संक्षिप्त समीक्षा
बोधिसत्व संवरों को ग्रहण करने से पहले हमें जिन मूलभूत चीज़ों की आवश्यकता है हम उनके बारे में बात कर रहे थे। हमने लाम-रिम मार्ग के क्रमिक स्तरों की आधार-शिला बनाने की बात की, और हमने बोधिचित्त समुत्थान को संचित करने हेतु प्रक्रिया तथा ध्यान-साधना की भी बात की। हमने इस बारे में भी बात की कि स्वयं बोधिचित्त का विकास किस प्रकार विभिन्न चरणों, अर्थात् प्रवृत्त बोधिचित्त चरण और उसके दो भाग: भावशून्य एवं प्रतिज्ञाबद्ध अवस्थाओं के माध्यम से आगे बढ़ता है; और किस प्रकार इस चरण को ग्रहण करने के लिए पाँच प्रकार की शिक्षाओं की आवश्यकता है जिसके द्वारा बोधिचित्त के विकास को इस जन्म में तथा भावी जन्मों में भी क्षीण होने से रोका जा सकता है; और किस प्रकार हमें आधार के रूप में गृहस्थ अथवा भिक्षु या भिक्षुणियों वाले प्रतिमोक्ष संवरों की थोड़ी-बहुत आवश्यकता होती है। और इन सब के आधार पर संवृतिबोधिचित्त का विकास करते हैं और तत्पश्चात हम बोधिचित्त संवरों को ग्रहण करते हैं।
प्रश्न
तो इससे पहले कि हम संवरों पर चर्चा करें, हमारी अब तक की चर्चाओं पर क्या आपके पास कोई प्रश्न हैं?
आपने कहा था कि जब हम इन प्राथमिक प्रतिमोक्ष संवरों को ग्रहण करते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि हम अपने गुरु को यह बताएँ कि हम कौन-से संवर ग्रहण कर रहे हैं। क्या हमें इन संवरों को गुरु के समक्ष ग्रहण नहीं करना होता?
हाँ, यह सच है कि हमें इन संवरों को गुरु के समक्ष ही ग्रहण करना होता है, परन्तु इन संवरों को प्रायः बड़े समूहों में ग्रहण किया जाता है। तो ऐसे में हमें कुछ भी कहने का अवसर प्राप्त ही नहीं होता, और भले ही इन संवरों को गुरु के सामने एक एक व्यक्ति अलग-अलग प्रस्तुत होकर ग्रहण करता हो, अर्थात् गुरु के समक्ष एक बार में एक व्यक्ति ग्रहण करता हो, फिर भी यह बताना अनुष्ठान का भाग नहीं है कि आप कितने संवर ग्रहण कर रहे हैं। परन्तु यदि आप गुरु के सामने इस बात को प्रकट करना ही चाहते हैं तो इसमें कोई समस्या भी नहीं है, पर यह बात बाध्यकारी नहीं है। साथ ही, हो सकता है कि आरम्भिक चरणों में अपने विकास के स्तर के अनुसार हम केवल तीन या चार संवर ही ग्रहण पा रहे हों, और बाद में हमें यह पता चले कि हम बाक़ी के संवर या केवल एक और संवर ग्रहण करने के लिए तैयार हैं; ऐसे में हम इन संवरों को फिर से ले सकते हैं क्योंकि ये अनुष्ठान प्रायः कई बार आयोजित किए जाते हैं, और दूसरी बार जब हम इन्हें ग्रहण करते हैं तो हम एक और संवर जोड़ सकते हैं। या फिर, इसके विपरीत, यदि हम पाँच के पाँच संवर ग्रहण कर चुके हैं और बाद में हमें लगता है कि हम किसी एक संवर का पालन नहीं कर पा रहे तो अगले अनुष्ठान में हम उसे छोड़ सकते हैं। ऐसा करना कोई लज्जा की बात नहीं है।
पर निश्चित रूप से हम जितने अधिक संवरों का पालन करते हैं हमारा शील (अनुशासन) उतना ही दृढ़ बन जाता है। त्सोंगखपा ने भी कहा है कि यदि हम पूर्ण दीक्षित भिक्षु या भिक्षुणी हो गए हों तो सिद्धियों को प्राप्त करने (अनुबोध प्राप्ति) का यह अति उत्तम आधार है क्योंकि तब आध्यात्मिक साधना के अतिरिक्त हमारा कोई अन्य उत्तरदायित्व नहीं होता (यद्यपि मठीय उत्तरदायित्व हो सकते हैं)। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि यदि हमारे पास प्रतिमोक्ष संवरों की संख्या कम हो तो हम अनुबोध प्राप्ति नहीं कर सकते। प्रश्न केवल यह है कि वह प्राप्ति सरल होगी या नहीं। इसलिए, अपनी ख़ातिर हम अपने शील को जितना सशक्त बनाते हैं हमारी आध्यात्मिक प्रगति उतनी ही सरल होती जाती है। ऐसा नहीं है कि हम गुरु या बुद्ध को सुख देने के लिए अधिक संवरों का पालन करते हैं, वस्तुतः हम परहित हेतु संवर ग्रहण कर रहे हैं।
