नैतिक आत्मानुशासन का विकास

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नैतिक आत्मानुशासन बौद्ध-धर्मी मार्ग का एक मूलभूत अंग है। परन्तु यह विचारणीय है कि हम नैतिकता को सभी आध्यात्मिक परंपराओं में पाते हैं; और सच तो यह है कि आध्यात्मिक परंपराओं में ही नहीं, अपितु नैतिकता तो सभी सामाजिक प्रणालियों में पाई जाती है। अब यह निश्चित करना है कि वे कौन से कारक हैं जो बौद्ध-धर्मी नैतिकता को "बौद्ध-धर्मी" बनाते हैं, और इसके लिए हमें चार आर्य सत्यों - बुद्ध की मूल शिक्षा - के संदर्भ में इसकी जाँच करनी होगी।

चार आर्य सत्यों के संदर्भ में नैतिक व्यवहार

पहला आर्य सत्य: सबको अनिवार्य रूप से दुःख का अनुभव करना पड़ता है

जीवन का पहला सत्य यह है कि हम सब दुःख सत्य का सामना करते हैं। पहला दुःख सत्य है दुःख कातरता की सामान्य यंत्रणा। फिर है हमारे सामान्य सुख से जुड़ी समस्याएँ जैसे यह सच्चाई कि सुख सदा के लिए नहीं रहता और न ही वह आनंद प्रदान करता है। एक तो हमें यह कभी नहीं पता होता कि आगे क्या होने वाला है, और यदि हमें सुख प्राप्त हो भी जाए तो वह प्रायः दुःख में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण के लिए, बहुत अधिक आइसक्रीम खाने से पेट में दर्द होना। और अंत में है वह सर्वव्यापी दुःख जो प्रथम दो प्रकार के दुःखों का आधार है। सर्वव्यापी दुःख है हमारा संसार (अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म), जिसका कार्य है हमारे कर्म, जो स्वयं हमारे क्लेश एवं उपादान से उत्पन्न होते हैं। ये क्लेश एवं उपादान व्यावहारिक कार्य कारणों तथा तत्त्व (आलम्बनों के अस्तित्व) की हमारी अविद्या या अज्ञानता से उत्पन्न होते हैं। इस अविद्या के कारण हमारा पुनर्जन्म होता रहता है, और यह पुनर्जन्म ही हमारे प्रथम दो प्रकार के दु:खों का कारण है। इस प्रकार अविद्या के कारण क्लेश एवं उपादान उत्पन्न होते हैं, फलस्वरूप हम बाध्यकारी कर्म करते हैं, जिन कर्मों के कारण हमारे कर्मफल संचित होते हैं, और ये कर्मफल हमें आवर्ती संसार की प्राप्ति कराते हैं। प्रथम दो प्रकार के दुःख, अर्थात् कातरता एवं सांत और असंतोषजनक सामान्य सुख, के उतार-चढ़ावों का आधार है संसार (अनियंत्रित पुनर्जन्म)।

दूसरा आर्य सत्य: दुख के कारण

दूसरा आर्य सत्य है दु:ख का समुदय सत्य। हमारे दुखों का समुदय सत्य है हमारी अविद्या (व्यवहार सम्बन्धी कार्य-कारण, एवं धर्म की अनभिज्ञता), अज्ञान के कारण पैदा हुए क्लेश (लोभ, क्रोध, मूढ़ता), एवं बाध्यकारी कर्म जो अविद्या से प्रेरित हैं।

तीसरा आर्य सत्य: दु:ख को रोकना संभव है

तीसरा आर्य सत्य है उस अविद्या का इस प्रकार सत्य निरोध हो सकता है कि तीनों प्रकार के दुःख की कभी पुनरावृत्ति हो ही नहीं।

चौथा आर्य सत्य: दु:ख निरोध का मार्ग

चौथा आर्य सत्य है वास्तविक मार्ग या उस मार्ग का बोध जो सत्यनिरोध की प्राप्ति कराएगा। वास्तविक मार्ग है स्वभावजन्य कार्य-कारण एवं यथार्थ का विशुद्ध बोध। यदि हम इस संसार से मुक्ति पाने के दृढ़ निश्चय के साथ इस विशुद्ध बोध को विकसित करते हैं तो हम पहले दो आर्य सत्यों (सत्य दुःख तथा उसके हेतु) से मुक्त हो जाएँगे और हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। परन्तु दूसरों की सर्वोत्तम सहायता करने के लिए हमें और गहराई में जाने की आवश्यकता है; हमें उन बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता है जो आलम्बनों के अन्तर्सम्बन्धों को समझने से हमारे चित्त को रोकते हैं।

यदि हम आलम्बनों के अन्तर्सम्बन्ध को समझते हैं तो हम स्वभावजन्य कार्य-कारण को पूरी तरह समझ पाते हैं, अर्थात् हम यह जान पाते हैं कि किस प्रकार हम दूसरों की सर्वोत्तम सहायता कर सकते हैं; हम यह पाते हैं कि हम जो भी दूसरों को सिखाएँगे उसका परिणाम क्या हो सकता है। प्रेम (दूसरों के सुखी रहने और सुख के कारणों को प्राप्त होने की कामना) और करुणा (दूसरों के लिए दु:ख और उसके कारणों से विमुक्ति की कामना) के आधार पर हम उस अध्याशय (असाधारण संकल्प) को विकसित करते हैं जिसके द्वारा हम सभी सत्त्वों को मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर ले जाने का उत्तरदायित्व लेते हैं। परन्तु यह समझते हुए कि हमारी वर्तमान स्थिति में हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते, हम बोधिचित्त को विकसित करने में लग जाते हैं। बोधिचित्त के द्वारा हम अपनी ज्ञानोदय प्राप्ति के लक्ष्य को बनाते हैं ताकि हम दूसरों को भी इस स्थिति की प्राप्ति तक ला सकें। यदि हम इस बोधिचित्त प्रेरणा को यथार्थ के अपने बोध से जोड़ लेते हैं तो हमें ज्ञानोदय प्राप्त हो जाएगा - हम बुद्धजन बन जाएँगे।

तो, संक्षेप में, यह है बौद्ध-धर्मी मार्ग। नैतिक आत्म-अनुशासन के द्वारा हम अकुशल (विनाशकारी) कृत्यों से दूर रहते हैं ताकि हम निकृष्टतर पुनर्जन्मों से बच जाएँ और इसके स्थान पर श्रेष्ठतर पुनर्जन्म प्राप्त कर सकें। यह सच है कि कई अन्य आध्यात्मिक परंपराएँ भी हैं जो स्वर्ग में उच्च पुनर्जन्म प्राप्त करने के प्रयोजन से नैतिक आत्म-अनुशासन सिखाती हैं; यानी श्रेष्ठतर पुनर्जन्म का लक्ष्य केवल अनन्य रूप से बौद्ध-धर्मी नहीं है। बौद्ध धर्म में नैतिकता के अभ्यास (श्रेष्ठतर पुनर्जन्म हेतु नकारात्मक, अकुशल व्यवहार से बचना) का वह स्तर मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति के मार्ग का प्रथम सोपान है। ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु साधना के लिए हमें कई उच्चतर पुनर्जन्मों की आवश्यकता होगी, इसलिए नैतिक व्यवहार का अभ्यास करने का एक बहुत ही सकारात्मक प्रयोजन है। अर्थात, जो तथ्य इस स्तर की साधना को बौद्ध-धर्मी बनाता है वह है बोधिचित्त के साथ नैतिक अनुशासन की साधना, जिसके द्वारा अंततः मोक्ष तथा ज्ञानोदय प्राप्ति होगी।

त्रिशिक्षा

बौद्ध धर्म में हम तीन उच्च साधनाओं (त्रिशिक्षा) की बात करते हैं, जिसका अभ्यास व्यक्तिगत मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति की प्रेरणा से युक्त होकर किया जा सकता है। अधिप्रज्ञाशिक्षा (उच्चतर प्रज्ञा का प्रशिक्षण) ही उच्चतम प्रशिक्षण होता है। और यह है यथार्थ एवं कोरी कल्पना या भ्रान्ति के बीच विभेद करने की क्षमता। इस प्रकार प्रज्ञा उस कुल्हाड़ी की तरह होती है जो भ्रम या अविद्या को काटती है।

