शरणागति के लिए अभ्यास साधना

प्रस्तावना

शरणागति लेने का अर्थ त्रिरत्नों – बुद्धजन, धर्म, और संघ – द्वारा निर्दिष्ट सुरक्षित और सकारात्मक मार्ग को अपने जीवन में अपनाना और तब तक इस मार्ग पर अविचल  रूप से चलते रहने की प्रतिज्ञा करना होता है जब तक कि इस मार्ग पर चलते हुए हमें मुक्ति या ज्ञानोदय की प्राप्ति न हो जाए।

किसी पूर्ण अभिषेक या उसके बाद के किसी अनुज्ञा अनुष्ठान के समय बोधिसत्व संवर या किसी तांत्रिक दीक्षासंस्कार के समय विधिवत रूप से शरणागति ग्रहण करना किसी आध्यात्मिक शिक्षक के साथ किसी अलग से किए गए अनुष्ठान में शरणागति लेने के जैसा ही होता है। बालों की एक लट काटना और धर्म नाम धारण करना इस प्रक्रिया के आवश्यक अंग नहीं हैं। किसी बोधिसत्व संवर अनुष्ठान या दीक्षासंस्कार, भले ही वह पहली बार ही क्यों न किया जा रहा हो, में प्रक्रिया के इन अंगों को छोड़ दिया जाता है।

जब हम औपचारिक रूप से अपने जीवन को सुरक्षित और सकारात्मक दिशा की ओर प्रवृत्त करते हैं तो हम अपने आप को ऐसी दो प्रकार की साधनाओं के लिए प्रवृत्त करते हैं जो इस दिशा को कायम रखने में सहायक होती हैं:

  1. परिव्यापक ग्रंथ में निर्दिष्ट अभ्यास साधनाएं
  2. सारतत्व शिक्षाओं में निर्दिष्ट अभ्यास साधनाएं

पहले प्रकार की अभ्यास साधनाएं विनिश्चय संग्रह से ली गई हैं, जो कि चौथी या पाँचवी शताब्दी के भारतीय आचार्य असंग द्वारा रचित योगाचार्यभूमि के पाँच ग्रंथों में से एक है।

दूसरे प्रकार की अभ्यास साधनाओं के दो समूह हैं:

  1. त्रिरत्नों में से प्रत्येक रत्न के लिए अलग-अलग अभ्यास साधनाएं
  2. सभी त्रिरत्नों के लिए समान रूप से की जाने वाली अभ्यास साधनाएं

अभ्यास के लिए निर्धारित किए गए इन तीनों समूहों की साधनाएं कोई प्रतिज्ञाएं नहीं हैं। यदि हम इनमें से किसी का भी उल्लंघन करते हैं तो उसके परिणामस्वरूप केवल हमारे जीवन की सुरक्षित दिशा ही क्षीण होती है। जब तक कि हम विधिवत उस दिशा को छोड़ न दें तब तक हमारी दिशा खोती नहीं है।

परिव्यापक ग्रंथ में निर्दिष्ट की गई अभ्यास साधनाएं

असंग के ग्रंथ से ली गई अभ्यास साधनाओं के चार-चार साधनाओं वाले दो समूह हैं। पहले समूह में एक साधना बुद्धजन से सुरक्षित दिशा ग्रहण करने के समानान्तर है, दो धर्म से, और एक संघ से सुरक्षित दिशा ग्रहण करने के समानान्तर है। चार अभ्यास साधनाओं वाला दूसरा समूह सम्पूर्ण त्रिरत्न से सम्बंधित है।

बुद्धजन से सुरक्षित दिशा ग्रहण करने के समानान्तर अभ्यास साधना, (1) अपने आप को पूरे मन से किसी आध्यात्मिक शिक्षक के प्रति समर्पित करना। यदि अभी तक हम अपनी साधना का मार्गदर्शन करने के लिए कोई निजी शिक्षक न ढूँढ पाए हों, तो यह प्रतिबद्धता अपने लिए शिक्षक ढूँढने के लिए होती है।

