बारे में और अधिक सुनने की विनती की। शरावा ने अपना मंत्र पढ़ना बंद कर दिया, अपनी जपमाला को अपनी कलाई पर लपेट लिया, और कहा, "आप इस शिक्षा से प्रभावित हों या न हों, ज्ञानोदय प्राप्ति का यही एकमात्र मार्ग है।" चेकावा ने पूछा, "आपने अपने पूर्व प्रवचन में महायान के वचनों का प्रयोग क्यों नहीं किया?" शरावा ने कहा, "जो लोग मेरे वचनों को व्यवहार में नहीं लाएँगे, उनपर अपने शब्दों का अपव्यय करने से क्या लाभ?"

यद्यपि चेकावा उस साक्षात्कार से प्रभावित हुए परन्तु उन्होंने इस शिक्षा के स्रोतों के बारे में और जानकारी माँगी। वे इसकी व्युत्पत्ति जानना चाहते थे। शरावा ने कहा, “महायान के सभी अनुयायी नागार्जुन को उनकी परम्परा के पथ प्रणेता मानते हैं। वे सब उन्हें स्वीकार करते हैं। यह शिक्षण रत्नावली (बहुमूल्य माला) के अंतिम छंद 'पराजय को अपनेआप पर ले लो और दूसरों को विजय दे दो' पर आधारित है। तब चेकावा ने साष्टांग प्रणाम किया और कहा, "कृपया मुझे उसपर शिक्षा दें।" शरावा राज़ी हो गए। जब चेकावा घर पहुँचे तो उन्होंने रत्नावली  को पढ़ा और इस छंद को वैसे ही पाया जैसा कि शरावा ने कहा था। चेकावा ने शरावा के साथ चौदह साल बिताए और एक महान बोधिसत्व बन गए जो सदा श्मशानों में ध्यान लगाते थे - अर्थात वह स्थान जहाँ लोग शवों को, अंतिम  संस्कार के रूप में, काटकर गिद्धों को खिलाते हैं।

अष्टछंद

मनोदृष्टि-साधना (लोजोंह, चित्त-साधना) इसलिए सहायक है क्योंकि यह हमें अपनेआप को सुधारने के लिए प्रोत्साहित करती है। अतीश ने मनोदृष्टि-साधना की प्रशंसा करते हुए कहा, "मनोदृष्टि-साधना का पालन करने और सभी परंपराओं के प्रति सम्मान की भावना रखने, पंथ निरपेक्ष होने, सभी परंपराओं की अच्छी बातों को आत्मसात करने - अपनेआप को सुधारने की यही प्रक्रिया है।" यदि हम ज्ञानोदय प्राप्ति चाहते हैं तो हमें अभ्यास के इन आठों बिंदुओं को जानना होगा, अन्यथा हम भटक जाएँगे।

ग्रन्थ में इस प्रकार कहा गया है:

(1) ऐसा हो कि सर्वोच्च लक्ष्य को साकार करने के लिए मैं सभी सीमित सत्त्वों को यह समझकर उनका मोल समझूँ कि वे इष्ट-पूरक रत्नों से कितने अधिक श्रेष्ठ हैं।

इष्ट-पूरक रत्न वर्तमान जन्म की कामनाओं की ही पूर्ति कर सकते हैं, परन्तु सीमित सत्त्वों (सचेतन सत्त्वों) से प्रेम करने से वर्तमान तथा भावी जीवनकालों में भी लाभ की प्राप्ति होती है। अन्य सभी सीमित सत्त्वों से प्रेम करके हम अपने और दूसरों के लिए परमार्थ, अर्थात ज्ञानोदय, को प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं।

