शरणागति के प्रशिक्षण के कर्मों की व्याख्या

बुद्ध, धर्म और संघ के शरणागत होने के लिए हम अपनेआप को किस प्रकार प्रशिक्षित कर सकते हैं, इसके लिए विभिन्न प्रकार की क्रिया-विधियाँ निर्दिष्ट की गई हैं। ये स्पष्ट करती हैं कि हम अपने दैनिक जीवन में शरणागति को व्यावहारिक रूप से कैसे अपनाएँ तथा उस शरणागति को बनाए रखने के लिए हमें वास्तव में क्या-क्या करने की आवश्यकता है।

इसके लिए, प्रशिक्षण की क्रिया-विधियों की दो सूचियाँ हैं। एक प्राचीन भारतीय बौद्ध गुरु असंग द्वारा रचित ग्रन्थ विनिश्चिय-संग्रह से ली गई हैं। दूसरी "सर्वोत्कृष्ट शिक्षाएँ" (उपदेश) से ली गई हैं। ये उपदेश किसी विशिष्ट शास्त्रीय ग्रन्थ से नहीं लिए गए हैं, वे लिखित या फिर मौखिक हो सकते हैं। प्रत्येक सूची के दो भाग हैं: एक है त्रिरत्नों में व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक रत्न से संबंधित अनुदेश और दूसरा तीनों रत्नों से संबंधित सामान्य अनुदेश।

असंग की सूची

सबसे पहले, आइए असंग के ग्रन्थ से लिए गए निर्देशों की सूची देखें। इसके दोनों भागों के प्रत्येक भाग में प्रशिक्षण की चार विधियों का उल्लेख है।

स्वयं को आध्यात्मिक गुरु के प्रति समर्पित करना

यह बुद्धजन के शरणागत होने के समानांतर है जहाँ हम अपनेआप को पूर्ण निष्ठा के साथ किसी आध्यात्मिक गुरु के प्रति समर्पित करते हैं। इसका मुख्य कारण है कि हमें आदर्श उदाहरण से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता है। उसके लिए हमें एक आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता है। आध्यात्मिक गुरु वह व्यक्ति नहीं है जो हमें केवल जानकारी देता हो। जानकारी तो हम किसी पुस्तक या इंटरनेट से भी प्राप्त कर सकते हैं। आध्यात्मिक गुरु वह व्यक्ति है जो वास्तव में हमें अपने जीवन के उदाहरण से प्रेरित कर सकता है, हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सकता है, तथा हमारी भूलों को सुधार सकता है।

यदि हमें अभी तक कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं मिला तो हमें उस ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। यह बहुत जटिल हो सकता है विशेष रूप से जब हमारे पास सीमित विकल्प हों। ऐसा हो सकता है कि हम जहाँ रहते हैं वहाँ बहुत से शिक्षक न आते हों, और यदि वे आते भी हों तो वे बस कुछ दिन रुककर अपने शिक्षण के दौरे पर अगले स्थान की ओर चले जाते हों। हो सकता है कि इतने अधिक शिष्य होने के कारण ये गुरु हमारे लिए व्यक्तिगत रूप से समय न निकल पाते हों। परन्तु आध्यात्मिक गुरुओं के कई अलग-अलग स्तर होते हैं। ऐसे गुरु हैं जो हमें केवल जानकारी देते हैं या हमें ठीक से बैठने इत्यादि के तरीके बताते हैं। ऐसे भी गुरु हो सकते हैं जो केवल चर्चा में हमारी सहायता करते हैं, और ऐसे गुरु भी हैं जो वास्तविक आध्यात्मिक मार्गदर्शक (कल्याणमित्र) हैं जो हमें संवर देते हैं तथा हमें अपने आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिए उपयुक्त परामर्श भी देते हैं। इन सभी गुरुओं से हम शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

परन्तु हम यहाँ उस गुरु की बात कर रहे हैं जो हमें व्यक्तिगत रूप से प्रेरित करते हैं। ऐसे गुरु के आगे हम सम्पूर्ण समर्पण करते हैं। हो सकता है कि वे किसी और को प्रेरित न करते हों। यदि अन्य लोगों को कोई गुरु विशेष महान लगते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम भी उस धारा में बहते चले जाएँ। यहाँ एक पश्चिमी शब्दावली का प्रयोग करूँ तो मैं यह कहूँगा कि एक प्रकार का वैयक्तिक जुड़ाव होना चाहिए। और यदि बौद्ध शब्दावली का प्रयोग करूँ तो मैं यह कह सकता हूँ कि कार्मिक संबंध होना चाहिए। वे गुरु जो इतने प्रेरणादायक हैं, हमें बौद्ध-धर्म के मार्ग पर अंत तक चलने की ऊर्जा प्रदान करते हैं। 

यह आवश्यक नहीं कि हमारा आदर्श उदाहरण वह गुरु हो जिससे हमें बहुत-सी शिक्षाएँ या व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ हो। वह परम पावन दलाई लामा जैसा कोई व्यक्ति भी हो सकता है, जिससे हो सकता है कि हम व्यक्तिगत रूप से आमने-सामने कभी मिले ही नहीं। स्पष्टतः यदि हम परम पावन के प्रवचन समारोहों में भाग लेते हैं या उनके कैसेट सुनते या ग्रन्थ पढ़ते हैं, तो वह श्रेष्ठतर होगा।

शरण लेने के संदर्भ में एक अधिकृत अनुष्ठान होता है जिसे किया जा सकता है। अपनी शरणागति को एक कार्यक्रम में बदलकर उसे गंभीरता से लेने के निश्चय को हम एक औपचारिक रूप दे देते हैं। हम इसे एक गुरु के साथ करते हैं परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि उस गुरु को ही हमारा वास्तविक आध्यात्मिक गुरु बनना पड़ेगा। हम उनका सम्मान करते हैं क्योंकि, एक अर्थ में, उन्होंने हमारे लिए अध्यात्म का द्वार खोल दिया है, परन्तु हो सकता है कि वे हमें विशेष रूप से प्रेरणादायक न लगें। न ही इसका यह अर्थ है कि अब हम बौद्ध-धर्म की उस परंपरा से जुड़ गए हैं जिसका यह गुरु अनुसरण करते हैं। हम उस व्यक्ति के समाज में सम्मिलित नहीं हुए हैं और न ही उनकी धर्म "खेल मंडली" का कोई अंग बन गए हैं। हम बुद्ध, धर्म, और संघ की ही शरण में जा रहे हैं। हम समारोह आयोजित करने वाले उस व्यक्ति की शरण नहीं ले रहे।

यदि मैं फिर से कहूँ तो, जब हम शरणागति की ओर जाते हैं, तो यह आवश्यक होता है कि हमारा कोई आदर्श उदाहरण हो जो हमें प्रेरणा दे सके, कोई आध्यात्मिक गुरु। पारंपरिक ग्रंथों के अनुसार आध्यात्मिक गुरु का मुख्य कार्य है हमें मार्ग पर चलने की प्रेरणा एवं शक्ति देना, हमें मार्ग पर बनाए रखना, तथा हमें अपने गंतव्य तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करना। यद्यपि सैद्धांतिक रूप से हम बुद्ध शाक्यमुनि तथा उच्च सिद्धि प्राप्त आर्यों के उदाहरणों से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु हम में से अधिकांश लोगों के लिए उन्हें समझना बहुत मुश्किल है, और निस्संदेह उनमें से किसी से भी अपने दैनिक जीवन में हमारी भेंट भी तो नहीं होती!

बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन

अपने जीवन में धर्म की दिशा बनाए रखने के लिए, हमें सबसे पहले बुद्ध की शिक्षाओं में प्रशिक्षित होने और उनका अध्ययन करने की आवश्यकता है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। परम पावन दलाई लामा बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि शिक्षाओं का वास्तव में अध्ययन किए और सीखे बिना हमें कुछ भी बोध नहीं होगा। हम सारे अनुष्ठान आदि कर भी लें, परन्तु वे सब बिना बोध के शारीरिक व्यायाम ही होंगे। दुर्भाग्यवश इससे कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला।

शरण में जाने के लिए हमें यह जानना होगा कि वह किस दिशा में है। हमें उसकी रीतियों को जानना होगा। उस ज्ञान के बिना हम इस दिशा में कैसे जा सकते हैं? उदाहरण के लिए, यदि हम पढ़ना चाहते हैं तो हमें यह सीखना होगा कि किस तरह पढ़ा जाता है। इससे हटकर कोई दूसरा मार्ग नहीं है।

अपने अशांतकारी मनोभावों (क्लेशों) से आगे बढ़ने की शिक्षाओं पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करना

धर्म के संबंध में दूसरा प्रशिक्षण है हमारे अशांतकारी मनोभावों पर काबू पाने के लिए निर्दिष्ट शिक्षाओं के उन आयामों पर हमारा ध्यान केंद्रित करना। शिक्षाएँ विभिन्न प्रकार के विषयों के सम्बन्ध में हैं। विभिन्न लोकों में से प्रत्येक लोक की जीवन-अवधि जानना अच्छा हो सकता है, परन्तु यह जानकारी हमें, उदाहरणार्थ, अपने क्रोध, लोभ, या स्वार्थ से तर पाने में सहायता नहीं कर सकती। तो, गहनतम धर्म रत्न - सत्य अवरोधन (निरोधसत्य) तथा चित्त का सत्य मार्ग (मार्गसत्य) - की दिशा में चलने के लिए हमें शिक्षाओं के अंतर्गत उन पहलुओं पर बल देने की आवश्यकता है जो हमारे अशांतकारी मनोभावों (क्लेशों) और अशांतकारी मनोवृत्तियों (उपादानों) को दूर करने में हमारी सहायता करेंगे। 

उच्च सिद्धि प्राप्त आर्य संघ के उदाहरण का अनुकरण 

इसके बाद, संघ - अर्थात आर्य संघ, उच्च सिद्धि प्राप्त साधकगण - के प्रति शरणागति को बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण है उनके उदाहरणों का अनुकरण करना। हम मठवासियों के उदाहरणों की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमें भिक्षु या भिक्षुणी बनना पड़ेगा। अंततः, कोई बोधिसत्त्व मठवासी हो भी सकता है और नहीं भी। इसका तात्पर्य यह है कि हमें उनके अध्ययन, अभ्यास, ज्ञानार्जन, तथा कठोर परिश्रम के उदाहरणों को आत्मसात् करना होगा। उन्होंने इस मार्ग को अपनाकर ही अपनी उच्च सिद्धियाँ - शून्यता पर उनके निर्वैचारिक बोध एवं चार आर्य सत्य, इत्यादि - प्राप्त कीं और विमुक्ति तथा ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर अग्रसर होते गए। हमें इसी उदाहरण का अनुकरण करने की आवश्यकता है।

दैनिक जीवन में इन चार प्रशिक्षणों की प्रासंगिकता

दैनिक जीवन में इनकी क्या प्रासंगिकता है? आइए हम देखते हैं कि ये किस प्रकार लागू होते हैं। हमारे पास एक आदर्श है जो आध्यात्मिक गुरु है, और जब परिस्थितियाँ विषम हो जाती हैं तो वह व्यक्ति हमें प्रेरणा देता है। हम धर्म की विधियों को सीख रहे हैं और उन विधियों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो क्रोध, लोभ, और स्वार्थ इत्यादि से ऊपर उठने में हमारी सहायता कर सकती हैं। हम आर्य संघ के उन उदाहरणों का अनुसरण कर रहे हैं जिन्हें हम हर समय, जब भी संकट आए, व्यवहार में ला सकते हैं। अब चाहे कठिनाइयाँ उत्पन्न न भी हो रही हों, तब भी हम इनका अनुसरण एक प्रकार के सुरक्षात्मक उपाय के रूप में करते ही रहेंगे ताकि कठिनाइयाँ उत्पन्न ही न हों। हम इसे बस निर्विकल्प रूप से कर रहे हैं।

शरणागति की ओर बढ़ने का हमारा उद्देश्य यह है कि हम यह नहीं चाहते हैं कि बात और अधिक बिगड़े। हम यह समझते हैं कि शरणागति हमें अधिक सुखी रहने तथा समस्याओं से बचने में सहायता कर सकती है। इसके अतिरिक्त ऐसा लगता है कि यह व्यवहार सही है। मानसिक शान्ति के साथ हमें अधिक सुख की अनुभूति होती है। हम केवल अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों के शिकार बन कर नहीं रह गए। हम इन कठिनाइयों  से ऊपर उठने के लिए कार्यरत हैं, तथा बुद्ध, धर्म, और संघ में हमारी शरणागति हमें ऐसा करने की शक्ति और विधियाँ देती है।

विषय-भोग के सुखों से बाहर निकलना

समग्र रूप से त्रिरत्नों से शरणागति लेने के संबंध में सबसे पहले हम अपने चित्त को इन्द्रिय-जन्य सुखों से हटाते हैं एवं आत्म-सुधार को अपने जीवन का मुख्य कार्य मानकर उसकी प्राप्ति के लिए साधना करते हैं। जैसे मेरे गुरु, गेशे ङ्गवांग धारग्येय, कहा करते थे, "हमें संसार में पर्यटक बनकर रहना बंद करना होगा।" यह अनिवार्य नहीं है कि हम संसार की विभिन्न प्रकार की सभी संभावनाओं का अनुभव करें। विषय-भोग के पीछे भागने से हमें केवल तथाकथित "परिवर्तन के दुःख" ही प्राप्त होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब हम इन सुखों की जाँच करते हैं तो हम यह पाते हैं कि वे सदा के लिए नहीं होते और न ही हमें संतुष्ट कर पाते हैं। हम सदा अधिक-से-अधिक की कामना रखते हैं, परन्तु यदि वह हमें एक ही बार आवश्यकता से अधिक मिल जाए तो हम ऊब जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि अपना मनभावन व्यंजन खाने से हमें सच्चा सुख मिलता तो हम एक बार में जितना अधिक खाते हमें उतना ही अधिक सुख मिलता। परन्तु, स्पष्टतः उसकी भी एक सीमा होती है।

इसके ठीक विपरीत, जब हम अपने उत्थान के लिए और अपनी मानसिक शान्ति को हरने वाले कारणों को नियंत्रित करना अपना मूलभूत लक्ष्य बना लेते हैं तो यह स्पष्ट है कि फलस्वरूप हमें अधिक मानसिक शान्ति प्राप्त होगी। वास्तव में हमें जो अधिक सुख मिलेगा वह स्थायी होगा। यह सम्भोग की तरह उत्तेजक तो नहीं हो सकता परन्तु मानसिक शान्ति जनित सुख अधिक स्थायी और सुरक्षित होता है।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम मनोरंजन की सभी गतिविधियों, अच्छे भोजन, और मैथुन के अनुभव को सम्पूर्ण रूप से त्याग दें। हमें अपनी सारी संपत्ति इत्यादि दूसरों को सौंपने की आवश्यकता नहीं है। इसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि हमें अपने विषय-भोग के सुखों को एक परिप्रेक्ष्य में रखना होगा। निस्संदेह अधिक कुशलता से काम करने के लिए कभी-कभार हमें इस प्रकार के विश्राम की भी आवश्यकता होती है। परन्तु हम इस विश्राम को लगभग एक दवा के रूप में लेते हैं। उदाहरण के लिए, अपने भोजन को समर्पित करने के लिए एक प्रार्थना यह है: "मैं इस भोजन का सेवन लोभ-वश या कामना-वश नहीं कर रहा हूँ, अपितु एक ओषधि के रूप में कर रहा हूँ ताकि मुझे दूसरों की सहायता हेतु काम करते रहने के लिए अधिक शक्ति मिल सके।"

यदि हम अपने विश्राम करने के तरीक़ों, जैसे सिनेमा देखना आदि, को एक प्रकार की ओषधि के रूप में देखें ताकि हमारी ऊर्जा बढ़ जाए, तो यह ठीक है। इस दृष्टिकोण से इस तरह के अवकाश मर्यादित एवं संतुलित ही रहेंगे, और हम उनसे प्राप्त सुख को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखेंगे।

