समाज सेवा सम्बन्धी बौद्ध नैतिकता

हम दूसरों की सहायता करने हेतु विभिन्न व्यवसायों में संलग्न होना चाहते हैं तो समाज सेवा में नैतिकता की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। चाहे वह कोरी सामाज सेवा हो, या फिर शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा, नैतिकता उसका एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आयाम है। स्पष्ट रूप से जब हम दूसरों की सहायता करने का प्रयत्न कर रहे होते हैं तो हमें चाहिए कि हम उन्हें किसी भी प्रकार की क्षति न पहुँचाएँ, और साथ ही उनकी हर प्रकार से सहायता करने की पूरी चेष्टा करें, भले ही हमें यह न पता हो कि उसका सबसे उत्तम मार्ग क्या है। चूँकि हम जिन-जिनकी सहायता करते हैं वे सब स्वभावतः अलग-अलग व्यक्ति हैं, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि जो एक के लिए उपयुक्त है वह अनियवार्यतः दूसरे के लिए भी उपयुक्त होगा ही। इसलिए किसी भी प्रकार के सामाजिक या सहायक उद्यम के लिए दूसरों के बारे में अत्यधिक समझ एवं संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है, और इन सबका आधार है नैतिकता।

नैतिक आत्मानुशासन (शील)

बौद्ध धर्म में नैतिकता को नैतिक आत्मानुशासन (शील) के संदर्भ में वर्णित किया गया है। नैतिकता की प्रणाली को वास्तव में कार्य रूप में परिणत करने के लिए स्पष्ट है कि हमें अनुशासन की आवश्यकता है। इसलिए दोनों का घनिष्ठ संबंध है। और हमें यह अनुशासन किसी पुलिसवाले या नगर-रक्षक की भाँति नहीं करना है जहाँ हम दूसरों पर अनुशासन या क़ानून लागू करते हैं, अपितु हम उस अनुशासन को अपनी ही ओर लक्षित करते हैं, जिसमें निस्संदेह आलस्य और उदासीनता तथा उन सभी प्रकार की बाधाओं को नियंत्रण में रखना होगा जो हमें अनुशासित होने से रोकती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भले ही हम यह जानते हों कि हमें किन नैतिक सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता है, और साथ ही हमारे भीतर उनका पालन करने की प्रेरणा (समुत्थान) भी हो, फिर भी उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए जो भी बाधाएँ हो सकती हैं उन सबसे तरने की आवश्यकता है। तो, इस प्रकार नैतिकता एक अत्यंत व्यापक विषय है, एवं इसे प्रभावी ढंग से व्यवहार में लाने के लिए हमें कई अलग-अलग आयामों में प्रशिक्षित होने की आवश्यकता है।

बौद्ध धर्म तीन प्रकार के नैतिक आत्मानुशासन श्रेणीबद्ध करता है। पहला है विनाशकारी (अकुशल) व्यवहार से बचने का अनुशासन। अकुशल व्यवहार केवल वास्तविक कायिक क्रियाओं तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें हमारे वचन - जिस तरह से हम दूसरों से सम्प्रेषण करते हैं - मनोदृष्टि, तथा सोचने का ढंग भी समाविष्ट हैं। हो सकता है कि हम एक ढर्रे पर किसी की सहायता करते चले जाएँ पर हमारे मन में उनके प्रति भाँति-भाँति के बुरे विचार आते रहें। तो इससे बचने के लिए भी नैतिक अनुशासन की आवश्यकता है।

दूसरे प्रकार का अनुशासन है रचनात्मक (कुशल) व्यवहार में संलग्न होना, और यह मुख्यतः इस बात पर केंद्रित है कि अपनी क्षमताओं को दूसरों की सहायतार्थ प्रशिक्षित करने के लिए हम स्वयं क्या कर रहे हैं। इसमें अध्ययन, प्रशिक्षण आदि के उन विभिन्न कार्यों को करना शामिल है जिनके द्वारा हम अपने उद्यम में निपुण हो सकें। इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी जीवन-वृत्ति के विषय में हम अद्यतन बने रहें और कई वर्ष पहले अर्जित किए गए ज्ञान के भरोसे न बैठे रहें। ऐसा करने के लिए वास्तव में बहुत अधिक अनुशासन की आवश्यकता होती है, ताकि हम अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखें और साथ ही अपने क्षेत्र में होने वाली नई विधियों से अवगत भी रहें। यह वास्तव में इतना आसान काम नहीं है, क्योंकि जब हम पूरे दिन दूसरों की सहायता करने में लगा देते हैं तो हम थक जाते हैं और यह अद्यतन बने रहने का काम फिर देर रात को ही करना पड़ता है।

तीसरे प्रकार का नैतिक आत्मानुशासन है वास्तव में दूसरों की सहायता में लग जाना।

तो, अकुशल व्यवहार से बचना, रचनात्मक (कुशल), शैक्षणिक व्यवहार में लगे रहना और वास्तव में दूसरों की सहायता करना। ये हैं नैतिक आत्मानुशासन के तीन क्षेत्र जिनपर बौद्ध धर्म बल देता है, और मुझे ऐसा लगता है कि यह समाज सेवा के सभी क्षेत्रों के लिए पूर्णतया प्रासंगिक है। आइए इन तीनों का कुछ गहनतर अध्ययन करें।

