बोधिसत्त्व संवर 1 से 3 की विस्तृत व्याख्या

मूल बोधिसत्त्व संवर - एक भूमिका

जब हम बोधिसत्त्व संवर ग्रहण करते हैं तो हम विशेष रूप से दो प्रकार के कृत्य समूहों से परहेज़ करने की प्रतिश्रुति करते हैं। यद्यपि हमारी पश्चिमी भाषाओं में इनका उल्लेख सामान्यतया आधारभूत संवर एवं अनुपूर्वक संवर के रूप में किया जाता है, पर मूल भाषाओं में इनके लिए प्रयुक्त शब्दावली यह नहीं हैं। ऐसे अट्ठारह कृत्य हैं जिन्हें यदि हम कर डालते हैं तो हमारा "मूल अधःपतन" हो जाता है। "मूल अधःपतन" का अर्थ है बोधिसत्त्व संवरों का लुप्त हो जाना, और इसे "अधःपतन" इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हमें पराभव की ओर ले जाता है एवं हमारे सद्गुणों के विकास में अड़चन डालता है। और "मूल" इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह एक मूल अथवा जड़ है जिसे हमें समाप्त करना है। जो हमारी अधोगति का कारण बने उस जड़ को हमें उखाड़ फेंकना है। टीकाओं के अनुसार इस नामकरण का यही कारण है। तो पश्चिम में संक्षिप्त रूप से इसे हम मूल बोधिसत्त्व संवर कह देते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि हम अट्ठारह मूल अधःपतनों से बचने के संवर ग्रहण करते हैं।

फिर छियालीस प्रकार के "दोषपूर्ण व्यवहार" (शब्दावली का शाब्दिक अनुवाद) हैं, और इन्हें प्रायः "अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवर" कहा जाता है। यदि हम संवर विलुप्ति के लिए उत्तरदायी सभी कारकों से युक्त होकर किसी भी मूल बोधिसत्त्व संवर का उल्लंघन करते हैं, तो वह संवर हमारे मानसिक समतान से विलुप्त हो जाता है। मैं इसे अंग्रेजी में सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ, जिसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ; परन्तु संभवतः आप मेरी बात को समझ गए होंगे। दूसरे शब्दों में, कुछ बातें हैं जिनका विद्यमान होना आवश्यक है, चार बातें, और किसी भी मूल संवर का उल्लंघन करते समय यदि ये चार बातें हमारी मनोदृष्टि में विद्यमान होती हैं, तो हमारे मानसिक समतान से सभी संवर लुप्त हो जाएँगे; दो अपवादों को छोड़कर आपके पास कोई बोधिसत्त्व संवर नहीं बचेंगे। ये अपवाद हैं दो संवर जिनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे चारों आपके भीतर पूरे-के-पूरे हों; यदि आप उनका उल्लंघन करते हैं तो अपने संवर खो बैठते हैं। आपके पास चार के चार कारक संपूर्ण रूप से विद्यमान होने पर भी इन दुष्कृत्यों के द्वारा आप अपवाद के रूप में ये दो बोधिसत्त्व संवर नहीं खोते हैं। यही अंतर है।

प्रसंगवश यहाँ इस बात का उल्लेख करना ठीक रहेगा कि हमने पहले यह कहा था कि हम इन बोधिसत्त्व संवरों को ज्ञानोदय प्राप्ति पर्यन्त सभी जीवनकालों के लिए ग्रहण करते हैं। तो अब मान लीजिए कि मैंने इन संवरों को अपने किसी पिछले जन्म में ग्रहण किया था, परन्तु इस जीवनकाल में मैंने अभी तक ग्रहण नहीं किया है और मेरे पास ये सभी कारक पूर्ण रूप से हैं। यदि मैंने इस जीवनकाल में संवर ग्रहण कर लिए होते और यदि ये सभी कारक पूर्ण रूप से होते, तो मैंने ये अपने मानसिक समतान से संवर गँवा दिए होते। तो मान लीजिए कि मेरे वर्तमान जीवनकाल में इन संवरों को ग्रहण करने से पहले ही ये कारक पूर्ण हो चुके हैं; ऐसी स्थिति में मेरे बोधिसत्त्व संवर लुप्त नहीं होंगे। बल्कि इसके विपरीत, उन्हें इस जीवन में पहली बार ग्रहण करने से पिछले जीवनकालों में ग्रहण किए गए संवर और दृढ़ हो जाएँगे।

ठीक है, तो आइए अब देखते हैं कि ये मूल अधःपतन क्या-क्या हैं, ये तथाकथित "मूल बोधिसत्त्व संवर।" और यद्यपि इनके विषय में कई अलग-अलग टीकाएँ और स्पष्टीकरण हैं जिनमें इनमें से किसी पर कम बल दिया गया है तो किसी पर अधिक, परन्तु हम त्सोंगखपा की व्याख्या का ही अनुसरण करेंगे। वैसे बुद्ध के विभिन्न सूत्रों से प्राप्त बोधिसत्त्व संवरों की कई परंपराएँ हैं, और इसलिए तिब्बती लोग जिस भारतीय परंपरा को मानते हैं वह एक विशेष सूत्र पर आधारित है (मुझे खेद है कि मुझे इस सूत्र का नाम याद नहीं है), परन्तु चीनी परंपराओं और चीनी परंपराओं से उद्भूत परंपराओं में बोधिसत्त्व संवरों का एक अलग ही समूह है जो एक अन्य सूत्र पर आधारित है, ठीक वैसे ही जैसे विनय मठीय संवरों की परंपराएँ जो तिब्बती परंपराओं के अनुरूप हैं वे चीनी परम्पराओं के अनुरूप परम्पराओं से किंचित भिन्न हैं। और यद्यपि थेरवाद में, और संभवतः अन्य हीनयान परंपराओं में भी, वे बोधिसत्त्व पर बल देते हैं, और इस बात पर भी कि बुद्धजन बनने से पहले आप बोधिसत्त्व होते हैं, यह कोई ऐसा मार्ग नहीं है जिसका हममें से अधिकाँश लोग अनुसरण करना चाहेंगे; और मैंने कभी भी बोधिसत्त्व संवरों का कोई थेरवादी संस्करण नहीं सुना जिन्हें बोधिसत्त्व ग्रहण करते हों। निश्चित रूप से थेरवाद में भी बुद्ध के पिछले जन्मों की कथाएँ उपलब्ध हैं।