जब हम कोई संवर ग्रहण करते हैं तो उसका एक लाभ यह होता है कि वह हमें अनिर्णय जनित विचिकित्सा से मुक्त करता है। उदाहरण के लिए, मदिरापान को ही ले लीजिए। भले ही मैं दृढ़ निश्चय कर लूँ कि मैं मदिरापान नहीं करूँगा, या मैं उसे रोकने का प्रयास करूँगा; परन्तु जब भी मेरे समक्ष कोई मदिरा प्रस्तुत करता है तो मुझे यह निर्णय फिर से लेना पड़ता है: मैं इसे लूँ या न लूँ? और यह मेरे चित्त की अशांत अवस्था के कारण होता है। अनिर्णय जनित विचिकित्सा एक अशांतकारी मनोदृष्टि (उपादान) है। हम शांत नहीं हैं क्योंकि हम किंकर्त्तव्यविमूढ़ हैं। पर जब हम संवरों को ग्रहण कर लेते हैं तो सब स्पष्ट हो जाता है। क्योंकि तब हम वह निर्णय सदा के लिए ले चुके होते हैं, अर्थात् वह अपरिवर्तनीय हो जाता है। तो इस प्रकार शुरुआती स्तर पर भी यह हमें अनिर्णय जनित विचिकित्सा से मुक्त कराता है। व्यक्तिगत मोक्ष के लिए यह बहुत सहायक होता है: प्रतिमोक्ष, व्यक्तिगत मोक्ष। यहाँ मोक्ष का तात्पर्य है संसार से मुक्ति। पर सतही स्तर पर भी यह हमें उस अनिर्णय जनित विचिकित्सा से मुक्ति दिलाता है, कम-से-कम उस विशेष प्रकार के व्यवहार से सम्बंधित अनिर्णय जनित विचिकित्सा से।
यदि हम हर वर्ष केवल पन्द्रह मिनट के लिए अपने तांत्रिक गुरु से मिलते हैं तो क्या तंत्र साधना प्रभावी हो सकती है? यदि हम तांत्रिक साधनाओं पर केवल कुछ ग्रन्थों को पढ़ लेते हैं परन्तु हमारा किसी शिक्षक के साथ पूर्णकालिक संबंध नहीं रहता, तो क्या यह साधना तब भी प्रभावी हो सकती है?
अवश्य, यह तब भी बहुत प्रभावी हो सकती है। हममें से अधिकांश का अपने आध्यात्मिक गुरु या तांत्रिक गुरु से दीर्घकालिक निरंतर संपर्क नहीं रहता। निश्चित रूप से तांत्रिक गुरु का मुख्य कार्य हमें अभिषेक देना, संवर ग्रहण कराना, और प्रेरणा (अधिष्ठान) प्रदान करना होता है, और यह सभी आध्यात्मिक गुरुओं का मुख्य कार्य होता है। साथ ही तांत्रिक गुरु हमें विभिन्न शिक्षाओं और व्याख्याओं का मौखिक उपदेश भी देते हैं। पर वास्तविक दैनिक साधना आदि के लिए हो सकता है कि हमें दूसरों से परामर्श लेने की आवश्यकता पड़े। तंत्र पर बहुत-सी पुस्तकें उपलब्ध हैं। तिब्बती भाषा की भी यही स्थिति थी, इसलिए तिब्बती लोग तंत्र साधना पर पर्याप्त व्याख्याओं से परिपूर्ण पुस्तक खरीद सकते हैं, या किसी पुस्तकालय से उसे प्राप्त भी कर सकते हैं।
जैसा कि परम पावन विनोद में कहते हैं, यहाँ तक कि ऐसी शिक्षाओं को, जिन्हें कभी लिखा ही नहीं जाना चाहिए, आप तिब्बती भाषा में पाते हैं, जो न केवल लिखी और छापी गई हैं, बल्कि वे लोग इतने भोले हैं कि उनमें वे पहले ही यह लिख देते हैं, "यह ज्ञान छापा नहीं जाना चाहिए; यह लिखा नहीं जाना चाहिए।" यह नितांत असंगत है। तो यह बात सच नहीं कि केवल पश्चिमवासी ही तंत्र की गूढ़ शिक्षाओं को उदारता से उपलब्ध कराते रहे हैं, बल्कि तिब्बती लोगों ने भी ऐसा ही किया है। तो, जैसा कि परम पावन ने कहा, मिथ्या ज्ञान के स्थान पर सही ज्ञान का किसी भी रूप में उपलब्ध होना बेहतर है।
इस सारी जानकारी के उपलब्ध होने का यह ख़तरा है कि चूँकि आप इसे किसी भी दुकान से खरीद सकते हैं या इंटरनेट से डाउनलोड भी कर सकते हैं इसलिए हमें यह भ्रांत धारणा हो सकती है कि आप बिना किसी गुरु के तंत्र साधना कर सकते हैं जैसे वह तंत्र नहीं बल्कि कोई “घरेलू विधि” हो। और यह बहुत ही ख़तरनाक है क्योंकि इससे न केवल हमारी साधना में त्रुटियाँ होंगी और किसी समस्या या प्रश्न के होने पर हमारी सहायता के लिए कोई भी पास न होगा, बल्कि हमारे पास कोई जीवित प्रेरणा-स्रोत न होगा। गुरुदत्त प्रेरणा की भूमिका को कभी भी कम नहीं आँकना चाहिए। प्रत्येक ग्रन्थ का इसमें महत्त्व समझाया गया है।
