बोधिचित्त के बल द्वारा शून्यता को समझना

पुनरावलोकन

हम तीन प्रमुख चित्तमार्गों पर चर्चा करते रहे हैं। पहला है निःसरण, जिसमें एक प्रारम्भिक चरण हमने पश्चिमवासियों की सुविधा के लिए जोड़ा है, जो है तत्कालिक तुष्टि की सनक छोड़कर इस बात में रुचि लेना कि इस जीवनकाल और भावी जन्मों में हमारे साथ क्या होने वाला है।

फिर आता है इस जीवनकाल के प्रति हमारे मोह को छोड़कर आगामी जीवनकालों में प्रमुखतः रुचि लेना, और यह सुनिश्चित करना कि हमें अनमोल मानव जीवन और आध्यात्म के मार्ग पर चलते रहने के अवसर मिलते रहें। इसके पश्चात, हम आगामी जीवनकालों के प्रति अपने मोह को छोड़कर संसार यानि अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्मों से पूर्ण विमुक्ति में मुख्य रूप से रुचि लें।

अपने जीवनकाल के भविष्य को सँवारने के लिए, हमें चाहिए कि हम विनाशकारी व्यवहार से बचें, रचनात्मक कृत्य करें और अपने जीवन को सही दिशा और अर्थ दें, और यही है बुद्ध, धर्म और संघ में शरणागति की सुरक्षित दिशा। इस जीवनकाल के प्रति हमारे मोह से मुँह मोड़ने और आगामी जीवनकालों में रुचि लेने के लिए भी इनकी ही आवश्यकता होती है। इस बात में कुछ तुक है, क्योंकि हमारे इस जीवनकाल के व्यवहार का परिणाम प्रायः इसी जीवनकाल में नहीं अपितु आगामी जीवनकालों में फलित होता है।

अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने के लिए, हमें केवल व्यावहारिक कार्यकारण की अनभिज्ञता ही नहीं, बल्कि हमारी यथार्थ की अनभिज्ञता से भी मुक्त होना होगा - हम किस प्रकार विद्यमान हैं, अन्य किस प्रकार विद्यमान हैं, तथा, सबसे परिष्कृत बौद्ध-धर्मी मत के अनुसार, प्रत्येक वस्तु व प्राणी के यथार्थ की अनभिज्ञता। शून्यता की इस समझ के साथ, हम सदा के लिए इनसे छुटकारा पा सकते हैं, जिन्हें कहते हैं विमुक्ति को बाधित करने वाले क्लेशावरण। पारिभाषिक रूप में इन क्लेशावरणों को "क्लेशावरण जो हैं अशांतकारी भावनाएँ और मनोवृत्तियाँ" कहा जाता है,"  ये हैं भावनात्मक क्लेशावरण।

मुक्ति में बाधा डालने वाले क्लेशावरणों के सत्य निरोध

जब हम इन क्लेशावरणों से छुटकारा पाने की इस अवस्था की ओर देखते हैं - जिससे अभिप्राय है बुद्ध द्वारा सिखाए गए चार आर्य सत्यों में से तीसरे आर्य सत्य, इन क्लेशावरणों के  सत्य निरोध - तो इन्हें आर्य सत्य द्वारा प्राप्त किया जाता है, जो है सत्य चित्त मार्ग। इससे कई विभिन्न प्रकार के बोध, सम्प्रेषण और व्यवहार के ढंग उपजते हैं। परन्तु प्रमुखतः, सबसे महत्त्वपूर्ण सत्य चित्त मार्ग है शून्यता का निर्वैचारिक बोध - और केवल तब नहीं जब हमें यह बोध पहली बार होता है। हमें इससे पूर्णतः पहचान बनानी चाहिए ताकि यह इन क्लेशावरणों से हमारा पीछा छुड़ा दे, जो चरणबद्ध रूप में होते हैं।

इन दोनों आर्य सत्यों, सत्य चित्त मार्ग द्वारा प्राप्त किए गए सत्य निरोध, से बनी है धर्म शरणागति। अन्य शब्दों में, ये वे धर्म रत्न हैं जिन्हें हम पाने की कोशिश कर रहे हैं। शरणागति के बिना, हम इन्हें प्राप्त करने की दिशा अपने जीवन में अपनाते हैं।

ये सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्ग कहीं आकाश में विद्यमान नहीं है; ये मानसिक सातत्य में विद्यमान हैं। जिन मानसिक सातत्यों में ये पूर्ण रूप में विद्यमान हैं वे बुद्धजन के हैं, इसलिए हमारे पास बुद्धजन का रत्न है, बुद्ध शरणागति। बुद्धजन हमें संकेत देते हैं कि इन सत्य चित्त मार्ग और सत्य निरोध को हम स्वयं किस प्रकार पाएँ, उनकी शिक्षाओं और उनके उदाहरणों द्वारा।

आर्यजन वे लोग हैं जो कुछ रास्ता तय कर चुके हैं, जिन्होंने कुछ सत्य-निरोध प्राप्त कर लिए हैं, परन्तु सब नहीं। उन्हें शून्यता का निर्वैचारिक बोध प्राप्त हो गया है, परन्तु वे उससे पूर्ण रूप से अवगत नहीं हैं; उन्होंने केवल आरंभिक सत्य-निरोध और आरंभिक सत्य-चित्त मार्ग प्राप्त किए हैं, और वे भी आंशिक रूप से, पूरा समूह नहीं। इन्हें संघटित करके संघ रत्न, संघ शरणागति बनती है। ये तीन दुर्लभ रत्नालंकार, जो तिब्बती शब्द "रत्न" का असली अर्थ है, हमें सुरक्षित दिशा दिखाते हैं: उनके जैसा बनने के लिए।

मुक्ति प्राप्त करने के लिए, अपने पथ पर निर्देशों और शिक्षाओं का पालन करना आवश्यक है, जैसे विनाशकारी व्यवहार से दूर रहना। जब हम विनाशकारी व्यवहार से परे रहते हैं, तो इसलिए नहीं क्योंकि हम नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहते - दैवी विधान या नागरिक नियम - परन्तु इसलिए क्योंकि हमें कार्य-कारण की थोड़ी-बहुत समझ है और यथार्थ के गहनतर स्तर की भी। हम विनाशकारी व्यवहार से स्वयं को इसलिए बचाना चाहते हैं, ताकि, इसके परिणामस्वरूप, हम अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके स्वयं त्रिरत्न प्राप्त कर सकें।

जब हम मुक्ति पा लेते हैं, तब हम केवल क्लेशावरणों के पहले समूह से मुक्त होते हैं, जो हैं अशांतकारी मनोभाव और मनोवृत्तियाँ और उनकी प्रकृतियाँ। निःसरण तथा शून्यता के सही बोध द्वारा हम चित्तमार्ग की उस स्थिति, सत्यनिरोध, को प्राप्त करते हैं। निस्संदेह, उन्हें लागू करने के आधार के रूप में, हमें नैतिक आत्म-अनुशासन और एकाग्रता में उच्चतर प्रशिक्षण प्राप्त है।

मासनिक नामकरण के सन्दर्भ में शून्यता का बोध

शून्यता के बोध से युक्त चित्त ही निःसरण के पीछे की शक्ति है। प्रेरणा के इन दोनों अर्थों में, अर्थात्, प्रेरणादायक मनोभाव: हम अपने कष्टों से ऊबकर तंग आ चुके हैं, और प्रेरणादायक लक्ष्य: मोक्ष प्राप्ति, उस बोध के पीछे की प्रेरणा-शक्ति निःसरण ही है।

जब हमने शून्यता पर चर्चा की थी, तो हमने देखा कि, इस अनभिज्ञता की आदत के कारण, हमारा मस्तिष्क अस्तित्वमान होने के असंभव रूपों की प्रतीतियाँ प्रक्षेपित करता है। ऐसा प्रतीत और अनुभव होता है मानो सबके - मैं, तुम और सामने आने वाले सभी आलम्बनों - के इर्दगिर्द एक रेखा है, जो उसे अपनी ओर से ठोस बना देती है। यदि हम यह समझ भी लें कि सबका आपस में नाता है और परस्पर निर्भरता भी, तब भी हम ऐसा ही सोचेंगे कि परस्पर निर्भर आलम्बनों के इर्दगिर्द भी ठोस रेखाएँ हैं, और वे पृथक, स्वतंत्र वस्तुएँ हैं।

हमें, निस्संदेह इसे थोड़े और गहन स्तर पर समझना होगा, परन्तु, अभी के लिए हम इसे इसी सामान्य स्तर पर छोड़ देते हैं। हमारा मस्तिष्क "सत्यसिद्ध की प्रतीति" को प्रक्षेपित करता है। फिर अनभिज्ञता और भ्रांति के कारण, हमारा मस्तिष्क इस प्रक्षेपण या सत्यसिद्ध की प्रतीति को आलम्बनों का असली रूप मान बैठता है, और इसे कहते हैं "सत्यग्राह"। मुक्ति द्वारा हम इस सत्यग्रह और उसे सहारा देने वाली अनभिज्ञता से छुटकारा पा लेते हैं, और अपने मस्तिष्क द्वारा प्रक्षेपित इस कचरे, इस भ्रांत प्रतीति, पर विश्वास नहीं करते; यह अब हमें और मूर्ख नहीं बना सकती।