तो अब अट्ठारह मूल बोधिसत्त्व संवरों की बात करते हैं। ये वे अट्ठारह नकारात्मक कृत्य हैं जिनका सभी परिपूर्ण कारकों से युक्त होकर उल्लंघन करने से हमारा मूल अधःपतन हो जाता है। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से प्रत्येक के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए कई अनुबंध निर्धारित हैं, निर्दिष्ट हैं।

(1) आत्म-प्रशंसा और/या दूसरों को तुच्छ ठहराना

पहला नकारात्मक कृत्य, जिससे हम बचना चाहते हैं और जिससे परहेज़ करने के लिए हम प्रतिश्रुत होते हैं, वह है आत्म-प्रशंसा और/या दूसरों को तुच्छ ठहराना। जिस व्यक्ति के लिए हम ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, वह हमसे न्यून स्तर का होना चाहिए। हमारे इस दुष्कृत्य की प्रेरणा एक ओर उस व्यक्ति से भौतिक लाभ, प्रशंसा, प्रेम, सम्मान इत्यादि प्राप्त करने की कामना और लोभ है, तो दूसरी ओर जिस व्यक्ति को हम तुच्छ ठहराना चाहते हैं उससे ईर्ष्याभाव रखना है। और इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमारी आत्म-प्रशंसा तथा दूसरे को तुच्छ ठहराने का आधार सत्य है या मिथ्या।

इसलिए, मूल रूप से हम इस व्यक्ति से, जो हमसे न्यून स्तर का है, कुछ पाने का प्रयास कर रहे हैं, चाहे वह सम्मान हो, या धन हो, या जो कुछ भी हो, यह कहकर प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि हम सबसे अच्छे हैं और अन्य सभी निकम्मे हैं। यहाँ एक मनोविश्लेषण-शास्त्री का उदाहरण लेते हैं जो ग्राहक पाने के लिए उत्सुक है और अपने विज्ञापन में कहता है: "मैं एक बौद्ध-धर्मी मनोविश्लेषक हूँ जो केवल परहित में रुचि रखता है और बाक़ी के ये सभी ग़ैर बौद्ध-धर्मी मनोविश्लेषक केवल धन के पीछे भागने वाले हैं।" पर सच्चाई यह है कि उसकी प्रेरणा है केवल अपने लिए और अधिक ग्राहक संचित करना। "मैं सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हूँ। मैं सर्वोच्च शिक्षक हूँ। दूसरे लोग मेरे जितने अच्छे नहीं हैं,” और मैं केवल इतना चाहता हूँ कि मुझे अधिक से अधिक विद्यार्थी मिलें। दुर्भाग्यवश लोकतंत्र और चुनाव की हमारी पूरी प्रणाली वोट और सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनावों में स्वयं अपनी प्रशंसा करने और प्रतिद्वंद्वी को तुच्छ ठहराने के इसी सिद्धांत पर आधारित है। यही कारण है कि तिब्बत-वासियों के लिए लोकतंत्र और चुनाव की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को एक व्यावहारिक रूप देना इतना कठिन है, क्योंकि जो कोई भी कहता है, "मैं सबसे अच्छा प्रत्याशी हूँ और दूसरा निकम्मा है। इसलिए मुझे ही वोट दीजिए!", उस व्यक्ति पर तिब्बत-वासी स्वतः विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि वह बोधिसत्त्व संवरों का उल्लंघन कर रहे होते हैं, उनका विरोध कर रहे होते हैं। अधिकांश तिब्बत-वासी बहुत ही विनम्र होते हैं: "ओह, मैं वास्तव में योग्य नहीं हूँ, मुझे बिल्कुल नहीं पता इसे कैसे करना है", इत्यादि। वे अत्यंत विनम्र होंगे और फिर उन्हें कोई भी वोट नहीं देगा। इसलिए लोकतंत्र में चुनावों में मतदान की यह पूरी प्रणाली तिब्बत-वासियों के लिए समझना बहुत ही कठिन है।

परन्तु यदि हम बोधिसत्त्व मार्ग के संदर्भ में सोचें तो इन संवरों के विषय में यह जानना आवश्यक है - यदि हम उस कृत्य को कर बैठते हैं जिसे नहीं करने का संवर हमने ग्रहण किया है - कि यह किस प्रकार परहित की हमारी क्षमता को हानि पहुँचा सकता है। आपको यह बात समझनी होगी। यह परहित की मेरी क्षमता को किस प्रकार हानि पहुँचाएगा? तो हम इसका विश्लेषण करते हैं, इसपर विचार करते हैं। यदि हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो यह कहता है, "मैं सबसे अच्छा हूँ और अन्य सभी निकम्मे हैं!", तो क्या हम वास्तव में उसपर भरोसा करेंगे? मुझें नहीं पता। संभवतः बहुत-से पश्चिम-वासी कर सकते हैं। हमारी सम्पूर्ण विज्ञापन प्रणाली इसी पर आधारित है, है न? “यह आपके कपड़े धोने के लिए सबसे अच्छा साबुन है; बाक़ी के सब बेकार हैं। इसे ही खरीदें!" पर यदि हम इस बात का गहनता से विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन लोगों को केवल हमारे पैसों से ही मतलब है। तो हमें बहुत अच्छी तरह विचार करना होगा कि क्या हम भी अपना परिचय इसी प्रकार देने का प्रयास कर रहे हैं: "मैं सर्वश्रेष्ठ बोधिसत्त्व हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हूँ। मैं तुम्हारी सभी समस्याओं का समाधान कर सकता हूँ। मेरे पास आ जाओ। और कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।" चलिए हम इसे सच ही मान लेते हैं, तो भी यह अत्यंत भौतिकतावादी प्रेरणा है। मेरे कहने का मतलब उसके आधार से है; यदि यह बात उसपर आधारित है कि मुझे तो बस और अधिक छात्र चाहिए। यही कारण है कि हमें इसके प्रति सावधान रहना होगा।

