चित्त साधना के आठ छंद

(1) ऐसा हो कि इस बात पर विचार करते हुए, कि सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इष्ट-पूरक रत्नों की तुलना में सीमित सत्त्व कितने श्रेष्ठ हैं, मैं सदा सभी सीमित सत्त्वों का सम्मान कर पाऊँ।

(2) ऐसा हो कि जब भी मैं किसी के संपर्क में आऊँ तो मैं अपनेआप को दूसरों से कम आँकूँ और हृदय की गहराई से दूसरों को स्वयं से अधिक महत्त्व दूँ।

(3) ऐसा हो कि मैं जो कुछ भी करूँ अपने चित्त-प्रवाह को नियंत्रित करने में सफल हो पाऊँ, और जिस क्षण पूर्वधारणा या क्लेश की स्थितियाँ प्रकट हों, क्योंकि वे मुझे और दूसरों को दुर्बल बना देती हैं, मैं शक्तिशाली साधनों से उनका सामना कर उन्हें रोक पाऊँ।

(4) ऐसा हो कि जब भी मैं सहज रूप से क्रूर सत्त्वों को देखूँ जो नकारात्मकता और गंभीर समस्याओं के वश में हैं, तो मैं उन्हें दुर्लभ रत्नकोष की तरह संजोकर रख पाऊँ।

(5) ऐसा हो कि जब दूसरे लोग ईर्ष्या-युक्त होकर मेरे साथ बुरा व्यवहार करें, जैसे डाँटना, अपमानित करना, इत्यादि, तो मैं उनकी पराजय को अपने ऊपर ले पाऊँ और जय को उन्हें प्रदान कर पाऊँ।

(6) ऐसा हो कि कोई व्यक्ति जिसकी मैंने सहायता की है और जिससे मुझे बहुत आशाएँ हैं, अकारण ही मुझे हानि पहुँचाए, तो भी मैं उसे एक ज्योतिवलयित गुरु के रूप में देख पाऊँ। 

(7) संक्षेप में, ऐसा हो कि मैं अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी माताओं को वह सब अर्पित कर पाऊँ जिससे उन्हें लाभ एवं सुख की प्राप्ति होगी; और मैं अपनी माताओं की सभी परेशानियों और विपत्तियों को गुप्त रूप से अपने ऊपर स्वीकार कर पाऊँ।

(8) ऐसा हो कि इन सबके दौरान आठ क्षणभंगुर वस्तुओं की धारणाओं के कलंक से अकलुषित उस चित्त के द्वारा, जो सभी दृश्य प्रपंचों को एक भ्रम समझता है, मैं अपने सारे बंधनों से बिना आसक्ति के मुक्त हो पाऊँ।

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