शायद प्राचीन काल में स्त्री-पुरुष का भेद इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता था। किन्तु, जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, शत्रुओं से समाज के बचाव में शक्ति और सत्ता का महत्त्वपूर्ण योगदान बढ़ता गया। इसके परिणामस्वरूप, अपने अतिरिक्त शारीरिक बल के कारण पुरुषों का वर्चस्व बढ़ गया। बाद के वर्षों में, शिक्षा और बुद्धिमत्ता की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई, और, इस सन्दर्भ में, पुरुष और स्त्री में कोई अंतर नहीं है। परन्तु, आज के समय में, मतभेद तथा अन्य समस्याओं को सुलझाने में प्रेम और स्नेही-भाव की भूमिका अत्यंत निर्णायक है। इन दोनों गुणों से शिक्षा एवं बुद्धिमत्ता को साधकर उनका विनाशकारी प्रयोग रोकना आवश्यक है। अतः, अब स्त्रियों को एक अधिक केंद्रीय भूमिका निभानी चाहिए, क्योंकि, संभवतः जैविक कारणों से, पुरुषों की तुलना में वे प्रेम और स्नेही-भाव स्वाभाविक रूप से विकसित कर पाती हैं। ऐसा गर्भ धारण करने से और सामान्यतः नवजात शिशुओं की प्रधान रूप से देखभाल करने की भूमिका निभाने से होता है।
पारम्परिक रूप से युद्ध पुरुषों द्वारा ही लड़े गए हैं, क्योंकि आक्रामक व्यवहार के लिए वे शारीरिक रूप से अधिक सक्षम हैं। दूसरी ओर, महिलाऍं, औरों की पीड़ा और कष्ट के प्रति अधिक संवेदनशील और अधिक ध्यान रखनेवाली होती हैं। यद्यपि पुरुषों और महिलाओं में आक्रामकता और स्नेही-स्वभाव की समान सम्भाव्यताएँ हैं, तथापि अंतर इसमें है कि कौन-सी प्रवृत्ति अधिक सहजता से प्रकट होती है। इसलिए, यदि महिलाऍं अधिकांशतः संसार में देशों की अगुआई करें, तो संभवतः युद्ध की सम्भावना कम होगी और वैश्विक संबंधों के आधार पर अधिक सहयोग होगा - हालाँकि, निस्संदेह, कुछ महिलाएँ बहुत दूभर होती हैं! स्त्रीत्ववादियों के साथ मेरी सहानुभूति है, परन्तु उन्हें मात्र चीखना नहीं चाहिए। समाज में हितकारी योगदान के लिए उन्हें प्रयास करने चाहिए।
कभी-कभार धर्म में पुरुष की महत्ता पर अधिक बल दिया गया है। किन्तु, बौद्ध-धर्म में सर्वोच्च संवर, नामतः भिक्षु और भिक्षुणी के, समान हैं और उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। इसके बावजूद, सामाजिक रीति के कारण, कुछ धार्मिक कृत्यों में भिक्षु पहले जाते हैं। परन्तु बुद्ध ने दोनों संघ समूहों को समान मूल अधिकार दिए थे। इस चर्चा में कुछ नहीं रखा कि भिक्षुणी दीक्षा को पुनः प्रचलित करना चाहिए या नहीं; प्रश्न यह है कि विनय के सन्दर्भ में इसे किस प्रकार सही ढंग से किया जाए।