यह कहने से क्या होगा कि बौद्ध-धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है; और कोई अन्य नहीं; अन्य आध्यात्मिक मार्ग अच्छे नहीं हैं? क्या ऐसा करने से हम इस संवर को भंग नहीं कर रहे होंगे? आपका क्या विचार है? 

यह हमारे समुत्थान (प्रेरणा) पर निर्भर करता है।

यह बिलकुल सच है, लेकिन ऐसा करने का उचित समुत्थान क्या हो सकता है?

दूसरों का भला करना।

पर क्या यह मूढ़ता हो सकती है। क्या वर्तमान काल में बौद्ध-धर्मी मार्ग सबके लिए सर्वोत्कृष्ट है? आप देखिए कि परम पावन दलाई लामा अन्य धर्मों के विषय में क्या कहते हैं, तो वे कहते हैं कि आप केवल इतना ही कह सकते हैं - और यह बात उस सिद्धांत पर उनकी प्रतिक्रिया है जो कहता है कि सत्य केवल एक है और सच्चा धर्म भी केवल एक ही है - वे केवल इतना भर कह पाते हैं बौद्ध धर्म मेरे लिए सर्वोत्कृष्ट है; पर यह नहीं कह पाते कि यह आपके लिए भी सर्वोत्कृष्ट है। प्रत्येक परंपरा अपने आध्यात्मिक लक्ष्य के बारे में ही बात करती है। ईसाई धर्म यह दावा नहीं करता कि यदि आप ईसाई-धर्मी मार्ग का पालन करते हैं तो आपको बौद्ध-धर्मी ज्ञानोदय प्राप्ति हो सकती है, पर वह कहता है कि आप ईसाई धर्म के लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर सकते हैं; और इस विषय पर विवाद करने का कोई कारण नहीं है। तो, सरल भाषा में कहा जाए तो यदि आप बौद्ध-धर्मी स्वर्गलोक जाने के लिए प्रार्थना करते हैं तो आप बौद्ध-धर्मी स्वर्गलोक ही जाएँगे; यदि आप ईसाई-धर्मी स्वर्गलोक जाने की प्रार्थना करते हैं तो आप ईसाई-धर्मी स्वर्गलोक ही जाएँगे। बालोचित सरलता से कहा जाए तो यदि आप बौद्ध-धर्मी स्वर्गलोक जाने की प्रार्थना करते हैं तो ईसाई-धर्मी स्वर्गलोक में नहीं पधारेंगे। तो, वर्तमान काल में ऐसा हो सकता है कि अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग आध्यात्मिक मार्ग उपयुक्त हों। इसलिए परम पावन अन्य आध्यात्मिक परंपराओं का बहुत सम्मान करते हैं, और बौद्ध परंपरा के बारे में उनका केवल यही कहना है कि बौद्धधर्मी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्तः बौद्ध धर्म ही सबसे उचित है, ये लक्ष्य हैं मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति, वह भी इन्हें जिस प्रकार बौद्ध धर्म में परिभाषित किया गया है।

तो पहली बात है आत्म-प्रशंसा तथा दूसरों को तुच्छ ठहराने से बचना जबकि एक ओर हमारा समुत्थान हो कामना और लोभ एवं दूसरी और ईर्ष्या। निश्चित रूप से व्यवसाय में इसे व्यावहारिक रूप देना बहुत कठिन होगा। हम विज्ञापन कैसे कर पाएँगे? मुझे लगता है कि यदि हम नकारात्मक विज्ञापन करते हैं कि दूसरों का उत्पाद कितना बुरा है, तो वह संवर-विरोधी हो जाता है। और यदि हम अपनी प्रशंसा करते हैं - हमारा उत्पाद कितना बढ़िया है; अन्य सभी उत्पादों से कहीं श्रेष्ठतर - वह भी संभवतः इस संवर के अनुरूप नहीं होगा। तो फिर हम विज्ञापन किस प्रकार करें? प्रासंगिक प्रश्न यह है कि जब हम विज्ञापन करते हैं तो हमारा समुत्थान (प्रेरणा) क्या है - अत्यधिक लाभ संचित करना या दूसरों के सामने अपना उत्पाद प्रस्तुत करना ताकि उन्हें उससे लाभ और सहायता मिले? तो जैसे आप लोगों में से किसी ने कहा था कि सब कुछ वास्तव में समुत्थान पर निर्भर करता है, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ठीक?