औपचारिक रूप से किसी शिक्षक की उपस्थिति में शरणागत होने का यह मतलब नहीं है कि हम आवश्यक रूप से इस शिक्षक को अपना आध्यात्मिक मार्गदर्शक मानते हुए उसका अनुसरण करने के लिए प्रतिबद्ध हों। हाँ, यह अवश्य महत्वपूर्ण होता है कि हम जीवन में हमारे लिए सुरक्षित दिशा का द्वार खोलने के लिए उस व्यक्ति का सदा सम्मान करें और उसका आभार मानें। किन्तु, हमारी शरणागति तो त्रिरत्न – जिसे अनुष्ठान के समय बुद्ध की प्रतिमा या चित्र के द्वारा दर्शाया जाता है – के प्रति होती है, हम उस अनुष्ठान को सम्पादित करने वाले किसी व्यक्ति के शरणागत नहीं होते हैं। केवल किसी तांत्रिक दीक्षासंस्कार के मामले में ही शिक्षक शरणागति के त्रिरत्नों का प्रतिरूप होता है और उस स्थिति में उससे सुरक्षित दिशा ग्रहण करने से आध्यात्मिक गुरु और शिष्य के बीच का औपचारिक बंधन उत्पन्न होता है।

इसके अलावा, चाहे संदर्भ कोई भी हो, हमारी सुरक्षित दिशा सामान्य तौर पर त्रिरत्न की दिशा होती है, किसी विशेष गुरु परम्परा या बौद्ध परम्परा की दिशा नहीं होती। यदि शरणागति ग्रहण अनुष्ठान या दीक्षासंस्कार सम्पादित करने वाला शिक्षक किसी विशेष गुरु परम्परा से आता हो, तो उस गुरु से सुरक्षित दिशा ग्रहण करने के कारण यह आवश्यक नहीं है कि हम उसी गुरु परम्परा के अनुयायी हो जाएंगे।

जीवन में धर्म की दिशा को कायम रखने के लिए, (2) बौद्ध शिक्षाओं का अध्ययन करना और (3) अपने अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों पर विजय पाने के लिए शिक्षाओं के उन्हीं पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करना। शास्त्रों का अध्ययन करना ही काफी नहीं है; हमें धर्म की शिक्षाओं को अपने निजी जीवन के व्यवहार में भी लागू करना चाहिए।

उच्च सिद्धि प्राप्त साधकों (आर्यजन) के संघ से सुरक्षित दिशा ग्रहण करना, (4) उनके उदाहरण का अनुसरण करना। ऐसा करने का मतलब यह नहीं है कि हम आवश्यक रूप से मठवासी हो जाएं, बल्कि इसका अर्थ है कि हम जीवन के चार सत्यों (चार आर्य सत्यों) का ईमानदारीपूर्वक और निर्वैचारिक बोध हासिल करने के लिए ईमानदार प्रयास करें। ये सत्य हैं कि जीवन कठिनाइयों से भरा है; हमारे दुख किसी कारण, अर्थात वास्तविकता के बारे में हमारी मिथ्या दृष्टि के कारण उत्पन्न होते हैं; हम अपनी समस्याओं का अन्त कर सकते हैं; और ऐसा करने के लिए हमें चित्त के मार्ग के रूप में शून्यता का बोध हासिल करने की आवश्यकता है।

सम्पूर्ण त्रिरत्न में सुरक्षित दिशा लेने के समानान्तर, (5) असावधान होने पर चित्त के इंद्रिय सुख-भोग की ओर भटकने पर अपने चित्त को वापस खींचना, और इसके विपरीत अपने आप में सुधार करने को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानना। इसका मतलब है कि हम अधिक से अधिक मनोरंजन, खानपान, और यौन अनुभूतियों के पीछे दौड़ने तथा ज्यादा से ज्यादा धन और भौतिक सुख-साधन जोड़ने के बजाए अपने समय और अपनी ऊर्जा को अपनी कमियों को दूर करने और अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं को विकसित करने में लगाएं।

(6) बुद्धजन द्वारा निर्धारित नैतिक मानकों को अपनाना। इस नीति में किसी दैवी व्यवस्था द्वारा निर्धारित नियमों के पालन मात्र के बजाए स्पष्ट तौर पर यह भेद किया जाता है कि जीवन की सकारात्मक दिशा के लिए कौन सा व्यवहार नुकसानदेह है और कौन सा व्यवहार लाभकारी है। इसलिए, बौद्ध नीतिशास्त्र का पालन करने का मतलब कुछ विशेष प्रकार के आचरणों से दूर रहना होता है क्योंकि उस प्रकार के आचरण विनाशकारी होते हैं और स्वयं अपनी और दूसरों की भलाई करने की हमारी क्षमताओं में बाधा उत्पन्न करने वाले होते हैं, और अन्य प्रकार के आचरण को अपनाना होता है क्योंकि उस प्रकार के आचरण सकारात्मक और हमारे विकास में सहायक होते हैं।