इस अधिप्रज्ञाशिक्षा को काम में लाने की क्षमता को उच्च एकाग्रता या अधिसमाधि कहा जाता है। समाधि का अर्थ है हमारे ध्यान का बिना भटके या कुंठित हुए किसी भी आलम्बन पर, विशेष रूप से उसके यथार्थ पर, ध्यान केंद्रित कर पाने की क्षमता - और वह भी तब तक उसी तरह संकेंद्रित रहने की क्षमता जब तक हम चाहें । ध्यान केंद्रित करने की यह क्षमता कुल्हाड़ी से अपने लक्ष्य पर सही तरह से प्रहार कर पाने की क्षमता के समकक्ष है; हमें कुल्हाड़ी से अपने लक्ष्य पर बार-बार और सही प्रकार प्रहार करना होगा, अर्थात भ्रम को जहाँ से हम काटना चाहते हैं उसी बिंदु पर बार-बार प्रहार करना होगा।

अधिसमाधि का आधार अधिशील (उच्च नैतिक आत्म-अनुशासन) है, और यहीं प्रस्तुत होता है नैतिकता और अनुशासन का हमारा विषय। समाधिस्थ होने के लिए हमें अपने मनसिकार (ध्यान) के भटकने और कुंठित एवं उनींदा होने पर उसे वापस लाने का अनुशासन होना आवश्यक है। उसके लिए हमें जिस अनुशासन की आवश्यकता है वह कुल्हाड़ी का प्रयोग करने के बल के समान है। तो नैतिक शील (आत्म-अनुशासन) है समाधि का आधार या पूर्वापेक्षा, जो स्वयं अधिप्रज्ञा (उच्चतम सविवेकी सचेतनता) का आधार है।

समाधि केवल उस समय ही लागू नहीं होती जब हम शून्यता या किसी आलम्बन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं। समाधि का अर्थ है सभी परिस्थितियों में ध्यान का सृजनात्मक रूप से संकेंद्रित होना। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी की सहायता कर रहे होते हैं तो आपको इस बात पर ध्यान देना होगा कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है। आपको सुनना होगा; ऐसा न हो कि आपका चित्त किसी अन्य विषय की ओर भटक जाए: जैसे, खाना कब मिलेगा? और आपको सतर्क रहने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है, न कि किंकर्तव्यविमूढ़ होने की। क्या कहना उचित होगा, क्या कहना लाभकारी होगा, क्या करना लाभकारी होगा, और क्या अनुचित और अनुपयोगी होगा, इन सब में विभेद (यह देखिए प्रज्ञा या सविवेकी सचेतनता का एक और अर्थ) करने के लिए आपको ध्यान देने (समाधिस्थ होने) की आवश्यकता है। तो एक बार फिर कहता हूँ, आप  जो भी करना चाहते हैं (जैसे दोपहर का भोजन करना) उसके बारे में नहीं सोचने के लिए शील (अनुशासन) की आवश्यकता है, और इसके स्थान पर आपको यह सोचना होगा कि वह क्या है जो दूसरे व्यक्ति  के लिए सबसे उचित होगा।

इसलिए शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) की बहुत आवश्यकता है; और बौद्ध-धर्म के संदर्भ में इसका अर्थ है यथार्थ एवं परहित पर प्रज्ञायुक्त होकर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता होना।

अब जब हम समाधि (एकाग्रता) की बात करते हैं, तो हम एक मानसिक कार्यकलाप की बात करते हैं, और उसके लिए हमें अनुशासन की आवश्यकता है - मुख्य रूप से चित्त का अनुशासन। यह तो स्पष्ट है कि हमें ध्यान-साधना में बैठने तथा आलस्य एवं मन की चंचलता को दूर करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता है। परन्तु चित्त को अनुशासित करना वाणी और शरीर के व्यवहार को अनुशासित करने से कहीं अधिक जटिल होता है। तो फिर अपने चित्त को अनुशासित करने की शक्ति कैसे प्राप्त करें? उसके लिए हमें सबसे पहले अपने शरीर एवं वाणी पर अनुशासन करना होगा।

नैतिकता पश्चिमी संदर्भ में

नैतिकता के बौद्ध-धर्मी एवं अन्य दृष्टिकोणों के बीच अंतर को समझना महत्त्वपूर्ण है। यहाँ अधिकांश लोग पश्चिमी या मध्य-पूर्वी संस्कृतियों में पले-बढ़े हैं, और पश्चिमी संस्कृति और मध्य-पूर्वी संस्कृति में नैतिकता मूल रूप से विधि-नियमों का विषय होती है। ईश्वर या अल्लाह द्वारा दिए गए दैवी नियम होते हैं, और वैधानिक क्षेत्र में ऐसे नियम हैं जो या तो राजा या फिर विधायी सरकार द्वारा बनाए जाते हैं। पश्चिमी संस्कृति में नैतिकता पूर्ण रूपेण आज्ञा पालन पर आधारित होती है - या दैवी नियम, या नागर नियम, या दोनों का पालन करना पड़ता है। यदि हम आज्ञा पालन करते हैं तो हम एक अच्छे व्यक्ति या अच्छे नागरिक माने जाते हैं, और यदि हम उनकी अवज्ञा करते हैं तो बुरे व्यक्ति या बुरे नागरिक माने जाते हैं। धार्मिक क्षेत्र में उस व्यक्ति को पापी घोषित कर दिया जाता है और नागरिक क्षेत्र में अपराधी।

इसलिए पश्चिमी या मध्य पूर्वी संदर्भ में उल्लंघन करने वालों को नैतिक रूप से बुरा माना जाता है और वहाँ की संस्कृति में अपराध-बोध पर बल दिया जाता है। वहाँ हमें दोषी माना जाता है - क़ानूनी तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही अर्थों में अपराधी। पश्चिम में हमारी नैतिकता का आधार है क़ानून के पालन की अवधारणा। यहाँ विचारणीय बात यह है कि समाज के कुछ सदस्य दंड से बच भी सकते हैं यदि वे बहुत चतुर हैं और उनके पास पर्याप्त धन-संपत्ति है जिसके सहारे वे क़ानून में कमियाँ ढूँढ़ निकालने के लिए वकील को नियुक्त कर सकते हैं ताकि वे किसी-न-किसी तरह क़ानून के फंदे से बच निकलने में सफल हो जाएँ।

बौद्ध-धर्मी संदर्भ में नैतिकता

नैतिकता के प्रति यह पश्चिमी या मध्य-पूर्वी मनोदृष्टि बौद्ध-धर्मी मनोदृष्टि से बिल्कुल अलग है। बौद्ध धर्म में नैतिकता आज्ञाकारिता पर बिल्कुल आधारित नहीं है; अपितु यह उस तथ्य पर आधारित है जिसे "प्रज्ञा" (सविवेकी सचेतनता) कहा जाता है। हमारी इस शब्दावली से पहले भी भेंट हुई है जब हम यथार्थ एवं कल्पना में विभेद करने की बात कर रहे थे। परन्तु इस बार यहाँ इसका मुख्य रूप से हितकर और अहितकर के बीच विभेद करने के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है। और, बड़ी बात यह है कि यह न्यायिक संदर्भ में वैध और अवैध का विभेद करने की अवधारणा से सर्वथा पृथक है। इस बात का स्मरण रहे कि समग्र बौद्ध संदर्भ का आशय यह है कि हम दु:ख से बाहर निकलना चाहते हैं या उससे छुटकारा पाना चाहते हैं। और ऐसा करने के लिए हमें दुःख के कारणों को समाप्त करना ही होगा। उसके लिए हमें यह समझना होगा कि दुःख का समुदय सत्य (वास्तविक कारण) क्या है। उसके बाद हमें उस कारण को समाप्त करने या उसे दूर करने की प्रेरणा की आवश्यकता होगी। निस्संदेह सब लोग सुखी रहना चाहते हैं; यह एक नैसर्गिक अंतःप्रेरणा है जो उत्तरजीविता की सहजवृत्ति से जुड़ी है, जो स्वयं एक अत्यंत मूलभूत सहजवृत्ति है। परन्तु अधिकांशतः हमें इस बात का बोध ही नहीं होता कि दुःख-निवृत्ति या आनंद-प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है।

