लोकेश्वर को श्रद्धांजलि
मैं अपने त्रिकाय से सर्वोच्च गुरुओं और संरक्षक अवलोकितेश्वर को सदा सादर प्रणाम करता हूँ, जो दृश्य-प्रपंच को अनादि-अनंत जानते हैं और गामिनों के हितार्थ ही कर्म करते हैं।
पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्त बुद्धजन, जो हितलाभ एवं आनंद के स्रोत हैं, ज्योति वलयित धर्म को (स्वयं) साकार करने के बाद ही प्रकट हुए हैं। इसके अतिरिक्त, चूंकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे इसके प्रयोग के बारे में जानते हैं, मैं एक बोधिसत्त्व के अभ्यास की व्याख्या करूँगा।
मृत्यु एवं अनित्यता
(4) बोधिसत्त्व की साधना होती है इस जीवन के साथ पूरी तरह से संलग्न होने की अवस्था को त्यागना, जिसमें बंधु-बांधवों से लम्बे समय के बाद अलग होना पड़ेगा; बड़ी मेहनत से कमाई गई धन-संपत्ति को छोड़ देना होगा; और इस शरीर में अतिथि के रूप में वास कर रही हमारी चेतना को भी अपने अतिथिगृह से विदा लेनी होगी।
अच्छे मित्रों के होने का महत्त्व
(5) बोधिसत्त्व की साधना होती है उन बुरे मित्रों से अलग हो जाना जिनके साथ रहकर हमारे त्रिविष मनोभाव बढ़ जाते हैं; हमारी श्रवण, मनन, और चिंतन की क्रियाएँ दुर्बल हो जाती हैं; और हमारा प्रेम और करुणा-भाव समाप्त हो जाता है।
(6) बोधिसत्त्व की साधना होती है हमारे उन परमपावन आध्यात्मिक गुरुओं को अपनी काया से भी अधिक प्यार से संजोकर रखना जिनके शरणागत होकर हमारे दोष समाप्त हो जाते हैं और हमारे सद्गुण शुक्लपक्ष के चन्द्रमा जैसे बढ़ने लगते हैं।
शरणागति
(7) बोधिसत्त्व की साधना होती है महान त्रिरत्नों के शरणागत होना जिनकी सुरक्षा में रहते हुए हम कभी धोखा नहीं खाते - क्योंकि संसारी देवता किसकी रक्षा कर सकते हैं जब वे स्वयं अब भी संसार के कारागार में बंधे पड़े हैं?
विनाशकारी व्यवहार से दूर रहना
(8) बोधिसत्त्व की साधना होती है कभी भी किसी भी प्रकार के पाप कर्म न करना चाहे अपना जीवन ही क्यों न नष्ट हो जाए, क्योंकि मुनिवर ने घोषणा की है कि पुनर्जन्म की निकृष्टतर अवस्थाओं के अत्यंत असहनीय दुःख नकारात्मक कर्मों का ही परिणाम हैं।
विमुक्ति की ओर कार्यरत होना
(9) बोधिसत्त्व की साधना होती है मोक्ष की सर्वोच्च स्थायी स्थिति में गहन रूचि लेना क्योंकि बाध्यकारी अस्तित्व के तीनों स्तरों के सुख ऐसा दृश्य-प्रपंच हैं जो कुशाग्र स्थित तुषारबिंदु के समान क्षणिक हैं।
बोधिचित्त लक्ष्य विकसित करना
(10) बोधिसत्त्व की साधना होती है असंख्य जीवों को मोक्ष प्रदान कराना क्योंकि यदि हमारी माताएँ, जो अनादि काल से हमारे प्रति कृपा का भाव रखती आई हैं, पीड़ित हैं, तो हम (केवल) अपने ही सुख से क्या प्राप्त कर पाएँगे?
