समीक्षा
हम बोधिसत्त्व संवरों के बारे में बात करते रहे हैं और हमने बौद्ध-धर्म के मार्ग में उनकी भूमिका पर दृष्टि भी डाली है। हमने यह देखा कि उन्हें ग्रहण करने के लिए हमें पहले से ही बौद्ध-धर्मी पथ पर लाम-रिम, अर्थात् चित्तमार्ग के क्रमिक स्तर, के विभिन्न चरणों से होते हुए अपने बोधिचित्त को विकसित करना होगा। बोधिचित्त को विकसित करने के लिए अपनेआप को प्रशिक्षित करना होगा। बोधिचित्त के विकास के साथ ही हमें पहले भावशून्य प्रवृत्त बोधिचित्त अवस्था को अपनाना होगा जिसके द्वारा हम परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की केवल इच्छा जाग्रत करते हैं, जो केवल कामना वाला भाग है; और फिर आता है वह प्रतिज्ञाबद्ध भाग जिससे हम इसे कभी न त्यागने की प्रतिज्ञा करते हैं। हमने इस प्रतिज्ञाबद्ध अवस्था के लिए आवश्यक प्रशिक्षणों के बारे में भी चर्चा की। उसके बाद हमने संक्षेप में देखा कि बोधिसत्त्व संवर किस प्रकार ग्रहण किए जाते हैं और संवरों का स्वरूप क्या होता है।
फिर हमने स्वयं बोधिसत्त्व संवरों पर ही चर्चा प्रारम्भ की, और हमने अब तक पहले तीन संवरों पर दृष्टि डाली है। पहला संवर था आत्म-प्रशंसा करना और/या दूसरों का तिरस्कार करना। हम दोनों कृत्यों को एक साथ कर सकते हैं या फिर दोनों में से किसी एक को भी कर सकते हैं, इस संवर में ये दोनों ही विकल्प समाविष्ट हैं। हमने देखा कि ऐसा निर्धारित किया गया है कि वह व्यक्ति जिसे हम सम्बोधित कर रहे हैं उसका हमसे निचले स्तर का होना अनिवार्य है। आत्म-प्रशंसा का हमारा समुत्थान है उस निचले स्तर के व्यक्ति से भौतिक लाभ, प्रशंसा, प्रेम, या सम्मान प्राप्त करने की कामना एवं लोभ। दूसरे को तुच्छ ठहराने का समुत्थान है ईर्ष्या - अर्थात् हम उस व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं। इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमारा कथन सत्य है या असत्य।
इसका एक अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवर भी है जो इसके समरूप है (आत्म-प्रशंसा करना और/या दूसरों का तिरस्कार करना), परन्तु यहाँ समुत्थान पृथक है। यहाँ समुत्थान है अहंकार: अर्थात् हमें बहुत अहंकार है और हम बहुत ही घमण्डी हैं - यानी अपने को अति-उत्कृष्ट समझते हैं। तो हम इस तरह से शेखी बघारते हैं "मैं बहुत ही अद्भुत हूँ," और फिर अपना ही गुणगान करते हैं। यह हुआ आत्म-स्तुति का समुत्थान, पर यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि हम जिनके आगे यों शेखी बघारते हैं उनसे हमें कोई अपेक्षा नहीं होती। किसी को तुच्छ ठहराने का समुत्थान उससे ईर्ष्या नहीं अपितु केवल क्रोध होता है (हमें वह व्यक्ति पसंद नहीं, बस)।
स्पष्ट रूप से पहले संवर, मूल संवर, का पहला समुत्थान, कि किसी से कुछ पाने के लिए आत्म-प्रशंसा करना, वास्तव में दूसरे व्यक्ति का शोषण करना है, उसकी सहायता करने के लिए नहीं अपितु उससे कुछ प्राप्त करने के लिए। तो हमारे बोधिसत्त्व व्यवहार के लिए यह कृत्य घमंड एवं अहंकार के कारण आत्म-प्रशंसा करने की अपेक्षा अत्यधिक क्षतिकारक है। साथ ही दूसरे व्यक्ति का तिरस्कार करना क्योंकि हम उससे ईर्ष्या करते हैं - यहाँ भी हम उससे इसलिए ईर्ष्या करते हैं क्योंकि हम अपने लिए वह प्राप्त करना चाहते हैं जो उस व्यक्ति के पास है, जैसे ढेर सारे अनुयायी। यह भी उन लोगों के संबंध में क्षतिकारक है जिनकी हम संभवतः सहायता कर सकते हैं। परन्तु वैमनस्य या क्रोध के कारण किसी का तिरस्कार करने में वस्तुतः वे लोग शामिल नहीं हैं जिनकी हम सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि किस तरह इनमें से एक मूल संवर है और दूसरा अनुपूर्वक। यहाँ अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह हमारी परहित पद्धति को हानि पहुँचाता है।
दूसरा संवर है धर्म की शिक्षाओं, या अपने धन, संपत्ति, या समय, को साझा न करना। यहाँ समुत्थान है आसक्ति एवं कृपणता, अर्थात् इन सबको अपने लिए संजोकर रखना। यह हमारी परहित की क्षमता के लिए क्षतिकारक है। अब इसके लिए भी एक मध्यवर्ती बोधिसत्त्व संवर है जो पूर्णरूपेण समरूप है और वह है "धर्म को सीखने के इच्छुक व्यक्ति को वह शिक्षा न देना"। वहाँ समुत्थान यह नहीं है कि हम उसे अपने लिए संजोकर रखना चाहते हैं, बल्कि यह है कि "मैं क्रोधित हूँ या मैं इस दूसरे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता, इसलिए मैं उसे सिखाना नहीं चाहता"; या फिर द्वेष के कारण – उसने मेरे साथ कुछ ऐसा किया जो मुझे पसंद नहीं, इसलिए यह मेरा उसपर पलटवार है; या ईर्ष्या के कारण, कि यदि मैं उसे शिक्षा प्रदान करता हूँ तो वह मुझसे बहुत आगे निकल जाएगा और मुझसे अधिक नाम कमा लेगा; या यह आलस्य अथवा उदासीनता के कारण भी हो सकता है: जैसे, मुझसे क्या मतलब। तो, इस तरह के समुत्थान के कारण धर्म की शिक्षा न देने या न साझा करने का कारण मूल रूप से हमारे अपने ही क्लेश हैं; परन्तु यदि हम इसलिए नहीं सिखाते क्योंकि हम इसे अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं तो इसका कारण केवल स्वार्थ है। इस प्रकार स्वार्थवश इसे न करना और सब कुछ अपने लिए संजोकर रखना परहित वाले बोधिसत्त्व व्यवहार के विरुद्ध है।
