तिब्बती गेलुग परम्परा की व्याख्या के अनुसार भारतीय बौद्ध-धर्मी सिद्धांत प्रणालियों की सौतंत्रिका पद्धति सात प्रकार से हमारी बोध-प्राप्ति के रूपों का विश्लेषण करती है। ये हैं:
- प्रत्यक्ष बोध (मंगों-सुम )
- अनुमान आधारित बोध (रजेस-डपग )
- परवर्ती बोध (बसड-शेस )
- अनिर्धारणकारी बोध (स्नानग-ला मा-ङ्गेस-पा )
- मनःप्रतीक्षा (यिद-दपयोद )
- अनिर्णयकारी अनिश्चितता (थे-त्सोम्स )
- मिथ्याज्ञान (लोग-शेस )
किसी बात का बोध करने की शैली को पहचान पाना एक अनिवार्य कौशल है जो हमें यह आकलन करने में सक्षम बनाता है कि हम क्या जानते हैं या कि हम समझते हैं कि हम जानते हैं | क्योंकि हमारे चित्त में कई भ्रांत अवधारणाएँ तथा कई प्रकार के प्रक्षेपण होते हैं जिनका सत्य से अधिक सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए हम अपने तथा दूसरों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर लेते हैं | ऐसा विशेषकर तब होता है जब हम इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि जो हम समझ रहे हैं वह मिथ्या है, या जब हम अपरिपक्व अथवा अनुचित रूप से निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं |
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हमारी मित्र सड़क पर हमसे मिलने हमारी ओर चली आ रही है, परन्तु हमने अपना चश्मा नहीं लगाया हुआ | जब हम सड़क की ओर देखते हैं तो हमें केवल एक पास आता धब्बा दिखाई देता है | हमारा दृष्टिबोध बिगड़ा हुआ होता है | हमारी ओर कोई वास्तविक धब्बा नहीं आ रहा होता |
मान लीजिए कि हम चश्मा लगाकर दोबारा देखते हैं, परन्तु वह व्यक्ति बहुत दूर है और हम उसे पहचान नहीं पाते | हमारा चाक्षुष बोध इस रूप में वैध है कि हमें कोई चलता हुआ दिखाई दे रहा है, परन्तु देखकर भी निर्धारित नहीं कर पाते कि वह हमारी मित्र है | यदि हम समझें कि हमारी दृष्टि निर्धारित नहीं कर पा रही, तो हम वैध रूप से यह भी जान लेंगे कि सही पहचान के लिए उस व्यक्ति का पास आना आवश्यक है | हम धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं और हड़बड़ी में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते |
हम आशा करते हैं कि वह हमारी मित्र होगी और इसलिए हम मानस चित्रण करते हैं कि वह वही है और हम उसकी छवि को सड़क पर आती महिला की छवि पर प्रक्षेपित करते हैं | परन्तु उस व्यक्ति सम्बन्धी वह अवधारणापरक बोध केवल बोध मात्र होता है; वह वैध नहीं होता | हम भ्रमित हो जाते हैं | हमारा अवधारणापरक बोध भ्रामक है क्योंकि वह हमें छलपूर्वक यह सोचने के लिए प्ररेरित करता है कि वह व्यक्ति निश्चित रूप से हमारी मित्र ही है, परन्तु हमारी अपेक्षा असत्य हो सकती है |
मान लीजिए कि केवल सहज-ज्ञान के आधार पर बिना किसी वास्तविक कारण के, हम केवल यह आशा न करें कि हमारी मित्र आ रही है, बल्कि अनुमान के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि वह वही है | हम यह सोच लें कि निश्चित होने के लिए उसके समीप आने की प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं है | हम अपना निष्कर्ष इस तर्क पर आधारित करें कि हमारी मित्र को इस समय हमसे मिलना था और यहाँ एक महिला हमारी ओर आ रही है | हमारी मित्र एक महिला है और उसे इस समय आना था, इसलिए हम यह निष्कर्ष निकालें कि यह महिला हमारी मित्र ही होगी |