आपकी अपनी ज्ञानोदय प्राप्ति दो बातों पर आधारित है - सीमित सत्त्वों की कृपा तथा गुरुओं की कृपा। ये दोनों बराबर हैं। एक गुरु ने कहा है, “लोगों की मनोदृष्टि अत्यंत नकारात्मक होती है। वे सीमित सत्त्वों की उपेक्षा करते हैं और गुरुओं पर अत्यधिक ध्यान देते हैं, परन्तु दोनों की कृपा एक बराबर होती है। गेशे चेंनगवा ने कहा, "धार्मिक लोगों की हैसियत से हमें सामान्य लोगों से विपरीत व्यवहार करने की आवश्यकता है जो बड़े लोगों का आदर करते हैं और छोटे लोगों की उपेक्षा। इसलिए हमें सीमित सत्त्वों को बुद्धजन से अधिक प्रेम करने की आवश्यकता है।"

(2) ऐसा हो कि जब भी मैं किसी के संपर्क में आऊँ, तो मैं अपनेआप को औरों से कमतर समझूँ और हार्दिक रूप से दूसरों को अपने से अधिक महत्त्व दूँ।

यदि हमारे पास इस प्रकार की मनोदृष्टि है तो हम स्वयं ही दूसरों का अनादर करना और उन्हें हेय समझना बंद कर देंगे। हम जिनसे भी मिलते हैं उनके सद्गुणों का स्मरण करके उनके प्रति सकारात्मक मनोदृष्टि उत्पन्न कर सकते हैं। कदम गुरु इन शिक्षाओं को व्यवहार में लाते हैं: 

द्रोम (द्रोमतोनपा) ने एक बार एक मठ की यात्रा की जहाँ लोग उनके लिए एक भव्य स्वागत समारोह आयोजित कर रहे थे। रास्ते में उन्होंने पूजा से लौट रहे एक व्यक्ति को देखा जो इतना थका हुआ था कि वह अपने जूते भी नहीं उठा पा रहा था। वह व्यक्ति द्रोम को पहचान नहीं पाया क्योंकि उन्होंने बहुत ही साधारण कपड़े पहने हुए थे, और इसलिए उसने द्रोम से उसके जूतों को लेकर चलने के लिए कहा। द्रोम ने "अवश्य" कहकर दोनों हाथों में जूते ले लिए और उन्हें अपने कंधों पर रख लिया। मठ में द्रोम का स्वागत एक विशाल शोभायात्रा के साथ हुआ। वह व्यक्ति जिसने द्रोम से उसके जूते ढोने के लिए कहा था, इतना लज्जित हुआ कि वहाँ से भाग गया।

एक बार एक व्यक्ति था जो हमेशा धर्म की बात करता था। जब द्रोम वहाँ से गुज़र रहे थे तो उस व्यक्ति ने पुकारा, "अरे ओ! मुझे प्रणाम करो और मैं तुम्हें सिखाऊँगा।" द्रोम ने वैसा ही किया और उसकी क्षुद्र धर्म चर्चा सुनी। द्रोम विनम्रता के साथ प्रश्न पूछते रहे और अंततः द्रोम उस व्यक्ति से अधिक बोल गए। उसे संदेह हुआ और उसने कहा, "शायद तुम द्रोम हो।" द्रोम ने कहा, "लोग तो मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।"

हम सभी इस बात से चिंतित हैं कि दूसरे लोग हमारे गुणों को नहीं जानते। हम पहले तो अपने शैक्षिक अभिलेख एवं कार्य अनुभव भांजते हैं, फिर विषय पर बात करते हैं। परन्तु द्रोम कभी आडम्बर नहीं करते थे। उनके पास सिद्ध सम्पदा थी परन्तु बाहर से वे अत्यंत साधारण दिखते थे। द्रोम ने इस उक्ति का पालन किया था: “निम्न पद सुख की नगरी है; उच्च पद दुःख की।"

(3) ऐसा हो कि मैं चाहे जो कुछ भी करूँ, अपने चित्त प्रवाह को नियंत्रित कर पाऊँ, और जिस क्षण अवधारणाएँ या अशांतकारी मनोभाव उत्पन्न हों, क्योंकि वे मुझे और दूसरों को दुर्बल कर देते हैं, मैं उनका सामना कर पाऊँ और उन्हें बलपूर्वक दूर कर पाऊँ।