फिर तीसरा है दूसरे व्यक्ति की क्षमा-याचना को न सुनना या उस व्यक्ति पर प्रहार करना, उसे पीटना, और इन सबका समुत्थान मुख्य रूप से क्रोध है। यहाँ स्थिति यह है कि हम किसी पर चिल्ला रहे होते हैं या किसी को पीट रहे होते हैं, और या तो वह व्यक्ति गिड़गिड़ाता है, "कृपया मुझे क्षमा करें! कृपया रुक जाएँ!", या कोई अन्य व्यक्ति उस पीड़ित व्यक्ति की ओर से याचना करता है, और हम नहीं मानते, हम नहीं रुकते। यहाँ एक मध्यवर्ती संवर भी है जिसमें हम दूसरे की क्षमा-याचना को स्वीकार नहीं करते, और यह उस घटना के बाद की बात है: जब हम दूसरे व्यक्ति के प्रति द्वेषभाव बनाए रखते हैं और वह व्यक्ति घटना के बाद किसी समय क्षमा-दान की याचना करता है। मूल बोधिसत्त्व संवर के सन्दर्भ में पहला अधिक गंभीर है, क्योंकि जब हम क्रोधित होते हैं और हम दूसरे व्यक्ति को चोट पहुँचा रहे होते हैं तो निश्चित रूप से हमें तत्काल रुक जाना चाहिए। दूसरा है जब हम केवल द्वेष भाव रखते हैं; हम किसी को शारीरिक चोट नहीं पहुँचा रहे होते या अपशब्द नहीं कह रहे होते, इसलिए यह कम प्रभावशाली होता है, कम गंभीर होता है। दूसरे शब्दों में, पहली स्थिति में हम दूसरे व्यक्ति को शारीरिक चोट पहुँचाते हैं, दूसरी स्थिति में हम संभवतः उसे अनदेखा कर देते हैं।
(4) महायान की शिक्षाओं का बहिष्कार कर मनगढ़ंत शिक्षाएँ प्रस्तुत करना
चौथा बोधिसत्त्व संवर है महायान की शिक्षाओं का बहिष्कार कर मनगढ़ंत शिक्षाएँ प्रस्तुत करने से बचना। यहाँ बोधिसत्वों के लिए जो सही महायान शिक्षाएँ हैं हम उनका बहिष्कार करते हैं, इसलिए यह बहुत बड़ी बात है, और साथ ही हम महायान शिक्षाओं से मिलती-जुलती कुछ मिथकीय बातों को गढ़ते हैं और उनका प्रामाणिक बौद्ध-धर्मी शिक्षा होने का दावा भी करते हैं। ऐसा नहीं है कि यह केवल हम ही से जुड़ा हुआ हो - हमने कुछ विषयों के बारे में गलत-सलत गढ़ दिया जिनके बारे में हमें कोई ज्ञान नहीं है, क्योंकि हमें यह पता ही नहीं कि वह है क्या - अपितु इसका नाता इस बात से है कि हम जानते हैं कि वास्तविक शिक्षाएँ क्या हैं, और हम उनका बहिष्कार कर देते हैं क्योंकि हमें वे शिक्षाएँ पसंद नहीं हैं, और हम अपने मन में कुछ गढ़ लेते हैं जो हमारे लिए अधिक अनुकूल है। ऐसी बात नहीं है कि हम इसे केवल अपने तक ही सीमित रखते हैं, बल्कि हम इसे दूसरों को भी सिखाते हैं ताकि वे भी हमें अपना गुरु मानें और हमारा अनुसरण करें। तो यह बोधिसत्त्व संवर इस प्रकार भंग होता है।
यहाँ एक उदाहरण देता हूँ: हम ऐसे लोगों के बीच एक बहुत ही लोकप्रिय गुरु बनना चाहते हैं जिनका यौन संबंधों के प्रति बहुत उदार दृष्टिकोण है, और इसलिए ऐसे लोग अनुचित यौन व्यवहार के बारे में बौद्ध शिक्षाओं को त्याग देते हैं, जिन शिक्षाओं में सभी प्रकार की ऐसी सामान्य रूप से प्रचलित यौन गतिविधियों का उल्लेख होता है जिन्हें अधिकतर लोग त्यागना नहीं चाहते, और इसके स्थान पर ऐसे लोग यह सिखाते हैं कि उचित बोधिसत्त्व व्यवहार का अर्थ केवल इतना है कि आप अपने कृत्यों से किसी को चोट न पहुँचाएँ। हम यह जानते हैं कि सही शिक्षाएँ क्या हैं, पर हम यह सोचते हैं कि, "यदि मैं उसे सिखाता हूँ तो ये सब के सब उठकर चल देंगे और कोई भी बौद्ध धर्म को स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए मैं इस सरलीकृत रूप को सिखाऊँगा और यह कहूँगा कि बुद्ध का यही तात्पर्य था" - ताकि और अधिक लोग मेरा अनुगमन करें। बौद्ध-धर्मी नैतिकता का आधार है हमारा उन विभिन्न प्रकार के व्यवहारों की ओर ध्यान केंद्रित करना जिनसे हमें बचना चाहिए क्योंकि वे अत्यंत प्रबल क्लेशों (अशांतकारी मनोभावों) से प्रेरित होते हैं। यौन व्यवहार के मामले में तो प्रायः हमें तीव्र वासना और कामनाओं से बचना ही आधार है। बौद्ध धर्म में यौन नैतिकता का आधार हमें अपनी वासना एवं तत्सम्बन्धी कामनाओं को व्यावहारिक रूप देने के विचारों को कम करने की दिशा में अपने को उन्मुख करना है। यह नैतिकता के हमारे पश्चिमी मानवतावादी उदार दृष्टिकोण से बहुत अलग है, जो केवल दूसरों को हानि न पहुँचाने के सीमित विचार पर आधारित है।
इस तरह की स्वयं गढ़ी हुई शिक्षाओं को लेकर यह दावा करना कि ये बुद्ध की वास्तविक शिक्षाएँ हैं और इन्हें दूसरों को इसलिए सिखाना ताकि वे हमारा अनुगमन करें, वास्तव में दूसरों को धोखा देना होता है। यह उन्हें प्रामाणिक, वास्तविक धर्म देना नहीं होता। अब, यदि आप मेरी तरह "सरलीकृत धर्म" तथा "सम्पूर्ण धर्म" के बीच अंतर करते हैं, और आपके मन में यह बात स्पष्ट हो जाए कि सरलीकृत धर्म सम्पूर्ण धर्म नहीं है, अपितु केवल इस वर्तमान जीवनकाल की साधना के लिए एक सरलतर स्तर मात्र है, और यह एकमात्र वर्तमान जीवनकाल के लाभार्थ विचारों से ही युक्त है, तो यदि हम यह कहते हैं कि अपने यौन व्यवहार से दूसरों को चोट न पहुँचाना बौद्ध-धर्मी नैतिकता सीखने का पहला सोपान है – और यह न कहना कि यही बौद्ध-धर्मी शिक्षा है, और इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है – तो यह रीति ठीक है। क्योंकि निस्संदेह बौद्ध धर्म और बुद्ध स्वयं इस बात से सहमत होंगे ही कि अपने यौन व्यवहार से दूसरों को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। पर यह महायान की एकमात्र शिक्षा नहीं है – ख़ैर, यहाँ केवल महायान की चर्चा नहीं हो रही – इसे बौद्ध शिक्षाओं का सामान्य प्रयोजन कहना बेहतर होगा। बौद्ध शिक्षाओं का उद्देश्य है हमें मोक्ष तथा अधिक ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर ले जाना, और इसके लिए हमें वासना एवं लालसा से ऊपर उठना होगा।
