बोधिचित्त का पतन या विलोप न होने की शिक्षाएँ

हम बोधिचित्त के बारे में और बोधिसत्त्व के होने का क्या महत्त्व है इन दोनों विषयों पर चर्चा कर रहे थे, और हमने यह देखा कि बोधिचित्त के विकास की सामान्य प्रगति में बोधिसत्त्व संवर ग्रहण करने का माहात्म्य क्या है और साथ ही यह भी देखा कि बोधिचित्त के विकास के कौन-कौन से चरण हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि हमें यह समझना होगा कि इन संवरों की भूमिका क्या है और उन्हें कब ग्रहण करना चाहिए। हममें से कई लोग ऐसे हैं जो अपने बोधिचित्त के प्राथमिक चरणों के बोध को विकसित करने से पहले ही, अपनी अपरिपक्व अवस्था में, इन संवरों को ग्रहण कर लेते हैं। पर फिर भी, बोधिचित्त के सीमित बोध से युक्त होकर और समष्टि के बारे में सोचे बिना भी बोधिसत्त्व संवरों के दिशानिर्देशों का पालन करने का प्रयास करना अत्यंत लाभदायक होता है। यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करके भी हमें अपने बोधिचित्त की उत्पत्ति एवं विकास के मार्ग पर लगे रहना है और साथ ही बोधिचित्त की चित्तावस्था में जो घटित होता है उसे तुच्छ नहीं समझना है क्योंकि यह न केवल आरम्भ में समष्टि को समान रूप से लक्षित करता है, जो अत्यंत व्यापक है, अपितु वह ज्ञानोदय प्राप्ति – यद्यपि-अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति – को भी लक्षित करता है, जो इतना सर्वसमावेशी है कि हमें उसकी सटीक अवधारणा की आवश्यकता होती है।

बोधिसत्त्व संवर ग्रहण करना बनाम प्रतिमोक्ष संवर ग्रहण करना

अब प्रश्न यह उठता है कि हमें इन बोधिसत्त्व संवरों को विधिपूर्वक कब लेना चाहिए। किस प्रकार लेना चाहिए? हम उन्हें या तो बोधिसत्त्व संवरों के विशिष्ट समारोह में ले सकते हैं, या फिर किसी तांत्रिक अभिषेक के भाग के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। विभिन्न प्रकार के अभिषेक और परवर्ती अनुग्रहों तथा अन्य प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठानों के बारे में विस्तार में न जाकर मैं इतना कह दूँ कि सब में बोधिसत्त्व संवरों का ग्रहण करना समाविष्ट है। और जो तंत्र के दो उच्चतम श्रेणियों से जुड़े हुए हैं, चाहे न्यिंग्मा परंपरा हो, जो उच्चतम श्रेणी है, या चाहे नई परंपराएँ (जैसे गेलुग, शाक्य, और काग्यू) हों, इन सबके नियम वही हैं। यदि योग-तंत्र में अभिषेक समाविष्ट है तो उसमें बोधिसत्त्व संवर और तांत्रिक संवर दोनों हैं। अर्थात् वह चाहे क्रिया तंत्र हो या चर्या तंत्र, उसमें बोधसत्त्व संवर संयुक्त हैं। और यदि वह योग तंत्र है तो बोधिसत्त्व और तांत्रिक संवर दोनों ही संयुक्त हैं। और यदि वह अभिनव सम्प्रदाय के अनुत्तरयोग तंत्र या न्यिंग्मा महायोग, अनुयोग, या अतियोग (द्ज़ोंग्चेन) है, तो उसमें बोधिसत्त्व और तांत्रिक संवर दोनों हैं।

शाक्य पंडिता, महागुरु, ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है, "संवरों के बिना कोई अभिषेक नहीं हो सकता, कोई दीक्षा नहीं हो सकती।" और संवरों को ग्रहण करने के लिए आपको अत्यंत सचेत रूप से यह जानना होगा कि आप क्या कर रहे हैं और उसे सचेत रूप से ही स्वीकार भी करना होगा; अन्यथा संवरों का ग्रहण हो ही नहीं सकता। मान लीजिए कि अभिषेक के दौरान आपको कुछ नहीं पता था कि आप क्या कर रहे हैं, और जो पाठ हो रहा था वह किसी विदेशी भाषा में हो रहा था जिसका आपको कोई बोध नहीं था, और बाद में किसी ने आपसे कहा कि आपने तो बोधिसत्त्व और तांत्रिक संवरों को ग्रहण कर लिया है। तो यहाँ आप सावधान हो जाएँ और किसी प्रकार के भुलावे में न रहें। आपने कोई संवर ग्रहण नहीं किया और न ही आपका अभिषेक हुआ है। आप वहाँ गए, आपको वह प्राप्त हुआ जिसे पश्चिम में "अभिषेक का आशीर्वाद" कहा जाता है, जिसे एक सूक्ष्म दृष्टिकोण से देखा जाए तो अभिषेक में भाग लेने पर प्राप्त होने वाली एक उत्प्रेरणा कहा जा सकता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि आपको किसी भी प्रकार का अभिषेक प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि आपने सचेत रूप से संवरों को ग्रहण नहीं किया और न ही सचेत रूप से अभिषेक में भाग लिया।

यदि हमने बिना यह जाने कि हम क्या कर रहे हैं और क्या हो रहा है अभिषेक में भाग ले भी लिया तो, यद्यपि हम उस अभिषेक में केवल उस कुत्ते की तरह थे जिसे तिब्बती लोग प्रायः अभिषेकों में लाते हैं - उस कुत्ते को दीक्षा में भाग लेने पर अभिषेक तो नहीं मिलता - फिर भी, यदि हम उस अभिषेक से प्राप्त मंत्रों की साधना (मन्त्र, मानस दर्शन, इत्यादि) करने का प्रयास करते हैं तो हमारा उस अभिषेक में जाना वैध है, बशर्ते कि भविष्य में हमें अभिषेक प्राप्त होने पर उसे ठीक-ठीक ग्रहण करने की हमारी मंशा उस समय हो। तब तो यह बिल्कुल ठीक है। बड़ी बात यह है कि हमें मिथ्या अभिमान न होने पाए कि, "मैंने तो बहुत कुछ पा लिया!" जबकि  हमें वास्तव में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ होता।