आप चाहे कुछ भी कर रहे हों - बैठे हों, चल रहे हों, या सो रहे हों - अपनी जाँच करते रहें। हमेशा दूसरों की जाँच करने का प्रयास न करें। अपनी जाँच करें। एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति का काम होता है अपनेआप को परखना, न कि दूसरों को। परन्तु हम दूसरों के पेशेवर जासूस जो ठहरे। हम हमेशा दूसरों में दोष देखते रहते हैं। अपनी भ्रांतियों को कभी नहीं देखते। यह ऐसा है मानों हमारे पास, अपने बजाय, दूसरों को प्रकाशित करने वाली टॉर्च है। आठवें दलाई लामा ने कहा, "हम दूसरों के दोषों को ढूँढ़ने के लिए इतना कुछ करते हैं और अपनी कमियों पर इतना कम ध्यान देते हैं कि दूसरों को ऊँचा स्थान देने की हमारी संभावना तो न के बराबर हो जाती है।" मान लीजिए हमारे पड़ोसी लड़ रहे हैं और हम कुछ न करके केवल मूक साक्षी बने रहते हैं और बाद में दूसरों से इसके बारे में बातें करते फिरते हैं, तो हम किसी की क्या सहायता कर पाएँगे। अब समय आ गया है कि टॉर्च अपने ऊपर डालें और अपने दोषों को देखना आरम्भ कर दें।

जब हमारे मन में अशांतकारी मनोभाव उत्पन्न होते हैं तो धर्म की आवश्यकता होती है। यह उनका विलोम है। यदि हम अशांतकारी मनोभावों के उठने पर धर्म का उपयोग नहीं करते, तो फिर कब करेंगे? गुंगतांग रिन्पोचे ने कहा, "आपको केवल दिखावटी धार्मिक नहीं बनना है, उस व्यक्ति की तरह जो तब तक धार्मिक रहता है जब तक उसका पेट भरा रहता है, परन्तु विपरीत परिस्थितियों में सामान्य व्यक्ति से भी निकृष्टतर व्यवहार करता है।"

(4) ऐसा हो कि जब भी मैं सत्त्वों को सहज रूप से क्रूर, नकारात्मकता और गंभीर समस्याओं से ग्रस्त देखूँ, तो मैं उन्हें ठीक उसी प्रकार संजो पाऊँ जिस प्रकार किसी के हाथ लगी दुष्प्राप्य रत्नों की खान को।

किसी की सहायता करने का सुयोग अतिदुर्लभ होता है, इसलिए हमें इस अवसर से हाथ खींच नहीं लेना चाहिए, अपितु उसे निधि की तरह संजोकर रखना चाहिए। दान एवं क्षान्ति के आलम्बनों को शरणागति के आलम्बनों की भाँति मानना चाहिए।

(5) ऐसा हो कि जब दूसरे लोग, ईर्ष्या के कारण, मेरे साथ डाँटना, अपमानित करना जैसे भाँति-भाँति के दुर्व्यवहार करें, तो मैं उससे जनित हानि को अपने ऊपर ले पाऊँ और उसकी जीत दूसरों को अर्पित कर पाऊँ।

क्षान्ति के आलम्बन दान के आलम्बनों से अधिक दुर्लभ होते हैं। संसार में बहुत सारे भिखारी हैं; परन्तु कोई आपके साथ दुर्व्यवहार करे ताकि आप क्षान्ति का आलम्बन बन पाएँ, इसके लिए पहले आपको उसके साथ दुर्व्यवहार करना होगा। इसलिए जब कोई स्वेच्छा से क्षान्ति का आलम्बन बनना चाहता है, तो उसके साथ क्षमाशील होने का अवसर न खोएँ। जैसा कि शांतिदेव ने बोधिसत्त्वचर्यावतार  में परामर्श दिया:

(VI.106) इस जीवन में भीख माँगने वाले असंख्य हैं, परन्तु (मुझे) हानि पहुँचाने वाले कम होते हैं, क्योंकि कोई भी मुझे हानि नहीं पहुँचाएगा यदि मैंने उन्हें इसी प्रकार (पिछले जन्मों में) हानि न पहुँचाई हो। 
(VI.107) इसलिए, मैं ऐसे शत्रु से आनंदित होऊँगा जो मेरे घर में एक निधि की तरह आ गया है, जिसे बिना परिश्रम के अर्जित कर पाया हूँ, क्योंकि वह बोधिसत्त्व व्यवहार के लिए मेरा सहयोगी बन जाता है।

इस प्रकार आलोचना प्राप्त होते हुए अधीर न हों। यह हमारी अपने ही दोषों को देखने में सहायता करता है। यदि हमेशा हमारी प्रशंसा होती रहे तो हमारे दोष छिपे रह जाते हैं और, परिणामस्वरूप, हमारा अहंकार बढ़ सकता है। आलोचना आपको अपनी भूल के बारे में सोचने पर विवश करती है, और तब आप भूल-सुधार कर सकते हैं।

गेशे लांगतांगपा ने एक अन्य ग्रन्थ में कहा, "महायान शिक्षाओं में वर्णित सभी दोष मेरे अपने हैं, और सभी सद्गुण दूसरों के हैं।" परवर्ती गुरुओं ने कहा कि इससे यह पता चलता है कि उन्हें परात्मपरिवर्तन के अभ्यास का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था।

कदम गुरुओं ने कहा कि बोधिसत्त्व प्रशंसा और आलोचना दोनों को एक दूसरे की अनुगूँज समझते हैं। यदि उनकी प्रशंसा की जाती है तो वे यह समझते हैं कि दूसरे भी लोग हैं जिनके द्वारा उन्हें दोषी ठहराए जाने की संभावना भी उतनी ही है, और इसके विपरीत भी हो सकता है। इस प्रकार बोधिसत्व अत्यंत स्थिरमति होते हैं और एक निर्विकार जीवन जीते हैं - प्रशंसा से अत्यंत प्रफुल्लित नहीं होते और न ही दोषारोपण से उदास। इसलिए मनोदृष्टि प्रशिक्षण को "मोक्ष नगरी" कहा गया है।

(6) ऐसा हो कि जिस व्यक्ति की मैंने सहायता की है और जिससे मैं बहुत-सी अपेक्षाएँ भी रखता हूँ, वह व्यक्ति मुझे, चाहे अनुचित रूप से ही सही, हानि पहुँचाए तो भी मैं उसे एक परमपावन गुरु के रूप में देख सकूँ।

जिन लोगों का आपने भला किया है और जो बदले में आपसे बुरा व्यवहार करते हैं, वे कार्य-कारण के शिक्षक होते हैं। हमने अतीत में उनके साथ कुछ बुरा किया था, अतः उनकी यह दुर्भावना हमारे उन विनाशकारी कृत्यों का परिणाम मात्र है। इस प्रकार हमें अपनेआप से यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि कार्य-कारण के संबंध को हम सदा पहचानेंगे। हमें यह भी प्रतिज्ञा करनी होगी कि हमारे कर्मों के प्रति लोगों की चाहे जिस प्रकार की भी प्रतिक्रियाएँ हों, उनसे हम निराश या क्रोधित नहीं होंगे; अपितु हम दूसरों का और भी भला करते ही रहेंगे। जब आपके साथ कुछ अप्रिय घटना घटित हो जाती है तो केवल इस जीवनकाल के बारे में ही न सोचें। यह समझने का प्रयास करें कि हमने अतीत में ऐसा क्या किया होगा जिसका यह परिणाम है, न कि ऐसा सोचें कि यह केवल वर्तमान जन्म के कर्म हैं जिनके कारण हम इस परिणाम के पात्र बने हैं। हमें इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि हमने अतीत में जितने नकारात्मक कर्म किए हैं उनकी तुलना में ये परिणाम कमतर हैं।