अब समस्या यह है कि, भले ही हम अपनी साधना में कठिनाइयों का सामना कर रहे हों और ग़लतियाँ भी कर रहे हों, प्रायः ऐसा होता है कि न तो हमें गुरु के पास जाने का अवसर मिलता है और न ही गुरु को यह अवसर मिलता है कि वे हमारा निरीक्षण करें या हमारी गलतियों को सुधारें। वस्तुतः गुरु और शिष्य के बीच ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध बहुत ही विरल होता है। हम अभी की बात करते हैं, पश्चिम में हमारी वर्तमान स्थिति ऐसी है कि शिक्षक आते हैं, और विशाल दर्शकवृन्द को सम्बोधित करते हैं, सामूहिक दीक्षा प्रदान करते हैं, और फिर अपने रास्ते निकल जाते हैं, और हमारा मार्गदर्शन करने योग्य कोई भी हमारे पास नहीं रह जाता।
तिब्बत में अधिकांश साधक, जो साधना को गंभीर रूप से लेते हैं, मठों में रहते थे। और यदि वे मठों में नहीं रहते थे तो वे ऐसे गृहस्थ थे जो मठों के निकट ही रहते थे। इसलिए उनके आस-पास बहुत-से लोग होते थे जिनके सामने वे अपनी जिज्ञासाएँ रख सकते थे। परन्तु हमारे लिए तो यह बहुत ही कठिन है। उससे भी अधिक ख़तरनाक बात यह है कि हमारे आस-पास ऐसे लोग हैं जो उपयुक्त योग्यता रहित हैं, जिनसे प्रश्न पूछने पर ग़लत परामर्श देते हैं, कुछ न जानते हुए भी जानने का ढोंग करते हैं, जबकि वे सर्वथा अज्ञ हैं। तो ऐसी स्थिति में हमें अपना मूल्यांकन इस प्रकार करना होगा: मैं अपनी साधना के प्रति कितना गंभीर हूँ। मैं उसमें कितना समय और मेहनत लगाने के लिए तैयार हूँ? और क्या यह मेरे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है?
परन्तु, दुर्भाग्यवश अधिकांश पश्चिमवासियों के लिए यह साधना उनके जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग नहीं है। और इसलिए, तिब्बती दृष्टिकोण से देखा जाए तो ऐसे शिष्यों को गंभीरता से लेना मुश्किल है क्योंकि उनकी धर्म साधना उनके लिए दूसरे दर्जे की होकर रह गई है, या फिर यों कहें कि ये लोग साधना को एक शौक़ मानकर अपने खाली समय में कुछ करने के लिए करते हैं। परन्तु यदि हम अपनी साधना के बारे में वस्तुतः गंभीर हैं और यह हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है तो हमें अपने गुरु के साथ नाता जोड़ने के लिए विशेष प्रयास करना होगा और हमें वहाँ जाना होगा जहाँ गुरुगण विराजमान हैं। आप तिब्बतियों को ही देख लीजिए जो प्राचीन काल में शिक्षा प्राप्ति हेतु भारत तक पैदल जाते थे; और मिलरेपा को मारपा से शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितना प्रयास करना पड़ा था। तो इस प्रकार की आशा करना निरर्थक है कि हमें शिक्षाएँ तथा वैयक्तिक अनुदेश सरलता से प्राप्त हो जाएँ। हमें अपने गुरु को यह जताना होगा कि हम वास्तव में परिश्रम करने के लिए तैयार हैं। और मान लीजिए कि हम वहाँ तक पहुँचने में सक्षम हो भी गए जहाँ गुरुगण विराजमान हैं - मान लीजिए हमने परम पावन दलाई लामा से अभिषेक प्राप्त कर लिया है - तो भी इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कभी-न-कभी तो परम पावन से व्यक्तिगत रूप से शिक्षाएँ प्राप्त होंगी ही, विशेषकर वर्तमान समय में जब परम पावन इतने वृद्ध हो गए हैं। वस्तुतः अन्य योग्य गुरु भी तो हैं जो भले ही परम पावन की तुलना में उतने श्रेष्ठ स्तर के न हों परन्तु हमें मार्गदर्शन देने में पूर्ण रूप से समर्थ हैं।