बोधिसत्त्व संवर प्राप्त करने से पहले एक निश्चित स्तर के प्रतिमोक्ष संवर का होना बहुत आवश्यक है। "प्रतिमोक्ष संवर" का अर्थ है व्यक्तिगत मोक्ष का संवर। यह बोधिसत्त्व संवरों का आधार है। यह गृहस्थ का उपासक संवरों के स्तर पर, या श्रामणेर या श्रमणेरिका के स्तर पर, या फिर भिक्षु या भिक्षुणी के स्तर पर हो सकता है; एक अनंतिम भिक्षुणी संवरों का स्तर भी है। गृहस्थ या उपासकों के लिए पाँच संवर हैं; और हम पाँचो के पाँचो ग्रहण कर सकते हैं, या फिर चार, या तीन, या दो, या फिर एक भी, इससे कम-से-कम एक निश्चित स्तर तक तो कोई फ़र्क यहीं पड़ता। ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि हमें पाँच के पाँच संवरों को एक साथ ही ग्रहण कर लेना होगा। यह हम पर निर्भर है, यह हमारा व्यक्तिगत निर्णय है। वैसे आप इसकी घोषणा नहीं करते, यहाँ तक कि अपने गुरु को भी नहीं बताते। आप चाहें तो प्रकट कर सकते हैं पर यह अनिवार्य नहीं है।

उपासक संवर हैं जैसे दूसरों का प्राण न हरना, हत्या न करना; जो आपको नहीं दिया गया है उसे न लेना, अर्थात् चोरी न करना; असत्य कथन अथवा असत्य-संकेत न करना, अर्थात् झूठ न बोलना; अनुपयुक्त यौन व्यवहार न करना - इस शब्द "अनुपयुक्त" का ठीक से अनुवाद करना कुछ जटिल कार्य है, पर हम उसे यहाँ अनंतिम रूप से वैसे ही कहेंगे। फिर है मादक पदार्थों का सेवन न करना, यहाँ इशारा मद्य की ओर है, पर इसमें उन पदार्थों को भी सम्मिलित कर सकते हैं, जैसे चरस, हेरोइन, कोकेन, इत्यादि, जिन्हें मनोरंजन-दायक नशीली दवा भी कहा जाता है। हम उन्हें अंग्रेज़ी में "रिक्रिएशनल ड्रग्स" कहते हैं, जिनका आप केवल अपने मनोरंजन के लिए ही उपयोग करते हैं, न कि औषधीय रूप से, जैसे मारक कैंसर से पीड़ित रोगियों के पीड़ा-निवारण के लिए उन्हें मॉर्फिन दी जाती है। हम उसकी बात नहीं कर रहे, और न ही सिरदर्द के लिए कोई दर्द-निवारक गोली लेने की।

इन पाँचों की विस्तृत व्याख्या करने का यह अवसर नहीं है परन्तु त्सोंगखपा के सूत्र एवं तंत्र पर व्यावहारिक परामर्श पत्र  में लिखा है कि सबसे पहले "हम जब भी किसी बौद्ध यान" - अर्थात् हीनयान, सूत्र महायान, या तंत्र महायान - " में प्रवेश करते हैं तो हमें उसके विशिष्ट संवरों के शील को उसका आधार बनाना होगा।" यह हीनयान के लिए प्रतिमोक्ष संवरों, सामान्य महायान के लिए बोधिसत्त्व संवरों, और तंत्र की उच्चतम श्रेणियों के लिए तांत्रिक संवरों की ओर संकेत करता है। वे आगे लिखते हैं, "और विशेष रूप से जब हम गुह्यमंत्र" - अर्थात् तंत्र - "में प्रवेश करते हैं तब, चूँकि बोधिचित्त ही सभी महायान मार्गों का चरम अनिवार्य साधन है, इसलिए बोधिसत्त्व संवरों के मामले में दृढ़ होना आवश्यक है।"

इस प्रकार त्सोंगखपा तंत्र-युक्त बोधिसत्त्व संवरों की अनिवार्यता पर बल देते हैं। त्सोंगखपा आगे यह भी कहते हैं, "विनय के अनुशासन के नियमों" - अर्थात् या तो उपासक संवर या फिर श्रामणेर या श्रमणेरिका संवर अथवा भिक्षु या भिक्षुणी संवर - "में दीक्षित होने के पश्चात बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने के द्वारा प्राप्त साक्षात्कार सर्वोत्तम होते हैं" - दूसरे शब्दों में, बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने के पश्चात इनमें से किसी भी प्रतिमोक्ष संवर पर आधारित बोधिसत्त्व संवरों के द्वारा जो साक्षात्कार प्राप्त होते हैं - ये उन साक्षात्कारों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ हैं जिन्हें आप केवल बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने के द्वारा प्राप्त करते हैं।" अर्थात् ऐसे साक्षात्कार किसी भी प्रतिमोक्ष संवर के आधार पर प्राप्त साक्षात्कार की तुलना में अधिक सुदृढ़, अधिक उचित होंगे जिन्हें आप अकेले बोधिचित्त संवरों के द्वारा प्राप्त करते हैं।

त्सोंगखपा आगे कहते हैं, "बुद्ध के कथन का यही तात्पर्य था जब उन्होंने कई सूत्रों में यह कहा कि यदि दो बोधिसत्त्व हैं जो सभी अर्थों में समरूप हैं, सिवाय इसके कि एक बोधिसत्त्व गृहस्थ है जिसने वैयक्तिक मोक्ष के संवरों" - अर्थात् प्रातिमोक्ष संवरों - "को ग्रहण न किया हो, और दूसरा अभिषिक्त हो" - अर्थात् जिसका स्तर किसी उपासक या भिक्षु अथवा भिक्षुणी का हो - "तो वह दूसरा बोधिसत्त्व" - अर्थात् जिसका स्तर उपासक, भिक्षु, या भिक्षुणी का है - "अधिक प्रशंसनीय होगा। बुद्ध ने संवरों पर अपनी प्रस्तुति में इन सभी तत्त्वों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है।"