किन्तु, एक अर्हत, मुक्त जीव होने के बावजूद हमारा मस्तिष्क इन भ्रांत प्रतीतियों को प्रक्षेपित करता है; वह अब भी इन इकाइयों के इर्दगिर्द रेखाएं प्रक्षेपित करता है। इस केवल "मेज़" की अवधारणा के सन्दर्भ में न सोचें, जिसमें "मेज़" के इर्दगिर्द एक रेखा है। मित्र, शत्रु, प्रेम, क्रोध इत्यादि के सन्दर्भ में सोचें। वे वस्तुएँ प्रतीत होती हैं, नहीं क्या, जिनके इर्दगिर्द रेखाएँ हैं, जिनकी स्वरचित परिभाषाएँ हैं। लेकिन, यदि आप इसके बारे में सोचें, तो यह, निस्संदेह, एक भ्रांत धारणा है; यह असंभव है। यह पूर्ण रूप से अनुपस्थित है, पूर्ण रूप से किसी भी असली इकाई से मेल नहीं खाती।

हम इसे इस नमूने द्वारा समझ सकते हैं। यदि हम भावनाओं के बारे में सोचें, तो अनुभव का एक विशाल विस्तार है। यह केवल मानवीय अनुभव नहीं है; पशुओं में भी भावनाएं होती हैं। यदि हम गुहामानव के बारे में सोचें, तो जब उन्होंने भाषा गढ़नी शुरू की, तब वे किसी प्रकार के समूह, समिति में सम्मिलित हुए होंगे, और उन्होंने अर्थहीन ध्वनियों से शब्द गढ़े होंगे, जिन्हें हम "ध्वनिक आकार" कह सकते हैं। ये केवल मनमानी ध्वनियाँ रही होंगी, और मानो किसी ने एक चाकू लेकर भावनाओं के उस पूरे विस्तार को टुकड़ों में काटकर एक प्रकार की भावनाओं के इर्दगिर्द इस सीमा से उस सीमा तक रेखाएँ खींच दीं होंगी और उन्हें परिभाषित करके उन्हें ध्वनिक आकार के रूप में एक शब्द दे दिया होगा।

उन्होंने निर्णय लिया कि इन अर्थहीन ध्वनियों का अर्थ वही है जो इस परिभाषा द्वारा परिभाषित किया जाता है। ये हमारे सार्वजानिक मानवीय अनुभव के इस भाग की ओर संकेत करती हैं। ये केवल मानवीय अनुभव के भाग नहीं हैं, क्योंकि कुत्ते भी स्पष्टतः यही भावनाएँ अनुभव करते हैं जो ये शब्द दर्शाते हैं। क्योंकि भिन्न लोगों के ये शब्द बोलते समय भिन्न स्वर होते हैं, इसलिए उन्होंने प्रत्येक शब्द के लिए श्रव्य वर्ग बनाए चाहे कोई भी इन शब्दों को जब अपने स्वर में उच्चरित करे, तब पता चल जाए कि वही शब्द कहा जा रहा है। इसके अतिरिक्त, क्योंकि विभिन्न लोग एक जैसी विशेषताओं वाले एक जैसी बातें अनुभव करते हैं, उन्होंने अर्थ वर्ग बनाए जिनमें वे उन्हें उनके श्रव्य वर्ग के अनुसार डाल सकें। इस प्रकार उन्होंने श्रव्य और अर्थ वर्गों का वैचारिक परम्परा के रूप में गठन किया।

"परम्परा" नाम की ये इयत्ताएँ केवल मानसिक छलरचनाएँ हैं जिन्हें सम्प्रेषण की सुविधा के लिए गढ़ा गया है, वैचारिक चित्त द्वारा सम्प्रेषण के लिए पूर्णतः गठित। ये अत्यंत लाभदायक हैं, क्योंकि ये कार्य करती हैं, सम्प्रेषण करती हैं, परन्तु गुफ़ाओं के प्रत्येक समूह ने मानव अनुभव के विस्तार को विभिन्न टुकड़ों में बाँट दिया और उन्हें विभिन्न श्रव्य स्वरूप दिए और उन छोटे छोटे हिस्सों को अलग अलग ढंग से परिभषित किया। उन्होंने कुछ विशिष्ट लक्षण खोजे जिनसे उन्हें परिभाषित किया जा सके; उन्होंने ऐसा सोचकर उसे चुन लिया। इस प्रकार, हमें मिलीं विभिन्न भाषाएँ, विभिन्न शब्द, विभिन्न सिद्धांत, विभिन्न परम्पराएँ।

एक गुफ़ा समूह की परम्पराएँ दूसरे समूह की परम्पराओं से मेल नहीं खातीं। सब ने विस्तार को अलग-अलग बिंदुओं पर बाँट लिया, शब्द वर्गों के बीच अलग-अलग सीमाएँ बना लीं। उदाहरण के लिए, "ईर्ष्या" और "द्वेष" के अंग्रेज़ी अर्थ स्पेनिश भाषा के अर्थों से बहुत भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त, इन दोनों के अर्थ, और सीमाएँ जर्मन भाषा के इन्हीं शब्दों से बहुत भिन्न हैं। ये तिब्बत्ती शब्दों से मेल नहीं खाते, जिसका अनुवाद प्रायः "ईर्ष्या" किया जाता है। यह भ्रान्तकारी है। परिभाषाएँ भिन्न भाषाओं में थोड़ी भिन्न हैं।

यह बहुत रोचक बात है कि, इन श्रव्य और अर्थ वर्गों के साथ "वस्तु वर्ग" भी हैं। किसी व्यक्ति को यदि कोई अनुभव होता भी है, तो उन्हें ईर्ष्या अनुभव होती है। निस्संदेह, ऐसा लगता है कि ईर्ष्या हमें स्वतः अनुभव होती है, नहीं क्या? "जैसे उसके इर्दगिर्द कोई रेखा हो" इस शब्दावली से मेरा यही अभिप्राय है परन्तु इस ईर्ष्या की ओर ऐसा कुछ नहीं है जो इसे अपनी ओर से स्थापित करे। केवल मानसिक मनोभावों और भावनाओं का एक विशाल विस्तार है।

ईर्ष्या वह है जो केवल शब्दों और सिद्धांतों से उद्भूत होती है। "ईर्ष्या" शब्द और सिद्धांत एक परंपरा के रूप में कुछ गुफावासियों द्वारा गढ़ा गया होगा। वे श्रव्य वर्ग और वस्तु वर्ग किसी ओर संकेत करते हैं; वे शून्य की ओर संकेत नहीं करते। वे किस ओर संकेत करते हैं? वे ईर्ष्या की ओर संकेत करते हैं, परन्तु वह ऐसी चीज़ नहीं है जो हमें कहीं भी मिल जाए, क्योंकि कुछ भी ऐसे वस्तु के रूप में विद्यमान नहीं होता जिसके इर्दगिर्द रेखाएँ हों। यह एक भ्रम के समान है कि ईर्ष्या ऐसा आलम्बन है जिसके इर्दगिर्द एक रेखा है, परन्तु यह वास्तव में ज्ञेय नहीं है। यह विशेष रूप से तब सत्य है यदि हम उस प्रत्येक पल के बारे में सोचें जब हमने ईर्ष्या महसूस की, या, कुत्ते सहित, किसी और ने महसूस की। वह कहाँ है? वह क्या है? चाहे यह भ्रम के समान है, फिर भी -  बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है - ऐसा होता है; हम अनुभव करते  हैं, कुत्ता अनुभव करता है और इससे हम दोनों अप्रसन्न हो जाते हैं।

जो बात यह स्थापित करती है कि ईर्ष्या सच में होती है वह है यह तथ्य कि उसके लिए एक शब्द और अवधारणा है,  जो इस ओर संकेत करते हैं। हम ऐसा कुछ नहीं ढूँढ़ सकते जो इनसे मेल खाता हो और यह स्थापित करता हो कि ईर्ष्या विद्यमान होती है, "वह है ईर्ष्या जिसके इर्दगिर्द रेखा है।" उसके लिए इस प्रकार विद्यमान होना और अपनी ओर से अपनी उपस्थिति को स्थापित कर पाना, असंभव है। उसका पूर्ण अभाव है। शून्यता इसकी ही बात करती है; शून्यता जिसे सामान्य भाषा में "खालीपन" कहा जाता है, वही पूर्ण अनुपस्थिति है। निस्संदेह, यदि यह आपके लिए नया है, तो आपको इसे समझने के लिए इसके विषय में देर तक विचार करना होगा।