इसलिए, प्रज्ञा और शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) अन्योन्याश्रित हैं। हम सही ढंग से इस बात का विभेद करते हैं कि "यदि मैं इस-इस प्रकार कार्य करता हूँ तो ये-ये समस्याएँ पैदा होंगी - संभवतः दूसरों के लिए भी, परन्तु मुख्य रूप से मेरे लिए। और यदि मैं कुशल (रचनात्मक) रूप से कार्य करता हूँ तो मेरा भला होगा ही, और हो सकता है दूसरों का भी भला हो जाए। और फिर, क्या हम अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार से बचने की चेष्टा करते हैं या नहीं यह तो हमारा व्यक्तिगत निर्णय होगा; यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अपनेआप को कितनी गंभीरता से लेते हैं और भविष्य में होने वाले कष्टों की कितनी चिंता करते हैं। हो सकता है कि ऐसा भी कोई व्यक्ति है जो यह नहीं जानता कि उसके लिए क्या हितकारी है, और यदि हमारी किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट हो जाती है जो कोरे अज्ञानतावश अकुशल कार्य कर रहा है, तो उसे इस बात को समझने में हमें उसकी सहायता करनी चाहिए।

एक सामान्य उदाहरण है छोटे बच्चों का। छोटे बच्चे इस बात को नहीं जानते कि, उदाहरण के लिए, हमें दूसरे बच्चों के खिलौने नहीं तोड़ने चाहिए या उनसे उनके खिलौने नहीं छीनने चाहिए; यह बात उन्हें सिखाने की आवश्यकता है। पश्चिमी प्रशिक्षण हमें इस बात के लिए प्रेरित कर सकता है कि उस शरारती बच्चे पर "बुरी लड़की" या "बुरे लड़के" की चिप्पी लगा दें, परन्तु सच्चाई यह है कि वे इससे बेहतर और कुछ जानते ही नहीं। तो बात यह है कि यहाँ बच्चे को अपराध-बोध ग्रस्त कराने की आवश्यकता नहीं है - बल्कि यहाँ तो अपराध-बोध की बात ही नहीं है - यहाँ बात केवल शिक्षा की है। यदि हम बच्चों को यह सिखाते हैं कि उनके व्यवहार का परिणाम उन्हें भुगतना ही होगा, यदि हम उन्हें इस बात को समझने में उनकी सहायता करते हैं कि जब वे बुरा व्यवहार करते हैं तो दूसरे बच्चे उन्हें पसंद नहीं करेंगे, तो वे निश्चित रूप से समझ जाएँगे और संभल जाएँगे।

यदि हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो भ्रमित होने के कारण अकुशल व्यवहार करता है तो वह व्यक्ति करुणा का उपयुक्त पात्र है - क्रोध या दंड का नहीं। वह करुणा फिर कई रूप ले सकती है, यहाँ तक कि यदि वह दूसरों को चोट पहुँचाता है तो उसे कारागृह में बंद करना भी उसमें सम्मिलित है। परन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि वह काम भी करुणा-युक्त होना चाहिए - हम उस व्यक्ति को इसलिए जेल में डालते हैं ताकि वह दूसरों को चोट न पहुँचाएँ और इसलिए भी कि वह अपने लिए और अधिक समस्याएँ न खड़ी करें। नागरिक अव्यवस्था के प्रति बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण अपराध और दंड के न्यायिक दृष्टिकोण की तुलना में पृथक है।

पश्चिमी नैतिकता को बौद्ध धर्म पर आरोपित न करें

बौद्ध धर्म का अभ्यास करते हुए यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि हम नैतिकता के पश्चिमी विचारों को बौद्ध धर्म पर आरोपित न करें। हमारी बौद्ध-धर्मी साधनाओं के दौरान हमें बहुत-सी कठिनाइयों का केवल इसलिए सामना करना पड़ता है क्योंकि हम अपनी पश्चिमी नैतिकता की अवधारणाओं को अपनी साधना में अनुपयुक्त रूप से आरोपित करने का प्रयास करते हैं। बौद्ध धर्म के हमारे अभ्यास में कई समस्याएँ आती हैं क्योंकि हम, पश्चिम देशवासी होने के नाते, अपने बौद्ध अभ्यास पर नैतिकता के अपने पश्चिमी विचार को अनुपयुक्त रूप से आरोपित करते हैं। कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है कि उन्हें बौद्ध-धर्मी साधना इसलिए करनी चाहिए कि वे "अच्छे" बुद्धजन बन सकें। पश्चिम में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें यह लग सकता है कि उन्हें अपने शिक्षक की बात को सम्पूर्ण रूप से मान लेना चाहिए, पर यह अवधारणा बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से अत्यंत विचित्र है। वास्तव में हमें शिक्षक का परामर्श लेना चाहिए और साथ ही अपने ज्ञान का भी प्रयोग करना चाहिए। कभी-कभी हमें अपने बुद्धि-बल का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु शिक्षक निपट निरर्थक बातें कह देते हैं।

बुद्ध के पिछले जन्म का एक वृत्तांत है, जब वे कई अन्य छात्रों के साथ किसी गुरु के पास अध्ययन कर रहे थे। गुरु ने सभी छात्रों से कहा कि वे पास के गाँव से उनके लिए कुछ चोरी करके लाएँ। बुद्ध के इस पिछले अवतार को छोड़कर बाकी सभी छात्र कुछ चुराने के लिए निकल पड़े - केवल बुद्ध अपने कमरे में बैठे रहे। गुरु उनके कमरे में गए और उन्होंने पूछा: “तुमने मेरे लिए चोरी क्यों नहीं की? क्या तुम मुझे सुख नहीं देना चाहते?" इस पर बुद्ध के पिछले अवतार ने कहा, "हम चोरी करके किसी को सुख कैसे दे सकते हैं?" तो इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि गुरु की आज्ञा का बिना अपनी बुद्धि लगाए पालन करना, मानो वे गुरु नहीं बल्कि कोई पुलिसवाला या सेना का अधिकारी हों, बौद्ध धर्म की रीति नहीं है। इसके विपरीत गुरु परामर्श देते हैं और साथ ही मार्गदर्शन भी करते हैं। गुरु हमें अपने ज्ञान का उपयोग करना सिखाते हैं ताकि हम स्वयं बुद्धजन बन जाएँ। हमारा लक्ष्य किसी बुद्धजन का सेवक बनने का नहीं है; हमारा लक्ष्य स्वयं बुद्ध बनने का है।

पश्चिमी अवधारणा के विधि-नियम अपरिवर्तनीय हैं

पश्चिमी नैतिकता और बौद्ध-धर्मी नैतिकता के बीच एक और अंतर यह है कि पश्चिम में यह विश्वास है कि विधि-नियम अनतिक्रमणीय हैं - वे मानो आत्मसंभव हैं। लोगों को लगता है कि दैवी नियम, जो ईश्वर प्रदत्त है, बदला नहीं जा सकता। नागरिक क़ानून भी, जब तक वे प्रभावी हैं, अनुल्लंघनीय माने जाते हैं, भले ही वे विधायी प्रक्रिया के माध्यम से बदले जा सकते हों। हम शून्यता की ध्यान-साधना के दौरान जो करते हैं उसी को यहाँ समझने का प्रयास कर रहे हैं। शून्यता का तात्पर्य है अस्तित्व के असंभव रूपों का न होना। तो शून्यता को समझने के लिए हमें अस्तित्व के असंभव तरीकों को पहचानने की आवश्यकता है और इस बात को समझने की भी कि ये तरीक़े किसी यथार्थ को संदर्भित नहीं करते। अस्तित्व के प्रमुख असंभव तरीकों में से एक यह है कि किसी भी आलम्बन (इस सन्दर्भ में क़ानून) की कोई ऐसी अंतर्भूत विशेषता है जो उसे स्थापित करती है या अपनी शक्ति के द्वारा किसी अन्य वस्तु के सहारे के बिना ही उसे अस्तित्वमान बनाए रखती है। नागरिक क़ानूनों के संदर्भ में असंभव विचार इस प्रकार है: "यही क़ानून है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि परिस्थितियाँ क्या हैं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि विशेष स्थिति क्या है, या उसका संदर्भ क्या है। क़ानून स्वःस्थापित होता है और वह स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान है।"