अकुशल व्यवहार से बचना तथा रचनात्मक (कुशल) व्यवहार में लगे रहना

अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार से बचना। अकुशल व्यवहार क्या है? बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं में अकुशल व्यवहार को एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया - मनसा, वाचा, कर्मणा - के रूप में व्याख्यायित किया है जो किसी क्लेश या उपादान से प्रेरित होती है। हम यह बात पूरी निश्चितता के साथ नहीं कह सकते कि कोई कार्य दूसरों को किस प्रकार प्रभावित करेगा, क्योंकि कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हमारी मंशा अच्छी होती है पर वह कार्य दूसरों को चोट पहुँचाता है - उदाहरणार्थ जब हम किसी प्रकार की भूल कर बैठते हैं; हम उनकी सहायता करने का प्रयास करते हैं परन्तु वे हमारे परामर्श को स्वीकार नहीं करते; इस तरह की बातें।

क्रोध में पड़कर कार्य करना

तो हम जो बात निश्चितता के साथ कह सकते हैं वह यह है कि यदि हमारी प्रेरणा (समुत्थान) अकुशल या अशांतकारी है तो वह क्रिया या कृत्य अवश्य विनाशकारी होगा। मान लीजिए कि हम क्रोध के अधीन होकर कार्य करते हैं। मान लीजिए समाज सेवक के रूप में हम किसी की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं और उसके व्यवहार या उसकी जीवन यापन शैली के कारण उसपर चिल्ला उठते हैं, "ऐसा मत करो! नशीले पदार्थ का सेवन मत करो!" इत्यादि। परन्तु दुर्भाग्यवश उनसे निपटने के लिए हमने क्रोध का सहारा लिया। यह क्रोध हमें स्पष्ट चिंतन से दूर तो रखता ही है, जैसे किस प्रकार दूसरों की श्रेष्ठतम रूप से सहायता करें, परन्तु दूसरे लोग भी संवेदनशील होने के कारण हमारे क्रोध को भाँप लेते हैं और उनकी प्रतिक्रिया प्रायः अनुकूल नहीं होती। यह उतना सहज नहीं है क्योंकि समाज सेवा के लिए बहुत अधिक धैर्य की आवश्यकता होती है। हम दूसरों की सहायता करने का प्रयास करते हैं, अच्छा परामर्श देते हैं, इत्यादि, परन्तु वे उसे स्वीकार नहीं करते। और हम स्वभावतः हताश हो जाते हैं क्योंकि हम धैर्य खो बैठते हैं, जिसके फलस्वरूप उनपर क्रोधित होना, डाँटना, डपटना, चीखना, चिल्लाना, इत्यादि अत्यंत सहज हो जाता है। या फिर यदि हम स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यरत हैं तो: “अपनी दवा क्यों नहीं लेते? दिक़्क़त क्या है?" इत्यादि आहत करने वाली बातें। अपना आपा खोना बहुत सरल हो जाता है।

दूसरों के लिए करुणा विकसित करना

ऐसी स्थितियों में हमें अपने करुणा-भाव को विकसित करने की आवश्यकता है - कि यह अभागा भ्रमित हो गया है; यह इतनी दयनीय स्थिति में है कि अच्छा परामर्श भी स्वीकार नहीं कर पाता। हम दूसरों को अपना परामर्श स्वीकार करने के लिए बाध्य तो नहीं कर सकते। हम जो एकमात्र कार्य कर सकते हैं वह है किसी अधिक कौशलपूर्ण विधि को अपनाना, ताकि हम उस व्यक्ति को उसके तौर-तरीक़े बदलने के लिए प्रेरित कर सकें। परन्तु यदि हम स्वयं क्रोध, हताशा, तथा अधीरता के वशीभूत हो जाते हैं तो यह स्थिति उस व्यक्ति से संपर्क बनाने के बेहतर मार्ग ढूँढ़ने में बड़ी बाधा बन जाती है।

आसक्ति के प्रभाव में कार्य करना

दूसरे प्रकार का क्लेश है आसक्ति और कामना। आखिर हम सब मनुष्य हैं। हमारी कामनाएँ भी होती हैं। हम कुछ लोगों के प्रति आकर्षित होते हैं। जिनकी हम सहायता करना चाहते हैं उनके प्रति यह आकर्षण या तो काम-भाव का हो सकता है या फिर वात्सल्य भाव का, जैसे माता-सदृश या पिता-सदृश आकर्षण, जैसे एक छोटे बच्चे के प्रति, "ओह यह कितना प्यारा है," इत्यादि। दोनों ही भावों में हम उस व्यक्ति से कठोर व्यवहार कदापि नहीं कर सकते, जो हमें समय-समय पर करना पड़ेगा यदि हम उसकी सहायता करना चाहते हैं तो। या फिर, क्योंकि इस व्यक्ति के प्रति इतना अधिक आकर्षित हो जाते हैं कि हम जाने-अनजाने उसे अपने ऊपर पूर्णतया निर्भर बना देते हैं ताकि हम उनके साथ अधिक-से-अधिक समय बिता सकें। इस संभावित स्थिति से हमें बचना होगा। निश्चित रूप से यह कोई आसान काम नहीं है क्योंकि, जैसा कि मैंने कहा, हम मनुष्य हैं और यह स्वाभाविक है कि जिस प्रकार हम अपना आपा खो बैठते हैं, उसी प्रकार हम कुछ लोगों के प्रति आकर्षित भी हो जाते हैं।