शान्तरक्षित ने तिब्बत में मूलसर्वस्तिवाद भिक्षु दीक्षा शुरू करवाई। किन्तु, उनके समूह में सब भारतीय पुरुष थे, और भिक्षुणी दीक्षा के लिए द्वैत संघ की आवश्यकता है, इसलिए वे भिक्षुणी परम्परा शुरू नहीं करवा पाए। बाद में, कुछ तिब्बती लामाओं ने अपनी माताओं को भिक्षुणियों के रूप में दीक्षा दी, परन्तु विनय की दृष्टि से, ये दीक्षाएँ प्रामाणिक नहीं मानी गईं। सन् 1959 से मुझे ऐसा लगता रहा है कि भिक्षुणी मठों को अपनी शिक्षा का स्तर बढ़ाकर भिक्षु मठों के बराबर करना चाहिए। मैंने ऐसा विधान बनाया है और आज भिक्षुणियों में विदुषियाँ भी हैं। परन्तु भिक्षुणी दीक्षा की पुनर्स्थापना मैं अकेले नहीं कर सकता। इस प्रश्न का हल विनय द्वारा ही ढूँढ़ा जा सकता है।
अब हमारे पास इस प्रश्न पर अन्य बौद्ध परम्पराओं से चर्चा करने का अवसर है, जैसे चीनी, कोरियाई, और वियतनामी परम्पराएँ, जिनमें अभी भी भिक्षुणी दीक्षा पाई जाती है। अभी तक धर्मगुप्तका परम्परा के अनुसार, लगभग दो दर्जन तिब्बती महिलाएँ भिक्षुणी दीक्षा ले चुकी हैं। अब कोई इस बात को अस्वीकार नहीं करता कि वे भिक्षुणियाँ हैं।
पिछले तीस वर्षों से हम मूलसर्वस्तिवाद और धर्मगुप्तका विनय ग्रंथों पर अनुसंधान कर रहे हैं। चूँकि विनय पालि परम्परा तथा इन दोनों संस्कृत-आधारित परम्पराओं में विद्यमान है, लाभकारी है कि तीनों विनय परम्पराओं से संघ के वरिष्ठजन विचार-विमर्श करें और अपने अनुभव साँझा करें। भिक्षुणी दीक्षा श्रीलंका में तो पुनःस्थापित हो ही चुकी है, और अब थाईलैंड में ऐसा ही करने का विचार है। अधिक विस्तार से अनुसंधान उपयोगी सिद्ध होगा ताकि एक दिन हम शान्तरक्षित की असफलता को सुधार पाएँ। किन्तु, एक अकेले व्यक्ति की हैसियत में मुझे यह निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त नहीं है। यह विनय पद्धति के विरुद्ध होगा। मुझे केवल अनुसंधान की अगुआई करने का अधिकार है।
जिन तिब्बती और पश्चिमी महिलाओं ने धर्मगुप्तका भिक्षुणी दीक्षा ग्रहण कर ली है उन्हें हम सब धर्मगुप्तका भिक्षुणियों के रूप में पहचानते और स्वीकार करते हैं। इसमें कोई परेशानी नहीं है। समस्या है भिक्षुणी दीक्षा का ऐसा तरीका ढूँढ़ना जो मूलसर्वस्तिवाद विनय ग्रंथों के अनुरूप हो। इसके लिए यहाँ और अभी एक बुद्ध का होना आवश्यक है। यदि मैं एक बुद्ध होता, तो मैं यह निर्णय ले सकता था; परन्तु ऐसा नहीं है। मैं बुद्ध नहीं हूँ। कुछ मामलों में मैं एक अधिनायक की भूमिका निभा सकता हूँ, परन्तु विनय के मामलों में नहीं। मैं यह स्थापित कर सकता हूँ कि धर्मगुप्तका परम्परा में विधिवत रूप से दीक्षित तिब्बती भिक्षुणियाँ गुटों में मिलकर संघ के तीन अनुष्ठान कर सकती हैं: [ महीने में दो बार आज्ञा के उल्लंघनों की शुद्धि (पोषध), ग्रीष्मकालीन एकान्त स्थान की स्थापना (वर्षोपनायिका), और ग्रीष्मकालीन एकान्त स्थान के प्रतिबंधों से छुटकारा (पावरण)]। परन्तु दीक्षा संस्कार की पुनःस्थापना एक अलग विषय है। यदि मेरी ऐसी इच्छा हो भी, तो भी इसमें वरिष्ठ भिक्षुओं की सर्वसम्मति की आवश्यकता है। कुछ ने इसका सख्त विरोध किया है। इस विषय में एकमत राय नहीं है और यह एक समस्या है। परन्तु, मैं इन तीन संघ संस्कारों के धर्मगुप्तका संस्करणों में से उपयुक्त ग्रन्थ तुरंत चीनी भाषा से तिब्बती में अनूदित करवा सकता हूँ। उसका कोई विरोध नहीं कर सकता।