(5) त्रिरत्नों के लिए अभीष्ट अर्पण ग्रहण करना
पाँचवाँ बोधिसत्त्व संवर है त्रिरत्नों (बुद्ध, धर्म, और संघ) के लिए अभीष्ट अर्पण को स्वयं ग्रहण कर लेना, और हम ऐसा न करने का वचन लेते हैं। इसका तात्पर्य है चोरी करना या ग़बन करना - अर्थात् बुद्ध, धर्म, या संघ की संपत्ति अथवा उनके लिए अभीष्ट वस्तु को अपनेआप या किसी अन्य के द्वारा अपने लाभ के लिए उपयोग करना या करवाना और फिर उसे अपना मान लेना। तो इस प्रकार, यदि कोई बुद्ध, धर्म, और संघ के लिए कुछ अर्पित करता है, जैसे कि कोई बौद्ध-धर्मी केंद्र के लिए, या प्रतिमा बनाने के लिए, या धर्म ग्रंथों को छपवाने या अनुवाद कराने के लिए, या भिक्षुओं और भिक्षुणियों के भोजन के लिए, और हम उस धन या अर्पित वस्तु को अपने लाभ के लिए ले लेते हैं, तो वह अनुचित होगा। ऐसा करना इस संवर का उल्लंघन होगा। इस संदर्भ में संघ का तात्पर्य है चार या अधिक भिक्षुओं या भिक्षुणियों का कोई समूह। हम यहाँ आर्य संघ की बात नहीं कर रहे हैं।
अब यह अलग बात होगी यदि हम धर्म ग्रंथों पर काम करते हैं या उन्हें प्रकाशित करते हैं, और यह भेंट हमारे वेतन के लिए दी जा रही है, क्योंकि ऐसे में हम तो बुद्ध, धर्म, और संघ को ही आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं - बशर्ते कि हमारे काम के लिए इस प्रकार वेतन मिलना एक मानक प्रक्रिया हो। पर यहाँ हम उस स्थिति के बारे में बात कर रहे हैं जहाँ हम विशेष रूप से बौद्ध धर्म के कार्यों में नहीं लगे हुए हैं पर चढ़ावे और दान को अपने मतलब के लिए ले रहे हैं।
यह एक मूल बोधिसत्त्व संवर कैसे हुआ? यह ऐसे हुआ कि जब बुद्ध, धर्म, और संघ को आगे बढ़ाने के लिए भेंट चढ़ाई जाती है तो यह भेंट बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं को परहित हेतु और अधिक उपलब्ध कराने के लिए चढ़ाई जाती है ताकि दूसरों को मोक्ष तथा ज्ञानोदय प्राप्ति में सहायता मिल सके, और एक बोधिसत्त्व के रूप में हम यही तो करने का प्रयास करते हैं, अर्थात् इन विधियों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना। इसका मतलब किसी प्रकार का धर्म-प्रचारक होना नहीं है, बल्कि इन विधियों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना है। हम इस कार्य में चोरी आदि से बाधा उपस्थित कर रहे हैं। ठीक, तो यह है पाँचवाँ बोधिसत्त्व संवर।
(6) पवित्र धर्म का परित्याग करना
छठा संवर है पवित्र धर्म के परित्याग से बचना। इसका अभिप्राय है अस्वीकार करना - "अस्वीकार" का अर्थ केवल न मानना नहीं है, बल्कि क्रोध में आकर किसी बात का खंडन करने का प्रयास करना - हम अस्वीकार करते हैं या, अपना विचार व्यक्त करके हम दूसरों के द्वारा अस्वीकार किए जाने का कारण बन जाते हैं। हम यहाँ किसकी बात कर रहे हैं? हम किसे अस्वीकार कर रहे हैं? हम अस्वीकार कर रहे हैं श्रावक या प्रत्येकबुद्ध - हीनयान की दो शाखाएँ - की ग्रंथीय शिक्षाओं को, क्योंकि इनमें से कोई भी शिक्षा बुद्ध की वाणी नहीं है। अर्थात्, हम इस बात को ग़लत सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि ये बुद्ध की वाणी हैं। तो हम यहाँ खंडन करेंगे, मुखर रूप से विवाद भी करेंगे, कि या तो हीनयान या महायान के सभी ग्रन्थ बुद्ध की शिक्षाएँ हैं - या तो सभी ग्रन्थ या फिर इनमें से कुछ। बात यह है कि बुद्ध द्वारा सिखाए गए सभी ग्रंथों, सभी यानों, का उद्देश्य है मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए लोगों की सहायता करना - न केवल लोगों का अपितु सभी सत्त्वों का - और यह कहकर कि वे बुद्ध द्वारा सिखाए गए नहीं हैं, हम यह कह रहे हैं कि यह बौद्ध-धर्मी नहीं है, और इस तरह हम दूसरों को ऐसी शिक्षाओं का अनुसरण करने के लिए हतोत्साहित करते हैं जो उनके लिए अत्यंत हितकारी और अनुकूल हो सकती हैं।
हमें चाहिए कि इसे और ध्यान से परखें, क्योंकि यदि हम इसे तथाकथित वैज्ञानिक बौद्ध-तर्कीय, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, और विभिन्न ग्रंथों की भाषा आदि के आधार पर परखते हैं, तो पाश्चात्य पद्धति में प्रशिक्षित विद्वान इस बात पर उलझ जाते हैं कि महायान और तंत्र जैसे कई ग्रंथ, केवल भाषा के आधार पर, बुद्ध के समय से बहुत बाद में लिखे गए थे। जिसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि यह सम्भाव्य नहीं है ये शिक्षाएँ ऐतिहासिक बुद्ध द्वारा प्रतिपादित की गई हों। लेकिन बात यह है कि बुद्ध के समय में इनमें से कोई भी शिक्षा लिखित रूप से प्रस्तुत नहीं की गई थी अपितु वे सब की सब मौखिक रूप से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपी जा रही थीं, जिसका तात्पर्य यह है कि उस कालखंड में लोग असाधारण स्मरण शक्ति के मालिक थे तथा बुद्ध की सभी शिक्षाओं को कंठस्थ करने की क्षमता रखते थे - ऐसा नहीं कि एक ही व्यक्ति सब कुछ याद कर सकता था - ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपी जाती थीं और कंठस्थ भी की जाती थीं।
