प्रेम, करुणा और बोधिचित्त का महत्त्व

बोधिचित्त के विकास के लिए हम सबके पास आधारभूत कार्यचालन सामग्री होती है

"बोधिचित्त" एक संस्कृत शब्द है। इसका सही-सही अनुवाद करना बहुत सरल नहीं है। दूसरे शब्द, "चित्त", का अर्थ है "मन"। परन्तु, जब हम बौद्ध धर्म की बात करते हैं तो चित्त से मन एवं हृदय दोनों अभिप्रेत होते हैं। पश्चिमी विचारधारा के विपरीत, बौद्ध धर्म में हम इन दोनों के बीच अंतर नहीं करते। अतः हमारा उद्देश्य अपनी समाधि (एकाग्रता) एवं अनुबोध (धारणा) इत्यादि के द्वारा केवल अपनी बुद्धि - अर्थात् चित्त के तर्कयुक्त पक्ष, विवेक - का ही विकास करना नहीं है अपितु, हमें अपने हृदय, अपने समग्र भावात्मक पक्ष का भी विकास करना होगा, ताकि हम बोधिचित्त के पहले चरण "बोधि" तक पहुँच सकें।

"बोधि" एक ऐसा शब्द है जो सर्वोच्च विकास और विशोधन (शुद्धिकरण) की स्थिति को दर्शाता है। विशोधन का अर्थ उन सभी अवरोधों एवं अन्तर्बाधाओं को नष्ट करना है जो हमारे भीतर हो सकती हैं, अर्थात् मानसिक एवं भावात्मक दोनों अन्तर्बाधाओं को। इसके अतिरिक्त इसमें अपने मतिभ्रम, अनुबोध की कमी, और एकाग्रता की कमी को मिटाना भी समाहित है। इसके अलावा इसमें अपने क्लेशों को समाप्त करने के लिए अपने भावात्मक पक्ष का विशोधन भी शामिल है। क्लेश में क्रोध, लोभ, आसक्ति, स्वार्थपरायणता, दम्भ, ईर्ष्या, भोलापन इत्यादि सम्मिलित हैं... इसकी एक अत्यंत विस्तृत सूची है; जिसे हम बढ़ाते जा सकते हैं। यही हमारे जीवन के वास्तविक उपद्रवी तत्त्व हैं। अतः हम अपने मन और बुद्धि से इन उपद्रवी तत्त्वों को समाप्त करने का लक्ष्य साध रहे हैं ।

"बोधि" शब्द का एक और आयाम है जिसका आशय है "विकास।" इसका तात्पर्य है कि हमारे भीतर मूलभूत कार्यचालन सामग्री है - यह हम सबके पास है: हम सबके पास शरीर है। हमारे पास सम्प्रेषण क्षमता है। हमारे भीतर अपने शरीर से कार्य-संचालन करने की क्षमता है, अर्थात् हम उससे काम कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम सबके पास चित्त (आशय समझने की क्षमता), हृदय (भावनाएँ, दूसरों के प्रति सौहार्द अनुभव करने की क्षमता), तथा विवेक (उपयोगी और हानिकारक में अंतर करने की क्षमता) भी है।

इस प्रकार हमारे पास ये सभी कारक हैं, ये सभी विशेषताएँ हैं, पर यह हम पर निर्भर करता है कि हम इनका क्या करते हैं। हम इनका उपयोग अपने मन, कर्म, और वचन के द्वारा अपने को तथा दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए कर सकते हैं। या फिर हम इनके उपयोग से दूसरों को तथा अपनेआप को लाभ एवं अधिकाधिक आनंद पहुँचा सकते हैं। यदि हमारी गतिविधियाँ, सम्प्रेषण, एवं विचार की रीतियाँ भ्रम तथा क्लेश से प्रभावित हैं तो निश्चय ही ये हमारे लिए समस्याएँ उत्पन्न करेंगी। जब हम क्रोध के अधीन होकर कोई कार्य करते हैं तो प्रायः ऐसा कोई-न-कोई काम करते हैं कि हमें पछताना पड़ता है, है न? जब हम स्वार्थपूर्ण व्यवहार करते हैं तो वह हमारे लिए बड़ी-बड़ी समस्याएँ उत्पन्न करता है। मतलबी व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता।

यह है एक पक्ष। दूसरा पक्ष है कि यदि हम अपने सद्गुणों - जैसे प्रेम, करुणा, परहित चिंता - के आधार पर कर्म करते हैं, तो हम यह परख पाते हैं कि यह कृत्य हमें और अधिक आनंद तथा जीवन में अधिक संतुष्टि प्रदान करेगा: दूसरे लोग हमें पसंद करने लगेंगे; यह दूसरों को अधिक लाभ भी पहुँचाएगा। इस तथ्य की वैधता को हम, उदाहरण के लिए, अपने मित्रों के साथ अपने संबंधों में स्पष्ट देख सकते हैं। यदि हम सदा उनकी आलोचना करते रहें और उनपर क्रोध करते रहें तो कोई भी हमारे साथ रहना पसंद नहीं करेगा। परन्तु यदि हम उनके प्रति उदार रहते हैं और उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तो निश्चित रूप से उन्हें हमारा साथ बहुत अच्छा लगेगा। इसी तथ्य को हम अपनी पालतू बिल्ली और कुत्ते के साथ अपने व्यवहार में भी देख सकते हैं: उन्हें भी यह पसंद नहीं होगा कि हम उनपर हमेशा चिल्लाते रहें और उन्हें डाँटते-फटकारते रहें; उनके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा। अतः हमारे पास जो मूलभूत कार्यचालन सामग्री है हम उसका विकास कर सकते हैं। हम इन्हें सकारात्मक ढंग से अधिक से अधिक विकसित कर सकते हैं।

