सम्राट सोंग्त्सेन गम्पो
सातवीं शताब्दी में सम्राट सोंग्त्सेन गम्पो ने तिब्बत के पश्चिम में स्थित झ़ंगझ़ुंग राज्य, जहाँ बॉन परम्परा की शुरुआत हुई थी, को जीतकर अपने राज्य में मिलाते हुए तिब्बत के साम्राज्य का विस्तार किया। उस समय प्रचलित विवाह के माध्यम से मैत्री सम्बंध बनाने की प्रथा के अनुसार उसकी अनेक पत्नियाँ थीं, जिनमें से एक चीन से, एक नेपाल से, और एक झ़ंगझ़ुंग से थी। इनमें से प्रत्येक पत्नी अपने यहाँ की परम्परा से जुड़े ग्रंथ लेकर मध्य तिब्बत आई थी, और इसे ही सामान्यतया तिब्बत में बौद्ध धर्म की शुरुआत के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा ईसा पूर्व पहली शताब्दी में ग्रंथों के आकाश से उतरने की पौराणिक कथा का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु इन दोनों में से जो भी हुआ हो, इस शुरुआती काल में तिब्बती समाज पर बौद्ध धर्म का प्रभाव बहुत ही कम या लगभग नहीं था।
सोंग्त्सेन गम्पो एक लिखित भाषा विकसित करना चाहता था, और इसलिए उसने अपने मंत्री थोन्मि सम्भोट को खोतान भेजा, जोकि तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में रेशम मार्ग, जहाँ तिब्बती पर्वत श्रृंखला तिब्बती पठार से घटते-घटते समुद्र तल से भी नीचे चली जाती है, पर स्थित एक शक्तिशाली बौद्ध साम्राज्य था। इसके आगे टकलामकान जिसका तुर्की भाषा में अर्थ होता है “आप अंदर जा सकते हैं किन्तु बाहर नहीं आ सकते”, का सुंदर लेकिन दुर्जेय रेगिस्तान स्थित है। आज यह इलाका चीन का शिंजियांग प्रांत है, लेकिन सोंग्त्सेन गम्पो के शासन काल के समय रेगिस्तान के शुरु होने से ठीक पहले पहाड़ों तलहटी वाला इलाका खोतान हुआ करता था।
इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव था और यह क्षेत्र मुख्यतः ईरानी संस्कृति से प्रभावित था। वहाँ की भाषा का सम्बंध ईरान की भाषाओं से था, जिनका तिब्बत पर व्यापक प्रभाव था जिसका उल्लेख लिखित इतिहास में सामान्य तौर पर बल देकर नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए तिब्बत की वर्णमाला की व्युत्पत्ति दरअसल खोतान लिपि से हुई है जिसे संस्कृत वर्णमाला को अनुकूलित करके तैयार किया गया था। हुआ यूँ कि थोम्नि सम्भोट जिन खोतानी शिक्षकों से मिलने के लिए जा रहा था, वे उस समय कश्मीर में थे, और खोतान पहुँचने के लिए कश्मीर से होकर गुज़रना पड़ता था। इसी कारण से अक्सर ऐसा कहा जाता है कि तिब्बती लिपि कश्मीरी मूल की लिपि है, किन्तु इतिहास का विस्तृत विश्लेषण करने पर हमें पता चलता है कि ऐसा नहीं है। इसके अलावा, तिब्बती भाषा में अनुवाद करने की पद्धति भी शब्दों के खंड करके अलग-अलग शब्दांशों को अर्थ देने की खोतानी शैली से बहुत प्रभावित थी।