यदि आप तिब्बती मठों के आधुनिक रीति-रिवाजों को देखें तो यह अस्वाभाविक या अनर्गल नहीं लगेगा। यह इतना अविश्वसनीय नहीं है, क्योंकि अब मठों में, मठों का प्रत्येक विभाग - मैं मुख्य गेलुग्पा मठों की बात कर रहा हूँ - एक निश्चित तंत्र ग्रन्थ और उसके अनुष्ठानों आदि के लिए उत्तरदायी होता है। ऐसे में सभी भिक्षुओं को विशेष ग्रन्थ समूहों के सभी पाठ कंठस्थ करने होते हैं, और इस तरह यदि प्रत्येक मठ का प्रत्येक प्रभाग एक-एक सूत्र का उत्तरदायित्व लेता है तो यह पूर्णतया विश्वसनीय है कि सम्पूर्ण बौद्ध वाङ्मय का मौखिक हस्तांतरण हो सकता है, कुछ भी लिखने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आज भी तिब्बती मठवासी सहस्रों पृष्ठों के ग्रन्थ कंठस्थ कर लेते हैं, क्योंकि वे कंठस्थ करना तब आरम्भ करते हैं जब वे सात या आठ वर्ष के होते हैं जिस अवस्था में मानव मस्तिष्क बातों को याद करने और जीवन-भर याद रखने में सबसे अधिक सक्षम होता है।
परंपरा के अनुसार हीनयान ग्रंथों का पाठ महायान की तुलना में अधिक खुले रूप से किया जाता था, और तंत्र ग्रंथों की तुलना में महायान अधिक खुला था; परन्तु, ध्यान देने की बात यह है कि ये सभी शिक्षाएँ इस प्रकार मौखिक रूप से ही हस्तांतरित की जाती थीं। जब अंततः ये ग्रंथ लिखे गए तो बुद्ध का एक आदेश यह भी था कि सभी भाषाओं में शिक्षा दी जाए, इसलिए इसका अपनी भाषा में अनुवाद करें। ऐसे में इस तथ्य में कोई अंतर्विरोध नहीं है कि यह ग्रन्थ पहली बार उस भाषा में प्रकट हुआ जिस भाषा का उस ऐतिहासिक कालखंड विशेष में प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार कुछ ग्रंथ पालि में लिखे गए, कुछ ग्रंथ (अंततः जब वे लिखे गए) संस्कृत में, और कुछ ग्रन्थ संस्कृत की परवर्ती शैली में लिखे गए। यह उस पद्धति के समरूप है जिसका सुझाव स्वयं बुद्ध ने दिया था, इस प्रकार यह इस बात को कदापि सिद्ध नहीं करता कि ये ग्रन्थ बुद्ध के नहीं हैं।
स्वयं शांतिदेव ने उन लोगों की इस बात का अति उत्तम ढंग से खण्डन किया कि हीनयान ग्रंथ मान्य या प्रामाणिक हैं परन्तु महायान नहीं। उन्होंने कहा कि जिस तर्क के प्रयोग से आप इस बात का खंडन करते हैं या करने का प्रयास करते हैं कि महायान ग्रंथ बुद्ध की प्रामाणिक वाणी है, मैं उसी तर्क के प्रयोग से यह सिद्ध कर सकता हूँ कि आपके ग्रंथ, हीनयान ग्रंथ, बुद्ध की प्रामाणिक वाणी नहीं हैं, क्योंकि ये भी मौखिक परंपरा पर ही निर्भर थे और सदियों बाद ही इन्हें लिखित रूप दिया गया था। वैसे ही आप जिस तर्क के प्रयोग से यह सिद्ध करते हैं कि आपके ग्रंथ बुद्ध की प्रामाणिक वाणी हैं, मैं उसी तर्क के प्रयोग से यह सिद्ध कर सकता हूँ कि महायान ग्रंथ बुद्ध के ग्रंथ हैं। स्पष्टतः यह तर्क पूर्णतः वैध है। साथ ही, यदि हम बुद्ध द्वारा पढ़ाए गए ग्रंथों के महत्त्व का विश्लेषण करते हैं तो हमें यह जानना होगा कि हीनयान ग्रंथों के अनुसार बुद्ध किस श्रेणी के सत्त्व हैं। उन्हें सीखने वाले कौन हैं? वे बुद्ध किस श्रेणी के सत्त्व हैं जो महायान ग्रंथ में उल्लिखित हैं और जो महायान ग्रन्थ की शिक्षा दे रहे हैं? ऐसे ही तंत्रयान की शिक्षा देने वाले वे बुद्ध कौन हैं जो तंत्रयान में उल्लिखित हैं? इसी प्रकार हम यह पाते हैं कि ये तीनों बुद्ध के तीन अलग-अलग विवरण देते हैं।
हीनयान शिक्षा प्रदान करने वाले बुद्ध का वर्णन हीनयान शिक्षाओं में दिया गया है। इसी तरह महायान सूत्र में महायान शिक्षाओं को प्रदान करने वाले बुद्ध का एक पृथक वर्णन दिया गया है। तंत्र में एक तीसरा वर्णन है। अतः इन तीनों में बुद्ध के तीन अलग-अलग चित्र दिए गए हैं। हीनयान धर्म ग्रंथों की शिक्षा देने वाले बुद्ध ऐतिहासिक बुद्ध हैं जिन्हें उसी जीवनकाल में शाक्यमुनि बुद्ध के रूप में ज्ञानोदय प्राप्ति हो गई थी, और उनके परिनिर्वाण के बाद उनका सब कुछ समाप्त हो गया, उनका मानसिक समतान समाप्त हो गया। ऐसे ही जब हम यह कहते हैं कि बुद्ध ने महायान सूत्र और महायान तंत्र की शिक्षाएँ प्रदान कीं, तो इसका अनिवार्यतः यह अर्थ नहीं निकलता कि ये शिक्षाएँ ऐतिहासिक बुद्ध - या, अधिक तथ्यात्मक रूप से कहा जाए तो बुद्ध को केवल ऐतिहासिक बुद्ध तक सीमित करने वाले दृष्टिकोण में बंधे हुए बुद्ध - ने दी थीं।
महायान सूत्र की शिक्षा प्रदान करने वाले बुद्ध वे हैं जो न केवल ऐतिहासिक बुद्ध के रूप में प्रकट हुए थे, अपितु जो कल्पों पहले ही ज्ञानोदय प्राप्त कर चुके थे और जो अनंत काल तक निर्माणकाय और सम्भोगकाय के अनंत स्वरूपों में प्रकट होने और बुद्धक्षेत्रों में ज्ञान प्रदान करने जैसे कार्य कर सकते हैं। अर्थात्, महायान के बुद्ध केवल ऐतिहासिक शाक्यमुनि बुद्ध तक ही सीमित नहीं हैं। यह जानने के लिए आपको प्रतीत्यसमुत्पाद का अवलम्ब लेना होगा कि महायान सूत्रों के शिक्षक उन महायान सूत्रों में वर्णित बुद्ध ही हैं, और इसलिए महायान की शिक्षा प्रदान करने वाले बुद्ध को लेकर किसी भी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं है, भले ही वे किसी अन्य कालखंड में प्रकट होने वाले बुद्ध ही क्यों न हों। सारतत्त्व यह है कि सूत्र विद्यमान हैं (अर्थात् महायान सूत्र, मैं यह दृढ़ निश्चय के साथ नहीं कह सकता कि यह हीनयान सूत्रों में है या नहीं), बुद्ध ने दूसरों को शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रेरित किया, और बुद्ध अस्तित्वमान हैं, जैसे प्रज्ञापारमिताहृदय सूत्र में, और ये सब अंततः इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये शिक्षाएँ प्रामाणिक हैं।