हाल ही में स्विट्ज़रलैंड का एक मामला सामने आया था जहाँ फ़िल्म निर्देशक रोमन पोलांस्की को संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार की माँग पर गिरफ़्तार किया गया ताकि उसे तीस वर्ष पुराने किसी कथित यौन शोषण अपराध के लिए संयुक्त राज्य अमरीका को प्रत्यर्पित किया जा सके। यह उस मानसिकता का एक उत्तम उदाहरण है कि "इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आरोप 30 साल पहले लगाए गए थे। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि फ़रियादी महिला अपने आरोपों को वापस लेना चाहती है। क़ानून क़ानून होता है, बस। कोई भी क़ानून से बढ़कर नहीं होता। उसे दंड भोगना ही पड़ेगा।" यह इस विचार का एक अत्यंत उत्तम उदाहरण है कि क़ानून अन्य कारकों से स्वतंत्र, आत्मसंभव एवं अन्य कारकों से निरपेक्ष है, क़ानून तो क़ानून ही है, और उसका पालन किया जाना चाहिए, फिर चाहे जो हो जाए। बौद्ध दृष्टिकोण में यह धारणा मिथ्या है।

मार्गदर्शी सिद्धांत के रूप में बौद्ध-धर्मी नैतिकता 

बुद्ध ने उन कृत्यों के संबंध में अनेक मार्गदर्शी सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जो स्वाभाविक रूप से दुःख के कारण हैं या आध्यात्मिक प्रगति के लिए क्षतिकारक होते हैं। उदाहरण के लिए, भिक्षुओं और भिक्षुणियों को मध्याह्न के पश्चात भोजन ग्रहण करना निषिद्ध है क्योंकि इससे वे मानसिक मन्दता के शिकार बन जाते हैं। यद्यपि बुद्ध ने आचरण सम्बन्धी अनेक मार्गनिर्देश सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं, बौद्ध उपदेश या नैतिक दिशानिर्देश (उदाहरण के लिए, अहिंसा का उपदेश) कोई ऐसा नियम  नहीं है जो पत्थर पर लकीर के समान कोई अनुल्लंघनीय आदेश हों। ऐसा नहीं है कि ये दिशानिर्देश अति-पवित्र हों, तथा परिस्थिति, संदर्भ, या अन्य लघुकारी कारकों से पूरी तरह परे हों। अपितु बौद्ध-धर्मी नैतिक दिशानिर्देश “प्रतीत्यसमुत्पाद” हैं (उनकी अवलम्बित उत्पत्ति है)। अर्थात् वे कार्य-कारणों पर आश्रित हैं और स्थिति-संदर्भ एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में उत्पन्न या घटित हुए हैं।

हम इस तथ्य को मठवासी संवरों के विकास के द्वारा अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। बौद्ध-धर्मी समुदाय के प्रारम्भिक दिनों में किसी प्रकार के संवर नहीं हुआ करते थे। पर बौद्ध-धर्मी समुदाय में उत्पन्न अनेक परिस्थितियों के कारण समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं - ये समस्याएँ या तो मठवासी समुदाय के सदस्यों के बीच उत्पन्न हुईं, या फिर मठवासियों और उनकी सहायता कर रहे जनसाधारण के बीच। तो बुद्ध ने कहा, "इस समस्या से बचने के लिए इस काम को न करें," और उसी से सँवरों की उत्पत्ति हुई। जब आप विनय  (अनुशासन के संवर एवं नियम) का अध्ययन करते हैं तो आप यह पाते हैं कि उस ग्रन्थ में प्रत्येक नियम के लिए सम्बंधित संवर के उद्भव का विवरण प्रायः दिया गया है - ऐसी कौन-सी परिस्थिति थी जिसके कारण बुद्ध ने अमुक संवर की घोषणा की। तथापि इन सभी संवरों के साथ-साथ यह प्रावधान भी दिया गया है कि यदि किसी भी मार्गनिर्देश को अन्य कारक निष्प्रभावित कर देते हैं तो हो सकता है कि सम्बद्ध संवर का उल्लंघन भी करना पड़ जाए।

उदाहरण के लिए, विनय  में यह कहा गया है कि काम-वासना जाग्रत होने से बचने के लिए भिक्षु को यह चाहिए कि वह किसी भी स्त्री का स्पर्श न करे। परन्तु यदि कोई महिला डूब रही हो तो भिक्षु को वहाँ केवल खड़े होकर देखते नहीं रहना है - उसे उस महिला को डूबने से बचाना है। तो यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि कभी-कभी अनिवार्यता निषेधाज्ञा पर हावी हो जाती है, और विनय  में इस बात की विशेष अनुमति भी है। बौद्ध धर्म में नैतिकता और मार्गनिर्देश सापेक्ष हैं - वे स्थिति-विशेष सापेक्ष हैं। यदि अकुशल (विनाशकारी) रूप से कार्य करने की आवश्यकता होती है और उस कार्य के कारण दु:ख होता है, तो हम बहुत सावधानी से आगे बढ़ते हैं। और हम इस बात के प्रति भी सचेत रहते हैं कि "मैं परहित हेतु इस काम से होने वाले दुःख को स्वयं अपने ऊपर ले लूँगा।"

बुद्ध के एक पूर्वजन्म की एक अन्य कथा इस बात का दृष्टांत देती है। उस जीवन काल में शाक्यमुनि बुद्ध एक नाविक के रूप में अवतरित हुए थे, और उस कथा के अनुसार एक बार एक नाव में 500 व्यापारी कहीं जा रहे थे। उस नाव पर एक मल्लाह था जो सभी व्यापारियों को लूटने के लिए उन्हें मार डालने की मंशा रखे हुए था; बुद्ध ने अपनी अतीन्द्रिय दृष्टि से इस बात को भाँप लिया था। और बुद्ध इस बात को भी जानते थे कि स्वयं उस मल्लाह की हत्या करने के अतिरिक्त इस सामूहिक हत्याकाण्ड को रोकने का और कोई उपाय भी नहीं था। तो, 500 लोगों के जीवन एवं उस मल्लाह को उसके इस कर्म के भयानक परिणामों से बचाने के लिए बुद्ध ने स्वेच्छा से और जानते-बूझते उस मल्लाह की हत्या के कर्मफल को अपने ऊपर ले लिया।

नैतिकता और बोधिसत्व संवर

बोधिसत्व संवरों में मूल संवर तथा सहायक (अनुपूर्वक) संवर सम्मिलित हैं। अधिकांश अनुपूर्वक संवरों को षट्पारमिताओं (छ: व्यापक मनोदृष्टियों) की श्रेणियों के अनुसार व्यवस्थित किया गया है। (ये छ: पारमिताएँ इस प्रकार हैं: उदारता, नैतिक आत्म-अनुशासन, क्षान्ति, वीर्य [सहर्ष निष्ठा बनाए रखना], ध्यान, तथा प्रज्ञा।) बोधिसत्व संवर बोधिचित्त के विकास को बाधित करने वाले सदोष कर्मों को करने से रोकने का वचन है। इनमें से दो संवर नैतिक आत्म-अनुशासन के विकास के सन्दर्भ में प्रासंगिक हैं। पहला यह कि दूसरों के कल्याण के विषय में संकीर्ण मानसिकता को त्यागना। उदाहरणार्थ, क्षुद्र मनोदृष्टि हमें इस प्रकार सोचने पर मजबूर कर सकती है: यह व्यक्ति मेरी सहायता के योग्य नहीं है। उसमें कई सारे दोष हैं - तो मैं उसकी सहायता करने की चेष्टा भी क्यों करूँ? या फिर: यह मेरी ध्यान-साधना का समय है, इसलिए मैं आपकी मदद नहीं कर सकता; मेरी समय सूची के अनुसार मुझे इस समय ध्यान-साधना करनी चाहिए और मैं इस विषय में आपके लिए कोई छूट नहीं दे सकता – इसलिए फिर कभी आएँ। यह संकुचित मनोदृष्टि है।

क्षुद्र मनोदृष्टि का एक और उदाहरण: मान लीजिए आपके धर्म केंद्र में एक भिक्षु है जिसे किसी भारी सामान को कहीं ले जाना है, और उसने अपना चीवर सही ढंग से नहीं पहन रखा है। क्षुद्र मनोदृष्टि यह कहती है कि: मैं उसकी सहायता तब तक नहीं करूँगा जब तक कि वह अपने चीवर को ढंग से नहीं पहन लेता। यह मनोदृष्टि महत्त्वपूर्ण बातों, जैसे इस सन्दर्भ में उस भिक्षु को वह भारी सामान लेने में सहायता करना, को भुलाकर नगण्य विषयों को प्रोत्साहित करती है। हम एक अन्य उदाहरण लेते हैं: मान लीजिए कि एक स्वयंसेवक मेरे अंग्रेज़ी के भाषण का जर्मन भाषा में अनुवाद कर रहा है। यदि मैं उसके व्याकरण या उच्चारण को ठीक करना शुरू कर दूँ तो यह मेरी क्षुद्रता होगी। इस प्रकार की आलोचना श्रोताओं को मेरी बात समझाने के हमारे वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकती।