उस समय तक तिब्बत में बौद्ध धर्म का बहुत अधिक विकास नहीं हुआ था। ऐतिहासिक वर्णननों में कहा गया है कि तिब्बत की कल्पना ज़मीन पर चित पड़ी एक राक्षसी के रूप में की गई थी, और उसकी हानिकारक शक्तियों को वश में करने के लिए उसके शरीर पर स्थित निश्चित एक्यूपंक्चर बिन्दुओं पर मन्दिरों का निर्माण किए जाने की आवश्यकता थी। इसलिए एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र में तेरह मन्दिरों का निर्माण किया गया ताकि तिब्बत के राक्षसी स्वभाव को नियंत्रित किया जा सके। इन मन्दिरों और राजा की पत्नियों द्वारा अपने साथ लाई गई प्रतिमाओं के साथ ही तिब्बत में बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई।
कालांतर में चीन और खोतान के साथ, और फिर भारत के साथ और अधिक सम्पर्क बढ़ा। झ़नझ़ुंग राज्य की राजकुमारी अपने साथ बॉन धर्म के बहुत से धार्मिक संस्कार भी लेकर आई, हालाँकि ये अनुष्ठान उस धर्म से बहुत भिन्न थे जिसे आज हम बॉन धर्म के रूप में जानते हैं।
सम्राट त्रिसाँग देत्सेन
इसके लगभग 140 वर्ष बाद आठवीं शताब्दी के मध्य में सम्राट त्रिसाँग देत्सेन ने साम्राज्य का विस्तार करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया और उसने चीन और विभिन्न तुर्की साम्राज्यों के साथ कई युद्ध लड़े। एक भविष्यवाणी से प्रभावित होकर उसने नालंदा के महान मठाध्यक्ष शांतरक्षित को न्योता भेजा कि वे भारत से तिब्बत आकर शिक्षा प्रदान करें।
उस समय शासन में अनेक राजनैतिक गुट सक्रिय थे जिनमें से एक गुट रूढ़िवादी और विदेशियों का विरोध करने वाला था और सम्राट द्वारा शांतरक्षित को आमंत्रित किया जाना उस गुट को बिल्कुल भी पसंद नहीं था। दुर्भाग्य से जब शांतरक्षित तिब्बत पहुँचे तभी वहाँ चेचक की महामारी फैल गई, और इसका दोष उनके सिर पर मढ़ कर उन्हें तिब्बत से बाहर निकाल दिया गया।
शांतरक्षित भारत वापस लौट आए और फिर उन्होंने सम्राट पर प्रभाव डाल कर गुरु रिंपोशे, पद्मसंभव को तिब्बत जाने के लिए निमंत्रित करवा लिया। कथा में बताया गया है कि वे राक्षसों को वश में करने के लिए आए थे, किन्तु वास्तव में वे चेचक की महामारी या उसे उत्पन्न करने वाले राक्षसों से मुक्ति दिलाने के लिए गए थे। इन सब बातों के ऐतिहासिक संदर्भ मिलते हैं, इसलिए यह कोई कोरी काल्पनिक कथा नहीं है। गुरु रिंपोशे तिब्बत पहुँचे और महामारी खत्म हो गई, और इसके बाद शांतरक्षित को एक बार फिर तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया गया। सम्राट त्रिसाँग देत्सेन ने उन दोंनों के साथ मिलकर साम्ये का निर्माण करवाया, जोकि तिब्बत में बनाया गया पहला मठ था।
इससे पहले वहाँ मन्दिर हुआ करते थे, किन्तु दीक्षाप्राप्त भिक्षुओं वाले कोई मठ नहीं थे। गुरु रिंपोशे ने पाया कि वहाँ के लोग अधिक उन्नत शिक्षाओं को प्राप्त करने की दृष्टि से बिल्कुल भी ग्रहणशील या परिपक्व नहीं थे, और इसलिए उन्होंने साम्ये मठ की दीवारों और स्तंभों में और तिब्बत और भूटान के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जोग्चेन, उनकी परम्परा से जुड़ी सर्वोच्च तंत्र शिक्षाओं के ग्रंथ दबवा दिए। न्यिंग्मा परम्परा की शुरुआत उन्हीं से हुई।