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि बोधिचित्त हमारे मन तथा हृदय की एक स्थिति, एक परिस्थिति है, जो इस बोधि की अवस्था की प्राप्ति पर केंद्रित है। इसका लक्ष्य ऐसी अवस्था प्राप्त करना है जिसमें हमारे भीतर बसी इन सभी कमियों और उपद्रवी तत्त्वों को सदा के लिए और पूरी तरह से नष्ट किया जा सके, और अपने सकारात्मक गुणों को उनके उच्चतम स्तर तक विकसित किया जा सके। यह एक अत्यंत असाधारण प्राप्तव्य है - हमारे मन तथा हृदय की यह अवस्था।

इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अत्यंत सकारात्मक मनोभावों की आवश्यकता है। ये मनोभाव हैं क्या? मूल रूप से इस अवस्था को प्राप्त करने का केवल यह कारण नहीं है कि यह उच्चतम अवस्था है और मैं सर्वोच्च बनना चाहता हूँ। और न ही यह कारण है कि मैं सर्वाधिक आनंदित होकर रहना चाहता हूँ और यह आनंद की सर्वोच्च अवस्था है जिसे मैं प्राप्त कर सकता हूँ। बल्कि, वास्तविकता तो यह है कि हम अन्य सत्त्वों के बारे में सोचते हैं, इस विश्व के असंख्य सत्त्वों की समष्टि: मनुष्य, पशु, इत्यादि सब के सब। हम समझते हैं कि हम सब इस अर्थ में एक-समान हैं कि हम सब सुख चाहते हैं, कोई भी दुःख नहीं चाहता। यह बात पशुओं के लिए भी सत्य है, है न? एक और सत्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने और अपने प्रियजनों के लिए अपने-अपने ढंग से आनंद प्राप्त करने की चेष्टा करता है। परन्तु दुःख की बात यह है कि हममें से कई लोगों को यह नहीं पता कि वह क्या है जिससे हम सुख प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हम तरह-तरह के प्रयास करते रहते हैं, परन्तु इन प्रयासों से प्रायः ऐसा होता है कि ये खुशी के स्थान पर अधिकाधिक समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। हम किसी के लिए कोई अच्छी चीज़ ख़रीदते हैं - उपहारस्वरूप - और उसे वह वस्तु पसंद नहीं आती। बहुत मामूली-सी बात है। हर व्यक्ति को खुश करना मुश्किल है, है न? पर फिर भी हमें प्रयास तो करते रहना चाहिए।

दूसरों का सर्वोत्तम हितचिंतक बनने के उद्देश्य से ज्ञानोदय प्राप्त करना

निश्चित रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि हमारा उद्देश्य क्या है; हम दूसरों की सहायता करना चाहते हैं: कितना अच्छा होता यदि सब अपनी-अपनी समस्याओं और उनके कारणों से मुक्त हो पाते। यही करुणा का सार है। करुणा हमारी वह कामना है कि सब लोग अपने-अपने दु:खों एवं उन दु:खों के कारणों से मुक्त हो जाएँ।

यह भी कितना अच्छा होता यदि हर व्यक्ति आनंदमय हो जाता और उसके पास आनंद के कारण भी होते। बौद्ध धर्म में यही है प्रेम की परिभाषा। प्रेम का आधार प्रतिदान की कामना नहीं है - "अगर तुम मुझसे प्रेम करोगे तो मैं तुमसे प्रेम करूँगा।" ऐसा नहीं है। यह दूसरे के व्यवहार पर आधारित नहीं है - "तुम अच्छे बच्चे बनो तो मैं तुमसे प्रेम करूँगा। यदि तुम शरारती बनोगे तो मैं तुमसे बिल्कुल प्रेम नहीं करूँगा।" इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि दूसरा व्यक्ति कैसा व्यवहार करता है। बात वह नहीं है। बात है यह विचार कि बहुत अच्छा होता यदि हर कोई सुखी होता। यह होता है प्रेम।

फिर कितना अच्छा होता यदि मैं सबको आनंद प्राप्त कराने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कर पाता और उनके दु:खों एवं समस्याओं को दूर करने में उनकी सहायता कर पाता। परन्तु बात यह है कि मेरी सीमाएँ हैं: मैं भ्रमित हूँ, मैं क्लेश-युक्त हूँ, मैं प्रायः आलस्यग्रस्त रहता हूँ, और साथ ही नौकरी भी ढूँढ़नी है, अपने लिए एक जीवनसाथी भी ढूँढ़ना है, ये और इनके अतिरिक्त और भी समस्याएँ हैं...हर प्रकार की कठिनाइयाँ जिनका सामना हम सब अपने-अपने जीवन में करते हैं। परन्तु यदि मैं उस अवस्था तक पहुँच पाता जहाँ मेरी ये सारी कमियाँ, ये समस्याएँ, सब सदा के लिए दूर हो जातीं, और यदि मैं अपनी शक्तियों की परिपूर्णता को प्राप्त कर चुका होता, तो मैं परहित की अपनी सर्वोत्तम क्षमता को भी प्राप्त कर चुका होता।

तो बोधिचित्त प्राप्ति से हम जिस उद्देश्य की पूर्ति करना चाहते हैं वह है अपनी उस भावी अवस्था की, जिसे हम "ज्ञानोदय प्राप्ति" कहते हैं, जहाँ तक पहुँचने के लिए हम एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ताकि हम इस यात्रा के दौरान रास्ते में ही दूसरों के यथासंभव उत्तम सहायक बन सकें, और एक बार वहाँ पहुँच जाएँ तो हम उनकी सर्वोत्तम सहायता करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लें।