कई अलग-अलग प्रकार की शिक्षाएँ हैं जो बुद्ध वाणी के रूप में समाविष्ट हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि बुद्ध ने स्वयं उनका वाचन किया हो। यदि हम तंत्र ग्रंथों को देखें तो उनमें बुद्ध कौन हैं और क्या हैं इसका व्यापकतर वर्णन मिलता है। एक है बुद्ध का वज्रधर या सामन्तभद्र स्वरूप जो सबके चित्त में स्थित चेतना के सूक्ष्मतम स्तर की आदिकालीन शुद्धता है। इस बात में किसी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं कि बुद्ध वज्रधर ने कुछ लोगों को ये शिक्षाएँ दिव्य दर्शन आदि के द्वारा प्रकट कीं और उन लोगों ने इन शिक्षाओं को लिखित रूप दिया, और इस तरह ये तंत्र प्रकट हुए। इसमें भी कोई अंतर्विरोध नहीं कि किसी ने इन सूक्ष्मतम शिक्षाओं को बुद्ध के शुद्ध धर्मकाय स्तर - सूक्ष्मतम मन की स्पष्टता, आदि - से, दिव्य दृष्टि के द्वारा या किसी अन्य रूप में प्राप्त किया, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति का यही मार्ग है। वज्रधर, सामान्यतः किसी पुण्यक्षेत्र में, और चाहे किसी भी विधि से, इन शिक्षाओं को किसी अन्य व्यक्ति से कहते हैं और फिर वह व्यक्ति उसे लिखित रूप देता है।
कुछ तंत्रों में ऐसा वर्णन है कि जिस समय बुद्ध गृद्धकूट में प्रज्ञापारमिता सूत्र पढ़ा रहे थे, ठीक उसी समय बुद्ध दक्षिण भारत में धन्यकटक स्तूप में चतुर्मुखी हेरुका चक्रसंवर के रूप में प्रकट हुए और अपने प्रत्येक मुख से उन्होंने तंत्र की अलग-अलग शिक्षाएँ दीं। यह हैं तंत्र की शिक्षा देने वाले बुद्ध जो ऐतिहासिक शाक्यमुनि बुद्ध से सर्वथा पृथक हैं। इस प्रकार ये सब अन्योन्याश्रित हैं। किस श्रेणी के बुद्ध ने बौद्ध शिक्षाओं के प्रत्येक वर्ग - हीनयान, महायान सूत्र, और महायान तंत्र - की शिक्षा दी, यह बात प्रत्येक ग्रन्थ में दिए गए बुद्ध के वर्णन सापेक्ष होनी चाहिए।
किसी विशेष ग्रंथ की शिक्षा देने वाले बुद्ध की निष्पक्ष रूप से पहचान उस ग्रन्थ में दिए गए बुद्ध के वर्णन पर अवलम्बित होती है। यह मानना उचित नहीं होगा कि बुद्ध सत्यसिद्ध - उनकी अपनी शक्ति से - ऐतिहासिक बुद्ध हैं जो सभी अलग-अलग यानों की शिक्षाएँ देते हैं। वास्तव में बुद्ध की हमारी परिकल्पना उस ग्रन्थ में दिए गए बुद्ध के चित्रण के अनुकूल होनी चाहिए जिस ग्रन्थ की शिक्षा बुद्ध दे रहे हैं। इस प्रकार तंत्रों में बुद्ध के सबसे व्यापक बोध और चित्रण हैं; और तंत्रों में दिए गए बुद्ध के चित्रण में महायान सूत्र में दिए गए बुद्ध का चित्रण समाविष्ट है; और महायान सूत्र में दिए गए बुद्ध के चित्रण में ऐतिहासिक बुद्ध भी समाविष्ट होंगे क्योंकि बुद्ध उस रूप में भी प्रकट हुए थे। इसलिए जब हम कहते हैं कि महायान विशाल यान है तो यह बुद्ध के चित्रण के संदर्भ में भी विशाल है, बुद्ध के हीनयान ग्रंथों में दिए गए वर्णन से भी कहीं अधिक विशाल।
अब किसी ने यह पूछा कि जब कोई यह दृढ़तापूर्वक कहता है कि उसे जो शिक्षा मिली है वह दिव्य दृष्टि से प्राप्त हुई है तो हमें यह कैसे पता चलेगा कि वह वज्रधर, सामंतभद्र, इत्यादि से प्राप्त प्रामाणिक शिक्षा है? इस विषय पर दिए गए दिशानिर्देश अत्यंत स्पष्ट हैं। दिव्य दृष्टि या अदृष्ट ग्रन्थ, गुप्त ग्रन्थ, से प्राप्त शिक्षा, बौद्ध शिक्षाओं के सार के समनुरूप होनी चाहिए, न कि उसके विपरीत। अर्थात्, शरणागति, निःसरण, बोधिचित्त, और मोक्ष, ज्ञानोदय प्राप्ति - जैसा कि आप जानते हैं, यही सब तो हैं बुद्ध के प्रमुख प्रसंग। बोधिचित्त, चार आर्य सत्य, सभी संस्कृतधर्म (अनुबंधित दृश्य-प्रपंच) की अनित्यता, और दुःख - ये सब बुद्ध की मूल शिक्षाएँ हैं। अतः, उन प्राप्त शिक्षाओं को इन सबके समनुरूप होना चाहिए।
निस्संदेह अलग-अलग विषयों के दार्शनिक निर्वचनों के बीच थोड़ी-बहुत भिन्नता हो सकती है, परन्तु उनके मुख्य प्रसंग समनुरूप होते हैं; और अर्हताप्राप्त योगी और साधक उन ग्रन्थों में वर्णित अनुबोधों और सिद्धियों को उन ग्रन्थों में वर्णित विधियों का अनुसरण करके प्राप्त कर सकते हैं। अनुमान प्रमाण द्वारा इसे बुद्ध के प्रामाणिक शिक्षण के रूप में इस प्रकार पुष्ट किया गया है। यदि इसमें सभी प्रमुख प्रसंग समाविष्ट हैं तो इस बात से, तथा इनकी साधना द्वारा वर्णित ज्ञानोदय प्राप्त कर चुके लोगों के प्रत्यक्षप्रमाण से, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह बुद्ध का शिक्षण है। तो ये हैं इसकी कसौटियाँ।