शुरुआत में साम्ये मठ में विद्वानों के तीन समूह थे – चीन के विद्वान, भारतीय विद्वान और झ़ंगझ़ुंग विद्वान। उन्होंने अपनी-अपनी भाषाओं से या भाषाओं में सामग्री का अनुवाद करने का कार्य किया। बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म का दर्जा दे दिया गया, और चीनी सम्राट देज़ाँग हर एक वर्ष बाद दो चीनी विद्वानों को साम्ये भेजता था। शांतरक्षित ने पूर्वानुमान लगा लिया कि इस बात को लेकर झगड़े उत्पन्न होंगे और इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि भविष्य में झगड़ों और विवादों के निपटान में सहायता करने के लिए तिब्बत उनके शिष्य कमलशील को आमंत्रित करे।
और अधिक संख्या में शिक्षकों को अध्ययन के लिए भारत भेजा गया, भारत से भी दूसरे शिक्षक अध्यापन के लिए तिब्बत आए। शासनतंत्र में रूढ़िवादी लोगों का गुट इस आदान-प्रदान से बहुत नाखुश था, क्योंकि वे इसे बॉन धर्म के अनुयायियों के उत्पीड़न के रूप में देखते थे। वास्तव में धार्मिक उत्पीड़न का उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु यहाँ “बॉन” से आशय शासन संभालने वाले लोगों से है, इस दृष्टि से यह गुट झ़ंगझ़ुंग राज्य का गुट ही अधिक था। उस समय तक बॉन धार्मिक संस्कार ही राजकीय धार्मिक संस्कारों के रूप में प्रचलित थे, और इस दृष्टि से यह बात स्पष्ट है कि यह कोई धार्मिक मुद्दा न होकर राजनैतिक मुद्दा था। लेकिन बहुत बॉन मतावलम्बियों भी अपने ग्रंथों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से ज़मीन में गाड़ दिया करते थे, इससे यह बात ज़ाहिर होती है कि वे मानते थे कि उनकी परम्परा खतरे में है। एक बार मैं तूवा, साइबेरिया गया था जहाँ के लोग तिब्बती बौद्ध धर्म की मंगोलियाई परम्परा को मानते हैं। स्टालिन के शासन के दिनों में वहाँ के लोगों ने अपने सभी ग्रंथों को पहाड़ी गुफाओं में गाड़ कर छुपा दिया था। ऐतिहासिक दृष्टि से हाल के समय की इस घटना से इस बात को समझा जा सकता है कि ग्रंथों को गाड़कर छुपाना और ऐसा करने की आवश्यकता पड़ना कभी-कभी बहुत वास्तविक कारणों से होता है, यह कोई कल्पित कथा नहीं है।
आखिरकार, झ़ंगझ़ुंग गुट को निकाल बाहर किया गया, और इसके अलावा वहाँ की जनता चीनी लोगों को संदेह की दृष्टि से भी देखती थी। उन्होंने निर्णय किया कि किसी भारतीय भिक्षु और किसी चीनी भिक्षु के बीच एक बड़ा शास्त्रार्थ करवाया जाए ताकि यह तय किया जा सके कि तिब्बती लोगों को कौन सी परम्परा को अपनाना चाहिए। शांतरक्षित ने इसके लिए भारतीय परम्परा के सबसे निपुण भिक्षु के रूप में कमलशील के नाम की सिफारिश की और उन्हें एक ऐसे ज़ेन भिक्षु से मुकाबला करने के लिए चुना गया था जिसे शास्त्रार्थ का कोई अभ्यास नहीं था, और इसलिए शुरू से ही यह बात स्पष्ट थी कि मुकाबला कौन जीतने वाला था। और फिर, तिब्बती लोग पहले ही चीनी लोगों को निकाल बाहर करना चाहते थे, और इसलिए भारतीयों को प्रतिस्पर्धा में विजयी घोषित किया गया। चीनी विद्वान विदा हुए और तिब्बत में भारतीय परम्परा को अपना लिया गया।