दूसरे पहलुओं के लिए हमें और चर्चा करनी पड़ेगी। अन्य बौद्ध परम्पराओं के संघ का समर्थन महत्त्वपूर्ण है और इसलिए इस प्रक्रिया में यह एक सहायक चरण है। दूसरे चरण के रूप में, मैं इस अंतरराष्ट्रीय दल के संघ के वरिष्ठ जनों को भारत आने का निमंत्रण देता हूँ। जो संकीर्ण दृष्टि वाले तिब्बती वरिष्ठ-जन मूलसर्वस्तिवाद भिक्षुणी दीक्षा की पुनर्स्थापना का विरोध करते हैं उनसे ये इस विषय पर चर्चा करें।
यदि आज बुद्ध यहाँ होते, तो उन्होंने निस्संदेह अनुमति दे दी होती। परन्तु मैं बुद्ध की भूमिका नहीं निभा सकता। यद्यपि तिब्बत में मठीय परम्परा आठवीं शताब्दी से रही है, तथापि हमारे बीच कभी भी भिक्षुणियों ने संघ के तीन संस्कार नहीं किए हैं, और अब ऐसा होगा। परन्तु अभी दीक्षा के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।
इस वर्ष ये तीन भिक्षुणी संघ संस्कार कर पाना कठिन होगा, परन्तु हम अगले वर्ष इन्हें प्रारम्भ करेंगे। भिक्षुणी प्रतिमोक्ष का संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनुवाद हो चुका है। यह तीस से चालीस पृष्ठों का है। तिब्बती धर्मगुप्तका भिक्षुणियों को इसे कंठस्थ करना होगा। परन्तु अभी तीन संघ संस्कारों के वास्तविक संस्कार ग्रंथों का अनुवाद होना बाकी है।
हो सकता है कि तिब्बती भिक्षुणियाँ मूलसर्वस्तिवाद भिक्षुणियों के रूप में दीक्षा चाहें, परन्तु धर्मगुप्तका भिक्षुणी दीक्षा को मूलसर्वस्तिवाद दीक्षा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि एक के स्थान पर दूसरा प्रयुक्त हो सकता तो अतिशा से तिब्बत में महासंघिका भिक्षु दीक्षा प्रदान न करने की मॉंग न की गई होती। [जब भारतीय गुरु अतिशा को आरंभिक ग्यारहवीं शताब्दी ईसापूर्व में तिब्बत के नरेश यांगचुब वो ने तिब्बत आने का न्यौता दिया, तब उनके दादा, राजा येशे वो, पहले ही अपने राज्य में पूर्वी भारतीय गुरु धर्मपाल को न्यौतकर उनके आगमन पर मूलसर्वस्तिवाद भिक्षु दीक्षा की पुनर्स्थापना प्रायोजित कर चुके थे। अतिशा से अनुरोध किया गया कि वे महासंघिका भिक्षु दीक्षा प्रदान न करें क्योंकि उससे तिब्बत में दो विनय वंशावलियाँ आरम्भ हो जाएँगी।]
इसके अतिरिक्त, यदि धर्मगुप्तका दीक्षा मूलसर्वस्तिवाद दीक्षा होती, तो थेरवाद दीक्षा भी मूलसर्वस्तिवाद दीक्षा होती और यह असंगत होता। हमें विशुद्ध मूलसर्वस्तिवाद विनय के अनुसार मूलसर्वस्तिवाद भिक्षुणी दीक्षा पुनःस्थापित करने की आवश्यकता है।
