(11) अप्रशिक्षित चित्त के लिए शून्यता की शिक्षा
हम बोधिसत्त्व संवरों के विषय में चर्चा कर रहे थे। हमने अट्ठारह में से दस संवरों के बारे में बात की और अब ग्यारहवें संवर पर हैं। इस संवर के द्वारा हमें जिस चीज़ से बचना है वह है उन लोगों को शून्यता की शिक्षा देना जो अप्रशिक्षित हैं। यह विशेष रूप से बोधिचित्त प्रेरणा वाले किसी ऐसे व्यक्ति को शून्यता के गहनतम स्तर की शिक्षा देने की बात कर रहा है जो इस शिक्षा को समझने के लिए तैयार नहीं है, जो इससे भ्रमित और भयभीत हो जाएगा, और परिणामस्वरूप बोधिसत्त्व मार्ग का बहिष्कार कर देगा और केवल अपने व्यक्तिगत मोक्ष के लिए ही कार्य करेगा। यह सुस्पष्ट है। इसकी व्याख्या में यह कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति शून्यता को अस्तित्वहीनता मान सकता है। फिर वह आगे इस प्रकार सोचेगा: जब कोई विद्यमान ही नहीं है तो किसी और को लाभ पहुँचाने का प्रयास ही क्यों किया जाए? ऐसे में वह केवल अपने मोक्ष के लिए ही कार्य करता रहेगा।
हम इस व्याख्या को न केवल माध्यमक के, अपितु चित्तमात्र के आधार पर भी समझ सकते हैं। क्योंकि हो सकता है चित्तमात्र से कुछ लोग - उदाहरण के लिए कोई जो इससे भ्रमित हो जाए - शून्यता पर चित्तमात्र की शिक्षाओं को लेकर भ्रमित हो जाएँ और यह सोच बैठें कि सब कुछ अपने मन में है, वास्तविकता कुछ नहीं होती सब केवल अपने मन की, अपने मस्तिष्क की, उपज है। लोगों का अस्तित्व मेरे मन की उपज है, ऐसा कोई नहीं होता, तो मैं क्यों किसी की सहायता करने का कष्ट उठाऊँ? तो निश्चित रूप से माध्यमक के तहत वह यह सोच सकता है कि किसी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। परन्तु इस कृत्य में किसी ऐसे व्यक्ति को भी शून्यता की शिक्षा दी जा सकती है जो इसका ग़लत अर्थ लगाएगा जिस कारण वह धर्म का पूर्णतया परित्याग कर देगा। उदाहरण के लिए वह ऐसे भी सोच सकता है कि चूँकि बौद्ध धर्म यह सिखाता है कि कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है वह धर्म पूरी तरह से निरर्थक है। ऐसे में शिक्षाओं के लिए निश्चित पृष्ठभूमि प्रस्तुत की जानी चाहिए, लोगों को इस ओर धीरे-धीरे ले आना चाहिए, और यदि उन्हें शून्यता के बारे में सिखाना ही है तो उसे बहुत ही सरल शब्दों में सिखाया जाए जिससे कि वे भ्रमित न हों या उनके मन में ग़लत धारणाएँ न उत्पन्न हों। यह अत्यंत कठिन है क्योंकि जब तक हमारे पास परासंवेदी शक्तियाँ नहीं होंगी, तब तक यह जानना बहुत मुश्किल होगा कि जो हम समझाते हैं उसे कोई समझ पाएगा या नहीं, या फिर वह समझने के लिए तैयार भी है या नहीं।
परन्तु यदि हम लिखित ग्रंथों को देखें तो महान भारतीय आचार्यों (नागार्जुन, चंद्रकीर्ति, इत्यादि) ने शून्यता पर विभिन्न ग्रंथ लिखे हैं और वे सब निश्चित रूप से महायान पथ का ही अनुसरण कर रहे थे; और परम पावन दलाई लामा सदा बड़ी संख्या में आए श्रोताओं को शून्यता के बारे में सिखाते रहते हैं। तो प्रश्न यह है कि क्या वे सब इस बोधिसत्त्व संवर का उल्लंघन कर रहे हैं। क्या वे सब अप्रशिक्षित लोगों को शून्यता की शिक्षा दे रहे हैं? यह एक जटिल प्रश्न है, परन्तु एक बात जो हमें समझनी चाहिए वह है कि उनके सिखाने का तरीका इतना जटिल और कठिन है कि जो लोग इसे समझने के लिए पूर्ण रूप से योग्य नहीं हैं, वे कुछ भी नहीं समझ पाएँगे। तो स्पष्टतः बात यह नहीं है कि वे इसे ग़लत समझेंगे, वे बस इतना ही समझेंगे कि "मुझे यह समझ में नहीं आ रहा।" यदि हम किसी को व्यक्तिगत रूप से पढ़ा रहे हैं तो निश्चित रूप से हम इस बात को सदा परखते रहेंगे कि उसने कितना ग्रहण किया। परन्तु जब हम बड़े-बड़े समूहों में प्रवचन दे रहे होते हैं तो यह और भी अधिक कठिन हो जाता है। पर जिस तरह इसपर प्रमुख व्याख्या दी गई है, उससे आप इस बात को समझ सकते हैं कि हम मूलतः उस व्यक्ति की बात कर रहे हैं जो पहले से ही बोधिचित्त समुत्थान (प्रेरणा) से युक्त है, और यह भी कि शून्यता की शिक्षा उस व्यक्ति को उसे त्यागने के लिए प्रेरित करेगी।
(12) दूसरों को पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति से विमुख करना
बारहवाँ संवर है दूसरों को पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति से विमुख करना। अब यहाँ भी देखिए यह संवर उन लोगों को लक्षित करता है जिन्होंने पहले से ही अपने बोधिचित्त समुत्थान (प्रेरणा) को विकसित कर लिया है और जो ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर पहले से ही कार्यरत हैं; और हम हैं कि उनसे यह कह रहे हैं कि वे सदा उदारता और क्षान्ति युक्त होकर कार्य करने में अक्षम हैं, आदि। यहाँ हम उन्हें निरुत्साहित करते हैं और कहते हैं कि तुम कभी भी बुद्धजन नहीं बन सकते, यह अत्यधिक कठिन है, और तुम्हारे लिए बेहतर यही होगा कि केवल अपनी मुक्ति के लिए ही कार्य करो। पर बात यह है कि जब तक वे ज्ञानोदय प्राप्ति से अपना मुख नहीं मोड़ लेते तब तक यह कृत्य पूर्ण नहीं होता। बोधिसत्त्व होने के नाते हम सबको ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर अग्रसर होने में सहायता करने का प्रयास करते हैं, और इसलिए हमें किसी को भी उस लक्ष्य से विमुख नहीं करना चाहिए।
(13) दूसरों को उनके प्रतिमोक्ष संवरों से विमुख करना
फिर तेरहवाँ संवर दूसरों को उनके प्रतिमोक्ष संवरों से विमुख करने के विषय से सम्बद्ध है। यह वैयक्तिक मोक्ष के लाभार्थ ग्रहण किए गए प्रातिमोक्ष संवर के किसी भी स्तर के लिए लागू है, फिर चाहे वह गृहस्थ हो अथवा भिक्षु या भिक्षुणी। यह संवर उस व्यक्ति को लक्षित करता है जो अपने सम्बद्ध प्रतिमोक्ष संवरों का पालन करता है और हम उससे यह कह रहे हैं कि बोधिसत्त्व होने के नाते ऐसा करना व्यर्थ है, और क्योंकि बोधिसत्त्वों के लिए सभी कृत्य शुद्ध हैं, सब कुछ चलेगा। इस पतन के पूर्ण होने के लिए उस व्यक्ति को अपने संवर पूर्ण रूप से त्यागने होंगे। स्पष्टतः मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचने में सक्षम होने की आधारशिला है प्रतिमोक्ष संवर के किसी निश्चित स्तर को बनाए रखना। इसका एक समरूप अनुपूर्वक संवर है जिसे "श्रावक यान या हीनयान का त्याग" कहा जाता है। यहाँ हम यह सोचते हैं या किसी बोधिसत्त्व से कहते हैं कि हीनयान की शिक्षाओं के श्रवण की कोई आवश्यकता नहीं है, और यहाँ विशेष रूप से हीनयान के प्रतिमोक्ष संवर की शिक्षाओं का उल्लेख है, अथवा हम उसे यह कहते हैं कि उसका पालन करने या उसमें प्रशिक्षित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस अनुपूर्वक संवर के उल्लंघन के लिए यह पर्याप्त है; इसमें ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि उस व्यक्ति को अपने संवरों को पूर्ण रूप से त्यागना होगा। संवरों के परिपूर्ण त्याग का मापदंड केवल मूल संवरों के लिए ही वैध है।