तो यदि हम अपने अनुदेशों एवं शिक्षाओं के लिए पुस्तकों पर निर्भर करते हैं तो हमें इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि कहीं यह आध्यात्मिक गुरु से जुड़ने का विकल्प न बन जाए। देखा जाए तो बौद्ध धर्म की साधना में यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक कदम पर कोई गुरु हमारा हाथ पकड़कर मार्गदर्शन करता रहे। गुरु हमें शिक्षाएँ प्रदान करते हैं, और इसके आगे यह हमपर निर्भर है कि हम उन शिक्षाओं को किस प्रकार व्यावहारिक रूप देते हैं। यह गुरु का दायित्व नहीं होता कि वे हमारी साधना भी कराएँ और हम पर नज़र भी रखें। यदि हमें कुछ भी प्राप्त करना है तो अंततः अपने प्रयासों पर ही निर्भर करना होगा।
कुछ लोग यह कहते हैं कि जब हम प्रतिमोक्ष संवर, पाँच गृहस्थ संवर, ग्रहण करते हैं तो वह गुरु, जिनके सान्निध्य में हम इन संवरों को ग्रहण करते हैं, केवल साक्ष्य वहन करते हैं और हमारी मुख्य प्रेरणा शक्ति तो इन संवरों को ग्रहण करने का हमारा संकल्प ही होता है। अर्थात्, इन प्रतिमोक्ष संवरों को ग्रहण करते समय गुरु सान्निध्य की आवश्यकता केवल एक साक्षी के रूप में ही होती है। यदि कोई गुरु न हो, तो हम अपने को छलेंगे; और यदि कोई गुरु हो, और फिर यदि हम अपने संवरों का उल्लंघन करते हैं तो हम अपने गुरु तथा स्वयं अपने को छलावा देंगे। वे इस बात पर बल देते हैं कि गुरु केवल साक्षी होता है कुछ प्रदान नहीं करता। क्या यह दृष्टिकोण सही है?
अब हम यहाँ बहुत बारीकी से अध्ययन करने लगे हैं। हम वास्तव में प्रतिमोक्ष संवरों को बुद्ध, धर्म, और संघ के सान्निध्य में ग्रहण करते हैं। इसलिए हमारी प्रतिश्रुतियाँ भी बुद्ध, धर्म, और संघ के समक्ष ही ग्रहण की जाती हैं, और यह गुरु के माध्यम से ही ग्रहण की जाती हैं। गुरु अखंड परम्परा का प्रतिनिधि होता है। तो यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि परंपरा अखंड हो। अब कहने को तो यह परंपरा शुद्ध है, पर यह पूर्ण निश्चितता के साथ नहीं कहा जा सकता कि उस परम्परा के सब लोगों ने संवरों का पूर्ण शुद्धता से पालन किया है। यह कहना मुश्किल है, है न? यह हो या न हो, इसकी पहली शर्त यह है कि परम्परा अखंड हो तथा सैद्धांतिक रूप से शुद्ध हो, विच्छिन्न न हो। वस्तुतः तिब्बती परम्परा के तहत पूर्ण दीक्षित भिक्षुणी संवरों को फिर से शामिल करने में समस्या यही है, क्योंकि परंपरा अनेक बार विच्छिन्न हो चुकी होती है। पर उसकी बारीकियों में पड़े बिना मैं इतना कह दूँ कि अखंड परम्परा का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अब हम इस प्रकरण को इस कथन के साथ यहीं विराम देते हैं।
तांत्रिक संवरों में आप देखते हैं कि गुरु ही तांत्रिक का स्थान ग्रहण करते हैं, तो इस अर्थ में इष्टदेवता (बुद्ध रूप) के रूप में स्थित गुरु के सान्निध्य में ही हम इन संवरों को ग्रहण करते हैं। पर आपके प्रश्न में सन्निहित समस्या है सवरों को ग्रहण करने की इस शब्दावली का तात्पर्य। यह संवर कोई वस्तु नहीं है जो गुरु के पास होती हो, जैसे गेंद - कि यह लीजिए मेरे पास यह गेंद, यह संवर, है और मैंने इसे आपको दे दिया और अब यह गेंद आपके पास है। ऐसा नहीं है कि यह कोई “वस्तु” हो, कोई वस्तुतः ठोस अस्तित्व वाली चीज़, जो हर गुरु के पास होती है और अब यह लीजिए मैंने आपको दी, और आपने उसे ले लिया और जैसे-तैसे आत्मसात कर लिया - मैंने उसे आपकी ओर उछाल दिया और आपने उसे पकड़ लिया। अपितु सच्चाई तो इसके विपरीत है, यह संवर आपके मानसिक समतान में अनेक परिस्थितियों एवं कारणों तथा हालात का प्रतीत्यसमुत्पाद है। अब यह बात हमें उस विषय की ओर ले जाती है जिसकी मैं आगे चर्चा करना चाहता हूँ, अर्थात् संवर।
संवर क्या है?