समचित्तता विकसित करना

बौद्ध-धर्मी प्रशिक्षण में जिस बात पर सदा बल दिया जाता है, वह है समचित्तता का विकास, जिसका अर्थ यह है कि जिन लोगों की हम सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं उनके प्रति न राग हो न द्वेष, और न ही ऐसे लोगों की उपेक्षा की जाए जिन्हें सहायता की आवश्यकता है (यह तीसरा प्रकार है जो हमने यहाँ जोड़ा है), अपितु हमें यह चाहिए कि हम सब लोगों के प्रति उदार, समदर्शी मनोदृष्टि बनाए रखें। इसका अर्थ यह हुआ कि उन लोगों के प्रति भी उदार एवं समान मनोदृष्टि बनाए रखना जिनकी सहायता करना सहज है, जिनकी सहायता करना कठिन है, जिनके साथ रहना हमें प्रियकर लगता है, जिनके साथ रहना हमें अप्रियकर लगता है। इस मनोदृष्टि को सफलतापूर्वक विकसित करने का तरीक़ा है इस बात को समझ  लेना कि हम सभी समान हैं: हर कोई सुख चाहता है, कोई भी दु:ख नहीं चाहता, बिल्कुल मेरी ही तरह। हर कोई चाहता है कि उसपर ध्यान दिया जाए, उसकी देखभाल की जाए, बिल्कुल मेरी ही तरह। कोई भी यह नहीं चाहता कि उसकी अनदेखी हो।

वास्तव में मेरे मन में यह विचार आया कि ऐसे भी कुछ लोग हैं जो अकेले ही रहना चाहते हैं। वे हमारी सहायता नहीं चाहते। यह सबसे दुःसाध्य वर्ग है। और यह बहुत चुनौतीपूर्ण परिस्थिति भी है कि एक ओर बहिष्कृत भी अनुभव न करना और साथ ही उसे व्यक्तिगत रूप से भी न लेना। विशेष रूप से मैं चिकित्सालयों में रह रहे उन वृद्ध लोगों के बारे में सोच रहा हूँ जो अपनी औषधि लेने और अन्य ऐसे कामों में भी आना-कानी करते हैं जो उन्हें अनिवार्यतः करने चाहिए। परन्तु, भले ही वे हमारी सहायता न चाहते हों और अकेले रहना चाहते हों, फिर भी हमें उनके प्रति समान रवैया रखना होगा, ऐसा नहीं कि उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दें।

इस विचार से कि: "सब लोग सुख चाहते हैं, कोई भी दुःख नहीं चाहता", कहीं अधिक प्रभावशाली विचार यह होगा कि हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंतरंग मित्र या रिश्तेदार के रूप में देखें। चिकित्सालय में पड़ा व्यक्ति हो सकता है मेरी माता या पिता हो सकता था, और यदि वे होते तो मैं उन्हें अनदेखा करना या उनके साथ बुरा व्यवहार करना कभी नहीं चाहता। हम ऐसा भी सोच सकते हैं कि: "एक दिन मैं भी किसी चिकित्सालय में पड़ा रहूँगा और तब मैं नहीं चाहूँगा कि लोग मेरी उपेक्षा करें या मेरे साथ दुर्व्यवहार करें।" या फिर, यदि हम बच्चों के साथ व्यवहार कर रहे हों तो ऐसा सोच सकते हैं कि, "यह मेरा बच्चा भी हो सकता था।" या यदि कोई अपनी ही आयु का हो तो हम ऐसा सोच सकते हैं, "यह मेरा भाई, मेरी बहन, या मेरा अंतरंग मित्र भी हो सकता था।" यह हमें एक समदर्शी, उदार दृष्टिकोण को विकसित करने में सहायता कर सकता है कि सब लोग समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।