हममें से कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं बन सकता; यह असंभव है। यदि ऐसा संभव होता तो कोई भी दुःख नहीं झेल रहा होता। ऐसे में हम बस इतना ही कर सकते हैं कि हम भरसक प्रयास करें। परन्तु दूसरों को भी चाहिए कि वे ग्रहणशील बनें और सहायता पाने के लिए प्रस्तुत रहें। हम दूसरों को चाहे कितनी भी अच्छी तरह समझाएँ, समझना तो उन्हीं को होगा; हम तो उनके स्थान पर नहीं समझ सकते। ऐसा हो सकता है क्या? हम उन्हें अच्छी सलाह दे सकते हैं, पर उसे मानना तो उनका काम है।

तो हम अपना यही लक्ष्य बनाते हैं कि हम दूसरों के सर्वोत्तम सहायक बन सकें, पर साथ ही हम यथार्थवादी भी बने रहते हैं और इस बात को समझते हैं कि हम दूसरों के सहायक बन पाते हैं या नहीं यह तो केवल उनके प्रयासों पर निर्भर है। पर यदि हम इस अवस्था तक पहुँच जाते हैं जहाँ हमारा सारा भ्रम पूर्णतया समाप्त हो जाता है और हम परहित की सबसे प्रभावी विधि को भली भाँति जान लेते हैं, तो हम उन कारकों को भी समझने लगते हैं जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।

हम सब कई कारकों से प्रभावित होते हैं - जैसे अपने परिवार से, अपने मित्रों से, उस समाज से जिसमें हम रहते हैं, और उस काल से जिसमें हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं: कभी युद्ध होते हैं तो कभी आर्थिक कठिनाइयाँ और कभी समृद्धि भी। ये सब हमें प्रभावित करते हैं। बौद्ध धर्म हमारे पूर्व एवं भावी जन्मों की बात करता है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो हम सब अपने पूर्वजन्मों से भी प्रभावित हैं। ऐसे में यदि हम किसी की सहायता करना चाहते हैं, यदि हम उन्हें अच्छी सलाह देना चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि हम सबसे पहले उन्हें जानें, उन्हें समझें - उन सभी कारकों को समझें जो उनके आचरण, व्यवहार, और उनके अनुभवों को परखने के तरीकों को प्रभावित करते हैं - अर्थात् उनमें दिलचस्पी लें, उनकी ओर विशेष ध्यान दें, और उनकी वैयक्तिक सच्चाई के प्रति संवेदनशील बनें।

मेरे विचार से इस तथ्य को आप अपने आपसी संबंधों के सन्दर्भ में सरलता से समझ सकते हैं। यदि आप अपने किसी मित्र के साथ हैं पर आपको उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, आप केवल अपने ही बारे में बात कर रहे हैं, तो आप उसके बारे में बहुत ही कम जान पाएँगे। यदि आप अपने मित्र की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं - जैसे जब आप किसी के साथ हैं पर आप अपने मोबाइल फ़ोन पर किसी दूसरे के संपर्क में रहते हैं, और आप अपने उस मित्र की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहे जो अभी आपके साथ है - तो आपका ध्यान इस बात पर भी नहीं जाएगा कि वह मित्र कुछ अधीर और अप्रसन्न हो रहा है क्योंकि आप उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इसलिए यदि हम सही मायने में किसी की सहायता करना चाहते हैं तो हमें उसकी ओर ध्यान देना होगा, उसमें दिलचस्पी लेनी होगी, जो हो रहा है उसको परखते हुए तदनुसार व्यवहार करना होगा, ठीक वैसे ही जैसे हम दूसरों से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे हमें गंभीरता से लें और हमारी ओर ध्यान दें।

आपसी समानता को समझना

एक बात समझने की यह है कि ये सारी बातें हम सबकी आपसी समानता के बोध पर आधारित हैं। जिस प्रकार मेरी भावनाएँ हैं उसी प्रकार दूसरों की भी होती हैं। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मुझपर गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाए, उसी प्रकार दूसरे भी यही चाहते हैं कि उनपर गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाए। यदि मैं दूसरों की उपेक्षा करता हूँ या उनके साथ बुरा व्यवहार करता हूँ तो उन्हें बुरा लगता है, ठीक वैसे ही जैसे मुझे तब बुरा लगता है जब लोग मेरी उपेक्षा करते हैं या मेरे साथ असभ्य व्यवहार करते हैं। हर कोई पसंद किया जाना चाहता है, ठीक वैसे ही जैसे मैं पसंद किया जाना चाहता हूँ। कोई भी अस्वीकृत या उपेक्षित नहीं होना चाहता, ठीक उसी प्रकार जैसे मैं वैसा नहीं चाहता। हम परस्पर सम्बद्ध हैं; हम सब यहाँ एक साथ हैं।

इस बात को समझाने के लिए कभी-कभी एक कौतुक भरा उदाहरण दिया जाता है: कल्पना कीजिए कि आप लगभग दस अन्य लोगों के साथ एक लिफ़्ट में हैं, और वह लिफ़्ट बीच में फँस जाती है। आप उस लिफ़्ट में इन सभी लोगों के साथ दिनभर फँसे रहते हैं। ऐसे में आप इन लोगों के साथ किस प्रकार समय बिताएँगे? यदि आप केवल अपने ही बारे में सोचते रहेंगे - मैं, मैं, मैं - और बाक़ी के लोगों के बारे में नहीं सोचेंगे तो झड़प और विवाद होंगे ही, और वह समय बड़ा ही अप्रिय बीतेगा। परन्तु यदि आप किसी भी तरह से यह भाँप लेते हैं कि: "अब चूँकि हम सब इस अवस्था में एक साथ फँसे हुए हैं और हमें परहित की चिंता करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिए कि हम किस प्रकार जीवित रहें और एक दूसरे के साथ मिलकर इस विपदा से बाहर निकलें" तो, भले ही एक दूसरे के साथ लिफ़्ट में फँसे रहना कोई अत्यंत सुखद अनुभव नहीं होगा, फिर भी हम उस परिस्थिति को संभाल सकेंगे।