यदि हम आश्वस्त होते हैं कि वह हमारी मित्र ही है और ऐसा नहीं होता, तब हमारा अनुमान असत्य था | यदि हम बहुत आश्वस्त नहीं हैं, पर अनुमान लगाते हैं कि वह हमारी मित्र है और वह वास्तव में है, तो हमारा अनुमान अच्छा था | परन्तु हमारी मनःप्रतीक्षा वैध तर्क पर आधारित नहीं थी | हमने उसे अवैध तर्क-वितर्क पर आधारित किया कि हमारी मित्र को इस समय हमसे मिलना था; एक महिला हमारी ओर आ रही है; वह हमारी मित्र ही होगी क्योंकि हमारी मित्र एक महिला है और उसे इसी समय आना था |
परन्तु, हम इस बात को लेकर अनिश्चित हो सकते हैं कि वह हमारी मित्र ही है अथवा कोई और | हो सकता है हम इन दोनों निष्कर्षों के बीच डगमगाएँ, और उससे हम असहज महसूस करें | हम इस स्थिति में असुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि हमारा इस बात पर कोई नियंत्रण नहीं है कि यह महिला कौन होगी | हम ऐसा इसलिए महसूस करते हैं क्योंकि अनिश्चितता के साथ जुड़े विचलन के साथ जो अनिश्चय का मानसिक कारक है वह अशांतकारी मनःस्थिति है | उसके कारण हम चित्त की शान्ति और आत्मसंयम खो बैठते हैं | हो सकता है हम अनियंत्रित रूप से चिंता करने लगें |
जब हमारी मित्र हमसे बहुत दूर होती है और हम वैध रूप से देख नहीं पाते कि वह कौन है, तब हम क्या देख रहे होते हैं? क्या हम रंगीन आकृतियों का एक क्षण देखते हैं और अगले क्षण भिन्न रंगीन आकृतियाँ? नहीं, हम एक सम्पूर्ण आलम्बन देख रहे होते हैं, जिसे सामान्य ज्ञान के आधार पर देखा, सुना, सूँघा, चखा और छुआ जा सकता है, और जो केवल एक क्षण के लिए नहीं, बल्कि एक लम्बी अवधि के लिए रहती है। नहीं, वस्तुनिष्ठ रुप से वह एक शरीर है, एक मानव शरीर, एक नारी मानव शरीर। क्या हम केवल सड़क पर एक शरीर चलता देखते हैं? नहीं, हम शरीर पर आरोपित एक व्यक्ति देख रहे हैं। क्या कोई व्यक्ति केवल एक शरीर है? नहीं, व्यक्ति एक सम्पूर्ण आलम्बन है जिसमें हमारी सहज बुद्धि के अनुसार चित्त, मनोभाव, भावनाएँ, इत्यादि हैं, और जो एक लम्बी अवधि के लिए रहता है।
मान लीजिए कि हम जिस व्यक्ति को अपनी ओर आता देख रहे हैं, वह वास्तव में हमारी मित्र मेरी है। जिस व्यक्ति को हम देख रहे हैं, वह अनजान व्यक्ति नहीं है, वह वास्तव में मेरी है। यदि हम उससे उसकी पहचान पूछें, तो वह तथा उसे जानने वाले अन्य लोग इस बात से सहमत होंगे। परन्तु अभी जब वह इतनी दूर है कि हम उसे पहचान नहीं पाते, तब हम यह नहीं जानते कि हम जिसे देख रहे हैं वह मेरी है। चाहे जो भी हो, हम मेरी को देख रहे हैं। हम किसी और को नहीं देख रहे और हम किसी अनजान व्यक्ति को नहीं देख रहे।
जब हमारी मित्र इतने निकट आ जाए कि हम वैध रूप से देख सकें कि वह मेरी है, तब हम कैसे जानते हैं कि वह मेरी है? यह हम अवधारणा के स्तर पर जानते हैं, जिसका अर्थ है कि अपनी उस मानसिक श्रेणी के द्वारा जिसके माध्यम से हमारे भीतर यह विशिष्ट वैयक्तिक पहचान समाई हुई है। जब कभी भी हम उसे देखते हैं अथवा उसकी आवाज़ सुनते हैं अथवा उसके शरीर का कोई भाग छूते हैं, चाहे वह कुछ भी कर रही हो या कह रही हो, या हम जो भी कायिक संवेदन महसूस कर रहे हों, हम इन सबको उसी वैयक्तिक पहचान वाले व्यक्ति की श्रेणी में समाहित कर लेते हैं जिसे हम देख रहे हैं। वह श्रेणी स्थायी है; वह बदलती नहीं है, वह कुछ नहीं करती और हम उसे क्या करते हुए देखते अथवा सुनते हैं उसपर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अतिरिक्त, इस श्रेणी को "मेरी" नामित किया गया है, और जब भी हम उसे देखते या छूते हैं, हम उसे इस नाम से लक्षित कर सकते हैं |
