इस सप्ताहांत हम बोधिसत्त्व संवरों के बारे में बात करेंगे। बोधिसत्त्व संवरों को समझने के लिए निस्संदेह हमें यह समझने की आवश्यकता है कि बोधिसत्त्व क्या है और बोधिचित्त क्या है, जिस पर यह आधारित है। और इस प्रसंग में हमारे पास ऐसे कई अलग-अलग उद्धरण और स्रोत हैं जो यह संकेत करते हैं कि बोधिसत्त्व संवर लेना, बोधिचित्त को विकसित करना - बोधिसत्त्व संवर लेना और उनका पालन करना - ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है।
बोधिचित्त को समझना
तो, बोधिचित्त क्या है? बोधिचित्त चित्त की अवस्था है और उसके कई घटक होते हैं। जब हम उसका सृजन करते हैं तब उसके दो चरण होते हैं। सबसे पहले हम सभी ज्ञानोदय रहित सत्त्वों पर प्रेम और करुणा-युक्त होकर ध्यान केन्द्रित करते हैं। प्रेम यह कामना है कि दूसरे लोग सुख तथा उसके कारणों से युक्त रहें, और करुणा यह कामना है कि वे अपने दु:खों तथा उनके कारणों से निवृत्त हो जाएँ। और हम ये कामनाएँ सब लोगों के लिए समान रूप से करते हैं।
हम जिस दुःख से उनकी निवृत्ति चाहते हैं उसे हम गहनतम स्तर पर समझते हैं। केवल सुख-अभाव तथा पीड़ा का दुःख ही नहीं। केवल वह दुःख ही नहीं जो अपने सामान्य सुख से जुड़ा है, अर्थात जो अस्थायी है, तृप्ति नहीं देता, और जो सुख-अभाव तथा कष्ट में बदल जाता है, उदाहरण के लिए अपने प्रिय व्यंजन अमित मात्रा में खा लेने पर बीमार पड़ जाना। इन दोनों दु:खों के अतिरिक्त एक और दुःख है जिससे हम उन्हें दूर रखने की कामना करते हैं, और वह सर्वव्यापी दुःख है (जो पहले दो प्रकार के दु:खों के अनुभव का आधार है), जो है अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म जिसे "संसार" कहते हैं। और यह है अविद्या, क्लेश, तथा उनपर आधारित कर्मों के कारण बार-बार पुनर्जन्म लेते रहना; और ये कर्म इन कारकों के प्रभाव में रहकर उस प्रकार के शरीर और चित्त देते हैं जो सुख-अभाव तथा असंतोषजनक सुख के अधीन होते हैं ये सत्त्व अपने कर्म-व्यवहार के कारण अनुभव करते हैं - कर्म-व्यवहार वह व्यवहार है जो कार्य-कारण एवं अविद्या (यथार्थ की अनभिज्ञता) के प्रभाव में किया जाता है। इसी लिए हम यह चाहते हैं कि अन्य लोग इस प्रकार के गहनतर दु:खों एवं उनके कारणों से मुक्त हों। और इसका गहनतम कारण है अविद्या।
जब हम प्रेम से युक्त होते हैं, तो हम दूसरों के भी सुख की कामना करते हैं। यह वह सामान्य सुख नहीं है जो कभी संतुष्ट नहीं करता, यद्यपि यह इससे कहीं बेहतर है कि वे दुःख तथा असंतोष अनुभव करें। परन्तु गहनतर स्तर पर हम उनके लिए विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्ति के आनंद की कामना करते हैं, और यह आनंद "चित्त के आवरणों" से मुक्त होने के बाद प्राप्त होता है। आवरण दो प्रकार के होते हैं। सबसे पहले वे आवरण हैं जो क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं - ये विमुक्ति को रोकते हैं। दूसरे वे आवरण हैं जो बुद्धजन की सर्वज्ञता को प्राप्त करने तथा उन आलम्बनों के अन्तर्सम्बन्धों एवं कार्य-कारणों का बोध, जो परहित हेतु अनिवार्य है, इन दोनों को पूर्णतया रोकते हैं।