इसके समरूप एक अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवर भी है जिसे "महायान का परित्याग" कहा जाता है, और यहाँ हम यह स्वीकार करते हैं कि महायान बुद्ध के अनुपूर्वक संवरों की प्रामाणिक शिक्षाएँ हैं। मूल संवर के ठीक विपरीत हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि महायान की शिक्षाएँ बुद्ध की वाणी हैं, परन्तु हम कुछ ऐसे आयामों की आलोचना करते हैं जो हमें पसंद नहीं हैं। वे विशेष रूप से महायान ग्रंथों में वर्णित बुद्ध की व्यापक लीलाओं का उल्लेख करता है, जैसे बुद्ध का एक साथ अनंत रूप धारण कर पाना, उनका सर्वव्यापी होना; उनका सभी भाषाओं को समझ पाना; और बुद्ध की वाणी को उनके श्रोताओं द्वारा अपनी-अपनी भाषाओं में समझ पाना। हम कहते हैं, "यह हास्यास्पद है। मुझे महायान पसंद है, मुझे बोधिचित्त, प्रेम और करुणा की अवधारणाएँ पूरी की पूरी पसंद हैं परन्तु, क्षमा करें, यहाँ तो लगता है कुछ अधिक ही हो गया।" तो यदि हम इसकी आलोचना करते हैं, या शून्यता की सारगर्भित शिक्षाओं की आलोचना करते हैं - जैसे यह अत्यधिक जटिल है, यह कौन चाहता है? - तो ये सब अनुपूर्वक संवर हैं।
हम चार अलग-अलग तरीकों से इसकी आलोचना कर सकते हैं। पहला यह है कि उनकी अंतर्वस्तु निम्न स्तर की है, दूसरे शब्दों में वे पूर्णतः अनर्गल बातें करते हैं कि बुद्ध एक ही समय में अनंत रूप धारण कर सकते हैं। निम्न का अर्थ है पूर्णतया अच्छा न होना, मूर्खतापूर्ण। जैसे मिलरेपा का पूर्ण रूप से सिकुड़कर याक के सींग की नोक में समा पाना। "यह हास्यास्पद है," हम कहेंगे। "यह एक निम्न स्तर का शिक्षण है, यह परिष्कृत लोगों के लिए नहीं है, हो सकता है किन्हीं घुमन्तु लोगों के लिए हो।" परन्तु यह अत्यंत दम्भपूर्ण बात है। दूसरा यह कि उनकी अभिव्यक्ति का ढंग निम्न है - निम्न अर्थात् हीन स्तरीय गुणवत्ता, निम्न गुणवत्ता का। जैसे यह कहना कि यह घटिया लेखन है, जिस तरह से इसे लिखा गया है उसका कोई अर्थ नहीं निकलता। फिर एक तीसरा भी है कि इसका लेखक उच्च स्तर का नहीं है। ऐसी कई टीकाएँ इत्यादि हैं जो यह कहती हैं कि बात ऐसी है कि यह लेखक बेकार है। चौथा यह है कि उनका प्रयोजन निम्नस्तरीय है, इससे किसी का कोई लाभ नहीं होगा। मिलरेपा की याक के सींग की नोक में लीन हो जाने की बात किसी के काम की नहीं है। यह है अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवर; हम संकल्प करते हैं कि हम ऐसा नहीं करेंगे।
यह मनोदृष्टि, कि शिक्षाओं के कुछ आयाम हास्यास्पद हैं, अत्यंत सामान्य है और उसे भंग करने के लिए हमें उसकी उपेक्षा करनी चाहिए। हम शिक्षाओं की केवल अच्छी-अच्छी बातों को ही पसंद करते हैं, और जो हमारे अनुकूल नहीं हैं, जैसे नरक या यौन सम्बन्धी नैतिकता, हम उनकी अनदेखी कर देते हैं। तिब्बत-वासियों में एक कहावत है: "उस बूढ़े व्यक्ति की तरह न बनो जिसके दाँत नहीं हैं, जो केवल उबले हुए आलू खाता है और माँस के टुकड़ों को थूक देता है।" दूसरे शब्दों में, ऐसा न करना कि केवल उन्हीं वस्तुओं को ग्रहण करें जो आसानी से चबती हों, और मुश्किल से चबने वाली वस्तुओं को थूक दें।
(7) भिक्षुओं का चीवर हरण करना या उन्हें चुराने जैसे कार्य करना
फिर अगला, सातवाँ, बोधिसत्त्व संवर उन कृत्यों से सम्बन्धित है जिन्हें करने से हमें बचना है और वे हैं भिक्षुओं-भिक्षुणियों का चीवर हरण करना, जैसे उनका चीवर चुराना, आदि। यहाँ हम अपने कृत्यों द्वारा एक, दो, या तीन भिक्षुओं या भिक्षुणियों को हानि पहुँचाने की बात कर रहे हैं। स्मरण कीजिए कि इससे पहले हमने त्रिरत्नों को अर्पित चढ़ावे को चुराने की बात की थी। उस संवर के लिए भिक्षुओं-भिक्षुणियों की संख्या चार या उससे अधिक थी। यहाँ यह संवर एक, दो, या तीन भिक्षुओं भिक्षुणियों से सम्बन्धित है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनका नैतिक पतन हुआ है या नहीं - जैसे उन्होंने अपने चीवर ठीक से पहने हैं या नहीं, आदि - और इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे अधिक मात्रा में अध्ययन और साधना करते हैं या नहीं। स्थिति जैसी भी हो, यह संवर सीधे-सीधे यह कहता है कि हम दुर्भावना के कारण उनसे द्वेष की भावना रखते हैं, हम उनसे क्रोधित होते हैं, उन्हें पीटते हैं, या क्रोध-युक्त होकर उनसे अपशब्द कहते हैं या उनका सामान ज़ब्त कर लेते हैं, जिससे हमें बचना है।
एक आधुनिक उदाहरण यह हो सकता है जैसे अपने पड़ोसी मठवासी का रेडियो ज़ब्त कर लेना या चोरी कर लेना क्योंकि उसका रेडियो हमारी ध्यान-साधना में विघ्न उपस्थित करता है। इसलिए हम रेडियो को ही तोड़ देते हैं या उसे चुरा लेते हैं। देखिए, एक स्थिति तो यह है कि यदि किसी भिक्षु या भिक्षुणी ने चार प्रमुख व्रतों में से किसी एक का भी उल्लंघन किया हो तो वह अब भिक्षु या भिक्षुणी नहीं रह जाता और उसे मठ से निकाल दिया जाता है। पर हम यहाँ उस स्थिति की बात नहीं कर रहे हैं। हम इतना कह रहे हैं कि यदि उस भिक्षु या भिक्षुणी ने चार प्रमुख संवरों में से किसी का भी उल्लंघन नहीं किया हो पर केवल इस कारण कि वह हमें पसंद नहीं है या उसके साथ मिलजुलकर रहना मुश्किल है, इत्यादि - हम उन्हें बाहर निकाल रहे हैं या उनसे उनके चीवर आदि छीन रहे हैं और यह कह रहे हैं कि अब तुम यहाँ नहीं रह सकते या सकती - यह कृत्य इस संवर का उल्लंघन होगा। स्पष्ट रूप से बात यह है कि हम मठीय संघ का सम्मान करते हैं और हम उन लोगों की सहायता करने का प्रयास करते हैं जिन्होंने कम-से-कम भिक्षु या भिक्षुणी बनने की सही दिशा में कदम उठाए हैं, भले ही वे इस अनुशासन का सही ढंग से पालन न कर रहे हों।
(8) पाँच घृणित अपराधों में से किसी भी एक को करना