यह कोई सत्यसिद्ध आलम्बन नहीं है जो केवल गुरु के पक्ष में स्वतः अस्तित्वमान रहता है और जो बाद में हमारे पक्ष में स्थानांतरित हो जाता है। हमें इस बात का खंडन करना होगा। यह संवरों का असंभव अस्तित्व है जैसे यह मनोदृष्टि कि "मैंने इसे निर्मल और शुद्ध रखा है और अब इसे मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ, और अब इसे निर्मल और शुद्ध रखने और आगे अपने शिष्यों को सौंपने का दायित्व तुम्हारा है।" यह वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है, यद्यपि हो सकता है कि इसके विषय में हमारा ऐसा बचकाना दृष्टिकोण हो। अपितु इसके ठीक विपरीत, जैसा मैंने कहा, यह एक अवलम्बित परिघटना की भाँति उत्पन्न होता है। तो यह किस पर अवलम्बित है? यह अखंड परम्परा पर अवलम्बित है जिसकी उपस्थिति इस संवर को उत्पन्न करती है।
बोधिसत्व संवर प्रतिमोक्ष और तांत्रिक संवरों से पृथक हैं। बोधिसत्व संवरों को ग्रहण करने की दो विधियाँ हैं। एक है गुरु के साथ और दूसरा गुरु के बिना केवल बुद्ध एवं बोधिसत्त्वों के मानसदर्शन के द्वारा। अर्थात्, बोधिसत्व संवरों के लिए गुरु का होना अनिवार्य नहीं हैं। किसी विशेष कारणवश गुरु की भूमिका एवं सान्निध्य के दृष्टिकोण से, प्रातिमोक्ष एवं तांत्रिक संवरों में परम्परा तथा अखंड परंपरा का केंद्रीय महत्त्व है। बोधिसत्व संवरों के लिए यह अनिवार्य है कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति से ही ग्रहण किया जाना चाहिए जो अखंड शुद्ध बोधिसत्त्व संवरों से युक्त हों। यह सत्य है कि आप स्वयं अपने बोधिसत्त्व संवरों का किसी भी समय मानसदर्शन एवं लघु अनुष्ठान के द्वारा, यदि आप चाहें तो प्रतिदिन भी, नवीकरण कर सकते हैं। परन्तु बोधिसत्त्व संवरों को हम बुद्धजनों तथा बोधिसत्त्वों के सान्निध्य में ग्रहण करते हैं - क्योंकि वे अखंड बोधिसत्व संवरों से युक्त हैं। और यही कारण है कि यह पृथक है। मैं यह नहीं बता सकता कि ऐसा क्यों है क्योंकि मैं स्वयं यह नहीं जानता कि क्या बोधिसत्त्व संवरों को गुरु के सान्निध्य के बिना भी ग्रहण किया जा सकता है। ऐसा क्यों है इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या - या फिर किसी भी प्रकार की व्याख्या - मैंने आज तक नहीं सुनी।
परन्तु, जो भी हो सामान्य रूप से देखा जाए तो किसी अखंड संवर युक्त व्यक्ति के परिस्थिति अनुसार सान्निध्य की आवश्यकता है, फिर वह चाहे वैयक्तिक गुरु हों या, जैसे इस मामले में, बुद्धजन या बोधसत्त्व। प्रतिमोक्ष संवरों के लिए निश्चित रूप से एक विशेष स्तर के निःसरण, मोक्ष को प्राप्त करने के दृढ़ संकल्प, की आवश्यकता होती है। बोधिसत्व संवरों के लिए हमें निश्चित रूप से बोधिचित्त, निष्कपट एवं संवृति बोधिचित्त के विकास की आवश्यकता है। और तंत्र में तो और अधिक पूर्व अपेक्षाओं - अर्थात् निःसरण एवं बोधिचित्त के अतिरिक्त शून्यता तथा पूर्वकों (ङ्गोंद्रो) के बुनियादी बोध - की भी आवश्यकता है; ऐसा बहुत कुछ है जिसकी हमें आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त हमें अपने मानसिक समतान में इन संवरों को उत्पन्न तथा धारण करने का भरसक प्रयास करने की सचेत मंशा होनी चाहिए। भिक्षु और भिक्षुणी संवर आदि और भी अनेक बातें हैं जो अनुष्ठान युक्त लोगों के संदर्भ में अपेक्षित हैं। परन्तु इस समय यह हमारा विषय नहीं कि आप भिक्षु और भिक्षुणी संवरों को किस प्रकार ग्रहण करते हैं।