जब हम इन सीमाओं से, अर्थात इन दो (या दोनों में से किसी एक) प्रकार के आवरणों से मुक्त हो जाते हैं, तो उस विपुल आनंद की प्राप्ति हो जाती है जो कभी समाप्त नहीं होता। यह वैसा सुख नहीं है जैसा अपने प्रिय व्यंजन का सेवन करने से मिलता है: जो जितनी अधिक मात्रा में हो वह कालान्तर में उतना ही अधिक कष्टदायक हो जाता है। यह उस प्रकार का सुख, वह सामान्य सुख, बिल्कुल नहीं है। और हम यही कामना करते हैं कि उनके पास इस अनंत सुख के कारण हों, जो वास्तव में विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्ति से ही प्राप्त होता है।
यह प्रेम और करुणा भी इस दृढ़ बोध और दृढ़ विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए दुःख विमुक्ति तथा अनंत आनंद की प्राप्ति संभव है। तो यह सिर्फ एक विलक्षण पर कोरी कामना नहीं है जो हम जानते हैं कि कभी भी पूरी नहीं हो सकती। अपितु हमें यह दृढ़ विश्वास है कि यह संभव है। और तो और, हम दुःख विमुक्ति एवं आनंद प्राप्ति को कार्यान्वित होने का उत्तरदायित्व भी लेते हैं। हम इस उत्तरदायित्व को वहन करने के साथ-साथ यह असाधारण संकल्प भी लेते हैं कि मैं इस कार्य को अवश्य करके ही रहूँगा, फिर चाहे मुझे अकेले ही क्यों न करना पड़े।
यह पहला चरण है। इस पहले चरण में हमारी यह करुणा, प्रेम, और असाधारण संकल्प एक अर्थ में पृष्ठभूमि में बना रहेगा। और फिर दूसरे चरण में, जो बोधिचित्त का मुख्य चरण है, हम अपना ध्यान संकेन्द्रण बदल देते हैं और सभी सीमित सत्त्वों (अर्थात वे सत्त्व जो अभी तक बुद्ध नहीं हुए हैं) के स्थान पर केवल अपनी ही अद्यापि अघटित व्यक्तिगत ज्ञानोदय प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अब हम यह जान चुके हैं कि ऐसा हो सकता है, हम इसके बारे में दृढ़-निश्चयी हैं। यह "बुद्ध-धातु" के आधार पर हो सकता है। बुद्ध-धातु वे कारक हैं जो हमें बुद्ध बनने, बुद्ध के विभिन्न शरीरों का सृजन करने में सहायता करते हैं - परिभाषानुसार रूपकाया, बुद्ध का चित्त, इत्यादि।
यहाँ स्वभावतः चित्त की मूलभूत निर्मलता अभिप्रेत है अर्थात्अपनी मूल प्रकृति में चित्त इन सीमाओं या आवरणों से कलुषित नहीं है। ये कलंक केवल सतही हैं और इन्हें इस प्रकार मिटाया भी जा सकता है कि ये दोबारा न आएँ। हम चित्त के गहनतम स्तर को, जो कलुषित नहीं होता, जागृत कर सकते हैं और उस स्थिति में सदा के लिए टिक सकते हैं - क्योंकि ये कलंक या सीमाएँ या भ्रम चित्त का सतही, असंवेदी स्तर होता है और चित्त अस्तित्व के असंभव तरीकों से कलंकित नहीं होता। यदि हमें इसका बोध हो जाता है और हमारा ध्यान उसपर केंद्रित हो जाता है, तो, जिसे हम “चित्त की शून्यता” कहते हैं उसके आधार पर हम उस बुनियादी अकलुषित स्तर पर ठहर सकते हैं जो इन क्षणभंगुर विभ्रन्तियों से कलुषित नहीं होता।
चित्त के उस गहनतम स्तर से सम्बद्ध सूक्ष्मतम ऊर्जा के आधार पर, तथा पुण्यसम्भार एवं गहन ज्ञानसम्भार के आधार पर, जो प्राथमिक रूप से वह पुण्य है जो इस समतान के गहन स्तर पर संचित होकर रहता है, हम बुद्ध की विभिन्न रूपकायाओं का सृजन कर सकते हैं और उनमें प्रकट हो सकते हैं। बुद्धजन की विभिन्न रूपकाया, बुद्धजन के प्राकट्य, चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म, इस सूक्ष्मतम शुद्ध ऊर्जा से निर्मित होती हैं। ये स्थूल तत्वों (पृथ्वी, जल, आदि) के साथ संयुक्त हो सकता है, परन्तु बुद्ध की रूपकाया वे स्थूल तत्व नहीं हैं, अपितु वे उसके आधार पर उनसे संयुक्त सूक्ष्म ऊर्जा है। ठीक! तो यह है बुद्ध-धातु की एक अत्यंत संघनित व्याख्या। यदि यह एक बार के लिए सूचना का अतिभार हो गया हो तो मुझे खेद है, परन्तु यह हमारी चर्चा का मुख्य विषय नहीं है।