कुछ लोगों का यह मानना है कि बोधिसत्त्व संवर पर्याप्त हैं, या उन्हें यह भी लग सकता है कि तांत्रिक संवर पर्याप्त हैं - आपको बोधिसत्त्व संवरों या प्रतिमोक्ष संवरों की आवश्यकता नहीं है। त्सोंगखपा इसके प्रबल विरोधी हैं। इस स्थिति के समर्थन में त्सोंगखपा विभिन्न सूत्र आदि का उद्धरण देते थे कि किसी विशेष स्तर तक पहुँचे हुए साधक को मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रातिमोक्ष संवर एक अनिवार्य घटक है, और साथ ही वे इस ओर भी ध्यान दिलाते थे कि बुद्ध ने इस बात पर अधिक बल दिया है। अतः, एक सामान्य स्तर पर देखा जाए तो कई प्रकार के, कम-से-कम विभिन्न प्रकार के, घोर अकुशल व्यवहारों, जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, इत्यादि, से बचना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
(14) श्रावक यान का तिरस्कार करना
फिर अगला, चौदहवाँ, संवर है श्रावक यान का तिरस्कार करना। श्रावक यान हीनयान का दूसरा नाम है। तो छठे मूल अधःपतन बोधिसत्त्व संवर में हमने इस बात का खंडन किया कि हीनयान ग्रन्थ प्रामाणिक बौद्ध वाणी है। यहाँ हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे वस्तुतः प्रामाणिक बौद्ध वाणी हैं परन्तु हम उनमें निहित शिक्षाओं के अभ्यास की प्रभविष्णुता (प्रभावकारिता) का खंडन करते हैं। हम इस बात को मानते हैं कि उन ग्रंथों में दिए गए अनुदेशों के द्वारा अपने क्लेशों से मुक्ति प्राप्त करना असंभव है। पर यह कार्य सरलता से हो सकता है। आजकल कई अलग-अलग स्थानों पर विपश्यना पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं जो मूल रूप से थेरवाद परंपरा से उत्पन्न हुए हैं, और महायान साधक होने के नाते हम इन्हें निष्प्रभावी घोषित कर सकते हैं, उनका उपहास कर सकते हैं, और यह मान सकते हैं कि उनकी साधना करना हास्यास्पद है। वे आपको अपने क्लेशों से मुक्ति पाने में सहायता नहीं कर सकते - तो ऐसे में बैठकर अपनी सांसों को गिनने से क्या होगा? पर मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ समस्या यह है कि हम प्रायः इन शिक्षाओं के बारे में अधिक गहराई से चिंतन नहीं करते। हम उन्हें केवल सतही स्तर पर परखते हैं और उन्हें अस्वीकार कर देते हैं, और हम न उस पूरे सन्दर्भ को देखते हैं जिसमें उनकी साधना की जाती है, और न ही ध्यान-साधना की पूरी श्रृंखला को जिसकी ओर वे हमें ले जाते हैं। इसलिए अन्य साधनाओं, विशेष रूप से हीनयान में सिखाए जाने वाली साधनाओं, के प्रति नकारात्मक मनोदृष्टि रखने को लेकर हमें अत्यंत सचेत रहना होगा। महायान हीनयान की शिक्षाओं पर आधारित है। परन्तु इसके अतिरिक्त आगे कुछ और भी जोड़ा गया है। यही कारण है कि हीनयान की शिक्षाओं आदि के प्रति सम्मान दिखाने पर बल दिया जाता है, परन्तु अनुपूर्वक संवरों के विषय में ऐसा नहीं है कि हमें हीनयान पद्धतियों का अनुकरण करना ही होगा क्योंकि वस्तुतः उन्हीं विषयों के लिए महायान पद्धतियाँ भी उपलब्ध हैं।
अब हीनयान साधकों के बीच सात रातों से अधिक समय न बिताने की निषेधाज्ञा को परखने के लिए हमें इसे सही ढंग से समझना होगा। हम उन लोगों के बारे में बात कर रहे हैं जो केवल अपनी ज्ञानोदय प्राप्ति की साधना में रत हैं, और दूसरों के लिए काम करने की परवाह नहीं करते हैं, हमारी महायान साधनाओं या तंत्र साधनाओं का उपहास करते हैं, हमें हतोत्साहित करने का प्रयास करते हैं और हमसे यह कहते हैं कि हमारी साधना अत्यंत मूर्खतापूर्ण है: "यह बौद्ध धर्म नहीं है।" यदि हम उनके साथ अधिक समय बिताते हैं तो हो सकता है कि वे हमें अपनी साधना ही त्यागने के लिए बाध्य कर दें। पर निस्संदेह बहुत-से थेरवाद और अन्य प्रकार के - ख़ैर वर्तमान काल में थेरवाद ही एकमात्र हीनयान परंपरा है जो प्रचलित है। किन्तु स्मरण रहे कि थेरवाद के ऐसे कई साधक हैं जो महायान प्रथाओं के प्रति ऐसी नकारात्मक मनोदृष्टि नहीं रखते। इसलिए ये दिशानिर्देश ऐसे थेरवाद साधकों के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
तो यहाँ एक सामान्य विषय वस्तु यह स्पष्ट हो गई है कि बोधिसत्त्व या संभावित बोधिसत्त्व के रूप में यदि हम अपनी तथा दूसरों की ज्ञानोदय प्राप्ति की दिशा में कार्यरत हैं तो हमें ऐसी किसी भी स्थिति में नहीं होना पड़ना कि हम स्वयं अपने उद्देश्य से विमुख हो जाएँ, या दूसरों का इस लक्ष्य से विमुख होने का कारण बन जाएँ - जैसे या तो उन्हें सीधे-सीधे यह कहकर कि वे दूर चले जाएँ, या फिर उन्हें कुछ ऐसी शिक्षा देकर जिससे वे ज्ञानोदय प्राप्ति से स्वयं ही अपना मुख मोड़ लें।
(15) शून्यता के मिथ्या बोध का दावा करना
पंद्रहवाँ संवर है शून्यता के मिथ्या बोध का दावा करना। यह उस स्थिति से सम्बन्ध रखता है जहाँ हमें शून्यता का पूर्ण बोध नहीं हुआ है, तथापि हम महान गुरुओं से ईर्ष्या करने के कारण इस मिथ्या बोध का ढोंग करते हैं। महान गुरुगण तो इसकी शिक्षा देते ही हैं और संभवतः सही ढंग से देते हैं पर हम इस बात को लेकर ईर्ष्यालु हो जाते हैं। इस ईर्ष्या के कारण हमें शून्यता का बोध नहीं होने पर भी हम महान गुरुओं की नकल करते हैं और बोध होने का ढोंग करते हैं। पर बात यह है कि जिन लोगों को हम यह झाँसा देते हैं कि हमें शून्यता की समझ है, उन्हें हमारी सिखाई बात समझ में आनी चाहिए, फिर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे हमारे झाँसे में आएँ या हमारे झूठ को पकड़ लें। अर्थात् ऐसा हो सकता है कि वे सोचें कि ओह, यह कितना महान है कि यह वास्तव में इसे समझता है, या फिर ऐसा कि यह व्यक्ति तो जड़ मूर्ख है और हमें चपरा रहा है। यहाँ इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। यदि परिणाम यह हुआ कि वे हमारी व्याख्या को समझ न पाएँ या सुन न पाएँ, तो हमारा कार्य अधूरा ही रह जाएगा।
इस प्रकार यह संवर विशेष रूप से शून्यता के अपूर्ण ज्ञान को संपूर्ण ज्ञान के रूप में जताने के बारे में है। यह स्पष्ट है कि हमें बोधिचित्त तथा धर्म के अन्य बिंदुओं के संबंध में भी इस दोष से बचना चाहिए। यह ढोंग न करें कि हमें वास्तव में इसका पूर्ण बोध है और इस दम्भ से न सिखाएँ जैसेकि हमें पूर्ण बोध हो, क्योंकि बात यह है कि हम जहाँ लोगों को ज्ञानोदय प्राप्ति में सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं वहीं इस ढोंग के कारण उन्हें अधूरी या मिथ्या सूचना दे बैठते हैं। पर यह भी सत्य है कि पूर्ण ज्ञान के अभाव में भी शून्यता की शिक्षा प्रदान करना कोई अपराध नहीं है बशर्ते हम अपने इस अधूरे ज्ञान को स्वीकार करके सबको यह सूचित कर दें। "मैं इसे पूरी तरह से समझता तो नहीं हूँ - पर ज्ञान के मेरे वर्तमान स्तर से मुझे लगता है कि इसका यही अर्थ है।" अर्थात् यह पूरी तरह से स्वीकार्य है बशर्ते हम दिखावा न करें।