हम कैसे पता चला कि हमें इस व्यक्ति को अपनी मानसिक श्रेणी "मेरी" में समाहित करना है? हमने इसके कुछ असाधारण विशिष्ट लक्षण पहचाने और "मेरी" श्रेणी के कुछ मिलेजुले लक्षण भी | एक असाधारण विशिष्ट लक्षण है जो केवल मेरी के पास है तथा अन्य किसी के पास नहीं है | मिलाजुला लक्षण वह होता है जो उस श्रेणी में आने वाले प्रत्येक आलम्बन में पाया जाता है | हमने जितनी बार भी मेरी से बात की या उसे देखा या उसके विषय में सोचा यह उन सभी पलों का मिलाजुला लक्षण होता है | हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि तर्क के आधार पर यह मेरी है | यदि किसी व्यक्ति के पास अमुक असाधारण विशिष्ट लक्षण हैं, तो वह इस श्रेणी में आता है जिसमें अमुक मिलेजुले लक्षण होते हैं |
यदि हम भूल से सोच लेते कि वह सूज़न है, तब जब हमने दूर से मेरी को देखा था, तो हमने उसे उस श्रेणी में देखा जिसे हमने "सूज़न" नाम के वैयक्तिक पहचान वाले व्यक्ति के लिए निर्दिष्ट कर रखा है। अनुचित विचार के द्वारा हम मेरी के असाधारण विशिष्ट लक्षण को सूज़न का असाधारण विशिष्ट लक्षण समझ बैठे। इस आधार पर हमने भूल से यह निष्कर्ष निकाला कि वह सूज़न है, क्योंकि हमारा यह प्रमेय असत्य था कि उसमें सूज़न का असाधारण विशिष्ट लक्षण है। इस भूल के आधार पर, हमने मेरी को सूज़न की श्रेणी में डाल दिया, या हम कह सकते हैं कि हमने सूज़न को मेरी पर आरोपित कर दिया। सूज़न के स्थान पर मेरी का हमारा अवधारणापरक बोध भ्रांतकारी था। चाहे वह सूज़न की भाँति दिखती हो, फिर भी ऐसा नहीं है।
जब मेरी निकट आती है और हम सही तौर पर अवधारणापरक रूप से पहचान लेते हैं कि वह मेरी ही है, तब हम यह भी समझ जाते हैं कि वह सूज़न नहीं है। हम इस बात को नकार देते हैं कि वह सूज़न है। हमें यह बोध कैसे होता है? सबसे पहले, यह सूज़न नहीं है हम इस बात को तभी समझ सकते हैं यदि हम पहले सूज़न को जानते हों। यदि हम सूज़न को नहीं जानते, तो हम इस बात का खंडन नहीं कर सकते कि यह सूज़न है और मेरी को 'सूज़न नहीं है' के रूप में नहीं पहचान सकते। जब हमें पूरा विश्वास हो जाए कि हम जिसे देख रहे हैं वह मेरी ही है, तब हम इस भ्रम को दूर कर देते हैं कि वह मेरी के अतिरिक्त कोई और हो सकती है; और निस्संदेह मेरी के अतिरिक्त कोई और में सूज़न शामिल है। परन्तु जब हम पूर्ण निश्चितता के साथ यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि वह मेरी है, जबकि हम सोच रहे थे कि वह सूज़न है या हो सकती है, तब हम विशिष्टतः इस बात का खंडन कर देते हैं कि वह सूज़न है। हम अवधारणा के स्तर पर उसे व्यक्त रूप से मेरी के रूप में पहचान लेते हैं, जबकि अव्यक्त रूप से हम उसका बोध "सूज़न नहीं है" तथा "मेरी के अतिरिक्त और कोई नहीं है" के रूप में करते हैं। "व्यक्त" का अर्थ है कि मेरी हमारे बोध में प्रतीत होती है, और "अव्यक्त" का अर्थ है कि यद्यपि हम जानते हैं कि वह सूज़न नहीं है अथवा मेरी के अतिरिक्त कोई और नहीं है, सूज़न की अनुपस्थिति अथवा मेरी के अतिरिक्त किसी अन्य की अनुपस्थिति दर्शाती हुई रिक्तता वास्तव में प्रकट नहीं होती।
इसके अतिरिक्त जब हम आरम्भ में पहचान लेते हैं कि यह मेरी है तब हमारे अनुमान पर आधारित अवधारणापरक संज्ञान का वह पहला क्षण ताज़ा होता है। हम सोचते हैं, "ओह, वह मेरी आ रही है।" उस क्षण के पश्चात हम सक्रिय रूप से निष्कर्ष नहीं निकाल रहे होते। अब हमारे पास अनुवर्ती बोध है कि वह मेरी है और इसके प्रति हमारी अभिज्ञता अब ताज़ी नहीं रहती। हम जानते हैं कि वह मेरी है, परन्तु हमारा संज्ञान अब उतना अभिज्ञ नहीं होता जितना उस क्षण में था जब हमने पहली बार पहचाना कि वह कौन है।
ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि बोध के सात प्रकार क्या हैं और वे हमारे दैनिक जीवन में किस प्रकार लागू होते हैं तथा पहचान करने में वे किस प्रकार सहायक होते हैं।