ठीक है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने से पहले बोधिचित्त के किसी विशिष्ट स्तर के अतिरिक्त प्रतिमोक्ष संवर के भी किसी विशिष्ट स्तर से युक्त होना आवश्यक है। याद रहे कि बोधिसत्त्व संवर तभी लिए जाते हैं जब हम संवृत बोधिचित्त को पहले ही सिद्ध (या प्राप्त) कर लेते हैं। हमें इसके लिए प्रवृत्त बोधिचित्त को पहले से ही विकसित करना होगा। और हमने यह देखा कि प्रवृत्त बोधिचित्त के दो चरण होते हैं: भावशून्य अवस्था - हम परहित हेतु बुद्धजन बनने की इच्छा मात्र रखते हैं - तथा प्रतिज्ञाबद्ध अवस्था - जब तक हमारी ज्ञानोदय प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक इस लक्ष्य को नहीं त्यागने की प्रतिज्ञा में बन्ध जाना। और एक बार इस प्रतिज्ञाबद्ध अवस्था को विकसित कर लेते हैं, जो एक अलग अनुष्ठान में भी किया जा सकता है - प्रायः परम पावन दलाई लामा ही बोधिचित्त संवरों को देने से पहले प्रवृत्त बोधिचित्त अवस्था को विकसित करने के इस अनुष्ठान को करते हैं, और इस प्रवृत्त बोधिचित्त में दोनों ही अवस्थाएँ समाहित हैं, नामतः भावशून्य अवस्था एवं प्रतिज्ञाबद्ध अवस्था - तत्पश्चात उस प्रतिज्ञाबद्ध प्रवृत्त बोधिचित्त अवस्था के सम्बन्ध में हम पंचशिक्षा का पालन करने की प्रतिज्ञा लेते हैं।

प्रणिधान हेतु पंच-प्रशिक्षण

इसे यूँ समझिए कि इस जीवनकाल में पतन नहीं होने देने के प्रणिधान के लिए चार शिक्षाएँ और भावी जीवनकालों में अपने प्रणिधान को नहीं खो देने के लिए एक शिक्षा है। यह अंतिम शिक्षा चार वस्तुओं से दूर रहने तथा इनकी चार विलोम वस्तुओं का अभ्यास करने के बारे में है। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने से पहले से ही हम एक निश्चित प्रकार की शिक्षा (प्रशिक्षण), एक निश्चित प्रकार के अनुशासन, का पालन करते रहे हैं, न केवल प्रतिमोक्ष संवरों के संदर्भ में, अपितु इन प्रतिश्रुतियों, इन शिक्षाओं के संदर्भ में भी। तो ये शिक्षाएँ क्या हैं?

बोधिचित्त की चार शिक्षाओं में पहली शिक्षा हमें यह संकल्प दिलाती है कि हमें अपने इस जीवनकाल में पतित नहीं होना है। इसके लिए हमें अपने बोधिचित्त लक्ष्य को सुदृढ़ रखना होगा। हमें उस लक्ष्य को दुर्बल नहीं करना है। तो हम उसे किस प्रकार सुदृढ़ बनाएँ? पहला मार्ग तो यह होगा कि हम बोधिचित्त के विकास के हित एवं लाभ को प्रतिदिन स्मरण करें। इसके लिए शांतिदेव के बोधिचित्तचर्यावतार  के पहले अध्याय में इन हितों की एक लंबी सूची दी गई है। यदि हम उसे प्रतिदिन पढ़ते हैं तो वह अत्यंत हितकारी होगा। यहाँ पते की बात यह है कि हम उस ग्रन्थ के प्रत्येक शब्द को अपनी दैनिक साधना के दौरान न भी पढ़ें तो भी उसके मुख्य बिंदुओं का मनन करने से भी लाभ होगा। ज्ञानोदय प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है इस बोधिचित्त लक्ष्य को सदा स्मरण करते रहना, यथा: "मैं उसे प्राप्त करना चाहता हूँ, मैं उसकी प्राप्ति की ओर कार्यरत हूँ, और इस बात से आश्वस्त हूँ कि मैं उसे प्राप्त कर सकता हूँ और इससे क्या करना चाहता हूँ: अर्थात्, सभी सत्त्वों की सहायता।“

इस विषय-क्षेत्र में रहते हुए हम स्वयं सुखी तो हो सकते हैं - क्योंकि ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु हम स्पष्टतः अपनी परिसीमाओं को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं - उसके अतिरिक्त हम दूसरों को हित एवं सुख भी पहुँचा सकते हैं। और फिर हम केवल सांसारिक मूल्यों के सन्दर्भ में ही सोचें, जैसे दूसरों से प्रशंसा सुनना, दूसरों से सराहा जाना, इत्यादि, तो जैसा कि शांतिदेव कहते हैं, "यदि कोई कुछ भूखे लोगों को मात्र एक बार भोजन करा देने से प्रशंसनीय हो जाता है" - जैसे भूकंप के बाद सहायता करना आदि - "यदि ऐसे व्यक्ति प्रशंसनीय है तो ब्रह्मांड के प्रत्येक सत्त्व को अनंत एवं शाश्वत आनंद प्रदान करने तथा ज्ञानोदय प्राप्ति कराने वाले को आप क्या कहेंगे?"

यदि हम ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं तो हम निरुत्साहित नहीं होंगे और न ही हमें थकान का अनुभव होगा (मैं यहाँ उस सामान्य थकान की बात नहीं कर रहा हूँ जो आप दिन के अंत में अनुभव करते हैं) अपितु हमारे भीतर यह शक्ति होगी कि: "मुझे यह परहित हेतु प्राप्त करना ही होगा।" यह विचार आपको उस ओर जाने के लिए, अर्थात् परहित हेतु, अविश्वसनीय बल देता है। यह अकुशल और मूर्खतापूर्ण क्रियाओं से बचने के लिए अति उत्तम प्रतिरक्षा एवं प्रतिकारक है। "मैं कैसे किसी जड़बुद्धि की तरह काम कर सकता हूँ? मैं स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ? मैं कैसे अकुशल कार्य कर दूसरों को पीड़ा दे सकता हूँ जब मुझे परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति करनी है?" इस तरह के अनेकानेक लाभ हैं जिनका हम अपनेआप को प्रतिदिन स्मरण कराते रहते हैं। और मेरा मतलब है वास्तव में, सिर्फ़ कोशिश नहीं। हम ज्ञानोदय प्राप्ति की प्रतिज्ञा करते हैं और फिर उस प्रतिज्ञा के आधार पर प्रयत्न भी करते हैं।