यहाँ तक कि परम पावन दलाई लामा भी यही कहेंगे कि, "खैर, मुझे इसका पूर्ण बोध नहीं है, वगैरह, परन्तु इस समय इस विषय के बारे में मुझे यही बोध है।" परम पावन को शून्यता पर सबसे कठिन ग्रंथों को पढ़ाते हुए देखने की अनुभूति विलक्षण ही है। कभी-कभी वे किसी विशेष छंद तक पहुँचकर कह देते हैं, "मुझे तो इसका बोध नहीं हुआ।" फिर वे कहते हैं कि यह भाष्य ऐसा कहता है और वह भाष्य वैसा कहता है, परन्तु यह कुछ ठीक नहीं बैठता, और फिर वे श्रोताओं में विराजे ज्ञानी गेशे अथवा खेन्पो से उस विषय पर उनके विचार जानने की इच्छा व्यक्त करते हैं (खेन्पो एक उपाधि है जो ग़ैर-गेलुग्पा प्रणालियों में गेशे के समकक्ष होती है)। जो व्यक्ति कुछ कहने की हिम्मत रखता है वह कुछ तो कह ही देता है। कभी-कभी परम पावन उन्हें व्यक्तिगत रूप से उनके नाम से पुकारते हैं और तब उस व्यक्ति को कुछ कहना ही पड़ता है, भले ही श्रोताओं में बीस हज़ार लोग ही क्यों न बैठे हों, और फिर परम पावन प्रायः उस व्यक्ति के साथ बहस करना शुरू कर देते हैं और कहते हैं, "वह सब तो ठीक है पर इन-इन कारणों से उसका यह अर्थ तो नहीं हो सकता।" फिर वे किसी और से पूछते हैं, क्योंकि प्रायः ऐसा होता है कि मठों के विभिन्न विभागों में प्रयोग किए जाने वाले विभिन्न ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याएँ होती हैं।
मुझे याद है कि परम पावन का बुद्ध-धातु (बुद्धगोत्र) के बारे में कोई प्रवचन था जिसमें किस प्रकार के बुद्धगोत्र में क्या-क्या समाहित है तथा कुछ विशेष शब्दावली का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, इन विषयों पर भी चर्चा हुई थी; परन्तु यह बहुत ही अस्पष्ट रही। वहाँ के अति प्रबुद्ध लामाओं के समक्ष हुई इस बृहत् चर्चा के बाद भी वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाए थे। तथापि इस उदाहरण में जो बात विचारणीय है वह यह है कि स्पष्टतः परम पावन कभी भी उस बात को समझने का दिखावा नहीं करते जिसे वे वास्तव में नहीं समझते, और यह आपको उतना ही अधिक विश्वास दिलाता है कि अन्य सारी बातों को ये वस्तुतः भली-भाँति समझते हैं। एक बहुत ही आश्चर्यजनक बात यह है कि जब वे किसी ग्रन्थ पर उपदेश देते हैं तो वे उसे अत्यंत तीव्र गति से पढ़ते हैं - और समझते भी हैं - और जहाँ उन्हें कोई बात समझ नहीं आती वहाँ वे सहसा रुक जाते हैं और अपने पास बैठे लोगों से उसपर जिज्ञासा करते हैं। और उतना ही अविश्वसनीय यह भी है कि वे लोग भी उस ग्रन्थ को परम पावन के साथ-साथ उसी गति से पढ़ते जाते हैं, और परम पावन की इस तीव्र गति के बावजूद वे लोग उनके प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम होते हैं। तो भले ही परम पावन अत्यधिक तीव्र गति से पढ़ रहे हों, यह स्पष्ट है कि वे उसे साथ-साथ समझ भी रहे हैं। यह बहुत ही शानदार है, मानना पड़ेगा।
(16) त्रिरत्नों से चुराई गई वस्तु को स्वीकार करना
सोलहवाँ संवर है त्रिरत्नों से चुराई गई वस्तु को स्वीकार करना। बुद्ध, धर्म, और संघ को अर्पित की गई वस्तु को न स्वयं चुराने और न ही किसी और से चोरी करवाने के उस मूल संवर को संभवतः आप भूले न होंगे - पर यहाँ इस संवर का संकेत है कि उस वस्तु को हम उपहार या भेंट के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, या अपने वेतन या पुरस्कार के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, और इसे स्वयं अपनेआप से या किसी अन्य के माध्यम से कर रहे हैं। यहाँ यह भी नहीं है कि हम जो स्वीकार कर रहे हैं वह मठीय समुदाय के केवल चार या अधिक सदस्यों की ही सम्पत्ति हो, जैसा कि एक अन्य मूल संवर पर लागू होता है, बल्कि यहाँ हो सकता है कि यह केवल एक, दो, या तीन भिक्षुओं या भिक्षुणियों की संपत्ति हो।
अब बात यह है कि मुझे इस बात का कहीं भी कोई स्पष्टीकरण नहीं मिला कि हमें इस बात की जानकारी होना अनिवार्य है कि कहीं यह वस्तु त्रिरत्नों से चुराई तो नहीं गई, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि हमें इस बात की जानकारी होना अनिवार्य है। ज़ाहिर है कि यदि हमें बाद में इस बात का पता लग जाता है तो हम निश्चित रूप से इसे वापस करने का प्रयास करेंगे। ऐसे में यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि त्रिरत्नों से चोरी न करने की इस बात पर इतना बल क्यों दिया जाता है; पर यदि हम इस बात पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धन तथा अन्य वस्तु जो धर्म को आगे बढ़ाने के लिए दी जाती है, जैसे ग्रंथों को मुद्रित करना, उनका अनुवाद करना या मठ की मूर्तियाँ बनाना, भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए भोजन-व्यवस्था करना – इसका उद्देश्य है दूसरों के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु परिस्थितियाँ उपलब्ध कराना। ऐसे में - बोधिसत्त्व संवरों की साधना करने वाले प्रवृत्त बोधिचित्त के रूप में - हम ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहेंगे जिसके कारण दूसरों को ज्ञानोदय तक पहुँचाने में सक्षम अवसर छिन जाएँ।
(17) पक्षपातपूर्ण नीतियाँ स्थापित करना
सत्रहवाँ संवर है पक्षपातपूर्ण नीतियों को स्थापित करना। इसका संकेत पूर्वग्रह या पक्षपात-युक्त होकर कार्य करने की ओर है। ऐसी स्थिति में कुछ ऐसे गंभीर साधक होते हैं जिन्हें हम पसंद नहीं करते, या उनसे क्रोधित हैं, और हम उनसे कुछ छीन लेते हैं, या उनके विरुद्ध उनसे कमतर लोगों के पक्ष में व्यवहार करते हैं क्योंकि हम उन कमतर लोगों के प्रति आसक्त हैं।
एक उदाहरण यह हो सकता है कि हम अपने बौद्ध केंद्र के साधकों से भयभीत होते हों और धर्म केंद्र को मुख्यतः सामाजिक समारोहों के स्थान के रूप में देखते हैं; हम अपने ऐसे मित्रों के साथ समय बिताने के लिए जाते हैं जिनकी रुचियाँ हमारी रुचियों से मेल खाती हों। यदि कोई व्यक्ति केंद्र को दान देता है, तो उस दान से साधना एकांतवास की सुविधा बनाने के स्थान पर हम उससे चाय-कॉफ़ी के साथ सुस्ताने के लिए कक्ष बना लेते हैं ताकि शिक्षाओं के बाद लोग वहाँ चैन से बैठ सकें और एक दूसरे से घुल-मिल सकें। पक्षपातपूर्ण नीति स्थापित करने का यही तात्पर्य है। दूसरे शब्दों में, हमें निश्चित रूप से गंभीर छात्रों एवं साधकों की सेवा करना और उनका ध्यान रखना चाहिए और अपने प्रयासों को उनकी सहायता हेतु लगाना चाहिए, न कि उन लोगों के लिए काम करना चाहिए जो पूर्णतः निष्ठाहीन हैं: जो केवल सामाजिक मेलजोल बढ़ाने के लिए आते हैं। ऐसे लोग धर्म की ओर इसलिए उन्मुख होते हैं क्योंकि धर्म उनके लिए मनभावन है, न कि इसलिए कि वे लोग मोक्ष और ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु कड़ी मेहनत करके आगे बढ़ना चाहते हैं।
पर ध्यान दें कि यहाँ समुत्थान (प्रेरणा) की बात हो रही है, कि हमें पसंद नहीं है, या हमें ख़तरा महसूस होता है, या हम इन अधिक गंभीर छात्रों से नाराज़ हैं, क्योंकि हो सकता है कि हम इस बात को लेकर असहज अनुभव करते हों कि वे अपने अध्ययन एवं साधना में इतना अधिक प्रयास कर रहे हैं और हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। हम अगंभीर छात्रों से अधिक जुड़ जाते हैं, वे हमारे मित्र बन जाते हैं, उनके साथ समय बिताना, चाय-कॉफ़ी करना अच्छा लगता है, इसलिए हम अपना सारा प्रयास उन्हीं अगंभीर छात्रों पर लगा देते हैं जिससे अधिक गंभीर छात्रों का अहित होता है। ठीक? यदि हम इसपर विचार करें तो मठों में भी कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे: जैसे दान के रूप में प्राप्त धन को शिक्षा के विकास के बजाय मठ के आगंतुकों के लिए अतिथि गृह के निर्माण में लगाना।