मूढ़ता के अधीन होकर कार्य करना

मन की एक और अशांतकारी स्थिति है मूढ़ता। मूढ़ता का अर्थ कुछ इस प्रकार है, जैसे हम अपनी व्यस्तता के कारण अपने सहयोगी के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं कर पाए, और उस सहयोगी की परिस्थिति के बारे में अपनी इसी अज्ञान और मूढ़ता के कारण हम उससे अच्छे ढंग से व्यवहार नहीं कर पा रहे हैं। स्मरण रहे कि हर किसी का अपना-अपना व्यक्तित्व, अपनी-अपनी कहानी, अपनी-अपनी पृष्ठभूमि होती है, और यह कोई सरल कार्य नहीं है जब हमें एक ही दिन में इतने सारे यजमानों से निपटना पड़े और हमारे पास एक भी यजमान पर पूर्ण रूप से ध्यान देने का समय न हो। परन्तु, हम चाहे किसी भी प्रकार की कार्य स्थिति में हों और एक-एक व्यक्ति से निपटने में चाहे जितना भी समय लग जाए, हमें उस व्यक्ति के बारे में जितना संभव हो सके उतनी अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि किसी भी व्यक्ति के बारे में जितनी अधिक जानकारी प्राप्त हो जाए, हम उस व्यक्ति की उतनी ही बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। लेकिन अगर हमें परवाह ही न हो, या हम बहुत थके हुए हों, या आलस्य का अनुभव कर रहे हों, तो दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता अत्यंत सीमित हो जाती है। अर्थात, जब हम काम कर रहे होते हैं तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम सदा अपने और अपनी निजी समस्याओं के बारे में ही सोचते रहें, अपितु हमें सामने वाले के बारे में ही चिंता करनी चाहिए। तो हमें इस प्रकार के चिंतन आदि से दूर रहना होगा जो हमारे काम को अप्रभावी बना दे, जो विनाशकारी हो, जो हमारे काम के लिए हानिकारक हो। यदि मैं केवल यही सोचता रहूँ कि, "हाय! मेरे घर में यह समस्या है और वह समस्या है," तो उसका परिणाम यह होगा कि मैं अपने यजमान पर ध्यान ही नहीं दे पाऊँगा।

अतिभावुक एवं भावाभिभूत होते हुए कार्य करना 

चित्त एवं भावनाओं की अनेक दशाएँ होती हैं जो हमारे काम को कम प्रभावशाली बना देती हैं। जिन क्लेशों का मैंने अभी उल्लेख किया, उनके अतिरिक्त ऐसी भी एक स्थिति है जब हम अतिभावुक हो जाते हैं। मान लीजिए कि हम किसी ऐसे व्यक्ति से निपट रहे हैं जो दुर्घटना आदि से ग्रस्त है, और हम अतिभावुक और गहन भावावेश से त्रस्त हो जाएँ और स्वयं ही रोने-बिलखने लगें, तो हम किसी भी हालत में उस व्यक्ति की सहायता नहीं कर पाएँगे। ऐसे में, दो अतिवादों से बचने के लिए एक प्रकार के नाज़ुक संतुलन को बनाए रखना अनिवार्य है। एक अतिवाद है भावशून्य हो जाना, किसी भी प्रकार की अनुभूति का न होना। और दूसरा है घटनाओं के प्रति इतना अतिभावुक हो जाना कि हम अपने ही काम करने में अक्षम हो जाएँ।

भावशून्यता के अतिवाद तक जाने और किसी भी प्रकार की अनुभूति न होने से बचने के लिए हमें इस बात को याद रखना होगा कि मानव संपर्क के प्रति प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिक्रिया उत्साहपूर्ण होती है। वह यह नहीं चाहता कि कोई उसके साथ यंत्रवत व्यवहार करे। मान लीजिए कोई अस्पताल में पड़ा है, तो उनके लिए एक मुस्कान, उनके हाथ को अपने हाथों में लेना - इस प्रकार के संवेदनापूर्ण व्यवहार में मानवीयता की भावना, एक प्रकार का सौहार्द की भावना होती है जो दूसरों की सहायता करने में महत्त्वपूर्ण होती है।

दूसरी ओर हमें यह समझ लेना चाहिए कि अनावश्यक रूप से अतिभावुक होना इस बात को दर्शाता है कि हम केवल अपने ही बारे में सोचते हैं: "हाय, मुझसे यह नहीं देखा जाता। यह तो हद हो गई। यह कितना भयानक है।" ऐसे में मूल रूप से हम तो केवल अपने ही बारे में सोच रहे होते हैं। हम दूसरे व्यक्ति के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहे होते। हम अपनी प्रतिक्रिया के बारे में ही सोच रहे होते हैं। मान लीजिए हमारे बच्चे को चोट लग जाए और हम उन्माद-ग्रस्त होकर रोना-बिलखना शुरू कर दें, तो हम बच्चे की सहायता तो कर ही नहीं पाएँगे, उलटा उसे भी भयभीत कर देंगे। अपने बच्चे को शांत करने के लिए हमें स्वयं शांत रहना पड़ेगा और स्पष्टता से सोचना पड़ेगा कि किस प्रकार उसकी सहायता की जाए (मान लीजिए कि उसके घाव हो गया हो और बुरी तरह से खून बह रहा हो)।

मैं जिन भी बातों का उल्लेख कर रहा हूँ वे सब नैतिक आत्मानुशासन की श्रेणी में आती है, और यह नैतिक आत्मानुशासन कुशल व्यवहार में प्रवृत्त होने के लिए अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, हमें अपनेआप को इन विधियों में प्रशिक्षित करना होगा ताकि हम उन अतिवादी स्थितियों तक न पहुँचें जिनकी हम अभी चर्चा कर रहे थे। सकारात्मक (कुशल) व्यवहार केवल निरंतर शिक्षा ही नहीं है अपितु उसमें दूसरों की प्रभावशाली एवं संतुलित रूप से सहायता करने के लिए अनिवार्य भावात्मक कुशलता को विकसित करना भी सम्मिलित है। और इस क्षेत्र में हमारी सहायता करने के लिए बौद्ध धर्म अनेक प्रकार की विधियाँ प्रदान करता है।

दूसरों की सहायता करने में प्रवृत्त होना

आलस्य-त्याग

तीसरे प्रकार के नैतिक आत्मानुशासन, नामतः दूसरों की सहायता में संलग्न होने के लिए हमें आलस्य को त्यागना होगा। आलस्य के कई आयाम हैं। एक है अन्य आलम्बनों में मन का उलझ जाना। उदाहरण के लिए, "मेरा प्यारा टेलीविज़न कार्यक्रम चालू है और मैं उसे देखना चाहता हूँ क्योंकि मुझे आपकी सहायता करने से कहीं अधिक पसंद है उस कार्यक्रम को देखना।" या फिर अत्यंत तुच्छ विषयों में उलझ जाना भी आलस्य का एक रूप है। "मैं अभी बिस्तर से उठकर काम पर जाने के बजाय कुछ समय और लेटे रहना चाहता हूँ।" यही तो है आलस्य, है न?