गुरुओं ने कहा है कि हमने अतीत में जो भी विनाशकारी कर्म किए हैं उनसे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, यदि कोई दूसरा व्यक्ति अतीत में बुरा था और अब सुधर गया है, और यदि हम उनके नकारात्मक कार्यों के बारे में ही सोच-सोचकर कुढ़ते रहें, तो यह इस बात को साबित करता है कि हमें धर्म और उसकी सुधार करने की शक्ति में कोई विश्वास नहीं है। इसलिए निर्णय हमें अतीत के संदर्भ में नहीं बल्कि वर्तमान के संदर्भ में ही करना चाहिए।

साथ ही, आप जो भी भला करें वह इस प्रेरणा से नहीं होना चाहिए कि आप उसका प्रतिदान चाहते हों। इन लोगों को गुरुों के रूप में मानें जो हमें आत्म-पोषण के दोषों के बारे में जागरूक करते हैं, जो यह दिखाते हैं कि हम कितने स्वार्थी हैं कि हमारी भलाई के लिए कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया न मिलने पर हमें बहुत बुरा लगता है। जैसा कि चित्तपरिशोधक आयुधचक्र  में कहा गया है, अपनी प्रकृति को समझने के लिए इन शिक्षाओं को ग्रहण करो और निःस्वार्थ रूप से अभ्यास करते रहने का धैर्य बढ़ाओ।

कदम गुरु कहते हैं कि ऐसे कई तरीके हैं जिनसे लोग आपके गुरु बन सकते हैं। उन्हें कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है, न ही उन्हें किसी मठ में चीवरधारी भिक्षु इत्यादि होने की। यहाँ तक कि बीमारी और प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी गुरु हैं, क्योंकि वे यह शिक्षा देती हैं कि यदि हम दु:ख नहीं चाहते तो रचनात्मक कार्य करें।

(7) संक्षेप में, ऐसा हो कि मैं अपनी सभी माताओं को, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से, वह सबकुछ प्रदान कर पाऊँ जो उनके हित में हैं और उन्हें आनंदित कर सके; और मैं अपनी सभी माताओं की सारी परेशानियों और दुःखों को गुप्त रूप से अपने ऊपर ले पाऊँ।

यह आदान-प्रदान (तोंगलन ) और परात्मपरिवर्तन के महान बोधिसत्व अभ्यासों का उल्लेख करता है। हम चाहे जो भी साधना करें, उसे दिखावे के लिए नहीं करना चाहिए। हमें इसे सदाशयता एवं करुणा की हार्दिक प्रेरणा से युक्त होकर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, किसी भिखारी को इसलिए भोजन न दें कि लोग आपको करुणामय समझें। 

इस बिंदु तक ग्रन्थ में उस मनोदृष्टि-साधना के बारे में बात की गई जो परम्परागत बोधिचित्त के संदर्भ में है। अगला छंद उस मनोदृष्टि-साधना के बारे में है जो सर्वश्रेष्ठ बोधिचित्त के संदर्भ में है। पारंपरिक बोधिचित्त के पश्चात सर्वश्रेष्ठ बोधिचित्त प्राप्ति की ओर बढ़ना हम जैसे लोगों के लिए है जिनकी बुद्धि मंद है। तीक्षण बुद्धि वालों को पहले ही सर्वश्रेष्ठ बोधिचित्त की शिक्षा दी जा सकती है।

(8) ऐसा हो कि इन सभी अभ्यासों के दौरान आठ क्षणभंगुर आलम्बनों की अवधारणाओं के कलंक से अकलुषित और समग्र दृश्य-प्रपंच को छलावा समझने वाले चित्त की सहायता से, मैं बिना किसी प्रकार के जुड़ाव के अपने सभी बंधनों से मुक्त हो पाऊँ।  

पूर्ववर्ती छंदों का अभ्यास बाह्य रीति से और जीवन के आठ क्षणभंगुर आलम्बनों की चिंता से मिश्रित भाव से कभी नहीं किया जाना चाहिए। इसे अपरिपक्वता के लक्षण के रूप में वर्णित किया गया है और यह बच्चों जैसा व्यवहार है।