अब दूसरी शिक्षा है दिन में तीन बार और शाम को तीन बार के हिसाब से प्रत्येक दिन अपने अंतःकरण को पुनःसमर्पित करके तथा बोधिचित्त को ग्रहण कर पुनर्जीवित करते हुए अपने समुत्थान को पुनःपुष्ट एवं सबल बनाना। परन्तु इसका यह मतलब किसी छंद का बिना सोचे समझे पाठ करते जाना नहीं है। यह नहीं कि तिब्बती में या फिर हमारी अपनी भाषा में किसी छंद का बिना सोचे-समझे ही पाठ कर लिया। इस बात को कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि चूँकि इस छंद का पाठ हमारी अपनी भाषा में है तो हम मन लगाकर ही करेंगे। लापरवाही का अर्थ है केवल मुँह से शब्द बोलना और हमारे चित्त में इन शब्दों के अतिरिक्त किसी प्रकार की किसी भावना की अनुभूति या संचार न होना। तो संक्षेप में इसका अर्थ यह हुआ कि हम पहले इसके लाभ के प्रति सचेत हो जाएँ और फिर चरणों को क्रमबद्ध रूप से अंजाम दें, यथा: उपेक्षा, प्रत्येक सत्त्व के प्रति समान रूप से उन्मुक्त विचार, सबने अलग-अलग कालों में मुझपर एक माँ की तरह कृपा की है, आदि इस पूरी पंक्ति को स्मरण कर डालें। ऐसा करने से हमारे बोधिचित्त की पुनःपुष्टि हो जाएगी। और यदि हम प्रतिदिन ऐसा करते हैं तो हमारे प्रणिधान का ह्रास नहीं होगा, वह क्षीण नहीं होगा।

इसलिए यद्यपि इस कामना, इस बोधिचित्त, को उत्पन्न करने की कुछ निश्चित साधनाएँ एवं कुछ निश्चित मानक छंद हैं जिनका हम प्रातः तीन बार एवं सायंकाल तीन बार पाठ कर सकते हैं, तथापि सब लोगों से यह विनम्र निवेदन है कि कृपया इस पाठ को निरर्थक बकबक के स्तर तक सीमित न रखें। और, न ही किसी प्रकार के भ्रम को पाले रहें। इसे प्रत्येक दिन और प्रत्येक सायं करना कोई सरल कार्य नहीं है। इसके लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता है, नहीं क्या?

तीसरी शिक्षा है पुण्यसम्भार एवं ज्ञानसम्भार का विकास करने की चेष्टा करना। दूसरे शब्दों में हम इस भावशून्य बोधिचित्त से यथासंभव परहित की चेष्टा करते हैं। यह पुण्य को संचित करता है। ऐसा नहीं है कि हम केवल अपनी गद्दी पर आराम से बैठे-बैठे ही सबका भला चाहते रहते हैं, अपितु बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने से पहले ही हम दूसरों की सहायता करने का प्रयास आरम्भ कर देते हैं। इसी को कहते हैं पुण्यसम्भार को संचित करना।

दूसरे शब्दों में, एक ओर अपने सुरक्षित ध्यान-साधना कक्ष में बैठे-बैठे यह कह देना कि: "मैं सबके सुख की कामना करता हूँ। मैं परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्त करूँगा", और दूसरी ओर हमसे सहायता माँगने वालों से यह कह देना: "मैं बहुत व्यस्त हूँ" और "मुझे परेशान न करें," इसी तरह का ढकोसला नहीं चलेगा। हम सहायता करने का यथासंभव प्रयास करते हैं। "यथासंभव" का अर्थ है यथार्थवादी होना, हमारी वर्तमान क्षमता एवं वर्तमान परिस्थिति से अधिक कुछ भी करने का वचन न देना। शांतिदेव इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देते हैं। आपूर्ति करने की आपकी क्षमता से परे कुछ करने का वचन न दें। जिस शब्दावली का उपयोग किया जाता है वह है "मैं ज्ञानोदय प्राप्ति के प्रीतिभोज में सबको अपने अतिथि के रूप में आमंत्रित करता हूँ।" शांतिदेव इसे बहुत ही काव्यात्मक शैली में कहते हैं जिसका अर्थ है कि मैं आपकी ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए मेहनत कर रहा हूँ ताकि मैं आपको इस अतिथि के रूप में आमंत्रित कर सकूँ जो ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए भी आएगा। हम यह प्रतिज्ञा करते हैं कि इस प्रतिज्ञा को हम कभी नहीं त्यागेंगे, और जब मुझे ज्ञानोदय प्राप्ति हो जाएगी तो मैं इसे आपको अवश्य प्रदान करूँगा। मैं जिस बात का उल्लेख कर रहा था यह इससे भिन्न है कि एक विशिष्ट स्तर का बोधिसत्त्व अपने से उच्च स्तर के बोधसत्त्व के कृत्य करने का प्रयास नहीं करता। इसे काव्यात्मक रूप से ऐसे कहा जा सकता है कि "जहाँ शेर छलाँग लगा सकता है वहाँ लोमड़ी छलाँग नहीं लगाती।"

शांतिदेव कहते हैं कि इससे पहले कि हम कुछ ऐसा करने की प्रतिज्ञा करें जैसे, "मैं सम्पूर्ण कांग्यूर का रूसी भाषा में अनुवाद करूँगा," हमें चाहिए कि हम अपने को जाँच लें क्योंकि स्पष्ट रूप से इतने कम समय में हम यह काम कर नहीं पाएँगे। उसके बाद हमें इस प्रतिज्ञा को भली-भाँति जाँचना होगा कि क्या हम यह अनुवाद कर भी पाएँगे या नहीं। बेहतर यह होगा कि हम पहले ही कह दें कि यह हम से न हो पाएगा, बजाय इसके कि उस काम को करने की प्रतिज्ञा करके आरम्भ कर दें और फिर बीच में ही उसे छोड़ दें क्योंकि वह हमसे नहीं हो पा रहा। इसलिए यह हर किसी को ज्ञानोदय प्राप्ति कराने की प्रतिज्ञा से पृथक है। ठीक है। इसलिए हम यथासंभव दूसरों की सहायता करते हैं ताकि वे पुण्यसम्भार में वृद्धि कर सकें, और शून्यता की ध्यान-साधना भी करते हैं ताकि शून्यता सम्बन्धी हमारा जो भी बोध है उस स्तर तक ज्ञानसम्भार में वृद्धि करने का प्रयास कर सकें। मैं यह क्यों कर रहा हूँ? मैं यह इसलिए कर रहा हूँ ताकि मैं परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति कर सकूँ। तो इस प्रकार यह हमारे प्रणिधान के ह्रास से बचने में सहायता करता है।

