लोरिग: ज्ञान-प्राप्ति के ढंग

हम किसी भी आलम्बन के विषय में कैसे ज्ञान प्राप्त करते हैं? हम आलम्बनों को अपनी इन्द्रियों द्वारा अथवा अपने विचारों द्वारा समझते हैं। परन्तु हम जो भी देखते, सुनते या सोचते हैं वह सब सही नहीं होता और प्रायः हमने जो देखा था हम उसके प्रति आश्वस्त नहीं होते और कभी-कभी जब हम सोचते हैं कि कोई आलम्बन ऐसा या वैसा है, तब हम बहुत आश्वस्त नहीं होते। ज्ञान-प्राप्ति के ढंग वह विषय है जो सटीकता और निश्चितता के सन्दर्भ में वस्तुओं के संज्ञान के विभिन्न तरीकों को देखता है। वह चित्त के बौद्ध मानचित्र का प्रमुख अंग है।

मानसिक कार्य-कलाप

भारतीय बौद्ध-धर्म की सौत्रान्तिका सिद्धांत प्रणाली के अनुसार, किसी भी आलम्बन को जानने के सात ढंग हैं। इन सात प्रकारों को विस्तार में समझने के लिए, हमें पहले यह समझने की आवश्यकता है कि जानने के ढंग से क्या अभिप्राय है। जानने का ढंग एक मानसिक कार्य-कलाप है, और बौद्ध-धर्म "चित्त" शब्द का अर्थ होता है मानसिक कार्य-कलाप। हमारा मानसिक कार्य-कलाप वैयक्तिक होता है, जिसका न आदि है न अंत, यह बिना व्यवधान के निरंतर चलता रहता है और सदा संज्ञानात्मक रूप से एक केंद्रीय वस्तु पर टिका रहता है - जिस वस्तु पर वह केंद्रित होता है। सामान्यतः, वह किसी वस्तु का होलोग्राम उत्पन्न करता है, जो उसके साथ संज्ञात्मक ढंग से जुड़ने होने के समरूप और समकालिक है। मानसिक कार्य-कलाप ऐसा एक स्वतंत्र रूप से विद्यमान "मैं" की अनुपस्थिति में करता है अथवा एक स्वतंत्र रूप से विद्यमान चित्त की अनुपस्थिति में जिसका प्रयोग "मैं" कर रहा हो। अतः, ज्ञान-प्राप्ति के सात ढंग केंद्रीय वस्तुओं के सम्बन्ध में मानसिक कार्य-कलाप के प्रकार हैं। ये सात हैं:

  1. प्रत्यक्ष बोध 
  2. अनुमान आधारित बोध 
  3. परवर्ती बोध 
  4. अनिर्धारणकारी बोध 
  5. पूर्वधारणा 
  6. अनिर्णयकारी अनिश्चितता
  7. मिथ्याज्ञान 

वैध बोध

ज्ञान-प्राप्ति के सात ढंगों में से केवल दो ही वैध ढंग हो सकते हैं: प्रत्यक्ष बोध और आनुमानिक बोध। 

वैध बोध नवीन और निश्छल होता है।

  • नवीन – नवीन बोध वह होता है जो अपनी स्पष्टता, सटीकता और निर्णायकता के लिए उसी वस्तु के पूर्वगत बोध पर निर्भर नहीं होता। 
  • निश्छल – निश्छल बोध वह होता है जो सटीक भी हो और निर्णायक भी।

परवर्ती बोध वैध नहीं होता क्योंकि वह नवीन नहीं होता। अनिर्धारक बोध, पूर्वधारणा और दुविधा-ग्रस्त अनिश्चितता वैध नहीं होते क्योंकि वे निर्धारक नहीं होते। और विकृत बोध वैध नहीं होता क्योंकि वह सटीक नहीं होता।

संज्ञान को पहचानना

संज्ञान अपनी सम्बद्ध वस्तु को पहचानता है यदि वह सटीक और निर्धारक हो, दूसरे शब्दों में निश्छल हो। संज्ञान की सम्बद्ध वस्तु उसकी प्रमुख वस्तु है जिसके साथ यह विशिष्ट संज्ञान सम्बद्ध है। उदाहरण के लिए, चाहे हम किसी को देख रहे हों या किसी के बारे में सोच रहे हों, सम्बद्ध वस्तु भौतिक दृश्य प्रपंच के एक प्रकार के रंगीन आकार हैं; एक सामान्य वस्तु जो ध्वनि, गंध, भौतिक संवेदन जैसी अन्य इन्द्रिय ग्राह्य सूचना तक व्याप्त है; वह किस प्रकार का आलम्बन है (हम एक शरीर देख रहे हैं), और शरीर पर प्रतिरूपित रूप-भेद के रूप में हम एक व्यक्ति भी देख रहे हैं।

अपनी सम्बद्ध वस्तु को समझने के लिए संज्ञान का निर्मल होना आवश्यक नहीं है। अतः, केवल मात्र बोध, आनुमानिक बोध, और अनुवर्ती बोध सब बोध शक्तियाँ हैं। बोध शक्ति दो प्रकार की होती है, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष।

  • प्रत्यक्ष बोध शक्ति – सम्बद्ध वस्तु संज्ञान में प्रकट होती है, जैसे जब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस व्यक्ति को हम देख रहे हैं वह मेरी है।
  • अप्रत्यक्ष बोध शक्ति – सम्बद्ध वस्तु प्रकट नहीं होती, जैसे जब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस व्यक्ति को हम देख रहे हैं वह सूज़न नहीं है।

तीनों प्रकार के संज्ञान के सभी उदाहरण जो अपने आलम्बनों को ग्रहण करते हैं वे ऐसा प्रत्यक्ष बोध शक्ति से कर पाते हैं; परन्तु इनमें से केवल कुछ के पास ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बोध शक्ति होती है। किसी भी वस्तु की अप्रत्यक्ष बोध शक्ति किसी और वस्तु की प्रत्यक्ष बोध शक्ति के समकालिक हुए बिना नहीं हो सकती। बोध चाहे कोई भी हो, एक प्रकार के मानसिक होलोग्राम का उभरना अनिवार्य है।

वैचारिक और निर्वैचारिक बोध

वैचारिक बोध है किसी वस्तु को किसी मानसिक श्रेणी से अपने प्रत्यक्ष आलम्बन के रूप में समझना। बोध का प्रत्यक्ष आलम्बन वह प्रत्यक्ष आलम्बन है जिसकी उत्पत्ति बोध में होती है, मानो वह दृष्टा के ठीक सामने हो। प्रत्यक्ष आलम्बन के मानसिक श्रेणी होने की स्थिति में, वह श्रेणी एक अचल पराभौतिक दृश्य प्रपंच है, एक विचार की भाँति, एक सतही स्तर पर सत्य परिघटना जिसका अपना कोई रूप नहीं होता। यह एक झीने आवरण की भाँति अर्ध-पारदर्शी होता है और इससे एक मानसिक होलोग्राम (मानसिक आयाम ) उत्पन्न होता है जो संज्ञान की श्रेणी का प्रतीक है। वैचारिक बोध में प्रकट मानसिक रूप इसी मानसिक होलोग्राम का ही रूप है; परन्तु संज्ञान में पहले ही परिकल्पित होने के कारण प्रत्यक्ष आलम्बन मानसिक श्रेणी है। हम जिस वास्तविक वस्तु का वैचारिक बोध कर रहे हैं वह वास्तव में विद्यमान हो भी सकती है और नहीं भी।

  • वह तब विद्यमान होती है जब हम उसे ग्रहण करके उसे उसके समान वस्तुओं की श्रेणी में डालते हैं। 
  • जब हम उसका केवल विचार करते हैं तो वह विद्यमान नहीं  होती, फिर भी वह वैचारिक बोध का अन्तर्निहित आलम्बन है क्योंकि हम उसके बारे में सोच रहे हैं।

यह मानसिक श्रेणी या तो श्रव्य श्रेणी हो सकती है अथवा दृश्य। श्रव्य श्रेणी वह मानसिक श्रेणी है जिसमें हम सारी ध्वनियों को एक शब्द विशेष में समाते हैं। चाहे किसी भी स्वर, मात्रा, अथवा उच्चारण से हम "आम" कहते हों, वैचारिक बोध से हम उसे एक ही श्रव्य श्रेणी में जोड़ते हैं; वे सब एक ही शब्द के उदाहरण हैं। वह श्रेणी "आम" शब्द से नामित होती है और इसलिए हम इन सभी ध्वनियों को उस ध्वनि के रूप में पहचानते हैं जो "आम" शब्द की है।