नागार्जुन का मित्र को पत्र (सुहृलेख ) जीवन के आठ क्षणभंगुर आलम्बनों को सूचीबद्ध करता है - लाभ या हानि, यश या अपयश, प्रशंसा या निंदा, और सुख या दुःख। जीवन के इन आठों क्षणभंगुर आलम्बनों को पहचानना कठिन हो सकता है। उनके तीन स्तर होते हैं – काला, सफ़ेद, और मिश्रित। यह काला होता है जब ये भावनाएँ इस जीवन के सुख के प्रति आसक्ति के साथ-साथ आत्म-पोषक अभिवृत्ति तथा सत्कायदृष्टि के कारण उत्पन्न होती हैं। यह मिश्रित होता है जब ये भावनाएँ बिना किसी प्रकार की आसक्ति के परन्तु शेष दो प्रेरणाओं के साथ उत्पन्न होती हैं। यह सफ़ेद होता है जब ये भावनाएँ इस जीवनकाल के सुख या आत्म-पोषण के प्रति आसक्ति के बिना, केवल सत्कायदृष्टि के कारण उत्पन्न होती हैं।

हम इन आठों में से चाहे किसी के भी माध्यम हों या फिर प्राप्तकर्ता, हम प्रायः अनावश्यक प्रतिक्रिया करते हैं और अपना संतुलन खो बैठते हैं, उत्तेजित, अवसादग्रस्त, या असहज हो जाते हैं। जीवन के आठों क्षणभंगुर आलम्बनों को त्यागने का अर्थ है इन आठ आलम्बनों के प्रति चिंतन को त्यागना, न कि अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चों, घर आदि को छोड़ देना। यह हमारे दैनिक जीवन और ज़िम्मेदारियों से बचकर भागने की कोशिश नहीं है। इन विपरीत भावनाओं को समीकृत और संतुलित करने का शिक्षण समास्वादन की छः धातुओं के द्रुग्पा काग्यू परम्परा में प्रस्तुत हैं।

एक बार जब मिलरेपा एक गुफा में ध्यान-साधना कर रहे थे, उन्होंने देखा कि गुफा में पानी टपक रहा है, तो उन्होंने छिद्रों को बंद करके गुफा को आरामदायक बनाने का प्रयास किया। तब उन्हें सहसा यह विचार आया कि जीवन के आठ क्षणभंगुर आलम्बनों के लिए उनकी चिंता उनका पीछा करती हुई उस गुफा तक पहुँच गई थी।

एक बच्चा बीमार हो गया और उसकी माँ ने एक ज्योतिषी से सलाह ली कि क्या किया जाए। बच्चे के जीवन को बचाने का एकमात्र मार्ग यह था कि उसे किसी लामा के पास ले जाया जाए और वह लामा उस बच्चे को अपना मान लें। जब वे हज़ारों शिष्यों को प्रवचन दे रहे थे उस माँ ने अपने बच्चे को गेशे लांगतांगपा को सौंपते हुए कहा, "यह लीजिए, यह आपका है।" उन्होंने उस बच्चे को सहर्ष स्वीकार किया और कहा, "मेरे समस्त जन्मों में तुम मेरी संतान हो।" यह सुनते ही उनके शिष्यों में से आधों ने यह सोचा कि लांगतांगपा उस बच्चे के जन्मदाता हैं और उनपर से उन शिष्यों का विश्वास उठ गया। बाकी वहीं रुक गए। प्रवचन के अंत में उस महिला ने भेंट चढ़ाकर क्षमा-याचना की, और लांगतांगपा ने बच्चे को वापस दे दिया। वे स्थितप्रज्ञ थे। उनके आधे शिष्यों का विश्वास अडिग रहा - पूर्ण संतुलन। परन्तु यदि उनके स्थान पर हम होते तो इसे सहन नहीं कर पाते; हमने तमाशा खड़ा कर दिया होता और अपनेआप को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास किया होता। परन्तु गेशे लांगतांगपा को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यदि हम आतंरिक पवित्रता बनाए रखते हैं तो हमें बाहरी लोगों को यह विश्वास दिलाने की आवश्यकता नहीं होगी कि हम निर्मल हैं - जैसे धर्मात्मा होने का स्वांग करना या संसार से छिपने का प्रयास करना।