एक चुटकुला की बात है कि जिसने अपने जीवन के अंत में सबसे अधिक खिलौने, अर्थात सबसे अधिक भौतिक सामग्री संचित की हो, वही जीतता है। ऐसा नहीं है। यह बात नहीं है कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य अधिक-से-अधिक वस्तुओं और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जमा करना, या दूसरों की तुलना में अधिक फिल्में देखना, या अपने बैंक के खाते में किसी और की तुलना में एक अधिक बड़ी संख्या का होना, या फिर दूसरों की तुलना में अधिक विदेशी व्यंजन खाना इत्यादि हो। यह जीवन का सार नहीं है, नहीं क्या ? इनमें से कोई भी हमें किसी भी प्रकार की स्थायी संतुष्टि नहीं दे सकता, विशेष रूप से यदि अपने भावी जीवनकालों के संदर्भ में सोचा जाए तो।

स्पष्टतः जब हमारा ध्यान मुख्य रूप से मनोरंजन पर नहीं रहेगा, तो यह वास्तव में हमारे दैनिक जीवन के स्वरुप को ही तय कर देगा। हमारे दैनिक जीवन का विषय केवल अधिक से अधिक संगीत सुनना आदि नहीं है। कई लोग हैं जो संगीत सुनने के आदी हैं; चाहे वे काम कर रहे हों, यात्रा कर रहे हों, टहल रहे हों, वे हमेशा दिन-रात अपने आईपॉड पर ही लगे रहते हैं। अपने जीवन का रुख शरणागति की ओर करने के बाद, हर समय संगीत से अपना ध्यान बँटाना निश्चित रूप से उस दिशा में जाने का साधन नहीं है। इस दिशा में जाने के लिए, हमारे जीवन की प्राथमिकता होनी चाहिए आसक्तियों, लोभ, स्वार्थ, इत्यादि से छुटकारा पाना। परन्तु यादे रखिए, इसका मतलब यह नहीं है कि हम एक कट्टर, परिपूर्णतावादी ढंग से इसके पीछे ही पड़ जाएँ। हम फिर भी आनंद उठा सकते हैं।

यह बहुत ही रोचक अवधारणा है: मनोविनोद क्या है? मैं अपना एक प्रिय वृत्तांत सुनाता हूँ। एक बार, मैं हॉलैंड में अपने वयोवृद्ध गुरु सरकॉंग रिन्पोचे के साथ किसी धनाढ्य परिवार के घर ठहरे हुए थे। उनके पास एक बहुत बड़ी नाव थी, जिसे वे एक बहुत छोटी-सी झील में रखते थे। एक दिन वे हमें अपनी पाल-नौका में घुमाने ले गए। हम इस छोटी-सी झील में कई अन्य पाल-नौकाओं के साथ क्रम से एक पंक्ति में धीरे-धीरे चक्कर काट रहे थे, मानो हम किसी मनोरंजन उद्यान में बच्चों की सवारी पर हों, तो रिन्पोचे मेरी ओर मुड़े और तिब्बती भाषा में बोले, "क्या यही इनके लिए मनोविनोद है?" तो फिर, मनोविनोद क्या है? 

शांतिदेव कहते हैं कि यदि धर्म का कार्य हमारे लिए मनोविनोद है, तो हम तब तक सुखी नहीं रह सकते जब तक हम धर्म का कार्य नहीं करते। इसमें दूसरों की सहायता करना, आत्म-सुधार, इत्यादि सम्मिलित हैं। इसी को दृढ-संकल्प कहते हैं। हमें अपना काम करने में आनंद मिलता है। यदि हम अपने काम में आनंद पा सकते हैं तो हम उस काम को करते ही रहेंगे।

वास्तव में आत्म-सुधार करने, विभिन्न क्लेशों, आतंरिक संघर्षों आदि को मिटाने या कम करने जैसे कामों में अत्यधिक आनंद मिलता है। यह काम निस्संदेह कठिन है, परन्तु, जब हमें अधिकाधिक सफलता मिलती है तो अत्यंत सुखदायी भी होता है। यह स्पष्ट है कि सफलता में उतार-चढ़ाव आते ही रहेंगे। यह सीधी रेखा में चलने वाली प्रक्रिया नहीं है। परन्तु फिर भी जब हमें सफलता मिलती है तो बहुत अच्छा लगता है। हमें ऐसा लगता है जैसे, "मैं कुछ तो कर रहा हूँ।"

यहाँ किसी खेल के लिए प्रशिक्षण पाने वाले व्यक्ति की उपमा ठीक बैठेगी। हर समय तैरते या दौड़ते रहना कठिन काम है। परन्तु जब हम प्रशिक्षण के द्वारा अधिक दूर या अधिक तेज़ी से दौड़ने या तैरने लगते हैं, और फलस्वरूप हमारी सहन-शक्ति बढ़ती जाती है तो हम अत्यंत उत्साहित अनुभव करते हैं, है न? कठिनाइयों के होते हुए भी हमें यह अच्छा लगता है। धर्म-साधना के साथ भी ऐसा ही होता है। हम प्रशिक्षण लेते रहे, लेते रहे, और अचानक हमने यह पाया कि, उदाहरणार्थ, हम अपने उन सभी सगे-सम्बन्धियों के साथ एक पारिवारिक सायंभोज के लिए गए जिनका साथ हमें कभी भी रास नहीं आया, और हमने अपना आपा नहीं खोया। हम धैर्य रखने में सक्षम रहे और सबकुछ ठीक-ठाक हो गया। भोजन राज़ी-ख़ुशी हो गया। वास्तव में, हमारे माता या पिता के उलाहने के बाद भी कि, "तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की?" या "तुम्हारे बच्चे क्यों नहीं हो रहे?" या "तुम और अधिक क्यों नहीं कमाते?" या "तुम मुझे और अधिक बार फ़ोन क्यों नहीं करते?" हम अपने मन की शांति बनाए रखने और इन सबसे निपटने में सक्षम रहे, और अब यह बहुत अच्छा लग रहा है।

संक्षेप में कहा जाए तो यह निर्देश हमें अपने चित्त को इन्द्रिय-जन्य सुखों से हटाने की चर्चा कर रहा है, और इसका सार यह है कि धर्म-साधना वास्तव में अधिक सुखदायी है।

बुद्ध के नैतिक मानकों को अपनाना

सभी त्रिरत्नों पर समान रूप से लागू होने वाली असंग की प्रशिक्षण की सूची में अगला अनुदेश है बुद्धजनों द्वारा निर्धारित किए गए नैतिक मानकों को अपनाना। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। शरणागति की ओर बढ़ने के लिए हमें चाहिए कि हम विनाशकारी (अकुशल) व्यवहार से पूर्ण रूप से बचें तथा रचनात्मक (कुशल) रूप से कार्य करें। ऐसा करना मौलिक बौद्ध नैतिकता का पालन करना है। यदि हम अपने अशांतकारी मनोभावों (क्लेशों) के आधार पर अकुशल रूप से कार्य करते हैं तो यह और अधिक दु:ख उत्पन्न करेगा, विशेष रूप से हमारे लिए और संभवतः दूसरों के लिए भी। दूसरी ओर, जब हम कुशल रूप से कार्य करते हैं तो यह अपने साथ अधिक सुख लाता है।

बौद्ध नैतिकता आज्ञा-पालन पर आधारित नहीं है। यह नैतिकता का सिद्धांत बिल्कुल नहीं है। अन्य सम्प्रदायों में ऐसे नियम होते हैं जो या तो किसी दिव्य सत्ता द्वारा निर्धारित होते हैं या फिर विधि द्वारा निर्मित, और नैतिक व्यक्ति होने का अर्थ होता है आज्ञाकारी बनना और नियमों का ठीक-ठीक पालन करना। बौद्ध-धर्म ऐसा नहीं है। अपितु, बौद्ध नैतिकता का पूर्ण ध्येय यह विभेद कर पाना है कि क्या उपयोगी है और क्या हानिकारक। यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। यह पूरी तरह से इस बात का बोध है कि क्या उपयोगी है और क्या हानिकारक, न कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, या क्या वैध है और क्या अवैध। हितकर और हानिकारक के बीच विभेद कर पाने के आधार पर, जिसे "सविवेकी सचेतनता" (प्रज्ञा) कहा जाता है, हम हानिकारक कृत्यों को न करने का निर्णय लेते हैं।

जो हानिकारक है वह आत्म-विनाशकारी होता है और हमें निकृष्टतर दिशा में ले जाता है, जैसे विनाशकारी आदतों के प्रति अधिकाधिक आसक्त होना। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से धूम्रपान विनाशकारी दिशा हो सकती है, परन्तु सामाजिक दृष्टिकोण से व्यवहार, भावनाएँ, और मनोदृष्टि भी विनाशकारी हो सकते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो शरणागति ही हमें बेहतर बनाने तथा दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता को बढ़ाने में हमारी सहायता करती है।