दूसरों के साथ आत्म का आदान-प्रदान
(11) बोधिसत्त्व की साधना होती है दूसरों के दुःखों को अपने ऊपर लेकर अपने व्यक्तिगत सुखों को देना क्योंकि हमारे (सभी) कष्ट, बिना किसी अपवाद के, हमारे व्यक्तिगत सुख की इच्छा से उत्पन्न होते हैं, जबकि एक सम्बोधि प्राप्त बुद्धजन का जन्म दूसरों के कल्याण की कामना से प्रेरित मनोदृष्टि से होता है।
बोधिसत्त्व आचरण: क्षति से निपटना
(12) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही कोई तीव्र इच्छा की शक्ति के तहत चोरी करे या दूसरों को हमारी सारी संपत्ति चुराने के लिए प्रेरित करे, हमें अपनी काया, संसाधन, और त्रिकाल के सभी रचनात्मक कर्मों को उसपर न्यौछावर कर देना।
(13) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही हमारा लेशमात्र भी दोष न हो, फिर भी यदि कोई हमारा सिर धड़ से अलग कर दे, तो करुणा की शक्ति से उसके सारे नकारात्मक कर्मफल अपने ऊपर ले लेना।
(14) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही कोई हमारे बारे में हज़ारों, लाखों, अरबों लोकों में हर प्रकार की अप्रिय बातों का प्रचार करे, उसके बदले उस व्यक्ति के सद्गुणों के बारे में प्रेम की भावना से युक्त होकर चर्चा करना।
(15) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही कोई हमारे दोषों को कई गामिनों के समूह में प्रकट करे या (हमारे बारे में) अपशब्द कहे, उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानकर उनके आगे सम्मानपूर्वक नतमस्तक हो जाना।
(16) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही वह व्यक्ति हमें अपना शत्रु माने, जिसकी हमने देखभाल की है और अपनी संतान की तरह प्यार किया है, उसके प्रति विशेष स्नेह होना, जैसे एक माँ का अपनी अस्वस्थ संतान के प्रति होता है।
(17) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही कोई व्यक्ति, हमारे बराबर का हो या हमसे छोटा हो, अहंकार के कारण (हमारे साथ) अपमानजनक ढंग से व्यवहार करे, उस व्यक्ति को अपने गुरु की तरह मानना और शिरोधार्य करना।
दो नाज़ुक परिस्थितियाँ जहाँ धर्म के अभ्यास की आवश्यकता है
(18) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही हम आजीविका से वंचित हो जाएँ और सदा लोगों द्वारा अपमानित हों, या किसी भयानक रोग से ग्रस्त हो जाएँ, या प्रेत बाधा से पीड़ित हो जाएँ, बदले में, सभी गामिनों की नकारात्मक शक्तियों और पीड़ाओं को अपने ऊपर लेना और कभी भी निराश न होना।
(19) बोधिसत्त्व की साधना होती है, भले ही कई गामिन अपने सिर झुकाए हमारी प्रशंसा में मधुर वचन कह दें, या वैश्रवण (धन के संरक्षक) की धन-संपत्ति के बराबर (धन) प्राप्त हो जाए, सांसारिक वैभव को निस्सार समझकर कभी भी अभिमानी न बनना।
द्वेष एवं आसक्ति से ऊपर उठना
(20) बोधिसत्त्व की साधना होती है हमारे मानसिक सातत्य को प्रेम और करुणा के सशस्त्र बल के साथ वश में करना, क्योंकि, यदि हमने शत्रु को, जो हमारे भीतर पनप रहे विद्वेष हैं, वश में नहीं किया, तो बाहरी शत्रु को परास्त कर लेने के बाद भी और अधिक विरोधी शक्तियाँ जन्म लेंगी।