(7) दूसरों के प्रति जितना अधिक हो सके सहानुभूति और करुणा का व्यवहार करने का प्रयास करना। यदि हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य केवल हमारी निजी समस्याओं से मुक्ति पाने तक ही सीमित हो तब भी यह मुक्ति दूसरों को नुकसान पहुँचा कर प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।

और अन्त में, त्रिरत्न के साथ अपने सम्बंध को बनाए रखने के लिए, (8) बुद्ध की ज्ञानोदय प्राप्ति की वर्षगाँठ जैसे बौद्ध पर्वों पर फल, फूल आदि का विशेष चढ़ावा अर्पित करना। धार्मिक पर्वों को पारम्परिक धार्मिक क्रियाओं के साथ मनाने से हमें एक व्यापक समुदाय का हिस्सा होने की अनुभूति होती है।

त्रिरत्नों में से प्रत्येक रत्न के लिए अलग-अलग अभ्यास साधनाएं

सारतत्व शिक्षाओं से लिए गए कृत्यों के पहले समूह में तीन त्याज्य कृत्यों की अभ्यास साधनाएं और त्रिरत्नों में से प्रत्येक रत्न से सम्बंधित व्यवहार में अपनाए जाने वाले तीन कृत्य शामिल होते हैं। त्याज्य कृत्य जीवन को एक विपरीत दिशा की ओर ले जाते हैं, जबकि अपनाए जाने वाले कृत्य लक्ष्य के प्रति सचेतनता को बढ़ाते हैं।

तीन त्याज्य कृत्य हैं, बुद्धजन से सुरक्षित दिशा ग्रहण करने के बावजूद, (1) और किसी स्रोत से सर्वोपरि दिशा ग्रहण करना। जीवन में सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य अधिक से अधिक भौतिक वस्तुओं और मनोरंजन के साधनों को जुटाना नहीं रह जाता है बल्कि दूसरों की और अधिक भलाई करने के योग्य बनने के लिए प्रेम, धैर्य, एकाग्रता, और ज्ञान जैसे सद्गुणों को अधिक से अधिक संचित करना होता है। यह कोई अभाव या संयम का जीवन जीने की प्रतिज्ञा नहीं है, बल्कि जीवन में अधिक प्रगाढ़ दिशा अपनाने की प्रतिज्ञा है।

विशेष तौर पर, इस प्रतिबद्धता का मतलब देवी-देवताओं या भूत-प्रेतों की परम शरण न लेना होता है। बौद्ध धर्म में, विशेष तौर पर तिब्बती बौद्ध धर्म में अक्सर बाधाओं को दूर करने और सकारात्मक प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए बुद्ध के विभिन्न स्वरूपों (यिदम, तांत्रिक देवी-देवताओं) या उग्र प्रतिपालकों के लिए पूजा अनुष्ठानों की बात की जाती है। इन अनुष्ठानों को करने से ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं कि नकारात्मक सम्भाव्यताएं बड़ी बाधाओं के बजाए केवल मामूली और छोटी बाधाओं के रूप में ही फलित होती हैं, और सकारात्मक सम्भाव्यताएं देर से फलित होने के बजाए शीघ्र फलित हो जाती हैं। किन्तु यदि हमने अत्यधिक नकारात्मक सम्भाव्यताएं जमा कर रखी हों तो फिर ये अनुष्ठान कठिनाइयों को दूर करने की दृष्टि से निष्प्रभावी होते हैं। इसलिए देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों, प्रतिपालकों, या बुद्धजन को भी प्रसन्न करना कभी भी अपने कर्मों को नियंत्रित रखने का विकल्प नहीं हो सकता है – विनाशकारी आचरण से दूर रहने और सकारात्मक व्यवहार करने का स्थान नहीं ले सकता है। बौद्ध धर्म किसी प्रतिपालक की आराधना करने, या बुद्ध की भी आराधना करने का आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। सुरक्षित बौद्ध मार्ग यह है कि हम स्वयं अपनी मुक्ति या ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रयास करें।