सर्वज्ञता को बाधित करने वाले क्लेशावरणों के सत्य-निरोध

यदि हमने मोक्ष प्राप्त कर लिया है, चाहे हमारा चित्त सब आलम्बनों को रेखाओं से घिरी प्रतीतियों के रूप में देख रहा है, फिर भी हम यह नहीं मानते कि सब वैसा ही है। हम समझते हैं कि कुछ भी क्रियाशील नहीं हो सकता यदि वह रेखा से घिरा हो। रेखा से घिरा  होगा, मानो, वह ठोस प्लास्टिक में लिपटी कोई वस्तु हो। उदाहरण के लिए, यदि दो वस्तुएँ प्लास्टिक में लिपटी जमी हुई हों, तो वे परस्पर कैसे व्यवहार करेंगी? एक उसका कारण और दूसरा प्रभाव कैसे हो सकता है? वे वहाँ इस प्रकार जमी हुई हैं जैसे रंग भरने की पुस्तक के पन्ने पर कोई चित्र। कुछ भी क्रियाशील नहीं होगा। एक मोक्ष प्राप्त जीव, एक अर्हत के रूप में हम यह समझते हैं और इसलिए अपने चित्त द्वारा प्रक्षेपित इस कचरे पर विश्वास नहीं करते; फिर भी, हम अपने चित्त को इसे प्रक्षेपित करने से रोक नहीं पाते।

इस प्रकार के प्रक्षेपण में समस्या क्या है? इसमें समस्या यह है कि अब हमारे चित्त अपनी समझने, समावेश करने की शक्ति में बहुत सीमित हो जाते हैं। इस प्रकार के प्रक्षेपण के साथ जो उदाहरण मैं प्रायः देता हूँ वह है ब्रह्माण्ड का हमारा बोध ऐसा है मानो हम एक पेरिस्कोप के भीतर से देख रहे हों। वह बहुत सीमित है। हम केवल कुछ वस्तुएँ देखते हैं। हमारा दृष्टि क्षेत्र, और दृष्टिबोध का क्षेत्र बहुत छोटा होता है। बोलचाल की भाषा में हम कहते है, "जो तुम्हारी नाक के नीचे है तुम्हें केवल वही दिखाई देता है।"

इसके कारण हम दूसरों की अत्युत्तम सहायता नहीं कर पाते, क्योंकि यदि हम अनादि और अनगिनत - किन्तु नियत, पर बहुत सारे - जीवों के बारे में सोचें, और हम चाहें कि केवल एक विशेष जीव को किस प्रकार लाभ पहुंचा सकते हैं, तो हमें पहले उनके हालात समझने होंगे, उनकी समस्या का स्तर आदि समझना होगा। हमें वह सब समझना होगा जो इस पूरे ब्रह्माण्ड में पहले हुआ है, उसका इस विशिष्ट मानसिक सातत्य पर कैसा प्रभाव पड़ा, उनके वर्तमान स्वरूप के सारे कारण। यदि हम उन्हें कुछ सिखाना चाहते है और उनकी मोक्ष और ज्ञानोदय प्राप्ति में सहायता करना चाहते हैं, यह निर्णय लेने के लिए कि उन्हें क्या सिखाना सबसे प्रभावकारी होगा, तब हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस व्यक्ति को धर्म के इस विशेष अंश की शिक्षा देने का परिणाम क्या होगा।

निस्संदेह, हम जिस व्यक्ति को शिक्षित करेंगे वह किसी से बातचीत किए बिना अपने इर्दगिर्द एक ठोस रेखा बनाकर विद्यमान तो नहीं रहेगा। यह सत्त्व अब से लेकर ज्ञानोदय प्राप्ति तक और उसके बाद भी हमारी शिक्षा से प्रभावित होकर अन्य सभी से मेलजोल रखेगा, और इसका उससे मिलने वाले सब लोगों पर प्रभाव पड़ेगा। दूसरों को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाने के लिए, हमें इस प्रकार का चित्त विकसित करना चाहिए जो सर्वज्ञ हो, जो सबकुछ जानता हो, एक बुद्धजन का चित्त।

हमें इस प्रकार का चित्त विकसित करना चाहिए ताकि हम यह सचमुच समझ सकें कि दूसरों की सहायता कैसे करनी है। वर्ना, हम केवल पेरिस्कोप से देख रहे हैं; केवल अपनी नाक के सामने ही देख सकते हैं। हमें अपने चित्त को इयत्ताओं के इर्दगिर्द रेखाएँ प्रक्षेपित करने से रोकना होगा; वर्ना हम कभी भी कार्य-कारण के पूरे विस्तार को और वर्तमान अथवा आनेवाली इयत्ताओं की परस्पर सम्बद्धता को नहीं देख पाएँगे। इन रेखाओं के प्रक्षेपण से यह प्रतिबन्ध लग जाता है, जो सत्यग्राह की आदतों से उत्पन्न होता है, यह भरोसा करने की आदतें कि ये रेखाएँ सत्य हैं।

ये केलवशावरण ज्ञानोदय, सर्वज्ञता को बाधित करते हैं। इन्हें ज्ञेयावरण "सभी ज्ञेय वस्तुओं से संबंधी क्लेशावरण" कहते हैं। हम इन दूसरे क्लेशावरणों का भी सत्यनिरोध प्राप्त करना चाहते हैं। यदि हम वह सत्यनिरोध प्राप्त कर लेते हैं, तो हम  बुद्धजन बन जाते हैं। हम जो यह सर्वज्ञ चित्तावस्था प्राप्त कर लेंगे उसके साथ मिलेगी एक निस्सीम काया। अपनी ऊर्जा के सन्दर्भ में, हम कोई भी रूप ले सकते हैं और किसी भी भाषा में सम्प्रेषण कर सकते हैं। हम एक बुद्धजन की ज्ञानोदय-प्राप्त काया, वाणी और चित्त पा लेते हैं।

अधिक विस्तार में, उस निस्सीम चित्त के साथ मिलेगी उसकी निस्सीम ऊर्जा, जो फिर कोई भी रूप ले सकती है, तो हमें मिलती हैं निस्सीम कायाएँ या स्वरूप। वह ऊर्जा कम्पायमान होती है, उसे कहते हैं सूक्ष्म ध्वनि, और वह है सम्प्रेषण, वह है वाणी। ऊर्जा का कम्पन भी निस्सीम हो जाता है। यह ऊर्जा किसी भी रूप में प्रकट हो सकती है और उस ऊर्जा का कम्पन है सम्प्रेषण, वाणी किसी भी रूप में सम्प्रेषण कर सकती है।

वह सत्यचित्त मार्ग क्या है जो सत्यनिरोध के इस दूसरे समूह को उत्पन्न करेगा? वह है, फिर से, शून्यता का निर्वैचारिक बोध, जो अब बोधिचित्त की शक्ति से टिका हुआ है।

एक बात जो मुझे यहाँ कहनी चाहिए वह है कि वह ज्ञानोदय की अवस्था एक सर्वशक्तिमान अवस्था नहीं है। उसमें अद्भुत क्षमताएँ हैं, परन्तु सर्वशक्ति उनमें से एक नहीं है। सर्वशक्तिमत्ता कार्य-कारण के नियमों का पालन नहीं करती, यहाँ तक कि एक सर्वशक्तिमान सत्त्व बिना कारण कुछ भी कर सकता है। हमारे ग्रन्थ में त्सोंगखापा स्पष्टतः कहते हैं, "व्यावहारिक कार्य-कारण के नियम कभी भी भ्रामक नहीं होते," उनका कभी भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता; सबकुछ किसी कारण से ही होता है।

एक बुद्धजन शिक्षा दे सकता है, प्रेरित कर सकता है, व्याख्या दे सकता है, परन्तु वह हमारे लिए समझ नहीं सकता। हमें स्वयं ही समझना होगा, और, उसके लिए, हमें ग्रहणशील होना होगा और कारणों को संचित करना होगा। हमें स्वयं समझकर ही अपनी अनभिज्ञता से, और, उसके आधार पर, अपने कष्टों से मुक्ति पा सकते हैं।

क्लेशावरणों के इस दूसरे समूह से भी वही बोध पीछा छुटाएगा जो उसके पहले समूह से। अंतर केवल उस प्रेरणात्मक चित्त में है जो इसके पीछे की शक्ति है - विमुक्ति को बाधित करने वाले क्लेशावरणों के लिए निःसरण और सर्वज्ञता को बाधित करने वाले क्लेशावरणों के लिए बोधिचित्त। यह सबसे परिष्कृत सिद्धांत-समूह, प्रासंगिक, के अनुसार है। सिद्धांतों और व्याख्याओं के कई विभिन्न स्तर हैं, जिनकी मैं अभी चर्चा नहीं करूँगा, परन्तु जो सबसे परिष्कृत है वह यही प्रासंगिक माध्यमक। अन्य शब्दों में, जो बोध दोनों क्लेशावरणों से पीछा छुड़ाता है वह है शून्यता का निर्वैचारिक बोध, यह बोध कि सभी संपुटित आलम्बनों का प्रक्षेपण किसी भी यथार्थ से मेल नहीं खाता।

