अपने अस्तित्व सम्बन्धी अज्ञान
अभी, 21-वीं सदी के प्रारम्भ में, हम उस काल में रह रहे हैं जहाँ भ्रांत सूचना का बोल बाला है तथा अधिकतर लोग तथाकथित "वैकल्पिक सत्य" में विश्वास करते हैं। बुद्ध ने सहस्त्रों वर्ष पहले जिस दुःख के वास्तविक कारण को बताया था, उसका अभी विस्फोट हो रहा है - अनभिज्ञता, जिसे कभी-कभी "अज्ञान" भी कहा जाता है। इस अनभिज्ञता से अभिप्राय यह अज्ञान नहीं है कि इंटरनेट कैसे काम करता है। अपितु, वह हमारे व्यवहार के दीर्घ-कालीन प्रभाव के बारे में अनभिज्ञता एवं विभ्रांति है, और इसमें अन्तर्निहित है वास्तविकता की अनभिज्ञता एवं भ्रान्ति, विशेष रूप से इस विषय में कि हम कैसे अस्तित्वमान हैं। इस स्थिति को निकृष्टतर बनाता है हमारा विश्वास कि हमारा भ्रामक दृष्टिकोण पूर्ण रूप से सत्य है।
आइए हम इस स्थिति को कुछ निकट से देखें। हम सब ने उस स्वर का अनुभव किया है जो हमारे मन में "मैं मैं मैं" करता है। उस स्वर के आधार पर हम यह स्वतः विश्वास कर लेते हैं कि "मैं" नाम की एक ज्ञेय इकाई है जो हमारे शरीर एवं मन से भिन्न है और जो ये सारी बातें करती है। इस भ्रांत विश्वास की सम्पुष्टि होती है क्योंकि हम जब भी अपने मन में शिकायत करते हैं कि "मेरे" साथ क्या हो रहा है या यह सोचते हैं कि "मैं" अब आगे क्या करने वाला हूँ, तो ऐसा लगता है कि अंदर कहीं एक ठोस इकाई "मैं" है जिसके बारे में हम चिंतित हैं। निश्चित रूप से हम अस्तित्वमान हैं; बुद्ध इसका खंडन नहीं करते। परन्तु समस्या यह है कि हम ऐसे अस्तित्वमान नहीं हैं जैसा हमें लगता है। हम उस तथ्य से अनभिज्ञ हैं; हम इस वैकल्पिक वास्तविकता में दृढ़ता से विश्वास करते हैं जिसके कारण हम पूर्णतया उद्भ्रांत रहते हैं।
स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने हेतु अशांतकारी मनोभावों तथा बाध्यकारी व्यवहार के निष्फल प्रयास
हमारी अपने विषय में इस भ्रांत धारणा में कुछ गड़बड़ है इसका स्पष्ट संकेत यह है कि जब हम यह विश्वास कर लेते हैं कि यह सत्य से मेल खाती है, हम असुरक्षा का दुःख अनुभव करते हैं। स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने के निरर्थक प्रयास में, हमें लगता है कि हमें स्वयं को सिद्ध करने, अपनी पैरवी करने, या अपना अधिकार जताने की आवश्यकता है। इस अनुभूति के कारण हमारे भीतर अशांत मनोभाव उत्पन्न होते हैं:
- अपने को सुरक्षित अनुभव करवाने के लिए कुछ प्राप्त करने की उत्कट इच्छा होना
- विद्वेष एवं क्रोध से किसी वस्तु या व्यक्ति को अपने से दूर हटाने का विचार होना ताकि, जैसे पहले कहा गया है, हम सुरक्षित अनुभव कर सकें
- मूढ़ता जिसके कारण हम अपने चारों ओर दीवारें खड़ी करते हैं ताकि हम उनके भीतर सुरक्षित अनुभव कर सकें।
इन अशांतकारी मनोभावों के कारण हम अपने चित्त की शान्ति एवं आत्म-नियंत्रण खो बैठते हैं, जिससे हमारी पिछली प्रवृत्तियों एवं आदतों के आधार पर कुछ कहने या करने की प्रेरणा सक्रिय हो जाती है। फिर, एक बाध्यकारी कार्मिक तीव्र इच्छा हमें वास्तव में वैसा करने या कहने के लिए विवश कर देती है।