इन शिक्षाओं का अभ्यास करने का धैर्य विकसित करना

सभी सूत्र और तंत्र शिक्षाओं की अंतर्वस्तु को दो वर्गों में बाँटा गया है, (क) सीमित सत्त्वों को लाभ पहुँचाना और (ख) दूसरों को हानि पहुँचाने से अपनेआप को रोकना। ऐसा करने के लिए धैर्य का अभ्यास करने की आवश्यकता है। यदि हम धैर्य का अभ्यास नहीं करते, तो हमें लगेगा कि हमें दूसरों से प्राप्त हानि को उन्हें वापस देना है, और फिर हम उन्हें लाभान्वित नहीं कर सकेंगे। जब हम प्रतिशोध की भावना से दूसरों को हानि पहुँचाते हैं तो हो सकता है कि हम उस शत्रुभाव के मूल को ही भूल जाएँ - तब यह प्रतिशोध का एक अंतहीन चक्र बन जाएगा। प्रतिशोध के चक्र को समाप्त करने का उपाय है कि जैसे ही हमें किसी से हानि होती है तो उसे वहीं समाप्त कर दें। इसलिए हमें पारंपरिक मौखिक शिक्षाओं में दी गईं क्षान्ति की चार विधियों का अभ्यास करना चाहिए - लक्ष्यवत धैर्य, प्रेम और करुणामय धैर्य, गुरु-शिष्य धैर्य, और शून्यधातु धैर्य।

लक्ष्यवत धैर्य

जब हम हानि, आलोचना, इत्यादि के शिकार होते हैं, तो यह केवल अतीत के हमारे विनाशकारी कर्मों का परिणाम ही होता है। यदि हमने पिछले जन्मों में विनाशकारी कर्मों का लक्ष्य नहीं बनाया होता, तो इस जन्म में कोई भी उसपर निशाना नहीं साध सकता था। इसलिए जब भी हम आलोचना का शिकार बन जाते हैं तो हमें क्रोधित होने के बजाय अपने वर्तमान और पूर्व जन्मों के बारे में सोचना चाहिए और इस विषय में चिंतन करना चाहिए कि हमने आलोचना के योग्य कैसे-कैसे कर्म किए होंगे। एक भारतीय महासिद्ध ने कहा, "यदि हम आवश्यकता पड़ने पर विरोधियों को काम में नहीं लाते, तो उनके होने का क्या लाभ?"

प्रेम और करुणामय धैर्य

यदि कोई आपसे क्रुद्ध है, तो आप उस व्यक्ति को ऐसे समझें कि वह मानसिक रूप से विक्षुब्ध है और अपने ही भ्रम के प्रभाव में फँसा हुआ है - आपको हानि पहुँचाने का उसका कोई उद्देश्य नहीं है। और याद रहे कि आपको भी भ्रमासक्ति है। यदि कोई बावला आपका पीछा करे और आप पर चिल्लाए और धमकियाँ दे, और यदि आप क्रोधित होकर प्रतिक्रिया करें, तो आप भी विक्षिप्त हैं।

निःसंदेह उन्माद, पागलपन और मानसिक दुर्बलता जैसी स्थायी विक्षिप्तताएँ तो होती ही हैं, परन्तु क्रोध का क्षणिक दौरा भी विक्षिप्तता की ही झलक है। क्रोधित व्यक्ति को किसी बात की सुध नहीं रहती - वह अपने सबसे प्रिय सामान को भी नष्ट कर सकता है; वह जीवन के मूल्य को भूलकर दूसरों की हत्या कर सकता है या आत्महत्या भी कर सकता है। इसलिए हमें उनके साथ प्रेम और करुणा युक्त व्यवहार करना चाहिए मानो वे विक्षिप्त हों।