जब हम निर्वैचारिक रूप से इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं, "यह किसी भी यथार्थ से मेल नहीं खाता," तब हम पूर्ण अनुपस्थिति पर केंद्रित होते हैं। उस पूर्ण अनुपस्थिति में, वह प्रक्षेपण नहीं है। केवल वह आस्था ही नहीं, बल्कि प्रक्षेपण भी नहीं है। हम केवल निर्वैचारिक रूप से पूर्णतः केंद्रित हैं, जिसका अर्थ है किसी श्रेणी के द्वारा नहीं, जैसे शब्द "शून्यता" अथवा कोई मानसिक चित्र, बल्कि केवल निर्वैचारिक रूप से "ऐसा कुछ नहीं है," पर केंद्रित हैं, इस सन्दर्भ में उसकी अनुपस्थिति पर केंद्रित हैं।

जब हम उसे पा लेते हैं वह होती है आर्य अवस्था। "आर्य" है "अभिजात सत्त्व" परन्तु वह एक मूर्खतापूर्ण शब्दावली है; मैं उसे अनूदित करता हूँ, "उच्च सिद्धि प्राप्त सत्त्व"। उसका कुलीन वर्ग से कोई नाता नहीं है। एक आर्य उस "पूर्ण समाहित स्थिति" में पूरे समय नहीं रह सकता, उसे उसके बाहर आना होगा, भोजन करना होगा, शौच करना होगा, और दूसरों के लाभ हेतु अन्य कई गतिविधियों में भाग लेना होगा। परन्तु वह सब करते हुए भी एक आर्य में सत्यसिद्ध की प्रतीति प्रक्षेपित करने की आदत होती है क्योंकि जब चित्त इस अनुपस्थिति में पूर्ण रूप से डूबा नहीं होता तब वह स्वतः ऐसा करता है।

यदि हम सदा के लिए, पूरे समय इस पूर्ण अनुपस्थिति में पूर्णतः लीन रह पाएँ, उससे कभी बाहर न आएँ, और साथ ही, दूसरों की सहायता करते रहें और उनके लाभ हेतु अन्य कार्य करते रहें, केवल ध्यान में न बैठे रहें, यदि हम ऐसा कर लें, तब हम सत्यग्राह के प्रक्षेपण की आदत से मुक्त हो चुके होंगे, क्योंकि वह दोबारा नहीं आ सकती। हम उस पूर्ण लीनता से कभी बाहर नहीं निकल पाते। वह है बुद्धत्त्व की अवस्था।

आदत क्या होती है? हम केवल यह कह सकते हैं कि वह एक जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है, जैसे कॉफ़ी के कप पीना। हम किस प्रकार उसे सम्मिलित करके उस आवर्ती कड़ी की और संकेत करें ताकि वह सब तक पहुँचे, सब उसके विषय में सोचें, इत्यादि? हम मानसिक रूप से प्रत्येक घटना के बिंदु जोड़ते चलते हैं, हम एक मानसिक कल्पना बनाते चलते हैं, और वह आदत बन जाती है। निस्संदेह,आदत के चारों ओर कोई रेखा नहीं खिंची होती। यह केवल एक परम्परा है जो समान घटनाओं के क्रम की ओर संकेत करने में हमारी सहायता करती है।

अतः, जब तक इस प्रकार की घटना की भविष्य में होने की संभावना रहेगी, तब हम कह सकते हैं कि मानसिक सातत्य पर आरोपण दृश्य प्रपंच की आदत अभी भी है। आरोपण दृश्य प्रपंच एक आधार से जुड़ा होता है - इस मामले में, दृश्य प्रपंच से - और उस आधार से पृथक विद्यमान या जाना नहीं जाता। जब तक उस प्रकार की घटना की भविष्य में होने की संभावना रहेगी, हमें वह आदत रहेगी, और वह इस घटना को भविष्य में दोहराएगी।

यदि उस जैसी घटना की भविष्य में होने की संभावना न हो, तो हम सब उस पुराणी आदत के बारे में कह सकते थे, "अब मुझे वह आदत नहीं है।"हम इस प्रकार आदतों से पीछा छुड़ाते हैं। मैं उसकी चर्चा नहीं करूंगा, परन्तु हम इस प्रकार कर्म का शुद्धिकरण करते हैं। हम शून्यता के बोध के साथ कर्म उत्पन्न करने और सत्यसिद्ध प्रक्षेपित करने की आदत को छोड़ते हैं।

बोधिचित्त: हमारे अद्यापि अघटित ज्ञानोदय को लक्ष्य बनाना

आपको याद होगा कि हमने चर्चा की थी कि किस प्रकार शून्यता के बोध के पीछे निःसरण एक प्रेरणात्मक शक्ति होती है, जो उसे पर्याप्त शक्ति देती है ताकि वह क्लेशावरणों के पहले समूह को चीरते हुए, क्रोध, लालच, भोलापन इत्यादि जैसे अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होकर मुक्ति प्राप्त कर पाए। किन्तु, इसमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है; शून्यता के उस निर्वैचारिक बोध के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं है कि वह क्लेशावरणों के दूसरे समूह को चीरकर, सत्य, स्वाधीन रूप से स्थापित अस्तित्व की पूर्ण अनुपस्थिति पर सदा के लिए केंद्रित रह सके और फिर भी सबको लाभान्वित कर सके। उसमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है कि वह इस अवस्था में रह सके। वह केवल बोधिचित्त के साथ ऐसा कर सकती है।

बोधिचित्त वह चित्त है जो ज्ञानोदय पर लक्षित है। वह "ज्ञानोदय" श्रेणी पर लक्षित नहीं है, एक सामान्य श्रेणी के रूप में, और वह निश्चित रूप से एक इयत्ता के रूप में भी उसपर केंद्रित नहीं है। वह बुद्ध शाक्यमुनि के ज्ञानोदय पर लक्षित नहीं है; वह हमारे अपने भावी ज्ञानोदय पर लक्षित है, जिसे कहते हैं - और हमें व्याकरण के प्रति सावधान रहना होगा और सही शब्दावली चुननी होगी - हमारा वैयक्तिक "अद्यापि अघटित" ज्ञानोदय जो हमारे मानसिक सातत्य के आधार पर प्रक्षेपित एक दृश्य-प्रपंच है।

हमें "अद्यापि अघटित घटनाओं" को समझना होगा जैसे इस वर्ष का अद्यापि अघटित क्रिसमस। हम अद्यापि अघटित क्रिसमस की कल्पना कर सकते हैं, है न? यह केवल एक अवधारणा है और हम इसे पूर्णतया सुस्पष्ट एवं सविस्तार रूप से नहीं जानते। वह अद्यापि अघटित क्रिसमस अभी घटित नहीं हो रहा है, है न? ऐसा नहीं है कि यह किसी अन्य स्थान पर किसी आयाम में घटित होते हुए हमारे समीप आ रहा हो और फिर यहाँ भी घटित होने वाला हो, है न? फिर भी, हम इस अद्यापि अघटित क्रिसमस के बारे में सोच सकते हैं, उस अवसर के लिए खरीददारी कर सकते हैं और हर प्रकार की तैयारी कर सकते हैं जब यह अद्यापि अघटित क्रिसमस वर्तमान घटित क्रिसमस में परिवर्तित हो जाएगा।

यह भी नहीं है कि ऐसा कोई क्रिसमस है जिसे प्रमुखता दी गई हो, और जिसके अस्तित्व को "अद्यापि अघटित", या "वर्तमान में घटित", या फिर "वर्तमान में अघटित" के विशेषणों से वर्णित किया जाता हो। "भविष्य" और "अतीत" जैसी पश्चिमी शब्दावली का प्रयोग न करें क्योंकि वह अत्यंत भ्रामक होती हैं। अद्यापि अघटित, वर्तमान में घटित, वर्तमान में अघटित (जो अब और घटित नहीं हो रहा) क्रिसमस उस ठोस क्रिसमस के समान नहीं है जो समय के साथ बदलता न हो। ऐसा नहीं है कि वे सब एक ठोस वस्तु हैं।

बोधिचित्त किस पर केन्द्रित है? यह उस वर्तमान में अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति पर केंद्रित है जो आगे चलकर मान्य रूप से हमारे मानसिक सातत्य पर घटित हो सकता है । परन्तु यह अपनेआप नहीं होता; यह मृत्यु जैसा नहीं है जो किसी भी क्षण हमारे कर्मों के अनअपेक्ष्य अनिवार्य रूप से स्वतः घटित होता है। यह अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति अपनेआप नहीं होगी। हमें बहुत परिश्रम करना होगा और इन आवरणों को हटाने के लिए अभ्यास करना होगा। इस परिश्रम का आधार तो विद्यमान है ही, और साथ ही उसके आवश्यक कारक भी। वर्तमान क्षण का हमारे मानसिक सातत्य, वह एकमात्र घटना जो घटित हो रही है, एवं उसके अंश रूपी सारे बुद्धगोत्र कारकों के आधार पर सिद्ध की जा सकने वाली अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति एक वैध ज्ञेय परिकल्पित रूप (प्रज्ञपति सत) है।