फिर है चौथी शिक्षा। हम परहित का प्रयास करते रहते हैं (या कम-से-कम उसकी इच्छा तो रखते ही हैं), सहायता लेने वाला व्यक्ति चाहे जितना भी दुस्साध्य क्यों न हो। यहाँ हमें बोधिचित्त का स्मरण करना चाहिए: हमें समष्टि की सहायता करनी है, फिर सहायता प्राप्त करने वाला चाहे जितना भी दुस्साध्य क्यों न हो। फिर तो हम इसमें निश्चित रूप से उस मच्छर को भी समाविष्ट कर सकते हैं जो हमारे सिर पर मँडराता रहता है जब हम सोने की कोशिश कर रहे होते हैं। "मच्छर महोदय, मैं तुम्हें ज्ञानोदय प्राप्ति तक लाने का प्रयास करके ही छोड़ूँगा चाहे कुछ भी हो जाए, क्योंकि तुम किसी पिछले जन्म में तुम मेरी माँ रह चुके हो।" यह बहुत ही उन्नत स्थिति है, है न? परन्तु हम कम-से-कम अन्य मनुष्यों के साथ तो ऐसा व्यवहार कर ही सकते हैं।

मैं अपने अनुभव से एक उदाहरण देता हूँ। जर्मनी में एक महिला है जिसकी हालत बहुत ही ख़राब है पर वह किसी भी व्यावसायिक मनोचिकित्सक के पास न जाने की ज़िद पर अड़ी हुई है। वह सदा विभिन्न धर्म संगठनों और शिक्षकों के पास इस उम्मीद में जाती है कि कोई किसी भी तरह उसकी सहायता कर दे, परन्तु वह यह कदापि स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं कि वह विभक्तमनस्कता से पीड़ित है। वह विशेष रूप से मुझसे स्नेह-भाव रखती है और सदा मुझे या तो टेलीफ़ोन करती रहती है या फिर ई-मेल भेजती रहती है। उसे विभिन्न धर्म-केंद्रों एवं धर्म-संगठनों से खदेड़ा जा चुका है क्योंकि जब वह कहीं आसपास होती है तो लोगों को परेशान कर देती है और उसका व्यवहार असह्य हो जाता है। जब वह मुझे फ़ोन करती है तो मैं हमेशा उससे यह बात साफ़-साफ़ कह देता हूँ, "देखिए, मैं आपकी की सहायता करने में अक्षम हूँ। यह मेरी क्षमता से बाहर है। मैं कोई व्यवसायिक मनोचिकित्सक नहीं हूँ। मैं नहीं जानता कि मैं आपकी सहायता किस प्रकार कर सकता हूँ। आपको किसी पेशेवर के पास ही जाना होगा।" उसे कोई मन्त्र आदि देना तो हास्यास्पद होगा। उसके लिए मानसिक उद्वेग के इस चरण में तो ये मन्त्र आदि बिल्कुल सहायक नहीं होंगे। अब यह तो बहुत ही आसान होगा कि जब वह मुझे टेलीफ़ोन करे तो मैं यह कहकर उसकी कॉल काट दूँ कि, "मुझे फिर कभी कॉल न करें" और उस बात को सदा के लिए भूल जाऊँ। परन्तु हमारा प्रशिक्षण कुछ अलग ही है। मैंने तो स्पष्ट रूप से कह दिया है कि मैं अब आपकी सहायता नहीं कर सकता, पर विचारणीय बात यह है कि कम-से-कम उसकी सहायता करने की मेरी इच्छा तो है, "काश मैं आपकी सहायता कर पाता।" मैं अभी ऐसा करने में सक्षम नहीं हूँ। पर इस कारण मैं उसे बहिष्कृत तो नहीं कर देता। इसके लिए निश्चित रूप से अत्यधिक क्षान्ति और अत्यधिक सहिष्णुता की आवश्यकता है, और इसी को विकसित करने के लिए हम यहाँ प्रशिक्षण देते हैं। बात यह है कि उस महिला को दफ़ा न करना भी थोड़ी-बहुत सहायता तो है ही। फिर भी, जैसा कि मैं पहले भी कह रहा था, मैं जितना कर सकता हूँ उससे ज़्यादा करने का दिखावा तो नहीं कर रहा हूँ। सीधी-सी बात यह है कि मैं उसकी सहायता नहीं कर सकता।

ये हैं हमारे प्रणिधान को इस जीवनकाल में भंग होने से बचाने की चार शिक्षाएँ। फिर एक पाँचवीं शिक्षा भी है जिसका हम इस उद्देश्य से पालन करने की प्रतिज्ञा करते हैं कि हम भावी जीवनकालों में अपने प्रणिधान से कहीं वंचित न हो जाएँ। इसमें चार परस्पर विरोधी व्यवहार-समुच्चय समाविष्ट हैं। अर्थात् एक व्यवहार को रोकना या उससे बचना तथा उसके स्थान पर उसका विपरीत व्यवहार करना। परस्पर विरोधी व्यवहार समुच्चय से हमारा यही तात्पर्य है।