हमारे भावात्मक उतार-चढ़ावों को बनाए रखने के वास्तविक कारण के रूप में अनभिज्ञता, अशांतकारी मनोभाव, तथा बाध्यकारी व्यवहार
कार्मिक कार्य-कारण हमारे व्यवहार के लघु-अवधि परिणामों पर नहीं, अपितु दीर्घ-कालिक परिणामों पर केंद्रित होते हैं। उदाहरण के लिए, अपने बारे में असुरक्षित अनुभव करने के कारण हम यह मान लेते हैं कि हमारी सोशल मीडिया की पोस्ट्स पर " लाइक" की उत्कट इच्छा हेतु, उन्हें पा लेने से ही हमारे अस्तित्व एवं आत्म-प्रतिष्ठा की सम्पुष्टि होगी। यदि आप सोशल मीडिया में रूचि रखते हैं और अपनी सेल्फीज़ उस पर डालते हैं, तो आप अपने अनुभव को ही परख लीजिए। प्रतिदिन आपको कितनी बार अपने मोबाइल पर यह देखने की बाध्यकारी तीव्र इच्छा होती है कि कितने "लाइक" मिले हैं? उसके बाद आप फिर से अपने मोबाइल को दोबारा कब जाँचते हैं? क्या आपके पास कभी भी यथेष्ट "लाइक" होती हैं? क्या दिन-भर अपने मोबाइल की बाध्यकारी ढंग से बार-बार जाँच करते रहना कोई सुखद मनोदशा है? यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि "लाइक" को देखने का दीर्घ-कालिक प्रभाव दुःख भुगतना है। यह इस मिथ्या वाक्य पर आधारित है कि कोई ठोस, स्वतंत्र रूप से विद्यमान "मैं" है जिसे यथेष्ट "लाइक" के द्वारा सुरक्षित बनाया जा सकता है।
चाहे प्रेम जैसी सद्प्रेरणा से ही सही, जिससे हम अपनी वयस्क संतानों की बाध्यकारी रूप से सहायता करते हैं, यदि वह इस मूढ़ भ्रांत धारणा पर आधारित है कि लाभप्रद या अभीप्सित होने का भाव हमें सुख प्रदान करेगा, तो जो भी आनंद हम अनुभव करेंगे वह संतोषकारी नहीं होगा। संक्षेप में, अपने भावात्मक उतार-चढ़ाव को बनाए रखने का वास्तविक कारण है हमारा अपने तथा अन्य लोगों के, वस्तुतः सभी प्राणियों के, अस्तित्व तथा उनके द्वारा उत्पन्न अशांतकारी मनोभावों और कार्मिक तीव्र इच्छाओं एवं बाध्यकारी व्यवहार के विषय में हमारी अनभिज्ञता एवं भ्रान्ति।
हमारे अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म के वास्तविक कारण अनभिज्ञता, अशांतकारी मनोभाव, तथा बाध्यकारी व्यवहार हैं
बुद्ध ने बताया कि दुःख एवं असंतोषकारी सुख के दुःखों का अनुभव करने हेतु एक सीमित शरीर और चित्त के साथ अनभिज्ञता, अशांतकारी मनोभाव, एवं कार्मिक भावोद्रेक भी हमारे वर्तमान तथा भावी अस्तित्व को बाध्यकारी रूप से बनाए रखने के वास्तविक कारण हैं। जैसा बुद्ध ने हमें समझाया इन भावनाओं के प्रति हमारे भ्रांत मनोभाव ही हमारे बाध्यकारी रूप से आवर्ती अस्तित्व , हमारे "संसार", का वास्तविक कारण हैं।