बोधिचित्त के दो प्रयोजन हैं। पहला है उसे पाने की इच्छा एवं लक्ष्य रखना। हम प्रेम और करुणा से प्रेरित हैं, और हम परदुःख निवृत्ति द्वारा सबका उपकार करने में सक्षम होना चाहते हैं, और यही कारण है जिससे हम इस बात को समझते हैं कि ऐसा करने का एकमात्र मार्ग है पूर्ण रूप से ज्ञानोदय-प्राप्त होना, अथवा दूसरे शब्दों में, अनुमान पर आधारित इस निरर्थक पेरिस्कोप दृष्टिबोध से छुटकारा पाना; अतः हम उसकी प्राप्ति को लक्षित करते हैं। दूसरा प्रयोजन है वह उत्तर जो हमें मिलता है जब हम अपनेआप से यह प्रश्न पूछते हैं, "उस स्थिति को प्राप्त करने के बाद हम क्या करेंगे?" हम दूसरों का यों यथासंभव उपकार करेंगे।

हम ज्ञानोदय प्राप्ति की उस अवस्था की ओर लक्षित हैं, या यूँ कहें कि हमारा ध्यान उस ओर केंद्रित है, जो अवस्था अद्यापि अघटित है, एवं जिसमें न केवल सत्यग्राह, अपितु सत्यसिद्ध अवस्था की प्रतीति का भी पूर्ण अभाव है, तथा वह अवस्था जहाँ हमारे पास वह सतत रूप से विद्यमान है। वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें उस अवस्था को मानसिक समतान, या जिसे हम सामान्यतः "चित्त" कहते हैं, उसके सन्दर्भ में समझना होगा एवं आश्वस्त होना होगा कि उसकी प्राप्ति संभव है।

चित्त क्या है?

चित्त से हमारा क्या तात्पर्य है? यह कोई सरल विषय नहीं है। इसे समझाने में घंटों लगाए बिना मैं यह कह सकता हूँ कि हम मानसिक क्रियाकलाप के बारे में बात कर रहे हैं। इसका वर्णन उन सभी विद्युत एवं रासायनिक प्रक्रियाओं के प्रसंग में किया जा सकता है जो घटित हो रही हैं, परन्तु हम उस क्रियाकलाप के आत्मपरक, वैयक्तिक अनुभव के दृष्टिकोण से बात कर रहे हैं। यह एक क्रियाकलाप है; हम अनुभव कर रहे हैं ; ध्यान दें कि यह एक क्रिया है, न कि "अनुभव" का संज्ञा रूप।

यह ऐसा नहीं है जैसे, "मैं बहुत सारे अनुभवों को एकत्रित करता हूँ," और, "इस व्यक्ति के पास बहुत सारा अनुभव है।" हम अनुभव कर रहे हैं , क्रिया। हम किसी वस्तु  की बात नहीं कर रहे; हम किसी प्रक्रिया की बात कर रहे हैं जो क्षण प्रतिक्षण घटित हो रही है। हम अनुभवों की बात नहीं कर रहे जिन्हें हम किसी डिब्बे में बटोरते हैं। इस बात को समझना अत्यंत आवश्यक है, और इस सटीक बिंदु के आधार पर भ्रांत धारणा न पाल लें इस बात पर हमें सतर्क रहना होगा।

यह क्रियाकलाप सतत रूप से चलता रहता है। तो वह क्रियाकलाप क्या है? इसे दो दृष्टिकोणों से निरूपित किया जा सकता है। एक है किसी प्रतीति का दृष्टिगोचर होना। वह प्रतीति जो केवल चाक्षुष नहीं है। यह प्रतीति किसी मानसिक होलोग्राम की भाँति होती है। यदि हम इस पर गहराई से विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है। दृष्टिबोध में ये सब दृष्टिपटल से टकराते हुए प्रकाश के चित्राणु मात्र हैं, और जब वे विद्युत् सूचना भेजते हैं तब हम एक मानसिक होलोग्राम देखते हैं; हम केवल प्रकाश के चित्राणु या विद्युत् स्राव को ही नहीं देखते हैं। यह एक मानसिक होलोग्राम है।

श्रवण तथा अन्य सारी इन्द्रियों के विषय में भी यह बात सत्य है। किसी श्रवण क्रिया के एक क्षण का लाखवें भाग में भी हम केवल एक स्वर या एक व्यंजन को ही सुनते हैं। एक बार में हम बस इतना ही सुनते हैं, पर फिर भी उस अवधि में हम पूरे शब्द का ही नहीं, अपितु पूरे वाक्य का मानसिक होलोग्राम बना लेते हैं और साथ ही उसका भावार्थ भी समझ लेते हैं। यह मानसिक होलोग्राम के द्वारा ही संभव होता है। हम एक मिलीसेकंड में पूरा वाक्य नहीं सुनते। तो हम संपूर्ण मानसिक होलोग्राम बनाकर ही बात को समझते हैं, भले ही एक समय में केवल एक ही ध्वनि उत्पन्न होती हो, और हम भी एक समय में एक ही ध्वनि सुनते हों। अद्भुत है, नहीं क्या?

तो बात यह है कि यह तो चित्त का केवल एक आयाम है। इसकी व्याख्या किसी वस्तु से संज्ञानात्मक सम्पर्क के संदर्भ में भी की जा सकती है। यही है देखना, यही है सुनना, यही है सोचना। ऐसा नहीं है कि विचार पहले किसी वस्तु के रूप में उत्पन्न होता है और फिर हम उसके बारे में सोचते हैं। यह मानसिक क्रियाकलाप या मानसिक होलोग्राम की उत्पत्ति किसी वस्तु के बोध होने के समकक्ष है, और बस यही है जो घटित हो रहा है। ऐसा कोई पृथक मैं  नहीं है जो इस विचार से भिन्न है और जो चित्त को एक मशीन की भाँति प्रयोग करके, यहाँ-वहाँ बटनों को दबाकर, उस विचार को क्रियान्वित करता है, और तब हम कहें कि "अब मैं इस विचार पर चिंतन करूँगा", यद्यपि ऐसा लगता अवश्य है। इस प्रकार से विचारों का प्रकट होना असंभव है।

मानसिक होलोग्राम के इस प्रतीति-निर्माण से मानसिक क्रियाकलाप सतत होता रहता है। सामान्यतया, यह विलक्षण वस्तुओं के सत्यसिद्ध अस्तित्व का अवभास-निर्माण है, और हम उसे इसलिए जानते हैं क्योंकि हम उसे देखते हैं, सुनते हैं, या उसका चिंतन करते हैं। परन्तु यह कार्य अज्ञानवश हो रहा है; हम यह नहीं जानते कि यह किसी भी यथार्थ से कोई मेल नहीं खाता।

अब, प्रश्न यह है कि क्या यह अज्ञान मानसिक क्रियाकलाप का भाग हो सकता है? दूसरे शब्दों में, क्या इसका अस्तित्व अनिवार्यतया सतत है? नहीं। क्यों? क्योंकि इसकी किसी भी परस्पर अनन्य विलोम वस्तु से अदला-बदली हो सकती है। दूसरे शब्दों में यह एक मानसिक क्रियाकलाप है जिसमें कोई सत्यसिद्ध अस्तित्व का अवभास नहीं है और न ही एक ऐसे यथार्थ से मेल खाने का विश्वास करने की बात है, जिसमें न कोई अज्ञान हो और न ही कोई सत्यग्राह। यही है शून्यता पर आर्य की समाहितचित्तता।

कौन अधिक शक्तिशाली है? हमारी भ्रमित अवस्था या उस आर्य की पूर्ण समाहितचित्तता? अशुद्धता युक्त मानसिक क्रियाकलाप या अशुद्धता रहित मानसिक क्रियाकलाप? तो, हमारे शोध का विषय है: वैध प्रज्ञा, वैध तर्क पद्धति का समर्थन किस ओर है? जाँच पड़ताल के आगे क्या टिक पाता है? तर्क-योजना और युक्ति का आधार किसमें है? क्या दुःख देता है और क्या दुःख से मुक्त है? क्या परहित में हमारा साथ नहीं देता क्योंकि हम भूल करते हैं, आलसी हैं, इत्यादि, और क्या परहित में पूर्ण रूप से हमारा साथ देता है यदि ग्रहण करने वाला ग्रहणशील हों?