परन्तु जो भी हो, हम ध्यान केंद्रित कर रहे हैं अपने मानसिक समतान के इस आयाम पर, बुद्ध-धातु के आयाम पर, अर्थात चित्त की शून्यता, चित्त की मूलभूत निर्मलता, चित्त की सूक्ष्मतम ऊर्जा, पुण्यसम्भार, तथा गहन ज्ञान पर। और उसके आधार पर हम एक अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति को, जो हम जानते हैं कि हम सिद्ध कर सकते हैं, इस प्रकार प्रक्षेपित कर सकते हैं कि हम वर्तमान घटित ज्ञानोदय प्राप्ति को पा सकते हैं, बशर्ते हम पुण्यसम्भार तथा ज्ञानसम्भार, इन दोनों सम्भारों को सबल बनाकर संपूर्ण कर सकें। तो यही है जिसपर हम बोधिचित्त द्वारा अपने ध्यान को केंद्रित करते हैं। और हम इसे कैसे करें? हम इसे अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति का प्रतिनिधित्व करके कर सकते हैं, जो हमारी अपनी व्यक्तिगत अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति है, न कि किसी बुद्ध शाक्यमुनि की या फिर आसमान से टपके किसी ऐरे-गैरे की। हम उसका प्रतिनिधित्व बुद्ध के मानस दर्शन द्वारा कर सकते हैं (जो सबसे अधिक सामान्य है) या फिर हम उसका प्रतिनिधित्व अपने आध्यात्मिक गुरु, या वंश-परंपरा के गुरु जो हमारे लिए इस ज्ञानोदय प्राप्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, का प्रतिनिधित्व करके कर सकते हैं, या फिर (महामुद्रा या द्ज़ोंचेन पद्धति में) केवल चित्त की मूलभूत निर्मलता पर ध्यान केंद्रित करके कर सकते हैं, जो अत्यंत जटिल है।
यही है हमारा केंद्र बिंदु, बोधिचित्त का केंद्रित आलम्बन, यह अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति, और इसके दो छन्द (उद्देश्य) हैं जो इसके सहचर हैं। पहला छन्द है उस ज्ञानोदय को यथार्थ में प्राप्त करना जो अब तक अद्यापि अघटित है, और दूसरा है इस प्राप्ति के आधार पर समस्त सत्त्वों को लाभान्वित करना। तो, दूसरे शब्दों में, यह उस प्रेम और करुणा और असाधारण संकल्प पर आधारित है जिसे हमने पहले चरण में विकसित किया था। और निश्चित रूप से उस ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हुए हमें यथासंभव दूसरों की सहायता करने का प्रयास करते रहना होगा। बोधिसत्त्व संवर हमारा मार्ग-दर्शन करेगा कि यह कैसे किया जाना चाहिए, किस प्रकार दूसरों को यथा-संभव लाभान्वित करना है, और किन-किन कार्यों से बचना चाहिए जो हमारी परहित की क्षमता को क्षति पहुँचा सकते हैं। और वास्तव में ये संवर इस प्रकार शब्दबद्ध किए जाते हैं कि हम यह तुरंत ही समझ सकें कि हमें किन-किन कार्यों से बचना चाहिए जो हमारे बोधिचित्त विकास तथा परहित की क्षमता के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