बहुत-से व्यवसायियों को इन संवरों से कठिनाई उत्पन्न होती है। बौद्ध-धर्मी नैतिकता के आधार पर व्यवसाय कैसे करें? यदि हमारा एकमात्र उद्देश्य लाभ संचित करना है तो यह कोई आसान प्रश्न नहीं है। मुझे लगता है कि एक उत्तम उदाहरण होगा अमरीकी चिकित्सा प्रणाली, जो हाल के दशकों में केवल आर्थिक लाभ के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने की ओर उन्मुख हो गई है। अस्पताल उन व्यावसायिक समूहों के स्वामित्व के अधीन हो गए हैं जिनके पास उन अस्पतालों के शेयर हैं, और इसके फलस्वरूप इन शेयरधारकों को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाना ही उन अस्पतालों का एकमात्र उद्देश्य बनकर रह गया है। और इसलिए वे रोगियों से अधिक से अधिक धन कमाने के उद्देश्य से उन्हें जहाँ तक हो सके कम-से-कम समय अस्पताल में रखते हैं, ताकि वे अधिकाधिक नए रोगियों की भर्ती कर सकें – वे नहीं चाहते कि किसी भी बिस्तर पर कोई रोगी बहुत समय तक पड़ा रहे। और ऐसा प्रतीत होता है कि अस्पतालों का ध्यान रोगियों को उचित उपचार देने से दूर हट गया है, और यही कारण है कि औषधियों की गुणवत्ता प्रायः गिरती जा रही है। और इसलिए यदि परहित का हमारा उद्देश्य आर्थिक लाभ है तो ऐसा लगता है कि उस परहित की उत्कृष्टता कम हो जाएगी। और इसीलिए यह बहुत आवश्यक है कि बोधिसत्त्व मार्ग का अनुसरण अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए न हो, विशेष रूप से यदि हमारी स्वार्थ सिद्धि से अन्य साधकों - जैसे अन्य शिक्षक, आदि - के स्वार्थ को हानि पहुँचे।

(2) धार्मिक शिक्षाओं या धन को साझा न करना

दूसरा बोधिसत्त्व संवर, वे नकारात्मक कृत्य जिससे हम बचने का संकल्प लेते हैं, वह है धार्मिक शिक्षाओं या हमारी धन-संपत्ति को साझा न करना। और यहाँ समुत्थान है आसक्ति और कृपणता। तो हम अपनी धर्म-शिक्षा के दौरान जो टिप्पणियाँ लिखते हैं उनके प्रति, या अपने कंप्यूटर या फिर अपनी कंप्यूटर की फ़ाइलों के प्रति अधिकार-भावना से ग्रस्त हो सकते हैं, और हो सकता है कि उसे दूसरों के साथ साझा न करना चाहें, और कोई पूछे तो तरह-तरह के बहाने बना दें। "यदि मैं तुम्हें अपनी पुस्तक देता हूँ तो तुम उस पर कॉफी गिरा दोगे, इसलिए मैं तुम्हें नहीं दूँगा।" हम अपने धन के विषय में निश्चित रूप से अधिकार-भावना से ग्रस्त हो सकते हैं जिसे दूसरों को न देना चाहें। जैसे लोगों से यह कहना, "आप इस धर्म पाठ्यक्रम में भाग नहीं ले सकते क्योंकि आपके पास इसके लिए पर्याप्त धन नहीं हैं।" और इस प्रकार हम एक तरह से धर्म की शिक्षाओं को अपने तक ही सीमित रखते हैं – हम दूसरों के साथ पाठ्यक्रम में भाग लेने की वित्तीय संभावना को साझा नहीं कर रहे हैं।

ऐसा भी हो सकता है कि हम अपने समय के प्रति आसक्त हो जाएँ और उसे परहित हेतु साझा न करना चाहें। उदाहरण के लिए, कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने सप्ताहांत के प्रति बहुत आसक्त हो जाते हैं: “यह मेरी छुट्टी का दिन है। आज मुझसे कुछ करने के लिए मत कहो।" और यह मनोवृत्ति प्रायः सर्वव्यापी है। मेरी यह अपनी वेबसाइट परियोजना है, जिसमें कभी-कभी स्वयंसेवकों एवं कर्मचारियों को लेकर कई बातें उठती हैं जिनपर ध्यान देना पड़ता है। कई बार ये लोग यह भी कह देते हैं, "देखिए, मुझे सप्ताहांत के लिए कोई काम न दें: यह मेरा शुद्ध रूप से अपने लिए रखा हुआ समय है।" यह कोई बोधिसत्त्व व्यवहार तो नहीं हुआ, है न? यदि किसी को हमारी सहायता की आवश्यकता है - और हम किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहे हैं जो लगातार दूसरों के समय को बर्बाद करने पर तुला है - पर यदि किसी को वास्तव में हमारी सहायता की आवश्यकता पड़ जाए, तो फिर चाहे वह दिन हो या रात, सप्ताहांत हो या और कुछ, हम उस व्यक्ति की सहायता करते हैं। जैसे यदि हमारा अपना बच्चा रोता है या वह बिस्तर से गिर जाता है, तो हम यह नहीं कहते, "अब चिल्लाओ मत, मैं तुम्हें कल सुबह उठा लूँगा, अभी मेरा सोने का समय है।" और जब हम दूसरे व्यक्ति की सहायता करते हैं तो कुड़कुड़ाते हुए नहीं करना चाहिए। बोधिसत्त्व व्यवहार के दृष्टिकोण से तो हमें बहुत खुश होना चाहिए जब कोई हमारी सहायता के लिए इच्छुक होता है और वह हमसे आग्रह करता है। ऐसा करने के लिए, यानी बुद्धजन की भाँति सदा सबकी सहायता करने में सक्षम होने के लिए ही तो हम साधना करते हैं। तो यदि कोई हमारी सहायता चाहता है तो यह अति उत्तम बात है। अर्थात्, यदि कोई हमसे कुछ सीखना चाहता है, या हमारे धर्म पर लिखी टिप्पणियों की कॉपी वह साझा करना चाहता है, इत्यादि, तो हमें चाहिए कि हम उसके साथ ये सब सहर्ष साझा करें, बशर्ते कि वह इस बारे में सदाशय हो, और ये शिक्षाएँ उसके लिए उपयुक्त भी हों। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लोग अपनी आवश्यकताओं के समुत्थान (प्रेरणा) को लेकर कुछ सनकी हो जाते हैं।