इसी प्रकार, जब हम आमों से भरी एक टोकरी देखते हैं, चाहे प्रत्येक आम का आकार अथवा रंग कुछ भी हो, हम वैचारिक रूप से उन सब को एक ही वस्तु श्रेणी में डाल देते हैं; वे सब अलग-अलग होने पर भी एक ही प्रकार के फल हैं। यद्यपि ये सारे फल वस्तुनिष्ठ रूप से आम ही हैं, हो सकता है कि हमें यह पता न हो कि यह कौन-सा फल है या इसे क्या कहते हैं; पर यदि हमें पता हो कि ये आम हैं और इन्हें "आम" शब्द से पुकारा जाता है, तब जिस वस्तु श्रेणी में ये आते हैं वह एक अर्थ श्रेणी भी है। ये सभी फल वे हैं जिनकी ध्वनियों का अर्थ वही है जो "आम" शब्द से दर्शाई जाने वाली श्रव्य श्रेणी में आती हैं।

ये श्रेणियाँ स्थिर संघटनाएँ हैं और, सौत्रांत्रिक अभिकथनों के अनुसार, ये पराभौतिक इकाइयाँ हैं। वे किसी प्रकार के कार्य को क्रियान्वित नहीं कर सकते, इसलिए हम उनके अस्तित्च का प्रमाण इस आधार पर नहीं दे सकते कि वे कुछ करते हैं। हम उनका प्रमाण केवल इस तथ्य के आधार पर दे सकते हैं कि हमारे भीतर श्रेणियों की संकल्पना है और यह विचार उन्हीं को लक्षित करता है। यदि श्रेणियों जैसी कोई इकाई न होती, तो हम विभिन्न वस्तुओं को एक ही प्रकार की वस्तु अथवा विभिन्न ध्वनियों को एक ही शब्द की ध्वनि के रूप में किस प्रकार पहचान पाते?

निर्वैचारिक बोध वह बोध है जो श्रेणी की मध्यवर्तिता की अनुपस्थिति में होता है। जब हम दुकान में आम देखते हैं तो हमारा उसे देखना निर्वैचारिक होता है। जो हम देखते हैं वह वास्तव में आम है, वह 'कुछ नहीं' नहीं है; परन्तु जब हम उसे सबसे पहले देखते हैं तो हम उसे आमों की मानसिक श्रेणी में नहीं डालते। दूसरे शब्दों में हम वैचारिक रूप से उसे तभी जान पाते हैं जब हम उसे "आम" की श्रेणी में डाल देते हैं।

सौत्रान्तिक प्रणाली के अनुसार जो वस्तुएँ वैध रूप से निर्वैचारिक मानी जाती हैं वे सभी वस्तुनिष्ठ इकाइयाँ, गहनतम सत्य संघटनाएँ, होती हैं। वे अस्थिर होती हैं, जिसका अर्थ है उनपर कारणों और परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है और इसलिए वे प्रतिक्षण बदलती रहती हैं और परिणाम उत्पन्न करती हैं। उनके परिणाम उत्पन्न करने के इस तथ्य से हम यह प्रमाण दे सकते हैं कि वस्तुनिष्ठ वस्तुएँ विद्यमान होती हैं। अस्थिर संघटनाओं में हर प्रकार की भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं, जैसे दृश्य और ध्वनियाँ, वस्तुओं को जानने के सभी ढंग, जैसे दृष्टि सम्बन्धी अथवा अभिज्ञता, प्रेम, हर्ष, और क्रोध, और सभी अस्थिर संघटनाएँ जो इनमें से कुछ भी नहीं हैं, जैसे व्यक्ति, गति, और आयु।

प्रत्यक्ष बोध

प्रत्यक्ष बोध एक अ-भ्रामक, निर्वैचारिक बोध के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें प्रत्यक्ष आलम्बन एक वस्तुनिष्ठ इकाई है, अर्थात अस्थिर संघटना। यदि और अधिक निश्चित रूप से कहें तो, बोध के संज्ञान में प्रस्तुत आलम्बन जो वास्तव में दिखाई देता है अस्थिर आलम्बन का एक मानसिक होलोग्राम है।

अतः प्रत्यक्ष बोध भ्रामकता के चारों कारणों से मुक्त है: 

  1. आश्रय - यदि वह निर्वैचारिक बोध किसी त्रुटिपूर्ण इन्द्रिय पर आश्रित है, जैसे भैंगेपन के कारण हमें दो-दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं। वह भ्रामक है। 
  2. आलम्बन - यदि निर्वैचारिक बोध के आलम्बन की गति तीव्र है, जैसे जब आप अंधेरे में मशाल को जल्दी-जल्दी घुमाते हैं तो हमें रोशनी के चक्रपथ का भ्रम हो जाता है। 
  3. स्थिति - चलती हुई रेलगाड़ी में हम निर्वैचारिक रूप से पेड़ों को शीघ्रता से अपनी ओर आते हुए और फिर हमसे दूर भागते हुए देखते हैं मानो वे पीछे की ओर भाग रहे हों। 
  4. तत्काल अवस्था - यदि किसी को देखने के तत्काल पहले हमारा मन अत्यंत व्याकुल हो, जैसे भय के कारण, तो हमें वे सब भी दिखाई देंगे जो विद्यमान नहीं है।

यद्यपि ये चारों निर्वैचारिक बोध हैं, ये प्रत्यक्ष बोध के उदाहरण नहीं हैं।

प्रत्यक्ष बोध के चार प्रकार हैं:

  1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष बोध - हमारी पाँच प्रकार की ज्ञानेन्द्रिय चेतनाओं (रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श) द्वारा इन्द्रिय प्रत्यक्ष बोध तब होता है जब हम अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से किसी एक पर मुख्य प्रतिबन्ध के रूप में आश्रित होते हैं। किसी बोध का मुख्य प्रतिबन्ध वह है जो बोध के प्रकार को निर्धारित करता है - रूप, शब्द, इत्यादि। हमारी पाँच दैहिक ज्ञानेन्द्रियाँ हैं आँखों के प्रकाश-संवेदनशील कोषाणु, कानों के शब्द-संवेदनशील कोषाणु, नाक के गंध-संवेदनशील कोषाणु, जिह्वा के रस-संवेदनशील कोषाणु, तथा त्वचा के स्पर्श-संवेदनशील कोषाणु। ध्यान देने की बात यह है कि इन्द्रिय चेतना आलम्बनों को केवल निर्वैचारिक रूप से ही ग्रहण कर पाती है, परन्तु मानसिक चेतना उन आलम्बनों को निर्वैचारिक अथवा वैचारिक दोनों ही प्रकार से ग्रहण कर पाती है।
  2. मानसिक चेतनता द्वारा मानसिक प्रत्यक्ष बोध  किसी भी अस्थाई वस्तु की हो सकती है। उसकी उत्पत्ति किसी मानसिक संज्ञानात्मक ज्ञानेन्द्रिय को अपनी प्रभावी अवस्था के रूप में धारण करके होती है। बोध की मानसिक ज्ञानेन्द्रिय से अभिप्राय है चेतनता के घटित तत्काल पूर्ववर्ती पल। यदि बोध में किसी प्रकार की कायिक संज्ञानात्मक ज्ञानेन्द्रिय निहित नहीं होती, तो उस तत्काल पूर्ववर्ती पल की चेतनता यह तय कर लेती है कि अगले क्षण की चेतनता पूर्ण रूप से मानसिक है। बौद्ध प्रणाली में बुद्धि को संज्ञानात्मक ज्ञानेन्द्रिय के रूप में सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि वह सभी प्रकार के बोध में अन्तर्निहित है। मानसिक प्रत्यक्ष बोध अतिसंवेदी बोध के साथ, जैसे दूसरों के मन की बात को समझना, तथा इन्द्रिय ग्राह्य प्रत्यक्ष बोध की धारा के अंतिम कुछ क्षणों में होता है।
  3. स्वसंवेदना द्वारा प्रत्यक्ष बोध।  सौतंत्रिक, चित्तमात्र, तथा योगाचार स्वतंत्रिका के सिद्धांतों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधनों में न केवल प्राथमिक चेतनता एवं कुछ मानसिक तत्त्व,अपितु स्वसंवेदना भी सम्मिलित हैं। किसी आलम्बन के वैचारिक और निर्वैचारिक बोध के प्रत्येक क्षण में स्वसंवेदना सम्मिलित है, यद्यपि वह अपनेआप में सदा निर्वैचारिक ही रहता है। वह संज्ञान में सम्मिलित अन्य प्रकार के बोध को ही केंद्रित करता है तथा उसे मान्यता देता है - अर्थात प्राथमिक चेतनता एवं मानसिक घटक। वह उन प्राथमिक चेतनता के आलम्बनों एवं मानसिक घटकों को मान्यता नहीं देता जिनपर वह केंद्रित होता है। वह जिस संज्ञान को मान्यता देता है उसकी मानसिक छाप या प्रवृत्ति के असमनुरूप प्रभावी परिवर्ती तत्त्वों को स्थिर करता है, जो भविष्य में उस बोध को सविवेकी सचेतनता के साथ स्मरण करने में सहायक होता है। यह स्मरण उस मानसिक होलोग्राम की सैद्धांतिक बोध के माध्यम से होता है, जो पहले से ही ज्ञात आलम्बन से मिलता है, तथा उस आलम्बन श्रेणी के माध्यम से भी, जो मानसिक रूप से उस आलम्बन से व्युत्पन्न होता है जिस श्रेणी में वे सभी होलोग्राम आते हैं जो उस आलम्बन से मिलते हैं। स्वसंवेदना के द्वारा प्रत्यक्ष बोध यह भी तय करता है कि उसके संलग्न बोध वैध हैं या नहीं।
  4. यौगिक प्रत्यक्ष बोध  मानसिक बोध से संलग्न होता है जिसकी उत्पत्ति शमथ (शांत भाव की मनोदशा) और विपश्यना (असामान्य रूप से सचेतन मनोदशा) की युगल जोड़ी पर आश्रित है। वह अपने आलम्बन के रूप में सूक्ष्म अस्थायित्व (अनित्यता) अथवा किसी व्यक्ति की अपरिष्कृत अथवा सूक्ष्म असंभव आत्मा के अभाव को ग्रहण करता है। ऐसा आर्यों के साथ ही होता है, वह भी, किसी बुद्ध को छोड़कर, केवल उनकी समाहित साधना के दौरान।