तो फिर संवर वास्तव में है क्या? इस विषय में दो मत हैं। एक मत वह है जो सौत्रांतिक, चित्तमात्र संवर, और प्रासंगिक (प्रासंगिक का गेलुग्पा धारणा) के अतिरिक्त अन्य सभी माध्यमक विचारधाराओं में प्रस्तुत है। इन विचारधाराओं के अनुसार यह एक चित्त संस्कार है - संवर तो चित्त संस्कार होते ही हैं - जो हमें एक ऐसे निश्चित प्रकार के हानिकारक व्यवहार से रोकते हैं, जिसका परहेज़ करने की प्रतिज्ञा किसी विशिष्ट समारोह में हम औपचारिक रूप से करते हैं। तो एक प्रकार से कहा जाए तो यह अनुष्ठान में की गई प्रबल प्रतिज्ञा पर आधारित नैतिक आत्म-अनुशासन (शील) का दृढ़तर रूप है। परन्तु वैभाषिक दृष्टिकोण और गेलुग्पा के प्रासंगिक दृष्टिकोण के (किसी और के नहीं केवल गेलुग्पा के) अनुसार संवर अविज्ञप्तिरूप (अप्रकट रूप) है - इसके बारे में मैं अभी बताता हूँ - और यह अविज्ञप्तिरूप किसी भी व्यक्ति के मानसिक समतान में स्थित है और चित्त संस्कार की भाँति कार्य करता है। यह हमारे आचरण को रूपाकार देता है।
तो अविज्ञप्तिरूप क्या होता है? यह एक अत्यंत सूक्ष्म रूप है। यह परमाणुओं से नहीं बना है। और इसे "अविज्ञप्तिरूप" इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह क्रिया की साधना के अधमपुरुष (प्रथम) स्तर के समुत्थान को प्रकट नहीं करता। हम यहाँ क्रिया के एक रूप के बारे में बात कर रहे हैं। अब देखिए, दो प्रकार की क्रियाएँ हैं। एक है अविज्ञप्तिरूप, जैसे जब मैं किसी को पीटता हूँ तो मेरा मुख कठोर बन जाता है और उस क्रिया का रूप, उसका आकार, मेरे समुत्थान (प्रेरणा), अर्थात् क्रोध, को विज्ञप्त (प्रकट) करता है। या फिर यदि मैं उस पर चिल्लाता हूँ तो मेरे चिल्लाने का स्वर मेरे समुत्थान को प्रकट करता है, कि मेरे इस क्रिया के पीछे की प्रेरणा क्रोध है। तो यह है विज्ञप्तिरूप की क्रिया। अब अविज्ञप्तिरूप की ओर चलते हैं। यह लगभग एक अत्यंत सूक्ष्म कंपन की तरह होता है जो क्रिया के समुत्थान (प्रेरणा) को विज्ञप्त (प्रकट) नहीं करता। और वैभाषिक या प्रासंगिक (गेलुग प्रासंगिक) दृष्टिकोण से कायिक एवं मौखिक कर्म के लिए हम यह कह सकते हैं कि कर्म वह है जिसे क्रिया का अविज्ञप्तिरूप तथा विज्ञप्तिरूप में निहित ऊर्जा आवेग संदर्भित करता है। कर्म अपनेआप में क्रिया नहीं होता। क्रिया का विज्ञप्तिरूप ही वह ऊर्जा आवेग होता है जो क्रिया के उद्भव के साथ आरम्भ होता है तथा उसके अंत के साथ समाप्त भी हो जाता है। और यद्यपि अविज्ञप्तिरूप का आरम्भ भी क्रिया की उत्पत्ति के ही साथ होता है जब हम क्रिया की शुरुआत करते हैं, परन्तु वह क्रिया के अंत होने के बाद भी चालू रहता है - वह हमारे मानसिक समतान में बना रहता है और तब तक वहाँ बना रहता है जब तक उस क्रिया को दोहराने की हमारी मंशा बनी रहती है। यदि हम यह निर्णय ले लेते हैं कि हम उस क्रिया को फिर कभी नहीं दोहराएँगे तो यह अविज्ञप्तिरूप लुप्त हो जाता है।
और इस अविज्ञप्तिरूप का कार्य क्या है? यद्यपि मैंने इसे न तो ग्रंथों में पढ़ा है और न ही इसके बारे में कहीं सुना है, परन्तु इसपर मेरे अपने विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि इसका परिणाम है उस क्रिया की पुनरावृत्ति का विपाक जो हमारी किसी पूर्व क्रिया के समान है। यह हमारे कर्मफल के विपाक होने से होता है। और यही कारण है कि जब हम उस क्रिया को नहीं दोहराने का निर्णय लेते हैं तो यह अवज्ञप्तिरूप लुप्त हो जाता है जिसके फलस्वरूप हम फिर उस क्रिया को नहीं दोहराते।