आलस्य का एक और स्वरूप है टाल-मटोल करना, कार्यों को आगे के लिए टाल देना, तुरंत न करना। जब हम कोई भी काम करते हैं, तो आप जानते ही हैं कि कामों का ढेर लग जाता है। एक सिलसिला-सा बन जाता है। वह रुकता नहीं। जैसे ही काम आते हैं - मान लीजिए हमारे कंप्यूटर में, ई-मेल आदि, या हमारी मेज़ आदि पर - यदि हम उन्हें हाथ के हाथ नहीं निपटाते तो उनका ढेर लग जाता है, और कालान्तर में वह एक त्सुनामी की भाँति हम पर हावी हो जाता है और हम उसके बोझ तले दब जाते हैं, क्योंकि अब करने को यह ढेर जो पड़ा हुआ है। यदि हम एक व्यस्त, दुष्कर उद्यम में लगे हैं तो अपने कामों को कल के लिए नहीं टाल सकते। जैसे-जैसे काम आते जाएँ उन्हें वैसे-वैसे ही निपटाना होगा।

अब बात यह है कि हमें चाहिए वह जिसे हम प्रचंड तप, या अनवरत प्रयत्न, कहते हैं। तप - काम करते ही रहना, भले ही हम थक गए हों; हमें तो यह काम समाप्त करना ही है। परन्तु एक ऐसा समय तो आएगा ही जब हमें विश्राम करना पड़ेगा, क्योंकि अब हम अपने काम से या अन्य लोगों से प्रभावी ढंग से निपट नहीं सकेंगे; हम बुरी तरह से थक गए होंगे। लंबे समय तक काम करते रह पाने का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है यह जान लेना कि हमें कब आराम करना है एवं उसी समय किसी प्रकार के अपराध-बोध से ग्रस्त हुए बिना वास्तव में आराम कर लेना। लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि हम अपनेआप को शिशु समझ लें और बस आराम ही आराम करते रहें। यह तो आलस्य का एक रूप है: आराम करते रहना क्योंकि यह काम करने से कहीं अधिक सुखद है।

विश्राम करने के लिए हमें यह जानना होगा कि वह क्या है जो विश्राम तथा ऊर्जा का पुनःसंचार करने में हमारी सहायता करेगा। कुछ लोगों के लिए तो केवल एक छोटी-सी झपकी या कुछ देर के लिए सो जाना ही पर्याप्त होता है। दूसरों के लिए हो सकता है बाहर जाना और स्वच्छ हवा में टहलना आरामदेह हो। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें यह आराम फिल्म या टेलीविज़न देखने से मिलता हो। फिर कुछ लोगों के लिए खाना पकाना विश्रामदायक है। ऐसे बहुत-से काम हैं जो अलग-अलग लोगों के लिए आरामदायक होते हैं - पुस्तक पढ़ना, आदि। क्रिया की विशिष्टता महत्त्वपूर्ण नहीं है। पते की बात यह है कि हम यह जान लें कि हमें कब विश्राम करना है और यह भी कि वह क्या है जो हमारे विश्राम में सहयोग देगा, और फिर जब हमें पूरी तरह से विश्राम मिल जाए तो उठकर पुनः अपने काम पर लग जाने का अनुशासन होना।

एक विचार जो हमें अपने काम पर वापस जाने से पीछे खींचता है वह है "मेरा मन नहीं कर रहा।" उसके लिए हमें अपनी प्रेरणा (समुत्थान) को और सशक्त करना पड़ेगा। हम दूसरों की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं। हम जो कर रहे हैं उससे दूसरों को निश्चित रूप से  सहायता प्राप्त हो रही है। यदि हमें सहायता की आवश्यकता हो, तो हमें यह अच्छा नहीं लगेगा कि जिस व्यक्ति पर हम भरोसा कर रहे हैं वह अत्यंत व्यस्त हो, या बहुत ही थका हुआ हो, या हमारे पास आने से पहले वह अपने टेलीविज़न पर पूरा कार्यक्रम देखना चाहता हो। तो, जैसे हमें अच्छा नहीं लगेगा यदि कोई व्यक्ति, जिसपर हम भरोसा कर रहे हों, हमारे साथ इस तरह का व्यवहार करे, ठीक वैसे ही हम पर भरोसा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हमारे बारे में भी लगेगा। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बौद्ध-धर्मी पद्धति है, जो यह कहती है कि अपनेआप को दूसरे के स्थान पर रखकर यह सोचो कि हमें कैसा लगेगा यदि कोई हमारे साथ ठीक ऐसा ही व्यवहार करे जैसा हम उसके साथ कर रहे हैं।