तो इस सर्दी के मौसम में, आइए, हम इस प्रकार के सम्मलेन का आयोजन करें, परन्तु भारत में - या तो बोधगया, सारनाथ में, अथवा दिल्ली में। उन अंतरराष्ट्रीय संघ के वरिष्ठ-जनों के अतिरिक्त जो इस हैम्बर्ग के सम्मलेन में आए हैं, हम तिब्बत संघ के उच्चतम नेताओं और चारों तिब्बती परम्पराओं के प्रमुख मठों के मठाध्यक्षों को भी आमंत्रित करेंगे, संभवतः बोनपोस को भी। बोनपोस में अभी भी भिक्षुणियाँ हैं। हम वरिष्ठ, अति-सम्मानित भिक्षु विद्वानों को भी आमंत्रित करेंगे, जिनकी संख्या लगभग सौ के करीब है। फिर मैं अंतरराष्ट्रीय संघ के वरिष्ठ-जनों से अनुरोध करूँगा कि वे इन सबके समक्ष भिक्षुणी दीक्षा की पुनर्स्थापना के हित में अपने तर्कसंगत विचार रखें। यह बहुत लाभप्रद होगा। हम तिब्बती लोग इस सम्मलेन का खर्चा उठाएँगे और यह निश्चित करेंगे कि आयोजन करने के लिए कौन अत्युत्तम होगा।
पिछली छब्बीस शताब्दियों में अभिधर्म के पालि और संस्कृत संस्करणों को लेकर कई मतभेद सामने आए हैं। नागार्जुन ने कुछ विशेष मुद्दों का स्पष्टीकरण किया है; और परीक्षण के आधार पर इन दोनों परम्पराओं के बीच के प्रत्यक्ष अंतर स्पष्ट किए जा सकते हैं। उसी भाव से, हम बुद्ध के शब्दों को जाँचने का दुस्साहस भी कर सकते हैं, जैसे मेरु पर्वत का विषय, धरती का सपाट होना, सूर्य और चंद्र का लगभग एक जितना विस्तार होना और धरती से समान दूरी होना। यह बिल्कुल अस्वीकार्य है। ल्हासा में मेरे गुरुओं ने भी मेरी दूरबीन से चन्द्रमा के पर्वतों की छायाएँ देखी थीं और वे सहमत हुए थे कि चन्द्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है, जैसा अभिधर्म में बतलाया गया है। इसलिए, नागार्जुन के स्पष्टीकरण के लिए, किसी संघ चर्चा की आवश्यकता नहीं है। यही बात सूत्र के मुद्दों पर भी लागू होती है। परन्तु विनय की बात बिल्कुल भिन्न है।
विनय ग्रंथों के सभी अनुवाद सर्वज्ञ के वंदन से शुरू होते हैं। इसका अर्थ है कि बुद्ध ने स्वयं इन ग्रंथों को सत्यापित किया था, क्योंकि केवल एक सर्वज्ञ बुद्धजन ही जानता है कि किन कृत्यों का पालन होना चाहिए और किन्हें त्याग देना चाहिए। दूसरी ओर अभिधर्म ग्रंथों में, मंजुश्री का वंदन किया जाता है। इसके अतिरिक्त, बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद, एक संघ परिषद् की सभा बुलाई गई थी जिसने विनय में कुछ संशोधन किए थे। बुद्ध ने इसकी अनुमति दी थी और इसे अन्य बिंदुओं के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, हम तिब्बती लोग बोधिसत्त्व और तंत्रयान का अभ्यास, प्रत्येक के संवर समूह के साथ करते हैं। इनमें और विनय में कुछ इकाईयाँ और उपदेश अंतर्विरोधी हैं। ऐसी स्थिति में उच्च श्रेणी के संवरों को निम्न श्रेणी के संवरों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है।