करुणामय होना

अगला प्रशिक्षण है दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील और करुणामय होने का यथासंभव प्रयास करना। मुझे नहीं लगता कि इसमें अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। भले ही हम केवल अपनी व्यक्तिगत विमुक्ति के लिए ही काम कर रहे हों, हमें निश्चित रूप से दूसरों के प्रति उदार होने और उनकी सहायता करने की आवश्यकता है।

बौद्ध त्यौहारों पर विशेष भेंट चढ़ाना

अंतिम प्रशिक्षण है विशेष बौद्ध त्यौहारों जैसे बुद्ध के ज्ञानोदय प्राप्ति की वर्षगाँठ आदि पर फल, फूल इत्यादि की विशेष भेंट चढ़ाना। यह वास्तव में एक रोचक बात है क्योंकि, हो सकता है कि हमारी ऐसी मनोदृष्टि हो कि हमें विशेष त्यौहारों को मनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उससे क्या होगा? हो सकता है कि हम यह सोचकर कि पश्चिम में क्रिसमस का कितना व्यवसायीकरण हो गया है चिढ़े बैठे हों और यह सोचें कि, "मुझे इसकी क्या आवश्यकता है? क्या यह केवल एक क्रिसमस वृक्ष लगाने का बौद्ध-धर्मी रूप है, जहाँ बिजली की बत्तियों के स्थान पर वेदी पर छोटी-छोटी कटोरियों में सुगन्धित दिये जलाते हैं?

मेरे विचार से पते की बात यहाँ यह है कि हम इन कृत्यों द्वारा बुद्ध, बौद्ध परम्पराओं, गुरुओं, इत्यादि के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। भेंट चढ़ाना सम्मान का प्रतीक है। हमें न तो इस बात को लेकर आडम्बर रचाने की आवश्यकता है, और न ही यह सम्मान व्यक्त करने के लिए किसी विशेष बौद्ध-धर्मी त्यौहार की प्रतीक्षा करने की। यह ऐसा काम है जो हम प्रतिदिन कर सकते हैं। इसे किसी शारीरिक व्यायाम की तरह नहीं करना है, जैसे हर रविवार को चर्च चले गए और सप्ताह के शेष दिनों में हम अपनी मनमानी करते फिरें। धार्मिक अवकाश मनाने से हमें किसी बड़े समुदाय का भाग होने की अनुभूति होती है; यह एक सामाजिक समर्थन की तरह कार्य करता है।

जब हम इन प्रशिक्षणों को देखते हैं, तो कुछ ऐसी बातें मिलती हैं जो अनन्य रूप से बौद्ध-धर्मी नहीं लगतीं। दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील और संवेदनशील होना, नैतिकता का पालन करना, इत्यादि – ये सब तो विश्वव्यापी हैं, है न?

तो इस सूची में पूर्व प्रस्तुत विषयों, विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी विषयों, की समीक्षा करते हुए, सर्वप्रथम हम महान बौद्ध आचार्यों के दृष्टांतों को अपने आदर्श उदाहरण मानकर उनपर विचार करते हैं। फिर हम शिक्षाओं का अध्ययन करते हैं, विशेष रूप से उन शिक्षाओं का जिनका उद्देश्य है हमारे क्लेशों (अशांतकारी मनोभावों) को कम करना, और इसके लिए हम बोधिसत्त्वों के उदाहरणों का अनुकरण करते हैं। निःसंदेह हमें इन सबके लिए कठोर परिश्रम करना होगा। इस संदर्भ में हम कुछ अन्य विषयों को भी जोड़ सकते हैं जैसे नैतिकता का पालन करना, कृपालु और सहानुभूतिशील होना, इन्द्रिय-जन्य वासनाओं में अत्यधिक लिप्त न होकर अपनी प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित कर उनपर स्थिर रहना तथा परंपरा के प्रति सम्मान दिखाना।

उपदेशों की सूची

अब तक, हमने असंग के ग्रन्थ से प्रत्येक रत्न तथा सामान्य रूप से तीनों रत्नों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण को प्रस्तुत किया। इसी प्रकार दिशानिर्देश विशिष्ट रत्नों के प्रत्येक रत्न के लिए तथा समग्र रत्नों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण का अनुदेश देते हैं। अलग-अलग रत्नों के संदर्भ में प्रत्येक रत्न के लिए वर्जित एवं धारण करने योग्य कृत्य हैं। सबसे पहले हम वर्जित कृत्यों की बात करते हैं।

बुद्धजन के संबंध में अन्यत्र शरणागति लेने से बचना

जब हम बुद्धजन की शरणागति लेते हैं तो हमें किसी और की शरण में नहीं जाना चाहिए। अपने भीतर इस रोचक बात पर ध्यान देना चाहिए। जब हम अत्यंत उदास अनुभव करते हैं, मन उदास होता है और, जैसे लोग कहते है सबकुछ उल्टा-पुल्टा होता है, तो हम आश्रय और सांत्वना के लिए किसकी ओर मुड़ते हैं? क्या हम, उदाहरण के लिए, चॉकलेट की ओर मुड़ते हैं? जब हमें बहुत बुरा लगता है तो क्या हम बाहर जाकर चॉकलेट का एक बहुत बड़ा टुकड़ा अपने मुँह में ठूँसकर थोड़े-बहुत सुख का अनुभव कर लेते हैं जिसके बाद हमें उतना बुरा नहीं लगता? जब समय बुरा चल रहा होता है तो क्या हमें किसी मित्र से बात करने की आवश्यकता का अनुभव होता है? क्या हम विषयासक्ति का अवलम्ब लेते हैं? हम किसका सहारा लेते हैं? क्या हम किसी कुत्ते की तरह हैं कि किसी ने हमारा सिर थपथपाया तो हमने अपनी पूँछ हिला ली?

यहाँ मूल उपदेश यह है कि यदि हम कुछ उदास या दुःखी अनुभव कर रहे हैं तो चॉकलेट लेना ठीक है, परन्तु वह हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ शरण्य नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि वह चॉकलेट नहीं है। तो कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए धर्म के मार्ग को अपनाना कैसा रहेगा?

मुझे यह कुछ विचित्र-सा लगता है जब कुछ लोग, जो कहने को धर्म शिक्षण में निपुण हैं, और इसमें धर्म के कुछ पश्चिमी शिक्षक भी शामिल हैं, अपने वैवाहिक जीवन में या किसी अन्य विषय में जब किसी प्रकार की समस्या अनुभव करते हैं तो वे धार्मिक विधियों को अपनाने का प्रयास करने के बजाय मनोचिकित्सा का सहारा लेते हैं। मुझे यह हमेशा अजीब लगा है क्योंकि यदि हम धर्म की शरण में जाते हैं तो कथित रूप से हम इस बात पर दृढ़मत है कि धर्म हमारी हर समस्या का समाधान प्रदान करता है। स्पष्ट रूप से इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि यदि हमें कैंसर का रोग है तो हम केवल ध्यान करते रहें कि धर्म हमारे कैंसर को ठीक कर देगा। यह केवल मूर्खता है। इसका यह अर्थ नहीं है। हम चिकित्सक के पास जाते हैं। परन्तु धर्म-साधना कैंसर से होने वाले अवसाद को दूर करने में हमारी सहायता कर सकती है।

यदि हमें ऐसा लगता है कि अपनी समस्याओं की चर्चा करने के लिए और एक अन्य दृष्टिकोण के लिए किसी चिकित्सक के पास जाना उचित होगा, तो वह ठीक है। परन्तु, धार्मिक रीतियों को अपनाने के सन्दर्भ में वह केवल एक अनुपूरक ही होगा, एक अनुषंग। धार्मिक विधियाँ ही वह सर्वश्रेष्ठ शरण्य हैं, वह मुख्य शरणागति और साधना जिन्हें हम अपनी कमियों से उबरने के लिए विकसित करते हैं। हो सकता है कि उन्हें अपनाने के लिए हमें अतिरिक्त मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, परन्तु हमें इस बात पर पूर्ण विश्वास है कि बुद्ध के पास सभी समस्याओं को सुलझाने की कुंजी थी।