एक बार जब मैं अपने गुरु सरकाँग रिन्पोचे के लिए अनुवाद कर रहा था (यह हिप्पी काल की बात है), नशे में धुत्त एक हिप्पी सरकाँग रिन्पोचे से मिलने आया और बोला, "ओह, मैं नरोपा का षडांग योग सीखना चाहता हूँ। कृपया मुझे षडांग योग सिखाएँ।" रिन्पोचे ने उस व्यक्ति की बात को गंभीरता से सुना और कहा, "बहुत अच्छी बात है कि तुम इसका अध्ययन करना चाहते हो। यह एक अद्भुत आकांक्षा है। पर इसके अध्ययन से पहले तुम्हें इसका  और उसका  अध्ययन और साधना करनी होगी, और एक पूरी प्रक्रिया से गुज़रना होगा और अपनेआप को षडांग योग सीखने के लिए तैयार करना होगा।" तो ऐसा कहकर वे इस व्यक्ति को नरोपा के षडांग योगाध्ययन कराने के विषय में कृपणता नहीं दिखा रहे थे। निस्संदेह वह व्यक्ति उसके लिए तैयार नहीं था। परन्तु उन्होंने उस व्यक्ति का इस तरह से मार्गदर्शन किया कि वह अंततः इस धर्म-अध्ययन के लिए सुयोग्य बन गया, और यह तरीक़ा उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त था।

उस सामान्य सिद्धांत का स्मरण करें जिसका उल्लेख मैंने पहले किया था: निम्न स्तर का बोधिसत्त्व अत्यधिक विकसित बोधिसत्त्व की साधना करने का प्रयास तब तक नहीं करता जब तक वह उसके लिए सक्षम नहीं हो जाता। तो, यदि कोई हमसे सहायता की माँग करता है जिसके लिए हम सक्षम नहीं हैं, तो हमें यह ढोंग नहीं करना चाहिए कि हम जितना कर सकते हैं उससे अधिक करने में सक्षम हैं। हमें केवल इतना कहना चाहिए, "काश! मैं ऐसा कर पाता पर मैं वास्तव में उस योग्य नहीं हूँ।" यदि आप किसी तिब्बती व्यक्ति से यह बात कहते हैं, तो वह यही सोचेगा कि आप विनम्र हैं और वास्तव में आप सुयोग्य हैं और आप केवल विनीत भाव से यह कह रहे हैं कि, "ओह, नहीं, नहीं, नहीं, मुझमें यह योग्यता नहीं है। मैं यह काम नहीं कर सकता,” और इसलिए वह आग्रह करेगा। परन्तु आपको चाहिए कि आप दृढ़ता से कहें, "नहीं, मैं विनम्रतावश ऐसा नहीं कह रहा, सच्चाई यह है कि मैं इस काम के योग्य नहीं हूँ।"

मैं एक उदाहरण देता हूँ। इटली में एक धर्म संस्थान है, लामा त्सोंग खापा संस्थान, जहाँ मठीय प्रशिक्षण के प्रमुख विषयों का अध्ययन करने के लिए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाया जाता है। यह गृहस्थ तथा मठवासी दोनों के लिए है। यह छ: वर्ष का कार्यक्रम है। वहाँ एक गेशे हैं जिन्होंने इस पाठ्यक्रम के पहले विषय को पढ़ाया; परन्तु जब दूसरे विषय को आरम्भ करने का समय आया, जो माध्यमक था, तो उन्होंने कहा, " मेरे पास इसे पढ़ाने की योग्यता नहीं है।" और स्वाभाविक रूप से सबने उनपर पढ़ाने के लिए ज़ोर डाला और कहा कि वे केवल विनम्रता के कारण मना कर रहे थे, परन्तु उन्होंने कहा, "नहीं, मेरी इस विषय में योग्यता नहीं है।" फिर उन लोगों ने उन गेशे के सहपाठियों  एवं गुरुओं से पूछताछ की तो पता चला कि उस विषय में वास्तव में उन्हें योग्यता प्राप्त नहीं थी; एक गेशे होते हुए भी इस विषय में उन्हें विशेषज्ञता प्राप्त नहीं थी। परन्तु उन्होंने एक योग्य गेशे के साथ सहयोग करने का सुझाव दिया, बशर्ते कि कोई योग्य गेशे मिले जो आकर पढ़ाने के लिए तैयार हो जाए। तब जाकर उस संस्था ने एक योग्य गेशे को नियुक्त किया जो आकर पढ़ाने के लिए तैयार हो गए। और वह पहले गेशे, जिन्होंने यह कहा था कि, "मेरी योग्यता नहीं है," सहायता हेतु अभी भी वहीं रुके हुए हैं। तो इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि इन पहले गेशे ने धर्म शिक्षाओं को साझा न करके अपने बोधिसत्त्व संवर का उल्लंघन नहीं किया; अपितु वे प्रतिज्ञाबद्ध प्रवृत्त बोधिचित्त अवस्था के प्रशिक्षण का पालन कर रहे थे, यानी जो गुण उनके पास नहीं हैं वे उनका मिथ्या अधिकार नहीं जता रहे थे।