अब चलिए इस उदाहरण को और आगे ले जाते हैं: हम सब इस ग्रह पर फँसे हुए हैं, जैसे मानो किसी विशाल लिफ़्ट में फँसे हुए हों, और यदि हम एक दूसरे का सहयोग नहीं करते हैं तो हमारा समय अत्यंत विषादपूर्ण बीतेगा क्योंकि सब एक ही स्थिति में हैं। जिस तरह से हम एक-दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, चाहे वह किसी लिफ़्ट में केवल दस लोगों के साथ हो या फिर इस ग्रह में जीवन व्यतीत कर रहे प्रत्येक व्यक्ति के साथ, दोनों ही अवस्थाओं में हमारा व्यवहार दूसरों को प्रभावित करेगा ही। अतः समझदारी की बात तो यही है कि हम सब एक दूसरे के साथ सहयोग करें। अर्थात्, यही सोचते रहने के बजाय कि "इस लिफ़्ट में फँसे रहने की इस भयावह स्थिति से मैं कैसे निकलूँ?" हमें यह सोचना चाहिए कि, "हम सब मिलकर इस भयावह स्थिति से कैसे बाहर निकलें?" यह पद्धति केवल लिफ़्ट वाली स्थिति के लिए ही नहीं, अपितु हमारे जीवन के लिए भी उपयुक्त है।

मैं अपने चिंतन को केवल अपनी ही समस्याओं से निपटने तक ही सीमित कैसे रख सकता हूँ (क्योंकि सच्चाई तो यह है कि मुझमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो विशेष हो; मैं तो लिफ़्ट में फँसे हुए अनेक लोगों में से केवल एक हूँ)? और सच्चाई यह भी है कि यह केवल मेरी व्यक्तिगत समस्या नहीं है: यह समस्या सबकी समस्या है। इस बात को न भूलें कि हम क्रोध, स्वार्थ, लोभ, अज्ञान...इस प्रकार की समस्याओं की बात कर रहे हैं। ये समष्टि की समस्याएँ हैं; कोई अकेला इनका भुग्तभोगी नहीं है।

सभी सत्त्वों, सम्पूर्ण जीव समष्टि को समाविष्ट करने के लिए अपने चित्त का विस्तार करना

यही कारण है कि जब हम बोधिचित्त की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय एक सार्वभौमिक प्रकार के मन और हृदय से होता है। हम सबके बारे में सोचते हैं बिना किसी को मनचाहा बनाए और बिना किसी की उपेक्षा किए। तो यह एक अति व्यापक मनोदृष्टि, मनोदशा है। जब हम अपने चित्त के विस्तार की बात करते हैं तो यह उस विस्तारित अवस्था की पराकाष्ठा है। हम सबके बारे में सोचते हैं, न कि, उदाहरण के लिए, केवल इस ग्रह में बस रहे मनुष्यों के, यानी इस ग्रह के सभी जीवित प्राणियों के, इस ब्रह्माण्ड के सभी जीवित प्राणियों के बारे में। पर्यावरण क्षरण की ही बात ले लीजिए - यह न केवल इस धरती पर बसे मनुष्यों को अपितु यहाँ के सभी पशुओं के जीवन को भी प्रभावित करता है, है न?

इस प्रकार हम जिसपर विचार कर रहे हैं उसका विषय-क्षेत्र अति विस्तृत है। हमारी विषय-वस्तु इस अर्थ में अत्यंत विस्तृत है कि हम दीर्घकालीन समाधान की बात करते हैं, न कि त्वरित सुधार वाले किन्हीं अल्पकालिक उपायों की। इसके अतिरिक्त जब हम अपनी क्षमता की बात करते हैं तो हम अपने क्षमता-बोध के विस्तृत विषय-क्षेत्र की बात करते हैं; यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं अपितु विशालतर से यथासंभव विशालतम की बात है।

जैसा मैंने पहले कहा था यह अपने प्रति आदर-भाव पर आधारित है। हम इस बात का अनुभव करते हैं कि हमारे, तथा अन्य सभी के, पास इस अवस्था की प्राप्ति हेतु आवश्यक कार्यचालन सामग्री है। इसलिए हम अपने विषय में गंभीर दृष्टिकोण रखते हैं तथा दूसरों को भी गंभीरता से लेते हैं, और हम अपना एवं दूसरों का सम्मान भी करते हैं – हम सब मनुष्य हैं, हम सभी सुखी रहना चाहते हैं, कोई भी दु:खी नहीं होना चाहता। परन्तु यह निर्भर करता है हमारे कर्मों पर और हमारी जीवनयापन की शैली पर।

ध्यान द्वारा लाभप्रद मनोदशाओं एवं आदतों का विकास 

इन मनोदशाओं के विकास के मार्गों की बहुलता के दृष्टिकोण से बौद्ध धर्म अत्यंत समृद्ध है। यह केवल इतना कहकर समाप्त नहीं हो जाता कि "सबसे प्रेम करो"। सबसे प्रेम करो कह देना तो ठीक है पर बात यह है कि इसे व्यावहारिक रूप कैसे दिया जाए। इसके लिए हमारे पास जो मार्ग है वह है ध्यान-साधना। और ध्यान-साधना का उद्देश्य है किसी हितकर प्रवृत्ति को विकसित करना। जैसे यदि हम कोई खेल खेलना चाहते हैं या कोई वाद्य यंत्र बजाना चाहते हैं तो हमें अभ्यास करना होता है। हम उसका तब तक अभ्यास करते रहते हैं जब तक उसमें पारंगत नहीं हो जाते। अभ्यास से हम प्रवीणता प्राप्त करते हैं और फिर एक ऐसा समय आता है जब उसके बारे में हमें सोचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती; हम उस खेल को अच्छी तरह खेल पाते हैं या उस वाद्य यंत्र को बड़ी आसानी से बजा पाते हैं।