धर्म की सुरक्षित दिशा अपनाने के बावजूद, (2) मनुष्यों या पशुओं को क्षति पहुँचाना या उनका अनिष्ट करना। बुद्ध द्वारा दिया गया एक प्रमुख दिशानिर्देश यह है कि जितना अधिक सम्भव हो सके दूसरों की सहायता की जाए, और यदि हम सहायता कर पाने की स्थिति में न हों, तो कम से कम किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाएं।

संघ की सुरक्षित दिशा अपनाने के बावजूद, (3) नकारात्मक लोगों के साथ घनिष्ठ सम्बंध रखना। ऐसे लोगों के साथ सम्पर्क रखने से बचे रह कर हम उस अवस्था में अपने सकारात्मक लक्ष्यों से भटकने से बच सकते हैं जब हमारे जीवन की दिशा पर हमारी पकड़ कमज़ोर होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम किसी बौद्ध समुदाय में जा कर रहने लगें, बल्कि इसका मतलब है कि हम अपनी संगत के बारे में सावधानी बरतें और हानिकारक प्रभावों से बचने के लिए उपयुक्त और आवश्यक उपाय करें।

अपनाए जाने योग्य तीन सम्मानसूचक कृत्य हैं (4) बुद्ध की सभी प्रतिमाओं, चित्रों, और अन्य प्रकार के कलात्मक चित्रणों, (5) सभी पुस्तकों, विशेषतः धर्म सम्बंधी पुस्तकों, और (6) बौद्ध भिक्षु संवर धारण किए हुए सभी व्यक्तियों, और उनके चीवर का भी सम्मान करना। पारम्परिक तौर पर जिन चीज़ों को असम्मानजनक माना जाता है वे हैं इन चीज़ों पर पैर रखना या इनके ऊपर से होकर गुजरना, उनके ऊपर बैठना या खड़े होना, और उनके नीचे कम से कम एक कपड़ा बिछाए बिना उन्हें सीधे ज़मीन पर या फर्श पर रखना। हालाँकि ये वस्तुएं सुरक्षित दिशा का वास्तविक स्रोत नहीं हैं, किन्तु ये ज्ञानोदय प्राप्त सत्वों के प्रतीक होते हैं और हमें उनकी उच्च सिद्धियों, और उस दिशा में बहुत प्रगति कर चुके उच्च सिद्धि प्राप्त साधकों का स्मरण कराती हैं।

सभी त्रिरत्नों के लिए समान रूप से की जाने वाली अभ्यास साधनाएं

सुरक्षित दिशा लेने सम्बंधी प्रतिबद्धताओं का अन्तिम समूह उन छह कृत्यों का अभ्यास करने से सम्बंधित है जो पूर्ण त्रिरत्न से सम्बंधित हैं। ये छह प्रतिबद्धताएं हैं:

(1) शरणागति के तीन रत्नों के गुणों, और जीवन की दूसरी सम्भावित दिशाओं के अन्तर को निरंतर स्मरण करते हुए अपनी सुरक्षित दिशा की पुनःपुष्टि करना।

(2) त्रिरत्न की कृपा और उनके आध्यात्मिक आश्रय के आभारस्वरूप अपने प्रतिदिन के गर्म पेय और भोजन में से पहला हिस्सा त्रिरत्न को अर्पित करना। ऐसा प्रायः कल्पना में ही किया जाता है, हालाँकि हम दिन के अपने पहले गर्म पेय का एक छोटा हिस्सा बुद्ध की किसी प्रतिमा या चित्र के समक्ष रख सकते हैं। बाद में हम कल्पना करते हैं कि बुद्ध उसे हमें ही लौटा देते हैं ताकि हम स्वयं उस पेय का आनन्द उठा सकें। अपने चढ़ावे को टॉयलेट में फ्लश कर देना या सिंक में उँडेल देना घोर असम्मानजनक होगा।