हमने आलस्य के दो रूप देखे हैं, तुच्छ चीज़ों में उलझने वाला आलस्य, कामों को आगे के लिए टालने वाला आलस्य। तीसरे प्रकार का आलस्य है अपर्याप्तता की अनुभूति: "मैं अभी अयोग्य हूँ। मैं यह नहीं कर सकता। यह तो बहुत जटिल है।" यह एक बहुत बड़ी बाधा है। अब, यह हो सकता है कि हमें यह न पता हो कि हम किस प्रकार किसी की सहायता कर सकते हैं। ऐसा प्रायः होता है। हो सकता है कि, उदाहरण के लिए, यह समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ अधिक ही होता हो। परन्तु यह सोच लेना कि: "मैं अयोग्य हूँ। मैं नालायक हूँ।" और मनोवैज्ञानिक और भावात्मक रूप से अपनेआप को प्रताड़ित करना बिल्कुल निरर्थक होगा, क्योंकि यह वस्तुतः एक प्रकार का आलस्य ही है। यह इस दृष्टिकोण से आलस्य है कि हम और अधिक प्रयास नहीं करना चाहते; हम इस निष्कर्ष पर तुरंत पहुँच जाते हैं: "मैं अयोग्य हूँ।"

हम कोई बुद्धजन तो हैं नहीं, कम-से-कम अभी तो नहीं, तो स्पष्टतः हम यह नहीं जानते हैं कि दूसरों के लिए सबसे अच्छा क्या है। हम भूल तो करते ही हैं। आख़िर हम इंसान जो ठहरे। परन्तु बड़ी बात है कि हमें प्रयत्न करते ही रहना चाहिए, न कि आलस्य के आगे घुटने टेक देना। और यदि हमें कोई प्रभावशाली परामर्श नहीं सूझता तो परहित के विषय में दूसरों की राय भी, यदि उपलब्ध हो, ले सकते हैं। यद्यपि हम जिनकी सेवा कर रहे हैं उनकी सहायता की ज़िम्मेदारी हमें लेनी ही चाहिए, तथापि हमें यह भी चाहिए कि इस तरह के अतिवादी विचारों से परहेज़ करें, जैसे, "मैं मसीहा हूँ और मैं ही सबकी रक्षा करूँगा।" क्योंकि, इस कारण से कि मैंने उनकी रक्षा की है, यह विचार आसानी से लोगों को मुझ पर निर्भर बनाने और मेरा आभारी बन जाने का एक अवचेतन अभियान बन जाएगा, और परिणामस्वरूप हम ईर्ष्यालु हो जाते हैं यदि हमारे अतिरिक्त कोई दूसरा उनकी सहायता कर देता है। परन्तु यदि हमारा समुत्थान (प्रेरणा) वास्तव में यह है कि दूसरा व्यक्ति लाभान्वित हो जाए, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि सहायता करने वाला कौन था। मुख्य बात यह है कि लोग अपनी समस्याओं से उबर पाएँ। और यदि हमें यह लगता है कि हम वास्तव में उसकी सहायता करने में सक्षम नहीं हैं - और यहाँ मेरा संकेत है वस्तुनिष्ठ रूप से सक्षम नहीं हैं - तो यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि ऐसा न हो कि हम अपने अहंकार के चंगुल में फँसकर उस व्यक्ति को किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ सौंपने से चूक जाएँ जो हम जानते हैं उसकी सहायता हमसे बेहतर कर पाएगा।

इसलिए प्रेरणा (समुत्थान) की पुनःपुष्टि अत्यंत महत्त्वपूर्ण विधि है जिसपर बौद्ध धर्म में बार-बार बल दिया गया है। यहाँ किसी भी प्रकार के सामाजिक कार्य में लगने की हमारी प्रेरणा यह है कि दूसरे व्यक्ति को उसकी समस्या से निपटने में उसकी सहायता करना ताकि उसकी जो भी समस्या है उससे वह मुक्त हो जाए। और इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि मुझे ही यह काम करना होगा, यद्यपि, जैसा मैंने पहले कहा है, हमें अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करना होगा: "मैं इसकी सहायता करने का यथा-संभव प्रयास करूँगा।"

परहितकारी मनोदृष्टि का विकास करना

नैतिक आचरण हमारी परहितकारी मनोदृष्टि पर पूर्णतया निर्भर करता है: "मैं दूसरों पर अपने व्यवहार के प्रभाव की परवाह करता हूँ।" ऐसा नहीं है कि मैं केवल नौकरी पीट रहा हूँ और वेतन कमा रहा हूँ और मुझे दूसरों की परवाह नहीं है, और न ही इस बात की कि मैं जो कर रहा हूँ वह उपयोगी है भी या नहीं। और हमें इस बात की भी परवाह करनी होगी कि हमारे व्यवहार का हमारे अपने ऊपर भी क्या प्रभाव पड़ रहा है। परहितकारी मनोदृष्टि कार्य-कारण सिद्धांत का पूर्ण बोध तथा उसे गंभीरता से लेने पर आधारित है। हम एक निश्चित प्रकार की प्रेरणा (समुत्थान) से युक्त एक निश्चित विधि के अनुसार कार्य करते हैं - और उसका एक निश्चित प्रभाव होगा, और हम पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि उसका प्रभाव होगा। इसके बारे में गंभीर होने और परवाह करने का यही तात्पर्य है। हम जो कुछ भी करते हैं उसका निश्चित रूप से दूसरों पर और अपने ऊपर भी प्रभाव पड़ता है।