शब्दावली और शैलियों का मानकीकरण
ग्रंथों के अनुवाद का काम चलता रहा, कुछ ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा से किया गया, किन्तु अधिकांश का अनुवाद संस्कृत भाषा से किया गया। नवीं शताब्दी में एक और महान राजा सम्राट त्री रल्पचन के शासनकाल में एक शब्दकोष तैयार किया गया और शब्दावलियों और शैलियों का मानक रूप तैयार किया गया। उसने आदेश दिया कि इस प्रारम्भिक शब्दकोश में किसी भी प्रकार की तांत्रिक सामग्री को शामिल न किया जाए क्योंकि उसके कारण अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न होने की सम्भावना थी।
नवीं शताब्दी के मध्य में त्री रल्पचन ने आदेश दिया कि सात परिवार मिलकर एक भिक्षु के भरण-पोषण का दायित्व संभालें – निष्पक्ष भाव से हम यह कह सकते हैं कि वह एक धार्मिक कट्टरवादी था। करों के रूप में जमा होने वाला सारा धन शासनतंत्र को मिलने के बजाए भिक्षुओं के भरण-पोषण और मठों के रखरखाव के लिए जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप देश और शासनतंत्र आर्थिक रूप से तबाह हो गया। उसने भिक्षुओं को मंत्री भी नियुक्त किया, और मठों का प्रभुत्व बढ़ता चला गया।
अगले शासक, सम्राट लंदरमा को तिब्बत के असली हौआ के रूप में जाना जाता है क्योंकि उसने बौद्धों का बहुत उत्पीड़न किया। यदि हम स्थिति को देखें, तो उसने मठों को बंद करवा दिया क्योंकि वे बहुत शक्तिशाली हो चुके थे और भिक्षु मंत्रियों को शासकीय परिषद से निकाल बाहर किया। किन्तु उसने किसी भी मठ के पुस्तकालयों को नष्ट नहीं किया – जब 150 वर्ष बाद अतिश वहाँ पहुँचे तो वे वहाँ स्थापित किए गए पुस्ताकलयों को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इससे पता चलता है कि जैसा इतिहास के वर्णनों में उल्लेख किया गया है, वैसा धार्मिक उत्पीड़न दरअसल वहाँ नहीं हुआ था।
किन्तु सभी मठों को बंद कर दिए जाने से बौद्ध धर्म के लिए बड़ी बाधाएं उत्पन्न हो गई थीं। देश टुकड़ों में बंट गया था, और क्योंकि सभी भिक्षुओं को गृहस्थ बनने के लिए बाध्य कर दिया गया था, इसलिए मठों की गुरु परम्परा विच्छिन्न हो गई थी और उसे नए सिरे से प्रारम्भ करना पड़ा। चूँकि बुनियादी शिक्षाओं और साधनाओं को बनाए रखने के लिए कोई मठीय संस्था उपलब्ध नहीं थी, इसलिए सब कुछ एक हद तक गुप्त रूप से या निजी स्तर पर ही चलता रहा। अनेक प्रकार के भ्रम और दुरुपयोग की स्थिति उत्पन्न हो गई, विशेष तौर पर तंत्र को लेकर, लोग तंत्र को, विशेष तौर पर उसके यौन पक्ष को और चेतना की मुक्ति सम्बंधी विचार को उसके शाब्दिक अर्थ में ग्रहण करने लगे। अत्यधिक भ्रम के कारण लोग बलि देने लगे और दूसरों का वध करने लगे।
अनुवाद के नए युग का आरम्भ