भोजन या पेय का चढ़ावा अर्पित करते समय किसी ऐसी विदेशी भाषा में किसी प्रार्थना का जाप करना आवश्यक नहीं है जिसे हम समझते ही न हों, हाँ यदि हमें उसका मर्म बहुत अधिक प्रेरणाप्रद लगता हो तो हम वैसा कर सकते हैं। “हे बुद्धजन, कृपया इसे स्वीकार करें,” इतना कह देना ही पर्याप्त है। यदि हम ऐसे लोगों के साथ भोजन कर रहे हों जो बौद्ध न हों, तो यही श्रेयस्कर होगा कि यह चढ़ावा बहुत सावधानीपूर्वक अर्पित किया जाए ताकि किसी को यह पता न चले कि हम क्या कर रहे हैं। अपनी अभ्यास साधना का प्रदर्शन करने से दूसरों को असुविधा ही होगी या हमारा उपहास ही होगा।

(3) त्रिरत्न की करुणा के प्रति सचेतन रहते हुए, परोक्ष तौर पर दूसरों को भी उनकी दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करना। इस प्रतिबद्धता के पीछे यह मंशा नहीं है कि हम धर्मप्रचारक बन कर किसी का धर्म परिवर्तन करवाने का प्रयास करें। किन्तु फिर भी हमारी बातों के प्रति ग्रहणशील लोग जो अपने जीवन की दिशा खो चुके हैं, जिनके जीवन की कोई दिशा ही नहीं है या जिनके जीवन की दिशा नकारात्मक है, ऐसे लोगों यदि हम इस बात का महत्व और फायदा समझाएं कि सुरक्षित और सकारात्मक दिशा ग्रहण करने से स्वयं हमें क्या लाभ हुआ है और उसका क्या महत्व है, तो अक्सर ऐसे लोगों को हमारी बात उपयोगी लगती है। उसके बाद कोई बौद्ध बनता है या नहीं बनता है यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। स्वयं हमारा उदाहरण उन्हें अपने आप में सुधार करके विकसित होने के लिए अपने जीवन में कुछ सकारात्मक करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

(4) सुरक्षित दिशा अपनाने के फायदों को याद रखना, औपचारिक रूप से प्रतिदिन तीन बार और हर रात को तीन बार – सामान्यतया सुबह जागने के कुछ ही समय बाद और शाम को सोने से पहले – सुरक्षित दिशा के लाभों की पुनःपुष्टि करना। यह पुनःपुष्टि सामान्यतया इस बात को दोहराते हुए की जाती है कि, “मैं गुरुजन, बुद्धजन, धर्म और संघ की सुरक्षित दिशा को ग्रहण करता हूँ।” आध्यात्मिक गुरुजन चौथा रत्न नहीं हैं, अपितु वे बाकी तीन रत्नों तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं। तंत्र के संदर्भ में आध्यात्मिक गुरुजन इन सभी के मूर्त स्वरूप होते हैं।

(5) चाहे जो भी हो, अपनी सुरक्षित दिशा पर डटे रहना। संकट की घड़ी में सुरक्षित दिशा ही सबसे अच्छा आश्रय है क्योंकि यह विपत्ति के कारणों का नाश करके संकट को खत्म कर देती है। हमारे मित्र भी हमारे प्रति सहानुभूति का व्यवहार कर सकते हैं, किन्तु यदि वे ज्ञानोदय प्राप्त न हों तो अन्ततोगत्वा उनसे हमें निराशा ही हाथ लगती है। वे खुद अपनी समस्याओं से जूझ रहे होते हैं और उनकी मदद करने की क्षमता सीमित होती है। किन्तु सदैव अपनी कमियों और कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए संयमित और व्यावहारिक ढंग से प्रयास करते रहना आवश्यकता पड़ने पर हमेशा हमारे काम आता है।

इस प्रकार हम अंतिम प्रतिबद्धता तक पहुँचते हैं यानी, (6) चाहे कुछ भी हो जाए, इस दिशा को न त्यागना।