(18) बोधिचित्त का त्याग करना
फिर अंतिम, अट्ठारहवाँ संवर है बोधिचित्त का त्याग। और इसका अर्थ है परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की इच्छा को छोड़ देना। आपको स्मरण होगा कि बोधिचित्त के दो स्तर होते हैं: प्रवृत्त एवं व्यवहृत बोधिचित्त। अभिलाषित या प्रवृत्त स्तर में व्यक्ति परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की केवल इच्छा रखता है; व्यवहृत स्तर में वह बोधिचित्त संवरों को ग्रहण कर वस्तुतः गंभीरता से साधना करता है। यह संवर इनमें से पहला, प्रवृत्त, बोधिचित्त स्तर को त्यागने से सम्बन्धित है, क्योंकि यदि हम परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की इच्छा को छोड़ देते हैं तो निश्चित रूप से दूसरे, यानी संवरों को ग्रहण करने आदि के स्तर, का भी स्वतः त्याग हो ही जाता है।
तो यह थी बोधिसत्त्व संवरों की सूची जिनमें वे सभी कृत्य हैं जिनका हमें त्याग करना होगा। यहाँ कुछ लोग आपत्ति सकते हैं कि, "ओह, ये तो इतने सारे नियम हैं, इतने सारे विधि-निषेध हैं, यह तो कुछ ज़्यादा ही हो गया।" पर इसका एक उत्तम उदाहरण है गाड़ी चलाना जहाँ हमें बहुत सारी बातों का एक साथ पालन करना होता है। गाड़ी चलाने के लिए हमें कई नियमों का पालन करना पड़ता है; और वास्तव में गाड़ी चलाना भी अत्यंत जटिल कार्य है। साथ ही अनेक देशों में आपको चालक लाइसेंस प्राप्त करने से पहले सड़क के नियमों का अध्ययन करना पड़ता है, फिर परीक्षा में उत्तीर्ण भी होना पड़ता है; यद्यपि यह बात भी सही है कि कुछ देशों में अधिकारियों को रिश्वत देकर यह लाइसेंस प्राप्त किया जा सकता है। हम यहाँ किसी का नाम नहीं लेंगे। परन्तु बात यह है कि एक बार उन नियमों को सीख लेने के बाद हमें वे याद रह जाते हैं, एवं संभवत: गाड़ी चलाते हुए हम अपने व्यवहार को नियंत्रण में रख भी सकते हैं, जैसे लाल बत्ती पर रुकना, सही लेन में मुड़ना, इत्यादि। अब ऐसे कुछ लोग तो अवश्य होंगे ही जो ऐसा नहीं करते हैं।
यहाँ मास्को में भारी ट्रैफ़िक जैम को लेकर कुछ ऐसी चीज़ दिखती है जिससे मुझे बहुत हँसी आई। यह स्थिति कुछ ऐसी ही है जो ट्रैफ़िक जैम के दौरान भारत में दिखती है, कि आपकी लेन में यातायात पूरी तरह रुका हुआ होता है पर दो-एक गाड़ियाँ अपनी लेन से निकलकर उलटी दिशा में जाने वाले यातायात की लेन में चली जाती हैं क्योंकि वहाँ यातायात कम है। परन्तु अधिकांश देशों में अधिकांश लोग सड़क के नियमों का पालन करते हैं। मैं प्रायः मेक्सिको जाता ही रहता हूँ जहाँ एक कौतुक-भरी कहावत है। वे कहते हैं कि लाल बत्ती केवल एक सुझाव है।
पर इन सारी बातों का यही निचोड़ है कि झींकने वाली कोई बात ही नहीं है कि इतने सारे संवर हैं, आदि। वास्तव में ये सब तो अत्यंत सहायक होते हैं। गेलुग परंपरा में एक षड्सत्र योग होता है जहाँ तंत्र के सर्वोच्च स्तर के लिए अभिषेक प्राप्त करने पर पाने वाली साधना प्रतिश्रुतियों में एक है इन संवरों का दिन में छः बार पाठ करना, ताकि वे हमें याद हो जाएँ - किन्तु यदि आप इन संवरों को अति तीव्र गति से पढ़ते हैं तो वह पाठ केवल निरर्थक शब्द प्रवाह बनकर रह जाता है। पर जैसे भी हो, यदि हम इन्हें कंठस्थ नहीं कर लेते, जैसे तिब्बती लोग करते हैं, तो फिर हमें अपनेआप को बार-बार याद दिलाते रहना होगा कि ये संवर क्या-क्या हैं ताकि वे हमें याद हो जाएँ। ठीक है?
प्रश्न
इस विषय पर चर्चा करने से पहले कि हम इन संवरों को किस प्रकार क्षीण कर सकते हैं या गँवा सकते हैं, क्या आपके मन में इन संवरों को लेकर कोई प्रश्न हैं?
यदि कोई त्रिरत्नों से धन चुराता है और फिर वह भेंट भी चढ़ा देता है, तो यह कैसे पता चलेगा कि जिस धन की वह भेंट चढ़ा रहा है वह वही धन है जिसे उसने चुराया था, विशेष रूप से यदि वह भेंट नकद राशि में नहीं है, मान लीजिए वह बैंक खाते से भुगतान करता है? यह कहना तो असंभव ही होगा कि यह ठीक वही धन है जिसे उसने चुराया था, क्योंकि उस व्यक्ति के पास चोरी के धन के अतिरिक्त अपना धन भी तो होगा।
मैंने जितने भी ग्रन्थ पढ़े हैं उनमें किसी में भी यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि हमें यह जानना अनिवार्य है कि वह चोरी का ही धन था। स्पष्टतः हमारी ओर से यह जानना अत्यंत जटिल ही होगा। यदि वह कोई भौतिक वस्तु होती तो बात स्पष्ट हो जाती। उदाहरण के लिए यदि चोरी की गई वस्तु कोई मूर्ति या थंग्का होती। यह एक अच्छा उदाहरण है। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान बहुत लोगों ने तिब्बत के मठों से चित्रों एवं मूर्तियों इत्यादि को चुराकर हॉंगकॉंग आदि जगहों में पश्चिमी लोगों के हाथ बेच दिया था। यदि हमें यह पता चल जाता है कि यह ऐसी कोई वस्तु है जो किसी मठ से चुराई गई थी तो उसे खरीदने पर हम इस संवर का स्पष्टतः उल्लंघन करते हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश हम इस बात को दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकते कि मंडियों में बिक रही थंग्का आदि वही हैं जिन्हें सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चुराया गया था, यद्यपि इस बात की संभावना तो अधिक है ही। कोई मठ इन्हें नहीं बेचता।
निश्चित रूप से कई बार मठ एवं महागुरु थंग्का या मूर्ति इत्यादि उपहार स्वरूप भी दे देते हैं, परन्तु मठों में मठीय सम्पत्ति तथा वैयक्तिक सम्पत्ति के पार्थक्य का सख़्ती से पालन किया जाता है। जब आप किसी गृहस्थ को दान देते हैं, मान लीजिए किसी रिन्पोचे के परिवार को जो मठ में वास कर रहा हो - या फिर मठ में न भी रहते हों, अभी प्रवासी हों - तो आपको वह दान देते समय अत्यधिक सुस्पष्ट होना होगा। क्या इसका उद्दिष्ट प्राप्तकर्ता उनका घरबार है - इसे तिब्बती में "लाबरांग" कहते हैं - और क्या यह सामान्यतया गृहस्थी के लिए है, या फिर घर के किसी विशिष्ट व्यक्ति के निजी उपयोग के लिए है। " गृहस्थी" का अर्थ है समूचा घर। मेरे घर - या फिर रिन्पोचे के घर की बात करते हैं तो उसमें वहाँ के अनेक भृत्य और शिष्य जो वहाँ वास करते हैं, इन सबको एक साथ तिब्बती भाषा में लाबरांग कहते हैं। मैं यहाँ लाबरांग का अनुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ, इसलिए मैंने इसे गृहस्थी कहा। गृहस्थ कोई और है; वह एक सामान्य गृहस्थ-जन या लौकिक व्यक्ति है। तो यदि आप वह धन लाबरांग के लिए देते हैं, घरबार के लिए देते हैं, तो वह केवल सामान्य रसोई के लिए, भोजनार्थ, या घर को बेहतर बनाने के लिए, भवन के रख-रखाव इत्यादि के लिए उपयोग किया जा सकता है; परन्तु इसका उपयोग रिन्पोचे सहित घर के किसी भी सदस्य के लिए नए चीवर खरीदने या अपने वैयक्तिक उपयोग के लिए नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग अनुष्ठान, पूजा, इत्यादि में वेदिकाओं पर प्रसाद चढ़ाने आदि कार्यों के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार इन लाब्रांगों में इसका सख़्ती से पालन किया जाता है।