(21) बोधिसत्त्व की साधना होती है ऐसे सभी आलम्बनों का परित्याग करना जिनसे हमारा लगाव या आसक्ति हो, क्योंकि अभीष्ट आलम्बन खारे पानी की तरह होता है: हमने (उनका) जितना अधिक आस्वादन किया हो (उनके लिए) प्यास (उतनी ही अधिक) बढ़ जाती है।
गहनतम बोधिचित्त, शून्यता-बोध, को विकसित करना
(22) बोधिसत्त्व की साधना है प्राप्त वस्तुओं की वास्तविकता को समझते हुए उनके अन्तर्जात लक्षणों एवं उन्हें ग्रहण करने वाले चित्त पर विशेष ध्यान न देना। वस्तुएँ चाहे जैसी भी प्रतीत हों, वे हमारे चित्त का ही प्रतिबिम्ब होती हैं; और अनादि काल से चित्त स्वयं प्रपंचों के अतिवादों से पृथक है।
(23) बोधिसत्त्व की साधना है प्रियकर आलम्बनों के संपर्क में आने पर उन्हें वास्तविक रूप में अस्तित्वमान न समझना, भले ही वे इंद्रधनुष की भाँति सुंदर क्यों न दिखाई दें, और (इस प्रकार) अपनेआप को जुड़ाव और आसक्ति से छुटकारा दिलाना।
(24) बोधिसत्त्व की साधना है प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते समय यह समझना कि ये परिस्थितियाँ केवल छलावा हैं, क्योंकि बहुत से दुःख ऐसे होते हैं जैसे स्वप्न में अपनी संतान की मृत्यु, और (ऐसी) भ्रामक प्रतीतियों को सच मानने जैसे थकाने वाले अपव्यय हैं।
छः पारमिताएँ
(25) बोधिसत्त्व की साधना है किसी प्रकार के प्रतिलाभ या कार्मिक विपाक की आशा रखे बिना केवल उदारता से देते ही रहना, क्योंकि जो लोग ज्ञानोदय प्राप्ति का लक्ष्य रखते हों उन्हें तो, बाह्य संपत्ति की कौन कहे, अपने शरीर को भी त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(26) बोधिसत्त्व की साधना है किसी प्रकार की सांसारिक एषणाओं से रहित होकर नैतिक आत्मानुशासन की रक्षा करना, क्योंकि यदि हम नैतिक अनुशासन के बिना अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते, तो दूसरों के उद्देश्यों की पूर्ति करने की बात तो हास्यास्पद होगी।
(27) बोधिसत्त्व की साधना है, लोगों के प्रति तमाम प्रकार के द्वेष या वितृष्णा रहित होकर, धैर्य को अपनी आदत बना लेना, क्योंकि सकारात्मक शक्तियों की सम्पदा की इच्छा रखने वाले बोधिसत्त्व के लिए क्षति पहुँचाने वाला एक-एक व्यक्ति या वस्तु रत्न भण्डार के समान है।
(28) बोधिसत्त्व की साधना है सभी गामिनों के हितार्थ सद्गुणों के स्रोत, वीर्य, की अभिवृत्ति का प्रयोग करना, क्योंकि हम देख सकते हैं कि श्रावकों और प्रत्येकबुद्धों में भी, जो केवल अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं, सत्यसंकल्प एक ऐसा गुण है कि वे अपने माथे पर धधकते दावानल से भी बच सकते हैं।
(29) बोधिसत्त्व की साधना है चारों अरूपधातुओं (तल्लीनता) को पार करने की क्षमता रखने वाले ध्यान को एक आदत के रूप में इस बात को समझते हुए विकसित करना कि शमथ से संपन्न अत्यंत ग्रहणशील अवस्था में स्थित चित्त क्लेशों का समग्र रूप से नाश करने में सक्षम होता है।
(30) बोधिसत्त्व का अभ्यास है तीन धर्मचक्रों की अवधारणा से रहित प्रज्ञा युक्त साधना को एक आदत बना देना, क्योंकि प्रज्ञा के बिना पाँच पारमिताएँ पूर्ण-ज्ञानोदय प्राप्ति नहीं करा सकतीं।
बोधिसत्त्व की दैनिक साधना