जहाँ तक बुद्ध, धर्म, और संघ के अतिरिक्त किसी और की शरण में न जाने की बात है, निर्देश यह है कि हम संसारी देवी-देवताओं की शरण में न जाएँ। बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से, अन्य धर्मों के देवी-देवता संसारी देवी-देवता हैं। निस्संदेह, अन्य धर्म इसे सच नहीं मानेंगे।

इटली में एक बार सरकॉंग रिन्पोचे से यह प्रश्न पूछा गया था। किसी व्यक्ति ने पूछा कि क्या बौद्ध-धर्मी बनने के बाद भी वह चर्च जा पाएगा। रिन्पोचे ने उत्तर दिया, "क्या प्रेम पर ईसाई शिक्षाएँ बौद्ध शिक्षाओं के विपरीत हैं?" उत्तर स्पष्ट है कि वे नहीं हैं। यदि हम चर्च जाना चाहते हैं तो उसमें कोई समस्या नहीं है। निर्णायक प्रश्न यह है कि हमारे जीवन का सर्वोच्च शरण्य क्या है? इसपर हमें किसी प्रकार का निर्णय लेना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अन्य सभी को काट फेंकना होगा, अपितु यह है कि हमें अपनी दिशा के बारे में स्पष्टता होने की आवश्यकता है। अन्य परम्पराओं से कुछ सकारात्मक बातें भी सीखने को मिलती हैं, और वह ठीक बात है। उसमें कोई समस्या नहीं है।

परन्तु, प्रथाओं और विधियों के बारे में बात करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि उन सबकी एक खिचड़ी न बन जाए। उदाहरण के लिए, हम चर्च में जाकर साष्टांग प्रणाम नहीं करते, या किसी अनुष्ठान के दौरान हम चुपके-चुपके "ओम मणि पद्मे हुम् " का जाप नहीं करते। चर्च जाना और अपनी बौद्ध-धर्मी साधनाओं को करना दोनों अलग-अलग रूप से और ससम्मान अपने-अपने स्थान तथा परिस्थिति के अनुसार किया जा सकता है।

अधिक विशेष रूप से, बौद्ध-धर्मी क्षेत्र में इस अनुदेश का संकेत यह है कि संरक्षकों एवं सांसारिक भूतों की शरणागति न लेना। वे विश्वसनीय नहीं हैं। वे हमें धोखा देंगे। हम भूत-प्रेत की पूजा में नहीं पड़ना चाहते। संभवतः यह तिब्बती या भारतीय दर्शकों के लिए अधिक प्रासंगिक होगा, परन्तु कुछ पश्चिमी लोग भी हैं जो इन विभिन्न प्रेतात्माओं और संरक्षकों पर मोहित हैं और वे उनसे जुड़ी प्रथाओं में शामिल हो जाते हैं।

"रक्षक" शब्द से ऐसा लगता है जैसे वे हमारी रक्षा करने वाले हैं। निस्संदेह तिब्बती बौद्ध-धर्म में कुछ परंपराओं के अनुसार यह माना जाता है कि कुछ रक्षक बुद्धजनों के स्वरूप हैं। हमें यहाँ सावधान रहने की आवश्यकता है। प्रत्येक रक्षक के अलग-अलग स्तरों पर तर्क-वितर्क एक प्रणाली को जन्म दे सकता है जैसे अलग-अलग श्रेणियों की प्रेतात्माओं और रक्षकों का कोई जीववैज्ञानिक वर्गीकरण। यह सबकुछ जीव-विज्ञान के पाठ जैसा हो जाता है।

हमें यह पहचानने की आवश्यकता है कि दु:खों से बचने के लिए हमें मुख्य रूप से क्या करना चाहिए। पहली बात यह है कि हमें अपने कर्म पर भरोसा करना होगा। दूसरे शब्दों में, बुद्ध, धर्म, और संघ की प्रेरणा और आदर्शों के मार्गदर्शन के अनुरूप हम जो कुछ भी करते हैं और जिस प्रकार भी करते हैं, वह सब भविष्य के हमारे अनुभवों को प्रभावित और निर्धारित करेगा। संरक्षक हमारी परिस्थितियों एवं अवस्थाओं का कुछ ऐसा संयोग बनाकर हमारी सहायता कर सकते हैं जिससे वर्तमान काल में हमारे पापों का प्रभाव क्षीण हो जाए और उनका हम न्यून रूप में अनुभव कर सकें। इस प्रकार हमारे पुण्यों का अधिक तेज़ी से विपाक हो सकता है। भैषज्य गुरुओं के अनुष्ठान के लिए भी यही प्रक्रिया है। यदि हमारे पास संचित पुण्य हैं तो भैषज्य गुरु परिस्थितियों तथा अवस्थाओं का ऐसा संयोग बना सकते हैं जिससे उन पुण्यों का शीघ्र ही विपाक हो जाए। पते की बात यह है कि संचित पुण्य के अभाव में हम चाहे रक्षक या भैषज्य गुरु पर जितना ही भरोसा क्यों न कर लें, उसका कोई फल नहीं होगा। सीधी-सी बात यह है कि हमारे पास अधिक सुखप्रद अवस्था अनुभव करने के लिए कोई आधार ही नहीं रहेगा।

इसलिए, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हमारी बौद्ध-धर्मी साधना रक्षक पूजा या, यहाँ तक कि बुद्ध पूजा भी न बन जाए। हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा है वह हमारे अपने अतीत के कर्मों का फल है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार कार्य करते हैं, सम्प्रेषण करते हैं, और सोचते हैं। और फिर हमारे पास आदर्श हैं, हमारे पास शिक्षाएँ हैं, और हमारे पास वे लक्ष्य हैं जिन्हें हम प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु बात यह है कि हमें यह काम वास्तव में करना पड़ेगा; हमें उस दिशा में चलना होगा। दोबारा संक्षेप में कहता हूँ कि हमें अपने परम शरण्य के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है और यद्यपि हम अस्थायी रूप से यहाँ-वहाँ से हल्की-फुल्की सहायता ले सकते हैं, तथापि हमें अपने मुख्य मार्ग के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है।

धर्म के संबंध में, हानि पहुँचाने से बचना

धर्म की शरणागति के सन्दर्भ में हमें यह याद रखना है कि हम अन्य मनुष्यों, पशुओं, यहाँ तक कि किसी भी जीव को हानि न पहुँचाएँ। स्पष्टतः हम दूसरों की सहायता करने की चेष्टा कर रहे हैं, न कि उन्हें चोट पहुँचाने की, परन्तु यह अत्यंत जटिल हो सकता है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम अच्छा सोचकर नेकनीयती से कुछ कह दें जो न अप्रिय है और न ही अपमानजनक; फिर भी, किसी-न-किसी कारण से लोग उस बात को लेकर बहुत बुरा मान जाते हैं, उसे ग़लत समझ लेते हैं, और बहुत परेशान या क्रुद्ध हो जाते हैं। अब एक और बात, जब हम ज़मीन पर चलते हैं तो अनायास ही किसी-न-किसी पर हमारे पैर पड़ ही जाते हैं। तो यहाँ उद्देश्य यह है कि दूसरों को होने वाली हानि को कम करने की कोशिश करना। निश्चित रूप से नुकसान करने का उद्देश्य तो है ही नहीं। परन्तु, हमारे शरीर-मन-बुद्धि सीमित होने के कारण, हम असावधानी से ही सही, दूसरों को हानि पहुँचाते जाते हैं। तो, फिर से कहता हूँ, हमें इसे यथासंभव कम करने का प्रयास करना होगा।

संघ के संबंध में, नकारात्मक लोगों (पापियों) के साथ घनिष्ठ संबंध न रखना

संघ की शरणागति में हमें नकारात्मक लोगों (पापियों) के साथ निकट सम्बन्ध जोड़ने से बचना है। यह बहुत ही नाज़ुक मामला है। जब तक हमारी आध्यात्मिक नींव पक्की नहीं हो जाती, तब तक हमारा संग-साथ हमपर अच्छा या बुरा प्रभाव डाल सकता है। यहाँ इस कथन का उद्देश्य यह है कि हमें ऐसे लोगों के संग से बचना चाहिए जो हमेशा पाप और विनाशकारी कर्मों में लिप्त रहते हैं। उदाहरण के लिए, छोटे-मोटे अपराधों में शामिल किसी सड़क-छाप गिरोह, या दोस्तों का गुट जो हमेशा नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं या नशे में चूर रहते हैं।