दसवीं शताब्दी के अन्त में एक बार फिर पश्चिमी तिब्बत में एक नए राज्य का आविर्भाव हुआ और एक बार फिर शिक्षाओं का शुद्धिकरण करने में रुचि दिखाई गई। न्यिंग्मा परम्परा में ढेरों प्रकार के भ्रम व्याप्त हो गए थे, और इसलिए कुछ और अनुवादकों को भारत और नेपाल भेजा गया, जिसके साथ ही अनुवाद के एक नए युग का प्रारम्भ हुआ। दरअसल यह एक दृष्टि से नया “प्रसार” युग अधिक था। इस नई लहर के साथ ही कदम, शाक्य और काग्यू परम्पराओं की शुरुआत हुई। यदि हमें काग्यूपा जैसे किसी शब्द के पीछे “पा” लगा हुआ दिखाई देता है तो उसका अर्थ होता है कि वह व्यक्ति उस परम्परा को मानने वाला है, हालाँकि गैर-बौद्ध लोग आजकल इस आधार पर भेद नहीं करते हैं।
कदम और गेलुग
कदम परम्परा की शुरुआत बंगाल के महान आचार्य अतिश से हुई। इस परम्परा में लोजोंग की चित्तसाधना की शिक्षाओं को विशेष महत्व दिया गया। यह परम्परा आगे चलकर तीन गुरु परम्पराओं में बंट गई जिन्हें बाद में 14वीं और 15वीं शताब्दियों में त्सोंग्खापा ने मिलाकर एक किया जिन्होंने मिलकर गेलुग परम्परा का रूप धारण किया।
न्यिंग्मा, शाक्य और काग्यू परम्पराओं में मामूली भिन्नताओं को छोड़कर अधिकांशतः एक ही प्रकार से व्याख्याएं की जाती हैं। त्सोंग्खापा सचमुच बड़े उग्र सुधारवादी थे, और उन्होंने मूल रूप से बौद्ध दर्शन में सभी बातों की नए सिरे से दोबारा व्याख्या की। त्सोंग्खापा ने बहुत कम उम्र से ही अध्ययन शुरू किया और ग्रंथों के सभी अनुवादों का अध्ययन करके यह मालूम किया कि किन-किन हिस्सों का अनुवाद त्रुटिपूर्ण ढंग से किया गया था। वे अनुवाद में अशुद्धियाँ होने की बात को तर्क और विभिन्न धार्मिक ग्रंथों के स्रोतों के प्रमाण की सहायता से सिद्ध करते थे।
इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ कठिन भारतीय ग्रंथों के तिब्बती भाषा में अनुवादों की गहन पुनरीक्षा हुई। कई पूर्व लेखकों की लीक से हटकर उन्होंने दुरूह रचनाओं को छोड़कर आगे बढ़ जाने का काम नहीं किया। त्सोंग्खापा को उन कठिन रचनाओं के अर्थ को समझने और स्पष्ट करने में विशेष आनन्द मिलता था। इस प्रकार उन्होंने लगभग हर विषय की मौलिक रूप से अलग व्याख्या प्रस्तुत की। दरअसल त्सोंग्खापा एक महान क्रांतिकारी थे। उनके अनेक शिष्यों में शामिल एक भिक्षु आगे चलकर पहले दलाई लामा बने। यह नाम उन्हें उनकी मृत्यु के बाद तीसरे दलाई लामा के समय में दिया गया। “दलाई” एक मंगोल नाम है जिसका अर्थ “महासागर” होता है।
लगभग 150 वर्षों तक एक भीषण गृह-युद्ध का दौर चला, और फिर मंगोलों ने आकर उस गृह-युद्ध को समाप्त किया। उस समय मंगोलों ने पाँचवें दलाई लामा को तिब्बत का संयुक्त राजनैतिक और धार्मिक नेता बना दिया, और उनके शिक्षक चौथे पांचेन लामा के रूप में विख्यात हुए। वर्ष 2011 में 14वें दलाई लामा ने दलाई लामाओं द्वारा किसी राजनैतिक पद को धारण किए जाने की प्रथा को समाप्त कर दिया।
शाक्य
