धर्मचक्र के तीन प्रवर्तन

बुद्ध की शिक्षाओं को वर्गीकृत करने के कई ढंग हैं। इनमें से अधिक प्रसिद्ध है "धर्मचक्र के तीन प्रवर्तन" या "धर्म-प्रेषण के तीन प्रवर्तन"। बुद्ध के जीवनकाल में प्रत्येक चक्र को अलग-अलग स्थानों और अलग-अलग समय पर सिखाया गया था, यद्यपि कालान्तर में त्सोंगखपा जैसे विद्वानों ने इन्हें इनकी विषय-वस्तु के आधार पर अलग-अलग किया, न कि उनके कालानुक्रम के आधार पर।

उपदेशों का पहला आवर्तन

उपदेशों का पहला आवर्तन सारनाथ के एक मृगदाव में हुआ था। बुद्ध अपनी ज्ञानोदय प्राप्ति के तुरंत बाद अपने पाँच साथियों के साथ वहाँ गए और उन्हें अपनी पहली शिक्षा दी। इसमें उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि का मूलभूत प्रारूप, अर्थात चार आर्य सत्यों को निर्धारित किया। ये हैं सत्य दुःख, उनका समुदय सत्य (वास्तविक कारण), उनका सत्य निरोध, तथा सत्य मार्ग जो हमें उनके सत्य निरोध तक पहुँचाएगा और जिससे वह उत्पन्न होगा।

"आर्य" संस्कृत का शब्द है जो "आर्यन" और "ईरान" शब्दों की भी उत्पत्ति है। माना जाता है कि आर्य मध्य एशिया की एक भारोपीय (हिन्द-यूरोपीय) जनजाति थी जिसने लगभग 2,000 वर्ष ईसा पूर्व में भारत पर विजय प्राप्त की और अपनेआप को स्थानीय मूल निवासियों और संस्कृति से श्रेष्ठतर घोषित किया।

बौद्ध शिक्षाओं के अन्तर्गत उच्च सिद्धि प्राप्त सत्त्व को आर्य कहा गया है जिसे इन चार सत्यों का निर्वैचारिक बोध हो गया है। तो, ये चार आर्य सत्य वे चार तथ्य हैं जिन्हें आर्य निर्वैचारिक रूप से सत्य मानता है, यद्यपि सामान्य जन तथा अन्य भारतीय दार्शनिक प्रणालियों के अनुयायी उन्हें सत्य के रूप में बिल्कुल नहीं मानते। 

यह एक रोचक बात है कि बुद्ध ने आर्य  शब्द का प्रयोग अभिजात वर्ग के सदस्यों के अर्थ में किया था, फिर भी उन्होंने अपने द्वारा स्थापित मठीय समुदाय में जाति-प्रथा और पुरोहित आधिपत्य को समाप्त कर दिया। बौद्ध धर्म में कोई भी व्यक्ति जन्म, वंश, या जाति, के आधार पर आर्य नहीं बनता, जिसके द्वारा वह राजनैतिक सत्ता या आर्थिक प्रतिष्ठा प्राप्त करता हो; अपितु यह उस व्यक्ति की आध्यात्मिक उपलब्धियों पर आधारित है। इसलिए, तत्कालीन सामाजिक मानसिकता को ध्यान में रखते हुए बुद्ध ने इस शब्द का प्रयोग यह इंगित करने के लिए किया कि जिन लोगों ने इन तथ्यों के यथार्थ को अनुभव किया, वे इस अर्थ में जनसाधारण से श्रेष्ठ हो गए कि उन्होंने दुःख के किसी न किसी स्तर से अपनेआप को सदा के लिए मुक्त कर लिया।

एक और बात यह है कि हिरण एक सौम्य, शांतिप्रिय पशु के रूप में जाना जाता है। तो, मृगदाव में उपदेश देकर बुद्ध ने प्रतीकात्मक रूप से संकेत किया कि उनकी शिक्षाओं को समझने से साधक को दुख विमुक्त शांतिपूर्ण स्थिति की प्राप्ति हो जाएगी।

उपदेशों का दूसरा आवर्तन

बुद्ध ने दूसरे आवर्तन का उपदेश मगध की राजधानी राजगाह के ठीक बाहर स्थित गृद्धकूट पर दिया। यह तब हुआ जब उनका जीवन एक विशेष रूप से कठिन पड़ाव से गुज़र रहा था। उधर उनकी मातृभूमि शाक्य में युद्ध छिड़ा हुआ था और इधर मगध के राजकुमार ने अपने पिता को कारागृह में डाल, सिंहासन को हथिया लिया था, और अपने पिता को भूखा मार दिया था। यह वह समय भी था जब बुद्ध का चचेरे भाई देवदत्त उन्हें मारने और बौद्ध मठीय समुदाय में फूट डालने का प्रयास कर रहा था। इसके अतिरिक्त, जब बुद्ध मगध की ओर जा रहे थे तो, वज्जी में, वे लांछित और अपयश के शिकार हो गए, और इसलिए वे गृद्धकूट की गुफाओं में रहने चले गए।

दूसरा आवर्तन मुख्य रूप से प्रज्ञापारमिता सूत्र  के बारे में है। इसका तात्पर्य शून्यता - रिक्तता - तथा उसकी प्रज्ञा (सविवेकी सचेतनता) की प्राप्ति के विभिन्न चरणों के विषय से है। शून्यता है असंभव प्रकार के अस्तित्व, जैसे ठोस स्वतंत्र अस्तित्व, का पूर्ण अभाव। यद्यपि सब कुछ कार्य-कारणों से स्वतंत्र और स्व-स्थापित प्रतीत होता हो, कल्पना का यह प्रक्षेपण वास्तविकता के अनुरूप नहीं है। विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु हमें कल्पना और वास्तविकता के बीच सही विभेद करने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें चाहिए शून्यता का निर्वैचारिक बोध।