गुरु-शिष्य धैर्य

गुरु के बिना शिष्य कुछ भी नहीं सीख सकता। यदि कोई हमारे लिए क्षान्ति का आलम्बन नहीं बन सकता तो हम धैर्य का विकास नहीं कर सकते। इसलिए जो हम पर क्रोधित होता है वह हमें धैर्य सिखाता है। शांतिदेव ने कहा कि हमें शत्रुओं को चढ़ावे चढ़ाने चाहिए। बोधिसत्त्वचर्यावतार  में क्षान्ति का आलम्बन दान के आलम्बन से अधिक दुर्लभ बताया गया है। संसार भिखारियों से भरा पड़ा है; परन्तु यदि हम यह चाहते हैं कि कोई हमारी क्षान्ति का आलम्बन बनें, तो हमें सबसे पहले उसके प्रति कुछ करना होगा।

शून्यधातु धैर्य

क्रोध, क्षान्ति इत्यादि के स्वभावसिद्ध अस्तित्व की कमी पर ध्यान-साधना करें। कोई भी सत्यसिद्ध आलम्बन इसलिए अस्तित्वमान नहीं है कि वह दूसरों का अनिष्ट करे अथवा स्वयं का अनिष्ट होने दे, दूसरों पर क्रोध करे अथवा स्वयं क्रोध का भाजन बने - इत्यादि। अपनेआप से कहें कि, "ये सभी मुझे मेरी अपनी अज्ञानता, भ्रम, और सत्याग्रह के कारण शत्रु प्रतीत होते हैं। बुद्ध और बोधिसत्व का कभी कोई शत्रु नहीं होता। वे मेरे आस-पास हैं क्योंकि मैं भ्रमासक्त हूँ।”उनकी शून्य प्रकृति को समझें। उन्हें बिना किसी भ्रम के देखें।

अन्य ग्रंथों में यह कहा गया है कि शत्रुओं तथा अनिष्ट को किसी स्वप्न की भाँति मानो। स्वप्न में ऐसा लगता है जैसे सब कुछ वास्तव में हो रहा है परन्तु जागने पर पता चलता है कि कुछ हुआ ही नहीं।

निस्संदेह हम क्रोधित होते हैं, परन्तु कम-से-कम हम अपने क्रोध की कालावधि को कम करने और लंबे समय तक द्वेष न पालने का प्रयास कर सकते हैं। शांतिदेव ने कहा कि क्रोध जैसी गंभीर नकारात्मक शक्ति नहीं और क्षान्ति से बढ़कर कोई तप नहीं। क्रोध आसक्ति से कहीं अधिक निकृष्ट है। आसक्ति में हिंसा शामिल नहीं है और यह उस व्यक्ति का आंतरिक मामला है। परन्तु क्रोध हिंसक है, यह स्वयं और दूसरों को प्रभावित करता है, पर्यावरण का विनाश करता है, इत्यादि। विनाशकारी कृत्य करने का एक मुख्य कारण यह है कि हम सदा क्रोधित होते रहते हैं। जब हम क्रोधित होते हैं तो स्वादिष्टतम भोजन भी फीका लगता है। जब हम क्रोधित होते हैं तो हम चाहे जितना भी श्रृंगार कर लें, आभूषण धारण कर लें, और अच्छे कपड़े पहन लें, हम कुरूप ही दिखेंगे - हमारे चेहरे का रंग आदि बदल जाता है। बोधिसत्वों के लिए ज़रा से क्रोध से हुआ पतन सौ आसक्तिजनित पतन प्रसंगों से भी कहीं अधिक बुरा होता है।

एक अविच्छिन्न वंशावली का महत्त्व

यह इस अविच्छिन्न वंशावली से चले आ रहे प्रवचन का समापन है। वंशावली को बनाए रखना आवश्यक है। यह प्रेरणा की वंशावली है जिसका स्रोत बुद्ध हैं। किसी लामा के बारे में एक चुटकुला है कि उन्होंने एक प्रवचन में कहा, " मुझे कभी भी मौखिक प्रवचन प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु अब मैंने उसे आपको सौंप दिया है।"

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