व्यतिरेकी आचरण रीति के चार समुच्चय

पहला है कि हम अपने गुरुओं, माता-पिता, और त्रिरत्नों (बुद्ध, धर्म, और संघ) को धोखा देना बंद कर दें। इसके स्थान पर हम उनके प्रति सदा निष्कपट रहें विशेष रूप से परहित के अपने समुत्थान तथा प्रयासों के विषय में। ऐसा करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हम माता-पिता से आरम्भ करते हैं। माता-पिता हमारी शिशु-अवस्था से ही हमारी देखभाल, पालन-पोषण इत्यादि करते हैं। हम अपने माता-पिता पर सदा निर्भर रहेंगे - जब तक कि हम गुरु रिन्पोचे की तरह कमल से जन्म नहीं ले लेते, पर यह अप्रासंगिक है, हम यहाँ इसकी बात करते हैं कि सामान्यतया क्या होगा। हमारे प्रति उनकी असीम कृपा और भविष्य में उनपर निर्भर करने की आवश्यकता के कारण हमें उनसे विश्वासघात या छल नहीं करना चाहिए, और न ही ऐसा बनने का ढोंग करना चाहिए जो हम वास्तव में हैं नहीं, विशेष रूप से उन आध्यात्मिक विषयों को लेकर जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं। इसके विपरीत, जैसा मैंने कहा, हम उनके साथ निष्कपट भाव से व्यवहार करते हैं। अपने आध्यात्मिक गुरुओं के सन्दर्भ में यह बात बिल्कुल स्पष्ट और सीधी-सच्ची हो जाती है। आप उन्हें धोखा न दें और न ही उनसे झूठ बोलें कि, "ओह, मुझे यह या वह सिद्धि प्राप्त हो गई है", जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ, अथवा "मैं यह साधना या वह साधना कर रहा हूँ," जबकि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे होते। या बुद्ध, धर्म, संघ (त्रिरत्न) से: "मैं इस दिशा में जा रहा हूँ, मैं इसकी शरण में जा रहा हूँ" - जबकि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे होते। ऐसा करके हम किसी हानिकारक उद्देश्य के लिए काम कर रहे होते हैं। यदि हमें भविष्य के जीवनकालों में अपने बोधिचित्त के साथ ही रहना है तो हमें अपने माता-पिता पर भरोसा करना होगा; हमें अपने गुरुओं पर भरोसा करना होगा; हमें बुद्ध, धर्म, और संघ की शरण में विश्वास करना होगा। यही कारण है कि हम उन्हें धोखा नहीं देते। हम उनके साथ निष्कपट व्यवहार करते हैं ताकि हमारे भावी जीवनकालों में इस प्रणिधान को विकसित करने, पुनः प्राणसंचार करने, नवजीवन प्रदान करने की परिस्थितियाँ बनी रहें।

बोधिसत्त्व संवर और तांत्रिक संवर प्रतिमोक्ष संवरों की तरह नहीं होते। प्रतिमोक्ष संवरों को हम केवल वर्तमान जीवनकाल के लिए ही ग्रहण करते हैं। परन्तु बोधिसत्त्व और तांत्रिक संवरों को हम ज्ञानोदय प्राप्ति पर्यन्त सभी जीवनकालों के लिए ग्रहण करते हैं। तो यदि हम इस जीवनकाल में बोधिसत्त्व संवर ग्रहण करते हैं तो इसके परवर्ती जन्म में पहले-पहल तो वे निष्क्रिय, प्रसुप्त रहेंगे। मान लीजिए कि हम तिलचट्टे के रूप में जन्म लेते हैं। क्या वह तिलचट्टा बोधिसत्त्व संवरों से युक्त होगा? यदि उस तिलचट्टे ने अपने पिछले जीवनकाल में बोधिसत्त्व संवर ग्रहण किया होगा तो हाँ अवश्य होगा, परन्तु वे संवर सुषुप्त अवस्था में रहेंगे। वे एक प्रकार से मानसिक समतान पर विद्यमान रहेगा। परन्तु वह तिलचट्टा बोधिसत्त्व व्यवहार का अभ्यास नहीं कर सकेगा।

आपको अपनी ज्ञानोदय प्राप्ति तक सभी जीवनकालों में बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करते रहना होगा। अब मान लीजिए मैं अपने अक्षत बोधिसत्त्व संवरों के साथ अपने शरीर को छोड़ देता हूँ और एक तिलचट्टे के शरीर को धारण कर पुनर्जन्म लेता हूँ। तो क्या अपने तिलचट्टे के उस जीवनकाल में मेरे बोधिसत्त्व संवर विद्यमान रहेंगे? हाँ। क्या वे सक्रिय होंगे? नहीं। हमें तो मानव शरीर प्राप्त होने पर भी बोधिसत्त्व संवरों को पुनर्जीवित करना होगा, विकसित करना होगा, उन्हें दोबारा ग्रहण करना होगा। अर्थात्, हमें माता-पिता, आध्यात्मिक गुरु, एवं त्रिरत्नों पर निर्भर रहना होगा। यही कारण है कि आपको उनके साथ एक निष्कपट सीधा-सच्चा सम्बन्ध बनाए रखना चाहिए, न कि कोई छल-भरा सम्बन्ध। अब देखिए, यदि आपका गुरु कपटी हो तो क्या होगा? तो आप हर प्रकार की निंदात्मक परिस्थितियों, मिथ्या रिवाजों में जकड़े पंथों इत्यादि में पड़ जाएँगे, और आपके माता-पिता भी आपके साथ दुर्व्यवहार आदि करेंगे। इसलिए आपको चाहिए कि आप इन सबसे बचे रहें ताकि अपने आगामी जीवनकालों में आप फिर से निर्मल बोधिचित्त विकसित कर सकें।

परन्तु, जैसा कि मैंने कहा, यदि हमारे माता-पिता हमारे आध्यात्मिक मार्ग को नहीं समझते या उसे नहीं स्वीकार करते तो बात कुछ नाज़ुक-सी हो जाती है। हम यह नहीं कह रहे कि आप अपने निजी व्यक्तिगत जीवन की हर छोटी-छोटी बात को भी अपने माता-पिता के साथ सांझा करें। बात यह है कि हमें झूठ नहीं बोलना है, पर इसका यह मतलब नहीं कि आपको हर बात खोलकर बतानी है। इसका आशय आध्यात्मिक बातें है, उनकी सहायता करने की दृष्टि का उल्लेख करती हैं। यदि मैं अपने माता-पिता से वादा करता हूँ कि मैं प्रतिदिन घर के कूड़े को बाहर रखने में उनकी सहायता करूँगा, तो मैं प्रतिदिन घर के कूड़े को बाहर रखता हूँ। सीधी-सी बात यह है कि उनकी सहायता करने में, या फिर यदि वे हमारी आध्यात्मिक साधना के विषय में पूछते हैं तो उत्तर में, हम उन्हें धोखा नहीं देते। हम टालमटोल नहीं करते कि "खैर...वैसे...हाँ...मैं...।" हम झूठ नहीं बोलते कि वह हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखता।