तो बोधिचित्त की इस चित्तावस्था को विकसित करने और बोधिसत्त्व संवर लेने के लिए, स्पष्टतः हमें साधना करनी पड़ेगी। और यह निश्चिततया विकास, यानी आध्यात्मिक विकास की एक लंबी प्रक्रिया पर आधारित है, जिससे हम अपने बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म को समझ पाते हैं, यह मानते हैं कि यह वर्तमान जन्म हमारे पास सदा के लिए नहीं रहेगा इसलिए हम मृत्यु और अनित्यता को भी समझते हैं; और पुनर्जन्म पर पूरा विश्वास करते हैं और यह समझते हैं कि यही इस बोध का आधार है कि यदि हम भविष्य में निकृष्टतर पुनर्जन्म से बचने के लिए कुछ निवारक उपाय नहीं करते हैं (यही है "धर्म" शब्द का अर्थ) तो, हम अपने अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार के आधार पर किसी भी ऐसी स्थिति में पुनर्जन्म पा सकते हैं जहाँ हमारे पास अपने आध्यात्मिक विकास को आगे बढ़ाने के कोई अवसर ही नहीं होंगे। तो हम यह सब समझते हैं, हम इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं।
बोधिसत्व संवर लेने की पूर्वापेक्षाएँ
और इसलिए, निकृष्टतर पुनर्जन्म से बचने के लिए तथा आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिए हम "शरणागति" को स्वीकार करते हैं। बुद्ध की, बुद्धजनों की उपलब्धियों तथा उनकी शिक्षाओं की, एवं उन लोगों की शरणागति जिन्होंने, आंशिक रूप से ही सही, वह प्राप्त किया है जिसे बुद्ध ने प्राप्त किया है; अर्थात बुद्ध, धर्म, संघ की शरणागति। तो, हम इनकी शरण में जाते हैं। यह शरणागति हमारी निकृष्टतर पुनर्जन्मों से बचने की इच्छा पर तथा उस विश्वास पर आधारित है कि इस शरणागति द्वारा हम निकृष्टतर पुनर्जन्मों से बच पाएँगे और विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्ति के अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को भी प्राप्त कर पाएँगे। निकृष्टतर पुनर्जन्मों से बचना, विमुक्ति प्राप्त करना, और ज्ञानोदय प्राप्त करना: ये हैं "लाम-रिम", अर्थात पथ के क्रमिक स्तर के तीन लक्ष्य।
परिस्थितियों के और बिगड़ जाने से पहले हमें अपने अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार को त्याग देना होगा। इसके लिए नैतिक अनुशासन की आवश्यकता है। और हमें यह त्याग इस बोध से करना होगा कि अकुशल व्यवहार केवल दुःख एवं समस्याओं को ही जन्म देता है; और अकुशल व्यवहार को त्याग देने से हमें कम-से-कम सामान्य सुख तो मिलेगा। और यद्यपि अंततः हमें आगे चलकर इस सामान्य सुख से भी ऊपर उठना होगा, फिर भी यह कम-से-कम आध्यात्मिक साधना के लिए हितकर परिस्थिति तो प्रदान करेगा, न कि दुःख कातरता की।
फिर हम संसार (अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्मों) की समस्याओं के बारे में सोचते हैं। फिर, चाहे भयानक दुःख की अनुभूति हो या परम सामान्य सुख की अवस्था, दोनों ही न्यूनताओं से ग्रस्त हैं। और हम समझते हैं कि किस प्रकार अति-दारुण दुःख भरी अवस्थाओं, अथवा सामान्य सुख से ओतप्रोत पुनर्जन्म, दोनों का कारण हमारे कर्म ही हैं, और इन कर्मों की उत्पत्ति है यथार्थ के कार्य-कारण की अनभिज्ञता तथा सामान्य सुख की लालसा, एवं दुःख कातरता से विलगाव के पश्चात उत्पन्न सामान्य सुख, के प्रति लालायित रहना। और हमें इन सबसे पूरी तरह मुक्त होने के संकल्प को विकसित करना है। इसी को "निःसरण" कहा जाता है। और इस प्रकार हमारा मुक्त होने का संकल्प दृढ़ होता है।