इसलिए जब हम परहितार्थ इस नैतिक अनुशासन से बँधे हुए हैं, जो तीसरे प्रकार का नैतिक अनुशासन है, तो यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारी परहितकारी मनोदृष्टि होनी चाहिए। लेकिन कुशल (रचनात्मक) व्यवहार के पीछे भी इसी परहितकारी मनोदृष्टि का नैतिक अनुशासन होता है। उदाहरण के लिए, "मुझे इस बात की परवाह है कि मैं अपने काम में प्रभावशाली बनूँ, इसलिए मैं अपनी शिक्षण एवं प्रशिक्षण को बनाए रखने के अनुशासन को विकसित करूँगा।" और यह परहितकारी मनोदृष्टि स्वयं को अकुशल व्यवहार से दूर रखने के नैतिक अनुशासन का भी आधार है। "चूँकि मैं अपने व्यवहार का दूसरों एवं अपने ऊपर जो प्रभाव होगा उसकी परवाह करता हूँ, इसलिए मैं हानि नहीं पहुँचाना चाहता।" अधिक सुनिर्दिष्ट रूप से: "मैं क्रोध और आसक्ति और मूढ़ता और ईर्ष्या के प्रभाव में आकर हानि नहीं पहुँचाना चाहता," इत्यादि; या अहंकार: "यद्यपि मुझे यह नहीं पता कि किस प्रकार से सहायता करनी है, मैं तो ढोंग करूँगा ही कि मैं सबकुछ जानता हूँ।"

इस परहितकारी मनोदृष्टि के लिए हमारे भीतर मूल्यों - नैतिक मूल्यों - का मूलभूत बोध तथा सद्गुणों एवं सद्गुणी व्यक्तियों के प्रति आदर की भावना होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम उन लोगों को अपना आदर्श मानते हैं जो परहित के हमारे कार्यक्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट हैं - चाहे वह मदर टेरेसा हों या कोई और - और ऐसे व्यक्ति के लिए हमारे मन में बहुत आदर और सम्मान होता है, और यही हमारा आदर्श उदाहरण है। हमारे कार्यक्षेत्र में किसी प्रकार के प्रेरणादायक आदर्श का होना बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिनका हम सम्मान कर सकें और जो हमारे लिए अनुकरणीय हों। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमारी उस व्यक्ति से भेंट हुई है या नहीं। हम इस व्यक्ति का सम्मान इसलिए करते हैं क्योंकि हम अपने मूल्यों का सम्मान करते हैं। हम यह मानते हैं कि जिस तरह से उन्होंने अपना जीवन जिया है वह अत्यंत मूल्यवान है, और मैं उसका आदर करता हूँ। और इसके अतिरिक्त हमें यह भी लगता है कि हमारे पास ऐसा बनने के लिए हर प्रकार की मूलभूत कार्य सामग्री भी है। इसी को बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं में बुद्ध-धातु कारक के नाम से जाना जाता है। "मेरा एक शरीर है। मेरी सम्प्रेषण क्षमता है। मेरा एक हृदय है, भावनाएँ हैं। मेरे पास बुद्धि है: मैं समझ सकता हूँ। मेरी क्षमताएँ हैं। मैं सीख सकता हूँ।" तो हमारे भीतर ये सारे गुण हैं। यही हमारी कार्य सामग्री है। और इसलिए हमें यह एहसास हो जाता है कि हम वास्तव में इन प्रेरणादायी व्यक्तियों की तरह बन सकते हैं। इसलिए हमारे मन में आत्म-सम्मान है, आत्म-गौरव की भावना है, और इसके कारण हमें अपने काम करने की विधि की परवाह होती है और हम आत्मानुशासन भी बरतते हैं। यह भावना है कि: "निश्चिततः मैं श्रेष्ठतर काम कर सकता हूँ। निश्चिततः मैं सेवा कर सकता हूँ।" और हम इसे एक सकारात्मक मूल्य मानते हैं।

तो ये थे समाज सेवा में नैतिकता की भूमिका के बारे में बौद्ध शिक्षाओं पर आधारित मेरे कुछ विचार। यदि आप अपनी पढ़ाई इस प्रकार के क्षेत्र में कर रहे हैं तो यह कुछ सकारात्मक करने का, अपने इस जीवन के द्वारा कोई महत योगदान करने का, एक अद्भुत अवसर है। इस प्रकार के काम करने से जीवन सार्थक और मूल्यवान बन जाता है क्योंकि हम इससे वास्तव में दूसरों को लाभान्वित करते हैं। बर्लिन, जर्मनी में, जहाँ का मैं निवासी हूँ, मेरे कुछ ऐसे छात्र हैं जो इस प्रकार के काम में लगे हुए हैं। मेरा एक छात्र किसी मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा केंद्र में काम करता है जो घोर मानसिक विकलांगता - डाउन सिंड्रोम - से ग्रस्त बच्चों की देखभाल करने और उनकी सेवा करने का एक सुविधा स्थल है। मेरा एक और छात्र नर्स है और वह वयोवृद्ध अशक्त लोगों की देखभाल करता है। और ये सब अद्भुत व्यवसाय हैं। निस्संदेह इन कामों के लिए बहुत अधिक धैर्य और अनुशासन की आवश्यकता होती है, पर हैं ये अत्यंत लाभप्रद। हाँ, एक और गुण की भी आवश्यकता है - प्रबल नैतिकता-बोध। इसलिए, यदि आप अपने जीवन को इस दिशा में ले जा रहे हैं तो मैं आपकी अत्यधित सराहना करता हूँ।