आठवाँ बोधिसत्त्व संवर है पाँच जघन्य अपराधों में से किसी एक को भी करने से बचना। यह "जघन्य अपराध" कोई बहुत अच्छा अनुवाद तो नहीं है, पर ये ऐसे अत्यंत विनाशकारी कृत्य हैं कि कर्ता मरणोपरांत अबाध रूप से भयानक दुर्गति को प्राप्त करता है। अर्थात् ये प्रबलतम पाप हैं। पितृ-हत्या, मातृ-हत्या, अर्हत (मोक्ष-प्राप्त सत्त्व) की हत्या, और दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से किसी बुद्धजन को हानि पहुँचाना। हम किसी बुद्धजन द्वारा रक्तदान इत्यादि की बात नहीं कर रहे हैं। हम बुद्धजन को चोट पहुँचाने के कृत्य की बात कर रहे हैं। और पाँचवाँ है संघ या मठीय समुदाय में फूट पैदा करना।
हमें यह समझना होगा कि संघ में विभाजन या दरार का तात्पर्य क्या है। यह ऐसी बात नहीं है कि किसी ने हमारे केंद्र से अलग होकर एक अन्य धर्म केंद्र शुरू कर दिया हो; मुद्दा यह नहीं है। और न ही यह भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए अनुशासन के अतिरिक्त नियमों को निर्धारित करने की बात है। अपितु बात है इस तरह के कार्यों को दुर्भावना से युक्त होकर करना - जैसा कि बौद्ध-धर्मी मठीय समूह के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए तथा बुद्ध एवं बौद्ध संघ के प्रति अत्यंत नकारात्मक होते हुए मौजूदा संघ को तोड़कर एक पृथक मठवासी समूह की स्थापना करना। ऐसा इसलिए है क्योंकि बौद्ध धर्म में अधिक कड़ी मठीय साधना का उदाहरण है। ये साधनाएँ तेरह प्रकार की हैं - संस्कृत और पालि में इसके लिए शब्द है "धूतांग", जिसका अर्थ है अनुपालन या अनुसरण की गई साधना की शाखाएँ। थाईलैंड की वन परंपरा एक उदाहरण है जो इन्हीं तेरह साधनाओं के अनुसरण पर आधारित है। इनमें से कुछ साधनाओं का अभ्यास तो उन लोगों द्वारा भी किया जाता है जो तिब्बती परंपरा के तहत तीन साल की एकान्त साधना करते हैं। इन साधनाओं को सबसे पहले बुद्ध के प्रति नकारात्मक भाव रखनेवाले उनके चचेरे भाई देवदत्त द्वारा प्रस्तावित किया गया था। ऐसे में इन तेरह साधनाओं का पालन करने के लिए किसी भी परंपरा को आरम्भ करना धर्म-विच्छेद नहीं होता। धर्म-विच्छेद तब होता है जब आप किसी नई परंपरा को आरम्भ करते हैं और साथ ही बौद्ध संघ के प्रति क्रोध एवं दुर्भावना से युक्त होकर उसे भला-बुरा भी कहते हैं।
ये तेरह साधनाएँ कौन-कौन-सी हैं? (1) इन तेरह में से पहली है - हम यहाँ भिक्षुओं और भिक्षुणियों के बारे में बात कर रहे हैं - चीथड़ों से बना चीवर पहनना (केवल चीथड़ों से सिला हुआ)। (2) केवल तीन चीवर पहनना, अर्थात् कोई स्वेटर आदि न पहनना। (3) भिक्षार्जन के लिए जाना, दूसरे शब्दों में अपने भोजन के लिए भीख माँगना, और कभी भी भोजन का निमंत्रण स्वीकार न करना; दूसरे शब्दों में आप केवल अपने कटोरे के साथ घूमते हैं परन्तु किसी के घर में भोजन करने का निमंत्रण स्वीकार नहीं करते। (4) चौथा है भिक्षार्जन के लिए भटकते हुए किसी भी घर को न छोड़ना। कभी-कभी ऐसे घर भी हो सकते हैं जहाँ लोग आपको अच्छा खाना न देते हों या फिर वे आप पर चिल्ला देते हों या आपके प्रति बुरा व्यवहार करते हों, इत्यादि, और हमें लगता है “मैं आज उस घर पर नहीं रुकूँगा।” (5) पाँचवाँ है जो कुछ भी भिक्षा में प्राप्त हो उसे एक ही बार में खा जाना। दूसरे शब्दों में, बाद के लिए कुछ न रख छोड़ना, जैसे अपने फ्रिज में रख देना ताकि कल कुछ न मिले तो उसे ही खा लें। (6) अगला है केवल अपने भिक्षापात्र से ही खाना। (7) भोजन आरम्भ करने के बाद अतिरिक्त भोजन के लिए मना कर देना। तो यदि हमारा भिक्षापात्र असाधारण रूप से बड़ा न हो तो हो सकता है कि हमें पर्याप्त भोजन न मिले। (8) अगला है केवल जंगलों में ही वास करना। (9) फिर है पेड़ों के नीचे वास करना। (10) अगला है खुले आकाश के तले रहना, न कि किसी घर या अन्य बसेरों में। (11) अगला है शमशानों या कब्रिस्तानों में रहना। इन स्थानों में शव जलाए जाते हैं अथवा कुत्तों और गिद्धों के लिए उन्हें टुकड़ों में काट-काटकर छोड़ दिया जाता है। इन स्थानों में मृत्यु एवं अनित्यता का तीक्ष्ण आभास रहता है जो ईसाई कब्रिस्तानों में नहीं होता क्योंकि वे प्रायः साफ़ सुन्दर बग़ीचे होते हैं जहाँ फूलों, झाड़ियों, पेड़ों और बैठने की चौकियों के साथ-साथ कलात्मक रूप से बनाए गए समाधि-स्तम्भ भी होते हैं। (12) रमता जोगी की तरह रहना कि जो भी स्थान मिल गया वहीं सहर्ष रुक गए और फिर आगे बढ़ गए। यानी हम केवल एक स्थान पर नहीं रहते जैसे किसी अच्छे-से पेड़ के नीचे। हम यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं। (13) फिर अंतिम है - यह जिसे हम अपने तीन साल की एकांत साधना में करते हैं - ध्यानासन की स्थिति में सोना, न कि लेटकर। अर्थात्, ध्यान मुद्रा में सोना।
वास्तव में सरकाँग रिन्पोचे ने मुझे बताया कि जब वे तिब्बत के अवर तांत्रिक महाविद्यालय में रहते थे तो उन्हें मंदिर के एक विशाल सभागृह में अन्य भिक्षुओं के साथ भीड़ में एक दूसरे के बगल में आसीनस्थ स्थिति में इस प्रकार नींद पूरी करनी पड़ती थी। इससे यह लाभ होता था कि जब जागने की घंटी बजती तो उनको केवल इतना ही करना होता था कि अपनी आँखें खोल लें, और प्रार्थना और ध्यान-साधना प्रारम्भ कर दें। उन्होंने यह भी कहा कि भिक्षु एक-दूसरे पर टेक लगाकर, अपने बगल में बैठे भिक्षु पर अपने सिर को टिकाकर सोते थे। यह तो स्पष्टतः अविश्वसनीय रूप से कठिन अनुशासन है। यदि आप बैठे हुए हैं और पास में टेक लगाने के लिए कोई दीवार आदि न हो तो स्वाभाविक रूप से आप लुढ़क जाएँगे; पर यहाँ लुढ़कने की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि वे एक-दूसरे पर टेक लगा लेते थे।