संवर इस प्रकार के अविज्ञप्तिरूप का एक सबलतर रूप है क्योंकि उसका आधार किसी भी क्रिया, जैसे घर की सफ़ाई, आदि, का करना मात्र नहीं है; यह प्रबल अनुष्ठान पर आधारित है जिसमें मेरी यह प्रतिश्रुति होती है कि मैं इस प्रकार की क्रिया सदा करता रहूँगा। प्रायः किसी नकारात्मक या हानिकारक क्रिया से निवृत्त होने के लिए संवर ग्रहण किए जाते हैं। (स्मरण रहे कि क्रिया में किसी कार्य को सचमुच करना या फिर उसे करने से परहेज़ करना दोनों सम्मिलित हैं।) और यह संवर उस प्रकार के व्यवहार को दोहराने के कारण के रूप में कार्य करता है। और जब हम यह निर्णय लेते हैं कि हम उस क्रिया को फिर कभी नहीं दोहराएँगे - मैं कभी भी उस प्रकार का व्यवहार नहीं करूँगा जिसे करने का संवर मैंने ग्रहण किया था - तो वह संवर लुप्त हो जाता है।
यदि मैं मध्याह्नभोजन के बाद कुछ भी न खाने का संवर ग्रहण करता हूँ तो यह मेरे लिए दोपहर के बाद भोजन न करने का कारण उत्पन्न करता है। यदि मैं फिर यह निर्णय लेता हूँ कि मेरा यह संवर पूर्णतः निरर्थक था और मैं उस अनुशासन का पालन कभी नहीं करूँगा, मैं प्रतिदिन रात्रिभोजन करूँगा, तो हम उस संवर से मुक्त हो जाते हैं। तो यही है संवरों का स्वरूप, और यही अत्यंत सूक्ष्म रूप हमारे मानसिक समतान में बना रहता है। मेरे मन में इसका निकटतम सादृश्य है एक प्रकार का सूक्ष्म स्पंदन, परन्तु यह भी सटीक नहीं बैठता क्योंकि यह कुछ ज़्यादा ही "नए ज़माने" का सा लगता है। परन्तु यह सूक्ष्म रूप किसी गेंद की तरह भी नहीं है जो गुरु, बुद्धजन, या बोधिसत्त्व के मानसिक समतान से उछाला जाता है और हमारे मानसिक समतान में आ पड़ता है। अर्थात् यह ऐसा नहीं है कि वे हमें कुछ देते हैं, जैसे किसी संवर का "देना" होता है; और ऐसा भी नहीं है कि हम उनसे यह ले लेते हैं।
तिब्बती भाषा में इसके लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसका अर्थ है किसी संवर को हमारे मानसिक समतान में "प्राप्त" करना। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हमें वह संवर किसी और से मिलता है, जैसे हम चिट्ठी प्राप्त करते हैं। इसका लक्ष्यार्थ कुछ "सिद्ध करना" के निकट है। जैसे मैंने बताया, यह अनेकानेक कारकों की उपस्थिति के आधार पर उत्पन्न होता है। और फिर बात यह भी है कि यह हमारे मानसिक समतान में उठता है, हम इसे उत्पन्न करते हैं, और फिर उसे यथासंभव सशक्त बनाए रखने का प्रयास भी करते हैं। तो यह है पूरी शब्दावली जिसका हम प्रायः संवर को "तोड़ने" के लिए उपयोग करते हैं, और यह अत्यंत भ्रामक है, क्योंकि हमने जिस व्यवहार का पालन करने के लिए संवर को ग्रहण किया है यदि हम उसका पालन नहीं करते, तो हम उस संवर को क्षीण कर देते हैं। तो उसे संवर का "उल्लंघन" कहा जाता है, और मुझे लगता है कि यही उचित शब्दावली है। हमने उसका उल्लंघन किया। हम संवर की सीमा को पार कर जाते हैं। और इस बात को अनेक कारक प्रभावित करते हैं कि हमने अपने संवर को कितना क्षीण बनाया है। जब हमने अपने संवर को क्षीण कर ही दिया है तो उस संवर में उस विशेष व्यवहार को दोहराने की अपेक्षाकृत कम शक्ति, कम बल, रह जाता है जिस व्यवहार को दोहराने के लिए ही उस संवर को हमने आरम्भ में मुख्यतः ग्रहण किया था, जैसे दोपहर बाद भोजन न करना।
मान लीजिए कि मैं इस प्रतिश्रुति का अत्यंत दृढ़ता से पालन कर रहा हूँ, यथा, "मैं दोपहर के बाद भोजन नहीं करूँगा" और फिर एक दिन मैं दोपहर के बाद भोजन कर बैठता हूँ, और फिर एक और दिन फिर से कुछ खा बैठता हूँ। तो अब उस संवर की शक्ति क्षीण हो गई क्योंकि, जैसे हमने देखा, मैं अपनी प्रतिश्रुति का नियमित रूप से पालन नहीं कर रहा हूँ। अब आइए हम संवर की शक्ति को क्षीण करने का अर्थ समझते हैं। इसका अर्थ यह है कि उस संवर के समरूप व्यवहार को बार-बार उत्पन्न करने की शक्ति क्षीण होती जाती है। साथ ही हमारे मानसिक समतान से उस संवर को लुप्त कराने के लिए अनेकानेक कारकों को भी जुड़ना होता है, परन्तु हम उसकी चर्चा बाद में करेंगे।