जब हमें अस्थायी आनंद मिलता है तो हमें उसे अनंतकाल तक खींचने की प्रबल इच्छा होती है यद्यपि वह व्यर्थ है क्योंकि वह आनंद कभी भी अनंत नहीं होता। जब हम दुखी होते हैं तो हमारी प्रबल इच्छा होती है कि वह दुःख हमेशा के लिए चला जाए, यद्यपि हमारा बाध्यकारी व्यवहार उसे केवल उत्तरोत्तर बढ़ाता ही रहेगा। चाहे हम तेज़ दुःख-निवारक ही क्यों न ग्रहण कर लें ताकि हमें कुछ भी अनुभव न हो, या चाहे किसी एकाग्र दशा में खो जाएँ जहाँ हमें कुछ भी अनुभव न हो, हमारी ऐसी भावावस्था के लिए प्रबल इच्छा रहती है जहाँ कुछ भी पतनोन्मुख नहीं होता, यद्यपि वह अनिवार्य रूप से हो ही जाता है।
इसके अतिरिक्त, हम "मैं बेचारा" के "मैं" पर ही मोहित हो जाते हैं, जैसे वह कोई ठोस इयत्ता हो: ”मैं इस सुख से दूर नहीं होना चाहता; मैं इस दुःख से दूर होना चाहता हूँ; मैं नहीं चाहता इस शून्यता की अनुभूति कहीं कम हो जाए।" हमारी मृत्यु के समय "मैं" के विषय में हमारी भ्रांत धारणा के प्रति यह अटकाव और हमारी भावनाओं के प्रति उत्पन्न होते ये अशांतकारी मनोभाव एक कार्मिक आवेग को जन्म देते हैं, एक ऐसी बाध्यकारी तीव्र मानसिक इच्छा, जो चुम्बक की तरह हमारे चित्त और इन अशांतकारी मनोभावों को उस काया की ओर खींचती है जिसमें हमारा पुनर्जन्म होना है, ताकि हम उस काया में फिर से जन्म लें और जीवित रह सकें। यह कुछ-कुछ जीवित बने रहने की बौद्ध-धर्मी व्याख्या के समान है।
तो, हमारी भ्रांत मनोदृष्टियाँ ही हमारे दुःख के वास्तविक कारण हैं। सच तो यह है कि हमारे दुःख की अनियंत्रित आवृत्ति को हम स्वयं बनाए रखते हैं। विशेष रूप से हमारे निरंतर पुनर्जन्म के सन्दर्भ में इसके चार आयाम हैं। इन्हीं आयामों के द्वारा हम यह समझ सकते हैं कि वे किस प्रकार सामान्य रूप से हमारे दुःख के वास्तविक कारण हैं:
- पहले, हमारे अस्तित्वमान होने सम्बन्धी अनभिज्ञता के साथ ही अशांतकारी मनोभावों एवं बाध्यकारी कार्मिक भावोद्रेक हमारे दुःखों के वास्तविक कारण हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे दुःख अकारण हैं, अथवा किसी अनुचित कारण से हैं, जैसे ज्योतिषीय विश्लेषण या कोरा दुर्भाग्य।
- दूसरा, वे प्रत्येक स्थिति में हमारे दुःखों की आवृत्ति के मूल कारण हैं। हमारे दुःख हर स्थिति में केवल एक ही कारण से नहीं होते, अपितु कई कारणों और परिस्थितियों के मिश्रण से होते हैं।
- तीसरा, वे हमारे दुःखों के सशक्त आतंरिक उत्पादक हैं। हमारे दुःख बाहरी स्रोतों से नहीं आते, और न ही किसी सर्वशक्तिमान देवी-देवता से।
- चौथा, वे हमारे दुःखों के सामने आने की शर्तें हैं। दुःख सांसारिक गतिविधियों से नहीं, अपितु उनके प्रति हमारी भ्रांत धारणाओं से उत्पन्न होते हैं।
सारांश
एक बार जब हमें पता चल जाए कि हमारी आवर्ती समस्याओं और दुःखों का - जिनका सामना हम न चाहते हुए भी कर रहे हैं - वास्तविक कारण हमारे प्रति हमारी मिथ्या वास्तविकता का प्रक्षेपण एवं हमारी अनभिज्ञता कि ये, तथा इनके द्वारा उत्पन्न अशांतकारी मनोभाव एवं बाध्यकारी व्यवहार, केवल काल्पनिक हैं, तो क्या यह उचित न होगा कि हम इन उपद्रवियों को सदा के लिए स्वयं से दूर करने की ओर कार्यरत हो जाएँ?