फिर दूसरी बात यह है कि हम बोधिसत्त्वों को दोष देना और उनका तिरस्कार करना बंद करते हैं। तिरस्कारपूर्ण रवैये का मतलब है कि हम आपको नापसंद करते हैं, हम दोष निकालते हैं क्योंकि हम उस व्यक्ति से क्रोधित हैं। किन्तु समस्या यहाँ यह है कि जब तक हम बुद्धजन नहीं हो जाते तब तक हम यह निश्चय नहीं कर सकते कि वास्तव में कौन बोधिसत्त्व है। इसका विलोम यह है कि हम सबको अपना गुरु मान लें। भले ही लोग अभद्र और अरुचिकर व्यवहार कर रहे हों, फिर भी वे हमें यह सीख तो देते हैं कि हमें उस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए। अब आपको यहाँ सावधान रहना होगा कि कहीं आप यह न कह बैठें कि यह क़ानून है, इसका स्वतः स्थापित अस्तित्व है, और हम इसकी सापेक्षता को नहीं मानते। क्योंकि इसका आशय यह नहीं कि यदि कोई अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार कर रहा हो तो उसे रोकने का प्रयास न करें। यदि कोई ग़लती कर रहा हो या फिर कोई हानिकारक कृत्य कर रहा हो तो वह बोधिसत्त्व संवरों का अंग है: यदि आप में उन्हें रोकने की क्षमता है, तो रोक लें। बुद्ध ने सदा ऐसा ही किया। बात यह नहीं है कि हम क्रोध या घृणा के अधीन होकर ग़लतियों को खोज-खोजकर निकालें। "तुम बुरे हो और अब मैं तुम्हें दंड दूँगा, तुम्हारी पिटाई करूँगा।" यह व्यक्ति अकुशल कार्य कर रहा है; यह मेरा शिक्षक है; निस्संदेह यह मुझे ऐसा कार्य नहीं करने की  शिक्षा देता है। परन्तु मैं इसकी सहायता करना चाहता हूँ, और इसकी सहायता करने के लिए इसे नकारात्मक कर्मों को संचित करने एवं हानि पहुँचाने से रोकने में इसकी सहायता करनी होगी। और मैं यह कार्य प्रेम और करुणा से युक्त होकर कर रहा हूँ।

मेरे अपने गुरु थे सरकाँग रिन्पोचे। परन्तु मुझे याद है कि एक और तिब्बती आध्यात्मिक गुरु थे, जिनका मैं नाम नहीं लूँगा, वे अपने शिष्यों को एक अत्यंत उन्नत साधना सिखा रहे थे, जो उन शिष्यों के स्तर से कहीं ऊँची थी। उसपर सरकाँग रिन्पोचे ने कहा, "ठीक है, हो सकता है कि इस गुरु की प्रेरणा परहित के उद्देश्य में निहित शुद्ध बोधिचित्त की प्रेरणा हो, पर वे अपनी पद्धति में निपुण नहीं हैं।" तो वे एक भूल की ओर इशारा कर रहे हैं और, उससे भी गंभीर बात यह है कि, वे यह बात उस गुरु को नहीं अपितु मुझे, अपने शिष्य को, बता रहे हैं। क्या यह परनिंदा नहीं? नहीं। तो फिर सरकाँग रिन्पोचे क्या कर रहे थे? वे इंगित कर रहे थे - वे इस दूसरे गुरु के प्रति क्रोधित नहीं थे - अपितु वे मुझे यह सिखा रहे थे कि सदाशयता तथा बोधिचित्त प्रेरणा एवं लक्ष्य के होते हुए भी हमें परहित की विधियों में कौशल से काम लेना होगा। दूसरों को जो सिखाते हैं उसके बारे में हमें ध्यान से सोचना होगा।

तो, जब कोई ग़लती कर रहा है तो हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि वह ग़लती कर रहा है; हम क्रोधित नहीं होते, और साथ ही हम उससे सबक भी लेते हैं। और यदि वह व्यक्ति बदलने के लिए तैयार है तो हम उसे उसकी ग़लतियाँ बताते हैं। यदि वह बोधिसत्त्व या प्रवृत्त बोधिसत्त्व है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बुद्ध की तरह प्रवीण है और सर्वोत्कृष्ट व्यवहार एवं उसके हितों के बारे में जानता है। और जब हम त्रुटियों की ओर इशारा करते हैं तो यह दावा नहीं करते कि "हम पवित्र सत्ता हैं" और "मैं पवित्र, पवित्र, पुनीत हूँ! मुझे पता है कि सबसे अच्छा क्या है।" ऐसे मिथ्याभिमान से युक्त होकर नहीं अपितु अत्यंत विनम्रतापूर्वक परामर्श देते हैं। तो बात यह है कि हमें निंदा नहीं करनी है, क्रोध के अधीन होकर ग़लतियाँ नहीं निकालनी है; वह कहता है "घृणायुक्त चित्तावस्था के साथ," उस व्यक्ति से घृणा करते हुए, उससे क्रोधित होकर। क्योंकि वह कोशिश कर रहा है। हम यह बात नहीं जानते। चूँकि मैं बुद्ध नहीं हूँ मुझे यह नहीं पता कि आप "अकुशल बोधिसत्त्व" होने के कारण इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, या फिर आप इस प्रकार व्यवहार इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आप बुरी तरह भ्रमित हैं। परन्तु एक और पते की बात यह है कि हमें उस व्यक्ति पर क्रोध इसलिए नहीं करना है क्योंकि हो सकता है कि वह संभावित बोधिसत्त्व हो और इसलिए वह अपने कृत्यों से हमें कोई ज्ञान दे रहा हो, जिससे हमारा बोधिसत्त्व व्यवहार के प्रति सम्मान बना रहे और हमें अपने भावी जीवनकालों में अपने प्रणिधान को बनाए रखने में सहायता मिले।