दूसरा प्रासंगिक बोधिसत्व संवर है अकुशल (विनाशकारी) कृत्यों को करने से अपनेआप को न रोकना बशर्ते उस कृत्य की पृष्ठभूमि प्रेम और करुणा हो। यदि मेरी संतान पेट में कीड़ों के कारण परेशान है तो मैं यह तय कर सकता हूँ कि मैं उन कीड़ों को मारने के लिए अपनी संतान को औषध नहीं दूँगा क्योंकि बौद्ध धर्म में परहत्या दस अकुशल कर्मों में से एक है; मैं इस बात पर विश्वास करता हूँ कि नियमों का निरपवाद पालन करना अत्यावश्यक है। परन्तु, बात यह है कि मुझे अपनी संतान के लिए प्रेम और करुणा होनी चाहिए; मुझे उस संतान को वैद्य के पास ले जाना चाहिए; मुझे अपनी संतान को कीटनाशक औषध देनी चाहिए। निस्संदेह यह अकाट्य सत्य है कि वे कीड़े अपने किसी पूर्वजन्म में मेरी माँ रहे होंगे और यह बात भी उतनी ही सत्य है कि मेरा कर्तव्य बनता है कि उन कीड़ों के साथ मुझे स्थितप्रज्ञता का व्यवहार करना चाहिए। परन्तु बच्चे का इलाज न करने का अतिवाद भी तो मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, एक प्रकार का धार्मिक कट्टरतावाद। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि वह बच्चा पेट में पल रहे कीड़ों की तुलना में इस वर्तमान जीवनकाल में दूसरों की कहीं अधिक सहायता करने में सक्षम होगा। इसलिए हम उन कीड़ों को मारते समय अपने मन में घृणा और क्रोध नहीं लाते ("मर जा बुरे कीड़े!"); अपितु हम उन कीड़ों को करुणाभाव से देखते हैं और उनकी कुशलता की कामना करते हैं, उन्हें मारने में हमें कोई सुख नहीं मिलता। तो इसका सार यह है कि कभी-कभार अकुशल कृत्य करना पड़े तो करें परन्तु प्रेम और करुणा के भाव से।

अड़ियल होने के दुष्परिणाम

यह उस प्रकार की समस्या है जिसका आधार यह विचार है कि: नियम तो नियम होता है, बौद्ध-धर्मी नैतिकता नियमों पर आधारित है, और यदि वे लिखित हैं तो अलंघनीय और अपरिवर्तनीय हैं। हमें यह बात सिखाई गई है कि परिस्थिति का विश्लेषण करो और वास्तविक समस्या को पहचानो। जब हम नियमों के उग्र रूप का अक्षरशः पालन करने की बात का विश्लेषण करते हैं तो प्रश्न यह उठता है कि वास्तविक समस्या क्या है, या यह कि नियमों पर धर्मांध विश्वास का मूल कारण क्या है? समस्या है आत्मग्राह, या मिथ्या "मैं" को पकड़े रहना। हमारा अपने बारे में एक द्वैतवादी दृष्टिकोण बन जाता है। एक ओर है ठोस "मैं" का अस्तित्व, जो उद्दंड है और जिसे अनुशासित रखने की आवश्यकता है; और दूसरी ओर एक अन्य "मैं" का जो अनुशासन प्रेमी है। हम सोचते हैं कि "मुझे ऐसा करने से अपनेआप को रोकना पड़ेगा," जैसे कि एक ओर "मैं" है, जिसे दूसरी ओर खड़े "अपनेआप" को किसी प्रकार की मूर्खता करने से रोकना है। यह मानसिकता दो ठोस "मैं" - सम्भाव्य अपराधी और पुलिसकर्मी - के अस्तित्व के हमारे विश्वास को दृढ़ करता है। और उस "मैं" पर नज़र रखने के लिए हम जिस सतर्कता को तैनात करते हैं, वह हमारे मन में बसे एक सत्यसिद्ध के.जी.बी. गुप्तचर की भाँति बन जाता है जो हमारे अपने व्यवहार की जासूसी करता है। हम इस बात पर भी विश्वास कर लेते हैं कि नियम ठोस रूप से अस्तित्वमान है। और इस गुप्तचर-रुपी ठोस "मैं" में विश्वास करने का परिणाम क्या है? इसका परिणाम यह है कि हम अत्यंत ज़िद्दी और अड़ियल बन जाते हैं।

शांतिदेव के बोधिसत्त्वचर्यावतार  ग्रन्थ के कुछ छंदों का मिथ्याबोध अनुशासन के इस अशुद्ध बोध को और सुदृढ़ कर सकता है। जब आप कुछ मूर्खतापूर्ण कार्य करने वाले होते हों या कुछ अकुशल बात कहने वाले होते हों (ग्रन्थ में अकुशल व्यवहार की एक लंबी सूची दी गई है), तो यह ग्रन्थ कहता है कि आप "काष्ठ-खंड की तरह बन जाओ।" इस बात का हम इस प्रकार गलत अर्थ भी निकाल सकते हैं: लकड़ी के तख्ते की तरह बन जाओ, यानी यंत्र-मानव की तरह बन जाओ। यदि हम इस अड़ियलपन को अपनाते हैं तो इस प्रकार भी सोच सकते हैं कि "मैं कोई क्रिया नहीं करूँगा; मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं करूँगा; मैं कुछ भी नहीं करूँगा।" यह इस परामर्श की सही व्याख्या नहीं होगी। लकड़ी के तख्ते की तरह होने का तात्पर्य यह है कि “उस पाप कर्म को नहीं करने के विचार का दृढ़ता से पालन करना”; इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं किसी लट्ठे की तरह उद्दंड बना रहूँ"। जब हम इस मिथ्या "मैं" पर विचार करते हैं तो हम यंत्र-मानव की भाँति अड़ियल बन जाते हैं; हमें लगता है कि "मुझे इस उद्दंड "मैं" को अनुशासित करने की आवश्यकता है, वर्ना मैं बुरा बन जाऊँगा।"

बौद्ध-धर्मी नैतिकता को समझने की कुशल पद्धति

तो, हमें तनावमुक्त होने की आवश्यकता है। और यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम उचित नैतिक अनुशासन बनाए रखते हुए तनावमुक्त रहें। पर प्रश्न यह है कि हम इसे किस प्रकार साकार करें? सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि हम यहाँ नियमों की बात नहीं कर रहे हैं - हम मार्गदर्शी सिद्धांतों की बात कर रहे हैं। एक मार्गदर्शी सिद्धांत यह कहता है कि यदि हम दु:ख से बचना चाहते हैं या उसे कम करना चाहते हैं तो यह संस्तुत किया जाता है कि उस प्रासंगिक क्रियाविधि को यथासंभव त्याग दें। यह कोई नियम नहीं है जिसका हमें अनिवार्यतया पालन करना होगा भले ही हम उसके उद्देश्य से अनभिज्ञ हों, या फिर हमें ऐसा लगे कि वह नियम निरर्थक है। ऐसा नहीं है। बौद्ध-धर्मी नैतिकता कोई निरर्थक नियमावली नहीं है। बुद्ध ने करुणावश कुछ निश्चित विषयों पर प्रकाश डाला ताकि हम स्वयं समस्याओं का शिकार न बन जाएँ। ये दिशानिर्देश करुणा, समस्याओं के कारण, तथा वे कार्य जो समस्याओं को दूर कर सकते हैं, इन तीनों के आधार पर निरूपित किए गए हैं। हम जिन-जिन परिस्थितियों का सामना करते हैं वे सब भिन्न-भिन्न हैं; प्रत्येक स्थिति में क्या करना लाभकारी होगा और किन-किन कृत्यों से हमें बचना चाहिए इन सब बातों पर निर्णय लेने के लिए हमें प्रज्ञा का उपयोग करना होगा। यह बोध (कि क्या करना है और क्या नहीं) संभावित अपराधी तथा अनुशासनकारी पुलिसकर्मी वाले द्वैतवाद के भाव पर आधारित नहीं होना चाहिए, अपितु स्वाभाविक, स्वतः स्फूर्त होना चाहिए।