तो, इसका निचोड़ यह है कि यदि कोई हमसे धर्म की किसी शिक्षा की व्याख्या करने को कहे या फिर हमसे हमारी शिक्षाओं के टिप्पण लेख माँगे तो हम यह कह सकते हैं, "ठीक है, तुम मेरे टिप्पण लेख ले सकते हो पर वे बहुत बढ़िया नहीं हैं," या "वे स्पष्ट नहीं हैं," या "इस विषय में मेरी समझ इतनी अच्छी नहीं है।”उसके बारे में निष्कपट रहें। और यदि हमें किसी विषय का बोध न हो तो हमें कहना चाहिए, “मुझे इसका स्पष्ट बोध नहीं है। इसलिए इसे समझा नहीं सकता।" अपने समय आदि को साझा न करने के इस पूरे मामले में भी हमें प्रज्ञापारमिता से काम लेना चाहिए। यह जानकारी भी बोधिसत्त्व प्रशिक्षण का भाग होती है कि हमें कब विश्राम करना चाहिए ताकि परहित को जारी रखने के लिए हमारे पास यथेष्ट शक्ति बनी रहे। ऐसे मामलों में हम यह कह सकते हैं, "मैं आपकी सहायता करना चाहता हूँ पर बहुत अधिक थक चुका हूँ। मुझे विश्राम की आवश्यकता है। अभी मुझसे कुछ भी न हो पाएगा।"

एक और समस्या आती है जब हमसे कई लोग एक साथ सहायता माँगते हैं; ऐसे में हम अपनेआप को हज़ार शरीरों में बाँट तो नहीं सकते ताकि हम सबकी सहायता एक साथ कर सकें। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम अब तक बुद्धजन नहीं बने हैं। तो मैं सभी की सहायता एक साथ नहीं कर सकता। ऐसे में हमें, दुर्भाग्यवश, चयन करना पड़ता है। तो अब बात यह है कि हम कैसे चयन करें, कैसे प्राथमिकता तय करें? इसपर परम पावन - परम पावन दलाई लामा - ने कुछ दिशानिर्देश दिए हैं। उन्होंने कहा, "पहले तो यह जान लें कि आप किस क्षेत्र में सहायता करने के लिए सबसे अधिक योग्य हैं, और किस क्षेत्र में यही काम करने वाले ऐसे बहुत अधिक लोग भी नहीं हैं जो आपकी तरह सक्षम हैं, फिर उसी क्षेत्र में आप प्रमुख रूप से ध्यान दें। जिन कार्यों के लिए अन्य लोग भी हैं जो आपके समान सक्षम हैं, तो आप उनकी  संस्तुति करें। आप अपना ध्यान उस कार्य में लगाएँ जिसे करने में आप विशिष्ट रूप से सक्षम हैं। मैं अपना ही उदाहरण देता हूँ। अगर कोई मुझसे कहता है, "मैं तिब्बती भाषा सीखना चाहता हूँ। कृपया मुझे तिब्बती भाषा सिखाएँ।" अब बात यह है कि ऐसे कई लोग हैं जो तिब्बती भाषा सिखा सकते हैं, और ऐसे कई अन्य विषय हैं जो मैं पढ़ा सकता हूँ और जिसे बहुत-से लोग नहीं पढ़ाते हैं। तो, ऐसे में, मैं कहता हूँ, "ठीक है, ये कुछ अन्य लोग हैं जो..." और मैं ऐसे लोगों के पास जाने का परामर्श देता हूँ जिनके पास जाकर वे तिब्बती भाषा, विशेष रूप से उसके प्रारंभिक स्तर को, सीख सकते हैं।

अपनी प्राथमिकताओं को तय करने के सिलसिले में एक और सिद्धांत यह हो सकता है कि हमारा इस दूसरे व्यक्ति के साथ अत्यंत विशिष्ट संबंध हो और वह हमारे प्रति अत्यंत ग्रहणशील हो। तो मैं यहाँ एक बहुत ही बढ़िया उदाहरण देता हूँ। परम पावन दलाई लामा के कई शिक्षक थे। तो अब वरिष्ठ शिक्षक, लिंग रिन्पोचे का पुनर्जन्म और यथाकथित सहायक गुरु, मेरे अपने गुरु, सरकॉंग रिन्पोचे का पुनर्जन्म थे। सरकॉंग रिन्पोचे की असली उपाधि वास्तव में "सहायक गुरु" नहीं थी, वह थी "प्रमुख वाद-विवाद सहगामी," पर यहाँ इतनी बारीकियों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे परम पावन के शिक्षक थे। वे एक दूसरे से लगभग एक वर्ष के अंतर में पैदा हुए थे, वय में इतने समान। जब वे छोटे बच्चे थे, मुझे लगता है कि वे दोनों तीन और चार साल के रहे होंगे, परम पावन ने उन्हें तिब्बती वर्णमाला पढ़ने का पहला पाठ दिया। अब स्पष्ट है कि परम पावन ने उनके वर्णमाला अध्यापक बनकर उन्हें पढ़ना तो नहीं सिखाया। पर अपने शिक्षकों के साथ उनके इतने विशेष घनिष्ठ संबंध थे कि जब उनका पुनर्जन्म प्रकट हुआ तो पाया गया कि वे वही थे जिन्होंने उन्हें उनका पहला पाठ पढ़ाया था।