अशुद्धता को प्रक्षेपित करने एवं उसमें विश्वास करने के अभ्यास की विवशता उसे न करने के अभ्यास के बल से कहीं अधिक शक्तिशाली होती है, क्योंकि यह विवशता हमारे अनादिकाल के सांसारिक अस्तित्व के दौरान संचित हुई है। परन्तु शून्यता के हमारे बोध का समर्थन करने वाले बोधिचित्त की शक्ति उससे कहीं अधिक बलशाली होती है, यदि हम सतत एवं स्वतःस्फूर्त बोधिचित्त को प्राप्त करने में सफल हो जाएँ - केवल "सायास बोधिचित्त" से काम नहीं बनेगा। 

सायास बोधिचित्त वह है जहाँ हमें बोधिचित्त को तर्क-वितर्क के माध्यम से गठित करना होगा, जैसे इस प्रकार चिंतन करना कि "सब मेरी माँ बन चुके हैं और मेरे प्रति दया की भावना रख चुके हैं" - यह सायास है और इसे धीरे-धीरे चरण-बद्ध तरीके से सिद्ध करना होता है। यह हमारे साथ सदा नहीं रहता। अभ्यास करते-करते यदि हम वहाँ तक पहुँच जाएँ जहाँ वह निरायास बन जाए, जहाँ तर्क पद्धति का सहारा लिए बिना ही हम उसे जब चाहें अनुभव कर सकें, तो हम उसे प्राप्त कर लेते हैं जिसे हम प्रथम मार्ग कहते हैं - इसे प्रायः "सम्भारमार्ग" कहते हैं - और इस प्रकार हम मार्ग में प्रवेश करते हैं और एक प्रभावी मार्ग से युक्त हो जाते हैं।

तब बोधिचित्त हमारे साथ ही रहने लगता है, हर समय, दिन रात। हम चाहे सो रहे हों या जाग रहे हों, चाहे कुछ भी कर रहे हों, वह हमारे साथ ही रहेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम भले ही उसके बारे में न सोच रहे हों, और न ही सचेत हों, तब भी उस बोधिचित्त लक्ष्य एवं ध्येय (छन्दः) को हम अपने कर्म के परम एवं निश्चित लक्ष्य के रूप में खोएँगे नहीं। ऐसा अनिवार्य नहीं है कि हम उसके बारे में सदा सचेत रहें, या उसका चिंतन करते रहें। यह उस स्थान पर स्थित होता है जिसे हम अवचेतन स्तर कहते हैं।

उस प्रकार का चित्त, उस प्रकार का लक्ष्य, उसका उद्देश्य क्या है? उसका उद्देश्य ऐसी स्थिति को प्राप्त करना है जिसमें किसी प्रकार की अशुद्धता का प्रक्षेपण न हो और न ही किसी प्रकार की अशुद्धता पर विश्वास हो,  जिसमें हम यह सोचें, "मैं ज्ञानोदय प्राप्ति चाहता हूँ क्योंकि अन्य समस्त लोगों का दुःख असहनीय है।" तब वह बोधिचित्त शून्यता का बोध कराता है जो हमें उस ज्ञानोदय-प्राप्त अवस्था तक पहुँचाता है, जिसके द्वारा हमें और अधिक बल भी प्राप्त होगा। इसमें इतनी शक्ति है कि यह अशुद्धता के प्रक्षेपण के अभ्यास को ऐसे नष्ट कर सकता है कि आगे चलकर ऐसा दोबारा कभी न हो।

यह वैध है क्योंकि इस प्रक्रिया के सभी अवलम्ब - विवेक, तर्क, परहित की क्षमता, इत्यादि – अशुद्धता के विरोधी पक्ष में हैं। इसी कारण मोक्ष और ज्ञानोदय प्राप्ति संभव हो जाते हैं। और चूँकि मन की प्रकृति इन "क्षणिक दागों" से शुद्ध है, ये आवरण हटाए जा सकते हैं, केवल अस्थायी रूप से नहीं अपितु सदा के लिए। ये जितनी भी नकारात्मक एवं सकारात्मक मानसिक अवस्थाएँ, क्लेश, उपादान, इत्यादि हैं, ये सब की सब अशुद्धता युक्त मानसिक क्रियाकलाप अज्ञान पर आधारित हैं। तो उन्हें मिटाया जा सकता है। उनका कोई अवलम्ब नहीं होता।

हो सकता है प्रेम, करुणा, क्षान्ति इत्यादि जैसे सभी सकारात्मक, रचनात्मक गुण मलिनता से मिश्रित हों, परन्तु उनका अवलम्ब अशुद्धता रहित मानसिक क्रियाकलाप ही होता है। दूसरे शब्दों में, हम जितनी अधिक मात्रा में सारी मलिनताओं को मिटाते हैं, ये सकारात्मक गुण उतना ही अधिल बलशाली होते जाते हैं एवं नकारात्मक गुण उतने ही बलहीन। यही कारण है कि हम नकारात्मक गुणों को शुद्धीकरण द्वारा समाप्त कर पाते हैं, पर सकारात्मक गुणों को नहीं। जैसे-जैसे हम ज्ञानोदय-प्राप्ति की ओर बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे सकारात्मक गुण अधिकाधिक बलशाली होते जाते हैं और अंततः बुद्ध के महान गुणों के समरूप हो जाते हैं।

कृपया यह न भूलें कि पूर्वार्जित निःसरण के आधार पर ही बोधिचित्त विकसित होता है। हमें संसार से विरक्त होकर सत्यनिरोध की ओर सम्मुख होना है, और बोधिचित्त उसका अगला चरण है। हमें अर्हत की भाँति सीमित सत्त्व नहीं बनना, अपितु ज्ञानोदय प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाना है। यह शून्यता का बोध अथवा तीन प्रमुख मार्ग सहित निःसरण और बोधिचित्त का मिश्रण है।

तंत्र का योगदान क्या है

तीन प्रमुख मार्गों पर यह हमारी एक सामान्य प्रस्तुति है, और स्पष्टतः यह अत्यंत गहन है, और मोक्ष प्राप्ति के हीनयान मार्ग तथा ज्ञानोदय प्राप्ति के महायान मार्ग को समझने का सन्दर्भ प्रदान करती है। महायान के अंतर्गत इन तीनों के सन्दर्भ में हमें सूत्र और तंत्र मार्गों का भी बोध हो सकता है।

तंत्र का योगदान है इस बात को मान लेना कि अब हम बुद्ध के सभी विभिन्न रूपकायों से युक्त हैं और बुद्ध की भाँति कार्य करने में सक्षम हैं, यद्यपि हम इस सत्य से भी पूर्ण रूप से अवगत हैं कि यह अद्यापि अघटित है, अर्थात्, हम अभी उस स्थिति तक पहुँचे नहीं हैं। फिर भी, यह अभ्यास और चिंतन वांछित स्थिति को शीघ्रतर प्राप्त करने की प्रक्रिया को सशक्त करता जाएगा। इसी को कहते हैं तंत्र, अर्थात् यह मान लेना कि हम अभी अभिसम्बोधिकाया (बुद्ध की ज्ञानोत्पादक रूपकाया) - तारा, चेनरेज़िग आदि इष्टदेवताओं - से युक्त हैं और इस बात की कल्पना करना कि हम वास्तव में परहित हेतु अनंत प्रकाश तथा अनंत मनोमयी निर्माणकाया प्रदान कर रहे हैं। परन्तु, साथ ही हमें इस बात से भली-भाँति सचेत रहना होगा कि हम अभी उस स्तर तक पहुँच नहीं पाए हैं।

यह अत्यंत स्पष्ट है कि इन तीन प्रमुख चित्तमार्गों के बिना तंत्र का अभ्यास करना असंभव है; या कम से कम इतना कि चित्त द्वारा निर्मित सामान्य अवभासों (प्रतीतियों), हमारे सामान्य रूपों, के निःसरण के बिना अभ्यास करना विनाशकारी सिद्ध होगा। इससे हम अपनेआप को उन रूपों में मान सकेंगे जो हमारे लक्ष्य को निरूपित करते हैं, और बोधिचित्त के विकास द्वारा हम परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर उन्मुख हो सकेंगे।

यही तो हम इन इष्ट देवताओं के द्वारा कर रहे हैं; यह ऐसा नहीं है जैसे कोई बावला अपनेआप को क्लियोपैट्रा या नेपोलियन मान रहा हो। हमें शून्यता का बोध होना अनिवार्य है ताकि वर्तमान रूप में घटित हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में हमें इस मानस-दर्शन में विभेद करने का बोध हो जाए, एवं इस बात का भी कि चित्त शुद्ध वस्तु है तथा शून्यता के बोध से इस चित्त को उसमें भरे कचरे से मुक्त किया जा सकता है।

ये हैं तीन प्रमुख चित्तमार्ग जो लाम-रिम के क्रमिक स्तर का सार है।

प्रश्न

जब हम चित्रकारी सीखते हैं और हमें एक कुर्सी का चित्र बनाना होता है तो हमसे यह कहा जाता है कि हम "कुर्सी" की संकल्पना, पूर्वधारणाओं, इत्यादि को मिटा दें और उस रूप का ही चित्र बनाएँ जो हमारी आँखों के सामने है। क्या यह हमें शून्यता के बोध की ओर उन्मुख करा सकता है?