इसी तरह, हम अपनी मनोदृष्टि को प्रशिक्षित करने के लिए भी ऐसा ही करते हैं। ध्यान-साधना के द्वारा हम यही करते हैं। हम एक विशिष्ट भावना, एक विशिष्ट मनोभाव पैदा करने के लिए अपनेआप को तैयार करते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा आप किसी खेल के लिए अपनेआप को प्रशिक्षित करते हैं: सबसे पहले अपने शरीर को तैयार करने के लिए कुछ व्यायामों के द्वारा गरमाना पड़ता है, और उसके बाद आप अपना वास्तविक अभ्यास आरम्भ करते हैं। तो अब हम अपनी मनोदशा के बल पर आरम्भिक अभ्यास करते हैं।

यदि हमारे विचारों में बिखराव है या हमारी भावनाओं में उलझाव है, तो अपने चित्त को एक सकारात्मक दशा में लाने के लिए हमें सबसे पहले उसे तथा अपनी भावनाओं को शांत करना होगा। इसके लिए हम प्रायः अपने श्वसन पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हमारी साँसें तो चलती रहती हैं, और ऐसे में यदि हम उनपर ध्यान केंद्रित करते हैं तो वह हमारे चित्त को साँसों की लय से समतान करके उसे शांत कर देता है और, जब हमारे विचार "चंचल" हो जाते हैं तो यह अभ्यास हमें अपने शरीर से जोड़ देता है। यह है हमारे चित्त को तैयार करने का मूल व्यायाम।

अब हम अपनी प्रेरणा के संदर्भ में सोचते हैं। मैं ध्यान-साधना क्यों करना चाहता हूँ? यह भी आरम्भिक अभ्यासों का एक भाग है। ठीक वैसे ही जैसे यदि हम किसी खेल का अभ्यास करते हैं या गाना बजाना सीखते हैं तो यह अत्यंत आवश्यक होता है कि हम इस बात को समझें और उसकी पुनरीक्षा करें कि: "मैं इसे क्यों कर रहा हूँ?" भले ही हम इसे मनोविनोद में कर रहे हों और हमें इसे करना अच्छा लगता हो, फिर भी हमें अपनेआप को लगातार याद दिलाते ही रहना पड़ता है क्योंकि प्रशिक्षण अत्यंत कठोर परिश्रम होता है। इसलिए हम इस बात की पुनःपुष्टि करते हैं कि मैं ध्यान-साधना के द्वारा किसी भी सकारात्मक व्यवहार को क्यों बढ़ावा देना चाहता हूँ। इसका कारण यह है कि यह मुझे अपने जीवन की समस्याओं से बेहतर तरीके से निपटने में सहायता करेगा - उदाहरण के लिए, मैं जल्दी से आवेश में न आ जाऊँ। यदि मैं सदा क्रोधित रहूँगा तो संभवतः मैं किसी दूसरे की सहायता नहीं कर पाऊँगा। यदि मैं भावात्मक स्तर पर अस्थिर हूँ तो मैं किसी की सहायता नहीं कर सकता।

यही कारण है कि हम इन प्रारम्भिक अभ्यासों को करते हैं। अब हम वास्तविक ध्यान-साधना की ओर चलते हैं: हम अपनी वांछित मनोदशा उत्पन्न करने के लिए विशेष प्रकार का मनन करते हैं। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब हम इसे अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़ने के लिए ऐसा करते हैं। हम किसी कोरे अमूर्त सिद्धांत की बात नहीं कर रहे होते: हम बात कर रहे होते हैं उन ठोस कदमों की जो हमें अपने जीवन जीने में सहायक हो सकते हैं।

एक उदाहरण

मान लीजिए कि हमारे एक मित्र ने हमारे साथ बहुत ही अप्रिय व्यवहार किया है - उसने कोई कटु बात कह दी, हमें फ़ोन नहीं किया, हमारी अनदेखी की, या कुछ लोगों ने हमारा मज़ाक उड़ाया। ऐसी अप्रिय बातें तो सबके साथ हुआ करती हैं। ऐसे में हमारी प्रतिक्रिया होती है उस बात का बुरा मान लेना और उस व्यक्ति से नाराज़ हो जाना, विशेष रूप से यदि हम उसे अपना मित्र मानते हों।

अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने चित्त को शांत करने के बाद हम अपनी ध्यान की अवस्था में इस अवस्था की जाँच करते हैं। हम इस बात की पुनःपुष्टि करते हैं कि यह मेरा मित्र, मेरा सहपाठी – यह व्यक्ति मुझ जैसा ही है: वह भी सुखी रहना चाहता है और दुःखी नहीं होना चाहता। अब हो सकता है कि वह किसी बात से परेशान होने के कारण मेरे साथ ऐसा अप्रिय व्यवहार कर रहा हो, या फिर हो सकता है उसके मन में मुझे लेकर कोई भ्रम हो - उसने मेरे सद्गुणों को ठीक से समझा ही न हो - जिसके कारण उसने मेरी खिल्ली उड़ाई। उससे क्रोधित होना, खिन्नचित्त  होना – इस सबसे कोई लाभ नहीं होने वाला। इसके बजाय, मैं यह चाहूँगा कि उसकी जो भी परेशानी है वह उससे छुटकारा पा ले ताकि वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार करे, ताकि हम दोनों - मैं और वह - सुखी हो जाएँ।

अतः क्रोधित होने के बजाय हम अपने मन में उसके प्रति प्रेम और करुणा का अनुभव करते हैं: “बहुत अच्छा होता यदि उसे परेशान करने वाले सभी कारणों से वह मुक्त हो जाता। ऐसा हो कि वह सुखी रहे। यदि वह सुखी रहता तो ऐसा अप्रिय व्यवहार न करता।" इस प्रकार हम उसके प्रति क्रोध के बजाय प्रेम की भावना पैदा करने के लिए अपनेआप को तैयार करते हैं। ऐसा करने से हम उसकी परिस्थिति के प्रति अधिक सहनशील बन जाते हैं। साथ ही यदि उसके प्रति हम अधिक शांत और प्रेमपूर्ण और क्षमाशील ढंग से व्यवहार करते हैं तो हमारे इस व्यवहार से उसे भी शांत होने में सहायता मिलेगी और स्थिति को बड़े ही सहज रूप से सम्भाला जा सकता है।