प्रश्न

शंकालु होने जैसी मनःस्थितियों से निपटने के लिए क्या किसी प्रकार की बौद्ध-धर्मी विधियाँ हैं?

दूसरों पर शक करना एक प्रकार की भ्रांत भयग्रस्त मनोदशा है जिसमें व्यक्ति सदा यह सोचता है: “लोग मेरे शत्रु हैं। पता नहीं उनकी क्या मंशा है?" इत्यादि। इसके दो आयाम हैं। एक है असुरक्षा की भावना जिसके कारण हम सदा यह सोचते रहते हैं कि लोग मेरे शत्रु हैं, कोई है जो मुझे हानि पहुँचाना चाहता है। यह बोध असुरक्षा की भावना पर आधारित है। और दूसरा आयाम है अतिसंवेदनशीलता, आवश्यकता से अधिक भावुक प्रतिक्रिया होना।

अब असुरक्षा की भावना को दूर करने के लिए हम उससे कई अलग-अलग स्तरों पर निपट सकते हैं। साधारणतया अपने जीवन की घटनाओं से निपटने की अपनी क्षमता पर हमें तो पूर्ण विश्वास होता है। ऐसे में बुद्ध शाक्यमुनि का उदाहरण मुझे बहुत ही उपयोगी लगा। "ऐसा नहीं था कि बुद्ध को सब पसंद करते थे, तो मैं अपने लिए क्या उम्मीद करूँ? क्या मैं यह सोचूँ कि सब लोग मुझसे प्यार करेंगे?" यह पूरी तरह से अयथार्थवादी है। सबको खुश करना तो पूर्णतया असंभव है। स्वयं बुद्ध ऐसा नहीं कर पाए, तो मुझे भी इस प्रकार की आशा नहीं रखनी चाहिए कि मैं सबको सुख दे पाऊँगा और सब मुझसे प्यार करेंगे। मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास करता हूँ - मेरी मंशा अच्छी है - अब लोग इसे पसंद करें या न करें यह उनकी समस्या है। मुझे यह सिद्धांत अत्यंत उपयोगी लगता है। और निश्चित रूप से हम जितना अधिक प्रशिक्षण लेते हैं, उम्र के साथ-साथ उतना ही अधिक अनुभव मिलता जाता है, और सामान्यतः हम उत्तरोत्तर अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं। जब आप युवा होते हैं, अपनी किशोर अवस्था में, यह स्वाभाविक है कि अनुमोदन के विषय को लेकर आप और अधिक असुरक्षित अनुभव करेंगे। अर्थात आप चाहेंगे कि अधिकाधिक लोग आपको पसंद करें, आदि।

हमें अपने सद्गुणों की पुनःपुष्टि करने की आवश्यकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी कमियों को नकारें या अनदेखा कर दें, परन्तु यदि हम इन कमियों पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं तो हम अत्यंत असुरक्षित अनुभव करने लगते हैं। ऐसा तो नहीं है कि किसी भी व्यक्ति में केवल कमियाँ ही कमियाँ हों; हम सबके भीतर कुछ-न-कुछ सद्गुण भी होते हैं, और हमें इस बात को बार-बार स्मरण करते रहने की आवश्यकता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि हम दम्भी और अहंकारग्रस्त हो जाएँ, परन्तु हमें एक आत्मविश्वास का अनुभव तो होना ही चाहिए।

अति संवेदनशील होना, आवश्यकता से अधिक भावुक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति, किसी भी बात पर परेशान हो जाना - इस प्रकार की परिस्थितियों में हमें इस प्रकार सोचना चाहिए: "इस तरह की प्रतिक्रिया किसी के काम नहीं आती।" यह हमें अपने जीवन से जूझने में अक्षम बना देती है और हमारे आस-पास के सभी लोग बहुत असहज अनुभव करने लगते हैं। किसी भी परिस्थिति में हम दूसरों के बारे में जितना अधिक सोचेंगे, उतना ही अधिक उदार होंगे, और स्थितियों से भावात्मक रूप से निपटते हुए भी हम उतना ही अधिक शांत रहेंगे। यहाँ प्रायः माँ का ही उदाहरण दिया जाता है। माँ किसी बात को लेकर बहुत परेशान हो सकती है, परन्तु अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए - जैसे उनके लिए रात का भोजन बनाना - वह अपनी परेशानियों को किनारे रखकर उनके लिए जो भी करना है वह करती है।

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