चित्त संस्कार के रूप में नैतिक आत्म-अनुशासन

बौद्ध धर्म में नैतिक आत्म-अनुशासन का वास्तव में क्या तात्पर्य है? बौद्ध-धर्मी संदर्भ में हमारे अनुभव का प्रत्येक क्षण अनेक अलग-अलग घटकों में निर्मित होता है। इन संघटकों को पाँच समूहों में संयोजित किया जा सकता है, जिन्हें पंचस्कन्ध कहा जाता है। मान लीजिए कि हमें अभी-अभी कोई अनुभव हो रहा है - इसी क्षण। अभी, इस क्षण, मेरे अनुभव के कौन-कौन से घटक हैं? उसके अनेकानेक घटक हैं। स्पष्टतः मेरा शरीर मेरे इस अनुभव का एक घटक है; विभिन्न इन्द्रिय प्रणालियाँ भी प्रस्तुत हैं, जैसे कि मेरी आँखों की कोशिकाएँ। विभिन्न प्रकार की चेतनाएँ भी, जैसे कि दृष्टि और श्रवण। मेरे इस अनुभव में अलग-अलग भावनाएँ समाविष्ट हैं, अलग-अलग प्रकार के चित्तवृत्तियाँ भी, जैसे समाधि, मनसिकार, और अभिरुचि। तो, हमारे अनुभवों के प्रत्येक क्षण के इन घटकों को "पंचस्कन्ध" नामक पाँच समूहों में संयोजित किया जा सकता है। इन समूहों में जो वितरित किया गया है उसे "चित्त संस्कार" कहा जाता है। नैतिक आत्म-अनुशासन एक चित्त संस्कार है।

सबसे पहले तो चित्त संस्कार क्या है? हम चित्त संस्कार और "विज्ञान" (मूलभूत चेतना) के बीच के अंतर को समझते हैं। प्रत्येक क्षण हम सूचना प्राप्त करते हैं और उसको संसाधित करते हैं। यह जानकारी विद्युत और रासायनिक स्पंदन के रूप में हमारे मस्तिष्क में जाती है। विज्ञान मस्तिष्क में जाने वाली सूचनाओं को पहचानने का कार्य करता है। विज्ञान सूचनाओं के प्रकार के बारे में जानता है, जैसे कोई विशेष सूचना चाक्षुष है, या श्रव्य है, या किसी प्रकार की कायिक संवेदना, जैसे गर्म या ठंडा है, इत्यादि। तो हम सब इस घटित हो रहे "विदित" प्रपंच से सुपरिचित हैं - यदि हम विज्ञान-युक्त न होते तो ये स्पंदन, बिना किसी प्रकार के निर्वचन से युक्त, केवल सामान्य विद्युत् स्पंदन ही होते।

चित्त संस्कार विज्ञान से संलग्न होते हैं। वे विज्ञान की आनेवाली सूचनाओं से निपटने में सहायता करते हैं। चित्त संस्कार में मनसिकार (ध्यान देना), रुचि रखना, या सूचना से सुख या दुःख का अनुभव करना सम्मिलित हो सकता है। चित्त संस्कार मनोभाव हो सकते हैं जो सकारात्मक या नकारात्मक हो सकते हैं। कई प्रकार के चित्त संस्कार होते हैं। और हमारे अनुभवों के प्रत्येक क्षण से कई प्रकार के चित्त संस्कार जुड़े होते हैं। शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) इन चित्त संस्कारों में से एक है।

शील चित्त संस्कार की वह उप-श्रेणी है जिसे "चेतना" (मानसिक प्रेरणा) कहा जाता है। चेतना वह है जो हमारी मानसिक गतिविधि को किसी विशिष्ट आलम्बन की ओर ले जाती है; यह हमारे कृत्यों का कारण होती है। चेतना के उदाहरण हैं अपने सिर खुजाने की तीव्र इच्छा; कुछ कहने की तीव्र इच्छा; या फिर कुछ न कहने की तीव्र इच्छा, अर्थात कुछ भी कहने से परहेज़ करने की; या फिर रेफ़्रिजरेटर की ओर जाने की तीव्र इच्छा, इत्यादि।

रेफ़्रिजरेटर की ओर जाने की तीव्र इच्छा वह चित्त संस्कार है जो टेलीविज़न देखने के साथ संलग्न हो सकती है। टेलीविज़न देखते समय, शरीर (आंखों की प्रकाश-सुग्राही कोशिकाओं) और नेत्र चेतना (दृष्टि) के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक कई छवियाँ पहुँचती हैं, पर रेफ़्रिजरेटर की ओर जाने की भी इच्छा साथ में रहती है। बात यह है कि टेलीविज़न देखने के अनुभव के साथ वहाँ से उठकर रेफ़्रिजरेटर तक जाने की अंतःप्रेरणा संलग्न है। इसलिए हम उस तीव्र इच्छा को क्रियान्वित कर भी सकते हैं और नहीं भी। जब रेफ़्रिजरेटर की ओर जाने की इच्छा उत्पन्न होती है तो हम नैतिक आत्म-अनुशासन युक्त होकर इस निर्णय के आधार पर उस इच्छा को क्रियान्वित करने से अपनेआप को रोक सकते हैं कि "नहीं, मैं रेफ़्रिजरेटर की ओर नहीं जाऊँगा, भले ही मैं जाना चाहता हूँ। मैं रेफ़्रिजरेटर से केक का एक टुकड़ा लेना चाहता हूँ, पर मैं परहेज़ करूँगा क्योंकि मैं नियंत्रित पथ्य का पालन कर रहा हूँ।“

अब आइए हम शील की परिभाषा को समझने का प्रयास करते हैं। शील अपनी काया, वाणी, एवं चित्त की क्रियाओं का ध्यान रखने की चेतना है। "सुरक्षा" का अर्थ है अपनेआप को कुछ भी करने से बचाना; अर्थात् दूसरों को हानि पहुँचाने की कामना जनित लालसा से उत्पन्न क्रियाओं से अपने चित्त को मोड़ देने की तीव्र इच्छा। तो, चूँकि मैं दूसरों को चोट नहीं पहुँचाना चाहता, मैं अपने कृत्यों पर नज़र रखूँगा; मैं अकुशल (विनाशकारी) कार्य करने से परहेज़ करूँगा। यह वह तीव्र इच्छा है जो कहती है, "नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं अपनी बेटी को फलों का रस छलकाने के लिए पीटूँगा नहीं। मैं उस भूल के लिए उसपर चिल्लाऊँगा नहीं।" यह तीव्र इच्छा अतीत में दूसरों को हानि पहुँचाने हेतु प्रोत्साहित करने वाले क्लेशकारी तथा अकुशल चित्त संस्कारों से अपने मन को दूर रखने के प्रयासों से भी उत्पन्न हो सकती है। हमें क्रोध के कारण कार्य करने से परहेज़ करने की तीव्र इच्छा हो सकती है। क्रोध पर नियंत्रण पाने के प्रयास के आधार पर मेरे भीतर आत्म-अनुशासन की तीव्र इच्छा उठती है जो मुझे क्रोधित होने तथा उस क्रोध के अधीन होकर कुछ भी करने से रोकने में सहायता करती है।

शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) वह तीव्र इच्छा नहीं है जो केवल क्षणिक होती है (उदाहरण के लिए, उस क्षण जब मैं अपनी बेटी पर चिल्लाना चाहता हूँ मैं अपनेआप को रोक लेता हूँ, पर बाद में उसे भूल जाता हूँ), अपितु यह एक सामान्य मार्गदर्शी सिद्धांत के रूप में हमारे मानसिक समतान में विद्यमान है, यथा: "मैं एक निश्चित प्रकार के व्यवहार से परहेज़ करूँगा। मैं अपनेआप को चिल्लाने से रोकने के लिए स्मृति (सचेतनता) का उपयोग करूँगा जो एक प्रकार का मानसिक गोंद है, और मैं स्वयं को भटकने से रोकने के लिए सम्प्रजन्य (सतर्कता) का उपयोग करूँगा।”