प्रत्यक्ष बोध के तीन भाग हैं: मान्य, परवर्ती, तथा अनिर्धारणकारी। इन तीनों प्रत्यक्ष बोध, अर्थात, इन्द्रियजन्य, मानसिक, एवं स्वसंवेदना, के तीन भाग हैं। यौगिक प्रत्यक्ष बोध के केवल मान्य और परवर्ती भाग ही हैं। यह कभी भी अनिर्धारणकारी नहीं होता।

किसी भी आलम्बन के पहले क्षण का प्रत्यक्ष बोध ही मान्य होता है। इसके बाद इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध का एक अनुक्रम बन जाता है जिस अवधि में आलम्बन का कोई तत्काल बोध नहीं होता। इस चरण के बाद आलम्बन का अनिर्धारणकारी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध होता है, जब उस आलम्बन का निर्णयात्मक ढंग से बोध होना समाप्त हो जाता है, यद्यपि उसका सही-सही आभास होता रहता है। इसके उपरान्त मानसिक प्रत्यक्ष बोध का एक लघु चरण आता है, परन्तु यह इतना लघु होता है कि वह एवं उसके साथ वाली स्वसंवेदना का प्रत्यक्ष बोध अपने आलम्बन की निर्णयात्मकता को स्थापित नहीं कर सकते। इस प्रकार, वे वस्तुतः अनिर्धारणकारी प्रत्यक्ष बोध ही हैं। सम्बद्ध आलम्बन के सैद्धांतिक मानसिक बोध से पहले उसके मानसिक बोध को स्थापित करने के लिए इस अनिर्धारणकारी मानसिक प्रत्यक्ष बोध का क्षणिक चरण आवश्यक होता है।

अनिर्धारित मानसिक प्रत्यक्ष बोध के उपरांत, जो चाहे इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध के अनुक्रम के बाद घटित होता हो, चाहे प्रत्यक्ष एवं तत्पश्चात परवर्ती इन्द्रियातीत मानसिक बोध के अनुक्रम के बाद, आलम्बन का सैद्धांतिक बोध होता है, जिस समय आलम्बन का बोध मानसिक श्रेणी की किसी छलनी से होता है।

यौगिक प्रत्यक्ष बोध मानसिक धुंधलेपन से मुक्त होने के कारण सदा विविक्त होता है। परन्तु केवल उसका प्रारम्भिक क्षण ही परिशुद्ध होता है, अर्थात वह अपनी स्पष्टता तथा बोध शक्ति की तत्कालीन अपेक्षा के लिए उसी आलम्बन के निकटतम पूर्ववर्ती बोध पर निर्भर नहीं करता। अतः, बुद्धों को छोड़कर, आर्यों के यौगिक प्रत्यक्ष प्रमाण बोध के तुरंत बाद परवर्ती यौगिक प्रत्यक्ष बोध का चरण आता है। परन्तु, आर्यों के लिए भी अनिर्धारणकारी यौगिक प्रत्यक्ष बोध नहीं होता।

आनुमानिक बोध

आनुमानिक बोध किसी अस्पष्ट अथवा अत्यधिक अस्पष्ट तथ्य का मान्य वैचारिक बोध है जिसका आधार सटीक तर्कसंगत निष्कर्ष होता है। 

तीन प्रकार के आलम्बन वैध रूप से जाने जा सकते हैं:

  1. स्पष्ट आलम्बन  – जैसे अस्वस्थ होने की शारीरिक अनुभूतियाँ। उन्हें केवल अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर आश्रित होकर प्रत्यक्ष बोध द्वारा निर्वैचारिक रूप से भी जाना जा सकता है। हम अपनी कायिक चेतना से जान पाते हैं कि हम अस्वस्थ हैं। निस्संदेह, हमें वास्तविक अस्वस्थता और रोगभ्रम के बीच के अंतर को समझना होगा।
  2. दुरूह आलम्बन  – जैसे वह अस्वस्थता जिसके कारण हम सम्बंधित संवेदना का अनुभव कर रहे हैं। हम इन बातों को केवल तर्कसंगत विचार से ही समझ सकते हैं, जैसे सम्पूर्ण जाँच के द्वारा प्राप्त जानकारी से ही डॉक्टर हमारी अस्वस्थता का निदान करता है: "यदि ये और ये लक्षण हैं, तो रोग यह है।" निस्संदेह, ऐसा नहीं है कि सारी जाँच सही हो।
  3. अतिदुरूह आलम्बन  – जैसे हमारी अस्वस्थता का उपचार ढूँढ़ने वाले का नाम। हम उसे केवल एक वैध सूचना स्रोत से ही जान सकते हैं, जैसे हम इंटरनेट पर कुछ खोज पाते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह सही है क्योंकि उसका स्रोत आधिकारिक है। परन्तु निस्संदेह हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए एक वैध कारण की आवश्यकता है कि हम जो पढ़ रहे हैं उसका स्रोत वैध है। वह हमेशा सरल नहीं होता, उदाहरण के लिए विकिपीडिया या किसी ब्लॉग में लिखी गई बातें।

अनुमान बोध के तीन प्रकार हैं:

  1. प्रमाण अथवा निगमात्मक तर्क-शास्त्र पर आधारित अनुमान  – इसके द्वारा हम अचूक तर्क का प्रयोग करके किसी अस्पष्ट आलम्बन सम्बन्धी सटीक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हमारा पड़ोसी बहुत शोर मचा रहा है। हो सकता है कि हम अधीर और क्रुद्ध हो जाएँ क्योंकि यह बात स्पष्ट नहीं है कि ध्वनि अस्थाई होती है। परन्तु यदि हम प्रमाण पर भरोसा करें, तो हम अपने लिए यह बात साबित कर सकते हैं कि मानव-निर्मित होने के कारण यह शोर समाप्त हो जाएगा। ऐसा करने के लिए हम इस तर्क पर आश्रित होते हैं: यह शोर एक मनुष्य द्वारा उत्पन्न किया गया है; ऐतिहासिक घटनाओं की भाँति सभी मानव-निर्मित आलम्बन समाप्त हो गए हैं; हमारे मानसिक सातत्यों की भाँति अनश्वर होने वाला कोई भी आलम्बन मानव-निर्मित नहीं है। अतः, हम निश्चित रूप से सोच सकते हैं कि यह शोर भी समाप्त हो जाएगा क्योंकि यह मानव-निर्मित है। इस वैध जानकारी के सहारे हम अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकते हैं।
  2. प्रसिद्धि पर आधारित अनुमान  – इसके द्वारा हम भाषा को समझते हैं। जब हम किसी व्यक्ति या किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण द्वारा उत्पन्न की गई विशेष ध्वनियाँ सुनते हैं, तब हम इस अस्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: यदि यह ध्वनि है, तो वह इस शब्द की होगी, और हम आगे अनुमान लगाते हैं कि यदि वह इस शब्द की ध्वनि है, तो उसका यह अर्थ होगा। हम पढ़ने के लिए भी समान तर्क का प्रयोग करते हैं: जब हम एक विशेष प्रकार की लकीरों की आकृति को देखते हैं, तब हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि वे लिखे गए शब्द ये हैं और उनका अर्थ यह है। एक अन्य उदाहरण है कि जब हम "एक जमा एक" सुनते हैं, तब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इसका अर्थ है "दो", या जब हम अंग्रेज़ी में सुनते हैं "मनुष्य का अत्युत्तम मित्र" तब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इससे अभिप्राय है कुत्ता।
  3. विश्वास पर आधारित अनुमान  – इसके द्वारा हम अपने जन्मदिन जैसे अत्यंत अस्पष्ट आलम्बन के विषय में जान पाते हैं। अपने जन्मदिन के विषय में जानने के लिए हमें सूचना के वैध स्रोत पर निर्भर होना पड़ता है, जैसे हमारी माता। फिर हम अनुमान लगाते हैं कि मेरे जन्मदिन के सम्बन्ध में मेरी माता जानकारी का वैध स्रोत हैं, क्योंकि जब मेरा जन्म हुआ तब वह उपस्थित थीं। अतः मैं दृढ़ विश्वास से कह सकता हूँ कि वे मुझे जो तिथि बताती हैं वह सही है।

परवर्ती बोध

परवर्ती बोध एक अवैध अभिज्ञता है जो समझे गए आलम्बन को पहचानती है। यह सटीक और निर्णयात्मक है, परन्तु यह बोध का वैध ढंग नहीं है क्योंकि यह नवीन नहीं है। इसका अर्थ है कि यह अपनी स्पष्टता और बोधगम्यता के लिए उसी वस्तु के पूर्वगत बोध पर निर्भर होती है। उसमें अपनी नवीनता उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती।

किसी सम्बन्धित वस्तु की बोधगम्यता की सतत सरणि में उत्पन्न हुए परवर्ती बोध के तीन प्रकार होते हैं:

  1. परवर्ती प्रत्यक्ष बोध  – किसी सम्बन्धित वस्तु के प्रत्यक्ष बोध का दूसरा चरण जो उसके प्रत्यक्ष बोध के पहले क्षण से उद्भूत होता है। परवर्ती प्रत्यक्ष बोध इन्द्रियजन्य, मानसिक, स्वसंवेदनात्मक, अथवा यौगिक हो सकता है। किन्तु यौगिक परवर्ती प्रत्यक्ष बोध केवल आर्यों में ही होता है जो अभी तक बुद्ध नहीं बने हैं।
  2. परवर्ती आनुमानिक बोध  – किसी सम्बंधित वस्तु के आनुमानिक बोध का दूसरा चरण जो उसके आनुमानिक बोध के पहले क्षण से उद्भूत होता है।
  3. परवर्ती बोध जो इन दोनों से भिन्न है - उदाहरण के लिए, किसी वस्तु को सटीक रूप में याद करने का वैचारिक बोध जिसका वैध रूप से पहले बोध किया जा चुका हो। अपने क्रम के पहले और दूसरे चरण दोनों ही परवर्ती बोध हैं क्योंकि वे दोनों आलम्बन के पिछले बोध पर आश्रित हैं, चाहे वह उसे याद करने से तत्काल पहले घटित हुआ हो या नहीं। कुछ उदाहरण हैं जैसे किसी का नाम याद कर पाना, या यह याद कर पाना कि हम उनसे पहले मिले थे, तथा यह भी याद रखना कि एक और एक का जोड़ दो होता है।

अनिर्धारणकारी बोध

अनिर्धारणकारी बोध ज्ञात होने की एक विधि है जिसमें, जब प्राथमिक चेतनता के प्रकारों में से किसी एक के समक्ष वस्तुनिष्ठ इकाई स्पष्ट रूप से प्रकट होती है, तब सम्बंधित वस्तु सुनिश्चित नहीं होती। अतः ऐसा केवल निर्वैचारिक बोध के साथ होता है। वैचारिक बोध में हमारी एकाग्रता का मानसिक कारक क्षीण हो सकता है, जिससे हम चित्त का सूक्ष्म स्तरीय भटकाव अनुभव करते हैं जिसमें अवांतर विचार का अंतर्भाव होता है, परन्तु यह अनिर्धारणकारी बोध नहीं है। यह केवल एकाग्रता की त्रुटि है।

अनिर्धारणकारी बोध तीन प्रकार के होते हैं:

  1. अनिर्धारणकारी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध  – परवर्ती प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य बोध के अनुक्रम के अंत में, जब किसी विशेष आलम्बन का बोध पहले मानसिक प्रत्यक्ष बोध और तत्पश्चात वैचारिक बोध में परिवर्तित होता है। अनिर्धारणकारी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध में अचेतन इन्द्रियजन्य बोध भी सम्मिलित है, जैसे पृथक संवेदन वाली किसी अन्य सम्बंधित वस्तु का प्रत्यक्ष बोध होते हुए किसी और इन्द्रियजन्य बोध वाली सम्बंधित वस्तु का बोध होना; उदाहरण के लिए जब हम किसी वस्तु को देख रहे हों, तब हमारे शरीर के आवरण की कायिक अनुभूति का प्रत्यक्ष बोध होना। किन्तु, अन्य आयामों पर ध्यान केंद्रित करते हुए सम्बंधित आलम्बन के इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध के कुछ आयामों के प्रति एकाग्रता का अभाव इसमें सम्मिलित नहीं है, जैसे किसी व्यक्ति को देखते समय दीवार पर टंगे चित्रों पर ध्यान न दे पाना।
  2. अनिर्धारणकारी मानसिक प्रत्यक्ष बोध - परवर्ती प्रत्यक्ष मानसिक बोध के अनुक्रम के अंत में, जैसे दूसरों के चित्त के परवर्ती अतीन्द्रिय बोध, जब बोध उसी सम्बंधित वस्तु के वैचारिक बोध में परिवर्तित होने वाला होता है। इसके अतिरिक्त अनिर्धारणकारी मानसिक प्रत्यक्ष बोध का वह छोटा-सा क्षण है जो किसी सम्बंधित वस्तु के अनिर्धारणकारी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध और वैचारिक बोध के बीच आता है।
  3. स्वसंवेदनात्मक अभिज्ञता का अनिर्धारणकारी प्रत्यक्ष बोध  – स्वसंवेदनात्मक अभिज्ञता का अनिर्धारणकारी प्रत्यक्ष बोध - साधारण जीवों में स्वसंवेदनात्मक अभिज्ञता के प्रत्यक्ष बोध का लघुतम क्षण जो इन्द्रियजन्य अथवा मानसिक प्रत्यक्ष बोध सहित होता है, वह सदैव अनिर्धारणकारी होता है। इसका कारण है कि उनकी सम्बंधित वस्तुओं को सुनिश्चित करने के लिए उनकी स्वसंवेदनात्मक अभिज्ञता में एक से अधिक क्षण लगता है। किन्तु यौगिक प्रत्यक्ष बोध के अनुक्रम के अंत में स्वसंवेदनात्मक बोध का अनिर्धारणकारी प्रत्यक्ष बोध नहीं होता। इसका कारण है कि यौगिक प्रत्यक्ष बोध कभी भी अनिर्धारणकारी नहीं होता।