परन्तु आपका प्रश्न इससे कहीं अधिक जटिल है। जब कोई त्रिरत्न से धन चुराता है, मान लीजिए कि कोई बौद्ध केंद्र को दानस्वरूप धन देता है - यद्यपि अक्षरशः बौद्ध केंद्र यहाँ विशेष रूप से सम्मिलित नहीं हैं; हम संघ के संदर्भ में मठों की बात कर रहे हैं। यहाँ मैं यह कह रहा हूँ कि पश्चिम में हम जब बात करते हैं तो प्रायः धर्म केंद्रों की ही बात करते हैं; पश्चिमी देशों में इतने अधिक मठ नहीं होते। और पश्चिम में लोग जिस ढीले ढंग से "संघ" शब्द का प्रयोग करते हैं - यहाँ साधारण जन धर्म केंद्र के लिए इस शब्द का प्रयोग करते हैं - उस ढंग का प्रयोग तो कोई पारंपरिक तिब्बती या बौद्ध-धर्मी व्यक्ति नहीं करता, यह निश्चित रूप से संघ नहीं है। ऐसे में हम अब यह प्रश्न कर रहे हैं कि क्या यह संवर उस धन की चोरी पर लागू होता है जो हमारे काम के लिए धर्म केंद्र को दान में दिया गया हो? टीकाकारों के अनुसार, तकनीकी रूप से जब हम संघ से चोरी करने की बात करते हैं, तो उसमें चार या अधिक भिक्षुओं या भिक्षुणियों के होने की शर्त बंधी होती है। इससे कम, अर्थात् एक, दो, या तीन भिक्षुओं या भिक्षुणियों से चोरी करने के लिए एक अलग ही संवर है। सच तो यह है कि जब ये संवर बनाए गए थे तो निश्चित रूप से कोई धर्म केंद्र नहीं हुआ करता था। ऐसे में इसका निष्कर्ष यह हुआ कि धर्म केंद्र को दी गई भेंट की चोरी करना इस बोधिसत्त्व संवर का उल्लंघन चाहे हो या न हो, हमें निश्चित रूप से इस कृत्य से बचना ही चाहिए।
पश्चिमी देशों में अधिक सामान्य रूप से ऐसा पाया जाता है कि किसी ने धर्म केंद्र को दानस्वरूप धन की भेंट चढ़ाई, और निदेशक या कोषाध्यक्ष जैसे किसी व्यक्ति ने उस धन को अपने निजी बैंक खाते में डाल दिया। ध्यान दें कि जैसे मैंने पहले भी कहा है हम वहाँ काम करने वाले को इस धन से वेतन देने की बात नहीं कर रहे हैं। ठीक। अब स्थिति यह है कि यह राशि अन्य राशियों के साथ किसी बैंक में पड़ी है, और यह व्यक्ति हमें कोई उपहार देता है, हमें कुछ देता है, कुछ धन। यह कहना बहुत कठिन है कि क्या वह व्यक्ति सचेतन रूप से यह कह रहा है, "मैंने चुराई हुई राशि से ही आपको यह उपहार दिया है" या फिर इसे अपनी ही राशि में जोड़ देता है और उन दोनों के बीच कोई भेद नहीं करता। इसलिए, मोटे तौर पर कहूँ तो बेहतर यही होगा कि हम किसी ऐसे व्यक्ति से कुछ भी न लें जिसके विषय में हम जानते हैं कि वह किसी धर्म केंद्र या मठ या किसी धर्म परियोजना से धन की चोरी या ग़बन कर रहा है।
क्या यह भी वैसा ही होगा जहाँ कोई व्यक्ति किसी मूर्ति या थंग्का को चुराता है और उसे बेचकर वसूल की गई राशि किसी को दे देता है, या उस राशि से कुछ सामान खरीदकर किसी को देता है? क्या यह वही स्थिति है?
तर्क को उसी दिशा में आगे बढ़ाते हैं तो उत्तर होगा, हाँ।
यदि उदाहरण के लिए कोई मूर्ति चुरा लेता है और बाद में वह अपनी ग़लती मान लेता है या उसे पछतावा होता है, तो ऐसे में क्या होगा? अब चूँकि उसे उस मूर्ति की आवश्यकता नहीं है तो क्या वह उसे किसी व्यक्ति या केंद्र को दे सकता है?
सैद्धांतिक रूप से ऐसे व्यक्ति को चाहिए कि वह उस वस्तु को वहीं वापस दे दे जहाँ से उसने उसे चुराया था। स्मरण रहे कि त्रिरत्नों से चोरी करने के मामले में यह विदित है कि चोरी के कृत्य के पूर्ण होने के लिए चोर के मन में यह भावना होनी चाहिए कि "अब यह मेरा है।" इसलिए यदि चुराने वाले को अपने कर्म पर पछतावा होता है और चोरी की वस्तु को वह अब "मेरा" नहीं मानता, तो निश्चित रूप से वह उसे वापस करने का प्रयास करेगा। पर यह तो तय है कि वह उसे कहीं बेचेगा नहीं।
पर हमें यह अवसर हमेशा प्राप्त नहीं होता। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी दूसरे देश में जाते हैं और वहाँ चोरी करते हैं और फिर कई वर्ष बीत जाने के बाद हम घर वापस आते हैं। तो मेरा कहने का उद्देश्य यह है कि दोनों स्थितियों में समुत्थान (प्रेरणा) तो अलग-अलग हैं। पहली स्थिति में आप किसी को देने के विशेष उद्देश्य से चोरी करते हैं; और दूसरी स्थिति यह है कि आप अपना मन बदल लेते हैं, अपनेआप को बदल लेते हैं, और फिर वह कार्य करते हैं। समुत्थान अलग-अलग हैं।
हाँ, समुत्थान तो अलग-अलग हैं ही। मुझे लगता है कि आप जिस स्थिति की बात कर रहे हैं उसमें मान लीजिए कि आपके घर में कोई थंग्का या मूर्ति है और कई वर्षों के बाद आपको यह पता चलता है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान किसी मठ से उसे चुराया गया था। अब हमारे पास उस वस्तु को वापस उसी मठ में देने का कोई अवसर नहीं है जहाँ से इसकी चोरी हुई थी; क्या पता वह मठ अब अस्तित्व में हो ही न। ऐसे में मुझे लगता है कि यदि हम इस दुविधा में हैं कि इस मूर्ति या थंग्का का क्या किया जाए, तो मुझे लगता है, और यह केवल मेरा वैयक्तिक अनुमान है, कि संभवतः हमें उस वस्तु को किसी धर्म केंद्र में परिस्थितियों की विस्तृत जानकारी देते हुए उपहार-स्वरूप दे देना चाहिए, तो एक प्रकार से देखा जाए तो उस वस्तु को त्रिरत्नों को वापस देना हो जाता है। यही एकमात्र संभावना है जो मैं सोच सकता हूँ।
अब ऐसी भी परिस्थितियाँ हैं जहाँ कई मठ अपनी अतिशय निर्धनता के कारण अपने कोष को कला व्यापारियों के हाथ बेच देते हैं, और ये व्यापारी लाभ कमाने के लिए उन्हें आगे बेच देते हैं। क्या यह नैतिक है? मैं सच में नहीं जानता। वे चोरी तो नहीं कर रहे हैं, पर वे इन वस्तुओं का उपयोग लाभार्जन हेतु कर रहे हैं। यदि वे इससे अनुचित लाभ कमा रहे हैं तो हम यह कह सकते हैं कि साधारणतः, चाहे वह धर्म सामग्री हो या कुछ और, वह कृत्य लोभ-जनित है। यह कोई अच्छी बात नहीं है।
निश्चित रूप से विनय आदि को एक वकील के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है और तरह-तरह की क्षुद्र बारीकियों और अपवाद इत्यादि को ढूँढ़ निकाला जा सकता है, और अवश्य कई ऐसे विद्वान भी होंगे जिन्होंने ऐसा किया है और आगे भी करते रहेंगे। परन्तु जैसा कि मैंने बौद्ध नैतिकता की चर्चा में पहले ही समझाया था, हमें जो करना है वह है अपनी प्रज्ञा को विकसित करना और वास्तविक स्थिति को समझना - जैसे आपके इस उदाहरण में यह जान लेना कि मेरे घर में जो वस्तु है वह मठ से चुराई हुई है - और फिर संवर के उल्लंघन की गंभीरता को कम करने का प्रयास करना।
संवरों का क्षीण होना या उन्हें खो बैठना