दूसरों को हानि पहुँचाने वाले अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार से बचने के अतिरिक्त, शील की कई उप-श्रेणियाँ भी हैं। सामान्य भाषा में कहा जाए तो शील (अनुशासन) का तात्पर्य है उस अकुशल व्यवहार से बचना जो न केवल दूसरों के लिए अपितु मेरे लिए भी हानिकारक है, और साथ ही सकारात्मक कार्यों से परहेज़ करने से भी अपनेआप को रोकना। दूसरे शब्दों में मैं सकारात्मक कार्यों, जैसे ध्यान-साधना करने, अध्ययन करने, या अनेक प्रकार की आध्यात्मिक साधनाओं को करने के लिए आवश्यक अनुशासन से युक्त हूँ। और साथ ही, दूसरों की सहायता करने का नैतिक अनुशासन भी मेरे भीतर है।

तो इस प्रकार शील के तीन प्रकार हैं: अकुशल व्यवहार से बचना, कुशल (रचनात्मक) व्यवहार में संलग्न होना, और दूसरों की सहायता करना। शील वह चित्त संस्कार है जो हमारे चित्त को एक निश्चित दिशा में ले जाता है, और वह है हमारे व्यवहार पर नज़र रखना ताकि हम: अकुशल कार्यों में न फॅंसें, कुशल कार्य करते रहें, और दूसरों की सहायता करते रहें। नैतिक अनुशासन हमारे व्यवहार की चौकसी करता है - ध्यान से पहरेदारी करता है।

अप्रमाद नामक चित्त संस्कार

शील एक अन्य चित्त संस्कार है अप्रमाद (सहानुभूति युक्त मनोदृष्टि)। अप्रमाद को चित्त संस्कार के रूप में परिभाषित किया जाता है जो दूसरों की और अपनी परिस्थितियों को गंभीरता से लेता है, और उस परिस्थिति के कारण अप्रमाद हमारी कुशल मनोवृत्ति तथा उपकारी व्यवहार को संचित कराता है और हमें अकुशल मनोवृत्ति एवं हानिकारक व्यवहार से दूर रखता है। अप्रमाद का कभी-कभी "सावधानी बरतना" के रूप में भी अनुवाद किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैं इस बात को गंभीरता से लेता हूँ कि यदि मैं आप पर चिल्लाता हूँ तो आपको  बुरा लगेगा; और आपको बुरा लगने के अतिरिक्त मैं  भी अशांत हो जाऊँगा। परिणामस्वरूप, संभवतः मैं सो भी न पाऊँ और मुझे कष्ट हो। क्या हम इस बात को गंभीरता से लेते हैं? अप्रमाद मुझे अपने व्यवहार द्वारा दूसरों पर तथा अपनेआप पर भी होने वाले परिणामों पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह कुशल व्यवहार को संचित करने तथा अकुशल व्यवहार से बचने में मेरी सहायता करता है।

आत्म-अनुशासन के लिए अप्रमाद का होना आवश्यक है। यह इस बात को गंभीरता से लेने में हमारी सहायता करता है कि यदि मैं अकुशलता से कार्य करता हूँ तो समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी, या यदि मैं सहायता नहीं करता हूँ तो वह समस्याकारक होगा। एक उदाहरण देता हूँ। मान लीजिए कि कोई महिला है जो अपने शिशु की गाड़ी को सीढ़ियों से ले जाने का भरसक प्रयास कर रही है। अप्रमाद के कारण अब मेरा विचार यह बन जाता है कि: “यदि मैं शिशु और उसकी गाड़ी को सीढ़ियों से ऊपर ले जाने में उस महिला की सहायता नहीं करता हूँ तो वह मेरा स्वार्थ होगा। यदि मैं बच्चे के साथ होता तो निश्चित रूप मैं भी यही चाहता कि कोई मेरी सहायता करे।”

नैतिक अनुशासन से युक्त होने के कारण मैं सदा उपकार करते रहना चाहता हूँ। इसलिए मैं हर समय अनुशासन में रहता हूँ क्योंकि मैं अप्रमाद-युक्त हूँ; मैं अनुशासनबद्ध रहने के लिए स्मृति (सचेतनता) का उपयोग करता हूँ; किसी भी प्रकार के विचलन से बचने के लिए मैं सम्प्रजन्य (जागरूकता) का प्रयोग करता हूँ; और यह निश्चित करने के लिए कि क्या उचित है, क्या अनुचित है, और क्या है जो परिस्थिति के अनुकूल है, मैं प्रज्ञापारमिता (सविवेकी सचेतनता) का प्रयोग करता हूँ - पर मैं किसी नियम का अन्धवत पालन नहीं करता। हम यह किसी रूढ़ि के अधीन होकर नहीं करते हैं क्योंकि हमारी भावनाएँ विभाजित नहीं हैं, जहाँ एक ओर संभावित अपराधी "मैं" है और दूसरी ओर पुलिसकर्मी "मैं" जिसे सदा संभावित अपराधी पर निगरानी रखनी होती है।

जब हम बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से "मैं" की बात करते हैं तो एक "पारंपरिक मैं" का भी सिद्धांत सामने आता है। हम प्रत्येक क्षण को "मैं" के रूप में संदर्भित कर सकते हैं - मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ। और "मैं" केवल एक शब्द या अवधारणा नहीं है; यह एक वस्तु को संदर्भित करता है। यह कोई ऐसी स्वतंत्र इयत्ता नहीं है जो हमारे भीतर कहीं वास करती है। यदि आप शरीर या मस्तिष्क को अलग-थलग कर देते हैं तो भी आपको यह "मैं" कहीं नहीं मिलेगा। हमारी एक सम्पूर्ण कार्यप्रणाली है - शरीर, चित्त, एवं मनोभाव - जो कार्य कर रही है, इसलिए हम "मैं" और "अन्य" के बीच विभेद कर पाते हैं। अप्रमाद के कारण ही पारम्परिक "मैं" पर अपने व्यवहार के प्रभाव की हम चिंता करते हैं। यदि हमें पारम्परिक "मैं" का कोई बोध न होता, या कोई समझ न होती, तो हमें किसी प्रकार की कोई चिंता ही न होती। मुझे ज्ञानोदय प्राप्ति की कोई चिंता न होती; मुझे सुबह अपने बिस्तर से उठने की चिंता न होती। तो इस पारम्परिक "मैं" को नकारना नहीं चाहिए। परन्तु, जब हम अपनेआप को एक ठोस "मैं" के रूप में देखते हैं तो हमारे भीतर द्वैतभाव उत्पन्न हो जाता है: संभावित क़ैदी, और उस क़ैदी पर निगरानी रखने वाला पुलिसकर्मी; हम अत्यंत रूढ़िवादी हो जाते हैं, बहुत ही अड़ियल हो जाते हैं, और यही  है जिसके कारण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

तो, अस्तित्वमान पारंपरिक "मैं" और असंभव, मिथ्या "मैं", जो बिल्कुल अस्तित्वमान नहीं है, इन दोनों में विभेद करना अत्यंत जटिल है। इसमें अत्यधिक जाँच-पड़ताल और आत्म-निरीक्षण निहित है। परन्तु नैतिक और शील (आत्म-अनुशासन) युक्त होते हुए यदि हम इस प्रक्रिया में रूढ़िवादी बन जाते हैं, लचीले और सहज नहीं होते - दूसरे शब्दों में, हमें बेआरामी होती है - तो संभवतः हम अपनी साधना एक असंभव, ठोस "मैं", के आधार पर कर रहे होते हैं। यदि हम अधिक सहज हो जाते हैं तो हो सकता है हम शील (नैतिक अनुशासन) का गुणकारी ढंग से अभ्यास कर रहे हों। ध्यान रहे कि "सहज" का अर्थ लापरवाह नहीं है; वह है शील की दृष्टिकोण से अधिक लचीला और सहज होना। यदि हम सब इस बात को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक स्थिति के अनुकूल कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं कि दूसरों के लिए क्या लाभप्रद है, और स्वयं मेरे लिए क्या उपकारी है या क्या हानिकारक, तो इस बात की बहुत संभावना होगी कि हम पारमिताओं पर बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं द्वारा अभिप्रेत नैतिक आत्म-अनुशासन का अभ्यास कर रहे हैं।