दसवीं शताब्दी के अन्त में नए प्रसार युग से उत्पन्न होने वाली दूसरी परम्परा शाक्य परम्परा थी जिसकी गुरु परम्परा विरूप और कुछ दूसरे अनुवादकों से शुरू हुई। विरूप की मुख्य शिक्षा को “लामद्रे” के नाम से जाना जाता है – लाम मार्ग को कहा जाता है और द्रे परिणाम को कहते हैं। “मार्ग और उसके परिणामों” की यह पद्धति हेवज्र की तांत्रिक परम्परा के साथ लाम-रिम की सामग्री का मिलाजुला रूप है।
शाक्य आचार्यों की दरअसल एक परिवार परम्परा होती है और शाक्य गुरु श्रृंखला हमेशा वंशानुगत होती है। 13वीं शताब्दी में मंगोलों के अधीन तिब्बत का पुनःएकीकरण किए जाने के बाद लगभग एक शताब्दी तक राजनैतिक दृष्टि से शाक्य परिवार ने तिब्बत पर शासन किया। ऐसा इसलिए सम्भव हो पाया क्योंकि शाक्य पंडित, जो सम्भवतः सबसे विख्यात शाक्य आचार्य थे, ने मंगोलों के साथ निकट सम्बंध स्थापित किए, और वे अपने भतीजे फाग्पा के साथ कुबला खान के निजी शिक्षक बन गए थे।
केवल तिब्बती लोग और उइगुर – तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में स्थित शिंजियांग क्षेत्र में रहने वाले तुर्की जाति के लोग – ही ऐसे थे जिन्होंने चंगेज़ खान के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी थी, और इसलिए उन्हें अकेला छोड़ दिया गया। उइगुर जाति के लोगों ने अपनी लेखन पद्धति और राज्य के संचालन के लिए प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से पहली बार मंगोलों को बौद्ध धर्म से परिचित कराया, जबकि तिब्बतियों ने बौद्ध धर्म का और अधिक संगठित रूप प्रस्तुत किया। इन्हीं परिस्थितियों के दृष्टिगत फाग्पा और उसके बाद वाले शाक्य लामाओं को लगभग एक शताब्दी तक तिब्बत की राजनैतिक सत्ता सौंपी गई थी।
शाक्य गुरु परम्परा में भी न्गोर, त्सार और जोनांग की उप-परम्पराएं हैं, जिनमें से जोनांग मत को कभी-कभी तिब्बती बौद्ध धर्म का पाँचवां मत कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक उप-परम्परा के अपने-अपने आचार्य हुए हैं।
काग्यू
काग्यू परम्परा में दो प्रमुख गुरु-परम्पराएं हैं, शांग्पा काग्यू और दाग्पो काग्यू। शांग्पा काग्यू की उत्पत्ति तिब्बती आचार्य क्यूंग्पो नाल्जोर से हुई, जो योग के छह अभ्यासों के तीनों समुच्चयों के ज्ञाता थे। इन योगों को दरअसल “धर्म” या “शिक्षाएं” कहा जाना चाहिए, किन्तु इनके लिए “योग” शब्द ही अधिक प्रचलित है। एक समुच्चय “नरोपा के छह योग” नरोपा से प्राप्त है, किन्तु शेष दो समुच्चय महान महिला साधिकाओं – निगुमा और सुखसिद्धि से प्राप्त हुए हैं। शांग्पा काग्यू गुरु परम्परा इन छह शिक्षाओं के तीन समुच्चयों के उत्तराधिकारियों का निश्चय करती है। दिवंगत कालू रिंपोशे, जिन्होंने पश्चिम जगत में बहुत ख्याति अर्जित की, इसी परम्परा से थे।
दाग्पो काग्यू परम्परा तिलोपा, नरोपा, मारपा, मिलारेपा और गम्पोपा की श्रृंखला से आई है। गम्पोपा ने विभिन्न भारतीय महासिद्धों की महामुद्रा शिक्षाओं को कदम्पा लोजोंग शिक्षाओं के साथ मिश्रित किया। गम्पोपा से दाग्पो काग्यू की 12 श्रृंखलाएं प्रारम्भ हुईं – उनके शिष्यों और उनके एक शिष्य पगमोद्रुपा के शिष्यों से प्रारम्भ बारह काग्यू परम्पराएं। इनमें से कर्म काग्यू का विस्तार सबसे व्यापक है और कर्मापा इसके प्रमुख होते हैं। इसके अलावा द्रुग्पा काग्यू और द्रिगुंग काग्यू परम्पराएं भी हैं, जो वर्तमान समय में पश्चिम जगत में भी मिलती हैं।