तीसरा यह है कि हम दूसरों के किसी भी पुण्यकारी या कुशल कार्य के लिए उनसे पश्चाताप करवाना बंद करते हैं। इसके बजाय, हम दूसरों को कुशल एवं उपकारी बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और, यदि वे ग्रहणशील हैं तो, हम उन्हें ज्ञानोदय प्राप्ति के आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर अपने बोधिचित्त को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मान लीजिए कोई कुशल कार्य कर रहा है, उदाहरण के लिए किसी प्रकार की आध्यात्मिक साधना कर रहा है, या किसी ऐसे गुरु की शरण में है जो हमारे अपने नहीं है। ऐसे में हमें अनिवार्य रूप से उसे इस बात के लिए पश्चाताप करवाने से बचना चाहिए: "तुम कैसे मूर्ख हो कि तुम अमुक गुरु के पास जाते हो, अमुक साधना करते हो, या फिर अमुक धर्म-केंद्र से जुड़े हुए हो" - जिससे उस व्यक्ति को अपनी करनी पर पछतावा हो। हो सकता है कि वह अत्यधिक हतोत्साहित हो जाए और आध्यात्मिक पथ पर चलना ही बंद कर दे। परन्तु हम उसे प्रोत्साहित करते हैं, उसकी सहायता करते हैं। यदि वह जो कर रहा है वह कुशल है, पुण्यकारी है - तो अति उत्तम! और यदि वह ग्रहणशील है तो हो सकता है कि उसे कुछ सुझाव दे दें कि वह आगे चलकर और क्या कर सकता है। यदि वह ग्रहणशील नहीं है तो आप कुछ भी न करें। यदि हम यह चाहते हैं कि सब लोगों को ज्ञानोदय प्राप्ति हो जाए तो उसके लिए उन्हें कुशल व्यवहार करना होगा; अर्थात्, यदि उन्होंने कुशलतापूर्वक व्यवहार किया है तो उन्हें प्रोत्साहित करें - अति उत्तम! पर इसके विपरीत उन्हें पछतावा करने पर मजबूर करके उन्हें हतोत्साहित न करें। उसने इस दूसरे धर्म केंद्र को दान दिया और मेरे धर्म केंद्र को नहीं! "हाय, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था - तुम्हें वह मुझे देना चाहिए था।" हम ऐसा काम नहीं करते। ठीक।

और अब इन चार शिक्षाओं में अंतिम शिक्षा है ढोंग या दिखावे का व्यवहार करना बंद कर दें। "ढोंग" का अर्थ है कि हम अपनी कमियों को छिपाएँ और ऐसा व्यवहार करें कि हमारे भीतर कोई कमी नहीं है, और "दिखावा" का अर्थ है कि हम उन गुणों की शान बघारते फिरें जो हमारे पास नहीं हैं। मैं कोई ढोंगी हूँ: तो जहाँ एक ओर मैं आपसे यह कहता हूँ कि आप सिगरेट न पिएँ वहाँ दूसरी ओर मैं स्वयं अपने कमरे में जाकर सिगरेट पीता हूँ। यह ढोंग है। मैं अपनी ही कमियों को छिपा रहा हूँ।

ठीक। इसलिए दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करने के बजाय यदि हम दूसरों की सहायता करने का उत्तरदायित्व लेते हैं तो हमें सदा ईमानदारी और सच्चाई से व्यवहार करना चाहिए। ऐसी कौन-सी बातें हैं जो हमारे लिए बाधक हैं? हमारी क्षमताएँ क्या हैं? यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बातें है। विशेष रूप से यदि आप किसी धार्मिक क्षेत्र में हैं और गुरु या धर्म-साधक के रूप में दूसरों की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं, तो ऐसा ढोंग न करें कि आप कोई धर्मात्मा हैं, जो आप वास्तव में नहीं हैं। बहुत-से ऐसे लोग हैं जो सहायता प्राप्त करने के लिए इतने उतावले होते हैं कि वे किसी भी ऐसे व्यक्ति पर हर प्रकार के गुणों को प्रक्षेपित कर देते हैं जो उन्हें लगता है कि उनकी सहायता कर सकता है। वे किसी रोमानी और आदर्श रूप की कल्पना करने लगते हैं और भाँति-भाँति की मिथ्या आशाएँ बाँधे रहते हैं। और ऐसा होता है कि वे प्रायः अत्यधिक निराश हो जाते हैं और अंततः बहुत हतोत्साहित हो जाते हैं - जिसे हम अंग्रेज़ी में "मोहभंग से ग्रस्त होना" कहते हैं - और हार भी मान लेते हैं। परन्तु यदि हम दूसरों की सहायता करने की स्थिति में हैं, या फिर यदि हम शिक्षक हैं, तो यह अनिवार्य नहीं कि हम अपनी सभी कमियों को उजागर करें; पर जब यह दूसरे व्यक्ति के लिए प्रासंगिक हो तो हम अपनी कमियों को स्वीकार कर लेते हैं। "मैंने इसका अध्ययन नहीं किया है। मैं अभी भी अधीर हो जाता हूँ। मुझे अभी भी क्रोध आता है।" आप इन कमियों को स्वीकार करते हैं। आप उन्हें छिपाते नहीं अपितु आप यह कहते हैं कि आप उन्हें समाप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। क्योंकि यदि हम दूसरों की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं - यह भी हो सकता है कि वह व्यक्ति किसी आदर्श रूप की कल्पना से प्रेरित हो - तो प्रायः ऐसा होता है कि किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण दृढ़ प्रेरणा बन जाए जो अपनी कमियों को ईमानदारी से दूर करने के लिए प्रयासरत हो। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे एक सहायता के इच्छुक शिष्य के रूप में आप तादात्म्य कर पाते हैं।

ये हैं वे पाँच प्रकार की शिक्षाएँ जिनका हम प्रवृत्त बोधिचित्त, विशेष रूप से प्रतिज्ञाबद्ध प्रवृत्त बोधिचित्त, के स्तर पर पालन करने का प्रण लेते हैं। अर्थात्, वर्तमान जीवनकाल में प्रणिधान पतित न होने के लिए चार शिक्षाएँ; तथा भावी जीवनकालों में हम अपने प्रणिधान को न गँवा दें इसके लिए एक शिक्षा (जिसमें ये चार भाग समाविष्ट हैं)।

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