पते की बात यह है कि ये संवर अति-सूक्ष्म रूप धारण किए हुए हैं, स्मरण कीजिए कि हमने अपने मानसिक समतान पर अविज्ञप्त रूपों के विद्यमान होने की बात की थी और ये संवर हमारे व्यवहार को गढ़ने का कार्य करते हैं - इनसे हमारे व्यवहार का विपाक होता है, या फिर यों कहें कि कम-से-कम मेरा यही विश्लेषण है। उस सूक्ष्म रूप का बल पूर्णतया अक्षुण्ण एवं प्रबल हो सकता है अथवा निर्बल भी हो सकता है। मुझे लगता है कि इसका बल इन संवरों को ग्रहण करने के आरम्भिक स्तर के हमारे समुत्थान के बल पर निर्भर करता है। यदि हम संवरों को केवल इसलिए ग्रहण करते हैं क्योंकि हमारे मित्र ऐसा कर रहे हैं और हम उपेक्षित अनुभव नहीं करना चाहते, तो यह पक्की बात है कि उस संवर की शक्ति उस स्थिति की अपेक्षा कहीं अधिक कमज़ोर होती जहाँ वास्तविक निःसरण ही हमारा समुत्थान होता या हम सचमुच स्वयं बोधिचित्त युक्त होते। यही कारण है कि हम अपनी दैनिक साधना में बोधिसत्त्व संवरों को नित-नवीकृत करते हैं, उन्हें पुनः प्रबल करते हैं, ताकि वे हमारे समुत्थान की पुनःपुष्टि से अधिक सबल हो जाएँ। यदि हम इन संवरों का उल्लंघन करते हैं, जो अपरिहार्य रूप से हम सभी करते ही हैं, तो अधिकतर मामलों में हम उन संवरों की शक्ति को कमज़ोर कर देते हैं। परन्तु हिम्मत न हारें, इन संवरों को अपने मानसिक समतान से पूर्णतः लुप्त कराने के लिए अनेक विशिष्ट कृत्य करने होंगे - केवल यह कहने से ये लुप्त नहीं हो जाएँगे कि, "मैं इन्हें त्याग रहा हूँ। मुझे अब ये नहीं चाहिए"; और हाँ इन सब कृत्यों को करने से संवर अवश्य लुप्त हो जाएँगे।
पहले तो यह है कि विभिन्न ग्रंथों में उन कारकों को सूचीबद्ध किया गया है जिनके कारण हमारे संवरों का उल्लंघन हो सकता है। पर बात यह है कि हमें उन संवरों का बोध नहीं है। हम उन्हें नहीं जानते। दूसरा है कि हम उनकी परवाह नहीं करते; दूसरे शब्दों में हम लापरवाह हो जाते हैं। “मुझे अपने व्यवहार की क्या पड़ी है, मुझे प्रतिज्ञाओं की क्या पड़ी है; इन सब में कुछ नहीं रखा है।" एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि हम किसी क्लेश के वशीभूत अथवा क्रोधित या कामातुर होकर अपने संवर को ही भुला देते हैं, हम उनका उल्लंघन कर देते हैं। एक और कारण हो सकता है निरादर की भावना। हम न तो संवरों का और न ही उन्हें ग्रहण करने वालों का आदर करते हैं। इसके अतिरिक्त एक कारण हो सकता है उन्हें भुला देना, विस्मृत कर देना। एक अन्य कारण क्षीण स्मृति (सचेतनता) भी हो सकता है। हमारी स्मरण-शक्ति क्षीण है और इसलिए हम अपने व्यवहार पर ध्यान देने में भी कमज़ोर हो जाते हैं।
अब इन अट्ठारह संवरों में से, "मिथ्यादृष्टि धारण करना" और "बोधिचित्त को त्यागना" को छोड़कर अन्य सभी संवरों को पूर्ण रूप से लुप्त होने के लिए चार पर्यावस्थानों (आबद्धकारी कारकों) की आवश्यकता होती है - अर्थात् इन चारों कारकों के परिपूर्ण होने की आवश्यकता है। मान लीजिए हम इस विकृत मिथ्यादृष्टि से युक्त हैं कि, "यह सब जड़बुद्धि हैं! मैं हर उस व्यक्ति से उलझूँगा जो यह कहता है कि बोधिसत्त्व व्यवहार का कोई मोल है"। जैसे ही हम ऐसा सोचने लगते हैं, या फिर जैसे ही हम इस प्रवृत्त बोधिचित्त को त्याग देते हैं, वैसे ही हमारे संवर भी लुप्त हो जाते हैं।
शेष सोलह संवरों की बात ऐसी है कि इन चार पर्यावस्थानों को संवर के उल्लंघन का समुत्थान (प्रेरणा) विकसित करने के तुरंत बाद तब तक धारण करके रखना होगा जब तक उल्लंघन के कृत्य की समाप्ति न हो जाए। कहने का तात्पर्य यह है कि संवर का उल्लंघन करते करते यदि हमें पछतावा हो जाए तो उल्लंघन का वह कृत्य अपरिपूर्ण होकर रह जाएगा। तो सिद्धांत यह है कि उल्लंघन के आरम्भ से अंत तक हमें उन चारों कारकों को धारण किए रहना होगा।
इनमें से पहला है: हम जो कर रहे हैं उसे हानिकारक न समझना। दूसरे शब्दों में, हमें अपने कृत्यों में कुछ भी ग़लत न दिखना, केवल लाभ ही दृष्टिगोचर होना, तथा इन कृत्यों को बिना किसी पछतावे के दोहराते रहना। दूसरा है: हमने पहले भी इसका उल्लंघन किया है और भविष्य में कभी भी इसे दोहराने से अपनेआप को रोकने का हमारा कोई मंतव्य नहीं है। तीसरा है: हम जो कर रहे हैं वह सहर्ष कर रहे हैं, उसे करने में हमें आनंद आता है। हमें इस बात की खुशी होती है कि हम जो कर रहे हैं उससे उस संवर का उल्लंघन हो रहा है। और चौथा है: हमें नैतिक आत्म-गरिमा का कोई बोध नहीं है और न ही इस बात की कोई चिंता कि हमारे व्यवहार का दूसरों पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है। अर्थात् मुझे अपनी प्रतिष्ठा की कोई परवाह नहीं है। इन कृत्यों से मुझपर होने वाले प्रभावों की भी कोई परवाह नहीं है - यही है नैतिक आत्म-गरिमा का कोई बोध न होने का अर्थ। और इसका दूसरा भाग यह है कि मुझे इस बात की भी कोई चिंता नहीं है कि मेरा इस प्रकार का व्यवहार मेरे गुरुगण, बौद्ध धर्म, या फिर किसी भी अन्य व्यक्ति की छवि पर कैसा प्रभाव डालेगा । यदि सभी चार की चार मनोदृष्टियाँ प्रस्तुत हों तो हमारे सभी बोधिसत्त्व संवर लुप्त हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत यदि चारों मनोदृष्टियाँ अपूर्ण हों तो संवर केवल क्षीण हो जाते हैं।
चलिए यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। हम बौद्ध धर्म की अपनी पुस्तक किसी को भी उधार नहीं देते क्योंकि हम उससे आसक्त हैं और स्वयं अत्यंत कृपण भी हैं। हमारे दृष्टिकोण में ऐसा करने में कुछ भी ग़लत नहीं है क्योंकि हमें लगता है कि हो सकता है वह व्यक्ति हमारी पुस्तक पर अपनी कॉफी गिरा दे या उसे वापस ही नहीं दे। हमने अपनी धर्म पुस्तकें न इससे पहले कभी उधार दी हैं और न ही इस नीति को बदलने का कोई विचार रखते हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि हमें मना करते हुए अच्छा भी लगता है। इस प्रकार मना करते हुए हम लज्जा का अनुभव नहीं करते जबकि हम यह पूरी तरह जानते हैं कि हमें दूसरों को ज्ञानोदय प्राप्त कराने में उनकी सहायता करनी है - ऐसी जानकारी के होने पर हम धर्म ग्रन्थ को भला क्यों न साझा करें? इन सबके अतिरिक्त हम इस बारे में ज़रा भी लज्जित नहीं होते और न ही हमें इस बात की कोई परवाह है कि हमारे इस व्यवहार का बौद्ध धर्म के शिक्षकों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं होता कि अपने इस स्वार्थपूर्ण व्यवहार को सुधारने के लिए कुछ करें। मैं यहाँ एक बात तो कहना भूल ही गया कि इस स्वार्थपूर्ण व्यवहार को न सुधारना इस चौथे कारक का हिस्सा था - कि हमने जो किया है उसका प्रतिकार करने का हमारा कोई इरादा नहीं है। अतः, हमारी सभी मनोवृत्तियों की परिपूर्ण अवस्था में जब हम किसी को अपनी पुस्तक उधार देने से मना कर देते हैं तो हमारे बोधिसत्त्व संवर पूरी तरह से लुप्त हो जाते हैं। परन्तु यदि हमारे भीतर इनमें से कुछ मनोवृत्तियों का अभाव मात्र हो जाता है तो हमारे संवर केवल क्षीण हो जाते हैं, पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि इनमें से कितनी मनोवृत्तियाँ विद्यमान हैं।