षट्पारमिताएँ

शील (नैतिक अनुशासन), क्षान्ति, दान, वीर्य (सहर्ष निष्ठा बनाए रखना), ध्यान, तथा प्रज्ञा, जिन्हें सामूहिक रूप से पारमिता कहा जाता है, वास्तव में तब व्यापक हो जाती हैं जब उनकी साधना बोधिचित्त प्रेरणा-युक्त होकर की जाती है। (हीनयान में भी पारमिताएँ हैं। हीनयान का अर्थ है मोक्ष हेतु साधना करना, निःसरण युक्त साधना करना। परन्तु महायान बोधिचित्त-युक्त साधना होती है। इस प्रकार पारमिता दोनों हीनयान और महायान में विद्यमान है।) परन्तु दोनों ही स्थितियों में यदि आप पारमिताओं का अभ्यास करते हैं तो सदा यह परामर्श दिया जाता है कि इन षट्पारमिताओं में से प्रत्येक की साधना के साथ बाकी पाँच पारमिताओं की भी साधना की जाए। इसलिए, नैतिक आत्म-अनुशासन के साथ-साथ हमें प्रवृत्त "मैं", प्रवृत्त "तुम", तथा अध्ययन विषय की प्रज्ञा से भी युक्त होने की आवश्यकता है; इन सभी कारकों के अस्तित्व का संज्ञान होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

सारांश

यह थी बौद्ध धर्म में शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) की एक सारवत प्रस्तुति। यह अत्यंत मूलभूत अभ्यास है। शील का अभ्यास और विकास मोक्ष तथा ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचने के लिए किया जाता है, न कि केवल अच्छा नागरिक या अच्छा व्यक्ति बनने के लिए। यह नियमों के पालन पर आधारित नहीं है, फिर चाहे किसी दैवी शक्ति द्वारा तय किए गए नियम हों या प्रशासन द्वारा। अच्छा व्यक्ति या बुरा व्यक्ति होने की कोई अवधारणा नहीं होती; और न ही कोई अपराध, पुरस्कार, या दंड की। शील एक चित्त संस्कार है जिसमें इन तीन गतिविधियों में से एक अनिवार्यतया अंतर्भूत रहता है: (1) अकुशल व्यवहार से बचना (जो दूसरों के लिए तथा अपने के लिए भी विनाशकारी हो), (2) कुशल, पुण्यकारी व्यवहार (जैसे ध्यान-साधना) में लग जाना, या (3) परहित में यथा-संभव लग जाना। यह एक प्रकार की चेतना है जो हमारे व्यवहार को एक विशेष दिशा की ओर खींचकर ले जाती है। हम अकुशल कृत्यों से बचने, कुशल कृत्यों से परहेज़ करने से बचने, तथा परहित से संकोच न करने के लिए शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) पर आश्रित होते हैं। अप्रमाद, स्मृति, सम्प्रजन्य (सतर्कता), तथा प्रज्ञा (सविवेकी सचेतनता) सदा शील-रूपी चित्त संस्कार के सहवर्ती होते हैं।

प्रश्न

यदि हम इन अवस्थाओं को विकसित करने की विधि जान लेते हैं, तो क्या हमें इस विधि की आवश्यकता सदा के लिए रहेगी, या फिर कोई ऐसा समय भी आएगा जब हम बिना किसी प्रयास के, बिना किसी विधि की सहायता लिए ही, चित्त की इन अवस्थाओं को बनाए रख पाएँगे?

हाँ, कालान्तर में यह स्वाभाविक हो जाएगा। बौद्ध धर्म की साधनाओं के सभी सकारात्मक अभ्यासों को विकसित करने की प्रक्रिया इस प्रकार है, (1) पहले हम इसके बारे में सुनते हैं, और इस श्रवण के आधार पर हम अभ्यास करते हैं। परन्तु इसके पश्चात हमें (2) इसका तब तक मनन करते रहना होगा जब तक हमें इसका बोध नहीं हो जाता, और हम इस बात पर विश्वास नहीं कर लेते कि यह वास्तव में सत्य है। यदि आप शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) का केवल श्रवण करते हैं तो हो सकता है कि आप इसका अभ्यास कभी करे ही न। परन्तु श्रवण और मनन करने के पश्चात् हमें (3) ध्यान-साधना के द्वारा इसका अभ्यास करना होगा, अर्थात्  हम वास्तव में कारणों, प्रक्रियाओं, और कार्य-विधियों के द्वारा अपने नैतिक अनुशासन को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्मृति (सचेतनता), सम्प्रजन्य (सतर्कता), और अन्य विधियों द्वारा हम अप्रमाद (परहितकारी मनोदृष्टि) को विकसित करते हैं जो शील (नैतिक अनुशासन) का समर्थन करता है। ऐसी कई विधियाँ हैं जिनसे हम शील विकसित कर सकते हैं। कुछ विधियाँ इस प्रकार हैं: आध्यात्मिक गुरु के समीप रहना या सदा उनका स्मरण करते रहना; एक ऐसे समुदाय का अंग होना जो हमारे विकास का समर्थन करता हो; और ऐसे लोगों का हमारे आस-पास होना जो हमारी ही तरह सोचते और कार्य करते हों। इसे एक सायास विकास कहा जाता है; हमें श्रम, क्रिया, और प्रयास से अपनेआप को विकसित करना होगा। कालान्तर में यह अभ्यास प्रयास किए बिना, निरायास ही होता जाएगा; निरायास का तात्पर्य है कि आपको अपने उद्देश्य का स्मरण दिलाने के लिए किसी प्रकार की प्रक्रिया पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं होगी; वह स्मरण पूर्णतया स्वाभाविक हो जाएगा।

बोधिसत्व संवरों में (विशेष रूप से उनके अनुपूर्वक संवरों में) एक सूची है नौ आचरणों की जिनके चंगुल में हमें नहीं आना चाहिए - ये आचरण कुछ ऐसे व्यवहार हैं जो हमारे शील (नैतिक आत्म-अनुशासन) के विकास के लिए हानिकारक होते हैं। मैंने उनमें से कुछ का उल्लेख किया है; उदाहरण के लिए, दूसरों के कल्याण के विषय में संकीर्ण मनोवृत्ति का प्रदर्शन करना। हमें अपनेआप को इस बात की याद दिलाते रहना होगा। हमें इसे अपने व्यवहार में लाने के लिए स्वयं को स्मरण कराते रहना होगा क्योंकि हमें अपने विकास को हानि पहुँचाने वाले नकारात्मक परिणामों से बचना है। जब हमारा शील निरायास हो जाता है तो उसका यह अर्थ नहीं है कि हम बोधिसत्व संवरों की उपेक्षा करने लगें; न ही उसका यह अर्थ है कि हमें अब उनकी आवश्यकता नहीं रही। अपितु, उसका सीधा-सा अर्थ यह है कि अब हमें अपनेआप को अपने उद्देश्य का लगातार स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं रही क्योंकि हमें वह संवर स्वतः स्मरण हो जाता है - वह सदा हमारे मन में रहता है। और यह केवल इतना ही नहीं कि "मुझे वह याद है" जिसका तात्पर्य है कि "मुझे उसके शब्द स्मरण हैं" या "मैं उसे मुँह ज़ुबानी सुना सकता हूँ"; अपितु उसका सही आशय यह है कि मेरे व्यवहार में शील (आत्म-अनुशासन) पूर्ण रूप से समाहित हो चुका है और इसमें कोई बरजोरी नहीं है। पहले पहल तो ये सारे अभ्यास बनावटी लगते हैं। पर लगातार अभ्यास से वे सहज रूप से आत्मसात हो जाते हैं। यदि हम इस शब्दावली का मोटे तौर पर प्रयोग करें तो हम यह कह सकते हैं कि यह अंतर वैचारिक (कल्पित) और निर्वैचारिक (अकल्पित) बोध के बीच का अंतर है। (पारिभाषिक दृष्टि से देखा जाए तो कल्पित  और अकल्पित  दोनों शब्दों का यह सही प्रयोग नहीं है, पर पश्चिम में हम इन शब्दों का प्रयोग इसी प्रकार करते हैं।) दूसरे शब्दों में, पहले तो हमें शील का कल्पित (वैचारिक) बोध होता है, फिर कालान्तर में हमें इसका अकल्पित (निर्वैचारिक) बोध प्राप्त हो जाता है, और शील (आत्म-अनुशासन) हमारे व्यवहार में स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त रूप से समाहित हो जाता है।

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