न्यिंग्मा
जैसाकि हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं, प्राचीन न्यिंग्मा परम्परा के आचार्यों ने जोग्चेन ग्रंथों को गाड़ कर छुपा दिया था, किन्तु बाकी के ग्रंथों का प्रसार होता रहा, हालाँकि इस प्रक्रिया में बहुत से भ्रम भी प्रसारित हुए। उन्होंने लगभग एक शताब्दी बाद 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपने ग्रंथों को उस समय निकालना शुरू किया जब बॉन मतावलम्बियों ने अपने ग्रंथों को खोदकर निकालना शुरू किया। इसी अवधि में भारत से बहुत से शिक्षकों का भी आगमन हुआ।
अनेक ग्रंथ खोज कर निकाले गए और यह समझ पाना कठिन था कि उन सभी को एक-दूसरे के अनुरूप कैसे बनाया जाए। महान न्यिंग्मा आचार्य लोंग्चेन्पा, जो वर्तमान न्यिंग्मा परम्परा के जनक कहे जाते हैं, ने इन ग्रंथों की अशुद्धियों को दूर करके उनका मानक रूप तैयार किया। इसमें उत्तरी कोष गुरु परम्परा और दक्षिणी कोष गुरु परम्परा की दो शाखाएं मिलती हैं। न्यिंग्मा परम्परा दूसरी परम्पराओं से ज्यादा खंडित परम्परा है, और इसकी रचना किसी एक विशेष प्रकार से नहीं हुई है।
रीमे आन्दोलन
तिब्बत में बौद्ध धर्म के विकासक्रम में एक और प्रमुख घटना रीमे (सम्प्रदाय निरपेक्ष) आन्दोलन के रूप में हुई जिसे 19वीं शताब्दी में कई लोगों ने शुरू किया जिनमें सबसे प्रमुख कोंग्त्रुल रिंपोशे थे। इसका उद्देश्य ऐसी अप्रसिद्ध परम्पराओं को संरक्षित करना था जो समाप्त होती जा रही थीं और जिनके बारे में चारों परम्पराओं में से किसी में भी जानकारी आसानी से उपलब्ध नहीं थी।
रीमे आन्दोलन ने जोनांग परम्परा को पुनर्जीवित करके उसे महत्व प्रदान किया जिसके सैद्धांतिक दृष्टिकोण के कारण उसका सबसे अधिक उत्पीड़न और दमन किया गया था। इसके कई राजनैतिक कारण भी थे क्योंकि यह परम्परा गृह-युद्ध के समय एक गुट के साथ जुड़ी रही थी। कुछ कारणों से रीमे आन्दोलन का आविर्भाव, विशेष तौर पर खाम में, केंद्रीय शासन में गेलुग परम्परा के बढ़ते प्रभाव की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।
सारांश
कई शताब्दियों तक अनेक शिक्षकों और अनुवादकों के प्रयासों के परिणामस्वरूप मुख्यतः भारत से आए तिब्बती बौद्ध धर्म का विकास चार प्रमुख परम्पराओं के रूप में हुआ। न्यिंग्मा की उत्पत्ति प्राचीन अनुवाद युग से हुई, जबकि शाक्य, काग्यू और कदम, जिन्होंने बाद में गेलुग का रूप धारण किया, नवीन अनुवाद युग के समय विकसित हुए। हालाँकि वर्तमान समय में तिब्बत में बौद्ध धर्म बहुत कठोरतापूर्वक प्रतिबंधित है, लेकिन भारत, नेपाल और पूरे हिमालय क्षेत्र में वह फल-फूल रहा है, और दुनिया के बाकी क्षेत्रों में भी धीरे-धीरे उसका प्रसार हो रहा है।