हमारे विकास के इस चरण में यह बहुत मुश्किल है कि हम अपनी संगति से प्रभावित न हों। हम स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हैं और अपने दोस्तों को नाराज़ भी नहीं करना चाहते। परिणामस्वरूप, हम मदिरा या नशीले पदार्थों का सेवन कर लेते हैं, घूमते-फिरते दूसरों की गाड़ियों पर खरोंच मार देते हैं, या मकानों पर भित्तिचित्रण भी कर लेते हैं। और फिर कुछ समय बाद हमें स्वयं इन गतिविधियों की लत पड़ जाती है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपने दोस्तों से कहें कि वे बुरे लोग हैं। बात यह है कि ऐसे लोगों के साथ अधिक समय नहीं बिताना है जब हमें यह पता है कि उनका हमपर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यदि हम वास्तव में कमज़ोर हैं तो अच्छा यह होगा कि हम उनसे पूरी तरह दूर ही रहें। उदाहरण के लिए, यदि हमें मदिरा की लत लग गई हो और हम उससे बाहर निकलना चाहते हैं, तो हमें अपने शराबी दोस्तों के साथ समय बिताना बंद करना होगा। इसके लिए हम अल्कोहॉलिक्स एनोनिमस जैसे किसी समूह से जुड़ जाएँ जहाँ हमें ऐसे लोगों का संग मिलेगा जो स्वयं अपनी लत से उबरने का प्रयास कर रहे हैं। हमें उनका और उनके अच्छे आदर्शों का समर्थन मिल जाएगा। यह कुछ इस तरह की बात है।

यह विलक्षण बात है कि ये सभी बिंदु एक दूसरे के साथ किस तरह जुड़े हुए हैं। हम यह जानने के प्रयास से शुरू कर सकते हैं कि हमारे जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण बात क्या है। क्या जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण बुरी आदतों (वासनाओं) के शिकार मित्रों की स्वीकार्यता पाना है? क्या यही हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राप्तव्य है? क्या यह हमें अनंतकाल तक का सुख देगा? या फिर क्या यह अधिक महत्त्वपूर्ण, अधिक सार्थक होगा कि हम अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करते रहें ताकि हम दूसरों की बेहतर सहायता करने में सक्षम हों?

इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम उन लोगों के लिए चिंता करना या उनसे प्रेम करना छोड़ दें जिनसे हमें दूरी बनाए रखने की आवश्यकता है। निस्संदेह हम उनके सुख की कामना करते हैं; परन्तु हमें यहाँ सावधानी बरतने की भी आवश्यकता है। एक ओर तो हम उनसे प्रभावित नहीं होना चाहते और न ही उनके नकारात्मक अभ्यासों में पड़ना चाहते हैं। परन्तु, दूसरी ओर यह भी नहीं चाहते कि अपने बारे में अहंकारयुक्त होकर यह सोचने लगें कि हम बौद्ध-धर्मी हैं और उनसे कहीं अधिक श्रेष्ठ। ऐसा भी नहीं है कि अंततः हम इन कमतर लोगों को उनके पाप-युक्त जीवन से बचा लेंगे। यह स्पष्टतः एक अकथनीय रूप से भयावह मनोदृष्टि है।

लोग एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। जीवन में ऐसा होना तो स्वाभाविक है। पते की बात यह है कि यदि कोई भी हमें नकारात्मक अर्थों में सशक्त रूप से प्रभावित कर सकता हो, तो किसी पर भी आक्षेप लगाए बिना, या यह जताए बिना कि वह अच्छा नहीं है, उस व्यक्ति से बचना सबसे उचित कदम होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें "पवित्र, पवित्र" बौद्ध समुदाय में रहना होगा या सफ़ेद कपड़े पहनकर पूर्ण शाकाहारी बनना होगा। इसका यह मतलब नहीं है। परन्तु हमें सतर्क रहना होगा कि हमपर किस प्रकार के प्रभाव पड़ सकते हैं। हानिकारक प्रभावों से बचने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए। यह अनिवार्य नहीं है कि ये हानिकारक प्रभाव केवल मनुष्यों से ही आ सकते हैं। ये टेलीविजन, इंटरनेट पर अश्लील साहित्य, या हिंसक चलचित्र और वीडियो गेम से भी आ सकते हैं। इस प्रकार के पदार्थ हमारी तृष्णा या आक्रामकता की वृद्धि करके हमें नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

अपनाने योग्य तीन आदरसूचक कृत्य

शरणागति के उपदेशों में तीन ऐसे कृत्य हैं जिन्हें सम्मानसूचक रूप से अपनाना चाहिए। बुद्धजनों के संदर्भ में हम बुद्धजन की कलात्मक मूर्तियों, चित्रणों, इत्यादि के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। धर्म के संदर्भ में हम सभी ग्रंथों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, विशेषकर धर्म ग्रंथों के प्रति। इसके अतिरिक्त, संघ के संदर्भ में हम बौद्ध-मठीय संवर-युक्त लोगों और केवल मठीय चीवर के प्रति भी सम्मान व्यक्त करते हैं।

आदर के सूचक के रूप में हम अनादर करने से बचना चाहते हैं। उदाहरण के लिए हम बुद्ध की छवि को स्नानागार में नहीं टाँगते। हम अपने धर्म ग्रंथों पर नहीं बैठते या उन्हें मेज़ को डगमगाने से रोकने के लिए उसके असमान पायों के नीचे नहीं रखते। हमारे धर्म केंद्र के बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों के साथ सेवकों-सा व्यवहार नहीं करते मानो वे हमारे लिए हर प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ही उपस्थित हैं क्योंकि हम महान धर्मात्मा साधक जो ठहरे। वे लोग वहाँ इसलिए नहीं हैं कि हमारे लिए चाय बनाएँ, हम द्वार पर वसूली करें, और हमारे प्रस्थान के बाद साफ़-सफ़ाई करें। दुर्भाग्य से कई धर्म केंद्रों पर ऐसा ही होता है। यद्यपि मठवासी ही हैं जो शिक्षाओं को प्राप्त करने में सबसे अधिक रुचि रखते हैं, तथापि वे ही हैं जो इन आयोजनों में सदा उपस्थित नहीं रह पाते क्योंकि उन्हें प्रबंधक और आयोजक के काम जो करने पड़ते हैं। यह बिल्कुल न्यायोचित नहीं है।

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा नहीं है कि हम प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हम ग्रंथों, भिक्षु-भिक्षुणियों, या उनके चीवर की पूजा करते हैं। यहाँ कहने का मतलब यह है कि हम इन सबके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं क्योंकि वे बुद्ध, धर्म, और संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जीवन में इन प्रशिक्षणों को उतारना 

अब हम अपनी अब तक की चर्चा की समीक्षा करते हैं। हमें शरणागति प्राप्त करनी है। उस ओर हम क्या कर रहे हैं?