इक्कीसवीं शताब्दी में युद्ध की धारणा अप्रचलित हो चुकी है। उसके स्थान पर, हमें मतभेद के समाधान के लिए संवाद की आवश्यकता है, और उसके लिए, केवल बुद्धिमत्ता पर्याप्त नहीं है। हमें नेकी और दूसरों के कल्याण में गंभीर रूचि की भी आवश्यकता है। सच्चे संवाद के लिए करुणा अधिक महत्त्वपूर्ण है। जैविक कारणों से, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में दूसरों की पीड़ा के प्रति अधिक संवेदनशीलता होती है। उदाहरणार्थ, आपको हत्यारों या कसाईयों के रूप में स्त्रियाँ प्रायः नहीं मिलेंगी। इसलिए, अंतरराष्ट्रीय समझौतों के लिए, स्त्रियों की बहुत आवश्यकता है और उन्हें और बड़ी भूमिका निभानी चाहिए।
बुद्ध के अनुयायियों के चतुर्मुखी समुदाय में भिक्षु, भिक्षुणियाँ, उपासक, एवं उपासिकाएँ है। स्पष्टतः, स्त्री और पुरुष समान भूमिका निभाते हैं। परन्तु, अभी तिब्बतियों में, यह चतुर्मुखी समुदाय अधूरा है। अनमोल मानव पुनर्जन्म के अट्ठारह गुणों में से एक है मध्य भूमि में जन्म लेना, जिसे आध्यात्मिक अथवा भौगोलिक दृष्टि से परिभाषित किया गया हो। तिब्बत भौगोलिक दृष्टि से मध्य भूमि नहीं है। जहाँ तक आध्यात्मिक रूप से परिभाषित भूमि का प्रश्न है, तो उसमें अनुयायियों का चतुर्मुखी समुदाय सम्पूर्ण होना चाहिए। स्पष्टतः, भिक्षुणियों के बिना यह अधूरा है। कई तिब्बतियों का मत है कि यदि भिक्षुणियाँ होंगी, तो यह मध्य भूमि है, क्योंकि, इन चार गुटों में से भिक्षु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। परन्तु यह केवल मध्य भूमि और अनमोल मानव पुनर्जन्म के सादृश्य को परिभाषित करता है। तिब्बत के पूर्ववर्ती गुरुओं को इसपर ध्यान देना चाहिए था।
किसी भी संघ समूह से परामर्श किए बिना, मैं तिब्बती भिक्षुणियों के लिए शिक्षा में सुधार की बात उठा सकता हूँ। मैंने ऐसा किया भी है और कई भिक्षुणियाँ विद्वत्ता के उच्च स्तर तक पहुँच भी गई हैं। मुंदगोद के मठों में, मैंने घोषणा की थी कि हमें गेशेमा परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए। कई वरिष्ठ भिक्षुओं ने इसका विरोध किया, परन्तु मैंने उनसे कहा कि बुद्ध ने पुरुषों और महिलाओं को भिक्षु और भिक्षुणी बनने के लिए समान अधिकार दिए थे, तो उन्हें गेशे और गेशेमा बनने के समान अधिकार क्यों न दिए जाएँ? मुझे लगता है कि वरिष्ठ भिक्षु इस प्रकार के विचारों के आदी नहीं हैं।
साठ के दशक की शुरुआत में, मैंने भिक्षुओं को ही नहीं, बल्कि भिक्षुणियों को भी बुलाया और उनसे कहा कि द्वैमासिक सोजोंग अनुष्ठान में वे भी हिस्सा लें। उन वर्षों में भिक्षुणियाँ नहीं थीं, तो इसलिए यद्यपि श्रमणेरिका नवदीक्षित भिक्षुणियों को भिक्षुओं के सोजोंग में आने की अनुमति नहीं थी, मेरे गुरुओं ने अपनी अनुमति दे दी। तो हम ऐसा करने लगे। दक्षिण भारत के कई मठों से अनेक व्यंग्यपूर्ण आपत्तियाँ हुईं, क्योंकि ऐसा कभी नहीं हुआ था कि भिक्षु और भिक्षुणियाँ एकसाथ सोजोंग करें। परन्तु इस कारण किसी भी भिक्षु का चीवर छीना नहीं गया!