मान लीजिए कि हम किसी एक संवर का उल्लंघन करते हैं परन्तु ये चार पर्यावस्थान (आबद्धकारी कारक) विद्यमान नहीं हैं। ऐसी स्थिति में हम अपने संवर को निर्बल नहीं करते। उदाहरण के लिए कोई हमसे अपने धर्म ग्रन्थ या हमारी अपनी टिप्पणियाँ उधार लेना चाहता है और हम देने से मना कर देते हैं। ठीक? यह कृत्य है धर्म को साझा न करना। परन्तु हमें यह पूर्ण बोध है कि यह मूल रूप से अनुचित है और हम इसे नीतिबद्ध रूप में करने की मंशा भी नहीं रखते। हमें मना करते हुए कोई खुशी नहीं मिल रही है, हमें अपने आत्म-सम्मान की भी चिंता है, और इस बात की भी कि ऐसा कृत्य किस प्रकार हमारे गुरुओं की छवि को प्रभावित करता है, पर बात यह है कि इस तरह मना करने के हमारे कारण वैध हैं। जैसे हमें अभी इस पुस्तक की आवश्यकता है, मान लीजिए कि हम किसी धर्म ग्रन्थ का अनुवाद कर रहे हैं और कोई हमारा शब्दकोश कुछ समय के लिए उधार लेना चाहता है। पर अब क्या करें, मुझे अनुवाद करने के लिए शब्दकोश की आवश्यकता है, इसलिए इस समय मुझे इसकी सख़्त ज़रूरत है; या फिर ऐसा भी हो सकता है कि मैंने इसे किसी और को देने का वचन पहले से ही दे रखा हो। तो यहाँ हमारा समुत्थान (प्रेरणा) पुस्तक के प्रति आसक्ति या किसी प्रकार की कृपणता का भाव नहीं है, और ऐसे में प्रतिसंतुलन स्थापित करने हेतु हम क्षमा माँगते हैं कि हम इसे अभी उधार नहीं दे सकते, साथ ही हमारी इस असमर्थता का कारण भी स्पष्ट कर देते हैं, और उस व्यक्ति को यह विश्वास भी दिलाते हैं कि हम उसे यह ग्रन्थ यथाशीघ्र देने का प्रयास करेंगे। इसके साथ ही हमारे कृत्य के कारण हुई हानि को पूरा करने के लिए हम ऐसे प्रस्ताव भी उसके सम्मुख रख सकते हैं जैसे अपनी टिप्पणियों को साझा करना, उस ग्रन्थ के किसी भाग की व्याख्या कर देना, या फिर जिस समय हम उस ग्रन्थ या टिप्पणियों पर काम न कर रहे हों तो उसे हमारे ही घर पर बैठकर पढ़ लेना। तो इस प्रकार हम अपने बोधिसत्त्व संवरों को बनाए रख सकते हैं भले ही बाहर वालों को ऐसा लगे कि धर्म-ग्रन्थ को न देकर हमने किसी संवर का उल्लंघन कर दिया।
इस बात की एक पूरी सूची है कि शक्ति किस प्रकार बदलती है, संवर की वर्तमान प्रबलता क्या है, हमने उसे कितना दुर्बल बनाया है - यह इस बात पर निर्भर करता है कि इन चारों में कौन-कौन से पर्यावस्थान किस-किस अनुपात में विद्यमान हैं, इत्यादि। परन्तु हमें अभी इतने विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मोटे तौर पर हमें इतना जान लेना है कि सभी संवरों तथा उन अकुशल व्यवहारों के मामले में, जिनसे दूर रहने की प्रतिश्रुति हमने अभी ग्रहण नहीं की है, यह आवश्यक है कि हम पाप कर्मों तथा नकारात्मक शक्तियों की प्रबलता को यथासंभव कम करने का प्रयास करें। सरल भाषा में कहूँ तो हमें चाहिए कि हम उतना अधिक बुरा व्यवहार न करने का प्रयास करें। क्योंकि किसी भी कर्मफल की शक्ति केवल इन चारों पर ही नहीं अपितु अनेकानेक कारकों पर निर्भर करती है। इसके सम्बद्ध क्लेश कितने प्रबल हैं? हम कितनी बार इसकी आवृत्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी कि आलम्बित व्यक्ति एवं हमारी स्थिति, अर्थात् आध्यात्मिक स्थिति, क्या है।
यदि हम अपने धर्म ग्रन्थ ऐसे धर्म गुरु को देने से मना कर देते हैं जो अपने शिष्यों को कुछ बातें समझाने के लिए उस ग्रन्थ को माँग रहे हैं, तो यह उस आचरण से कहीं अधिक गंभीर है जहाँ हम किसी ऐसे व्यक्ति को उधार देने से मना कर देते हैं जिसके पास उस ग्रन्थ के पन्नों को जिज्ञासावश पलटने से अधिक गंभीर कोई उद्देश्य नहीं होता। इसके अतिरिक्त इस पाप की गंभीरता हमारी अपनी आध्यात्मिक अवस्था पर भी निर्भर करती है। मैंने ऐसा न करने का संवर ग्रहण किया है या नहीं? इसी लिए यह कहा जाता है कि यदि आप किसी संवर का निर्वाह नहीं कर सकते तो उसे ग्रहण भी न करें। यही कारण है कि इन पाँच लौकिक संवरों के लिए यह अत्यंत सहायक विकल्प दिए गए हैं कि हम केवल उतने ही संवरों को ग्रहण कर सकते हैं जिनका हम निर्वाह कर पाएँगे। इसलिए यदि हम मदिरा पान से या यौन व्यवहार की कुछ विधाओं, अनुचित यौन सम्बन्ध, से दूर नहीं रह सकते तो उन संवरों को ग्रहण न करें। कर्म की विस्तृत शिक्षाओं में ऐसे सभी कारक वर्णित किए गए हैं जो कर्म के प्रभाव को प्रबल बनाते हैं; इनकी एक पूरी लंबी सूची है। इस प्रकार हम संवर के उल्लंघन से होने वाले पापों को यथासंभव दुर्बल बनाने की चेष्टा करते हैं।
हम इन पर्यावस्थानों (आबद्धकारी कारकों) के प्रतिकारकों (विपरीत कृत्यों) को लागू करने का प्रयास करते हैं। इसलिए यह सोचने के स्थान पर कि इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, हम खुलेआम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि वह ग़लत था, वह एक भूल थी; और हम अपने कृत्य पर आनंदित होने और खुश होने के स्थान पर खेद का अनुभव करते हैं। खेद का अर्थ अपराधबोध नहीं है, अपितु इसका अर्थ केवल यह है कि काश मैंने ऐसा न किया होता, या मुझे ऐसा करना नहीं पड़ता - जैसे मुझे खेद है कि मैं आपको यह पुस्तक नहीं दे सकता। फिर हम इस उल्लंघन को न दोहराने का संकल्प करते हैं - मैं दोबारा ऐसा न करने का भरसक प्रयास करूँगा - बजाय इसके कि इसे रोकने का कोई इरादा ही न रखना। फिर हम अपने आलय, अपने आध्यात्मिक आधार, की पुनःपुष्टि करते हैं, जो हैं शरणागति व बोधिचित्त, न कि नैतिक आत्म-गरिमा का अभाव, अथवा इस बात की कोई चिंता न होना कि हमारे कृत्य दूसरों पर, हमारे गुरुओं की छवि को, किस सीमा तक प्रभावित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अब मैं परवाह करता हूँ अपने भविष्य की और भविष्य में होने वाले अनुभवों की, मैं अपने गुरुओं आदि की परवाह करता हूँ, और इसलिए मैं शरणागति एवं बोधिचित्त को वापस अपने जीवन की धुरी बना दूँगा। हमने अपनी जो क्षति की है उसका सुधार करने का विचार न रखने के स्थान पर मैं अपने संवर के उल्लंघन का प्रतिसंतुलन स्थापित करने के लिए उसका विलोम या निदानकारी कृत्य करूँगा। इस प्रकार हम चार मानक प्रतिकारकों को चार पर्यावस्थानों (आबद्धकारी कारकों) के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं।
ठीक, तो ये हैं बोधिसत्त्व संवरों की मूल शिक्षाएँ। यह स्पष्ट हो गया है कि इन संवरों को ग्रहण करने के लिए हमें उचित समुत्थान (प्रेरणा) तथा उचित तैयारी की आवश्यकता है, और हम अपनेआप या किसी गुरु के शरणागत होकर हम इन्हें बार-बार ग्रहण कर प्रबल बना सकते हैं। यह याद रखना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि वे क्या हैं - इसलिए यदि हम अपनेआप को प्रतिदिन स्मरण न भी दिला पाएँ तो भी, कम-से-कम कभी-कभी ही सही, सूची को ही पढ़ लें ताकि हमें मूल एवं अनुपूर्वक संवर स्मरण हो जाए। यदि किसी कारणवश संवर का उल्लंघन करना ही पड़ जाए तो प्रयास यह रहना चाहिए कि ये चार पर्यावस्थान परिपूर्ण न हों। उल्लंघन को यथासंभव क्षीण रखने की चेष्टा करें और फिर अपने सँवरों को प्रबल बनाएँ।
अंतिम प्रश्न
क्या कोई अंतिम प्रश्न हैं?