दूसरे हम पर जो कीचड़ उछालते हैं उसे अपना अपमान न समझना

एक बार बुद्ध ने अपने किसी शिष्य से पूछा, "यदि कोई तुम्हें कुछ देता है पर तुम उसे स्वीकार नहीं करते हैं तो वह किसका होता है?" यदि आप उसे स्वीकार नहीं करते हैं तो स्पष्टतः वह देने वाले का ही बनकर रह जाता है। इसलिए यदि कोई आपको अप्रिय और और नकारात्मक भावों की अनुभूति कराता है, कोई आपकी भर्त्सना आदि करता है तो यह महत्त्वपूर्ण है कि उसे स्वीकार न किया जाए और न ही उसे अपना अनादर माना जाए - दूसरे शब्दों में, उस घटना को केवल उस दूसरे व्यक्ति के दुःख के स्रोत के रूप में देखा जाए। निस्संदेह यदि कोई हमारी आलोचना करता है तो यह आवश्यक है कि हम अपनेआप को जाँचें कि कहीं वह व्यक्ति किसी ऐसी बात की ओर इशारा तो नहीं कर रहा जिसपर मुझे ध्यान देना चाहिए। अतः हम उस बात की उपेक्षा तो नहीं करते हैं, परन्तु ऐसा भी न हो कि हम किसी गेंद पकड़ने वाले की तरह बन जाएँ कि जैसे ही किसी ने कीचड़ का गोला या कोई घृणित विचार हमारी ओर उछाला हम उसे पकड़ने के लिए लपक पड़े।

कभी-कभी हम ऐसा ही व्यवहार करते हैं, है न, कि लोगों के द्वारा हमारी ओर उछाले गए कीचड़ - गालियों, तेवर, इत्यादि - को लपकने के लिए हम आतुर रहते हैं। यद्यपि ऐसा करना आसान नहीं है फिर भी हम प्रयास तो यही करते हैं कि हम इन बातों को अपने व्यक्तिगत तिरस्कार के रूप में न लें, यानी मेरी  तौहीन, अपितु उस समस्या के रूप में लें जिससे वह व्यक्ति जूझ रहा है। दूसरे शब्दों में, उस व्यक्ति को घृणा के योग्य मानने के स्थान पर हम उसे ऐसे समझें कि: "ओह, उसे कुछ परेशान कर रहा है। उसके साथ कुछ ग़लत हो रहा है।"

यह किसी दो या तीन वर्ष के ऐसे बच्चे की देखभाल करने जैसा है जो बहुत अधिक थक गया है पर सोना नहीं चाहता। हम उससे कहते हैं, "बच्चे, अब सोने का समय हो गया है," और वह बच्चा कहता है, "मैं तुमसे घृणा करता हूँ!" ऐसे में क्या हम उस बच्चे की इस नासमझी को अपनी व्यक्तिगत तौहीन मान लेते हैं? बच्चा थककर चूर हो गया है और इसलिए हम उसके अप्रिय शब्दों को अपने अनादर के रूप में नहीं लेते हैं अपितु और अधिक धैर्य के साथ बच्चे की ओर अधिक प्रेम-भाव रखते हुए उसे शांत करने का प्रयास करते हैं।

ध्यान-साधना में हम एक रचनात्मक तरीक़े से उस दूसरे व्यक्ति को परखने का प्रयास करते हैं जो हमारे लिए समस्याएँ खड़ी करता है, और इस जटिल परिस्थिति में उसके प्रति अधिक क्षान्ति (धैर्य), प्रेम, एवं सकारात्मक मनोदृष्टि विकसित करने का अभ्यास करते हैं, ताकि वास्तविक जीवन में ऐसी स्थितियों का हम बेहतर ढंग से सामना कर सकें। अतः, संक्षेप में, ध्यान-साधना और अन्य साधनों के द्वारा बोधिचित्त की इस अद्भुत अवस्था को प्राप्त एवं सिद्ध करने के लिए हमें प्रयत्न करना होगा, क्योंकि इस बोधिचित्त के द्वारा ही हम परहित हेतु भरसक प्रयास करने का दायित्व उठा सकते हैं, ताकि हम अपनी कमियों को यथासंभव दूर करके अपनी क्षमताओं को साकार कर सकें। क्योंकि जब मैं दूसरों को सुख देने के लिए प्रयास करता हूँ तो निश्चित रूप से मैं सबसे अधिक सुखी भी हो जाता हूँ। पर यदि मैं दूसरों के सुख को ताक पर रखकर या उसकी अवहेलना करते हुए केवल अपने ही सुख के लिए काम करूँगा तो हम सब दुःखी होंगे।

अभी आप जवान हैं, छात्र हैं, अपनी सामर्थ्य, अपनी क्षमताओं का आदर करना सीखने का यही उत्तम समय है, और इस बात को समझने का भी कि आप उस कार्यचालन सामग्री से युक्त हैं जिससे आप नकारात्मक गति की ओर बढ़ने या गतिहीन रहने के बजाय सकारात्मक गति को प्राप्त कर पाते हैं। हम इस संसार में अकेले नहीं हैं; सूचना, सोशल मीडिया इत्यादि के इस युग में हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अर्थात् हम अधिक से अधिक सकारात्मक ढंग से अपना विकास कर सकते हैं जिससे समष्टि पर रचनात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

ये यह थे बोधिचित्त पर कुछ विचार। अब हमारे पास कुछ प्रश्न आमंत्रित करने का समय है।

बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से प्रेम क्या होता है

क्या आप बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से प्रेम के सम्बन्ध, विशेष रूप से स्त्री-पुरुष संबंध, के विषय में कुछ और कह सकते हैं?

