पहले-पहल स्वयं बुद्ध ने भिक्षुओं को इन शब्दों के उच्चार के साथ दीक्षित किया था, "भिक्खु, इधर आओ।" जब इस पद्धति से पर्याप्त संख्या में भिक्षु दीक्षित हो गए, तब उन्होंने स्वयं भिक्षुओं द्वारा दीक्षित किए जाने की परम्परा स्थापित की।
कई परम्परागत वृत्तांतों के अनुसार, जब बुद्ध की मौसी, महाप्रजापति गौतमी, ने उनसे उन्हें भिक्षुणी के रूप में दीक्षित करने की याचना की तब पहले बुद्ध ने इंकार कर दिया। किन्तु, महाप्रजापति, पाँच सौ अन्य महिला अनुयायियों सहित, अपना सिर मुंडवाकर , तथा पीत चीवर धारण करके अनिकेत संन्यसियों की भाँति उनके पीछे चल पड़ीं। जब बुद्ध ने दूसरी, और फिर तीसरी बार भी उनकी दीक्षा की माँग अस्वीकार कर दी, तब बुद्ध के अनुयायी, आनंद, ने उनकी ओर से मध्यस्थता की।
चौथी बार की गई याचना के पश्चात बुद्ध ने इस शर्त पर उन्हें और भावी भिक्षुणियों को स्वीकार किया कि वे इन आठ कठोर प्रतिबंधों का पालन करेंगी। इनमें शामिल है कि भिक्षु अथवा भिक्षुणी चाहे कितने भी लम्बे समय तक अपने संवरों का पालन करे, वरिष्ठता क्रम में भिक्षुणियाँ सदैव भिक्षुओं से कमतर रहेंगी। भारत में उस युग में प्रचलित सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप बुद्ध ने ऐसे प्रतिबन्ध लगाए, ताकि समाज उनके समुदाय, तथा, उनकी शिक्षाओं का आदर करे। उन्होंने ऐसा इसलिए भी किया ताकि जनसामान्य भिक्षुणियों का आदर करें तथा वे सुरक्षित रहें। प्राचीन भारत में, महिलाऍं पहले अपने पिता के संरक्षण/पर्यवेक्षण में रहती थीं, फिर अपने पति के, और अंततः अपने पुत्रों के। अविवाहित स्त्रियों को वेश्या माना जाता था और विनय में ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जहाँ किसी पुरुष परिजन के संरक्षण के अभाव में भिक्षुणियों को वेश्या कहकर सम्बोधित किया गया हो। भिक्षुणी संघ को भिक्षु संघ से सम्बद्ध करके समाज की दृष्टि में उसकी एकल स्थिति को आदरणीय स्थान दिया गया।
कुछ परम्पराओं के अनुसार, इन आठ गुरुधर्मों को स्वीकार करना ही पहली दीक्षा माना जाता था। अन्य परम्पराओं के अनुसार, बुद्ध ने आनंद के नेतृत्व में, महाप्रजापति और उनकी पाँच सौ महिला अनुयायियों के आरंभिक अभिषेक का दायित्व दस भिक्षुओं को सौंपा। दोनों में से जो भी स्थिति रही हो, भिक्षुणियों को दीक्षित करने की आरंभिक मानक विधि दस भिक्षुओं द्वारा ही पूर्ण की जाती थी। दीक्षित करने की इस विधि को सामान्यतः "एकल भिक्षु संघ अभिषेक" कहा जाता है। इस दीक्षा विधि में प्रत्याशियों से उन अड़चनों के सम्बन्ध में कई प्रश्न पूछे जाते हैं जो उन्हें उनके पूर्ण संवर समूह को निभाने में बाधित कर सकते थे। भिक्षु दीक्षा के प्रत्याशियों से पूछे गए सामान्य प्रश्नों के अतिरिक्त, इनसे उनकी स्त्री रूपी शरीर-रचना सम्बन्धी प्रश्न भी पूछे जाते हैं।
जब कुछ भिक्षुणियों ने भिक्षुओं के ऐसे व्यक्तिगकत प्रश्नों का उत्तर देने में अत्यधिक हिचकिचाहट दिखाई, तब बुद्ध ने "युग्म संघ दीक्षा" की स्थापना की। इसमें, पहले भिक्षुणी संघ प्रत्याशी के भिक्षुणी बनने के औचित्य को आँकने की दृष्टि से प्रश्न पूछता है। फिर उसी दिन बाद में, भिक्षुणी और भिक्षु संघ एक संयुक्त सभा गठित करते हैं। भिक्षु संघ दीक्षा प्रदान करता है, और भिक्षुणी संघ साक्षी बनता है।
पहले, मठीय समुदाय के संवरों में केवल "नैसर्गिक रूप से असंस्तवित कृत्यों" से परहेज़ करने की बात कही गई थी - वे कायिक तथा वाचिक कृत्य जो सभी के लिए विनाशकारी हों, चाहे वे सामान्य मनुष्य हों अथवा दीक्षित। किन्तु, दीक्षित लोगों के लिए, इनमें ब्रह्मचर्या का संवर भी शामिल था। समय के साथ-साथ, बुद्ध ने इनमें अन्य संवर प्रख्यापित किए, जिनका सम्बन्ध "निषिद्ध असंस्तवित कृत्यों" से था - वे कायिक तथा वाचिक कृत्य जो स्वाभाविक रूप से विनाशकारी नहीं हैं, परन्तु दीक्षित व्यक्तियों के लिए निषिद्ध हैं, ताकि समाज बौद्ध मठीय समुदाय एवं बुद्ध की शिक्षाओं का अनादर न करे। ऐसे निषेध प्रख्यापित करने का अधिकार केवल बुद्ध को ही प्राप्त था। भिक्षुणियों को भिक्षुओं से अधिक अतिरिक्त संवर मिले, क्योंकि प्रत्येक अतिरिक्त संवर किसी भिक्षु अथवा भिक्षुणी के अनुपयुक्त आचरण सम्बन्धी घटना के पश्चात स्थापित किया गया। भिक्षुओं से विनिमय करते समय अनुपयुक्त आचरण के लिए भिक्षुणियों के लिए संवर निर्धारित किए गए जो उनके संवरों में शामिल हैं, जबकि भिक्षुओं के संवरों में ये पारस्परिक प्रतिबन्ध शामिल नहीं हैं।