सत्तर के दशक से, कई तिब्बतियों ने चीनी परम्परा द्वारा भिक्षुणी दीक्षा धारण की है। मेरे ताईवान जाने के पीछे एक प्रमुख कारण था स्वयं वहाँ की भिक्षुणी वंशावली देखना और परिस्थिति को जाँचना। मैंने भिक्षुणी संवर के विषय में अनुसंधान करने के लिए लोसांग त्सेरिंग को नियुक्त किया और अब उन्हें यह कार्य करते हुए बीस वर्ष हो गए हैं। हमने अधिक से अधिक प्रयास किए हैं। मैंने प्रमुख चीनी दीक्षा प्रदान करनेवाले भिक्षुओं से विनती की कि वे एक अंतरराष्ट्रीय संघ सभा आयोजित करें, परन्तु वे नहीं कर पाए। मैं भी ऐसी सभा आयोजित नहीं कर पाया, क्योंकि इससे चीनी जनवादी गणराज्य के साथ समस्याएँ और उलझनें पैदा हो जातीं। मुझे लगा कि बेहतर होगा कि कोई अन्य संगठन ऐसी सभा आयोजित करे, और इसलिए मैंने जम्पा चोद्रों से ऐसा करने के लिए कहा। एक अकेला भिक्षु जितना कर सकता है वह किया जा चुका है। अब हमें तिब्बती भिक्षु वरिष्ठ-जनों से मठीय सर्वसम्मति की आवश्यकता है।
नवदीक्षित भिक्षु और नवदीक्षित भिक्षुणी दीक्षाओं में कहा जाता है कि उन्हें उपयुक्त श्रद्धा के आलम्बनों का ज्ञान होना चाहिए। कहा जाता है कि यद्यपि संवर के सन्दर्भ में, भिक्षुणियाँ श्रेष्ठतर होती हैं; तथापि नवदीक्षित भिक्षुओं के लिए वे श्रद्धा का आलम्बन नहीं होतीं। शायद, बोधिसत्त्व और तांत्रिक संवरों को ध्यान में रखते हुए, इसे भी पुनः शब्दबद्ध करने की आवश्यकता है, विशेषतः वह तांत्रिक संवर जिसमें स्त्रियों की निंदा करना निषिद्ध है। उस दृष्टिकोण से, विनय की इस बात का पालन करना असुविधाजनक है। अतः, संवरों के तीन समूहों का पालन करने के लिए, कुछ सूक्ष्म बातों को संशोधित करने की आवश्यकता है। और जहाँ तक मूलसर्वस्तिवाद भिक्षुणी संवरों को ग्रहण करने से पहले उन्हें पढ़ने का प्रश्न है, जो धर्मगुप्तका वंशावली में भिक्षुणियाँ बन चुकी हैं, वे उन्हें पढ़कर उनका अध्ययन कर सकती हैं, हालाँकि उन्हें उनके अनुष्ठान धर्मगुप्तका के अनुसार करने होंगे। परन्तु, जो भिक्षुणी नहीं हैं वे अभी भी इन संवरों का अध्ययन नहीं कर सकतीं।
इन संशोधनों को करते समय, और विशेष रूप से मूलसर्वस्तिवाद भिक्षुणी दीक्षा की पुनर्स्थापना के सन्दर्भ में, यह अत्यंत आवश्यक है कि तिब्बती संघ में से केवल कुछ ही ऐसा न करें। हमें संघ में फूट नहीं पड़ने देनी चाहिए। हमें सम्पूर्ण तिब्बती संघ की व्यापक सर्वसम्मति चाहिए और हम इसी दिशा में प्रयास कर रहे हैं। मैं आप सबके प्रयासों के लिए आपका आभारी हूँ।