फिर, इन सबके आधार पर, तथा समाधि के अब तक हो चुके थोड़े-बहुत विकास के बाद, हम महायान की ओर बढ़ते हैं। यद्यपि हम महायान की करुणा आदि की विशिष्टताओं को पहले से ही आरंभ कर सकते थे, परन्तु मैं अपने बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म को जारी रखना चाहता हूँ ताकि मैं दूसरों की सहायता करता रह सकूँ। अर्थात इस करुणा को हम पहले से ही सम्मिलित कर सकते हैं। परन्तु महायान साधना से हम सभी प्राणियों की ओर अनपवाद लक्षित करते हैं। तो कहने का अर्थ यह है कि हम केवल अपने और अपनी समस्याओं एवं मोक्ष पर ही अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हैं। और न ही हम केवल उन कुछ लोगों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जिन्हें हम चाहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हम केवल उनपर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो अपने वर्तमान जीवनकाल में मनुष्य शरीर को धारण किए हुए हैं। अपितु यह वह परम उदार चित्तावस्था है जो समग्र ब्रह्माण्ड के समस्त प्रकार के शरीरों में स्थित प्रत्येक सत्त्व पर ध्यान केंद्रित करती है।
हम मानते हैं कि सबका सातत्य और पुनर्जन्म अनादि हैं, और सभी सत्त्व अनंत जन्मों के दौरान सभी प्रकार का शरीर धारण कर चुके हैं, यहाँ तक कि हमारी माताएँ भी बन चुके हैं। और हम सबके प्रति समचित्तभाव भी रखते हैं, अर्थात ऐसा नहीं है कि हमारा कुछ लोगों के प्रति राग है, कुछ और के प्रति द्वेष, और अन्य सभी के प्रति उदासीनता। और हम सभी की कृपा का स्मरण करते हैं, न केवल जब वे हमारी माताएँ थे, अपितु तब भी जब उन्होंने हमारे लिए अन्न उगाया था, सड़कें बनाई थीं, या शहद बनाया था। और हम उस कृपा के महत्त्व को समझकर किसी न किसी प्रकार से उस कृपा के ऋण को चुकाना चाहते हैं, और बदले में यह सबके प्रति हार्दिक प्रेम जगाता है, यहाँ तक कि दूसरों के बारे में सोचते ही हमारे भीतर स्नेहासक्ति का अनुभव होने लगता है, और यह भावना भी उत्पन्न हो जाती है कि कितना भयावह होगा यदि उनके साथ कुछ बुरा हो जाए। और यह अनुभूति सबकी समानता के बोध से सुदृढ़ बन जाती है। जिस प्रकार मैं स्वयं सुखी रहना चाहता हूँ और दुखी नहीं रहना चाहता, उसी प्रकार अन्य सभी सत्त्वों की समान अभिलाषा है। और मैं तो केवल एक व्यक्ति हूँ, अन्य सभी तो असंख्य हैं, इसलिए केवल अपने ही बारे में सोचने और अपनी ही समस्याओं को दूर करने के लिए काम करने के बजाय, क्योंकि मैं इन सत्त्वों की समष्टि का एक सदस्य हूँ और इसलिए मेरे लिए यह उचित होगा कि मैं सबके हित के लिए कार्य करूँ क्योंकि मैं सबका हूँ। और हम सभी सत्त्वों की समान रूप से एक ही समस्या है: एक शब्द में कहा जाए तो, संसार। सांसारिक अस्तित्व। तो, यही वह आधार है जिसपर हम प्रेम, करुणा, अध्याशय (असाधारण संकल्प) तथा बोधिचित्त की प्राप्ति चाहते हैं जिनके बारे में मैंने इससे पहले चर्चा की थी।