अनुमान

अनुमान जानने का एक अवैध ढंग है जो अपनी वस्तु को सही रूप में समझता है और उसे नवीन ढंग से वैचारिक रूप से पहचानता है। अनुमान आधारित बोध की भाँति वह नवीन ढंग से सही निष्कर्ष पर पहुँचता है, परन्तु बिना उसे भली-भाँति समझे अथवा बिना यह जाने कि वह सत्य क्यों है। अतः, चूँकि यह निर्धारणकारी नहीं है, तो किसी वस्तु को जानने का यह वैध ढंग नहीं है।

अनुमान पाँच प्रकार के होते हैं:

  1. अकारण ही किसी भी सत्यावस्था को सत्य मान लेना  – इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं, परन्तु यह ज्ञान न होना कि ऐसा क्यों होता है। इसमें सही अनुमान लगाना भी सम्मिलित है, जैसे जब हमें किसी का नाम याद नहीं होता, परन्तु हम सही अनुमान लगा लेते हैं।
  2. परस्पर विरोधी कारण से किसी भी सत्यावस्था को सत्य मान लेना  – इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं क्योंकि उत्तरी गोलार्द्ध इस अवधि में सूर्य की ओर झुक जाता है।  
  3. अनिर्धारणकारी कारण से किसी भी सत्यावस्था को सत्य मान लेना  – इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
  4. अप्रासंगिक कारण से किसी भी सत्यावस्था को सत्य मान लेना  – इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं क्योंकि दिन में ठण्ड अधिक होती है।
  5. सही कारण से, परन्तु बिना निश्चितता के, किसी भी सत्यावस्था को सत्य मान लेना  – इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं क्योंकि इस कालावधि में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की विपरीत दिशा में झुका होता है, परन्तु बिना यह समझे कि इसका दिन की अवधि पर क्या प्रभाव पड़ता है।

अनुमान द्वारा अर्जित ज्ञान विश्वसनीय नहीं होता। जब हम किसी तथ्य को पढ़ते या सुनते हैं और बिना परखे केवल भरोसे पर उसे मान लेते हैं बिना यह जाँचे कि वह कितना सत्य है, तब हम प्रायः उसे याद नहीं रख पाते।

अनिर्णयकारी अनिश्चितता

अनिर्णयकारी अनिश्चितता वह मानसिक कारक है जो किसी वस्तु के वैचारिक बोध के साथ विद्यमान होता है और इस वस्तु से सम्बंधित दो निष्कर्षों के बीच उलझता है। अन्य शब्दों में, यह दो वर्गों के बीच डाँवाडोल होता है जिनके द्वारा वह वस्तु को समझता है। इसके तीन प्रकार हैं:

  1. वह अनिर्णयकारी अनिश्चितता जिसका तथ्य की ओर झुकाव हो 
  2. वह अनिर्णयकारी अनिश्चितता जिसका तथ्य की ओर झुकाव न हो 
  3. वह अनिर्णयकारी अनिश्चितता जो इन दोनों के बीच समान रूप से संतुलित हो

विकृत बोध

विकृत बोध जानने का वह ढंग है जो अपनी वस्तु को त्रुटिपूर्ण रूप से समझता है। इसके दो प्रकार हैं:

  1. वैचारिक विकृत बोध  – एक बोध जो अपनी वैचारिक रूप से निहित वस्तु के सन्दर्भ में धोखे से हुआ हो। ऐसी वस्तु का अस्तित्व वह होता है जिस रूप में उसकी पहचान की गई हो। इसका एक उदाहरण है वैचारिक बोध जो एक व्यक्ति के असंभव आत्म के लिए ललकता है। ऐसे बोध से मेल खाने वाले व्यक्ति के असंभव आत्म जैसा कोई आलम्बन नहीं होता और वह केवल उसी रूप में विद्यमान होता है जिसमें उसकी परिकल्पना की गई हो। विकृत वैचारिक बोध इसलिए भ्रमित होता है क्योंकि उसकी धारणा होती है कि वैचारिक रूप से निहित वस्तु, उस व्यक्ति का वास्तविक असंभव आत्म, वास्तव में विद्यमान होता है; जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है।
  2. अवैचारिक विकृत बोध  – एक बोध जो अपनी वस्तु के सन्दर्भ में भ्रमित हो, किन्तु वह वस्तु उसके समक्ष स्पष्ट रूप से विद्यमान हो। उदाहरण है किसी भैंगे व्यक्ति के द्वारा दो चाँदों का अवैचारिक चाक्षुष बोध किया जाना। चाँद की ओर देखते समय दो चाँदों का स्पष्ट दिखाई देना, परन्तु वास्तव में दो चाँदों का न होना।

प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध अथवा भ्रामक बोध

प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध अथवा भ्रामक बोध ज्ञान प्राप्त करने का वह ढंग है जिसे अपनी प्रतीत होने वाली वस्तु के सन्दर्भ में धोखा हुआ हो। वह अपने प्रतीत होने वाले आलम्बन एवं अपने सम्बद्ध आलम्बन की वास्तविक निष्पक्ष इकाई को उलझा देता है और स्वयं संभ्रमित हो जाता है। दूसरी ओर, विकृत बोध वास्तविक अस्तित्व से भ्रमित हो जाता है। वह अपने प्रत्यक्ष आलम्बन को कोई अस्तित्वहीन वस्तु समझ बैठता है। 

भ्रामक एवं विकृत बोध दोनों ही वैचारिक अथवा निर्वैचारिक हो सकते हैं।

  • वैचारिक बोध में प्रत्यक्ष आलम्बन एक पराभौतिक इकाई हो सकता है, अर्थात एक श्रेणी, जैसे कुत्ते की। उसका सम्बद्ध आलम्बन वास्तव में एक असली कुत्ता है, एक वस्तुनिष्ठ इकाई। श्रेणी और वास्तविक आलम्बन को उलझाकर उनमें सम्भ्रमित होने के कारण वैचारिक बोध भ्रामक होते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी निर्दिष्ट कुत्ते के बारे में सोचते हैं जो कुत्तों की सामान्य श्रेणी में आता हो, तब हम यह समझते हैं कि सभी कुत्ते इसके जैसे हैं। यदि बोध जिसकी संकल्पना करता हो वह अविद्यमान हो, तब वह न केवल भ्रामक अपितु विकृत भी होता है। इसका एक उदाहरण है जिसमें यूनिकॉर्न की श्रेणी और वास्तविक यूनिकॉर्न के बीच में विभ्रांति होती है। हालांकि हम यूनिकॉर्न के विषय में सोचते हैं, किन्तु वह श्रेणी किसी भी आलम्बन से मेल नहीं खाती, क्योंकि वास्तविक यूनिकॉर्न होते ही नहीं हैं।
  • निर्वैचारिक बोध में प्रत्यक्ष आलम्बन एक मानसिक होलोग्राम होता है, जबकि सम्बद्ध आलम्बन एक वास्तविक इकाई है। भ्रामक निर्वैचारिक बोध में, जैसे एक भैंगे व्यक्ति का दो चाँद देखना, प्रत्यक्ष आलम्बन दो चंद्रों का मानसिक होलोग्राम है, जबकि सम्बद्ध आलम्बन वास्तव में एक चाँद है। बोध न केवल भ्रामक अपितु विकृत भी है क्योंकि वह दो चाँद होने का भ्रम उत्पन्न करता है जो वास्तव में विद्यमान नहीं हैं, अर्थात असल में दो चाँद होना।

प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध के सात प्रकार हैं, जिनमें पहले 6 वैचारिक हैं और अंतिम निर्वैचारिक:

  1. वस्तुतः भ्रामक का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – विकृत प्रत्यक्ष बोध जो तथ्य के अनुरूप न हो, जैसे ध्वनि को स्थायी समझने की मिथ्या धारणा तथा आम लोगों के सपनों और कल्पनाओं में आने वाले आलम्बनों का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध जो कपोल-कल्पना को वास्तविकता समझ बैठता है। इसमें इस प्रकार की भ्रांत धारणाएँ भी सम्मिलित हैं जिनसे एक भयभीत बालक यह सोचता है कि चारपाई के नीचे एक दानव है।
  2. किसी का भी सतही रूप से जानने का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – वैचारिक बोध जिसमें हम किसी वस्तुपरक इकाई को किसी सतही स्थायी श्रेणी के ज़रिए समझकर  उस श्रेणी की विशेषताओं को उस निष्पक्ष इकाई की विशेषता मानकर भ्रमित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, हम किसी स्थूल वस्तु, जैसे मेज़, अथवा मानसिक अवस्था, जैसे विषाद, को "मेज़" या "विषाद" को सतही रूप से सत्य श्रेणी के माध्यम से ग्रहण करते हैं। उस अचल श्रेणी के मध्यस्थ होने के कारण मेज़ स्थूल लगती है और विषाद ऐसा लगता है कि वह बिना बदले अधिक समय तक टिका रहेगा। परन्तु मेज़ परमाणुओं से बनी है एवं विषाद का प्रकरण प्रतिक्षण परिवर्तनशील होता है। इस प्रकार के बोध भ्रामक होते हैं, क्योंकि वे किसी स्थूल स्थायी वस्तु को सम्बद्ध वस्तु समझ बैठते हैं, वह वस्तु जो परमाणु से बनी है या वह आलम्बन जो बदलते क्षणों की एक शृंखला है। फिर भी, प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध विकृत नहीं होते क्योंकि, तटस्थ भाव से देखा जाए तो, सामान्य बुद्धि से मेज़ स्थूल होती है और विषाद का अनुभव लम्बे समय तक होता है।
  3. आनुमानिक बोध में प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – किसी तर्क की दिशा के 3 घटकों, अर्थात, सहमति, संगति, असंगति की श्रेणियों के ज़रिए आनुमानिक बोध में पूर्व पक्ष को सिद्ध करने के लिए प्रयोग किए जाने वाली 3 तार्किक व्याप्तियों का वैचारिक बोध। उदाहरण के लिए, हमारा पड़ोसी जो शोर मचा रहा है वह थम जाएगा क्योंकि शोर मचाने वाला एक मनुष्य है, इस आनुमानिक बोध में तर्क की दिशा के 3 घटकों की श्रेणियाँ प्रत्यक्ष आलम्बन हैं। सम्बद्ध आलम्बन वे तर्क व्याप्तियाँ हैं कि मेरा पड़ोसी जो शोर मचा रहा है वह मानव-निर्मित है, सभी मानव-निर्मित वस्तुएँ व्यतीत हो चुकी हैं, तथा कोई भी चिरस्थायी आलम्बन, जैसे हमारा मानसिक सातत्य, मानव-निर्मित नहीं है। इस आनुमानिक बोध में जो 3 तथ्य हैं, इनका प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध विकृत है क्योंकि वह 3 घटकों, अर्थात सहमति, संगति, असंगति की श्रेणियों को वास्तविक त्रिभागी तर्कसंगत निष्कर्ष के साथ जोड़कर उलझा देता है।
  4. आनुमानिक बोध से व्युत्पन्न किसी वस्तु का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध – आनुमानिक बोध में निहित तर्कसंगत निष्कर्ष से व्युत्पन्न विवेचना का वैचारिक बोध। उदाहरण के लिए, उपर्युक्त तर्कसंगत निष्कर्ष के 3 घटकों के आनुमानिक बोध के अंत में, इस विवेचना से व्युत्पन्न परिणाम के वैचारिक प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध, अर्थात, हमारे पड़ोसी द्वारा मचाए गए शोर की अपरिहार्य समाप्ति भ्रामक है क्योंकि वह "मानव-निर्मित ध्वनि का अस्थायित्व" की श्रेणी को इस तथ्य से जोड़कर उलझा देता है।
  5. हम जिसका स्मरण करते हैं उसका प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – वैचारिक बोध जिसमें हम पहले से ज्ञात आलम्बन को याद करते हैं, उदाहरण के लिए, यह याद करना कि हमारी माँ कैसी दिखती हैं। यहाँ हम "हमारी माँ" की श्रेणी एवं उस मानसिक होलोग्राम के ज़रिए जो अपनी माँ को निरूपित करता है, अपनी माँ को वैचारिक रूप से पहचानते हैं। जब हम अपनी माँ को याद करते हैं तो उस स्मरण का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध विकृत है क्योंकि वह हमारी माँ की श्रेणी एवं उनको निरूपित करने वाले होलोग्राम का सम्बद्ध आलम्बन, हमारी वास्तविक माँ, को जोड़कर उलझा देता है।
  6. हम जिसकी आशा करते हैं उसका प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – वैचारिक बोध जिसमें हम उस बात की कल्पना करते हैं जो अभी तक नहीं हुई, जैसे, हम जिस भवन को खड़ा कर रहे हैं उसकी सम्पूरित छवि। यहाँ हम उस अधूरे भवन को सम्पूरित भवन की छवि की श्रेणी के द्वारा वैचारिक रूप से देखते हैं। उस भवन, जो अभी अधूरा है, की सम्पूरित छवि का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध भ्रामक है क्योंकि वह सम्पूरित भवन की श्रेणी को सम्बद्ध वस्तु, अधूरा भवन, से जोड़कर उलझा देता है।
  7. धूमिल वस्तु का प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध  – उस वस्तु का निर्वैचारिक बोध जो वस्तु अभी अस्तित्व में नहीं है। जब हम किसी वस्तु को धुंधले रूप में देखते हैं, तब उसका प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध भ्रामक होता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष वस्तु, धुंधलेपन, को सम्बद्ध वस्तु, एक वस्तुनिष्ठ वस्तु जैसे एक मेज़ जो अव्यक्त नहीं है, से जोड़कर उलझा देता है। वह बोध विकृत भी है क्योंकि उस धुंधलेपन का वस्तुनिष्ठ वास्तविकता में कोई अस्तित्व नहीं है।

वह बोध जिसमें अपने आलम्बन का निर्धारण स्वयं प्रेरित हो अथवा जिसे किसी अन्य बोध से प्रेरित होने की आवश्यकता हो

ज्ञान-प्राप्ति के वैध ढंगों को दो भागों में बाँटने की एक और विधि है: वह बोध जिसमें अपने आलम्बन का निर्धारण स्वयं प्रेरित हो तथा वह बोध जिसमें अपने आलम्बन के निर्धारण के लिए किसी अन्य बोध से प्रेरित होने की आवश्यकता हो।

वह प्रामाणिक बोध जिसमें अपने आलम्बन का निर्धारण स्वयं प्रेरित है  (स्वयं प्रेरित प्रामाणिक बोध) एक प्रामाणिक बोध है जिसमें अपने आलम्बन का निर्धारण स्पष्ट है। उसे अपने निर्धारण के लिए किसी अन्य बोध की आवश्यकता नहीं है। इसके पाँच प्रकार हैं:

  1. प्रतिवर्ती स्वसंवेदना द्वारा प्रामाणिक प्रत्यक्ष बोध -  वह स्वयं निर्धारित करता है कि वह किस मौलिक सचेतनता एवं मानसिक घटकों को ग्रहण कर रहा है। 
  2. प्रामाणिक यौगिक प्रत्यक्ष बोध - वह स्वयं निर्धारित करता है कि क्या अपरिष्कृत अथवा सूक्ष्म अनित्यता है, या अपरिष्कृत अथवा सूक्ष्म असंभव "मैं" की अनुपस्थिति है। 
  3. प्रामाणिक आनुमानिक बोध - वह तर्कसंगत निष्कर्ष के आधार पर किसी परिणाम को स्वयं निर्धारित करता है। 
  4. किसी कार्य के क्रियान्वयन में युक्त आलम्बन का प्रामाणिक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध - जो घटित हो रहा है उसे वह स्वयं निर्धारित करता है। 
  5. किसी सुपरिचित आलम्बन का प्रामाणिक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध - यदि हम किसी को सड़क पर चलते हुए देखते हैं, जिसे हम प्रतिदिन देखते हैं, तो उसकी पहचान तो स्पष्ट है ही।

वह प्रामाणिक बोध जिसमें अपने आलम्बन के निर्धारण के लिए किसी अन्य बोध से प्रेरित होने की आवश्यकता है (अन्य प्रेरित प्रामाणिक बोध) वह बोध है जिसे यह पता है कि उसे अपने आलम्बन को निर्धारित करने के लिए किसी अन्य बोध की अपेक्षा होगी। अपने नाम के व्युत्पत्तिपरक अर्थ के आधार पर इस ज्ञान प्राप्ति के ढंग को 3 प्रकार से बाँटा जा सकता है:

  1. किसी आलम्बन की पहली बार का प्रामाणिक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध – उदाहरण के लिए, जब हम किसी नए यंत्र को खरीदते हैं जिसका उपयोग स्पष्ट नहीं है, तो हम प्रामाणिक रूप से यह जान सकते हैं कि उसके उपयोग को निर्धारित करने के लिए अतिरिक्त जानकारी की आवश्यकता होगी। 
  2. इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध जब हम एकाग्रचित्त नहीं हैं – उदाहरण के लिए, जब हम किसी विषय में तल्लीन होते हैं और हम किसी को हमसे कुछ कहते हुए सुनते हैं, तो हम यह प्रामाणिक रूप से जान सकते हैं कि उस व्यक्ति को अपनी बात दोहरानी पड़ेगी ताकि हम उसे सही तरह से समझ सकें। 
  3. भ्रामकता का कारण युक्त इन्द्रियजन्य बोध – उदाहरण के लिए, जब हम अपना चश्मा उतारकर किसी चिह्न को देखते हैं और वह धूमिल प्रतीत होता है, तो हम प्रामाणिक रूप से यह जान सकते हैं कि उस चिह्न को पहचानने के लिए हमें चश्मा लगाना पड़ेगा।

उपर्युक्त ज्ञान प्राप्ति के अंतिम दो प्रकार केवल व्युत्पत्तिपरक अर्थ में ही प्रामाणिक हैं क्योंकि दूसरा प्रकार एकाग्रता-विहीन बोध है और तीसरा विकृत बोध। 

इसके अतिरिक्त तीन और प्रकार हैं:

  1. प्रामाणिक बोध जिसमें आलम्बन की प्रतीति स्वयं प्रेरित है, परन्तु उसका वास्तविक स्वरुप किसी अन्य बोध से निर्धारित करना होता है – उदाहरण के लिए, प्रामाणिक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध से हम सुदूर किसी लाल वस्तु को देखते हैं। हम प्रामाणिक रूप से जानते हैं कि वह एक लाल वस्तु है, परन्तु हम यह भी प्रामाणिक रूप से जानते हैं कि यह जानने के लिए कि वास्तव में वह क्या है, जैसे आग, हमें और पास जाकर फिर से देखना पड़ेगा। 
  2. प्रामाणिक बोध जिसमें किसी आलम्बन के सामान्य स्वरुप का निर्धारण स्व-प्रेरित होता है, परन्तु उसके विशेष स्वरुप का निर्धारण किसी अन्य बोध से प्रेरित होता है – उदाहरण के लिए, प्रामाणिक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध से हम किसी व्यक्ति को बहुत दूर से देखते हैं। हम प्रामाणिक रूप से यह जानते हैं कि वह एक व्यक्ति है, परन्तु हम यह भी प्रामाणिक रूप से जानते हैं कि उसकी वास्तविक पहचान को जानने के लिए हमें उसे उसके पास जाकर फिर से देखना पड़ेगा। 
  3. प्रामाणिक बोध जिसमें आलम्बन प्रकट भी हुआ है कि नहीं इसके निर्धारण के लिए किसी अन्य बोध से प्रेरित होने की आवश्यकता है – उदाहरण के लिए, हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि हमने अपनी बस को आगे चलकर लाल बत्ती पर रुकते हुए देखा है, तो हम यह मान लेते हैं कि हो सकता है कि हम देख पा रहे हों। हम प्रामाणिक रूप से जानते हैं कि यह निर्धारित करने के लिए कि हम वास्तव में अपनी बस को ही देख रहे हैं, हमें और अधिक ध्यान से देखना होगा।

यह अंतिम प्रकार नाममात्र के लिए प्रामाणिक है, क्योंकि, यदि वह हमारी बस है तो वह एक अनिर्धारणकारी बोध है या फिर यदि वह हमारी बस नहीं है तो वह एक विकृत बोध है।

प्रासंगिक रूप-भेद

प्रासंगिक प्रामाणिक बोध को गैर-भ्रामक बोध के रूप में परिभाषित करता है, दूसरे शब्दों में, सटीक एवं निर्णायक। वह अपनी परिभाषा में "नवीन" को सम्मिलित नहीं करता, क्योंकि, प्रासंगिक स्व-स्थापित अस्तित्व के खंडन के अनुसार, कोई भी बोध अपनी शक्ति से नहीं उभरता। यदि कोई बोध अपने बल पर उभर पाता तो वह स्व-स्थापित होता।

प्रासंगिक उस बोध को पुनः परिभाषित करता है जिसे सौत्रान्तिक "प्रत्यक्ष बोध" कहता है। सौत्रान्तिक ने इस प्रामाणिक ज्ञान-प्राप्ति के ढंग को हमेशा निर्वैचारिक परिभाषित किया है: वह किसी मानसिक श्रेणी की मध्यस्थता के बिना ही अपने आलम्बन को आत्मसात करता है। उसे नवीन होने की आवश्यकता है, क्योंकि वे प्रामाणिक बोध के संस्कृत शब्द "प्रमाण" के "प्र" उपसर्ग को "पहला" या "नया" के रूप में परिभाषित करते हैं। प्रासंगिक के लिए "प्र" का भाव मान्य या सटीक होता है। इस प्रकार उनकी पुनः परिभाषा के अनुसार प्रामाणिक ज्ञान-प्राप्ति का ढंग वह ढंग है जो अपनी उत्पत्ति के लिए किसी तर्कसंगत निष्कर्ष पर आश्रित नहीं होता। अतः, प्रासंगिक के लिए प्रत्यक्ष बोध संज्ञान बोध है। अतः सौत्रान्तिक जिसका परवर्ती इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बोध के नाम से अभिकथन करता है, उसे प्रासंगिक निर्वैचारिक इन्द्रियजन्य संज्ञान बोध के नाम से श्रेणीबद्ध करता है और जिसे सौत्रान्तिक परवर्ती यौगिक प्रत्यक्ष बोध कहता है, प्रासंगिक उसे निर्वैचारिक यौगिक संज्ञान बोध के नाम से श्रेणीबद्ध करता है। और जिसे सौत्रान्तिक परवर्ती आनुमानिक बोध के नाम से वर्गीकृत करता है, प्रासंगिक उसे वैचारिक संज्ञान बोध कहता है क्योंकि वह किसी तर्कसंगत निष्कर्ष पर अब और आश्रित नहीं होता।

मानसिक संज्ञान बोध वैचारिक भी हो सकता है। वैचारिक मानसिक संज्ञान बोध का एक उदाहरण है सहज बोधिचित्त, जो किसी तर्कसंगत निष्कर्ष पर आश्रित हुए बिना ही उत्पन्न होता है।

प्रासंगिक प्रतिवर्ती सचेतनता का अभिकथन नहीं करता। जहाँ प्रामाणिक बोध अपने सम्बद्ध आलम्बनों को स्पष्टतया व्यक्त करते हैं, वे स्वयं को तथा अपनी प्रामाणिकता को अव्यक्त रूप से व्यक्त करते हैं।

जैसे नागार्जुन की रुट वर्सेज़ ऑन माध्यमक  पर चंद्रकीर्ति की टिप्पणी क्लियर वर्ड्स  (संस्कृत प्रसन्नपद ) में दर्शाया गया है, प्रासंगिक ने चार प्रामाणिक ज्ञान-प्राप्ति की विधियों का अभिकथन किया है:

  • प्रामाणिक संज्ञान बोध 
  • प्रामाणिक आनुमानिक बोध 
  • प्रामाणिकता पर आधारित वैध बोध - सौत्रान्तिक बोध की आस्था पर आधारित आनुमानिक बोध के अभिकथन के समतुल्य
  • सहधर्मी उदाहरण के द्वारा प्रामाणिक बोध - उदाहरण के लिए किसी मानचित्र पर दर्शाए गए मार्ग से निर्दिष्ट स्थान तक कैसे पहुँचना है इसका प्रामाणिक बोध। इसका चिरसम्मत उदाहरण है ज़ीबू को पहचानने के लिए उसका एक सहधर्मी उदाहरण देना कि वह एक सफ़ेद सांड जैसा है जिसकी पीठ पर कूबड़ है तथा उसकी गर्दन के नीचे एक लम्बा गलकम्बल है। इसे एक प्रकार के आनुमानिक बोध के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है।

शून्यता को जानने के सात तरीके

जानने के ये सात तरीके शून्यता के निर्वैचारिक बोध को प्राप्त करने की विधि का वर्णन करते हैं। इन चरणों को पहचानना अत्यंत उपयोगी है क्योंकि इससे हम अपनी प्रगति को माप सकते हैं।