जब हम बौद्ध दृष्टिकोण से प्रेम की बात करते हैं, तो जैसा कि मैंने अपनी चर्चा में उल्लेख किया है, किसी अन्य के सुखी होने तथा सुख के कारणों से युक्त होने की कामना ही प्रेम है। इसका अर्थ है दूसरे व्यक्ति को उसकी सम्पूर्णता में, अर्थात् उसके गुण-दोषों के सहित स्वीकार करना। साथ ही मेरी कामना कि वह सुखी रहे इस बात पर निर्भर नहीं करती कि उसने मेरे साथ किस  प्रकार का व्यवहार किया है। किसी भी बात को तूल दिए बिना मैं यही चाहता हूँ कि वह खुश रहे, और इसके लिए मुझे चाहे उसके रास्ते से हटना ही क्यों न पड़े।

प्रायः प्रेम कामना से युक्त हो जाता है (कामना तब उत्पन्न होती है जब हमारे पास कुछ नहीं होता और हम उसे प्राप्त करना चाहते हैं)। यह प्रेम आसक्ति से भी युक्त हो सकता है (हमारे पास कुछ है पर हम उसे त्यागना नहीं चाहते) और लोभ से भी (मित्र के रूप में कोई व्यक्ति हमारे साथ है, जिसे प्रेम करते हैं और हम उसे अधिकाधिक रूप से प्राप्त करना चाहते हैं)। इन सबका आधार है केवल उनके सद्गुणों को देखना, उन्हें बढ़ा-चढ़कर प्रस्तुत करना, और उनकी कमियों को अनदेखा करना। और उनके सद्गुण केवल ये हो सकते हैं कि वे मुझे पसंद करते हैं, मुझे उनका साथ अच्छा लगता है, वे मन-मोहक हैं, उन्हें देखकर काम-भावना जाग्रत होती है, इत्यादि। हम उस व्यक्ति के एक लघु पक्ष पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं जिसे, अन्य विशेषताओं की तुलना में, हम अत्यधिक तूल देने लगते हैं। अब यह कोई बहुत यथार्थवादी मनोदृष्टि नहीं हुई। इसके अतिरिक्त यह उस बात पर भी निर्भर करता है कि वह व्यक्ति मेरे साथ कैसा व्यवहार करता है: यदि वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है तो मैं उससे प्रेम करता हूँ; और यदि वह मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं करता तो मैं उससे प्रेम करना बंद कर देता हूँ। यह कोई स्थायी प्रकृति का प्रेम तो नहीं हुआ।

जैसा कि मैंने कहा, स्थायी प्रकृति का प्रेम - जिसका बौद्ध धर्म में उल्लेख है - वह प्रेम है जिसमें हम किसी भी व्यक्ति के अच्छे तथा नकारात्मक पक्ष दोनों को स्वीकार करते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे और बुरे पहलू होते हैं; कोई भी आदर्श या परिपूर्ण नहीं होता। अब समस्या यह है कि हममें से कई लोग अभी भी परियों की कहानियों में विश्वास करते हैं। परियों वाली इन कहानियों में किसी सफ़ेद घोड़े पर बैठा कोई सजीला राजकुमार या राजकुमारी होती है जो अत्यंत परिपूर्ण होती है। ऐसे में हम किसी राजकुमार या राजकुमारी की तलाश में लगे रहते हैं और हम उस मनःकल्पित राजकुमार या राजकुमारी को हर उस व्यक्ति पर प्रक्षेपित करते हैं जिनसे हम प्रेम करते हैं। पर दुर्भाग्यवश वह केवल एक परियों वाली कथा मात्र होती है और, फ़ादर क्रिसमस की भाँति, उसका भी कोई ठोस अस्तित्व नहीं होता।

परन्तु यह कोई  सुखद अनुभूति नहीं होती; इसे स्वीकार करना बहुत कठिन है। किन्तु यह भी सच है कि हम कभी हार नहीं मानते: "यह व्यक्ति कोई राजकुमार या राजकुमारी नहीं निकला, पर हो सकता है अगला ऐसा ही हो।" जब तक हम सफ़ेद घोड़े पर बैठे राजकुमार या राजकुमारी के बारे में सोचते रहेंगे और उसकी तलाश में लगे रहेंगे तब तक हमारे प्रेम संबंधों में समस्याएँ आती रहेंगी क्योंकि ऐसा कोई भी परिपूर्ण और दोषमुक्त साथी हमें नहीं मिलेगा जो हमारे आदर्शों पर खरा उतर पाए। जब वह व्यक्ति राजकुमार या राजकुमारी की तरह व्यवहार नहीं करता तो हमें ग़ुस्सा आता है। ऐसे में इसका यही अर्थ हुआ कि हम इस वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर रहे हैं कि वह भी हमारे ही जैसा मनुष्य है और उसमें भी गुण और अवगुण दोनों ही हैं। तो वास्तविक प्रेम या स्थिर प्रेम सामने वाले की वास्तविकता को स्वीकार कर लेने पर आधारित है।