मेरे पास कॉपीराइट पर एक प्रश्न है। धर्म पुस्तकों पर कॉपीराइट होता है और इसलिए किसी भी प्रकाशन में इनकी प्रतिलिपि मुद्रित नहीं कर सकते। पर यदि आप अपने व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए इनकी प्रति बनाते हैं तो क्या इसे त्रिरत्नों से चोरी माना जाएगा? और वेबसाइट या इंटरनेट पर आपके जो भी लेख हैं - जब आप उन्हें बेचते हैं तो क्या होगा?
एक प्रकार से देखा जाए तो हमें इसपर किसी वकील से परामर्श करना होगा क्योंकि जहाँ तक मैं समझता हूँ, इंटरनेट सार्वजनिक क्षेत्र है और इसलिए कोई भी प्रतिलिपि बना सकता है। अतः इंटरनेट पर यदि कोई व्यक्ति यह नहीं चाहता कि आप उसकी सामग्री का निःशुल्क उपयोग करें, तो आपको उसके लिए भुगतान करना होगा, और यदि आप भुगतान नहीं करते हैं तो आप वह सामग्री प्राप्त नहीं कर पाएँगे। परन्तु यह तो सर्वविदित है कि ऐसे इंटरनेट तस्कर हैं जो इस प्रकार की शर्तों से बच निकलने में सक्षम हैं, पर यदि सामग्री प्राप्ति के लिए भुगतान शर्त है तो स्पष्टतः भुगतान न करना धर्म से चोरी है।
पर कॉपीराइट की हुई पुस्तकों की यह एक क़ानूनी समस्या है। वर्तमान काल में गूगल (Google) के साथ एक बड़ा क़ानूनी विवाद चल रहा है। वह सभी पुस्तकों को सार्वजनिक रूप से सुलभ कराना चाहता है। मैं यह पक्की तौर पर नहीं कह सकता कि वे इसे निःशुल्क उपलब्ध कराना चाहते हैं या फिर कोई दाम वसूलना चाहते हैं, पर पुस्तकों को इंटरनेट पर डालने के लिए - ऐसा तो प्रायः उन पुस्तकों के लिए किया जाता है जिनकी छपाई नहीं हो रही या फिर प्रकाशक अथवा लेखक के पास अभी भी उनका कॉपीराइट है। इसके बारे में अनेक क़ानूनी तर्क हैं, और गूगल इन लेखकों को थोड़ा बहुत भुगतान करने के लिए भी तैयार है, परन्तु यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि उससे क्या होने वाला है।
अब धर्म से धन कमाने और धर्म से आर्थिक लाभ कमाने का समूचा मामला एक सम्पूर्णतया पृथक नैतिक विषय है जिसपर चर्चा करने के लिए अभी हमारे पास पर्याप्त समय नहीं है। पर शांतिदेव कहते हैं कि यदि कोई नौकर अच्छा काम करता है तो उस नौकर का उसकी ज़रूरतों के अनुसार भुगतान करना चाहिए। उल्टे, यदि कोई नौकर ठीक से काम न करे, या बिल्कुल काम न करे, तो उसे वेतन देना उचित नहीं है। स्पष्टतः इसी बात को हम अपने लिए काम करने वालों, हमारे नौकरों, पर भी लागू कर सकते हैं। इस उदाहरण की एक अनुरूप स्थिति ऐसी है जहाँ हम एक बोधिसत्त्व हैं और सभी सत्त्वों की सेवा में हम स्वयं को अर्पित कर देते हैं। उदाहरणार्थ, यदि धर्म ग्रंथों का अनुवाद करने या उन्हें उपलब्ध कराने जैसे कामों के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं, और साथ ही यदि हम यह काम वास्तव में कर भी रहे हैं, तो " नौकर को भुगतान" के तहत स्वयं को भुगतान करना ठीक है; और यदि हम ऐसा कोई काम नहीं कर रहे हैं तो स्वयं को भुगतान न करें। इस प्रकार के वित्तदान का उद्देश्य धनाढ्य बनना नहीं अपितु हमारा अपना पालन पोषण है। ऐसा करना शांतिदेव के परामर्श के अनुकूल प्रतीत होता है। इसलिए यदि लोग धर्म ग्रंथों के लिए दाम ले रहे हैं ताकि वे उन लोगों को भुगतान कर सकें जिन्होंने उनपर काम किया है, लेखक आदि को भुगतान कर सकें, तो ऐसा भुगतान न करना - केवल प्रतिलिपि बनाने के लिए - स्पष्टतः एक गंभीर समस्या है।
परन्तु यह बात अधिकाधिक जटिल होती जाती है। क्या हम उस पुस्तक को स्कैन कर रहे हैं या पुस्तकालय में उसकी प्रतिलिपि बना रहे हैं? यह सर्वविदित है कि छात्रों के लिए पुस्तकों की प्रतिलिपि बनाने के लिए विश्वविद्यालयों के ग्रंथालयों में प्रतिलिपि (फोटोकॉपी) मशीनें होती हैं। वहाँ के अधिकारी आपको चेताते हैं कि सम्पूर्ण पुस्तक की प्रतिलिपि न बनाएँ। ऐसे में आप पुस्तक के कितने भाग की प्रतिलिपि बना सकते हैं? अब यह बात एक विधि विषयक विवाद बन जाती है। मुझे लगता है कि बहुत कुछ हमारी प्रेरणा (समुत्थान) पर निर्भर करता है। मान लीजिए हम इतने संपन्न हैं कि हम उस पुस्तक को खरीदने का सामर्थ्य रखते हैं और हम केवल इसलिए नहीं खरीदते कि हम अपनेआप को बुद्धिमान समझते हैं और प्रकाशक को धोखा देते हैं, या फिर हम बहुत ही ओछे या कृपण हैं; यह स्थिति अत्यंत नेकनीयत धर्म साधक होने से ठीक विपरीत है, जहाँ हमें साधना के लिए उक्त पुस्तक की सामग्री की आवश्यकता है और हम उतने संपन्न नहीं कि उस पुस्तक को ख़रीद सकें। मेरे विचार में यह स्थिति बिल्कुल पृथक है। अतः मेरी मानिए तो ये सब हमारी प्रेरणा (समुत्थान) पर निर्भर है। ऐसे में प्रमुख बात यह है कि इसके परिणामस्वरूप किसी संवर का चाहे वास्तव में उल्लंघन हो या न हो हमारी चेष्टा यह होनी चाहिए कि जो भी पाप इस कर्म में संलग्न हो सकते हैं उन्हें यथासंभव क्षीण बनाने का प्रयास करें।
इस प्रकार बौद्ध धर्म में नैतिक आत्म-अनुशासन (शील) का अभ्यास प्रज्ञा, समुत्थान तथा अन्य सभी कारकों से अधिक गहनता से जुड़ा हुआ है। यह ऐसा नहीं है कि बस "हुकुम बजाओ। आज्ञाकारी बनो।"