  • हम किसी अन्य आलम्बन को अपना मूल शरण्य नहीं बना रहे हैं। 
  • हम दूसरों को हानि नहीं पहुँचा रहे हैं।
  • हम अन्य लोगों के नकारात्मक प्रभावों से बच रहे हैं। 
  • हम जिनकी शरण में जा रहे हैं उनके प्रतीकों का सम्मान कर रहे हैं।

यह तर्कसंगत है और हम इसे अपने दैनिक जीवन में समाविष्ट कर सकते हैं। इसकी हमारे जीवन में प्रासंगिकता है, है न? हम कुछ निश्चित पदार्थों का सम्मान करते हैं एवं अपने जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण विषय पर भी दृढ़-संकल्प रहते हैं। हम उन नकारात्मक प्रभावों के प्रति सतर्क रहते हैं जो हमें अपनी चुनी हुई दिशा से विमुख कर सकते हैं, पथभ्रष्ट कर सकते हैं, और हम उन अनुकूल स्थितियों की प्राप्ति के लिए भी सतर्क रहते हैं जो हमें इस महत्त्वपूर्ण दिशा में आगे की ओर ले जा सकती हैं। बुद्ध के चित्रांकन, धर्म ग्रंथों, और मठीय प्रणाली के प्रति सम्मान दिखाना तो एक बाहरी संकेत है। परन्तु आंतरिक रूप से हम अपने जीवन में जो कुछ भी कर रहे हैं, हमें उसका भी सम्मान करना चाहिए। यह अति आवश्यक है क्योंकि हो सकता है हम किसी ऐसी परिस्थिति में हों जहाँ हम अपनी धर्म-साधना दूसरों के सामने नहीं कर सकते। हो सकता है कि हम सेना, जेल, या यहाँ तक कि अन्य लोगों के साथ किसी अस्पताल के रोगीकक्ष में हों। इस प्रकार की परिस्थिति में यह तो नहीं हो सकता है कि हम सदा अगरबत्ती जलाने, बुद्ध की मूर्तियाँ सजाने इत्यादि जैसे काम कर पाएँ।

उदाहरण के लिए, ऐसी कल्पना करें कि आप अपने माता-पिता के साथ एक कमरे वाली किसी छोटे बंगले में कुछ दिनों के लिए ठहरे हुए हैं। स्पष्टतः, उसी स्थान पर अपने माता-पिता के सामने साष्टांग प्रणाम करना तो उतना उचित नहीं होगा। हो सकता है कि वे इसे अत्यंत विचित्र समझकर कई प्रकार के अप्रिय प्रश्न ही पूछ बैठें। और न ही हमें ऐसा करने की आवश्यकता है। अपनी परिस्थितियों के अनुसार हमें लचीला होना होगा, परन्तु अपने मन में अपनी दिशा और अपनी प्राथमिकताएँ पूरी तरह स्पष्ट होनी चाहिए। यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने प्रति तथा अपने कर्मों के प्रति सम्मान की मनोदृष्टि बनाए रखें।  

छः सांझा प्रशिक्षण

अगला है उपदेशों के अनुसार समग्र त्रिरत्नों के छः सांझा प्रशिक्षण

(1) सबसे पहले, हम लगातार बुद्ध, धर्म और संघ के माहात्म्य को याद करते हुए अपनी शरणागति की पुष्टि करते हैं। यदि शरणागति केवल मंत्रोच्चारण तक ही सीमित हो तो वह यांत्रिक व्यायाम होकर रह जाती है, इसलिए बुद्ध, धर्म, और संघ के माहात्म्य तथा इस शरणागति के लाभों का स्मरण करते हुए अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि करने की आवश्यकता है। जिसे हम शरणागति लेने के पीछे की "भावना" कहते हैं, यह उसे बनाए रखने में सहायता करता है।

(2) इसके बाद, उनकी कृपा, आध्यात्मिक सम्पोषण और ऊर्जा, तथा उनकी हर प्रकार की सहायता हेतु कृतज्ञता प्रकट करते हुए हम प्रतिदिन अपने गर्म पेय और भोजन का पहला कौर बुद्ध, धर्म, और संघ को अर्पित करते हैं। सुबह की हमारी पहली चाय या कॉफी का एक छोटा-सा भाग एक कप में डालकर अपनी वेदी पर रख सकते हैं, या हम उस वेदी पर किसी फल का एक टुकड़ा भी रख सकते हैं। हम इस अर्पण की मानस कल्पना के आधार पर भी कर सकते हैं। इनमें कोई अंतर नहीं है। परन्तु यदि हम कुछ अर्पण करते हैं तो ध्यान रहे कि उसे यों ही सड़ने के लिए या, जैसे भारत में करते हैं, चूहों के खाने के लिए छोड़ न दें। हम इसे कृतज्ञता के साथ अर्पित करते हैं, परन्तु यह स्पष्ट है कि बुद्धजनों को हमारी चाय या फल के टुकड़े की आवश्यकता नहीं है। वे इसे पीने या खानेवाले नहीं हैं। यह केवल एक प्रतीक है और, थोड़ी देर बाद, हम यह भावना बना लेते हैं कि उन्होंने हमें वापस दे दिया है और हम उसका सेवन कर लेते हैं। यदि यह भेंट चाय इत्यादि की है तो हमें उसे शौचालय में नहीं बहा देना चाहिए। यह बिल्कुल सम्मानजनक नहीं है। अपितु, हमें इसका सेवन ही कर लेना चाहिए।

यहाँ एक व्यावहारिक समस्या यह उत्पन्न हो सकती है कि उन सात कटोरों में भरे पानी का क्या किया जाए जो हममें से कई लोग प्रतिदिन अपनी वेदी पर रखते हैं। इतना अधिक पानी हो जाएगा, तो क्या उस पानी को भी पीना पड़ेगा? क्या प्रतिदिन हमें अपने पौधों को यह पानी देना होगा? इतना अधिक पानी प्रतिदिन देने से तो वे सब पौधे डूब ही जाएँगे। तो हम उस पानी को कम-से-कम अपनी हौदी में ही डाल दें, शौचालय में तो नहीं। मैं उन दृष्टांतों के बारे में सोच रहा था जहाँ कुछ देशों में लोग उस पानी को बस खिड़की से बाहर फेंक देते हैं। यह भी ठीक नहीं होगा।

वैसे, जब हम अपनी चाय या भोजन अर्पित करते हैं तो यह अनिवार्य नहीं है कि हम किसी विदेशी भाषा में, जिसे हम समझते ही नहीं, कोई विशिष्ट छंद का पाठ करें। अभी हाल ही में द्ज़ोंगसरखयेंत्से रिन्पोचे बर्लिन में पढ़ा रहे थे, उन्होंने कहा कि यदि तिब्बतियों को, जब-जब भेंट चढ़ाएँ तब-तब, जर्मन भाषा में, जिसे वे समझते ही नहीं, किसी छंद का पाठ करना होता तो वे बिल्कुल नहीं करते। महत्त्वपूर्ण बात है कोई भेंट चढ़ाई जाए, फिर वह चाहे किसी भी प्रकार की हो। हम बस इतना कह सकते हैं, जैसा कि सरकॉंग रिन्पोचे सुझाते थे, "बुद्धजन, कृपया इसका आनंद लें।" हमें बस इतना ही कहना है, और ऐसा भी नहीं है कि हमें इसे ऊँचे स्वर में कहना है। मैं तो प्रायः यों कहता हूँ, "मैं इसे बुद्ध, धर्म, संघ और सभी सत्त्वों को अर्पित करता हूँ। ऐसा हो कि हर कोई इस अद्भुत भोजन का आनंद उठाए।” हमें कोई दिखावा करने की आवश्यकता भी नहीं है, जैसे "ओम् अह् हुम " का भारी आवाज़ में उच्चार करना, फिर वहाँ बैठकर पाँच मिनट तक भोजन को समर्पित ही करते रहना, और मेज़ पर बैठे बाकी लोग हमारे इस क्रियाकलाप के समापन की प्रतीक्षा करते हुए भूख से तड़पे जाएँ। हम इस भेंट को केवल अपने मन में भी कर सकते हैं। किसी को पता चलने की ज़रूरत नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। यदि मेज़ पर बैठे अन्य लोग भी भेंट चढ़ा रहे हों, तो वे सब अपनी-अपनी गति से करते रहें।

हमें अपनी धर्म साधना का कोई दिखावा नहीं करना है, विशेषकर यदि यह दूसरों को अप्रिय लगे, या यदि वे लोग हमारी हँसी उड़ाए। यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना है कि कोई हमारी खिल्ली उड़ाए। जब दूसरे लोग हमारी साधना का उपहास करते हैं तो उस साधना की सारी ऊर्जा निकल जाती है। हमारी धर्म-साधना को वास्तव में गुप्त रखने की आवश्यकता है। केवल तभी यह हमारे लिए पवित्र होगी।

(3) तीसरा दिशानिर्देश है दूसरे लोगों को परोक्ष रूप से बुद्ध, धर्म, और संघ में शरणागत होने के लिए प्रोत्साहित करते हुए उन तीनों की करुणा के प्रति सचेत रहना। इसका यह अर्थ नहीं कि हम धर्म-प्रचारक बन जाएँ और दूसरों को बौद्ध-धर्म में परिवर्तित करके उन्हें अधोगति से बचाने का प्रयास करें। निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। परन्तु यदि सामने वाले ग्रहणशील हैं, इस सिद्धांत में रूचि रखते हैं, तो हम उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं। ऐसे में हमारे अपने अनुभव के आधार पर बोलना ही सबसे अच्छा प्रोत्साहन होगा। हम यह समझा सकते हैं कि बौद्ध विधियाँ हमारे लिए लाभप्रद सिद्ध हुई हैं, परन्तु हम यह दावे के साथ नहीं कह सकते कि वे दूसरों के लिए भी वैसे ही लाभप्रद सिद्ध होंगी। हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि हमारे लिए सहायक हैं। इस तरह हम परोक्ष रूप से दूसरों को प्रोत्साहित कर सकते हैं कि वे भी इन विधियों को स्वयं परख लें।