सबसे पहले तो इन सभी बातों को हमें बोधिचित्त के संदर्भ में समझना होगा ताकि हम इसे सही ढंग से समझ सकें और यह जान सकें कि बोधिचित्त क्या कह रहा है। हमें बोधिचित्त को प्रेम और करुणा मात्र से उलझाना नहीं चाहिए जैसे कई लोग करते हैं। बोधिचित्त प्रेम और करुणा से कहीं बढ़कर है। यह प्रेम और करुणा पर आधारित तो है परन्तु यह और भी बहुत कुछ है, जैसा कि मैंने समझाया। और फिर हम अपने बोधिचित्त को विकसित करते हैं और उसपर विचार करते हैं, ताकि हम उसका सही तात्पर्य समझ सकें। हम इस बात को समझते हैं कि इसपर कैसे ध्यान केंद्रित करना है और हम किस प्रकार की मनःस्थिति का सृजन कर रहे हैं। हमें दृढ़ विश्वास है कि हम इसे प्राप्त कर सकते हैं। हमें इस बात पर भी दृढ़ विश्वास है कि हर कोई ज्ञानोदय प्राप्त कर सकता है और यह भी कि मैं इसका सही मार्ग दिखाकर उनकी सहायता कर सकता हूँ। और हम यह भी समझते हैं कि कोई भी सर्वशक्तिमान भगवान नहीं है - कि मैं किसी को अपनी उंगली से बस छू लूँ और उसे ज्ञानोदय प्राप्ति हो जाए। इसलिए हम उस यथार्थवादी धारणा से युक्त हैं कि लोग किस प्रकार ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं। मूल रूप से उन्हें साधना करनी पड़ेगी। और इस प्रकार इन बातों पर आधारित तथा इस बोध के साथ कि इस चित्तावस्था को प्राप्त करने के लिए हमें साधना करनी होगी, हम इस प्राथमिक स्तर पर बोधिचित्त का सृजन कर सकते हैं।
अब हम इस बात को ठीक तरह से समझ गए हैं कि यह किस प्रकार की चित्तावस्था है। हमें इसका बोध है और यह दृढ़ विश्वास भी कि हम इसे प्राप्त कर सकते हैं, और सब हमारी माताएँ रह चुके हैं, सब कृपालु हैं, इत्यादि, के विभिन्न चरणों से गुज़रते हैं जिसके द्वारा हम बोधिचित्त की उस चित्तावस्था का सृजन कर पाते हैं और वह पूरे मन से की जाए। यहाँ जो बात अत्यधिक कठिन है वह है सबको समाविष्ट करना तथा सबकी समान रूप से सहायता करने की इच्छा को साकार करना।
इसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हमें सबसे पहले जिसे प्राप्त करना है उसे कहते हैं "प्रवृत्त बोधिचित्त"। यह अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति की आकांक्षा है जिसके द्वारा हम आगे चलकर लोगों का हित कर पाएँगे। और इसके दो चरण हैं। पहला चरण है इस अवस्था की कोरी कामना करना; और दूसरा है जिसे "प्रतिज्ञाबद्ध अवस्था" कहा जाता है, जहाँ मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक मैं ज्ञानोदय प्राप्ति नहीं कर लेता तब तक मैं इसका परित्याग नहीं करूँगा। उससे आगे हम उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जिसे "व्यवहृत अवस्था" कहते हैं, जो प्रवृत्त या आकांक्षामय अवस्था के अतिरिक्त है, जिसमें मैं उन अभ्यासों में पूर्णतया संलग्न होने का निर्णय ले चुका होता हूँ जिससे मुझे ज्ञानोदय प्राप्ति हो जाएगी।
अब हम उस स्तर पर पहुँच जाते हैं जहाँ हम बोधिसत्त्व संवर लेते हैं। और इन संवरों से हमारे व्यवहार व्यवस्थित हो जाते हैं क्योंकि हमारी शपथ उन चीज़ों को त्याग देने के बारे में हैं जो सामान्य रूप से हमारे बोधिचित्त के विकास के लिए क्षतिकारक हो सकती हैं - यही है बोधिसत्त्व संवरों का मूल। और माध्यमिक बोधिसत्त्व संवर हैं उन बातों से दूर रहना जो हमारी षट्पारमिताओं (या पूर्णताओं) के लिए विशेष रूप से हानिकारक हो सकती