मेरे अपने मित्र, ऐलन टर्नर, का सरकॉंग रिन्पोचे के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध था। ऐलन ने तिब्बती भाषा तो कभी नहीं सीखी, पर सरकॉंग रिन्पोचे ने उनके मन में तिब्बती भाषा के बीज बोने के लिए उन्हें उस भाषा का पहला पाठ सिखाया। निस्संदेह उन्होंने दूसरों के साथ ऐसा नहीं किया। परम पावन ने अपने गुरु को छोड़कर किसी अन्य को तिब्बती भाषा नहीं सिखाई, जिन गुरु के साथ उनका अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध था। तो हम इस प्रकार अपनी प्राथमिकताएँ तय करते हैं। इसकी क्या विशेष आवश्यकता है? यदि मैं इस व्यक्ति को सिखाता हूँ तो वह दूसरों को कितना लाभ पहुँचा पाएगा? अपना समय व्यतीत करने के लिए उस व्यक्ति के साथ हमारा सम्बन्ध कितना घनिष्ठ है? क्या वह व्यक्ति मेरे प्रति उतना ही ग्रहणशील है? या, सामान्य रूप से कहा जाए तो ऐसा कौन-सा काम है जिसे करने के लिए मैं सबसे अधिक योग्य हूँ और जिसे करने के लिए बहुत कम लोग हैं? और अन्य कामों के लिए जब लोग हमसे समय माँगते हैं तो हम कुछ थोड़ा-बहुत करके बाक़ी के लिए सुझाव दे सकते हैं। परन्तु ध्यान रहे कि हमें क्रोधित होकर यह नहीं कहना है कि, “मुझे परेशान मत करो। चले जाओ।" यह बोधिसत्त्व व्यवहार के विरुद्ध है।

और एक रोचक बात सुनिए, मैंने रिंगु तुल्कु से यह प्रश्न पूछा था - वे काग्यू के एक महान गुरु हैं - उन्होंने कहा कि, चूँकि हम सब संसारी लोग हैं और हमने बुद्धत्त्व प्राप्त नहीं किया है, तो समय की प्राथमिकताएँ तय करने के लिए एक कारक और भी है जिसपर हम विचार कर सकते हैं और वह है ऐसा काम जिसे करने से हमें आनंद मिलता है। उन्होंने कहा कि कम मात्रा में इस प्रकार की स्वार्थ-युक्त प्रेरणा भी ठीक है क्योंकि यह हमें और अधिक शक्ति और उत्साह देने में सहायक होती है। और यह तभी तक ठीक है जब तक कि यह हमारा मुख्य सरोकार न बन जाए।

तो, दूसरों की सहायता करने के लिए, दूसरों को लाभान्वित करने के लिए हम अपने समय का किस प्रकार निवेश करें, यह तय करने के लिए कारकों का एक पूरा समूह है जिसे हम ध्यान में रख सकते हैं।

फिर विचार करना चाहिए कि क्या मैं इसे बनाए रख सकता हूँ, क्या मैं इसे कर सकता हूँ? यदि मैं बोधिसत्त्व संवरों को ग्रहण करने का इच्छुक हूँ तो क्या मैं उन्हें निभा पाऊँगा? इस बात पर विचार करें कि क्या मैं इसपर कायम रह पाऊँगा। ठीक। तो हमें आसक्ति और लाभ के लोभ तथा दूसरों के प्रति ईर्ष्या से जनित आत्म-प्रशंसा एवं दूसरों को तुच्छ ठहराने के युगल कृत्यों से बचना होगा। हमें आसक्ति और कृपणता के कारण धर्म की शिक्षाओं, या अपनी सम्पदा, या संपत्ति, या समय, इत्यादि को साझा न करने के विचार से भी बचना होगा।

यदि हम आलस्य, क्रोध इत्यादि के कारण धर्म की शिक्षाओं को साझा नहीं करते हैं, "मुझे तुम अच्छे नहीं लगते इसलिए मैं तुम्हारी सहायता नहीं करूँगा या कुछ भी साझा नहीं करूँगा," तो, इस कृत्य से बचने के लिए एक अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवर है। यह मूल संवर नहीं है। तो अब प्रश्न यह उठता है: ऐसा क्यों? ऐसा क्यों है कि एक मूल संवर है और दूसरा अनुपूर्वक संवर? यह इसलिए कि एक बोधिसत्त्व होने के नाते हमें सबको सब कुछ देने के लिए तैयार होना चाहिए, न कि केवल अपने लिए संचित करने के लिए। जब हमारे भीतर आसक्ति और कृपणता होगी, अर्थात् मैं किसी से कुछ भी साझा नहीं करना चाहता, तो यह वास्तव में बोधिसत्त्व लक्ष्य के विरुद्ध हो जाता है। परन्तु हम यदि यह कह दें कि यह तो केवल मेरा आलस्य है, तो यह बिल्कुल पृथक मनोदशा हो जाती है, है न? "मैं आपकी सहायता करना तो चाहता हूँ, पर मैं बहुत आलसी हूँ।"