ठीक। तो क्या यह बात कुछ अधिक स्पष्ट हुई? संवर की परिभाषा कुछ जटिल और सूक्ष्म है, पर मेरे विचार से इसे समझना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह एक सूक्ष्म रूप है जिसे हम अपने मानसिक समतान में उत्पन्न करते हैं जो हमारे भावी व्यवहार को रूपाकार देता है, और यह अत्यंत प्रबल भी है क्योंकि हमने इसे एक अत्यंत प्रबल प्रतिश्रुति के आधार पर उत्पन्न किया है।
अनिग्रह तथा तटस्थ प्रतिश्रुति
अभिधर्म में तीन विषयों पर चर्चा है, एक संवर पर, और फिर किसी ऐसे विषय पर जिसका अनुवाद करना अत्यंत जटिल है (संभवतः हम उसे "विरोधी संवर" कह सकते हैं); और फिर कुछ ऐसे विषय पर जो इन दोनों के बीच का है। तो संवर वह है जो बुद्ध, बुद्ध शाक्यमुनि, के द्वारा निर्धारित किया गया है, यथा: प्रतिमोक्ष संवर, बोधिसत्त्व संवर, तांत्रिक संवर। ये अत्यंत विनिर्दिष्ट हैं। हम किसी ईसाई शादी की कसमों आदि की बात नहीं कर रहे हैं। उसे संवरों की इस श्रेणी में नहीं माना जाएगा; संभवतः उसे बीच की श्रेणी का माना जा सकता है। विरोधी संवर (जैसा कि मैं कहता हूँ, इस अवधारणा का उचित अनुवाद मुश्किल है) कुछ अकुशल (विनाशकारी) करने का संवर है, उदाहरण के लिए, मैं सेना में भर्ती होकर यह संवर ग्रहण करता हूँ कि मैं शत्रु को मार डालूँगा। तो यह मूल रूप से बौद्ध-धर्मी संवरों में निषेध की प्रतिश्रुति के ठीक विपरीत करने का संवर है। और फिर है बीच के संवर कुछ ऐसा करने का प्रबल संवर जो शेष दोनों में सम्मिलित नहीं है।
यहाँ मैं यौन नैतिकता के संवर का एक उदाहरण देता हूँ। अनुचित यौन व्यवहार से परहेज़ करने का संवर अनुचित यौन कृत्यों की एक लंबी सूची है। मान लीजिए कि मुझे ऐसा लगता है कि मैं इस सूची के कुछ कृत्यों से परहेज़ करने के लिए तैयार हूँ, जैसे बलात्कार। मैं निस्संदेह उस कृत्य को नहीं करूँगा, पर उस सूची में कुछ ऐसे कृत्य भी हैं जिनसे परहेज़ करने के लिए मैं अभी पूरी तरह तैयार नहीं हूँ। तो हम यह कह सकते हैं कि "मैं उस संवर का एक भाग ही ग्रहण करना चाहता हूँ।" परन्तु बात यह है कि संवरों के सन्दर्भ में ऐसा नहीं हो सकता। या तो आप संवरों को पूर्ण रूप से ग्रहण करें या फिर कुछ भी ग्रहण न करें। यह कोई नहीं कह रहा कि आपको संवर ग्रहण करना ही होगा। इसमें बीच का रास्ता यह हो सकता है कि इस प्रकार के बीच की श्रेणी का संवर ग्रहण कर लें जो सम्पूर्ण संवर के केवल एक विशिष्ट कृत्य को नहीं करने की एक अत्यंत प्रबल प्रतिश्रुति हो सकती है। बात यह है कि बीच की श्रेणी का यह संवर बौद्ध-धर्मी संवर के समान प्रबल न होते हुए भी जब-तब कृत्य को नहीं करने की तुलना में कहीं अधिक प्रबल होता है। इसलिए, इस प्रबल प्रतिश्रुति तथा इस संवर को ग्रहण करना, उदाहरण के लिए मैं बलात्कार नहीं करूँगा, अत्यंत सकारात्मक होता है; और यह संवर केवल बलात्कार नहीं करने की प्रतिश्रुति की तुलना में कहीं अधिक पुण्य संचित करता है। हम इस संवर को ग्रहण तो कर लेते हैं, परन्तु याद रहे कि बलात्कार नहीं करने का यह संवर अनुपयुक्त यौन व्यवहार में संलग्न नहीं होने के सम्पूर्ण बौद्ध-धर्मी संवर का एक अंशमात्र होने के कारण उस सम्पूर्ण संवर जितना प्रबल नहीं हो सकता।
क्या मेरी समझ सही है? यदि मुझे ऐसा लगता है कि कोई संवर गलत या निरर्थक है और इसलिए अब मैं उसका पालन न करने का निर्णय लेता हूँ तो वह संवर मेरे लिए लुप्त हो जाएगा। परन्तु, यदि किसी कारणवश मैं इनका पालन जब-तब नहीं कर पाता हूँ, पर हो सकता है मैं अगली बार करूँ तो इससे मेरा संवर केवल क्षीण हो जाएगा, लुप्त नहीं।
यह सही है। पर इसमें और अधिक गौण बातें भी हैं जिनकी हम बाद में चर्चा करेंगे ताकि इसपर और अधिक सटीक बोध प्राप्त कर सकें।