हैं, साथ ही स्थूल रूप से हमारे परहित के प्रयासों के लिए हानिकारक हो सकती हैं। जब हम पारमिताओं की बात करते हैं तो हम बात करते हैं उदारता, नैतिक आत्मानुशासन, क्षान्ति (धैर्य), वीर्य (आनंदपूर्ण निष्ठा), ध्यान (मानसिक स्थिरता) - जो केवल कोरी एकाग्रता नहीं है, अपितु एक संतुलित चित्तावस्था है जो क्लेशों से विचलित नहीं होती - एवं प्रज्ञापारमिता, प्रायः यथार्थ की (हम यहाँ यथार्थ एवं कोरी कल्पना में विभेद करते हैं)।
स्पष्टतः बोधिचित्त के विकास के पहले भी हम इन पारमिताओं को विकसित कर उनका अभ्यास कर सकते हैं, परन्तु वास्तविक महायान साधना तभी होती है जब वह बोधिचित्त से युक्त होती है। तो हम इन बोधिसत्त्व संवरों के आधार पर ही बोधिसत्त्व व्यवहार का अभ्यास करते हैं, और इस अभ्यास का लक्ष्य है इन छः पारमिताओं में से अधिक-से-अधिक का विकास। दस पारमिताओं की भी एक सूची है; जो अतिरिक्त चार हैं वे प्रज्ञापारमिताओं के उपभाग हैं। परन्तु यहाँ विस्तृत विवरण देने की आवश्यकता नहीं है। तो, कहने का उद्देश्य यह है कि इसी के माध्यम से हम अधिकाधिक पुण्यसम्भार एवं ज्ञान संचित करते हैं।
सप्रयास और निरायास बोधिचित्त
हम अभी भी इसी स्तर पर हैं और बोधिचित्त की इस अवस्था का सृजन कर रहे हैं एक श्रमसिद्ध ढंग से - यह एक पारिभाषिक शब्दावली है जिसका अर्थ है श्रम एवं प्रयास के द्वारा - और इसका अर्थ है कि हमें तार्किक मार्ग को अपनाना होगा ताकि हम अपने भीतर बोधिचित्त वाली चित्तावस्था को पुनर्जीवित कर सकें। इसके लिए हमें उपेक्षा (समचित्तता), एवं हर कोई मेरी माँ रह चुका है, आदि के चरणों से गुज़रना होगा और अपनेआप को विज्ञान की चित्तावस्था तक उठाना पड़ेगा। और कालान्तर में परहित द्वारा अत्यधिक मात्रा में संचित अनुभव एवं पुण्य की सहायता से हम बोधिचित्त का निरायास विकास कर सकते हैं, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि बोधिचित्त के सृजन हेतु हमें किसी तार्किक मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं होगी; हमें नैसर्गिक रूप से एवं स्वतः ही वह चित्तावस्था प्राप्त हो चुकी होगी। और यह अप्रासंगिक है कि हम उसके बारे में सचेत हैं या नहीं। चाहे वह बोधिचित्त अवस्था वास्तव में सचेतन हो (दूसरे शब्दों में, वह तत्क्षण हमारा केंद्रित आलम्बन है), या कोई अंतर्प्रवाह (दूसरे शब्दों में, अचेतन), ये दोनों ही इस अर्थ में एक ही हैं कि हर स्थिति में यही हमारे जीवन की मुख्य दिशा है। यह अत्यंत गहन रूप से समेकित है। और यह केवल उसी स्तर पर होगा जहाँ हम वास्तव में बोधिसत्त्व बन जाते हैं। यही है बोधिसत्त्व की पहचान, वह जो निरायास बोधिचित्त से युक्त है। बोधिचित्त के जितने भी लाभ एवं स्तुतियाँ वर्णित हैं, उदाहरण के लिए शांतिदेव के ग्रन्थ, बोधिसत्त्वचर्यावतार, के पहले अध्याय में, बोधिचित्त के इसी स्तर का उल्लेख कर रहे हैं, इसी निरायास दशा का, जहाँ सत्त्व बोधिसत्त्व बन जाता है।