(4) चौथा दिशानिर्देश है शरणागति के लाभों को याद करना, फिर औपचारिक रूप से प्रत्येक दिन तीन बार और प्रत्येक रात तीन बार इनकी पुनःपुष्टि करना। हम प्रायः सुबह उठते ही और रात को सोने से ठीक पहले ऐसा करते हैं। ऐसा नहीं है कि हम बिना सोचे-समझे ही "मैं बुद्ध, धर्म, और संघ के शरण में जा रहा हूँ," को दोहराते हैं, अपितु हम स्पष्ट रूप से अपनेआप को इस शरणागति का स्मरण करा रहे हैं। प्रायः हम इसके साथ तीन बार साष्टांग प्रणाम भी करते हैं, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है।

(5) पाँचवाँ दिशानिर्देश है कि चाहे कुछ भी हो जाए, हम मार्गदर्शन के लिए अपने शरण्य पर ही निर्भर रहें। संकट की घड़ी में हम केवल इस पर ही निर्भर करें। यह केवल इतना नहीं कि हम प्रार्थना करें, "हे बुद्ध, मुझे बचाओ," परन्तु हम अपनेआप से यह पूछें, "इस स्थिति को संभालने के लिए बुद्ध का परामर्श क्या होगा?" फिर हम इसे कार्यान्वित करने का प्रयास करते हैं।

मित्रगण हमें सहानुभूति और सहायता प्रदान कर सकते हैं, और वे कंप्यूटर या कार जैसी यांत्रिक चीज़ों के द्वारा सहायता कर सकते हैं। परन्तु जीवन में व्यक्तिगत समस्याओं के लिए मित्रों की सहायता सीमित होती है। उनकी अपनी समस्याएँ होती हैं। दुर्भाग्यवश मित्र अनिवार्य रूप से हमें निराश या हतोत्साहित ही करते हैं। हम अयथार्थवादी आशाएँ बाँध बैठते हैं कि वे हमारे दुःखों या चिंताओं को कम करने में हमारी सहायता करेंगे, और हम यह भूल जाते हैं कि उनके जीवन में केवल हम ही एक नहीं हैं। ऐसा कैसे होगा कि उनके लिए हम ही सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हों जिसपर वे अपना सारा समय और शक्ति न्योछावर कर दें? यह बहुत ही आत्मकेंद्रित होना हुआ, है न? अब इस अपेक्षा के साथ तो अनिवार्य रूप से वे हमें निराश ही करेंगे। उनके पास करने के लिए अन्य काम हैं, अन्य चिंताएँ हैं, और उनके पास अन्य समस्याएँ भी हैं।

हो सकता है कि हमारे शिक्षक व्यस्त हों और उनके पास समय न हो। हो सकता है वे किसी और देश में हों, या कोई और कारण हो जिससे वे हमसे मिल नहीं सकते, परन्तु शिक्षकों की प्रेरणा हमेशा उपलब्ध रहती है। शिक्षाएँ स्वयं, जिन्हें हम अपने जीवन में उतार सकते हैं - हमारे लिए सदा उपलब्ध रहती हैं। यदि हम वास्तव में उस प्रेरणा के प्रति ग्रहणशील हैं और उन विधियों को व्यवहार में लाने का प्रयास करते हैं तो वे शिक्षाएँ हमें कभी निराश नहीं करेंगी।

(6) इन दिशानिर्देशों की अंतिम प्रतिबद्धता है जीवन में अपनी इस शरणागति को कभी नहीं त्यागना, चाहे कुछ भी हो जाए। उतार-चढ़ाव इस संसार का, इस जीवन की प्रकृति है। हम तिब्बत के कुछ महान बौद्ध आचार्यों के अनुभवों को ही देख सकते हैं। वे अपने सम्पूर्ण जीवन इतने प्रचंड साधक रहे और फिर बीस वर्ष का कारावास झेलने के लिए चीनी नज़रबंदी-शिविर में डाल दिए गए। ऐसा भी हो सकता था कि वे धर्म-साधना को निरर्थक मानकर हार मान जाते, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। एक और उदाहरण उस व्यक्ति का है जिसने अपने जीवन में इतनी अधिक साधना की और फिर भयावह पीड़ादायक कैंसर का शिकार हो गया। ये लोग कभी अपनी धर्म-साधना को नहीं छोड़ते।

किसी तिब्बती गुरु ने एक सारगर्भित बात कही कि हम संसार से क्या अपेक्षा करते हैं? क्या हम यह अपेक्षा करते हैं कि सब कुछ ठीक हो जाएगा या परिस्थितियाँ केवल बेहतर ही होंगी? संसार की प्रकृति है कि उसमें उतार-चढ़ाव आते रहेंगे। जब उतार आएगा तो हमें बहुत अप्रिय अनुभव होंगे, भले ही हमने इससे पहले कई सकारात्मक काम ही क्यों न किए हों। हम यह प्रयास करते हैं कि इससे हताश न हो जाएँ और, चाहे कुछ भी हो जाए, इसी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ते रहें।

कभी-कभी तिब्बती पशुओं की दुनिया के उदाहरणों का उपयोग करते हैं। सरकॉंग रिन्पोचे हमेशा सर्कस या मछलीघर जाना पसंद करते थे जहाँ प्रशिक्षित सील मछलियाँ या डॉल्फ़िन (सूँस) होती हैं। जब हम अपनी धर्म-साधना करते हैं और कुछ सकारात्मक कर लेते हैं, तो क्या हम यह अपेक्षा करते हैं कि हम एक प्रशिक्षित सील मछली या डॉल्फ़िन की तरह हैं जिनकी ओर बुद्ध, खुश होकर, एक मछली डाल देंगे? क्या हम यह सोचते हैं कि जब भी हम सकारात्मक व्यवहार करते हैं तो हमें उसके लिए कोई इनाम मिलेगा? स्पष्टतः प्रशिक्षणों का अभ्यास करने की विधि यह नहीं है। 

यह हमें सोचने पर बाध्य करती है। क्या हम अपनी धर्म-साधना को, एक अर्थ में, किसी मायावी करतब की तरह कर रहे हैं? एक प्रशिक्षित पशु की तरह, क्या हम सकारात्मक कर्म केवल पारितोषिक के लिए कर रहे हैं? या फिर हम इसे अपने जीवन को सुधारने, और अंततः दूसरों की सर्वश्रेष्ठ सहायता करने के लिए कर रहे हैं? परिस्थितियाँ चाहे हमारे अनुरूप हों या न हों, हमारा यह दृढ़ निश्चय है कि अंततः सब कुछ बेहतर ही होगा। इसलिए हम कभी हार नहीं मानते।

समापन शब्द

यह थी बुद्ध, धर्म, और संघ की शरणागति के लिए अपनेआप को प्रशिक्षित करने के असंग द्वारा निर्दिष्ट एवं उपदेशों से उद्धृत विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों पर हमारी संक्षिप्त प्रस्तुति। यह हमें शरणागति के व्यावहारिक प्रयोग के साथ-साथ वास्तव में अपने जीवन की दिनचर्या तथा इस शरणागति को अपनाने से सम्बंधित दिशानिर्देशों का एक स्पष्ट संकेत देती है। ऐसा नहीं है कि हम केवल एक अच्छा मनुष्य होने के लिए ही शरणागति को स्वीकार करते हैं, अपितु इसमें शिक्षाओं का अध्ययन करना, उन्हें सीखना, हमारे आध्यात्मिक पथ तथा उसपर चलने वाले सभी लोगों के प्रति सम्मान दिखाना, एवं अन्य सभी विशिष्ट बिंदु समाविष्ट हैं। यह हमारे जीवन को सार्थक बनाने का एक पूरा कार्यक्रम है।

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