इस प्रकार की वन परंपरा वाले अनुशासन का पालन करना कोई समस्या नहीं है - मुझे नहीं पता कि वे इसका पूरी नियमनिष्ठा के साथ पालन करते भी हैं या नहीं - इसे मठीय संघ में विशेष विभाग बनाकर किया जा सकता है। समस्या है इस प्रकार की प्रतिक्रियाएँ जैसे, "उफ़, ये दूसरे भिक्षु बिलकुल निकम्मे हैं और..." इत्यादि। तो इससे संघ में फूट या दरार पैदा होती है।
(9) एक विकृत, विरोधमूलक दृष्टिकोण धारण करना
फिर अगला, नौवाँ, है विकृत विरोधमूलक दृष्टिकोण धारण करना। यह केवल उन बातों को नकार देना ही नहीं है जो सत्य और मूल्यवान हैं, जैसे कर्म के नियम, शरणागति (बुद्ध, धर्म, संघ की), पुनर्जन्म, मोक्ष, ज्ञानोदय प्राप्ति, दूसरों के प्रति दया का भाव, परहित। यह केवल इनकी सच्चाई, मूल्य, एवं लाभ का खंडन करना ही नहीं है, अपितु हमारा इनके प्रति विरोधपूर्ण भाव रखना भी है और साथ ही यह सिद्ध करना भी है (इसके लिए तर्क भी करते हैं) कि यह अत्यंत निकृष्ट है। यह एक अत्यंत अग्रहणशील एवं अज्ञानतापूर्ण मन की अवस्था है जहाँ हम बहुत ज़िद्दी होकर किसी ऐसी बात का खंडन करना चाहते हैं, उसपर बहस करके उसे ग़लत सिद्ध करने चल पड़ते हैं जो वास्तव में सत्य या मूल्यवान है। पर इसका आलम्ब ऐसा होना चाहिए जो विद्यमान या सत्य हो और हमें इस बात पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि इसके सम्बन्ध में हमारा खंडन सही है और हमें वस्तुतः इस सही दृष्टिकोण के विरुद्ध लड़ना है।
त्सोंगखपा इस विकृत विरोधमूलक दृष्टिकोण को विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि इस समुत्थान (प्रेरणा) में पाँच अन्य उपादान (अशांतकारी मनोदृष्टि) समाविष्ट होने चाहिए। हम यहाँ सोचने के तरीक़े की बात कर रहे हैं; इसमें हमारे सक्रिय कृत्यों का कोई योगदान नहीं होता, जैसे किसी मामले को लेकर अदालत भागे जाना, आदि, बल्कि यों कहना चाहिए कि यहाँ तो हम केवल इसकी योजना बना रहे हैं, इसपर विचार कर रहे हैं। सबसे पहले है किसी उत्कृष्ट दृश्यप्रपंच के अस्तित्व के प्रति अंधापन। किसी विषय विशेष की सच्चाई को स्वीकार न करना। दूसरा है कलहप्रियता। इसका अर्थ है नकारात्मक भावना के प्रति विकृत आसक्ति। "मुझे लड़ना पसंद है। तुमसे बहस करने में बड़ा आनंद आता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कहते हो।" इस तरह के लोग भी मौजूद हैं: यह एक मनोदृष्टि है, है न? इस तरह के लोग भी होते हैं जो नकारात्मकता-प्रेमी होते हैं, और आपकी बात को काटते हैं, है न? उन्हें दूसरों को तंग करना अच्छा लगता है। फिर एक तीसरा है जिसपर इसका ऐसा रंग चढ़ गया है कि वह अपनी विकृति के बारे में पूरी तरह से आश्वस्त है - कि सत्य क्या है या वास्तविकता क्या है, क्योंकि उसने किसी परिघटना की निर्णायक रूप से, परन्तु ग़लत आधार पर, मीमांसा की है। इसलिए वह - अपनी अशुद्ध मीमांसा के आधार पर - पूरी तरह से आश्वस्त है कि उसका दृष्टिकोण सही है और ज़िद्द के साथ उसपर अड़ा रहता है। चौथा पूर्ण रूपेण क्षुद्रता से युक्त है, यह केवल ओछापन है, नीचता है, क्योंकि वह कहता है कि दान निरर्थक है, परहित निरर्थक है, किसी प्रकार की धर्म-साधना आदि निरर्थक है। पाँचवाँ है अड़ियलपन - वह दूसरों को नीचा दिखाना चाहता है, उनके विश्वासों का धृष्टतापूर्वक विरोध करके उनका खंडन करने का प्रयास करता है। "मैं आपको इस चर्चा में हराना चाहता हूँ।" मान लीजिए हम चर्चा कर रहे हैं। आप कहते हैं कि परहित लाभदायक है, और मैं कहता हूँ कि - मेरी मनोदृष्टि विकृत है - और मैं कहता हूँ, "तुम चाहे कुछ भी कह लो मैं तुम्हारे साथ बहस करूँगा और मैं तुम्हें हराना चाहता हूँ; वास्तव में तुम्हारी आस्थाओं को ध्वस्त करने में मुझे अत्यंत आनंद मिलता है। और मुझे इस बात पर कोई शर्म महसूस नहीं होती कि मैं किसी सकारात्मक बात का, जिसमें तुम्हारा विश्वास है, विध्वंस करने का प्रयास कर रहा हूँ, और मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि इसमें कोई बुराई है, सच कहूँ तो मुझे लगता है कि यह केवल कौतुक है।" यह विकृत विरोधमूलक विचार है। इसलिए जब आप इसे प्रायः "गलत दृष्टिकोण" के रूप में अनुवदित किया पाते हैं तो इसे कृपया ऐसा समझें कि यह मात्र त्रुटिपूर्ण बोध जनित नहीं है बल्कि यह उससे कहीं अधिक जटिल है। इसे चाहे किसी भी तरफ़ से देखा जाए यह अत्यंत गंभीर नकारात्मक कृत्य है।
(10) नागर क्षेत्रों का विध्वंस करना
दसवाँ संवर है आवासीय क्षेत्रों को नष्ट करना। यह मूल रूप से किसी शहर, कस्बे, ग्रामीण इलाके के पर्यावरण को हानि पहुँचाने, या बम से उड़ाने जैसा है। मोटे तौर पर यहाँ उद्देश्य है किसी जगह को मनुष्यों, पशुओं इत्यादि के लिए हानिकारक या कठिन या अस्वास्थ्यकर बनाना। स्पष्टतः हम यही चाहते हैं कि दूसरों का कल्याण हो, न कि उनके आवासीय क्षेत्रों को नष्ट किया जाए। हम मकान उपलब्ध कराना चाहते हैं। हम दूसरों को बहुत कुछ देना चाहते हैं। लोग जहाँ रहते हैं उस स्थान को हम नष्ट नहीं करना चाहते।