हम जिस व्यक्ति के प्रेम-पाश में बंधते हैं उसकी वास्तविकता का एक और आयाम यह है कि उसके जीवन में केवल हम ही नहीं है, जिसे इसे हम प्रायः भूल बैठते हैं। हम प्रायः इस बात की अवहेलना कर देते हैं कि उसके जीवन में हमारे साथ रहने के अलावा और भी बहुत कुछ है - उसके दूसरे मित्र हैं, उसका परिवार है, उसके अनेक अन्य दायित्व भी हैं। अन्य कई बातें जो उसके जीवन का हिस्सा हैं; हम उसके जीवन का अनन्य हिस्सा नहीं हैं। ऐसे में जब वह दूसरे लोगों के साथ समय बिताता है तो उस बात को लेकर ईर्ष्यालु या दुःखी होना पूर्णतया अतार्किक बात है। उदाहरण के लिए, जब उसकी मनोदशा बिगड़ जाती है या वह मेरे साथ समय बिताना नहीं चाहता, तो यह केवल मेरे कारण नहीं होता। उसके प्रत्येक मनोविकार या कृत्य का कारण मैं नहीं होता। यदि उसकी मनोदशा बिगड़ी हुई होती है, तो यह हो सकता है उनके परिवार में चल रही घटनाओं से प्रभावित हो; या फिर हो सकता है यह उसके दोस्तों के कारण हो; या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसका स्वास्थ्य ही ठीक न हो; यह कई कारणों से प्रभावित हो सकता है। मैं ऐसा क्यों सोचूँ कि इस दूसरे व्यक्ति के सभी मनोविकारों के लिए मैं ही एक अकेला उत्तरदायी हूँ?

इसी तरह, यदि मेरा इस व्यक्ति के साथ दीर्घकालिक संबंध है तो हमारी दैनिक आपसदारी में बातें होती रहेंगी। प्रायः ऐसा होता है कि "उसने मुझे आज फ़ोन नहीं किया। उसने मेरे संदेशों का जवाब नहीं दिया," और हम इस एक बात के महत्त्व को अतिरंजित कर लेते हैं; हम उसे अपने लम्बे समय से चले आ रहे सम्बन्ध के सन्दर्भ में नहीं देखते। इस एक घटना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वह अब मुझसे प्रेम नहीं करता। वास्तव में यह अत्यंत अदूरदर्शिता का लक्षण है - केवल एक छोटी-सी बात को सम्बन्ध की सम्पूर्णता से हटकर अलग-थलग रूप में परखना।

सच्चाई तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन, मनोदशा, इत्यादि में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि यह व्यक्ति, जिसे मैं प्रेम करता हूँ, कभी मेरे साथ रहना चाहता है और कभी नहीं। कभी तो उसकी मनोदशा अच्छी होती है और कभी बुरी। जब उसकी मनोदशा बुरी होती है - या जब वह अत्यधिक व्यस्तता के कारण मेरे सन्देश का तत्काल उत्तर नहीं दे पाता है - तो उसका अर्थ अनिवार्यतः यह नहीं होता कि वह हमसे प्रेम नहीं करता; ये सब जीवन के विभिन्न रूप हैं।

यदि हम अपने प्रेम संबंधों में स्थिरता लाना चाहते हैं तो ये ही कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें जानना और समझना अत्यंत आवश्यक है; अन्यथा, भावात्मक उथल-पुथल मच जाती है।

एक महान भारतीय बौद्ध-धर्मी गुरु द्वारा दिया गया एक बहुत ही उत्तम उदाहरण है। उन्होंने कहा कि दूसरों के साथ हमारे संबंध हवा में उड़ते उन पत्तों की तरह हैं जो पतझड़ में पेड़ से झड़ जाते हैं। कभी-कभी ये पत्ते हवा में साथ-साथ उड़ते हैं; कभी-कभी अलग-अलग। यह जीवन का एक रूप है। ठीक इसी प्रकार किसी के साथ चाहे कोई भी रिश्ता क्यों न हो - हो सकता है वह जीवन भर निभ जाए या फिर वह निभे ही न।

इस दूसरे व्यक्ति को एक ऐसी जंगली चिड़िया की तरह देखना चाहिए जो हमारी खिड़की पर बैठने के लिए आई है। एक सुन्दर वन्य पक्षी हमारी खिड़की पर आया है और यह कितनी अद्भुत बात है। इस चिड़िया का मेरे पास आना कितनी सुन्दर, कितनी खुशी की बात है। पर निश्चित रूप से वह उड़ जाएगी: आखिर वह स्वतंत्र जो है। और यदि वह चिड़िया फिर से मेरी खिड़की पर आती है, तो वह भी कितनी अनोखी बात है, और मैं कितना भाग्यशाली हूँ। पर यदि मैं उसे पकड़कर किसी पिंजरे में डालने का प्रयास करता हूँ तो वह चिड़िया बहुत दुखी हो जाएगी और हो सकता है कि वह मर भी जाए।

तो यही बात उस व्यक्ति पर भी लागू होती है जो हमारे जीवन में आता है और जिससे हम प्रेम करते हैं। वह इस सुंदर वन्य पक्षी की तरह होता है। वह हमारे जीवन में आता है, और साथ में आनंद और सौंदर्य भी लाता है। पर वह है मुक्त, किसी जंगली चिड़िया की तरह। यदि हम उसे पकड़कर अपने साथ रखने का प्रयास करते हैं मानो वह हमारी निजी सम्पत्ति हो, और हम लगातार उसके पीछे पड़े रहते हैं - "तुमने मुझे फ़ोन क्यों नहीं किया? तुम मुझसे मिलने क्यों नहीं आए? तुम मेरे साथ और अधिक समय क्यों नहीं बिताते?" - यह उस वन्य पक्षी को पिंजरे में डालने जैसा होगा। वह बच निकलने का यथासंभव प्रयास करेगा। यदि वह पक्षी हमारे साथ रह भी लेता है, जैसे यह व्यक्ति अपराध-बोध से हमारे साथ रह लेता है, तो वह बहुत ही दु:खी होकर रहेगा।

यह अत्यंत उपयोगी विचार है - हम जिस व्यक्ति के प्रेम-पाश में बंध जाते हैं उसे इस सुन्दर जंगली चिड़िया की तरह समझना चाहिए। हम जितना अधिक निश्चिंत होंगे - जितना कम उसे पकड़कर बैठे रहेंगे - वह जंगली चिड़िया हमारी खिड़की पर उतनी ही अधिक बार आना चाहेगी। 

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