शरणागति लेना और साथ ही दूसरे धर्मों या आध्यात्मिक मार्गों का भी पालन करना

कुछ लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि क्या शरणागति का व्रत धारण करने का मतलब धर्मपरिवर्तन करके बौद्ध बन जाना और सदा-सदा के लिए अपने मूल धर्म को त्याग देना है। जब तक कि हम स्वयं ऐसा करना न चाहें तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। तिब्बती भाषा में “बौद्ध” शब्द के शाब्दिक अर्थ को व्यक्त करने वाली कोई अभिव्यक्ति नहीं है। साधक के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द का अर्थ “जो सीमा के भीतर रहता है” होता है, यानी जो जीवन में सुरक्षित और सकारात्मक दिशा के दायरे के भीतर रहता है। इस प्रकार का जीवन जीने के लिए इस की आवश्यकता नहीं होती है कि हम अपने गले में लाल रंग का रक्षा सूत्र पहनें और कभी किसी गिरजे, यहूदी उपासनागृह, हिन्दू मंदिर, या कन्फ्यूशी मंदिर में कदम न रखें। बल्कि इसका मतलब होता है कि हम अपनी कमियों को दूर करने के लिए प्रयास करें और अपनी क्षमताओं को विकसित करें – यानी धर्म का आचरण करें – जैसा बुद्धजनों ने किया और उच्च सिद्धियाँ प्राप्त साधक, संघ के जन कर रहे हैं। हम अपने मूल प्रयासों को इस दिशा में लगाते हैं। जैसाकि मेरे अपने दिवंगत गुरु त्सेनझाब सरकांग रिंपोशे सहित कई बौद्धाचार्यों ने कहा है, यदि हम ईसाई धर्म जैसे दूसरे धर्मों की दान और प्रेम की शिक्षाओं को देखें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि इनका पालन करना बौद्ध धर्म में बताई गई दिशा के विरुद्ध नहीं है। सभी धर्मों में दिया गया मानवता का संदेश एक जैसा ही है।

हमारी शरणागति की सुरक्षित और सकारात्मक दिशा मुख्यतः दस विनाशकारी कृत्यों (दस अपुण्य) – किसी जीव की हत्या करना, जो न दिया गया हो उसे ले लेना, अनुचित यौन व्यवहार करना, झूठ बोलना, फूट डालने वाले वचन कहना, कठोर और क्रूर भाषा का प्रयोग करना, निरर्थक बकबक करना, और लालचपूर्ण या दुर्भावपूर्ण या विकृत, शत्रुतापूर्ण विचार करना – से दूर रहने से सम्बंधित होती है। बौद्ध दिशा अपनाने के लिए दूसरी धार्मिक, दार्शनिक, या राजनैतिक पद्धतियों की केवल उन शिक्षाओं से दूर रहने की आवश्यकता होती है जिनमें इन विनाशकारी कृत्यों को करने की बात कही गई हो, और जो स्वयं हमारे लिए और दूसरों के लिए हानिकारक हों। इसके अलावा, हालाँकि चर्च जाने पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन दिशा पर दृढ़ रहने का अर्थ है कि हमें अपने बौद्ध अध्ययन और साधना की अनदेखी करते हुए अपनी पूरी ऊर्जा को अपने जीवन के केवल उसी पहलू पर ही केंद्रित नहीं करना चाहिए।

कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या उन्हें किसी तांत्रिक अनुष्ठान के भाग के रूप में शरणागति ग्रहण करने के बाद ज़ेन साधना या हठयोग या युद्ध कलाओं जैसी शारीरिक अभ्यास की पद्धतियों को छोड़ना पड़ेगा। इसका जवाब है कि उन्हें ऐसा नहीं करना पड़ेगा क्योंकि ये भी हमारी सकारात्मक क्षमताओं को विकसित करने की ही विधियाँ हैं और ये हमारे जीवन की सुरक्षित दिशा के लिए बाधक नहीं हैं। किन्तु सभी महान आचार्यों का कहना है कि ध्यानसाधना अभ्यासों को न तो आपस में मिलाना चाहिए और न ही उनमें मिलावट करनी चाहिए। यदि हम भोजन में सूप और कॉफी लेना चाहते हों तो हम कॉफी को सूप में मिलाकर दोनों को एक साथ नहीं पीते हैं। हर दिन कई प्रकार के अभ्यास करना ठीक है। लेकिन, बेहतर हो कि उन्हें अलग-अलग समय पर किया जाए और हर साधना के रीति-नियमों का पालन किया जाए। जैसे किसी चर्च में प्रवेश करते ही वेदी के सामने तीन बार साष्टांग प्रणाम करना हास्यास्पद होगा, उसी प्रकार किसी ज़ेन या विपासना की ध्यानसाधना में मंत्रोच्चार करना भी अनुचित होगा।

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