यह कहना कठिन है, क्योंकि हमारे अस्तित्व के प्रत्येक क्षण में, सिवाय तब जब हम शून्यता में एकाग्रचित्त रहते हैं, हमारा चित्त उसी कूड़े को प्रक्षेपित करता रहता है, जिसके चारों ओर रेखा खिंची है, अर्थात्, जिसपर हम अनावश्यक रूप से बल दे रहे हैं। हम जो भी देखते हैं उसे केवल एक वस्तु  के रूप में ही देखते हैं। हमें चाहिए कि हम उसका सावधानीपूर्वक विश्लेषण करें। 

मैं इसे और स्पष्ट करता हूँ। हमें क्या दिखाई देता है? हमें प्रकाश के चित्राणु (पिक्सेल) दिखाई देते हैं। या हम यह भी कह सकते हैं कि हमें रंगीन आकृतियाँ दिखाई देती हैं। एक तीसरा सिद्धांत यह भी है कि हमें एक मेज़ दिखाई देती है। जो विद्यमान है वह केवल प्रकाश के चित्राणु (पिक्सेल) या सारंग आकृतियाँ ही नहीं हैं, अपितु मेज़, कुर्सियाँ आदि भी हैं।

यदि हम उस पूर्वधारणा को ही समाप्त कर देते हैं कि कुर्सी कैसी दिखनी चाहिए, तो वह एक बड़ी उपलब्धि होगी। हम इस बात से इन्कार नहीं कर रहे हैं कि यह एक बड़ी उपलब्धि होगी, परन्तु यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि वास्तव में हमें क्या बोध हो रहा है? हमें यह बोध हो रहा है कि दो रंगीन आकृतियों के बीच एक सीमा-रेखा है। जैसे चित्रकारी करते हुए दो विशिष्ट आकृतियों के बीच हम एक सीमा बनाते हैं, और, यदि हम कोई अमूर्त चित्र न बना रहे हों, इस प्रकार की कई रंगीन आकृतियों का समुच्चय एक कुर्सी का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा लगता है मानो इसके चारों ओर एक रेखा है जो इसे पृष्ठभूमि से अलग कर रही है, यद्यपि इस चित्र के चारों ओर हमने भले ही कोई काली रेखा न खींची हो।

हमें यहाँ और अधिक गहराई में जाना होगा। एक अच्छी कुर्सी या सुंदर कुर्सी के रूप की पूर्वधारणा का त्याग केवल पहला कदम है। यह पहला पग है; यह अंतिम पग नहीं है। बात यह है कि हम एक कुर्सी को देख तो रहे हैं, परन्तु जब तक हम बुद्ध नहीं बन जाते, तब तक हमें वह कुर्सी अपनी पृष्ठभूमि से पृथक रखने वाली सीमा-रेखा से घिरी हुई ही प्रतीत होगी।

प्रश्न यह है कि वह अपनी पृष्ठभूमि से कितना अधिक विलग है? क्या ऐसा हो सकता है कि पृष्ठभूमि मिट जाए और कुर्सी फिर भी विद्यमान रहे? तब हम अंतर्संबद्धता के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। यदि वस्तुओं के चारों ओर सीमा-रेखाएँ हों भी, तब भी चित्र के बाकी भाग को मिटाने के बाद भी वह कुर्सी उसमें बनी रहेगी। पर यथार्थ में ऐसा नहीं होता। हमें इसका और अधिक गहनता से विश्लेषण करना होगा।

इसके अतिरिक्त जब हम मानसिक लेबलिंग की बात करते हैं, तो मुझे इसका उल्लेख करना चाहिए, क्योकि मैंने इससे पहले नहीं बताया था, पर यह एक महत्त्वपूर्ण बात है जिस विषय को लेकर हमें कभी भी उलझन में नहीं पड़ना चाहिए: मानसिक नामकरण कुर्सी को रूप नहीं देता। भले ही इस लकड़ी की वस्तु को देखने पर हमारे मन में "कुर्सी" की भावना पैदा हो या न हो, वह कुर्सी का निर्माण नहीं करती। यदि हमारे मन में कुर्सी की भावना पैदा न हो तो क्या इसका अर्थ यह है कि कोई कुर्सी विद्यमान है ही नहीं? क्या किसी भी वस्तु को केवल इसलिए वैध रूप से कुर्सी कहा जा सकता है क्योंकि वह उसपर बैठने वाले को सहारा देने का कार्य करती है? हम अपने विश्लेषण में अधिकाधिक सूक्ष्म होते जा रहे हैं।

सबसे पहले तो यह कि कल और आज मैंने यह सुना कि इस बात पर पूर्ण रूप से भरोसा होना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञानोदय प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति अवश्य होगी। पर, पश्चिमवासी होने के नाते हम पुनर्जन्म की अवधारणा से परिचित नहीं हैं और हमारे लिए इसे समझना भी बहुत कठिन है; हमें इसपर बहुत मेहनत करनी होगी। दूसरी बात यह है कि कई वर्षों से मैं यह सुनता आया हूँ कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें युगों-युगों तक, जन्मों-जन्मों तक, चेष्टा करते ही रहना होगा। क्या यह समस्या हमारे लिए कुछ निराशाजनक नहीं है? इसका समाधान क्या है?

हाँ, सारी शिक्षाएँ यही कहती हैं कि ज्ञानोदय-प्राप्ति के लिए कई युग, अविश्वसनीय रूप से असंख्य युग, लग जाते हैं। क्यों? क्योंकि हमें सारे कबाड़ को समाप्त करने के लिए अतिबृहत मात्रा में पुण्य संचित करना होगा। हमें इस बात को गंभीरता से लेना होगा। इसे "योग्यता" के संदर्भ में न देखें कि इतने अंक प्राप्त कर लें तो हम जीत जाएँगे, अपितु इसे प्राण की अतिबृहत मात्रा या पुण्य के रूप में देखें जिसे अधिकाधिक मात्रा में संचित करना होगा ताकि वह अधिकाधिक सबल होता जाए। इसमें बहुत अधिक समय लगता है परन्तु निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

यही कारण है कि हमें इन पारमिताओं आदि की आवश्यकता होती है: क्षान्ति और वीर्य। याद रखें कि संसार की प्रकृति यह है कि उसमें उतार-चढ़ाव होता ही रहता है। जब तक हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक यह उतार-चढ़ाव होता ही रहेगा। यदि हमसे यह कहा जाए, जैसे माता-पिता यात्रा के दौरान अपने बच्चों से कहते हैं, "बस यहीं थोड़ी ही दूर है," और यदि हमसे यह कहा जाए कि यह आसान होगा और जल्दी होगा, जैसे, "यहाँ बैठो, इस मांत्रिक शब्द का उच्चारण करो, एक लाख साष्टांग प्रणाम करो, और और बस तुम्हें सब मिल जाएगा," तो क्या होता है कि हम और अधिक हताश हो जाते हैं, क्योंकि इतना करने के बाद भी हमें कोई उपलब्धि नहीं होती। यदि यह मान भी लें कि इतना सब करने के बाद हमें कुछ समय के लिए एक नशा-सा हो जाता है, तो वह नशा भी कुछ समय बाद उतर जाता है। हम फिर से निरुत्साहित हो जाते हैं, यही संसार की प्रकृति है।

इस यथार्थवादी मनोदृष्टि को अपनाना ही श्रेष्ठतर है कि यह सरल नहीं होगा, कि इसमें बहुत अधिक समय लगेगा, इसलिए हम किसी नाटकीय परिणाम की अपेक्षा कर निरुत्साहित न हो जाएँ। परम पावन दलाई लामा सदा यही कहते हैं कि जब वे यथार्थवादिता से सोचते हैं कि इसमें अत्यधिक समय लगेगा, तो उससे उन्हें अधिक प्रोत्साहन और आशा मिलती है बजाय इसके कि यह सरल है, "तीन साल के लिए एकांतवास में चले जाओ, कुछ निरर्थक शब्दों का उच्चारण करो, और बस काम बन गया, आप ज्ञानोदय प्राप्त कर चुके।"

हमें क्या प्रोत्साहित करता है? निःसरण (त्याग) को ही ले लें, "यदि मैं कुछ भी नहीं करता तो यह सभी समस्याओं के साथ ऐसे ही चलता ही रहेगा," और "हाय, कितना भयानक, कितना उबाऊ!" इससे भी अधिक सबल है हमारा यह सोचना कि सभी लोग इसी स्थिति में हैं और यह सबके लिए कितना भयानक है। तो माँ कहती हैं, "अब चाहे जितना भी काम करना पड़े, मैं तो अपने बच्चे के लिए खाना लाऊँगी ही। चाहे जितना भी समय लगे, चाहे जितना भी कठिन हो, मैं तो यह करुँगी ही।" यही बात हमारी ज्ञानोदय प्राप्ति की यात्रा पर भी लागू होती है, किसी ने कभी भी यह नहीं कहा कि यह काम सरल होगा।

तो, एक मिथ्या मैं  है और एक व्यावहारिक "मैं"। मिथ्या मैं  अस्तित्वहीन है पर व्यावहारिक "मैं" अस्तित्वमान है। क्या इन सबका उद्देश्य व्यावहारिक "मैं" और इसका सृजन करने वाली इन सभी परम्पराओं को विखंडित करना है?