(31) बोधिसत्त्व की साधना है हमारी आत्मप्रतारणा की मीमांसा करते रहना और तत्पश्चात उसे नष्ट कर देना, क्योंकि, यदि हम अपनी आत्मप्रतारणा की जाँच स्वयं नहीं करते, तो संभव है कि धार्मिक (प्रकट) शैली में हम कोई अधार्मिक कर्म ही कर बैठें।
(32) बोधिसत्त्व की साधना है महायान में प्रवेश कर गए किसी भी व्यक्ति के अवगुणों का ज़िक्र भी न करना, क्योंकि यदि क्लेश के प्रभाव के कारण हम उनके अवगुणों का वर्णन करते हैं जो बोधिसत्त्व हैं, तो हमारा अपना अधःपतन होगा।
(33) बोधिसत्त्व की साधना होती है अपनेआप को घर-द्वार, रिश्ते-नातेदारों, सम्बन्धियों, और मित्रों, एवं आश्रयदाताओं के घरों से अपने लगाव को त्याग देना, क्योंकि, लाभ और आदर (की चाह) के प्रभाव में, हम एक दूसरे से बैर कर बैठते हैं और फलस्वरूप हमारे श्रवण, चिंतन, और मनन का पतन होगा।
(34) बोधिसत्त्व की साधना होती है कठोर एवं दूसरों के चित्त के लिए अप्रियकर भाषा का त्याग, क्योंकि कठोर शब्द दूसरों के चित्त में उद्वेग उत्पन्न करते हैं और फलस्वरूप हमारे बोधिसत्त्व आचरण के पतन का कारण बनते हैं।
(35) बोधिसत्त्व की साधना होती है स्मृति-सम्प्रजन्य सेवकों के द्वारा विरोधी भावों के हथियारों से आसक्ति इत्यादि जैसे क्लेश को, जैसे ही वे अपना सिर उठाएँ, बलपूर्वक कुचल देना, क्योंकि, जब हम क्लेश के अभ्यस्त हो जाते हैं तो विरोधी भावों द्वारा उन्हें पीछे हटाना मुश्किल हो जाता है।
(36) संक्षेप में, बोधिसत्त्व की साधना होती है, हम चाहे जहाँ भी हों या जिस प्रकार की भी व्यवहार विधि का अनुसरण कर रहे हों, हमारे चित्त की अवस्था को जानने के लिए सदा स्मृति-सम्प्रजन्य अवस्था में रहते हुए दूसरों के उद्देश्यों की पूर्ति (के लिए काम करना)।
(37) बोधिसत्त्व की साधना होती है इस प्रकार की साधना से सिद्ध कुशल शक्तियों को तीनों धर्मचक्रों की पूर्ण शुद्ध प्रज्ञा के साथ ज्ञानोदय के लिए समर्पित करना, ताकि अनंत गामिनों के दु:खों को समाप्त कर सकें।
निष्कर्ष
परमपावन आत्माओं के वचनों एवं सूत्रों, तंत्रों, और ग्रंथों में घोषित वचनों के अर्थ को समझकर मैंने बोधिसत्त्व की इन सैंतीस साधनाओं को उन लोगों के लिए क्रम से लगाया है जो बोधिसत्त्व के पथ पर चलकर साधना करने के इच्छुक हैं।
अपनी मंद मति और अल्प शिक्षा के कारण, हो सकता है ये काव्यात्मक छंद में न हों जो विद्वानों का मन मोह सके। परन्तु, क्योंकि मैंने सूत्रों और परमपावन आत्माओं के वचनों पर विश्वास किया है, अतः मुझे लगता है कि मैंने इन बोधिसत्त्व साधनाओं को पूरी सदाशयता से प्रस्तुत किया है।
फिर भी, चूँकि मुझ जैसे अल्पबुद्धि प्राणी के लिए बोधिसत्त्व व्यवहार की महान लहरों की गहराइयों को समझना कठिन है, मैं परमपावन आत्माओं से विनती करता हूँ कि इसमें जो भी अंतर्विरोध, संयोजन का अभाव, इत्यादि जैसे व्यापक दोष हों वे उन सबके लिए मुझे क्षमा करें।
इससे उत्पन्न कुशल शक्तियों से, सर्वोच्च गहनतम एवं परंपरागत बोधिचित्त के द्वारा, सभी गामिन उन अभिभावक अवलोकितेश्वर के समान हो जाएँ जो कभी भी बाध्यकारी सांसारिक अस्तित्व या निर्वाणजनित आत्म-तोष की पराकोटि में नित्य-स्थित नहीं रहते।
यह अपने और दूसरों के हितार्थ हेतु धर्मग्रन्थ एवं तर्क-शास्त्र के गुरु, अनुशासन-बद्ध भिक्षु तोगमे द्वारा न्गुलचु की रिनचेन गुफा में रचा गया।