बुद्ध के जीवनकाल के इस चरण में इस विषय को सिखाना बहुत ही उचित था। उनके साथ व्यक्तिगत रूप से और उनके चारों ओर भी इतनी भयावह घटनाएँ हो रही थीं कि उनके मठीय समुदाय को इन वास्तविकताओं के आघात और आतंक को समझने और उससे निपटने के लिए एक विधि की आवश्यकता थी। शून्यता का बोध उन्हें इस जटिल परिस्थिति को विघटित करने एवं इस बात को समझने में सहायक सिद्ध हो रहा था कि युद्ध की त्रासदी इत्यादि किसी ठोस राक्षस की भाँति अस्तित्वमान नहीं हैं, अपितु वे अनेक कारणों एवं परिस्थितियों का परिणाम है। यदि हम उपदेशों के दूसरे आवर्तन पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध का अपने जीवन में इस चरण में पहुँचकर शून्यता की शिक्षा देना कितना उचित था।

उपदेशों का तीसरा आवर्तन

उपदेशों का तीसरा आवर्तन वज्जी गणराज्य की राजधानी वेसाली में हुआ। कोसल और मगध के बीच के आवागमन के दौरान बुद्ध कई बार वज्जी से गुज़रे थे, और यही वह स्थान था जहाँ वे भिक्षुणी धर्म-संघ प्रारम्भ करने के लिए सहमत हुए। वज्जी एक निर्धन गणराज्य था इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि भिक्षुणी धर्म-संघ एक समतावादी वातावरण में आरम्भ हुआ, एक ऐसा स्थान जहाँ अभिजात और अनुदार ब्राह्मण व्यवस्था इतनी सबल नहीं थी।

शिक्षाओं के इस तीसरे आवर्तन की अंतर्वस्तु को निरूपित करने के दो तरीक़े हैं। उनमें से एक के अनुसार तीसरा आवर्तन महायान की चित्तमात्र शिक्षाओं का उल्लेख करता है। इस विचारधारा का मुख्य दार्शनिक तत्त्व यह है कि हमारे अनुभवों की अंतर्वस्तु तथा जिन चित्त संस्कारों के द्वारा हम उनका अनुभव करते हैं, दोनों के स्रोत अलग-अलग नहीं हैं। उन सबका मूलस्रोत एक ही है - हमारे आलयविज्ञान (आधारभूत चेतना) पर जो कर्म के बीज हैं। यही कारण है कि हम किसी भी आलम्बन के अस्तित्व को केवल उस मन से सम्बद्ध होकर ही स्थापित कर पाते हैं, जो या तो उसके बारे में सोच रहा हो, या देख रहा हो, या उसका वर्णन इत्यादि कर रहा हो। इसलिए जब दो लोग एक ही आलम्बन को परख रहे होते हैं, जैसे साध्वी समुदाय का एक नया सदस्य, तो ऐसी कोई सार्वजनिक विशेषता, कोई वस्तुपरक व्यक्ति नहीं है जिसे दोनों ही परख रहे हों। उस साध्वी का स्वरूप देखनेवाले के चित्त के कर्म-बीज से उत्पन्न होता है। इसलिए, यदि किसी को उस साध्वी में एक महिला होने के नाते कुछ अनुचित दिखता है तो वह वस्तुपरक यथार्थ नहीं है, अपितु केवल उस व्यक्ति का आत्मपरक दृष्टिकोण ही है।

अंतर्वस्तु को परिभाषित करने की दूसरी विधि के अनुसार बुद्ध ने उस बुद्ध-धातु के बारे में शिक्षा दी जो सबके पास उपलब्ध वे अन्तर्जात कारक हैं जो उन्हें ज्ञानोदय-प्राप्त बुद्ध बनने में समर्थ बनाते हैं। बुद्ध-धातु के कारण सभी सत्त्व समान हैं, और इसमें स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। बुद्ध-धातु की शिक्षा उनके मठीय समुदाय के पुरुष सदस्यों के लिए वहाँ के नए भिक्षुणी समुदाय को स्वीकार करने में सहायक सिद्ध होगी, और साथ ही साध्वियों को ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर अधिक परिश्रम करने के लिए भी प्रोत्साहित करेगी। इसलिए, यह महत्त्वपूर्ण है कि बुद्ध ने इस विषय पर वज्जी में ही शिक्षा दी, क्योंकि वज्जी एक समतावादी राज्य था, और इसलिए जनसाधारण द्वारा यह शिक्षण समझ पाने की अधिक संभावना थी। इसके अतिरिक्त इस बात को समझना सबके लिए उपयोगी होता कि सभी प्रकार के संघर्ष एवं युद्धों के होते हुए भी सबके - हमारे शत्रुओं के भी - चित्त की मूल प्रकृति निर्मल होती है।

सारांश

बुद्ध ने अपने जीवन में अलग-अलग समय पर विभिन्न विषयों पर और अनेक विधियों से कुशलतापूर्वक शिक्षा दी। उन्होंने अपनी शिक्षाओं का संयोजन तथा विषयों का चयन अवसर के स्थान और समय, तथा अपने श्रोतागण को उनसे निपटने की आवश्यकता को पूरा करने, के अनुरूप किया। इस प्रकार बुद्ध वास्तव में कौशलपूर्ण उपायों में निष्णात थे।

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