(3) दूसरों की क्षमा-याचना न सुनना या दूसरों पर प्रहार करना

तीसरा बोधिसत्त्व संवर, जिससे हमें बचना है, वह है दूसरों की क्षमा-याचना न सुनना, अथवा दूसरों पर प्रहार करना या उन्हें पीटना। यहाँ दो बातें हैं। पहला है दूसरों की क्षमा-याचना न सुनना, और दूसरा है अन्य लोगों पर प्रहार करना। इन दोनों का समुत्थान (प्रेरणा) मुख्य रूप से क्रोध है। तो पहला उस अवसर को संदर्भित करता है जब हम किसी पर चिल्लाते हैं, या उस व्यक्ति को पीटते हैं, जैसे हमारी नटखट संतान, और या तो वह व्यक्ति हमसे क्षमा-याचना आदि करता है, मान लीजिए हमारी पत्नी हमसे रुकने की विनती करती है और हम नहीं मानते। दूसरा है किसी पर प्रहार करना या उसे पीटना। हमारे मन में द्वेष भावना के कारण किसी घटना के उपरांत भी दूसरे की क्षमा-याचना को स्वीकार न करना बोधिसत्त्व का अनुपूर्वक संवर है। तो यहाँ दो स्थितियाँ हैं। कोई क्षमा-याचना करता है, "क्षमा कीजिए, मुझपर चिल्लाइए नहीं," जब हम वास्तव में उनपर चिल्ला रहे होते हैं या उन्हें पीट रहे होते हैं या क्रोध के अधीन होकर उनके प्रति अत्यंत निकृष्ट व्यवहार कर रहे होते हैं। तो निःसंदेह उस समय भी हम एक बोधिसत्त्व ही बने रहते हैं, भले ही हम क्रोध के अधीन हों। दूसरा व्यक्ति चीखता है, "रुक जाइए! मुझे क्षमा कर दीजिए!" ऐसे में यह बात तो स्पष्ट है कि हमें रुक जाना चाहिए, हमें चाहिए कि हम उसे क्षमा कर दें, उसकी क्षमा-याचना को स्वीकार करें। देखा जाए तो क्षमा करना एक अत्यंत विचित्र अवधारणा है, है न? मुझे नहीं लगता कि यह बिल्कुल - वास्तव में मैं "क्षमा-दान" के लिए तिब्बती भाषा में किसी शब्द की कल्पना भी नहीं कर सकता। मूलतः बात इतनी है कि हम क्रोधित होना बंद करें और उन्हें पीटना भी बंद करें। "क्षमा-दान" शब्द से ऐसा लगता है कि उस व्यक्ति को उसके अपने कर्मों के परिणामों से पृथक रखना हमारे वश में है; यह तो कहीं से भी बौद्ध-धर्मी नहीं है। तो यहाँ बात केवल इतनी है कि मुझपर क्रोधित होना बंद करें, और मुझपर चिल्लाना बंद करें, और मुझे पीटना बंद करें, या मुझे त्यागें नहीं - उस समय जब हम उस व्यक्ति पर चिल्लाने आदि का व्यवहार कर रहे होते हैं।

अनुपूर्वक संवर तो बाद की बात है। स्थिति तो यह है कि हम अभी भी उस व्यक्ति पर क्रोधित हैं, या उसके प्रति हमारे मन में कोई दुर्भावना है; और फिर, बाद में जब वह व्यक्ति कहता है, "मुझे क्षमा कर दीजिए", तब उसकी क्षमायाचना को स्वीकार नहीं करते या अपने द्वेष और क्रोध को नहीं छोड़ते। तो मुझे लगता है कि यहाँ दो पृथक अवस्थाएँ हैं - एक ओर है तीक्ष्ण क्रोध जो हमें अकुशल (विनाशकारी) कृत्य करने के लिए प्रेरित करता है, जैसे किसी पर चिल्लाना, या उसे पीटना, या उसके विरुद्ध कुछ नकारात्मक कृत्य करना, और दूसरी ओर है द्वेष - क्रोध को अंदर ही अंदर सुलगने देना, परन्तु उसके आधार पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करना। ठीक?

तो यह बात स्पष्ट है कि यदि हम दूसरों की सहायता करना चाहते हैं तो, भले ही हम अस्थायी रूप से क्रोधित हो जाएँ, पर हमें चाहिए कि हम उसे त्याग दें, हमें उस क्रोध या द्वेष को त्याग देना चाहिए। और इस संवर का दूसरा आयाम है दूसरों को न पीटना, और यहाँ तात्पर्य है क्रोध के अधीन होकर दूसरों को पीटना। ऐसी स्थितियाँ भी हो सकती हैं जहाँ किसी को पीटना आवश्यक हो, उपकारी हो, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि वह कृत्य क्रोध के आवेश में आकर नहीं होना चाहिए। तो यहाँ हम भारत से एक उदाहरण ले सकते हैं: यदि आपको अपनी भैंस को चलाकर कहीं ले जाना हो तो उसकी पीठ पर थपकी देने की आवश्यकता होती है। यदि आप अपनी भैंस से केवल कहते हैं, "कृपया उस ओर चलिए," तो वह कुछ नहीं समझेगी। तो यहाँ भैंस की पीठ पर मारने का अर्थ क्रोध के आवेश में भैंस को पीटना नहीं होता। भैंस एक प्रकार का पशु है जो भारत और नेपाल में पाया जाता है। यह विशालकाय होती है, गाय से भी बड़ी। इसका रंग काला होता है, इसके सींग होते हैं, और यह बहुत गाढ़ा दूध देती है। अब हो सकता है कि आपके पास कोई भैंस न हो, या आपको यह पता ही न हो कि भैंस क्या है, और संभवतः हममें से अधिकांश लोगों के पास भैंस तो क्या घोड़ा या ऊँट भी नहीं होगा जिसे कहीं ले जाने के लिए उसकी पीठ पर मारने की आवश्यकता पड़े। पर कभी-कभी तो ऐसा हो सकता है कि कोई नटखट बच्चा सड़क की ओर भागने लगे और साथ ही इस बात का भय भी हो कि कहीं वह दुर्घटना का शिकार न हो जाए या मारा न जाए, तो उसे चपत लगाने या उसके साथ अन्य उग्र व्यवहार करने की आवश्यकता पड़ सकती है। पर यह क्रोध के अधीन होकर नहीं किया जाता। तो, मैं इस बात को फिर से दोहराता हूँ, विभिन्न कृत्यों का असर उनके समुत्थान (प्रेरणाओं) से अत्यधिक प्रभावित होता है; और यहाँ समुत्थान है क्रोध या दुर्भावना। हम दूसरे व्यक्ति को चोट पहुँचाना चाहते हैं। और ऐसे में यदि वह व्यक्ति कहता है, “कृपया ऐसा न कीजिए, कृपया ऐसा करना बंद कीजिए,” और हम मानते नहीं, तो यह इस संवर का उल्लंघन है। तो यह है तीसरा बोधिसत्त्व संवर।

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