हमें यह समझ लेना है कि चाहे हम श्रमसिध्द बोधिचित्त की बात कर रहे हों या निरायास की, यह वैचारिक ही रहेगा, क्योंकि केवल कोई बुद्ध ही ज्ञानोदय के वास्तविक स्वरूप को निर्वैचारिक रूप से जान सकता है; और इसलिए हम जैसे लोगों के लिए, जो अभी तक बुद्ध नहीं हुए हैं, ज्ञानोदय पर ध्यान केंद्रित करना, भले ही वह अद्यापि अघटित ज्ञानोदय प्राप्ति ही क्यों न हो, केवल एक अवधारणा के रूप में ही हो सकता है। तो शांतिदेव के इस कथन में, कि एक बार जब आप बोधिचित्त विकसित कर लेते हैं फिर चाहे आप जागृत अवस्था में हों, या निद्रालीन हों, या मदमत्त, फिर भी वह आपके लिए सघन पुण्य संचित करता रहेगा, निरायास दशा अभिप्रेत है।
साथ ही जब हम बोधिचित्त की इस निरायास दशा को विकसित करते हैं, तब हम उस स्थान पर पहुँच जाते हैं जहाँ हम उसकी प्राप्ति कर लेते हैं जिसे "सम्भारमार्ग" या "संचय का मार्ग" कहा जाता है। यह पाँच मार्गों में सबसे पहला मार्ग है। तो यह चित्त का वह स्तर है जो वास्तविक मुख्य मार्ग तक पहुँचने के मार्ग के रूप में काम करता है और जो कालान्तर में हमें, जहाँ तक इस विषय की बात है, ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचाएगा। तो ये पाँच मार्ग वास्तव में चित्त के पाँच स्तर हैं; वे कोई सड़क तो नहीं, अपितु चित्त के स्तर हैं जो सड़क की भाँति हमें अपने मार्ग की ओर ले जाते हैं। और हम इसे महायान पद्धति में कर सकते हैं ताकि विकास की यह धारा हमें ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर ले जाए। और हम इन पाँचों स्तरों के पहले स्तर के आरम्भ तक पहुँचते हैं जहाँ हमें निरायास बोधिचित्त की प्राप्ति हो जाती है।
तो अब, हम में से अधिकांश लोगों का चित्त उस पूर्ववर्ती स्तर पर है। और यदि हम प्रेम और करुणा और बोधिचित्त का अभ्यास कर भी लें, तो वह संभवतः केवल बोधिचित्त की शिक्षाओं के श्रवण पर आधारित होगा। और हो सकता है कि हमने इसे थोड़ा-बहुत समझ भी लिया हो, परन्तु मुझे लगता है कि हम में से अधिकांश लोग पूर्ण-रूपेण आश्वस्त नहीं हैं कि हम वास्तव में ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं तथा निरपवाद रूप से सभी सत्त्व ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं, और यह वास्तव में पूर्णतः आश्वस्त होना भी कठिन है क्योंकि उसके लिए हमें ज्ञानोदय प्राप्ति के स्वरूप को समझना पड़ेगा। यह कोई सहज कार्य नहीं है। हम केवल "आनुमानिक बोध" से ही युक्त हैं। हम यह थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि वह सत्य है, पर पूरी तरह से कहीं भीतर तक आश्वस्त नहीं हैं। और यदि ईमानदारी से कहूँ तो महायान-शैली के मेरे विचारों का विषय-विस्तार अत्यंत सीमित है। मैं वस्तुतः निरपवाद रूप से सभी सत्त्वों के बारे में नहीं सोच रहा हूँ। मैं सभी सत्त्वों के बारे में सोचने की कल्पना तक नहीं कर सकता हूँ, सभी - और यहाँ कीड़े-मकौड़े भी शामिल हैं - अर्थात इस ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में रहने वाला प्रत्येक शरीर-धारी जीव। तो इसलिए हम उस दिशा में प्रयास कर रहे हैं। हमें वास्तव में महायान साधक होने की आवश्यकता है - दिखावा नहीं करना है कि "वाह मैं तो इतना बड़ा महायान साधक हूँ," और फिर बोधिसत्व होने का ढोंग करने की बात कौन कहे। यह नितांत असंगत है। परन्तु एक बात तय है कि बोधिचित्त की ओर जाने वाले हमारे विकास का वर्तमान स्तर जो भी है वह अति उत्तम एवं लाभकारी है।