सबसे पहले, साधारण जीव होने के नाते, हमारे भीतर अनभिज्ञता सहित शून्यता का विकृत बोध है। हम इस विषय में पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के रूप के बारे में हमारा बोध विकृत है - हम हर वस्तु को ऐसा समझते हैं जैसे वह स्वतः स्थापित हो। फिर उसके सम्बन्ध में विकृत बोध के साथ-साथ हम इस बात से भी अनभिज्ञ हैं कि हम उसे गलत ढंग और संभवतः उसके प्रति एक विकृत और शत्रुतापूर्ण रवैये के साथ जानते हैं। हम यह मान लेते हैं कि शून्यता अनस्तित्व को इंगित करती है और यह एक नहीत्ववादी अभिकथन है। इस विषय पर और आगे बढ़ने के लिए हमें एक पूर्वाग्रहमुक्त चित्त की आवश्यकता है, न कि एक विद्वेषपूर्ण प्रतिरोधी दृष्टिकोण।

फिर हम शून्यता पर एक सम्भाषण सुनते हैं। जब अध्यापक समझा रहे हों और हम अपने मोबाइल फ़ोन को देखते रहें, तो हमारा शून्यता के बारे में सुनना अनिर्धारणकारी होगा। जो भी कहा गया था हमें कुछ याद नहीं रहेगा। यदि हमारा मन किसी विचार में खोया रहेगा, तो हमारे पास केवल श्रवण सम्बन्धी प्रतीयमान प्रत्यक्ष बोध रहेगा, और फिर हमें वे शब्द भी याद नहीं रहेंगे क्योंकि हम ध्यान नहीं दे रहे थे।

परन्तु यदि हम वास्तव में उन शब्दों को प्रामाणिक श्रवण सम्बन्धी प्रत्यक्ष बोध के साथ सुन रहे होते और हमने जो सुना उसपर हमें पक्का विश्वास होता, तब श्रवण सम्बन्धी और परवर्ती अनिर्धारणकारी प्रत्यक्ष बोध तथा "शून्यता" शब्द के स्वर के क्षणभर के मानसिक प्रत्यक्ष बोध के बाद, "शून्यता" शब्द के स्वर की श्रवण श्रेणी के द्वारा हमें शून्यता का वैचारिक रूप से बोध हो जाता (हम "शून्यता" के विषय में सोचने लगते)। परन्तु या तो किसी अर्थ श्रेणी के द्वारा हमें उसका बोध नहीं हुआ (हमें उसका अर्थ नहीं पता), या फिर हमें उसका वैचारिक रूप से अशुद्ध अर्थ श्रेणी के द्वारा बोध हुआ (हमने उसके अर्थ को गलत समझा और इसलिए हमारा वैचारिक बोध अमान्य हो जाता है)।

तब हम शून्यता की सच्चाई के बारे में अनिर्णायक विचलन के शिकार हो जाते हैं। पहले तो इस विचलन का झुकाव उसकी सच्चाई को अस्वीकार करने की तरफ होगा, फिर संभवतः समान रूप से संतुलित होगा, परन्तु अंततः उसकी सच्चाई को स्वीकार करने की ओर हो जाएगा। इस चरण में हम वैध रूप से यह जान पाएँगे कि शून्यता के बारे में निश्चित रूप से जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें अतिरिक्त बोध पर निर्भर होना पड़ेगा। हमें अधिक पढ़ना पड़ेगा और अधिक चिंतन करना पड़ेगा। जब हम, सतही रूप से ही सही, यह जान पाएँगे कि शून्यता क्या है, तब दोनों श्रव्य तथा सटीक अर्थ श्रेणियों द्वारा हम विचलित हुए बिना शून्यता का वैचारिक रूप से चिंतन कर पाएँगे।

तत्पश्चात हम पूर्वधारणा के साथ शून्यता के बारे में चिंतन करेंगे - हम मानते हैं कि यह सत्य है, परन्तु अभी हमें उसके बारे में पूर्ण रूप से निश्चित होना पड़ेगा। ध्यान दें, हम शून्यता के किसी ग़लत अर्थ को सही भी मान सकते हैं। तब वह विकृत वैचारिक बोध हो जाएगा। शून्यता के सटीक अर्थ के बारे में पूर्णतया आश्वस्त होने के लिए हमें इस निर्णय पर पहुँचना पड़ेगा कि प्रत्येक वस्तु प्रामाणिक तर्कसंगत निष्कर्ष आधारित स्वतःस्थापित अस्तित्व के विहीन होती है। यदि हम उसका प्रामाणिक तर्कसंगत निष्कर्ष जान भी लें तो यदि हम उसके तर्क से संतुष्ट नहीं हैं, या हम उसे वस्तुतः समझ नहीं सकते, तो हम केवल परिकल्पना ही कर रहे हैं कि शून्यता सत्य है।

अब, जब हम वैचारिक रूप से शून्यता का चिंतन करते हैं, तो सर्वप्रथम, जब हमारा बोध नवीन होता है, उसके बारे में प्रामाणिक आनुमानिक बोध होता है, उसके बाद परवर्ती आनुमानिक बोध, तथा अंत में अनिर्धारणकारी आनुमानिक बोध होता है। परन्तु, जब तक हम शून्यता का अर्थ श्रेणी के द्वारा निर्भ्रान्त होकर चिंतन कर रहे होते हैं, हमारा चिंतन आनुमानिक बोध के पहले दो चरण तक ही होगा। यदि हमारा ध्यान भटक जाता है, अथवा यदि अर्थ श्रेणी के बिना हम केवल श्रव्य श्रेणी के द्वारा शब्द मात्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तब हम शून्यता को चिंतन द्वारा समझ नहीं पाएँगे। जब हम शून्यता पर केंद्रित शमथ एवं विपश्यना की युक्त स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, तब शून्यता पर हमारा वैचारिक चिंतन केवल प्रामाणिक आनुमानिक बोध तथा परवर्ती आनुमानिक बोध युक्त होगा।

प्रासंगिक वर्गीकरण पद्धति के अनुसार, चाहे शमथ एवं विपश्यना की युक्त स्थिति के साथ हो या उसके बिना, हमारा शून्यता का परवर्ती आनुमानिक बोध शून्यता का वैचारिक संज्ञान बोध होगा। जब हमें शून्यता के सटीक वैचारिक बोध के लिए तर्क के द्वारा जानने की थोड़ी भी आवश्यकता नहीं रहेगी, शून्यता के वैचारिक बोध का हमारा पहला क्षण ही उसका वैचारिक संज्ञान बोध होगा।

जब हम अंततः शून्यता के निर्वैचारिक बोध को प्राप्त कर लेते हैं, सौत्रान्तिक इसे शून्यता के यौगिक प्रत्यक्ष बोध के रूप में वर्गीकृत करता है (यद्यपि, निःसंदेह सौत्रान्तिक शून्यता का दावा नहीं करता)। प्रासंगिक इसे निर्वैचारिक यौगिक संज्ञान बोध के रूप में वर्गीकृत करता है।

इन सब के दौरान, यदि हम यह याद रख सकें कि हम शून्यता का ध्यान कर रहे थे, तो सौतांत्रिक इसे हमारे बोध के परवर्ती स्वसंवेदना के मान्य एवं अनुवर्ती प्रत्यक्ष बोध की कृति के रूप में व्याख्यायित करेगा। दूसरी ओर, प्रासंगिक का स्पष्टीकरण यह होगा कि जब हमें आनुमानिक बोध अथवा वैचारिक या निर्वैचारिक निष्कपट बोध से शून्यता का बोध हुआ, तब हमें निहित रूप से यह समझ आया कि बोध हो रहा था और वह मान्य था।  दोनों ही दशाओं में जब हम शून्यता पर चिंतन करने की क्रिया का स्मरण करते हैं, तब यह स्मरण "शून्यता का चिंतन" की प्रत्ययात्मक श्रेणी द्वारा भ्रामक, वैचारिक प्रकट रूप से प्रत्यक्ष बोध के साथ होता है।

इस प्रकार, यदि हम यह जानते हैं कि हमारी शून्यता की समझ किस चरण पर है, तथा उसके निर्वैचारिक चरण तक पहुँचने के लिए कौन-कौन से चरण पार करने होंगे, तब हम श्रेणीबद्ध पथ के बारे में आश्वस्त हो जाते हैं।

Top