नहीं, हम जिसका विखंडन कर रहे हैं वह है मिथ्या मैं । परम्पराओं में कोई दोष नहीं है। आपका नाम है "मिक्की", यह बहुत उपयोगी है, और हम आपको इस नाम से पुकार सकते हैं। पिछले जन्म में आपका कोई दूसरा नाम था। इस प्रकार ऐसी कई परंपराएँ हैं जो आप पर वैध रूप से लागू होती हैं: "मनुष्य", "पुरुष," "मैक्सिको का निवासी"। ये सब उपयोगी हैं। हम जिसका विखंडन कर रहे हैं वह है मिथ्या मैं , कि आप में कुछ ऐसी बात है जो आपको मनुष्य बनाती है। "मनुष्य" केवल एक मानस-रचना है, पर है यह उपयोगी।

जीवाश्म वैज्ञानिकों को ही ले लें, जो यह पता लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि, " क्रमिक विकास की इस श्रृंखला में जब हम इन हड्डियों को देखते हैं तो क्या हम किसी प्रकार की निश्चितता के साथ यह दावा कर सकते हैं कि यह हड्डी मनुष्य की है और वह नहीं? यह निश्चितता की रेखा केवल एक प्रकार की मानस-रचना है कि किसी ने कोई मनगढ़ंत परिभाषा रच दी कि मनुष्य ऐसा होना चाहिए - सिर की हड्डी इस प्रकार होनी चाहिए और न जाने क्या-क्या। हमें परम्परा के उस रूप का विखंडन करना है जिसे बढ़ा-चढ़ा दिया गया है, परन्तु स्वयं परम्परा को ही समाप्त नहीं करना है; तो इस प्रकार हम मिथ्या मैं  को विखंडित कर रहे हैं, न कि व्यावहारिक मैं को।

समाज अपनी तमाम परम्पराओं से हमें दुराग्रही बना देता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यदि हम उन सभी सामाजिक परम्पराओं को त्याग दें तो हम अधिक लचीले और स्वतंत्र बन जाएँ?

नहीं। यह केवल अनभिज्ञता, हमारी अज्ञानता, है जो हमें दुराग्रही बनाती है, न कि ये परंपराएँ। परम्पराएँ बहुत काम की होती हैं। यदि "माता-पिता" और "संतान" आदि की परम्पराएँ न होतीं तो हमारा समाज चल ही न पाता। जब हम यह कहते हैं कि, "इस परंपरा पर मेरा एक पूर्वाग्रह है, एक अवधारणा है, एक ठोस विस्तार है कि एक आदर्श पिता, एक अच्छा पिता कैसा होना चाहिए, और एक माँ, एक असली माँ, एक अच्छी माँ कैसी होनी चाहिए" और फिर यह कि, "आप उस ठोस रचना पर पूरे नहीं उतरते!" हम क्रोधित हो जाते हैं और अपने अभिभावकों (माता-पिता) के प्रति क्रुद्ध हो जाते हैं, और फिर हम मुसीबत में पड़ जाते हैं। समस्या "अभिभावक" की परंपरा नहीं है; अन्यथा, कोई भी छोटे बच्चों की देखभाल न करता।

ऐसे में समस्या परंपराएँ नहीं हैं; और न ही समस्या है मानसिक नामकरण; समस्या है उन वस्तुओं का हमारा बोध, जिन वस्तुओं का नामकरण हम परम्पराओं के उपयोग से करते हैं। उन्हें ठोस वस्तुओं में न बदलें। लचीला दृष्टिकोण अपनाएँ कि ऐसी कई-कई परंपराएँ हो सकती हैं। ठीक? कुछ वैध हैं; कुछ अवैध। वह एक बिल्कुल ही पृथक चर्चा बन जाती है। हम किसी भी वस्तु का यों ही नामकरण नहीं कर सकते। जिस वस्तु का नामकरण अधिकांश लोग "कुर्सी" करते हैं, हम उसे "कुत्ता" नहीं कह सकते और न ही वह वस्तु उस नामकरण के कारण कुत्ता बन जाती है। यह वैध नामकरण नहीं है। केवल इसलिए कि हमने मन ही मन किसी वस्तु को किसी विशेष नाम से जोड़ दिया है, वह नामकरण वैध नहीं बन जाता, और न ही वह वस्तु हमारे नामकरण के अनुसार बदल जाती है।

जब हम देखते हैं, सुनते हैं, गंध का अनुभव करते हैं, इत्यादि, तो वह क्या है जो देखता, सुनता, और गंध का अनुभव करता है?

परंपरागत रूप से हम यह कह सकते हैं "मैं देखता हूँ," "मैं सुनता हूँ," पर वह "मैं" पूरी प्रक्रिया से पृथक किसी स्वतंत्र इयत्ता के रूप में अस्तित्वमान नहीं है, जिसके चारों ओर एक बड़ी रेखा है, और जो या तो उसे परखता रहता है या फिर उसे सिद्ध कराता है। यह वैसा ही है जैसा हमने समझाया था कि "इस कुर्सी पर एक शरीर बैठा है," और हम कह सकते हैं, "मैं इस कुर्सी पर बैठा हूँ," लेकिन वह "मैं" मानसिक समतान में बसे अनुभवों के प्रत्येक क्षण के बिंदुओं को जोड़ने की परंपरा है।

निश्चित रूप से मंशा भी चित्त का क्रियाकलाप हो सकती है, जैसे हम किसी वस्तु को देखने के लिए अपने मुँह को घुमाते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है कि कोई पृथक इयत्ता, मैं  है जिसने बटन दबाकर मुँह को घुमाया। यह कैसे हो सकता है कि उस मैं  ने ऐसा करने की मंशा की? मंशा तो चित्तज क्रियाकलाप है, तो ऐसे में चित्तज क्रियाकलाप से पृथक कोई इयत्ता, मैं , सिर घुमाकर बटन दबाने की मंशा कैसे कर सकती है भला? यह अनर्गल बात है। मंशा चित्तज क्रियाकलाप है, और वैसा ही निर्णय लेना भी - ये सभी कुछ।

जब हम बुद्ध के संदर्भ में बात करते हैं और किस प्रकार बुद्ध बातों को जानते हैं, तो क्या बुद्ध केवल कोरे अनुभवों को ही अपनाते हैं और इन परम्पराओं एवं मानसिक नामकरणों को जानते हुए भी उन्हें पृथक रखते हैं और उनसे काम नहीं लेते, और केवल कोरे अनुभवों से ही काम लेते हैं?

पहली बात तो यह है कि बुद्ध के सर्वज्ञ चित्त को जानना या उसका निरूपण करना अत्यंत कठिन है। हमारे पास उसकी बहुत-से-बहुत एक अवधारणा हो सकती है क्योंकि हम उसे निर्वैचारिक रूप से तो जान नहीं सकते जब तक उसे सिद्ध नहीं कर लेते। वास्तव में इस विषय को लेकर विभिन्न बौद्ध सम्प्रदायों में वाद-विवाद चल रहा है। बुद्ध का कोई वैचारिक बोध नहीं होता। सर्वज्ञ चित्त वैचारिक नहीं होता; यह पूर्णतया निर्वैचारिक ही होता है। यह सूत्रों में चर्चित चित्तज क्रियाकलाप से कहीं अधिक सूक्ष्म होता है। इसे “प्रभास्वर चित्त” कहते हैं। बुद्ध-चित्त अवधारणाओं या चित्तज श्रेणीकरणों के आधार पर कार्य नहीं करता। तो अब प्रश्न यह उठता है: क्या बुद्ध चित्तज श्रेणीकरणों से अवगत हैं?

एक विचारधारा यह है कि बुद्ध चित्तज श्रेणीकरणों से अवगत नहीं हैं क्योंकि वे श्रेणियाँ हैं और एक वैचारिक चित्त को ही श्रेणियों का बोध होता है। वैचारिक चित्त एवं चित्तज श्रेणीकरण सीमित चित्त के क्रियाकलाप हैं, और चूँकि बुद्ध का चित्त सीमित नहीं है वह चित्तज श्रेणीकरण से भी युक्त नहीं है। परन्तु इस विचारधारा की समस्या यह है कि बुद्ध सर्वज्ञ नहीं हो सकते क्योंकि बुद्ध अवधारणाओं एवं श्रेणियों को नहीं जानते। दूसरी विचारधारा यह है कि बुद्ध दूसरों की चित्तज श्रेणियों को जानते हैं परन्तु वह सर्वज्ञ चित्त उसके बिना भी प्रत्येक बात का ज्ञान रखते हैं।

इस विषय में मैंने जो व्याख्या सुनी है वह यह है कि बुद्ध को सभी भाषाओं के सभी शब्दों के सभी पारम्परिक नामकरण एवं उनके सन्दर्भों का निर्वैचारिक बोध है। परन्तु वे श्रेणियों का चित्तज नामकरण नहीं करते और न ही शब्दों एवं उनके अर्थों को इन श्रेणियों के द्वारा वैचारिक रूप से ग्रहण करते हैं, जिस विधि को सीमित सत्त्व भाषा को समझने एवं उसका प्रयोग करने के लिए उपयोग करते हैं।

आपका प्रश्न अति उत्तम प्रश्न है और इसका उत्तर देना भी कठिन है और जिस पर विभिन्न तिब्बती गुरुओं ने सदियों से वाद-विवाद किया है। वास्तव में जितने भी विषयों पर हमने चर्चा की है उन्हें समझने का उत्तम मार्ग है उनपर बहस करना।

तो इसके साथ ही हम इस चर्चा को एक समर्पण के साथ यहाँ समाप्त करते हैं। ऐसा हो कि हमने अपनी चर्चाओं द्वारा जितना भी पुण्य कमाया है वह सभी सत्त्वों को बुद्ध की ज्ञानोदय-प्राप्त स्थिति सिद्ध करने का कारण बन जाए। धन्यवाद।

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